Thursday 28 January 2021

किसान आंदोलन का समाधान राजनीतिक दृष्टि से ही सम्भव है न कि पुलिस के बल प्रयोग से / विजय शंकर सिंह

किसान आंदोलन अब एक नए फेज में आ गया है। लाल किला की घटना के बाद, इस आंदोलन के नेताओ को अब अपनी रणनीति पर नए सिरे से विचार करना होगा। राजनीतिक दलों को जनहित के इस मुद्दे पर आगे आना होगा और उनसे जुड़ना होगा। हर आंदोलन किसी न किसी राजनीतिक निर्णय से ही उपजता है, चाहे वह उक्त निर्णय के समर्थन में उपजे या विरोध में। इस किसान आंदोलन का समाधान भी राजनीति से ही होगा न कि, पुलिस या प्रशासनिक तंत्र द्वारा। पुलिस और प्रशासनिक तंत्र उपयोग भी अब राजनीतिक तंत्र का एक विस्तार की तरह होने लगा है। यह प्रवित्ति सरकार, पुलिस और देश तीनो को नुकसान पहुंचाएगी। अब एक नज़र इस आंदोलन की क्रोनोलॉजी पर डालते हैं।

यह आंदोलन 26 नवंबर को नही शुरू हुआ है। यह आंदोलन 5 जून को जब आपदा में अवसर ढूंढते हुए कुछ चहेते पूंजीपतियों के लिये तीन कृषि कानून अध्यादेश के रूप में लाये गये तब से शुरू हुआ है। तब भी किसान नाराज़ थे, उनकी कुछ शंकाएं थी। पर सरकार न तो उन शंकाओं के निराकरण के लिये कुछ सोच रही थी और न ही, उसने किसानों से कोई बात की।

20 सितंबर को राज्यसभा में हंगामे के बीच अवसर तलाशते हुए सरकार ने यह तीनो कानून, उपसभापति के दम पर पारित करा दिए। तभी इनका व्यापक विरोध पंजाब में हुआ औऱ किसान संगठनों ने कहा कि वे 25 नवम्बर 2020 को दिल्ली कूच करेंगे। पंजाब में यह आंदोलन चलता रहा। पर दिल्ली आराम से थी। क्या आंदोलन की गम्भीरता के बारे में इंटेलिजेंस ने नहीं बताया था ?

तब भी सरकार ने इसे गम्भीरता से नही लिया और न ही इस कानूनों के बारे में किसानों को आश्वस्त किया। यह कहा कि यह तो पंजाब के मुट्ठी भर आढ़तियों का आंदोलन है। जब कि ऐसी बात बिल्कुल नहीं थी। फिर इसमें हरियाणा के किसान जुड़े और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसान संगठन भी जुड़ने लगे। बाद में राजस्थान, मध्यप्रदेश औऱ अन्य जगहों से भी खबरें आने लगी कि वहां भी किसानों में असंतोष है।

26 नवम्बर को किसान दिल्ली की सीमा पर आ गए औऱ वे सरकार द्वारा बुराडी मैदान में जाने की पेशकश ठुकरा कर के सिंघू सीमा पर जम गये। फिर यह जमावड़ा, टिकरी, ग़ाज़ीपुर और शाहजहांपुर सीमा पर भी फैल गया। आंदोलन मजबूत हो रहा था। पर सरकार को लग रहा था कि यह मुट्ठीभर फर्जी किसान है। विपक्ष द्वारा भड़काए गये और टुकड़े टुकड़े गैंग वाले खालिस्तानी लोग हैं।

लेकिन, सरकार और भाजपा आईटी सेल के अतिरिक्त कोई भी इस आंदोलन की गम्भीरता को लेकर भ्रम में नहीं था। तब भी सरकार के मंत्री, भाजपा आईटी सेल इसे खालिस्तान समर्थक और विभाजनकारी बताते रहे। किसान यह कहते रहे कि, वे जब तक मांगे नही मानी जायेगी तब तक नहीं वायस नहीं जाएंगे। पर सरकार तब तक यह समझाने में नाकाम रही कि, कैसे यह तीनों कृषि कानून किसानों के हित मे है।

फिर शुरू हुआ बातचीत का दौर और कुल दर्जन भर बातचीत का दौर चला। एक बार सबसे ताकतवर मंत्री अमित शाह ने भी बातचीत की। पर वे भी नहीं समझा पाये। सरकार यह तो बार बार कह रही है कि कानून किसान हित में है पर वह यह समझा नहीं पा रही है, कि किस क्लॉज से किसानों का क्या हित है। 22 जनवरी की अंतिम बातचीत तक ऊहापोह और गतिरोध बना रहा और सरकार इस कानूनों के किसान हितैषी विंदु, तब तक समझा नहीं पायी।

सरकार शुरू से ही इस आंदोलन में विपक्ष की राजनीतिक साज़िश खोजती रही और दूसरी तरफ इसके प्रशासनिक समाधान के भरोसे रही। सरकार ने अपने सांसदों विधायको आदि को क्यो नही तभी 5 जून के अध्यादेश के बाद जब किसानों में असंतोष उपज रहा था, तभी, इस कानून की खूबियां बताने के लिये सक्रिय कर दिया ? कम से कम इससे सरकार को भी ज़मीनी फीडबैक मिल सकती थी और यह भी हो सकता था किसानों की कुछ शंकाओं का समाधान भी हो जाता।

26 जनवरी को जो कुछ भी लाल किले पर हुआ वह निंदनीय है और सबसे शर्मनाक तथ्य यह है कि उस हंगामे का मास्टरमाइंड दीप सिद्धु नामक एक युवक है हो भाजपा के गुरदासपुर से सांसद, सन्नी देओल का बेहद करीबी है। उसकी प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के साथ मिलने वाली फ़ोटो उसकी सत्ता के बेहद उच्च स्तर सम्पर्कों को बताती हैं। पर यह बात अलग है कि, अब उससे भाजपा के लोग किनारा कर चुके हैं।

संप्रभुता का प्रतीक लाल किला अब डालमिया ग्रुप के पास रख रखाव के लिये है। अर्थव्यवस्था खराब होने से, तमाम सरकारी कंपनियां इन गिरोहबंदी पूंजीपतियों को बेची ही जा रही है, क्योंकि सरकार इतनी कमज़ोर और कुप्रबंधन से ग्रस्त है कि वह अपनी कम्पनियां भी ढंग से नहीं चला पा रही है। कम से कम लाल किला, जो देश के राजनीतिक शक्ति और संप्रभुता का प्रतीक है उसे तो इन पूंजीपतियों से बचायें रखा जाय। लाल किला केवल लाल पत्थरों से बनी एक भव्य इमारत ही नहीं है। 1857 के पहले विप्लव के समय जब मेरठ छावनी से सैनिकों ने कूच किया तो उन्होंने लाल किला आकर अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुरशाह जफर को अपनी क्रांति का नेता चुना।

जब आज़ाद हिंद फौज का ट्रायल शुरू हुआ तो इसी किले के एक अंश में सलीमगढ़ में अदालत लगी और आईएनए के बहादुर योद्धाओं का कोर्ट मार्शल हुआ। यहीं से वह समवेत स्वर गूंजा था,
लाल किले से आई आवाज़,
सहगल ढिल्लों शाहनवाज !
इसी मुकदमे में देश के ख्यातिप्राप्त वकीलों ने आईएनए की तरफ से पैरवी की। जवाहरलाल नेहरू ने वकालत छोड़ने के सालों बाद काला कोट और गाउन पहना और वे अदालत के सामने बहैसियत वकील उपस्थित हुये।

इसी लाल किले पर हर साल स्वाधीनता दिवस को प्रधानमंत्री ध्वजारोहण करते हैं। ऐसे संप्रभुता और गौरव के प्रतीक को एक निजी कम्पनी को रखरखाव के लिए देने का निर्णय स्वाभिमान को आहत करना है। सरकार के पास, केंद्रीय पीडब्ल्यूडी, आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, मिलिट्री इंजीनियरिंग सर्विस, पर्यटन मंत्रालय और म्यूजियम निदेशालय आदि विभाग हैं और सरकार सिर्फ इसलिए डालमिया को यह किला सौंप दे कि यह सारे विभाग, खुद को, इस महान धरोहर को संरक्षित करने में सक्षम नहीं पा रहे हैं, यह दुःखद और शर्मनाक दोनो है।

लाल किला का वर्तमान झंडा विवाद किसान आंदोलन और तीनों कृषि कानूनो से ध्यान हटाने की साज़िश है। हमें फिर से उन कानूनो की खामियों औऱ उनके पीछे छिपे कॉरपोरेट की सर्वग्रासी अजदहेपन की चर्चा शुरू कर देनी चाहिए।

किसान कानूनो में सबसे मौलिक सवाल है कि
किसानों को उनके उपज का उचित मूल्य मिलना चाहिए या नही। हर व्यक्ति यह कहेगा यह मूल्य मिलना चाहिए। किसानों को उचित मूल्य मिले इसी लिये एपीएमसी सिस्टम और न्यूनतम समर्थन मुख्य की व्यवस्था सरकार ने की है। एमएसपी की दर को लेकर बराबर यह विवाद होता रहा है कि यह दर कम है। इसी विवाद को हल करने के लिये सरकार ने डॉ एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक आयोग गठन किया। डॉ एमएस स्वामीनाथन ने अपनी संस्तुति में एमएसपी को लागू करने का एक सूत्र दिया जिसे सी - 2 + 50% कहते हैं।

लेकिन इसे अब तक किसी भी सरकार ने लागू नहीं किया औऱ न ही यह बताया कि इसे क्यों नहीं लागू किया जा रहा है या लागू नहीं किया जा सकता है। साल 2014 और 2019 के चुनाव घोषणापत्र में भाजपा ने, जो इसे वे, संकल्पपत्र कहते है, मे यह वादा किया था कि, वह इसे लागू करेंगे। लेकिन, बाद में सुप्रीम कोर्ट में इसी सरकार ने, यह हलफनामा दे दिया कि इसे लागू करना संभव नही है। इसे लागू करना संभव क्यों नहीं है यह बात भी सरकार को बताना चाहिए।

अब नए कृषि सुधार के अंतर्गत यह तीन कानून आये हैं जिनमे समानान्तर मंडी सिस्टम लाया गया है। पर सरकारी और निजी मंडी सिस्टम में निम्न अंतर है।
● सरकारी सिस्टम में अनाज एमएसपी पर खरीदा जाता है और खरीदा जाएगा।
● इस मंडी सिस्टम में 6% मंडी टैक्स भी  लगता है।
जबकि निजी मंडी सिस्टम, जो समानांतर मंडी सिस्टम के रूप में नए कानून में लाया जा रहा है, में,
● फसल की कीमत बाजार तय करेगा।
● एमएसपी पर खरीद की कोई बाध्यता नहीं रहेगी।
● निजी मंडी पर कोई टैक्स नहीं रहेगा।
● कोई भी व्यक्ति जिसके पास पैनकार्ड है वह उपज खरीद सकता है।

अब अगर फसल की कीमत, जब बाजार तय करेगा तो, जिसका बाजार पर वर्चस्व या प्रभाव रहेगा वही कीमतों को नियंत्रित भी करेगा। बाजार की मनमानी से ही तो किसानों को बचाने के लिये एपीएमसी सिस्टम और एमएसपी की व्यवस्था की गयी है। अब इन नए कानूनो में, उसे ही कमजोर कर दिया जा रहा है।

इसके अलावा इन तीन कृषि कानूनो में एक कानून जमाखोरी को वैध बनाने का है। उक्त कानून के अनुसार, कोई भी कम्पनी, कॉरपोरेट या व्यक्ति असीमित संख्या में अपनी आर्थिक हैसियत के अनुसार, फसल खरीद सकता है और उसका भंडारण असीमित समय तक के लिये कर सकता है। यानी चाहे जिस दाम पर तय हो खरीदो और जब तक चाहो गोदाम में भरे रहो। दाम का उतार चढ़ाव बाजार तय करेगा। खरीदने में किसान को कम कीमत मिलेगी यह उसका नुकसान है, औऱ जब यही माल बाजार में बिकेगा तो महंगी दर पर उसे उपभोक्ता खरीदेंगे तो यह उपभोक्ता का नुकसान है।

कमाई बिचौलियों की होगी। जिसे हटाने की बात सरकार कह रही है। पर वे हट नही रहे हैं। उनकी जगह एक आधुनिक और कॉरपोरेट बिचौलिए का तंत्र खड़ा हो जाएगा। वर्तमान आढ़तिया गांव कस्बे या आसपास का ही कोई गल्ला व्यापारी होता है, जिससे किसान के पुराने सामाजिक सम्बंध और तालमेल रहता है। शोषण, कम कीमत वहां भी एक समस्या है। पर उस समस्या का निदान नही किया जा रहा है, शोषक का स्वरूप बदल रहा है। शोषण का कॉरपोरेटीकरण किया जा रहा है। स्थानीय आढ़तिया जहां किसानों के सामाजिक और ताल्लुकाती दबाव में रहता है वहां वह कॉरपोरेट किसी न किसी नेशनल या मल्टीनेशनल कंपनी का कोई गुर्गा होगा। जो किसानों के लिये अंजान भी होगा औऱ कुछ हद तक अमानुष भी।

अब यहीं एक सवाल उठता है कि,
● जब सरकार खुद एमएसपी पर किसान की उपज खरीद रही है तो वह निजी मंडियों को भी एमएसपी पर खरीदने के लिये कानूनन बाध्य क्यों नहीं कर सकती है ?
● निजी मंडियों को टैक्स से छूट क्यों है ?
● एमएसपी न्यूनतम समर्थन मूल्य है। इससे कम कीमत पर खरीद को दंडनीय कानून बनाने मे सरकार को क्या दिक्कत है ?

