Saturday 31 August 2019

अमृता प्रीतम की कविता - वसीयत / विजय शंकर सिंह

अपने पूरे होश-ओ-हवास में
लिख रही हूँ आज
मैं वसीयत अपनी

मेरे मरने के बाद
खंगालना मेरा कमरा
टटोलना, हर एक चीज़
घर भर में, बिन ताले के
मेरा सामान बिखरा पड़ा है

दे देना मेरे ख़्वाब
उन तमाम स्त्रियों को
जो किचेन से बेडरूम
तक सिमट गयी
अपनी दुनिया में गुम गयी हैं
वे भूल चुकी हैं सालों पहले
ख़्वाब देखना ।

बाँट देना मेरे ठहाके
वृद्धाश्रम के उन बूढों में
जिनके बच्चे
अमरीका के जगमगाते शहरों में
लापता हो गए हैं ।

टेबल पर मेरे देखना
कुछ रंग पड़े होंगे
इस रंग से रंग देना उस बेवा की साड़ी
जिसके आदमी के खून से
बॉर्डर रंगा हुआ है
तिरंगे में लिपटकर
वो कल शाम सो गया है ।

आंसू मेरे दे देना
तमाम शायरों को
हर बूँद से
होगी ग़ज़ल पैदा
मेरा वादा है ।

मेरा मान , मेरी आबरु
उस वैश्या के नाम है
बेचती है जिस्म जो
बेटी को पढ़ाने के लिए

इस देश के एक-एक युवक को
पकड़ के
लगा देना इंजेक्शन
मेरे आक्रोश का
पड़ेगी इसकी ज़रुरत
क्रांति के दिन उन्हें ।

दीवानगी मेरी
हिस्से में है
उस सूफी के
निकला है जो
सब छोड़कर
खुदा की तलाश में ।

बस,
बाक़ी बची
मेरी ईर्ष्या
मेरा लालच
मेरा क्रोध
मेरा झूठ
मेरा स्वार्थ
तो
ऐसा करना
उन्हें मेरे संग ही जला देना ।

( अमृता प्रीतम )
●●●
( विजय शंकर सिंह )

परमाणु बम से बचाव का एक ही उपाय है इसे ही नष्ट कर दिया जाय / विजय शंकर सिंह

अल्बर्ट आइंस्टीन से एक बार एक पत्रकार ने पूछा कि
" तीसरा विश्वयुद्ध, अगर हुआ तो वह किन हथियारों से लड़ा जाएगा ? "
आइंस्टीन ने मुस्कुराते हुये कहा,
" तीसरा विश्वयुद्ध किन हथियारों से लड़ा जाएगा, यह तो मैं नहीं बता पाऊंगा, पर अगर उसके बाद लोग बचे और किन्ही कारणों से चौथा विश्वयुद्ध होगा तो, वह ईंट और पत्थरों से लड़ा जाएगा । "

अल्बर्ट आइंस्टीन एक वैज्ञानिक ही नहीं थे, बल्कि एक मानवतावादी भी थे। उनके कहने का आशय यह था कि तीसरा युद्ध अगर उनके समय मे ही उपलब्ध हथियारों से लड़ा गया तो विश्व का विनाश निश्चित है। जन,धन, वनस्पति सबका विनाश होगा। यह महाविनाश होगा। युद्ध सीमा पर ही नहीं, आकाश पाताल सर्वत्र लड़ा जाएगा। युद्ध मे परमाणु बमों, या हो सकता है इससे भी घातक बम आज कहीं न कहीं किसी देश के शस्त्रागार में रखे हों, का प्रयोग होगा तो महाविनाश के अतिरिक्त कुछ भी नहीं बचेगा।

6 अगस्त 1945 में पहला परमाणु बम जापान के हिरोशिमा पर यूएस ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान फेंका था। फिर नागासाकी पर। दोनों ही शहर तुरन्त बरबाद हो गए और आज तक, उस हृदयविदारक घटना के 75 साल बाद भी, उन परमाणु बमों से उत्पन्न घातक विकिरण समाप्त नहीं हुआ है। वे बम 20 टीएनटी ( ट्राई नाइट्रो टॉलवीं ) की क्षमता के थे। अब तो बम संसार मे हैं वह इनसे कई गुना मारक क्षमता के हैं। वह परमाणु बमों का एक प्रकार से प्रयोग था। यूएस ने शायद जापान को गिनी पिग समझ रखा था। हो सकता है, यूएस को भी इतने बड़े पैमाने के  विनाश का अंदाज़ा न रहा हो। क्योंकि वह संसार का पहला परमाणु बम परीक्षण था। यह अंतिम भी हो, यही कामना है। पर जब दुनिया ने विनाश का यह भयावह मंजर देखा तो दुनिया का परमाणु बमों के प्रति नज़रिया भी बदला। कई कानून बने।

ज़ी न्यूज़ के सुधीर चौधरी ने कल अपने चैनल पर एक कार्यक्रम किया क़ि, परमाणु बम के हमले से कैसे बचें। उनका यह कार्यक्रम बचकाना था। बजाय इसके कि परमाणु हमले में कैसे बचें यह बताने के उन्हें यह बताना चाहिये कि भारत पाक के बीच पनप रहा यह तनाव कैसे कम हो। उनका यह उपाय ऐसे ही है, जैसे वे मलेरिया और डेंगू फैलाने वाले मच्छरों से बचने का उपाय सुझा रहे हों। ऐसा भी नहीं कि जी न्यूज को परमाणु विभीषिका का अंदाज़ा नहीं है। पर जब सोच डॉन क्विकजोट की तरह, असल जन समस्याओं से ध्यान हटा कर काल्पनिक शत्रु गढ़, उससे उलझने और लड़ने की हो जाती है तो और कोई चारा ही नहीं शेष रहता है ।