किसानों की कांट्रेक्ट फार्मिंग की आशंकाये हैं। उसे अगर दरकिनार कर दिया जाय तो फिलहाल सबसे बड़ी समस्या है किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य मिले। इसके लिये सरकार क्या कर रही है यह सवाल उठाना न तो गलत है और न ही देशद्रोह।

सरकार यह तो कह रही है कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य एमएसपी की व्यवस्था बरकरार रखेगी। पर कैसे ? यह किसी मित्र को पता हो तो बताये।

6 साल से देश मे सारी अव्यवस्था भाजपा आईटी सेल के अनुसार चीन और पाकिस्तान द्वारा फैलायी जा रही हैं। अब उसमे खालिस्तान का एंगल और शामिल हो गया है। क्या सरकार इतनी निकम्मी और कमज़ोर है कि इसे यह सब पता है कि कौन अराजकता फैला रहा है फिर भी, अराजनकता फैलाने वालों के खिलाफ वह कुछ कर नही पा रही है ? इस आंदोलन और किसान असंतोष को राजनीतिक रूप से हैंडल न कर पाने का दोष सरकार पर है, पर जैसी तस्वीरे, 26 जनवरी को सुबह दिल्ली के कुछ इलाक़ो से आ रही थी वे बेहद चिंतित करने वाली थीं। राजनीतिक निर्णयों के खिलाफ उठा जन आंदोलन राजनीतिक सूझबूझ और दृष्टि से ही हल किया जा सकता है, न कि उसे कानून व्यवस्था का सवाल बनाकर सुरक्षा बलों और पुलिस के बल पर। प्रधानमंत्री जी को चाहिए कि अब वे इस जटिल समस्या के समाधान हेतु खुद हस्तक्षेप करें। उनके मंत्री, इस समस्या के समाधान के लिये या तो अनुपयुक्त हैं, या  बेबस हैं या वे नाकाबिल हैं।

अब बहुत देर हो चुकी है। 26 जनवरी को जो कुछ भी दिल्ली में हुआ है, उससे साफ साफ लग रहा है कि यह आंदोलन बिना अपने मकसद को प्राप्त किये समाप्त नही होगा। सरकार को, जो इस कानून को होल्ड करने पर सहमत है, तो उसे चाहिए कि वह, इसे वैधानिक प्रक्रिया के अंतर्गत वापस ले ले। और यदि सरकार के पास सच मे कृषि सुधार के ऐसे कार्यक्रम हैं जिनसे किसानों के हित सध रहे हैं तो उसे पुनः विचार विमर्श के बाद लाये। आज तटस्थ रहने का समय नही है। तटस्थता एक शातिर अपराध है। दांते का यह उद्धरण पढ़ें,
" नर्क की सबसे यातनापूर्ण जगह उनके लिये सुरक्षित रखी रहेगी, जो नैतिकता के इस संकट काल मे, तटस्थता की तरफ हैं।"

( विजय शंकर सिंह )

Monday 25 January 2021

शब्दवेध (94) सवाल हैं तो सही, सवाल हों तो सही

पहले  यह सुझा आए हैं वर्णिक ( अल्फाबेटिक)   और मात्रिक ( सिलेबिक)  दोनों  लिपियों का विकास  सिंधु सरस्वती सभ्यता़ से संपर्क रखने वाले भारतीयों ने किया।  यह सोच कर हैरानी होती  है कि इसमें पहल आसुरी परंपरा से  संबंध रखने वाले लोगों ने की, जिन्हें शूद्रों में गिना जाता है, न कि देव/ब्राह्मण परंपरा से आए  और कृषि भूमि से लेकर संपदा और तंत्र पर अधिकार करने वालों ने। 

यहां हम दो विरोधाभासी बातें कर रहे हैं : (1) हम यह सुझाव दे रहे हैं लिपि और लेखन का आविष्कार और विकास देव समाज ने नहीं किया, जबकि शिक्षा, लिखित साहित्य और सैद्धांतिक ज्ञान पर आज तक उसी का अधिकार बना रहा है।  (2) जिनको हम लिपि के विकास का श्रेय दे रहे हैं वे श्रम और कौशल के कामों से जुड़े रहे हैं और शिक्षा से इस सीमा तक वंचित रहे हैं कि वे अपना नाम तक नहीं लिख सकते, इसलिए अपनी कृति की पहचान के लिए वास्तुकार अपने हस्ताक्षर के रूप में शिल्पी चिन्हों का प्रयोग किया करते थे (ब्रजमोहन पांडे)। 

यह कुछ उसी तरह का विरोधाभास है जैसे यह  कि  सारा श्रम, कौशल और उत्पादन असुर परंपरा  से जुड़े हुए लोग करते रहे हैं,  पर उस पर अधिकार उनका रहा है  जो  शारीरिक श्रम और उपक्रम से  इस सीमा तक परहेज करते हैं कि इससे वे जाति-बहिष्कृत हो सकते थे।  

इस अंतर्विरोध को असुर परंपरा की उस वर्जना (हराम  या टैबू) के समानान्तर रख कर ही समझा जा सकता है जिसके चलते उन्होंने खेती के लिए जरूरी विविध आयोजनों का प्राणपण से विरोध किया और खड़ी खेती को बर्वाद करने (यज्ञ-विध्वंस या मखनाश) का प्रयत्न करते रहे और संख्याबल कम होने के कारण देवों को अपने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए लगातार छल-छद्म  का सहारा लेना पड़ा, जिसके लिए वे जातीय परंपरा में बदनाम भी रहे हैं। हजारों साल तक चलने वाले इस लंबे अन्तर्कलह के बाद देवों ने उत्पादन और समृद्धि का ऐसा स्तर पा लिया और अपनी संगठित शक्ति से बनांचलों को कृषिभूमि में बदलते हुए उन्हें आहार के लिए अपने ऊपर आश्रित बनने पर इसलिए बाध्य कर दिया   कि वे कृषिकर्म के लिए तैयार न थे।  उनमें से जिन्होंने  देर-सवेर कृषि कर्म अपनाया वे अपने क्षत्रिय या ब्राह्मण होने का दावा करते हुए सवर्ण समाज का अंग बनते चले गए। जो अपने कौल पर दृढ़ रहे उन्हें अंततः कृषिश्रमिक बनने को बाध्य होना पड़ा और वही काम भूस्वामियों के सेवक बन कर करना पड़ा जिससे बचने के लिए वे अपने प्राण दे सकते थे या ऐसा करने वालों के प्राण लो सकते थे।    

 हम यहां आर्थिक सामाजिक ढांचे की बारीकी में जाना नहीं चाहेंगे,क्योंकि  इससे विषयांतर होगा, यहां केवल लिपि के संबंध में अपनी बात रखना चाहेंगे।  हमारा यह मत कि लेखन का आविष्कार और विकास असुरों (तथाकथित शूद्रों ने किया निम्न साक्ष्यों पर आधारित  है:
1.  जिन दो व्यक्तियों का नाम  लेखन के संदर्भ में आता है  वे हैं  जमदग्नि और विश्वामित्र हैं  जो, असुर परंपरा से संबंध रखते [1] इनके अतिरिक्त जिनका लेखन से लेकर आरेखन के सभी रूपों पर अधिकार था, वे हैं महिलाएँ. परन्तु औपचारिक शिक्षा से वंचित कर दिए जाने के बाद वे भी अपने कौशल में दक्षता और प्रतीकात्मक संचार के लिए चित्रलेखन तक ही रुकी रह गईँ।[2]  

2.  वेद  और ज्ञान पर एकाधिकार रखने की चिंता करने वाले गूढ़ता पर बल देते थे, यहाँ तक कि व्यक्ति के भी दो नाम। एस असल, दूसरा नकली जिसे पुकार नाम कहते हैं।  वे अपने ज्ञान को  किसी ऐसे माध्यम में लाने के पक्षधर नहीं लगते जिस तक दूसरों की पहुँच हो सके। 

3.  कविगण अपनी रचनाओंं में उसी दक्षता और सतर्कता का दावा करते हैं जो शिल्पियों में पाई जाती है अर्थान अपनी तुलना में उनकी प्रतिभा की विलक्षणता के कायल हैं। वैसी ही काट, छाँट, सही जोड़ की महत्वाकांक्षा से प्रेरित हैं -इमां ते वाचं वसूयन्त आयवो रथं न धीरः स्वपा अतक्षिषुः सुम्नाय त्वामतक्षिषुः; अभि तष्टेव दीधया मनीषां;  एतं ते स्तोमं तुविजात विप्रो रथं न धीरः स्वपा अतक्षम् ;   वस्त्रेव भद्रा सुकृता वसूयू रथं न धीरः स्वपामतक्षम्;  इयं ते अग्ने नव्यसी मनीषा युक्ष्वा रथं न शुचयद्भिरङ्गैः;  अस्मा इदु स्तोमं सं हिनोमि रथं न तष्टेव तत्सिनाय इत्यादि।
  
4. ऋभुओं के विलक्षण चमत्कारों में अपने बुद्धिबल से बिना चमड़े का गाेरू बनाना, निश्चर्मणो गामरिणीत धीतिभिः तो शामिल है ही, फिर बछड़े के साथ माता का सृजन करने की क्षमता भी आती है, निश्चर्मणा ऋभवो गामापिंशत संवत्सेनासृजता मातरं पुनः, जो मात्रायुक्त अक्षरों के अंकन का द्योतक है। अर्थात् लेखन का कार्यभार क्रतुविद शिल्पियों का ही था। मुद्राओ का उत्खचन उनके ही वश का काम था, अतः लेखन का प्रचलन हो जाने के बाद इसका लाभ सभी को मिल सकता था, परन्तु इसमें नए प्रयोग वे ही कर सकते थे।  वास्तव में मुद्रण के बाद जो भूमिका प्रेस की थी वही मुहरों आदि के मामले में शिल्पियों की थी।

5. फिनीशियन के साथ जिन विद्याओं प्रवेश भूमध्यसागर के तटीय देशों में हुआ था वे उनके वहाँ पहुँच कर किए गए आविष्कार न थे, अपितु वे अपनी दक्षता अपने पूर्ववर्ती निवास से ले कर पहुँचे थे। फिनीशियनों पर विकापीडिया के लेख में उद्धृत जर्मन विशेषज्ञ Hans G. Niemeyer के अनुसार the Phoenicians "sparked Western civilization" through their "transfusion of Eastern goods, technologies, and ideas that, in turn, became the foundations of Greco-Roman civilization.  कहें यह ग्रीक-रोमन सभ्यता की नींव भले हो, वे जहाँ से गए थे वहाँ के वे उत्पाद थे, यह दूसरी बात है कि वहाँ पहुँच जाने के बाद नई परिस्थितियों के अनुसार उन्होंने पर क्षेत्र में अपने हजार डेढ़ हजार साल के इतिहास में बहुत सारे नए प्रयोग किए जिनमें लिपि को पश्चिम एशिया की सामी भाषाओं की व्यंजनप्रधानता के अनुरूप अपनी मात्रिक लिपि को वर्णिक बनाना भी शामिल था।

फिनीशियन
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राजबली पांडे ने फिनीशियन को पणि का अपभ्रंश माना था।  पणि का पण्, पणन और वणन अर्थात् वाणिज्य से संबंध बहुत साफ दिखाई देता है। ऋग्वेद में पणि के दो चित्र उभरते हैं।  एक की पहचान हमने विस्तार में जा कर उत्तरी अफगानिस्तान के उन जनों के की थी जो अपनी खनिज संपदा के दोहन से परिचित न थे पर दूसरा कोई उनके प्रभावक्षेत्र में किसी प्रकार हस्तक्षेप करे तो इसका विरोध करते थे।  इनकी पहचान में हिल्लेब्रांट की पणियों पर की गई लंबी टिप्पणी और पार्नियन कबीलों की पहचान का भी प्रभाव रहा हो सकता है ।  परन्तु पणि का शाब्दिक अर्थ था  धनी व्यक्ति या समूह ।  ऋग्वेद सें यह शब्द निंदापरक है।  इससे उनकी जो विशेषताएँ  प्रकट होती हैं वे हैं कि वे कंजूस थे, क्रूर थे, दान और उपहार नहीं करते थे, वैदिक समाज के प्रभावशाली वर्ग से  उनका संबंध तनावपूर्ण  था। इसी का लाक्षणिक विस्तार उत्तरी अफगानिस्तान के उन घुमंक्कड़ कबीलों के लिए वैदिक उद्यमियों ने किया था।

पणि  महत्वाकांक्षी वैदिक व्यापारियों के लिए चुनौती हैं, प्रतिस्पर्धा में वैदिक उपक्रमों को मात देने में सक्षम हैं, वे कामना करते हैं कि होड़ में वे पणियों के बाजी मार ले जाएँ - पणिं गोषु तरामहे।  पणि स्वभाव से अहंकारी हैं या ऐसा प्रतीत होते हैं और इसलिए वैदिक कवि पूषा (पालनहार) देव से उनके हृदय को कोमल और अपने अनुकूल बनाने की याचना करते हैं । वे धनी हैं, परन्तु आस्था के मामले में एक भिन्न परंपरा से जुड़े हैं - न रेवता पणिना सख्यमिन्द्रोऽसुन्वता सुतपाः सं गृणीते।  आस्य वेदः खिदति हन्ति नग्नं वि सुष्वये पक्तये केवलो भूत्। 4.25.7

हमारे सामने पूरी स्थिति इतनी धुँधली है कि हम कुछ संभावनाओं का उल्लेख बिना दावे के कर सकते है पर इनका फलितार्थ स्वतः एक दावा बन जाता है।  इस संदर्भ में कुछ तथ्यों पर प्रकाश डालना ही पर्याप्त होगा।  पहला यह कि फिनीशियन उनका अपना नाम न था अपितु एक अटकलबाजी पर ग्रीकों द्वारा दिया गया नाम था।  इसका विस्तार जरूरी तो है पर आज संभव नहीं।
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[1] आविष्कार, सूझ और निष्पादन के  क्षेत्र में-  चाहे वह धातु विद्या हो, काष्ठकला हो, नौवहन हूं,  यातायात हो,   वन्य  पशुओं को ने पालने प्रशिक्षित करने और उनसे आम लेने का सवाल हो, रेशम,  ऊन,  सूत के उत्पादन और बुनाई का प्रश्नों गृह निर्माण निर्माण और उसके पशुपालन हो, यहाँ तक कि मनोरंजन के लिए साँप, रीछ, बंदर, खरगोश, तोता, मैना, पकड. कर उन्हें काबू करके सिखाने और इच्छित व्यवहार कराने और अपने पर निर्भर कराने की सूझ, पहल और निपुणता केवल, शहद, चिकित्सा के लिए जड़ियों, बूटियों, खनिजों, रसायनों  की खोज, सारे काम वे  करते आए थे जिन्हें कृषि उत्पाद में अपना हिस्सा (रोजी-रोटी) पाने के लिए विविध रूपों में योग्यताएं  पहचान करनी पैदा करनी पढ़ रही थी और प्रतिस्पर्धा में उन कौशलों को अधिक से अधिक उन्नत बनाने की प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही थी।  वे सब कुछ करने को तैयार थे, केवल ऐसी करने को तैयार नहीं उनके लिए जघन्य कर्म था।  और विडंबना यह कि यह कर्म भी उन्हीं को करना पड़ा। 

[2] महिलाओं के अधिकाश व्रतों और आयोजनों में चित्रांकन, अल्पना, रंगोली अथवा अंतर्कथाएँ जो पहले के रेखांकनों से जुडी लगती हैं, आज तक देखने में आती हैं।  
आप यदि ऐसे क्रांतिकारी हैं जिसकी न अपनी जमीन है न अपना दिमाग, तो भारतीय समाज अमानवीयता और अन्याय का  मूर्त  रूप  मिलेगा,  परंतु धैर्य से काम लें तो पता चलेगा यह केवल भारत की समस्या नहीं, पूरे विश्व की समस्या है।   संपदा पर केवल कुछ लोगों का अधिकार,  संपदा से वंचित  शेष समाज को अमानवीय  यातना  में  रख कर उसका उसी तरह अपने हित में उपयोग जैसे मनुष्य पशुओं का करता है,  विश्व के सभी सभ्य कहे जाने वाले देशों में होता रहा। उनका  तुलना में भारत में यह उतना क्रूर न था। हम इसके विस्तार से बच कर ही अपना ध्यान अपने विषय पर केंद्रित रख सकते हैं।  इतने विस्तार में भी इसलिए जाना पड़ा कि यह मैंने पहले कभी सोचा ही न था कि लेखन के विकास में असुर परंपरा के उन उत्तराधिकारियों का योगदान है जिन्हें शूद्रों में परिगणित माना जा सकता है और जिन्हें अपने ही आविष्कार के लाभों से वंचित कर दिया गया।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


शब्दवेध (93) संक्रमण कालीन लिपि

हम लिपि पर विचार नहीं कर रहे।  सभ्यता की  विकास धारा पर विचार कर रहे हैं, लिपि  एक निर्णायक चरण  के बाद के  विकास को समझने की कुंजी है।  

भारत में बहुत प्राचीन काल से कई प्रकार की लेखन पद्धतियां चलती रही हैं और  लेख सामग्री  और लेखन के यंत्र भी कई तरह के  रहे हैं। मैजिक स्लेट अभी हाल में देखने में आई है,  लिखा और बुझा दिया।   धूल/ रेत पर लेखन और फिर मिटा कर नया लेखन, इसका परदादा है। 

कमल की पत्ती, ताड़ की पत्ती, वस्त्र,  भित्ति, भोजपत्र की छाल से लेकर काठ की पटरी, पत्थर और धातु (ताँबा, चाँदी, सोना) पत्र,  शिला, स्तंभ, और लिखने के लिए रंगीन मिट्टी, चूरा, नाखून, पथरी, उंगली, सरकंडा, पतली बेंत(किरिच), नरकुल,  साही के काँटे के दोनों सिरे, धातु की नुकीली कील, छेनी, उकेरनी, तूली, कूची आदि। रंग के लिए चावल की पीठी, हल्दी, फूल और पत्ती का रस, गेरू रामरज, कालिख की स्याही आदि।  भारतीय लेखन के इतिहास को समझने के लिए इस वैविध्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए और इसके साथ साहित्यिक उल्लेख और पुरातात्विक सामग्री का महत्व तो है ही जिनसे क्रम-व्यवस्था को समझने में आसानी होती है।  

सेंधव लिपि  की सभी पूर्वापेक्षाएं ऋग्वेद की साहित्यिक सामग्री में पूरी होती दिखाई देती है।  पूषा से  पणियों के पत्थर जैसे हृदय पर आरा से अपना अनुरोध टंकित करा कर उसे  कोमल और अपने  अनुकूल बनाने की याचना  की गई है: 
 आ रिख किकिरा कृणु पणीनां हृदया कवे । अथ ईं अस्मभ्यं रन्धय ।। 6.53.7
आरा की व्याख्या करते हुए  सायणाचार्य ने  इसे लोहे के पैने नोक वाला दंड -  तीक्ष्णाग्र लौह दंड - कहा है। सेंधव मुद्राओं को  उकेरने के लिए इससे उपयुक्त कोई  यंत्र नहीं हो सकता।

इससे  आगे की ऋचा में ही आरा के लिए एक अन्य विशेषण का प्रयोग किया गया है।   यह है  ब्रह्मचोदनी  । ब्रह्म का अर्थ है मंत्र।  इसमें आरा को  मंत्रों को उद्भासित करने वाला कहा गया है।   और इसके माध्यम से सभी के ह्रदय को विनम्र बनाने का आग्रह किया गया। पूषा  के लिए  जाज्वल्यमान (आघृणि) विशेषण का प्रयोग किया गया है: "यां पूषन् ब्रह्मचोदनीं आरां बिभर्षि आघृणे । तया समस्य हृदयं आरिख किकिरा कृणु ।। 6.53.8"

प्रसंग वश कह दें कि सायण ने  ब्रह्म का अर्थ अन्न किया है जो इतना बेतुका है  कि न  तो संदर्भ से मेल खाता है न ब्रह्म के सामान्य प्रयोगों से।  इसका अर्थ है मंत्र - विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जनम्  ।। 3.53.12 

विश्वामित्र का यह मंत्र भारत  जन की रक्षा करता है।  एक अन्य प्रसंग में यही बात दूसरे ढंग से दोहराते हुए मंत्र को वर्म की तरह सुरक्षा प्रदान करने वाला  बताया है-  ब्रह्म वर्म ममान्तरम्।  

हम नहीं जानते कि  लिखित मंत्र की भाषा के लिए   ब्राह्मी शब्द का प्रयोग उस काल में भी होता था या नहीं।  इस पर अधिक खींचतान करना ठीक न होगा यद्यपि ब्रह्मा की  लिखावट के विषय में  कठोर फलक पर टंकन करने  और उनकी लिपि के सामान्य बुद्धि से परे होने  का विश्वास इस बात की संभावना जगाता है कि यदि ब्रह्म और ब्रह्मा और ब्राह्मी  की संगति पर ध्यान दें तो यह उस मिश्र संकेत चिन्ह वाली टंकित भाषा के लिए प्रयुक्त हो सकती थी या उस समय से ही इसका प्रयोग होता आ रहा था जिसमें सही अर्थ जानने के लिए किसी सुयोग्य व्यक्ति की सहायता की आवश्यकता होती थी।

विश्वामित्र  स्वयं कहते हैं  कि  उन्हें  ससर्परी का ज्ञान  जमदग्नि  से प्राप्त हुआ था ।  यूं तो  शिक्षा और अक्षर ज्ञान  गुरु के अभाव में संभव नहीं है और इसका एकमात्र अर्थ यह नहीं किया जा सकता  कि  लिपि के गूढ़ संकेतों  से  जमदग्नि ने उनको परिचित कराया था,  परंतु   इन दो ऋचाओं का तेवर यही है:
ससर्परीरमतिं बाधमाना बृहन्मिमाय जमदग्निदत्ता  ।
आ सूर्यस्य दुहिता ततान श्रवो देवेष्वमृतमजुर्यम्  ।। 
 ससर्परीरभरत् तूयमेभ्योऽधि श्रवः पाञ्चजन्यासु कृष्टिषु  ।
सा पक्ष्या नव्यमायुर्दधाना यां मे पलस्तिजमदग्नयो ददुः  ।। 3.53.15-16 

यहां  कुछ बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए:
1. ससर्परी का अर्थ सायण ने “शब्दरूपतया सर्पणशीला वाक्" किया है, अर्थात् ध्वनि और आकृति युक्त वाणी। लिखित भाषा।  बोलचाल की भाषा  के लिए  किसी एक व्यक्ति की जरूरत नहीं पड़ती ।  इस न्याय से भी यह  लिखित भाषा है।
2.  परंतु एक दूसरी व्याख्या के अनुसार यह “सर्वत्र गद्यपद्यात्मकेन  सर्पणशीला वाग्देवता” है ।  मैं सर्पणशीला का अर्थ टंकलिपि से अलग, ‘हस्तलिपि’ या नश्वर लेख्य सामग्री - वस्त्र, ताड़पत्र, भूर्जपत्र आदि - पर लिखे पाठ के आशय में, जब कि टंक  लेख को ब्राह्मी के आशय में  ग्रहण करना चाहता हूँ। 
3. इस वाणी को अज्ञान को दूर करने वाली कहा गया है और इसकी आवाज अधिक दूर तक - जहाँ बोलने वाला नहीं होता है या चुप रहता है वहाँ भी जानकारों तक पहुँचती है, जो लिखित भाषा की विशेषता है।
4. जिस तरह उषा का प्रकाश अंधकार का विनाश कर देता है उसी तरह यह अनिश्चय को दूर कर देती है। दृश्य होने के कारण इसकी तुलना उषा से की गई है।  
5. इसमें निबद्ध प्रशस्ति या विरुद अजर और अमर होता है।  वचनीय बोलने के साथ ही शेष हो जाता है, स्मृति में रहा तो कुछ अंश भूल जाता है, पर लिखित वाणी सर्वत्र यथातथ्य बनी रहती है।
6. इसको पक्ष्या कहा गया है। हम जानते हैं कि अंग्रेजी के पेन का मूल अर्थ पंख है क्योंकि हस्त लेखन पंख के दंडमूल से आरंभ हुआ।  

इस संदर्भ में यह भी याद रखा जाना चाहिए कि ऋग्वेद में वाणी को अक्षर से मापने की बात आई है। छन्द के वाक, पद (चरण) का उसी क्रम में उल्लेख है।  यह लिखित वाणी में ही संभव है। गेय में इस तरह का विभाजन संभव न था-
यद्गायत्रे अधि गायत्रमाहितं त्रैष्टुभाद् वा त्रैष्टुभं निरतक्षत ।
यद्वा जगज्गत्याहितं पदं य इत्तद्विदुस्ते अमृतत्वमानशुः ।। 1.164.23
गायत्रेण प्रति मिमीते अर्कमर्केण साम त्रैष्टुभेन वाकम् ।
वाकेन वाकं द्विपदा चतुष्पदाऽक्षरेण मिमते सप्त वाणीः ।। 1.164.24 

यदि इसके बाद भी किसी को संदेह बना रहता है कि वेदिक समाज लेखन से परिचित न था तो इसका इलाज तो अश्विनीकुमार ही तलाश सकते हैं।

प्रश्न यह नहीं है  वैदिक समाज लेखन से परिचित था या नहीं,  हमारे सामने प्रश्न यह है कि  यदि विश्वामित्र को भाषा का ज्ञान जमदग्नि से प्राप्त हुआ था,  तो  उनका क्या योगदान था कि  यह विश्वास बना रहा है कि ब्रह्मा की सृष्टि के समानांतर उन्होंने हर चीज की रचना की।   इसका एक ही  अर्थ निकलता है कि पहले  की बहुमिश्र भाषा के शब्द संकेतों, चित्र संकेतों और भाव लेखों को हटाकर उन्होंने पहली बार एक नई मात्रिक  या सिलेबिक लिपि माला का आरंभ किया जो अपनी सफलता के कारण बहुत शीघ्र ही लोकप्रिय हो गयी।  यही लिपि हमें ज्ञात सैंधव लिपि और ब्राह्मी के बीच की संक्रमण कालीन लिपि प्रतीत होती है।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


शब्दवेध (92) विश्वामित्र की सृष्टि

विश्वामित्र के  महत्व को घटाने का  ऐसा प्रयत्न ब्राह्मणों द्वारा किया गया और उसी तुलना में वशिष्ठ के महत्व को चार चांद लगाने का प्रयत्न किया गया उसकी तुलना बुद्ध और अशोक के अवमूल्यन से ही की जा सकती है और बहुत संभव है कि  यह सारा प्रयत्न  बौद्ध मत की लोकप्रियता और बौद्ध धर्म को मिले राजकीय संरक्षण के प्रतिशोध में किया गया हो।  

वह कन्नौज के राजा गाधि के पुत्र नहीं हो सकते थे।   वैदिक काल में जिसके वह ऋषि हैं कन्नौज की कोई प्रतिष्ठा न थी। वह असुर परंपरा से जुड़े थे  जिनका कृषि  कर्म और यज्ञ में विश्वास न था । इस  परंपरा में भृगु, अंगिरा, जमदग्नि आदि आते हैं जिनकी ख्याति उनकी तकनीकी दक्षता के कारण थी। अपनी एक ऋचा में वह अपने को गर्व से भरतकुलीन होने और  युद्ध में उत्साह पूर्वक भाग लेने का दावा करते हैं।  सुदास स्वयं भरतवंशी हैं - इम इन्द्र भरतस्य पुत्रा अपपित्व चिकितुर्न प्रप्रित्वम्  । हिन्वन्ति अश्वं  अरणं न नित्यं,  ज्यावाजं परि नयन्ति आजौ  ।। ऋ. 3.53.24,  इसी आधार पर इनको क्षत्रिय और राजवंशी माना गया लगता है।  गाधि गाथी  या गाथा बद्ध प्राचीन इतिहास की रक्षा करने वाली परंपरा  या जिसे बाद में व्यास परंपरा कहां गया, उसके प्रतिनिधि हैं।  