इसी कार्यक्रम में, सुधीर चौधरी यह मशविरा दे रहे हैं कि जब तक मदद न पहुंचे बाहर न निकले। लेकिन मदद करने बाहर से आएगा कौन, यह सुधीर नहीं बता रहे हैं। मिनटों में हिरोशिमा और नागासाकी आग के जलते गोले में बदल गया था। न कोई बचने वाला था और न कोई बचाने वाला। आज भी उस महाविनाश के अवशेष वहां पर हैं।

ज़ी न्यूज़, घटती जीडीपी, बढ़ती बेरोज़गारी, बिगड़ती अर्थव्यवस्था, टूटता बैंकिंग सेक्टर, महीने भर से अनायास थोपे गये कारावास का दंड भोग रहा कश्मीर की आम जनता, नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन, ( एनआरसी ) के कुछ निर्णयों से धीरे धीरे ज्वलनविन्दु की ओर बढ़ता आसाम और नॉर्थ ईस्ट के अन्य राज्य, आदि बड़ी समस्याएं नहीं देख पाता है। वह अंधा नहीं है। वह देखता है यह सब। पर वह इन पर चर्चा नहीं कर सकता। यह उसकी मजबूरी है। यह वह भी जानता है और हम आप भी। तब वह कुछ काल्पनिक शत्रु गढ़कर उसी में उलझता है पर हम आप तो न उलझें। परमाणु बम से बचने का एक ही उपाय है, इस की नौबत ही न आने दे। दुनियाभर के परमाणु सम्पन्न देश इस महाविनाश से अनभिज्ञ नहीं हैं।

© विजय शंकर सिंह

Thursday 29 August 2019

टॉलस्टॉय के उपन्यास, युद्ध और शांति के संदर्भ में, पढ़ने लिखने का अधिकार / विजय शंकर सिंह

टॉलस्टॉय द्वारा लिखा उपन्यास, युद्ध और शांति  एक कालजयी उपन्यास है। क्लासिक कहा जाता है इसे। लगता है, रूस के जारशाही के दौरान नेपोलियन के रूसी आक्रमण की पृष्ठभूमि पर लिखे गए इस महान उपन्यास का अब रखना जुर्म हो गया है। भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में महाराष्ट्र पुलिस ने असली मुल्ज़िम को छोड़ कुछ बुद्धिजीवी लोगों को नक्सल कर कर पकड़ा है और उन पर मुक़दमा चल रहा है। उसी में एक व्यक्ति हैं वर्नन गोंजावेल्स। उनके पास कुछ पुस्तकें मिली हैं जिनमे लियो टॉलस्टॉय की लिखी पुस्तक वॉर एंड पीस और द मार्क्सिस्ट आर्काइव्स है। विद्वान जज, ( इन्हें विद्वान कहना एक कोर्टरूम औपचारिकता है ) ने कहा कि यह किताब तो युद्ध की बात करती है और यह दूसरे देशों के युद्ध के बारे में है यह क्यो आप ने अपने पुस्तकालय में रखा है ? अब गोंजावेल्स क्या जवाब देते, या क्या जवाब दिया यह पता नहीं।

गोंजावेल्स को पुणे पुलिस द्वारा अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया था। इसी अपराध की विवेचना के दौरान उनके घर, कार्यालय और अन्य ठिकानों पर छापा और तलाशी ली गयी। पुलिस का कहना है कि 31 दिसंबर 2017 को इन्होंने हिंसा भड़काने वाले भाषण दिये और लोगों को उत्तेजित किया। उनके इस भाषण से, भीमा कोरेगांव में हिंसक घटना भड़की जिससे एक व्यक्ति की मृत्यु हुयी और कई घायल हुए। यह घटना भीमा कोरेगांव के युद्ध के 200 वी जयंती पर मनाए जा रहे समारोह के दौरान घटी थी। 200 साल पहले हुये अंग्रेजों और मराठों के युद्ध मे दलित महार समाज ने मराठों के विरुद्ध अंग्रेजों का साथ दिया था, जिसमे अंग्रेज विजयी हुए थे। इस युद्ध को महार समाज अपने गौरव से जोड़ कर देखता है।

युद्ध और शांति उपन्यास हममें से बहुतों ने पढ़ा होगा। टॉलस्टॉय एक उपन्यासकार ही नहीं थे, बल्कि वे दार्शनिक दृष्टि सम्पन्न लेखक थे। उन्होंने यही एक उपन्यास नहीं, बल्कि अन्ना कैरेनिना, रिजरेक्शन, अपनी आत्मकथा पर आधारित उपन्यास, और विपुल लेख तथा कहानियां लिखी हैं। दुनिया की शायद ही कोई भाषा ऐसी हो जिसमें उनके उपन्यास और कहानियो का अनुवाद न हुआ हो। दुनियाभर के विचारकों पर उनका प्रभाव पड़ा है। यही नहीं दुनियाभर का बौद्ध साहित्य, भारत से ही जगह जगह गया है।