विश्वामित्र को सही सही किसी भाषाई,   जातीय या नस्लवादी  दायरे में रखकर समझने में मुझे कठिनाई होती है। परंतु यह समझने में  कम कठिनाई होती है कि  उनके व्यक्तित्व और चरित्र को गर्हित बनाने के लिए समस्त प्रयासों के बावजूद उनका व्यक्तित्व  दूसरों से अलग दिखाई देता है। पहले उनके साथ हुए अन्याय की बात कर ले। ऋग्वेद  में  हमें उन परिस्थितियों का पता नहीं चलता जिनमें उन्हें  सुदास के पुरोहित के पद से हटाकर निर्वासित किया गया, परंतु सुदास के पुरोधा बनने के बाद,   सत्ता और लोभ से  विरत, एकांत साधना करने वाले,  विश्वामित्र को  राज शक्ति का प्रयोग करते हुए अपमानित करने का प्रयत्न  स्वयं वशिष्ठ ने किया था, न कि राजा विश्वामित्र ने वशिष्ठ का अपमान किया था।  

ऋग्वेद के अनुसार एक भयंकर दुर्भिक्ष में वामदेव गोतम को प्राणरक्षा के लिए खान-पान की वर्जना (व्रत या टैबू) का विचार त्याग कर कुत्ते की अँतड़ियाँ पका कर खानी पड़ी थीं। इसके अतिरिक्त उन्हें एक अन्य अपमान झेलना पड़ा था और वह था अपनी आँखों के आगे अपनी पत्नी का शीलभंग।  कवि वामदेव का कहना है, “मैं सभी देवों की गुहार लगाता रहा परन्तु सब व्यर्थ गया, अन्ततः इन्द्र ने ही कृपा की और सुख के दिन लौटे: 
अवर्त्या शुनि आन्त्राणि पेचे न देवेषु विविदे मर्डितारम् ।
अपश्यं जायाममहीयमानामधा मे श्येनो मध्वा जभार ।।4.18.13 

महाभारत में इस कदाचरण को विश्वामित्र के सिर मढ़ कर पेश किया गया, और इसे अधिक गर्हित बनाने के लिए चांडाल की रसोई में (पक्वणे) घुस कर चोरी करते और पकड़े जाते दिखाया गया। परन्तु रोचक यह है कि यहाँ चांडाल उन्हें ब्राह्मण ही कह कर संबोधित करता है, (दुष्कृती ब्राह्मणं सन्तं  यस्त्वाहम उपालभे। महा. 12.139.77)   कहें लोकमानस को क्षुब्ध करने वाला कोई भी प्रसंग हो, जैसे हरिश्चंद्र का सपने में दान देना और उनका पालन करने के उस दुर्गति से गुजरना जिससे सभी परिचित हैं, विश्वामित्र के सिर मढ़ा जाता रहा। इस कहानी का वैदिक रूप बिल्कुल  अलग था,  इसमें विश्वामित्र की भूमिका उद्धारक की थी।  

हम इस तरह की कहानियों में आए हुए बदलाव के पीछे काम करने वाली मानसिकता पर कुछ नहीं कहना चाहते जो ब्राह्मणों के दिमाग में आज तक बनी रह गई हैं,  याद केवल यह दिलाना चाहते हैं चरित्रहनन  इतने प्रयासों के बाद  भी  उसी में से  उनकी महिमा का भी परिचय मिलता है जिसकी समकक्षता में  कोई दूसरा  ठहर नहीं सकता और  वशिष्ठ के महिमामंडन के बाद भी उनके उसी महिमा गान से उनकी कुटिलता प्रकट हो जाती है जिसकी ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। उनकी गाय नंदिनी की महिमा,  वह गो-ब्राह्मण साम्य,  बौद्ध धर्म के योजनाबद्ध  विरोध का  दस्तावेज है।   उदाहरण के लिए विश्वामित्र को पराजित करने के लिए नंदिनी के गोबर,मूत, फेन सभी से जो सृष्टि कराई गई है: 

असृजत् पह्लवान् पुच्छात सकृतः शबराल् कशान्। 
मूत्रतः च अपसृजत् चापि यवनान् क्रोधमूर्छिताः।
पुंड्रान् किरातान् द्रविडान् सिंहलान् बर्बरान् तथा।।
तथैव दरदान् म्लेच्छान् फेनात् ससर्ज ह।।1. 165.35-36
उससे मौर्य साम्राज्य के उच्छेदन में ब्राह्मणों की छिपी साठ-गांठ की झलक मिलती है जिसकी एक ओर तो खुली घोषणा : ब्रह्मक्षत्रे च विहिते ब्रह्मतेजो विशिष्यते ।। महा. 1.155. 27; धिग् बलं क्षत्रिय बलं ब्रह्मतेजो बलं बलम् । बलाबलं विनिश्चत्य तप एव परं बलम् ।1.165.42 की जाती रही। यदि  तप ही सर्वोपरि है तो विश्वामित्र तपस्या के लिए जाने जाते रहे हैं और वशिष्ठ अपने पौरोहित्य के लिए। 
 
 यहां हम उस संघर्ष की याद दिलाना चाहते हैं जिसमें एक ओर वैदिक काल में आविष्कारकों, कलाकारों और कुशल कर्मियों की महिमा का गान है तो दूसरी ओर ब्राह्मणों  के बीच सम्मान की प्रतिस्पर्धा चल रही है जिसकी एक झलक - गृणाना जमदग्निवत्  स्तुवाना च वसिष्ठवत् ।। 7.96.3 में मिलती है ।   एक ओर नए आविष्कार,  नई सूझ  और दक्षता है  तो दूसरी ओर कर्मकांड पर एकाधिकार जहां कोई नवीनता नहीं है।  जिसका कोई प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ  समाज को प्राप्त नहीं हो रहा था इसलिए असुर परंपरा से आए हुए  तकनीकी पक्ष में असाधारण योग्यता रखने वाले लोगों और पहले से कृषि संपदा पर और बाद में संपदा के दूसरे सभी रूपों पर एकाधिकार करने वाले लोगों के बीच प्रतिस्पर्धा चल रही थी  जिसकी  प्रकृति  का पूरा अनुमान करने की स्थिति में हम नहीं है।

इसे आज की भाषा में वर्ग संघर्ष के न सही, वर्ग हित के तनाव के रूप में समझने का प्रयत्न करें तो बात आसानी से सामने आ जाएगी।  एक ओर ब्रह्मा के नजदीक पहुंचने वाले 3 सिरों वाले, सभी प्रकार के भोगों में लिप्त रहते हैं दूसरी ओर व्यापारियों के हित का प्रतिनिधित्व करने वाले इंद्र उनका गला काट देते हैं।

हम यह याद दिलाना चाहते हैं  भारतीय  स्रोतों का अध्ययन  तुलनात्मक   ढंग से  करने के बाद ही हम  उनके स्रोत और उन में की गई विकृतियों को समझ सकते हैं।  वशिष्ठ विश्वामित्र का द्वन्द्व ब्राह्मण क्का्तरष  द्वन्द्व नहीं है,  ब्राह्मणत्व   के दावेदार  दो प्रतिस्पर्धियों की है,   जिनमें से एक प्राचीन कृषि व्यवस्था से जुड़ा हुआ है दूसरा  कृषि विरोधी  पूर्व परंपरा का जिसके  उत्तराधिकारी  दक्षक्रतु या कुशलकर्मी हैं   जिसके तकनीकी योगदान के बिना भारतीय सभ्यता अपनी उस ऊंचाई पर नहीं पहुंच सकती थी,   जिस पर  पहुंची थी।   एक का गहरा लगाव कर्मकांड से है,  इसके प्रधान देवता  यज्ञ या विष्णु हैं।   दूसरे का साधना, प्रौद्योगिकी और दक्षता पर है।  यदि विश्वामित्र और वशिष्ठ में कोई निर्णायक भेद था  तो  इसमें  विश्वामित्र साधना और मंत्र शक्ति में विश्वास रखते थे । शेष कथा के विषय में  सूचना का अभाव है ।

हम अपनी चर्चा  लिपि के  विकास पर कर रहे हैं  और इस क्रम में  विश्वामित्र की भूमिका के विषय में जो सूचनाएं हमें उपलब्ध है,  या जिनके भरोसे हम  यह प्रस्ताव रखने का  साहस कर रहे हैं  उसे बिंदुवार रखना  उपयोगी होगा।

1, विश्वामित्र के विषय में यह  किंबदंती है कि  उन्होंने  ब्रह्मा की  सृष्टि के समानांतर  एक अपनी सृष्टि की और इसमें कुछ भी न छूटा।  इसका एक ही अर्थ है  कि  विश्वामित्र ने भाषा का आविष्कार किया।  भाषा  वस्तु जगत की प्रतीकात्मक उपस्थित है।  परंतु यह संभव नहीं ।  इसलिए  इसका दूसरा विकल्प बचता है उन्होंने  अंकन की ऐसी प्रणाली का आविष्कार किया  जिससे श्रव्य भाषा को दृश्य भाषा में  बदला जा सके।  अर्थात्  उन्होंने लेखन का आविष्कार किया।   परंतु लेखन की परंपरा बहुत लंबी  और उलझी हुई है।   विश्वामित्र स्वयं कहते हैं  कि उन्हें  लिपि का ज्ञान,  या  ससर्परी लिपि का ज्ञान   जमदग्नि  ने कराया था ( ससर्परी या जमदग्नि दत्ता)।  ऐसी स्थिति में  वह  लिपि के आविष्कारक भी नहीं हो सकते. 

2.  इसके साथ ही  हमें यह भी मालूम है कि  कि यद्यपि  ब्राह्मी,  लीनियर बी , और  सामी लिपयों के चिन्हों  में गहरी समानता है,  इनको परस्पर अनुप्रेरित करने वाले किसी सूत्र का पता न था, या जैसा हम देख आए हैं. था तो उनकी उपेक्षा करते हुए एक नकली निर्वात तैयार किया गया।

3. जिस तीसरे तथ्य से हम परिचित हैंं, वह यह कि सैंधव लिपि के चिन्हों की संख्या किसी अन्य समकालीन लिपि को देखते हुए  बहुत कम है परंतु  ब्राह्मी की अपेक्षाओं को देखते हुए  बहुत अधिक है। यही स्थिति  लीनियर  बी की  ब्राह्मी  और  सैंधव लिपि के सन्दर्भ में । बहुमिश्र (कंपोजिट) सैंधव लिपि को जिसमें कुछ चिन्ह मात्रिक रूप ले चुके थे, शब्दलेखों, भावलेखोंं के अनुपात में अधिक होने के कारण, इनका सरलीकरण करते हुए मात्रिक (सिलैबिक) रूप प्रदान किया था, जिससे वस्तु, उसकी संज्ञा और लिखित रूप का अंतर समाप्त हो गया था और यही उनकी कीर्ति का आधार था।
4. यहाँ उस परंपरा पर भी ध्यान देना होगा जो अधिक प्राचीन न होते हुए भी हमारे लिए तो प्राचीन है ही। ललितविस्तर में बोधिकत्व के शालाप्रवेश से  पहले से ही  64 प्रकार की लेखन विधियों का ज्ञान  था,  उसमें उनको अक्षर ज्ञान कराने वाले गुरु के रूप में विश्वामित्र का उल्लेख है जो  गौतम बुद्ध के बाल रूप को देखकर, चमत्कृत   होकर उनके चरणों पर गिर गए थे।    अर्थात बहुत बाद की परंपरा तक इस बात का स्मरण हमारे जातीय मानस में था कु लिपि के विकास में विश्वामित्र का विशेष  स्थान है।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


गणतंत्र दिवस 2021 पर किसानों की ट्रैक्टर परेड, एक अनोखा उत्सव / विजय शंकर सिंह

26 जनवरी से जुड़े, तीन ईसवी सन, भारत के इतिहास में अमिट रहेंगे। 26 जनवरी 1930 जब देश की पूर्ण स्वतंत्रता के लिये लाहौर में संकल्प लिया गया था। 26 जनवरी 1950, जब हम भारत के लोगों ने एक संप्रभु लोककल्याणकारी राज्य के संविधान को अंगीकृत किया था। और अब 26 जनवरी 2021 जब देश के जन ने एक अनोखे अंदाज में गणतंत्र दिवस के आयोजन का निश्चय किया है। ऐसा बिल्कुल नहीं था कि 26 जनवरी 1950 के बाद से जनता द्वारा मनाया जाने वाला यह पहला आयोजन है। बल्कि राजपथ पर भव्य परेड से लेकर बीटिंग रिट्रीट तक के उत्सव भी जनता के ही थे। पर इस बार जो गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा है उसकी पृष्ठभूमि में किसानों द्वारा आयोजित एक व्यापक जनआंदोलन है। यह आंदोलन 26 जनवरी के लिये नहीं चल रहा है बल्कि इस जन आंदोलन के बीच 26 जनवरी पड़ रही है। यह आंदोलन किसानों से जुड़े तीन कृषि कानून जो कृषि सुधार के नाम पर लाये गए हैं के विरोध में किसान उन्हें वापस लेने के लिये आंदोलन कर रहे हैं। 