यह सवाल एक मौलिक प्रश्न उठाता है कि हम क्या पढें, यह भी अब राज्य तय करेगा ? यह सवाल न केवल संविधान की भावना के विरुद्ध है बल्कि यह एक प्रकार का पढ़ने लिखने की आज़ादी पर राज्य का अतिक्रमण है। यह भी कहा जा सकता है कि इस सवाल को गंभीरता से लेने की ज़रूरत नही है यह एक सामान्य कोर्ट रूम की पूछताछ है। पर यह पूछताछ अदालत में हुयी है और पूछने वाला पीठासीन अधिकारी, संविधान के प्रविधान ने परिचित ही नहीं बल्कि उसके विद्यार्थी रहे हैं। भीमा कोरेगांव के मामले में जिन्हें अर्बन नक्सल कहा जा रहा है, उन्हें अर्बन नक्सल साबित करने के लिये पुलिस और अभियोजन ने इन किताबो के रखने और पढ़ने को इस अपराध के सुबूत के रूप में अदालत में पेश किया है।

गोंजावेल्स को पुणे पुलिस द्वारा अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया था। इसी अपराध की विवेचना के दौरान उनके घर, कार्यालय और अन्य ठिकानों पर छापा और तलाशी ली गयी। पुलिस का कहना है कि 31 दिसंबर 2017 को इन्होंने हिंसा भड़काने वाले भाषण दिये और लोगों को उत्तेजित किया। उनके इस भाषण से, भीमा कोरेगांव में हिंसक घटना भड़की जिससे एक व्यक्ति की मृत्यु हुयी और कई घायल हुए। यह घटना भीमा कोरेगांव के युद्ध के 200 वी जयंती पर मनाए जा रहे समारोह के दौरान घटी थी। 200 साल पहले हुये अंग्रेजों और मराठों के युद्ध मे दलित महार समाज ने मराठों के विरुद्ध अंग्रेजों का साथ दिया था, जिसमे अंग्रेज विजयी हुए थे। इस युद्ध को महार समाज अपने गौरव से जोड़ कर देखता है।

आज भी मेरी अलमारी में वे सारी पुस्तकें पड़ी हैं जो जज साहब के इस सवाल के आलोक में आपत्तिजनक घोषित की जा सकती हैं। मार्क्स, लेनिन, माओ की जीवनी, गोर्की, चेखब, टॉलस्टॉय, काफ्का, लू सुन, आइंस्टीन, आदि की पुस्तकें हैं। अधिकांश पढ़ी हुयी हैं, और कुछ अभी वैसे ही बिना पढ़ी हुयी हैं। लिखना पढ़ना भी खान पान की तरह होता है। जो जिसे रुचता और पचता है वही पढ़ना चाहता है। हम सब जिस पीढ़ी के हैं अपने विद्यार्थी जीवन मे अक्सर कोर्स के बाहर की चीजें अधिक पढा करते थे। तब अंक प्राप्त करने का इतना दबाव हम पर न तो घर परिवार का था न ही स्कूल कॉलेज का। हमारे शिक्षक बाहरी पुस्तकों को पढ़ने पर नाराज़ नहीं होते थे।यह मैं अपनी ही बात नहीं कर रहा हूँ बल्कि मेरी आयुसीमा के सभी की यह एक समान आदत थी। पढ़ना लिखना बहस करना एक आम बात थी।

मैंने इस लेख में विदेशी लेखकों का ही उल्लेख किया है, इससे यह आशय न निकाला जाय कि भारतीय लेखक या वांग्मय पश्विम की तुलना में हेय है या कमतर है। चूंकि, संदर्भ, एक विदेशी उपन्यास, युद्ध और शांति का है तो, उनका उल्लेख अधिक है। मैं 1835 ई में कहे गए लॉर्ड मैकाले की इस बात से सहमत नहीं हूं कि पश्चिम के लेखन और साहित्य की तुलना में भारतीय वांग्मय, एक आलमारी में समा सकता है। जब मैं भारतीय साहित्य की बात करता हूँ तो उसमें केवल वैदिक साहित्य ही नहीं आता बल्कि जैन, बौध्द, और सभी साहित्य आते हैं। हमारे यहां यह सभी साहित्य कहे जाते हैं इन्हें धर्मग्रंथ का मुलम्मा बाद में चढ़ाया गया है।

दुनियाभर का लेखन एक दूसरे देश के लेखन को प्रभावित करता है। साहित्य कला और बौद्धिक व्यापार को कभी कभी किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता है। वह नदी, सागर पर्वत आदि की भौगोलिक सीमा से अलग एक प्रवित्ति है। टॉलस्टॉय ने गांधी को प्रभावित किया तो नरसी मेहता के वैष्णव जन के बिना गांधी की कोई संध्या नहीं बीतती थी। गोर्की ने प्रेमचंद को प्रभावित किया तो टैगोर की गीतांजलि से यीट्स इतने प्रभावित हो गए कि उन्होंने गीतांजलि का अंग्रेजी अनुवाद ही कर दिया जिसपर टैगोर को नोबल पुरस्कार मिला। ज्यां पॉल सात्र और सिमोन द बेउआ ने आधुनिक सोच की धारा ही बदल दी। पूरी दुनिया मे इन युगल की सोच का असर पड़ा। साहित्य परिमार्जित करता है न कि किसी अंधे खोह में ठेल देता है।

पर आज युद्ध और शांति पर यह सवाल उठा है। मार्क्सवादी साहित्य पर उठा है। कल यही सवाल भगत सिंह पर उठेगा। सुभाष पर उठेगा। गांधी पर तो वे उठा ही रहे हैं। नेहरू तो कठघरे में रोज ही दिखते हैं। टैगोर की कहानियों और उपन्यास से उर्दू शब्द निकालते की वकालत संघ के प्रिय इतिहासकार दीनानाथ बत्रा कर ही चुके हैं। दक्षिणपंथ को अपना बौद्धिक दारिद्र्य का ज्ञान है। वह जब उन तर्को का जवाब नहीं दे पाता तो तर्क के अधिकार को ही बाधित करना चाहता है। और यही हो रहा है।

मैं यह बिलकुल नहीं कह रहा हूँ कि आप सब इस उपन्यास को ज़रूर पढिये। बस मैं यह कह रहा हूँ कि जो मन हो, रुचि हो, समझ हो, बुद्धि हो, विवेक हो वह पढें। बच्चों को ज़रूर पढ़ने की आदत डालने के लिये प्रेरित करें। यह उन्हें समाज मे एक हीनभावना से दूर रखेगा। उन्हें प्रबुद्ध बनाएगा। नेट और मोबाइल ने पढ़ने की आदत कम नहीं की है बल्कि इसने स्वरूचि अध्ययन के लिये एक असीम संभावना भी उपलब्ध कराया है। अब यह हम पर है कि हम स्तरीय साहित्य पढ़ते हैं या व्हाट्सप्प यूनिवर्सिटी का ज्ञान।

सदन में अगर आप पोर्न देखेंगे तो उपमुख्यमंत्री बनेंगे पर टॉलस्टॉय, गोर्की, मार्क्स, लेनिन, माओ पढ़ेंगे तो अर्बन नक्सल कह कर जेल भेज दिये जायेंगे और अदालत में इस सवाल का सामना करेंगे कि आप ने इन किताबों को रखा क्यों है ? अभी तो इन्हीं पर प्रतिबंध है। धीरे धीरे यह अंधेरा और बढ़ेगा, छायेगा चारों तरफ। फिर इसकी जद में गांधी आएंगे, नेहरू तो आ ही चुके हैं, प्रेमचंद को पहले अपने गिरोह में खींचने की कोशिश की जाएगी, फिर जब वे गले मे फंस जाएंगे तो उन्हें भी वर्जित घोषित किया जाएगा।

धीरे धीरे जो शेष बचेगा, वह होगा, केवल पाखंड पूर्ण धूर्तता से भरा पड़ा श्रेष्ठतावाद की पिनक में डूबा, पौरोहित्यवाद। सन्देश स्पष्ट है। आप के विचारों की धार को देशद्रोही कह कर के कुंठित किया जाएगा। आप को इन भावनाओ में बहकाया और घेरा जाएगा। पर यह सब बुद्ध के मार की तरह से हैं। अंततः मार मरता ही है, क्योंकि वह जड़ बनाता है। जड़ता ख़ुद ही मृत्यु है। स्थिरचेता हो इस पाखंड भरे कंटक  वल्लरी से बाहर आईए। 

तमसो मा ज्योतिगमय !!


© विजय शंकर सिंह

Tuesday 27 August 2019

जन्मदिन - 28 अगस्त - फ़िराक़ - इश्क़ तौफ़ीक़ है, गुनाह नहीं / विजय शंकर सिंह

फ़िराक़ साहब ( 28 अगस्त 1896 से 3 मार्च 1982 ) एक जीनियस थे। रहने वाले गोरखपुर के, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी के टॉपर, और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में ही अंग्रेज़ी के अध्यापक, और उर्दू के एक अज़ीम शायर। ज़िंदगी का सफर भी उनका, कुछ गमें जानां तो कुछ दौरां। कभी प्रेयसी का गम, तो कभी ज़माने का गम। निजात इस गम से ? ' मौत से पहले आदमी, इस गम से निजात पाए क्यों ' यह फ़िराक़ के जन्म से आधी सदी से पहले सुपुर्दे खाक हो चुके, इसी सिलसिले के एक और महान शायर ग़ालिब पहले ही कह चुके हैं। आज उन्ही फ़िराक़ का जन्मदिन है।

गोरखपुर के बारे में मेरे एक मित्र का कहना है कि यह शहर जंगलों में बसा था। अब तो यह भरापूरा शहर है। इसी शहर में 28 अगस्त 1896 को फ़िराक़ साहब का जन्म हुआ था। फिराक गोरखपुरी तो ये बाद में हुये, इनका असल नांम रघुपति सहाय था। शिक्षा प्राप्ति के बाद वे सिबिल सेवा के लिये चुने गए, पर 1920 में उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्यापन किया। आज़ादी के आंदोलन में वे जेल गए। एक साल जेल में भी रहे। उनका संपर्क कांग्रेस के नेताओं से भी था। वे जवाहरलाल नेहरू के साथ वे कुछ दिनों के लिये कांग्रेस के अवर सचिव भी रहे थे। पर राजनीति में फिर उसके बाद वे सक्रिय नहीं हुए। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में वे 1930 से 1959 तक अंग्रेज़ी के प्राध्यापक थे। उन्होंने डॉक्टरेट नहीं की थी, पर खुद को किसी भी अंग्रेज़ी के किसी विद्वान से कम नहीं समझते थे। और वे थे भी नहीं।