अब इस आंदोलन की क्रोनोलॉजी देखिए। 
● 5 जून 2020, को इन तीन कृषि कानूनो के बारे में अध्यादेश लाया गया, जब देश मे कोरोना की आपदा के कारण , लॉकडाउन लगा हुआ था। 
● अध्यादेश के बाद से ही इन कानूनो का विरोध शुरू हो गया। 
● क्योंकि यह तीनो कानून सरकारी मंडी सिस्टम को कमज़ोर करने, एमएसपी को महज औपचारिक बनाकर रख देने, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में किसानों को उनके न्यायालय जाने के मौलिक अधिकारों से वंचित करने और मुनाफाखोरों को जमाखोरी की निर्बाध अनुमति देने वाले हैं। 
● 17 सितंबर 2020 को यह कानून लोकसभा से पारित किए गए। इनका भारी विरोध हुआ। 
● 20 सितंबर 2020 को राज्यसभा से यह कानून पारित घोषित किये गए। पर इसे लेकर बहुत विवाद हुआ औऱ उपसभापति पर भी आक्षेप लगें। 
● पंजाब में इन कानूनो को लेकर विरोध हुआ। राज्य सरकार ने उन कानूनो को मानने से मना कर दिया।
● 26 नवंबर 2020 को किसानों का दिल्ली मार्च शुरू हुआ। 
● तब से अब तक सरकार ने 11 बार किसानों से बात की पर वह अपनी बात किसानों ङो समझा नहीं पायी।
● 18 जनवरी को, 26 जनवरी के लिये किसानों ने ट्रैक्टर परेड निकालने की अनुमति मांगी। 
● 23 जनवरी को दिल्ली पुलिस ने ट्रैक्टर परेड की अनुमति दे दी। 
यह इस आंदोलन का प्रथम फेज था। 

इस प्रकार, किसान आंदोलन अब दूसरे फेज में है। सरकार अपनी सारी ना नुकर के बाद इस स्थिति में आ पहुंची है कि वह इस जनसैलाब को नज़रंदाज़ नहीं कर सकती है। सरकार समर्थकों के सारे दांव और किसानों को लांछित करने तथा भड़काने के सारे उपाय अब विफल हैं। जिद और अकड़ अभी शेष है और यह जिद और अकड़ किसी भी सत्ता का स्थायी भाव होता है। इनमे भी है। वह ज़िद और अकड़, इसी आंदोलन की आंच से पिघलेगी और खत्म होगी या कम होगी। 

पर अब 26 जनवरी के ट्रैक्टर परेड में शांति बनी रहे और यह अनोखा आयोजन बिना किसी विघ्न बाधा के पूरा हो इसे सुनिश्चित करना आयोजकों की एक बड़ी जिम्मेदारी है। सरकार की निगाह भी इस परेड के शांतिपूर्ण समापन पर लगी है और दुनियाभर के मीडिया की भी। दिल्ली पुलिस की अनुमति के बाद, इस परेड के लिये, एक व्यापक योजना आयोजकों ने बनायी है। करो या न करो की विस्तृत गाइडलाइंस जारी की है। जगह जगह वालंटियर नियुक्त किये गए हैं। नशे की हालत में परेड में शामिल होने से रोका गया है। किसी भी प्रकार के अस्त्र शस्त्र को लाने पर रोक लगाई गयी है। किसान परेड आयोजको के हेल्पलाइन नम्बर जारी किए गए हैं। एम्बुलेंस की व्यवस्था की गयी है दिल्ली पुलिस सहायता के लिये तैनात भी रहेगी। यह सब इस आंदोलन की संगठन क्षमता को भी बताता है। किसान नेता दर्शन पाल ने कहा कि ट्रैक्टर परेड करीब 100 किलोमीटर चलेगी। परेड में जितना समय लगेगा, वो हमें दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि यह परेड ऐतिहासक होगी जिसे दुनिया देखेगी।

दिल्ली एनसीआर में निकलने वाली ट्रैक्टर परेड में शामिल होने के लिए कई राज्यों के किसान दिल्ली आ रहे हैं। मीडिया की खबरों के अनुसार, किसान यूनियन के अनुसार, भिवानी जिले से पांच हजार ट्रैक्टर दिल्ली में प्रस्तावित किसानों की ट्रैक्टर परेड में शामिल होने के लिए रवाना होंगे। किसान नेता ने आरोप लगाते हुए कहा कि करीब दो महीने से किसान ठंड के मौसम में अपने हक के लिए बॉर्डर पर धरने पर बैठे हैं लेकिन सरकार अपना हठवादी रवैया छोड़ने को तैयार नहीं है। सरकार अब सरकारी व सावर्जनिक क्षेत्र को बर्बाद करने के बाद खेती व खाद्य सुरक्षा को उजाडऩे के लिए तीन कृषि कानून के लेकर आई है।

2019 में किये गए भाजपा के कृषि सुधार सम्बंधित वादो का अगर आकलन किया जाय तो नए कृषि कानून उन वादों के बिल्कुल उल्टे बनाये गए हैं। वादा किसी और सुधार का है और इन कानूनों द्वारा सुधार किसी और का किया जा रहा है। दरअसल वादा तो जनता से वोट लेने का एक छल भरा तमाशा होता है और, जो किया जाता है वह जनता के लिये नहीं बल्कि कॉरपोरेट और कुछ चहेते पूंजीपतियों के लिये किया जाता है। 

अब कुछ वादों और उनके क्रियान्वयन पर नज़र डालते हैं।
● 2022 तक किसानों की आय दुगुनी करने का वादा।
-- सच यह है कि अधिकांश राज्यो में कृषि लागत ही नही निकल रही है। जिन राज्यों में लागत मिल भी रही है वहां उसका एक बड़ा कारण एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद है। नियमित एमएसपी, किसानों की आय का एक निश्चित आश्वासन है। आज किसान यही मांग कर रहे हैं कि उन्हें अपनी फसल का, कम से कम न्यूनतम समर्थन मूल्य तो मिले । जब सरकार एमएसपी पर ही किसान की फसल, जितनी भी वह खरीदती है, खरीद सकती है तो, यही बाध्यता वह निजी क्षेत्र या कॉरपोरेट पर, क्यों नही एक कानून बना कर लाद सकती कि, वे भी एमएसपी पर ही फसल खरीदें, जिससे किसानों को कम से कम न्यूनतम मूल्य तो मिले ? इसमें जो पैसा व्यय होगा, वह खरीदने वाले का ही तो होगा। कॉरपोरेट हो, स्थानीय व्यापारी हो या कोई भी पैन कार्ड होल्डर हो, जो भी फसल खरीदे, सरकार द्वारा न्यूनतम दर पर तो कम से कम खरीदे ही । आखिर, कॉरपोरेट या कोई भी निजी संस्था या व्यक्ति, अपनी निजी मंडी द्वारा किसान की फसल खरीदना चाहता है तो जिस भाव पर सरकार, बगल में ही स्थित सरकारी मंडी में किसान से फसल खरीद रही है तो,  निजी मंडी वाले वही न्यूनतम दर उसी फसल का क्यों नहीं दे सकते हैं ? 
-- सरकारी मंडी मे तो 6 % टैक्स भी लगता है। पर निजी मंडी को तो टैक्स की छूट तक नए कानून में दे दी गयी है। यह सीधे सीधे सरकारी मंडी को जिओ को लाभ पहुंचाने के लिये बीएसएनएल को जानबूझकर बर्बाद करने के तरीके की रणनीति है और सरकार इस जुर्म में कॉरपोरेट के साथ शरीके जुर्म है। 

● 10 हजार से अधिक किसान उत्पादन संगठनों के गठन में सरकार सहायता करेगी।
-- 2019 के बाद सरकार यही बता दे कि उसने किसने किसान उत्पादन संगठन के गठन किये हैं ? इन संगठनों का उद्देश्य क्या है ? इससे किसानों की आर्थिक स्थिति में क्या लाभ पहुंचा है ? 

● ई नाम ग्राम और प्रधानमंत्री आशा योजना के जरिये एमएसपी प्राप्त करने के लिये बाजार पैदा करने के पर्याप्त अवसर पैदा किये जायेंगे।
-- जब निजी मंडियों या कॉरपोरेट को एमएसपी पर खरीद करने की कानूनी बाध्यता के प्राविधान पर सरकार राजी ही नहीं हो रही है और सरकारी खरीद का दायरा बढ़ाने की कोई योजना ही सरकार के पास नहीं है तो, वह एमएसपी प्राप्त करने के लिये बाजार कहाँ से पैदा करेगी ? 
-- सरकार तो ऐसा बाजार पैदा इन कानूनो के माध्यम से करने जा रही है कि जहां न्यूनतम समर्थन मूल्य जैसी कोई चीज ही नही होगी। बाजार तो बन रहे हैं, पर एमएसपी की बात ही सरकार नहीं करती है।  

● सभी सिंचाई परियोजनाओं को पूरा करने की दिशा में काम होगा। 
-- सभी सिंचाई परियोजना बंद हैं। कोई प्रगति नहीं है। कोई सरकारी आंकड़ा हो तो बताएं। 

● हर गांव को हर मौसम लायक सड़क से जोड़ने की योजना।
-- इस पर भी क्या प्रगति है, सरकार बताये। 

● भूमि का सिंचित रकबा बढ़ाया जाएगा। 
-- इसके आंकड़े उपलब्ध नही है कि 2019 के बाद सिंचित भूमि कितनी बढ़ी है। 

● किसान सम्मान निधि दी जाएगी।
-- यह कार्यक्रम चल रहा है। प्रतिदिन के 16 रुपये और चार महीने में 2,000 रुपये सरकार इस योजना में दे रही है। 

● 60 वर्ष की उम्र से अधिक  किसानों को सामाजिक सुरक्षा और पेंशन की व्यवस्था।
-- यह योजना भी अभी धरातल पर नहीं आयी है। पेंशन निधि के लिये किसानों को ही धन की किश्तें जमा करनी है। जो कभी पूरी होती हैं तो कभी नहीं होती हैं। 

● भूमि का डिजिटलकरण किया जाएगा।
-- यह काम अब इन तीन कानूनो के लागू होने के बाद निजी क्षेत्र द्वारा किया जाएगा। इसका डेटा निजी क्षेत्र के पास ही रहेगा। अब लेखपाल, खसरा, खतौनी और भू प्रबंधन से जुड़े महकमे और व्यवस्था का क्या होगा, फिलहाल पता नहीं है। 

उपरोक्त तथ्यों से यह स्पष्ट है कि भाजपा अपने संकल्पपत्र मे किये गए वादों से यूटर्न ले चुकी है और जो भी वादे सरकार ने किसानों को उनकी आय दुगुनी करने, एमएसपी के लिये नए अवसर खोलने, सिंचित भूमि का रकबा बढ़ाने, वरिष्ठ नागरिकों जो किसान हैं को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने और पेंशन देने, भूमि व्यवस्था में पारदर्शिता हेतु भू अभिलेखों का डिजिटलकरण करने के घोषणापत्र मे किये गए हैं से ठीक उल्टे सरकार ने कदम उठाये हैं। और अब सरकार कह रही है कि यह कानून किसान हित मे हैं ! 

सरकार का कहना है कि वह कानूनों को डेढ़ दो साल के लिये होल्ड कर सकती है। पर ऐसा कोई दृष्टांत मिला नहीं कि, सरकार ने संसद द्वारा पारित किसी कानून को होल्ड किया हो। उसे अनौपचारिक रूप से लागू भले ही न किया हो पर एक समय सीमा तक उसे होल्ड नहीं किया गया है। संसद द्वारा पारित कानून पुनः संसद द्वारा ही रद्द किया जा सकता है या वापस लिया जा सकता है, या यदि उसकी संवैधनिकता को चुनौती दी गयी है तो, सुप्रीम कोर्ट में उसे स्थगित कर के उसके संवैधनिकता के मुद्दे पर संविधान पीठ का गठन कर के, सुनवाई की जा सकती है, पर क्या सरकार यानी कार्यपालिका को ऐसा कोई अधिकार है कि वह संसद द्वारा पारित किसी कानून को होल्ड पर रख दे और होल्ड पर रखने की समय सीमा मनमानी तरह से तय की गयी हो ? 

संविधान विशेषज्ञ इस पर अपनी राय दे सकते हैं। लेकिन सरकार को इस प्रकार का अधिकार देना संसद की सर्वोच्चता पर सवालिया निशान लगाता है। विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका इन तीनो के ही अलग अलग कार्य हैं और इनकी अलग अलग शक्तियां और अधिकार क्षेत्र हैं। पर इन तमाम चेक और बैलेंसेस के बावजूद, संसद की सर्वोच्चता निर्विवादित है। अब अगर यह कानून संसद ने पारित कर दिया है तो यह देश का कानून, लॉ ऑफ द लैंड बन गया है। 

यदि इस कानून में कोई संवैधानिक पेंच है तो, इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है और वहां केवल इस कानून की संवैधनिकता पर ही विचार होगा, न कि कानून के असर पर। कानून के असर या मेरिट, डीमेरिट पर संसद में बहस हो चुकी है और संसद ने उसे पास कर दिया है। यदि सरकार को लगता है कि कानून के कुछ प्राविधान गलत बन गए हैं या उनका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा तो सरकार या तो संसद में उन पर संशोधन ला सकती है या उसे रद्द कर के री ड्राफ्ट कर सकती है। पर जो भी होगा संसद से ही होगा। 

कानून बनने के बाद उसकी नियमावली बनती है। उसी नियमावली के अंतर्गत उक्त कानूनो को लागू किया जाता है। फिर उसके प्रोसीजर बनते हैं। और भी कई निर्देश जारी होते हैं। आज सरकार यह तो कह रही है कि वह उन कानूनो को जिनके खिलाफ किसान आंदोलन कर रहे हैं वह डेढ़ दो साल के लिये होल्ड पर रख कर एक कमेटी बना कर विचार करने के लिये तैयार है। पर यही काम संसद में विधेयकों को स्टैंडिंग कमेटी के सामने भेज कर भी तो किया जा सकता था ? पर जब दिमाग मे अहंकार, जिद और जो कुछ है मैं ही हूँ भरा हो तो, ऐसी बात सूझती भी कहाँ है ! 