आधुनिक उर्दू ग़ज़ल के लिए राह बनाने वालों में अग्रणी शायर फ़िराक गोरखपुरी अपने दौर के मशहूर लेखक भी, आलोचक भी और शायर भी थे। शुरू में फ़िराक़ साहब की शायरी के हुस्न को लोगों ने उस तरह नहीं पहचाना क्योंकि वो रवायत से थोड़ी हटी हुई शायरी थी। जब उर्दू में नई ग़ज़ल शुरू हुई तो लोगों ने फ़िराक़ की तरफ़ ज़्यादा देखा। फिराक गोरखपुरी की शायरी में गुल-ए-नगमा, मश्अल, रूह-ए-कायनात, नग्म-ए-साज, ग़ज़लिस्तान, शेरिस्तान, शबनमिस्तान, रूप, धरती की करवट, गुलबाग, रम्ज व कायनात, चिरागां, शोअला व साज, हजार दास्तान, बज्मे जिन्दगी रंगे शायरी के साथ हिंडोला, जुगनू, नकूश, आधीरात, परछाइयाँ और तरान-ए-इश्क जैसी खूबसूरत नज्में और सत्यम् शिवम् सुन्दरम् जैसी रुबाइयों हैं। उन्होंने एक उपन्यास साधु और कुटिया और कई कहानियाँ भी लिखी हैं। उर्दू, हिंदी और अंग्रेजी भाषा में गद्य की भी दस पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।

फ़िराक़ के जीवन से जुड़े कई रोचक प्रसंग हैं जिनसे उनके जीवन और मेधा के अनेक आयाम नज़र आते हैं। उर्दू शायरी पर अनेक शायरों के कलाम को देवनागरी में उपलब्ध कराने वाले प्रकाश पंडित ने अपनी पुस्तक फ़िराक़ और शायरी में उनसे जुड़ा एक रोचक संस्मरण लिखा है, मैं उसे यहां उद्धृत कर रहा हूँ,

" एक बार बम्बई की एक ‘महफ़िल में, जिसमें सरदार जाफ़री, जानिसार ‘अख़्तर’, साहिर लुधियानवी, ‘कैफ़ी’ आज़मी इत्यादि कई प्रगतिशील शायर मौजूद थे, ‘फ़िराक़’ साहब ने बड़े गौरव से एक शेर पढ़ा-

मौत इक गीत रात गाती थी
ज़िन्दगी झूम-झूम जाती थी।

सरदार जाफ़री ने यह समझकर कि फ़िराक़ साहब ने ज़िन्दगी पर मौत को प्रधानता दी है, ऊँची ज़बान से ललकारा, ‘‘फ़िराक़ साहब ! गुस्ताखी मुआफ हो, हमें आप शेर सुनाइए, बकवास मत कीजिए।’’
‘फ़िराक़’ साहब भला इस गुस्ताख़ी को कैसे मुआफ़ कर सकते थे तुरन्त भड़ककर बोले, ‘‘मैं तो शेर ही सुना रहा हूँ, बकवास तो आप कर रहे हैं।’’

और इसके बाद उपस्थित सज्जनों ने ‘फ़िराक़’ साहब की ज़बान से ज़िन्दगी और मौत की फ़िलासफ़ी की ऐसी ऐसी बातें सुनी कि यदि स्वयं ज़िन्दगी और मौत साकार होतीं, तो इन बातों से पनाह माँगने लगतीं।

बातें करने का भी फ़िराक़ साहब को उन्माद की हद तक शौक है-जीवन दर्शन से लेकर वे मेंढकों की विभिन्न जातियों तक के बारे में बेथकान बोल सकते हैं बल्कि ढूंढ़-ढूंढकर बोलने के अवसर निकालते हैं। हैदराबाद में एक महत्त्वपूर्ण उर्दू कान्फ्रेंस थी। कान्फ्रेंस के चौथे दिन की एक बैठक में फ़िराक़ साहब को अभिभाषण देना था। कान्फेंस के प्रबन्धक तो ख़ैर पहले से उन्हें सूचना दे चुके थे कि भाषण पहले से प्रकाशित किया जाएगा, कान्फ्रेंस में भाग लेने वाले शायरों अदीबों ने भी उनसे बहुत आग्रह किया कि वे शीघ्रातिशीघ्र भाषण लिख लें। इस उद्देश्य के लिए, यानी उनसे भाषण लिखवाने के लिए, दो व्यक्ति मुक़र्रर किए गए जो जब मौक़ा मिलता, काग़ज़ क़लम लेकर बैठ जाते कि लिखवाइए। फ़िराक़ साहब एक आध वाक्य लिखवाने के बाद ही उन्हें इस प्रकार बातों में उलझा लेते कि वे स्वयं भाषण की बात भूल जाते। चौथा दिन आ पहुँचा और भाषण की केवल चार पंक्तियाँ पूर्ण हुईं। लोगों ने फ़िराक़ साहब को क़लम काग़ज़ देकर जबर्दस्ती एक कमरे में बंद कर दिया ताकि दोपहर तक, जैसे भी हो, वे भाषण पूरा कर लें। दोपहर के अधिवेशन के समय जब वालंटियर उन्हें लिवाने उनके निवास-स्थान पर पहुँचे तो फ़िराक़ साहब को मकान के किसी कमरे में भी न पाकर बहुत चकराए। निराश होकर लौट रहे थे कि रसोईघर से बातें करने की आवाज़ आई। झांककर देखा तो फ़िराक़ साहब बैंगन हाथ में लिए बैंगन के भुरते के बारे में बावर्ची से बातें कर रहे थे।