सरकार को चाहिए कि 
● वह यह सब तमाशा छोड़े और एक अध्यादेश ला कर इन क़ानूनों को रद्द करे।
● कानूनो के रद्दीकरण का संसद से अनुमोदन कराये।
● कृषि विशेषज्ञों और किसान संगठनों की एक कमेटी बना कर कृषि सुधार का कोई दस्तावेज लाये। 
● उस पर बहस हो और फिर कानून बने तथा नियमानुसार संसद, स्टैंडिंग कमेटी और मतदान की प्रक्रिया से पार होकर विधिवत कानून बने। 

होल्ड करने का निर्णय, बेतुका, नियमों के प्रतिकूल, और एक गलत परंपरा की शुरुआत करना होगा। कल कोई भी सरकार इस परंपरा की आड़ में किसी भी कानून को अपनी मनमर्जी से असीमित समय तक के लिए होल्ड रख सकने की परंपरा का दुरुपयोग कर सकती है और यह संसद की सर्वोच्चता की अवहेलना ही होगी। 

केंद्र के कृषि कानूनों के विरोध में महाराष्ट्र के किसानों ने भी व्यापक प्रदर्शन की तैयारी की है। महाराष्ट्र के 21 जिलों के हजारों किसानों ने नासिक से मुंबई तक मार्च किया है। मुंबई के आजाद मैदान में विशाल किसान रैली का आयोजन किया गया है। यह रैली कृषि कानूनों के विरोध में पहले से ही हजारों की संख्या में दिल्ली बॉर्डर पर डटे हुए किसानों के समर्थन में हैं। कुछ ही दिन पहले एनसीपी नेता, शरद पवार ने किसानों का समर्थन करते हुए किसानों की मांगें न मानने के लिए केंद्र सरकार की आलोचना की थी. शरद पवार ने कहा था कि किसान इतनी ठंड में किसान दिल्ली के आसपास प्रदर्शन कर रहे हैं, किसानों की भावनाओं को समझने में नाकाम रहने पर तो केंद्र को अंजाम भुगतने पड़ेगा। पिछले महीने भी पवार ने कुछ ऐसी ही चेतावनी देते हुए कहा था कि केंद्र को किसानों के धैर्य की परीक्षा नहीं लेनी चाहिए। 

26 जनवरी को गणतंत्र दिवस की किसान परेड के आयोजन के बारे में किसानों के मसले पर निरंतर मुखर रहने वाले पी साईंनाथ ने इस परेड को गणतंत्र को पुनः प्राप्त करने का एक आंदोलन बताया है। इस सरकार ने एक एक कर के सभी संवैधानिक संस्थाओं को कमज़ोर किया है। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट भी सरकार के इस संस्थातोड़क अभियान का एक अंग बन चुकी है। आज सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई कहते हैं कि हमे बदनाम किया जा रहा है। उनका यह दुःख हम सबको साल रहा है। पर सीबीआई जज लोया के संदिग्ध मृत्यु की जांच, राफेल सौदे की जांच से जुड़ी याचिका, सीबीआई प्रमुख को रातोरात हटा देने के सरकार के गलत निर्णय, अनुच्छेद 370, यूएपीए कानून, सीएए आदि महत्वपूर्ण याचिकाओं पर विलंबित सुनवाई, अर्णब गोस्वामी के मुकदमो पर ज़रूरत से अधिक तवज़्ज़ो आदि ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिनके कारण सुप्रीम कोर्ट पर सीधे सवाल खड़े हुए और सबको कठघरे में रखने की हैसियत रखने वाली न्यायपालिका आज खुद जनता के कठघरे में है। सरकार ने आरबीआई की साख को नुकसान पहुंचाया। दो महत्वपूर्ण जांच एजेंसियां, सीबीआई, ईडी की यह हालत कर दी गयी है कि उनके हर छापे सन्देह की दृष्टि से देखे जाने लगे हैं। योजना आयोग तो तोड़ कर नीति आयोग बनाया गया जिसका अब तक यही एक मक़सद सामने आया है कि वह सभी सरकारी कंपनियों को कुछ चहेते पूंजीपतियों को सौंपने के एजेंडे पर काम कर रही है। आरटीआई सिस्टम को कमज़ोर किया गया। 

लेकिन जब सरकार ने एपीएमसी सिस्टम को तोड़ने के लिये कदम बढ़ाए तो किसान, विशेषकर उन क्षेत्रो के किसान जो सरकारी मंडी की बदौलत सम्पन्न हैं ने इस खतरे को भांप लिया और वह अपने अस्तित्व के लिये एकजुट हो गए। यह किसान आंदोलन इस गणतंत्र के लिये एक नयी उम्मीद बन कर आया है। गणतंत्र दिवस 2021 पर होने वाली किसानों की ट्रैक्टर परेड एक ऐतिहासिक घटना होगी। इस किसान आंदोलन को हतोत्साहित करने के लिये न केवल उन्हें ट्रोल किया गया, बल्कि कुछ मीडिया चैनलों पर इनके विरुद्ध दुष्प्रचार भी किया गया। सरकार ने ईडी को सक्रिय किया और खालिस्तानी, पाकिस्तानी आदि नारों से उन्हें विभाजनकारी भी बताया गया। 

किसानों का मनोबल तोड़ने के लिये, कुछ फर्जी किसान संगठन भी खड़े किए। इस आंदोलन को आढ़तियों और बिचौलियों का आंदोलन कह कर प्रचारित किया गया और दो महीनों में लगभग सौ से अधिक किसानों की दुःखद मृत्यु पर न तो प्रधानमंत्री जी ने कुछ कहा और न ही, सरकार ने। ऐसा लगा मरने वाले किसान, इस मुल्क के हैं ही नहीं। पंजाब के बाद जब हरियाणा के किसान खुल कर सामने आए तो दोनो राज्यो में विवाद का विंदु सतलज यमुना लिंक कैनाल का मुद्दा तक उछाला गया। धर्म के नाम पर तोड़ने की कोशिश की गयी। अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त स्वयंसेवी संस्था, खालसा एड इंटरनेशनल को ईडी की नोटिस दी गयी, पर जब इस संस्था को नोबेल पुरस्कार के लिये नामित करने की खबर आयी तो यह नोटिस वापस ले ली गयी। खालसा एड लम्बे समय से आंदोलन में अपना लंगर चला रही है। सरकार का आकलन इस आंदोलन को लेकर गलत दिशा में है। यह आंदोलन इतिहास मे इससे पहले किये गए अनेक जन आंदोलनों की तरह व्यापक हैं। और इसे दबाना अब सरकार के लिये आसान भी नहीं रह गया है। 

ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि शहरी मिडिल क्लास इस आंदोलन को लेकर, इससे अलग है। आखिर शहरी मिडिल क्लास की जड़ भी तो कहीं न कहीं गांवों से ही है। उन्हें भी किसानों का दुखदर्द पता है। 2018 में जब मुंबई में लाखों किसान पैदल मार्च करते हुए आये थे तो मुंबई का शहरी मिडिल क्लास उनके स्वागत और उन्हें खिलाने पिलाने के लिये सड़को पर उतर आया था। यही दिल्ली में भी हो रहा है। लोग जा जा कर न केवल किसानों का हौसला बढ़ा रहे हैं, बल्कि उनकी ज़रूरतों की चीजें उन्हें दे रहें हैं। 
सरकार किसान बातचीत के घटनाक्रम का कभी अध्ययन कीजिए तो, उसका एक उद्देश्य यह भी दिखेगा कि, यह आंदोलन बिखरे, थके और टूट जाये। दो महीने से हो रही यह लंबी वार्ता, थकाने की भी रणनीति हो सकती है। पर जब चुनौती अपनी अस्मिता औऱ संस्कृति तथा जब, सब कुछ दांव पर लगा हो तो समूह बिखरता नहीं है, वह और एकजुट हो जाता है, और उनके संकल्प दृढ़तर होतेे जाते है। सरकार ने जब जब, जहां जहां बुलाया, किसान संगठनों के नेता वहां वहाँ गए। बातचीत में शामिल हुए। अपनी बात रखी। बस अपने संकल्प पर वे डटे रहे। इन दो महीनों में एक भी ऐसी घटना किसानों द्वारा नहीं की गयी, जो हिंसक होने का संकेत देती हो। हरियाणा पुलिस के वाटर कैनन के प्रयोग, सड़क खोदने, पुल पर लाठी चलाने जैसे अनप्रोफेशनल तरीके से भीड़ नियंत्रण के तऱीके अपनाने के बाद भी किसानों ने कोई हिंसक प्रतिरोध नहीं किया। वे आगे बढ़ते रहे और जहां तक जा सकते थे गए औऱ फिर वहीं बैठ गए। उन्होंने सबको बिना भेदभाव के लंगर छकाया, व्यवस्थित बने रहे और अपनी बात कहते रहे। दुनियाभर में इस धरना प्रदर्शन के अहिंसक भाव की सराहना हो रही है। सरकार ने भी किसानों के धैर्य की सराहना की है।

26 जनवरी की यह ट्रैक्टर रैली, किसान संगठनों द्वारा चलाये जा रहे धरना प्रदर्शन के धैर्य की एक परीक्षा भी होगी। हिंसा किसी भी कीमत पर नहीं होनी चाहिए और आंदोलनकारियों को चाहिए कि वे पुलिस से किसी भी प्रकार का कन्फ्रण्टेशन न होने दे। इस आंदोलन की सबसे बड़ी ताकत है, इतनी अधिक संख्या में किसानों का, दो महीने तक शांतिपूर्ण रह कर अपने लक्ष्य और संकल्प पर दृढ़ रहना। दुनिया मे ऐसा व्यापक और शांतिपूर्ण प्रतिरोध शायद कम ही हुआ होगा।आज तक इसी अहिंसा ने सरकार को बेबस बना रखा है । हिंसक आंदोलन, कितनी बडी संगठित हिंसा के साथ क्योँ न हो, से निपटना आसान होता है पर अहिंसक आन्दोलन और धरने को हटाना बहुत मुश्किल होता है। यह बेबसी अब दिखने भी लगी है। 30 जनवरी को महात्मा गांधी की हत्या हुयी थी। एक अहिंसक, शांतिपूर्ण और सामाजिक सद्भाव से ओतप्रोत 26 जनवरी का यह किसान गणतंत्र दिवस समारोह शांति और सद्भाव से सम्पन्न हो, इससे बेहतर श्रद्धांजलि, महात्मा गांधी को, उनकी पुण्यतिथि 30 जनवरी पर, नही दी सकती है।

( विजय शंकर सिंह )

2021 की 26 जनवरी - गणतंत्र का एक अनोखा जनपर्व / विजय शंकर सिंह

26 जनवरी को गणतंत्र दिवस की किसान परेड के आयोजन के बारे में किसानों के मसले पर निरंतर मुखर रहने वाले पत्रकार, पी साईंनाथ ने इस परेड को गणतंत्र  को पुनः प्राप्त करने का एक आंदोलन बताया है। पी साईंनाथ के इस कथन पर विचार करने के पहले यह ज़रूर देख लेना चाहिए कि इस सरकार ने एक एक कर के सभी संवैधानिक संस्थाओं को कमज़ोर किया है। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट भी सरकार के इस संस्थातोड़क अभियान का एक अंग बन चुकी है। आज सुप्रीम कोर्ट के सीजेआई कहते हैं कि हमे बदनाम किया जा रहा है। उनका यह दुःख हम सबको साल रहा है। पर सीबीआई जज लोया के संदिग्ध मृत्यु की जांच, राफेल सौदे की जांच से जुड़ी याचिका, सीबीआई प्रमुख को रातोरात हटा देने के सरकार के गलत निर्णय, अनुच्छेद 370, यूएपीए कानून, सीएए आदि महत्वपूर्ण याचिकाओं पर विलंबित सुनवाई, अर्णब गोस्वामी के मुकदमो पर ज़रूरत से अधिक तवज़्ज़ो आदि ऐसे तमाम उदाहरण हैं जिनके कारण सुप्रीम कोर्ट पर सीधे सवाल खड़े हुए और सबको कठघरे में रखने की हैसियत रखने वाली न्यायपालिका खुद जनता के कठघरे में है। 

सरकार ने आरबीआई की साख को नुकसान पहुंचाया। दो महत्वपूर्ण जांच एजेंसियां, सीबीआई, ईडी की यह हालत हो गयी है कि उनके हर छापे सन्देह की दृष्टि से देखे जाने लगें। यहां तक कि सेना के भी अराजनीतिक चरित्र को बदलने की कोशिश की गयी। योजना आयोग तो तोड़ कर नीति आयोग बनाया गया जिसका अब तक यही एक मक़सद सामने आया है कि वह सभी सरकारी कंपनियों को कुछ चहेते पूंजीपतियों को सौंप दिया जाय। आरटीआई सिस्टम को कमज़ोर किया गया। 

लेकिन जब सरकार ने एपीएमसी सिस्टम को तोड़ने के लिये कदम बढ़ाए तो किसान, विशेषकर उन क्षेत्रो के किसान, जो सरकारी मंडी की बदौलत सम्पन्न हैं ने, इसे भांप लिया और वह अपने अस्तित्व के लिये एकजुट हो गए। यह किसान आंदोलन इस गणतंत्र के लिये एक नयी उम्मीद बन कर आया है। गणतंत्र दिवस 2021 पर होने वाली किसानों की ट्रैक्टर परेड एक ऐतिहासिक क्षण होगा, जब जनता, इस महापर्व में अपनी भागीदारी देगी। लोगों  को इस परेड में उत्साह और शांति के साथ भाग लेना चाहिए। इस किसान आंदोलन को हतोत्साहित करने के लिये न केवल इन्हें ट्रोल किया गया, बल्कि कुछ मीडिया चैनलों पर इनके विरुद्ध दुष्प्रचार भी किया गया। सरकार ने ईडी को सक्रिय किया और खालिस्तानी, पाकिस्तानी आदि नारों से उन्हें विभाजनकारी भी बताया गया। 