यही नहीं, काग़ज़ों का पुलंदा लेकर जब वे जलसे में अपना अभिभाषण पढ़ने लगे तो केवल चार पंक्तियाँ पढ़कर ही उन्होंने पुलंदा एक तरफ रख दिया और माइक्रोफ़ोन थामकर बोले, ‘‘लिखे हुए अभिभाषण की क्या ज़रूरत है ? बड़ी मुद्दत के बाद हैदराबाद आने का मौक़ा मिला है। दोस्तों से दो बातें ही कर लें !’’
और अभिभाषण के नाम पर वे निरन्तर दो घण्टे तक बातें करते रहे और मेज़ पर पड़ा कोरे काग़ज़ों का पुलंदा प्रबन्धकों का मुँह चिढ़ाता रहा। "

उनकी उर्दू शायरी का एक बड़ा वक्त रूमानियत, रहस्य और शास्त्रीयता का रहा, जिसमें लोकजीवन और प्रकृति के पक्ष बहुत कम उभर पाए।

एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें,
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं।

फ़िराक़ साहब केवल शायर ही नहीं थे, बल्कि वे अंग्रेज़ी साहित्य के विद्वान भी थे। उनका दावा था कि ,
"भारत में अंग्रेज़ी सिर्फ़ ढाई लोगों को आती है। एक मैं, दूसरे डॉ. राजेंद्र प्रसाद और जवाहर लाल नेहरू को आधी अंग्रेज़ी आती है।"
फ़िराक़ साहब के बारे में एक क़िस्सा बहुत प्रचलित है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से रिटायर होने के बाद उन्हें सरकारी बंगला खाली करने के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन को नोटिस आया। नोटिस अंग्रेज़ी में था और उन्होंने उसमें दसियों ग़लतियां निकाल कर प्रशासन को वापस थमा दिया और कहा कि अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर को नोटिस भेजा है, ग़लतियां सुधार कर लाइए। नोटिस दोबारा भेजा गया और उन्होंने उसमें फिर कई ग़लतियां निकाल दी। इसके बाद प्रशासन ने उन्हें न नोटिया दिया और ना ही बंगला खाली करने को कहा। वे अंतिम समय तक उसी बंगले में रहे।

एक प्रसंग और पढ़े,
" उनका जामिया मिलिया विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्रोफ़ेसर एमेरिटस शमीम हनफ़ी से लगभग एक दशक का साथ रहा। उनके बारे में हनफ़ी साहब रेहान फजल को बताते हैं- 'साहित्य की बात एक तरफ़, मैंने फ़िराक़ से बेहतर बात करने वाला अपनी ज़िंदगी में नहीं देखा। मैंने उर्दू, हिंदी और अंग्रेज़ी साहित्य के चोटी के लोगों से बात की है लेकिन फ़िराक़ जैसा किसी को भी नहीं पाया। इस संदर्भ में मुझे सिर्फ़ एक शख़्स याद आता, डाक्टर सेमुअल जॉन्सन, जिन्हें बॉसवेल मिल गया था, जिसने उनकी गुफ़्तगू रिकॉर्ड की। अगर फ़िराक़ के साथ भी कोई बॉसवेल होता और उनकी गुफ़्तगू रिकॉर्ड करता तो उनकी वैचारिक उड़ान और ज़रख़ेज़ी का नमूना लोगों को भी मिल पाता। "

उन्हें गुले-नग्मा के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार और सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड से सम्मानित किया गया। बाद में 1970 में इन्हें साहित्य अकादमी का सदस्य भी मनोनीत कर लिया गया था। फिराक गोरखपुरी को साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन 1968 में भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया था। दैनिक जीवन के कड़वे सच और आने वाले कल के प्रति उम्मीद, दोनों को भारतीय संस्कृति और लोकभाषा के प्रतीकों से जोड़कर फिराक ने अपनी शायरी का अद्भुत संसार रचा था । फारसी, हिंदी, ब्रजभाषा और भारतीय संस्कृति की गहरी समझ के कारण उनकी शायरी में भारत की मूल पहचान रची-बसी रही।

उनकी शायरी के किस्से, उनसे जुड़े तमाम प्रसंग, उनकी सनक की कहानियां, इतनी अधिक संख्या में मुझे संदर्भों में मिलीं कि यह संदेह होने लगा कि इनमें सच क्या है और झूठ है। महान लोगों के साथ अमूमन ऐसा ही होता है। इतनी अधिक लोकश्रुत और बहुश्रुत क्षेपक उभर कर आ जाते हैं कि कभी कभी यह सब दन्तकथाओं जैसी लगने लगती हैं। लेकिन इन कहानियों और किस्सों से फ़िराक़ के बहुआयामी व्यक्तित्व का पता चलता है। उनपर काम करने वाले डॉ मुकेश पांडेय ने उनके व्यक्तित्व को इन शब्दों में उकेरा है,
" अदा-अदा में अनोखापन, देखने-बैठने-उठने-चलने और अलग अंदाज़े-गुफ़्तगू, बेतहाशा गुस्सा, अपार करुणा, शर्मनाक कंजूसी और बरबाद कर देने वाली दरियादिली, फ़कीरी और शाहाना ज़िंदगी का अद्भुत समन्वय था उनमें।
फ़िराक़ की शख़्सियत में इतनी पर्तें थी, इतने आयाम थे, इतना विरोधाभास था और इतनी जटिलता थी कि वो हमेशा से अपने चाहने वालों के लिए पहेली बन कर रहे। वह थे आदि विद्रोही, धारा के विरुद्ध तैरने वाले बाग़ी। "

मशहूर शायर अनवर जलालपुरी ने एक शायर और साहित्यकार के रूप में मूल्यांकन करते हुये कहा कि,  " फ़िराक़ साहब से पहले उर्दू में सिर्फ अल्लामा इक़बाल ही ऐसी शख़्सियत हैं, जो एशिया और यूरोप के उलूम (ज्ञान) पर गहरी नज़र रखते थे। दोनों इलाहों के मजहबों के फलसफों पर भी उनकी गहरी नज़र होती थी। 'फ़िराक़' दूसरी बड़ी शख़्सियत हैं जो एशिया और यूरोप के मुल्कों के मजहबी फलसफों और दोनों इलाकों के साहित्य पर भी बेइंतहा गहरी नज़र रखते थे। "
फ़िराक़ खुद अपनी शायरी के बारे में क्या कहते हैं, यह उन्हीं की लेखनी से पढ़ लें,
"मैं शायरी का एक मकसद यह भी समझता हूं कि जिन्दगी के खुशगवार और नाखुशगवार हालात व तजुर्बात का एक सच्चा जमालियाती एहसास हासिल किया जाय। जिन्दगी का एक विजदानी शऊर हासिल करना वह आसूदगी अता करता है जिसके बगैर जिन्दगी के सुख-दुख दोनों नामुकम्मल रहते हैं। यही एहसास मेरी शायरी के रहे हैं; इसके अलावा हर कौम की अपनी एक तारीख होती है, उसका एक मिजाह होता है, फिर तमाम इंसानियत की जिन्दगी की भी तारीख होती है और उस जिन्दगी की कुछ कदरें होती हैं। कौमी जिन्दगी और आलमी जिन्दगी की इन कदरों और हिन्दुस्तान के कल्चर के मिजाज को अपनी शायरी में समोना मुल्की और आलमी जिन्दगी के पाकीजा जज्बात को जबान देना मेरी शायरी का मकसद रहा है। उर्दू शायरी में बहुत सी खूबियों के बावजूद कुछ कदरो की कमी रही है। १९३६ के बाद मेरी कोशिश यह होने लगी है कि मैं मसायल को आलमगीर इंसानियत की तरक्की की रोशनी में पेश करूं, जिन्दगी जैसी है उसे मुतास्सिर होना कौमी कलचर और कौमी मिजाज के तसव्वर पर झूमना उसे अब मैं नाकाफी समझने लगा। अब दुनिया और जिन्दगी पर झूमने के बदले दुनिया और जिन्दगी को बदलने का तसव्वर काम करने लगा।"

फ़िराक़ साहब के जन्मदिन पर उनका विनम्र स्मरण।
आप थे हंसते-खेलते मयखाने में फ़िराक,
जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए !!

© विजय शंकर सिंह

Monday 26 August 2019

फ्रैंज़ काफ्का और एक बालिका की गुड़िया / विजय शंकर सिंह

अपनी मृत्यु के एक साल पहले फ्रंज़ काफ्का एक विलक्षण अनुभव से गुजरे थे। वे अक्सर दिन में बर्लिन के स्टेजलिट्ज़ पार्क में बैठे रहते थे और थोड़ा बहुत घूम फिर कर फिर एक बेंच पर आ कर बैठ जाते।

उसी बेंच पर एक दिन अचानक एक दिन उन्हें एक बालिका रोती हुयी मिली। काफ्का ने उससे रोने का कारण पूछा और फिर प्यार से चुप कराया। उक्त बालिका ने बताया वह ' जिस गुड़िया से खेल रही थी वह इसी पार्क में कही गुम हो गयी है और उसे वह मिल नहीं रही है। ' काफ्का ने उस बच्ची की गुड़िया ढूंढ लाने की बात कही और बच्ची चुप हो गयी।

काफ्का ने गुड़िया ढूंढने के लिये समय मांगा और फिर दूसरे दिन गुड़िया ढूंढ कर लाने का वादा कर के वह वहां से चले गए। पर गुड़िया न काफ्का को मिली और न ही उस बालिका को। काफ्का ने गुड़िया की तरफ से एक पत्र उस बालिका को लिखा और जब वह बालिका दूसरे दिन पार्क में उसी जगह पर जहां काफ्का से मुलाक़ात हुयी थी गुड़िया पाने की आशा में आयी तो काफ्का ने वह पत्र उस बालिका को पढ़ कर सुनाया। पत्र इस प्रकार था,

" कृपया रोना मत। मैं दुनिया घूमने के लिये निकली हूँ। मैं समय समय पर अपनी यात्रा के बारे में तुम्हे लिखती रहूंगी। तुम रोना मत । "

अब काफ्का इस पत्र के बाद नियमित रूप से उस खोई हुई गुड़िया की तरफ से पत्र लिखने लगे और लगभग रोज ही उस बालिका को पढ़ कर सुनाते। यह यात्रा का काल्पनिक वर्णन था। पर काफ्का के इस काल्पनिक लेकिन रोचक वर्णन ने उक्त बालिका को फिर रोने नहीं दिया। वह प्रमुदित हो अपनी गुड़िया के घुमक्कड़ी के किस्से सुनने लगी।