सरकार ने इन किसानों का मनोबल तोड़ने के लिये, कुछ फर्जी किसान संगठन भी खड़े किए, इस आंदोलन को आढ़तियों और बिचौलियों का आंदोलन कह कर प्रचारित किया गया और दो महीनों में लगभग सौ से अधिक किसानों की दुःखद मृत्यु पर न तो प्रधानमंत्री जी ने कुछ कहा और न ही, सरकार ने। ऐसा लगा मरने वाले किसान, इस मुल्क के हैं ही नहीं। पंजाब के बाद जब हरियाणा के किसान खुल कर सामने आए तो दोनो राज्यो में विवाद का विंदु सतलज यमुना लिंक कैनाल का मुद्दा तक उछाल दिया गया। पर किसान समझदार निकले और वे भ्रमित नहीं हुए। धर्म के नाम पर तोड़ने की कोशिश की गयी। अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त स्वयंसेवी संस्था, खालसा एड इंटरनेशनल को ईडी की नोटिस दी गयी, पर जब इस संस्था को नोबेल पुरस्कार के लिये नामित करने की खबर आयी तो यह नोटिस वापस ले ली गयी। खालसा एड लम्बे समय से आंदोलन में अपना लंगर चला रही है। लेकिन, सरकार का आकलन इस आंदोलन को लेकर गलत दिशा में है। यह आंदोलन इतिहास मे इससे पहले किये गए अनेक जन आंदोलनों की तरह व्यापक हैं। और इसे दबाना अब सरकार के लिये आसान भी नहीं है। 

ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि शहरी मिडिल क्लास इस आंदोलन को लेकर, बिल्कुल इससे अलग है। आखिर शहरी मिडिल क्लास की जड़ भी तो कहीं न कहीं गांवों से ही है। उन्हें भी किसानों का दुखदर्द पता है। उन्हें भी 18 रु का गेहूं खेत मे और 48 रुपये का आटा मॉल में, का गणित पता है। सरकार के समर्थक मित्रो की बात अलग है। जो हस्तिनापुर से निर्ममता की तरह जुड़े हैं, वे तो धृतराष्ट्र के साथ रहेंगे ही, पर अधिकांश देश की अर्थव्यथाकथा से पीड़ित हैं और इसे समझ भी रहे हैं। 2018 में जब मुंबई में लाखों किसान पैदल मार्च करते हुए आये थे तो मुंबई का शहरी मिडिल क्लास उनके स्वागत और उन्हें खिलाने पिलाने के लिये सड़को पर उतर आया था। यही हाल, दिल्ली में भी हो रहा है। लोग जा जा कर न केवल किसानों का हौसला बढ़ा रहे हैं, बल्कि उनकी ज़रूरतों की चीजें उन्हें दे रहें हैं। 

यह किसान गरीब नहीं है। खाते पीते, और सम्पन्न किसान हैं। जम कर पिज्जा, बर्गर, और बढ़िया खाते पीते हैं। जम के मेहनत करते हैं। ट्रैक्टर, और मशीनों से खेती करते हैं। इनके बच्चे अच्छे और कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ते हैं। जो बच्चे पढ़ने में तेज होते हैं वे उच्च शिक्षा लेकर अगर मौका मिलता है तो विदेश चले जाते हैं। सिविल सेवा और पुलिस, फौज में भर्ती होते हैं। मस्ती से जीते है । यह जीवनशैली है पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड के तराई के किसानों की और देश के कुछ हिस्सों में खेती के दम पर बेहतर जीवनशैली जीने वाले किसानों की। 

क्या ऐसी जीवनशैली जीने वाले किसानों से ईर्ष्या करनी चाहिए ? जी नहीं, यह ईर्ष्या का काऱण नहीं बल्कि यह चिंतन का विषय होना चाहिए कि यही सम्पन्नता देश के अन्य उन किसानों के जीवन मे क्यों नहीं है जो प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों में चित्रित और विम्बित किसानों की तरह आज भी बने हुए हैं ? किसान कहने पर, होरी, गोबर, और धनिया और दो बैलों की जोड़ी का ही अक्स कल्पना में क्योँ उभरता है ? किसान एक बेहतर और ऐशो आराम का जीवन क्यों नहीं जी सकता है ?

पर आज मीडिया का वह हिस्सा जो, सरकारी दल की कृपा पर जी रहा है और जो जनता के लिये जनसंचार माध्यम में नहीं बल्कि अपने वेतनदाता के हित के लिये खबरें लेता और देता रहता है, उसकी सबसे बडी चिंता यही है कि इस आंदोलन की फंडिंग कौन कर रहा है। 

उन्हें कभी यह चिंता नहीं सताती कि, पीएमकेयर्स में धन कहाँ से आता है और वह धन कहां खर्च हो रहा है। इलेक्टोरल बांड में किस दल में कितना धन आया और किस दल का कितना धन खर्च हुआ। यह पूछने का साहस भी न तो सरकार समर्थक जुटा पा रहे हैं और न ही सरकारी कृपा पर पलने वाले कुछ चाटुकार मिडिया समूह और उनके पत्रकार। धरनास्थल पर तो लंगर खुला है। बहुत मन हो तो वही जा कर पूछ लीजिए कि यह फंडिंग कहाँ से हो रही है। वैसे भी आयकर, और ईडी तो यह सब सूंघ ही रही होगी। वह सरकार को बता भी रही होगी। 

दरअसल यह सम्पन्नता, यह अस्मिता, यह स्वाभिमान और यह ठसक जो आज किसानों में दिख रही है वही सरकार और सरकार समर्थकों के आंख की किरिकरी भी है। सरकार खास कर पूंजीवादी तंत्र की सरकार, जन की सम्पन्नता औऱ उनके बेहतर जीवन शैली से बहुत असहज होती रहती है। जहाँपनाह, जहां को पनाह में रखने के ईगो से मुक्त नहीं होना चाहते। वे, चार महीने में, 2000 रुपये यानी 16 रुपये रोज की सम्मान निधि के इश्तहार में लपेट कर देने के, जहाँपनाही सुख से वंचित नहीं रहना चाहते है। वह 80 करोड़ जनसंख्या की गरीबी से द्रवित नहीं होते हैं पर उस गरीब को, 5 किलो, गेहूं 2 किलो चावल और एक किलो दाल बांट कर आत्ममुग्धता के अश्लील तोष के सुख में मिथ्या आनन्द में ज़रूर ऊबचूभ होते है। गरीब की गरीबी दूर कैसे हो, उसकी जीवन शैली कैसे बदले और उन्नत हो, इस विषय पर न तो सरकार का कोई चिंतन रहता है और न ही, कोई एजेंडा। 

दो महीने से चल रहा आंदोलन, कमज़ोर, गरीब किसानों के बस का हो, यह मुश्किल हो सकता है। क्योंकि न तो वे इतने सांधन सम्पन्न हैं, औऱ न ही वे लंबे समय तक वे सड़कों पर रह सकते हैं। दो वक्त के भोजन के बाद अगले दिन के लिये पेट भरने की समस्या उनके सामने खड़ी रहती हैं। आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को, फुसलाना, बहकाना और जुमले सुनाकर तोड़ देना आसान होता है। आज आंदोलनकारी किसानों की यही सम्पन्नता सरकार को असहज कर रही है। और सरकार के समर्थक भी आंखे फैला कर कहते हैं 
" यार यह किसान तो कही से, दिखते भी नही। देखो यह तो पिज्जा बर्गर खा रहे है। इनके बच्चों को देखो यह तो फर्राटे से अंग्रेजी बोल रहे है । किसान बिलो पर बहस कर रहे हैं। गोदी मीडिया के सवालों के जवाब में उन्ही से जवाब तलब कर रहे हैं।"

दरअसल पूंजीवादी व्यवस्था लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा के विपरीत सोचती है। वह मुनाफा, पूंजी के विस्तार, पूंजी के एकत्रीकरण और सर्वग्रासी भाव से संक्रमित होती है, न कि वह उस समाज या अपने कामगारों के जीवनशैली की गुणवत्ता के प्रति सचेत और चिंतित रहती है, जिसके दम पर पूंजीवाद अपना शोषण से भरा साम्राज्य फैलाता रहता है। देयर इस नो फ्री लंच, भोजन मुफ्त में नही  मिलता है यह पूंजीवाद का मूल मंत्र है। इसीलिए, सरकार द्वारा जनहित की योजनाएं जो जनता को मुफ्त चिकित्सा, शिक्षा आदि की सुविधाएं देती हैं तो पूंजीवाद के समर्थकों को यह सब मुफ्तखोरी लगती है। वे ऐसी कमज़ोर जनता को फ्रीबी कह कर हिकारत की नज़र से देखते हैं। जब कि लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा में वंचितों और आर्थिक, सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों के उत्थान के कार्यक्रम को प्राथमिकता दी गयी है। 

आर्थिक रूप से कमज़ोर तबका पूंजीवाद को अक्सर रास आता है। क्योंकि उन्हें सस्ता श्रम मिलता है और उसकी मजदूरी या वेतन वे सौदेबाजी से तय करते हैं। आज नीति आयोग के विचारकों की एक समस्या यह भी है कि शहरों में श्रमिकों की कमी है। दरअसल कमी श्रमिको की नहीं है, पर उन्हें बेबस, बेजुबान और इफरात में ऐसे लोग चाहिए जो उनकी मर्जी से उनकी शर्तो पर काम करें और अपने आर्थिक शोषण के खिलाफ कुछ न कहें। संगठित क्षेत्र के कामगारों को मिलने वाली सुविधाएं और भत्ते भी इन्हें चुभते हैं। अपने हक़ के लिये तन कर खड़े हो जाना और अपनी बात रखना, पूंजीवादी व्यवस्था में अक्सर अनुशासनहीनता और विद्रोह के रूप में देखा जाता है। आज इन सब के लिये तंत्र ने एक नया शब्द ढूंढ लिया है नक्सल। आज इस बात पर बहस, और चिंतन होनी चाहिए कि देश के अन्य क्षेत्रों के किसान, पंजाब और हरियाणा के किसानों के समान खुशहाल क्यों नहीं है तो इस बात पर समाज का एक वर्ग चिंतित है, कि पंजाब और हरियाणा के किसान इतने मज़बूत और सम्पन्न क्यों हैं ? 

सरकार या पूंजीवादी सिस्टम यह नहीं चाहता कि, संगठित क्षेत्र बढ़े और वह मज़बूत हो। वह श्रम के बाजार के रूप में एक ऐसा समूह चाहता है जो मांग और पूर्ति के आधार पर अपनी मजदूरी ले और वह मजदूरी भी नियोक्ता अपनी शर्तों पर ही तय करे, न कि व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं को देखते हुए तय हो। लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा में किसी भी व्यक्ति को उसके मौलिक आवश्यकताओ का ध्यान रखा जाता है। उनकी जीवन शैली का ध्यान रखा जाता है। उन्हें पौष्टिक भोजन और रहने, स्वास्थ्य और शिक्षा की कम से कम मौलिक ज़रूरतें तो पूरी हों, इन सबका ध्यान रखा जाता है। पूंजीवादी व्यवस्था के लिये यह उनकी प्राथमिकता में नहीं आता है। 

26 जनवरी से जुड़े, तीन ईसवी सन, भारत के इतिहास में अमिट रहेंगे। 26 जनवरी 1930 जब देश की पूर्ण स्वतंत्रता के लिये लाहौर में संकल्प लिया गया था। 26 जनवरी 1950, जब हम भारत के लोगों ने एक संप्रभु लोककल्याणकारी राज्य के संविधान को अंगीकृत किया था। और अब 26 जनवरी 2021 जब देश के जन ने एक अनोखे अंदाज में गणतंत्र दिवस के आयोजन का निश्चय किया है। ऐसा बिल्कुल नहीं था कि 26 जनवरी 1950 के बाद से जनता द्वारा मनाया जाने वाला यह पहला आयोजन है। बल्कि राजपथ पर भव्य परेड से लेकर बीटिंग रिट्रीट तक के उत्सव भी जनता के ही थे। पर इस बार जो गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा है उसकी पृष्ठभूमि में किसानों द्वारा आयोजित एक व्यापक जनआंदोलन है। यह आंदोलन 26 जनवरी के लिये नहीं चल रहा है बल्कि इस जन आंदोलन के बीच 26 जनवरी पड़ रही है। यह आंदोलन किसानों से जुड़े तीन कृषि कानून जो कृषि सुधार के नाम पर लाये गए हैं के विरोध में किसान उन्हें वापस लेने के लिये आंदोलन कर रहे हैं। 

( विजय शंकर सिंह )

Sunday 24 January 2021

शब्दवेध (91) सैंधव लिपि का पाठ

लीनियर-बी का आधार क्या है इसे समझने के लिए जरूरी है कि हम सैंधव लिपि की प्रकृति को समझें।
 
इस  लिपि  के  पाठ  की तीन चुनौतियाँ हैं। पहली यह  कि   इसकी भाषा क्या है?  दूसरी,  इसके अभिलेखों का अर्थ क्या है,और;  तीसरी, यह कि इनका उपयोग किन रूपों या प्रयोजनों से किया जाता था।
  
जिन दिनों आर्य आक्रमण की कहानियां  लोकप्रिय थीं,   और उनके पीछे की राजनीति प्रकट हो कर भी अदृश्य रह जाती थी, उन दिनों भले इसके एक भी अभिलेख  सही पाठ संभव न हो सका हो,  इसकी भाषा  द्रविड़ मान ली जाती थी। पढ़ने वाला अपनी पूरी अक्ल लगा कर भाषा द्रविड़ सिद्ध करना चाहता था और भाषा संस्कृत सिद्ध होती थी। 