अंत मे एक दिन जब काफी कहानियां हो गयीं तो, फ्रैंज़ काफ्का ने एक दूसरी गुड़िया उक्त बालिका को लाकर दी। वह गुड़िया बदली हुयी थी ही, तो बालिका को अपनी खोई हुई पुरानी गुड़िया नहीं लगी। वह काफ्का की ओर देखने लगी। काफ्का ने उस गुड़िया के साथ एक चिट जो काफ्का ने खुद ही चिपका रखी थी, निकाली और पढ़ कर सुनाया। उसमे लिखा था, ' यह मैं ही हूँ। दुनियाभर की लंबी यात्रा के बाद मैं थक और बदल गयी हूँ। ' बालिका को इस गुड़िया और काफ्का पर विश्वास करना पड़ा।

काफ्का की मृत्यु हो गयी। कई साल बीत गए। वह बालिका अब बडी हो गयी। एक दिन उसी गुड़िया को जो काफ्का ने उसे दिया था,  अपनी आलमारी में कुछ ढूंढते हुये, उसने पाया और वह उस गुड़िया को ध्यान से देखने लगी। अचानक उस गुड़िया के फ्रॉक के आस्तीन में एक छोटा सा पत्र दबा मिला। उसने वह पत्र उठाया और पढ़ा। पत्र में लिखा था,

" हर वह चीज जो तुम प्यार करते हो, तुमसे दूर ज़रूर होती है। पर अंत मे वही प्यार उसे बदले रूप में ज़रूर लौटा देता है। "

फ्रैंज़ काफ्का ने यह पत्र जानबूझकर उसी गुड़िया के कपड़ो में छुपा दिया था और उस दिन जब उसने यह गुड़िया दी थी तो यह पत्र उसने नहीं पढ़ा था।

यह काफ्का के जीवन मे घटी हुयी एक सच्ची कहानी है। बालिका को रोते से मनाना और फिर उसकी गुड़िया न मिलने पर एक दूसरी गुड़िया ले आना पर तुरन्त इसलिए नहीं दे देना कि वह बच्ची कैसे स्वीकार कर पायेगी कि यह वही उसकी खोई हुई गुड़िया है जिसके लिये वह रो रही थी। एक कहानी गढ़ना और रोज़ ब रोज़ कहानी गढ़ कर उस बालिका को आश्वस्त करना, यह प्रकृति तो उस संवेदनशील लेखक में ही हो सकती है जो मनोभावों को न केवल पकड़ना और पहचानना ही जानता है बल्कि उसे चित्रित भी करना बखूबी जानता हो।
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फ्रैंज काफ्का ( 3 जुलाई  1883 - 3 जून 1924 ) जर्मनी के एक प्रसिद्ध साहित्यकार थे। उनकी रचनाऍं तत्कालीन जर्मन समाज के व्यग्र अलगाव को चित्रित करतीं हैं। काफ्का का समय जर्मनी के इतिहास का एक उथल पुथल भरा काल था। साहित्य के समकालीन आलोचकों और शिक्षाविदों, का मानना है कि काफ्का 20 वीं सदी के सर्वश्रेष्ठ लेखकों में से एक है। उनके नाम के ही आधार पर अंग्रेजी भाषा मे काफ्काऐस्क्वे "Kafkaesque"  नाम  का एक नया शब्द ही बन गया है, जिसका प्रयोग,  बहकानेवाला ',' खतरनाक जटिलता' आदि के संदर्भ में किया जाता है। न्यूयॉर्कर के लिए एक लेख में, जॉन अपडाइक काफ्का के संदर्भ में लिखते हैं, "जब काफ्का का जन्म हुआ, तब उस सदी मे आधुनिकता के विचारों का पनपना आरम्भ हुआ - जैसे कि सदियों के बीच में एक नइ आत्म-चेतना, नए पन की चेतना का जन्म हुआ हो। "

अपनी मृत्यु के इतने साल बाद भी, काफ्का आधुनिक विचारधारा के एक पहलू के प्रतीक बने हुुयेे है । काफ्का के लेखन में मनोयोगो का खुल कर चित्रण हुआ है। बदलते समाज के मनोभावों को उन्होंने बेहद खुलेपन और यथार्थता से अपनी रचनाओं में शब्द दिया है। उनका यह गुण कोमलता, विचित्र व अच्छे हास्य, कुछ कुछ गंभीर और आश्वस्त औपचारिकता से भरपूर था। यह संयोजन उन्हे एक कलाकार बनाता है, पर उन्होने अपनी कला की कीमत के रूप में अधिक से अधिक अपने भीतर प्रतिरोध और गंभीर संशय के खिलाफ संघर्ष किया है।

काफ्का का जन्म प्राग, बोहेमिया में, एक मध्यम वर्ग के, जर्मन भाषी यहूदी परिवार में हुआ था । काफ्का के पिता, हरमन्न काफ्का यहूदी बस्ती में एक दुकान चलाते थे । उनके पिता को विशाल, स्वार्थी, दबंग व्यापारी समझा जाता था। काफ्का ने अपने पिता के बारे में खुद ही कहा था कि उनके पिता "शक्ति, स्वास्थ्य, भूख, आवाज की ऊंचाई, वाग्मिता, आत्म - संतुष्टि, सांसारिक प्रभुत्व, धीरज, मन की उपस्थिति और मानव प्रकृति के ज्ञान में एक सच्चे काफ्का थे"।

© विजय शंकर सिंह