इसे एक दो उदाहरणों से अधिक स्पष्टता से समझा जा सकता है।  इरावदन महादेवन भाषा को तमिल सिद्ध करने के लिए आजीवन प्रयत्नशील रहे।  उस अंकन का, जिसमे नीचे मानव आकृति है और जिसके सिर पर एक पात्र की आकृति बनी है, पाठ सुझाया सातिवाहन। सातिवाहन या शालिवाहन दक्षिण भारत का ऐतिहासिक काल का राजवंश था, इसलिए उन्हें इसमें द्रविड भाषा की संभावना दिखाई दी। अपने एक दूसरे लेख में (1985 `The Cult Objects on Unicorn Seals: A Sacred Filter  ?' ) उन्होंने एशृंग वृष के शरीर पर अंकित चिन्हों की  विस्तृत व्याख्या करते हुए उन्हें सोम सवन से संबद्ध दिखाया।  मैंने कई साल बाद टोका कि इससे तो आप इसे वैदिक सिद्ध कर रहे हैं, तो उनका उत्तर था उसे अब नकार दिया है।  द्रविड़ पाठ के दूसरे उद्भट आंदोलनकारी ऐस्को पार्पोला ने स्वस्तिक पर लगे अनुस्वार चिन्ह ( ँ) का पाठ ‘ॐस्वस्ति’ के रूप में किया।  ऐसे शेखचिल्लीपन पर हँसी आएगी,  पर इनको गंभीरता से लिया जाता रहा है और इस विडंबना पर भी ध्यान नहीं दिया जाता रहा कि इसके बाद भी दावा क्या किया जा रहा है और प्रमाण क्या कहते हैं।

दि वेदिक हड़प्पन्स में (1995: 385-395) में यह प्रमाणित किया था कि इनकी भाषा वैदिक है, क्योंकि, 1.  जो कुछ कलाकारों ने चित्रों में अंकित किया है ठीक उसे ही वैदिक कवियों ने शब्दचित्रों में उतनी ही मार्मिकता के साथ अंकित किया है; 2. ऋग्वेद में जिन देवों का मूर्तन वन्य पशुओं के रूप में हुआ है, उन्हीं  का चित्रण मुहरों पर पाया जाता  है;  3.  देवों का स्मरण रक्षा और मार्गदर्शन के लिए किया गया है, पालतू पशु जो स्वयं मनुष्य के वश में हैं, या मादा जिसकी रक्षा का भार पुरुष पर है (अनवद्या पतिजुष्टेव नारी)  इसमें समर्थ नहीं इसलिए  न तो बिल्ली, गधे/घोड़े का मुहरों पर अंकन है, न गाय का। सभी पशु नर हैं, वन्य हैं और अज और मेष भी इतने ओजस्वी हैं कि उनकी प्रजाति का ध्यान बाद में आता है, उनकी आक्रामकता या शक्ति पर पहले।  यह रोचक है कि वृष/वृषभ  के चित्रण हैं, बैल के या गाय के नहीं जिनसे किसी देव की तुलना नहीं की गई है। एक अपवाद हाथी का हो सकता था, पर ऋग्वेद का हस्ती जंगली है - मृगो न हस्ती तविषीमुषाणः सिंहो न भीम आयुधानि बिभ्रत् ।। 4.16.14 । ध्यान दें तो आयुध लिए सिंह की कल्पना अटपटी है, पर सैंधव अंकनों में ऐसा अंकन भी है, (इसका ध्यान पहले न था,  इसकी स्मृति है, संप्रति जाँच नहीं कर पाया) 

अभिलेखों का पाठ करने में सबसे बड़ी बाधा यह कि इनके निर्वचन में अन्य दुरूह लिपियों के पाठ के जो तरीके हैं उनसे ही मदद ली जाती रही है और भारतीय परंपरा की उपेक्षा की जाती रही है।  

लेखन के मामले में भारत में  एक साथ दो प्रवृत्तियां पाई जाती हैं:  पाठ को सर्वग्राह्य और अल्पजनग्राह्य बनाने की विरोधी प्रवृत्तियाँ।  दूसरी के पाठ के लिए गुरु या मर्मज्ञ लोगों की सहायता - ‘बिन गुरु होय न ज्ञान’ - अनिवार्य था।  इसके कारण लेखन के सांप्रदायिक रूप बन गए थे, जिनके अपने कूटाक्षरों या गूढ़ार्थी शब्दों को किसी दूसरे संप्रदाय का कूटविद भी नहीं जान सकता था।   सांप्रदायिक भाषा  में जानबूझकर  शब्दों के अर्थ छिपाने और बदलने के प्रयत्न के पीछे  मठाधीशों के एकाधिकार की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता।   स्वामी शंकरानंद ने भले ही इन अभिलेखों का पाठ न किया हो परंतु उन्होंने  भारत में प्रचलित भाषा के गुह्य प्रयोगों की ओर ध्यान दिलाया था जिस की ओर  दूसरे अध्येताओं को भी ध्यान देना चाहिए। यह गोपन अराजकता का रूप ले लेता था। ललितविस्तर में बुद्ध पाठशाला में प्रवेश से पहले जिन 64 लिपियों का ज्ञान प्राप्त कर चुके थे उनमें अनेक कल्पना प्रसूत (सर्वसारसंग्रहणी, सर्वभूतरुतग्रहणी, सर्वौषधिनिष्यन्दा) हैं,  कुछ ब्राह्मी के क्षेत्रीय रूप  (ब्राह्मी,  अंगिका, वंगिका,  मागध, मांगल्य,  द्राविड़, किरात, हूण,  दाक्षिण्य,  पूर्वविदेह, दरद, खाष्य (खश जनों की) , चीन,  आदि)  हैं ; कुछ कंठस्थ करने के लिए अपनाई जाने वाली विधियाँ (अनुलोम, विलोम, )हैं, परन्तु उनमें कुछ प्रयत्नपूर्वक कूटभाषा बनाने और संप्रदायों के गूढ़ाक्षरों वाली लिपियाँ (अवमूर्ध, शास्त्रावर्त, गणनावर्त,  मध्याहारिणी,  भी हैं। परंतु इनसे कूटविधियों का न सही नाम पता चल सकता है न उनके विविध रूप। 

सैंधव लिपि मे भी शब्दाक्षरों का  प्रयोग होता था  यह तो स्वस्ति के प्रयोग से ही  प्रमाणित है।   हमारी आज की लिपि माला से इतर ॐ,  स्वस्ति, श्रीश्री6, या श्रीश्री108,  जैसे प्रयोग लेखन में  किए जाते हैं, या, कम से कम, परंपरावादी लोगों द्वारा किए जाते हैं।  सैंधव लिपि में इनकी  संख्या अधिक थी यह समझना आसान है।   इनके पीछे  श्रद्धा,  गोपन,  रीति  निर्वाह और ज्ञान पर नियंत्रण जैसे अनेक कारण रहे हो सकते हैं। शब्द के स्थान पर अंकों का  प्रयोग,  अंकों के लिए शब्दों का प्रयोग रीतिकाल तक की कूटोक्तियो में देखने में आता है।  ऐसा इसलिए भी सोचना होता है कि ऋग्वेद में गोपन और गूढ़ता पर (अपगूळ्हं गुहाहितम् ;  गुहा नामानि दधिरे पराणि)  पर विशेष बल दिया गया है। एक ही शब्द या चिन्ह के प्रसंगानुसार अनेक अर्थ हो सकते थे ।  हम  इनके विस्तार में भी नहीं जाएंगे।   हम  केवल  स्वस्ति  चिन्ह के अर्थभेद पर ध्यान दे सकते हैं।

स्वस्ति पाठ
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आज भी बहुत सारे हिंदू घरों के द्वार पर, विशेषतः बनियों के घरों या बहीखाते में  स्वस्तिक का चिन्ह बना तो मिलेगा ही,  उसके साथ,  शुभ, लाभ  भी लिखा मिलेगा।  अर्थात् यहाँ इसका अर्थ शुभ और लाभ है : ऋग्वेद कालीन  भाषा में कहें तो शुभ,  ‘क्षेम’ है और लाभ, ‘योग’ - पाहि क्षेमे उत योगे वरं नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः।

स्वस्तिक का चिन्ह  चक्र प्रवर्तन (अपि पन्थामगन्महि स्वस्तिगामनेहसम् ।)  का सबसे पुराना रूप है। , स्वस्तिक  आगे बढ़ते हुए  पहिए का प्रतीकात्मक अंकन है,  जिसका  एक अर्थ है  चरैवेति   चरैवेति।  मूलाधार है  वह  चिन्ह (+) जिसका प्रयोग (धन) अर्थात  ‘योग’  के लिए आज तक होता आया है।  ये  चक्र के  अरों के प्रतीक हैं। चार ही अरे  क्यों, जब कि वैदिक  चक्र में बारह अरों का उल्लेख है?   इसलिए  यह  धर्म चक्र  प्रवर्तन नहीं था,  अर्थचक्र प्रवर्तन था ।  सारी दुनिया की दौलत  वे लोग बटोरना चाहते थे  (सहस्रिण उप नो माहि वाजान्यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः , 7.26.5;   आ विश्वतः पाञ्चजन्येन राया यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः, 7.72.5)। जिनकी आकांक्षा का मूर्तिमान रूप यह चक्र है इसलिए चारों  दिशाओं में निर्बाध पहुंचने का प्रतीकांकन (विश्वानि दुर्गा पिपृतं तिरो नो यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ।। 7.60.12;   सुगा नो विश्वा सुपथानि सन्तु यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ।। 7.62.6),  चार अरों,  चारों दिशाओं  में गमन और  उस यात्रा के निर्बाध होने का प्रतीक पहिए की  परिधि का  आपस में  न मिल पाना, या प्रगति का निर्बाध रहना है । जैसे  संकट में पड़ा हुआ  या संकट की  संभावना से डरा हुआ व्यक्ति  सुरक्षा के उपाय करता है जिसमें सभी देवों की मनौती भी होती है (स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु, 1.89.6;   शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्वर्यमा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरुरुक्रमः ।। 1.90.9); ऐसी ही  चिंता  यात्रा पर प्रस्थान करने वाले व्यापारियों की मौसम  ( मधु वाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः । माध्वीर्नः सन्त्वोषधीः ।। मधु नक्तमुतोषसो मधुमत् पार्थिवं रजः । मधु द्यौरस्तु नः पिता ।।  मधुमान्नो वनस्पतिर्मधुमाँ अस्तु सूर्यः । माध्वीर्गावो भवन्तु नः ।। 1.90.6-8)  से लेकर गलत रास्ते पर जाने से बचाने और आपदा में सुरक्षा करने से संबंधित (स्वस्ति नो पथ्यासु धन्वसु स्वस्त्यप्सु वृजने स्वर्वति ।) हुआ करती थी।  हमारा निवेदन मात्र यह है कि स्वस्तिक चिन्ह वही है, पर विविध संदर्भों मेे उसके अर्थ अलग हो जाते थे और इस पहलू की ओर यथेष्ट ध्यान नहीं दिया गया।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

शब्दवेध (90) साधो कौन राह ह्वै जाई

जैसे चलते चलते आप किसी चौराहे पर पहुंच जाएं जहाँ  सभी रास्ते बाहर से आकर मिलते न हों, आपके ही रास्ते से शाखाओं की तरह फूट  रहे  हों, और आप  जड़ों से आए रस संचार की तरह  सभी शाखाओं पर एक साथ फैलना चाहें।  वृक्ष के लिए जो काम इतना आसान है,  हमारी अपनी काया में  प्राणसंचार  और रक्त संचार  के लिए इतना अनायास है  कि  वह होता है  और हम  उसे जान भी नहीं पाते, वही मन के लिए,  अभिव्यक्ति के लिए  उतना ही असंभव है।  हम  सभी रास्तों पर  एक साथ चल नहीं सकते, न पावों से, न  भाषा से।  चलने का मोह है  तो एक पर कुछ दूर चल कर, वापस उसी बिंदु पर आना होगा । इस असमंजस में,  मैंने  कल अपनी  पोस्ट लिखी  ही नहीं। सभी रास्ते,  मेरे उससे पहले की  पोस्ट से ही निकले थे। आज सोचा कुछ दूर चल कर वापस आकर दूसरे पर चलने का अभ्यास करें तो शायद आगे का रास्ता आसानी से खुल जाए। 
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इतिहास क्या है
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मैंने  कार  के इतिहास दर्शन को अवैज्ञानिक इसलिए  माना था  कि  वैज्ञानिक इतिहास  सापेक्ष नहीं होता,  उसकी स्वायत्तता होती है।  यह स्वायत्तता  उसे  अपने आंतरिक नियमों से मिलती है जिसके  अभाव में मैंने उनकी तुलना में हंटिंगटन को रखा था।  दोनों में समानता यह है कि वे  इतिहास का उपयोग करना चाहते हैं पर उसे समझना नहीं चाहते।  समझने की चिंता  से विज्ञान पैदा होता है, उपयोग करने की उत्कंठा से  पाक शास्त्र पैदा होता है,  जिसमें,  जो भोज्य है  उसे है ग्राह्य बनाने के लिए नमक मिर्च मसाले  अपनी ओर से मिलाने होते हैं,  या  पहले से उपलब्ध होने,  उनकी लत पड़ जाने, के कारण जरूरी मान लिये जाते हैं। परिणाम पर ध्यान देने वाले  इतिहास को समझते नहीं, कम से कम श्रम और लागत से अधिक से अधिक लाभ उठाने की चिंता में  खान-पान से लेकर, तरह के सामान बनाने और विचार तक में मिलावट के कारोबार  करने वालों की तरह जल्द से जल्द  ऊंचाई पर पहुंचने की कोशिश के कारण   ज्ञान से लेकर  आचार तक की सभी मर्यादाओं को तोड़ते हैं।  वेअपनी ही प्रतिज्ञा पर सही नहीं उतर पाते,   परिणाम पर ध्यान देने वाले किसी अपेक्षा की पूर्ति  नहीं कर सकते।

वे राज्य का विरोध करेंगे और सत्ता की राजनीति की बात करेंगे,  मानवता की बात करेंगे,  और मानवता की समझ को पंगु कर देंगे।  वे सर्वहारा क्रांति की बात करेंगे, वर्गशत्रु को मिटाने की बात करेंगे  और पहले वर्ग शत्रु के नाम पर अपने निर्णय से असहमत होने वालों को उत्पीड़ित करेंगे,  उनकी हत्या करेंगे,  और फिर  उसी सर्वहारा को  इतना व्यग्र  कर देंगे,  कि  थोड़ी सी भी राहत मिलने के बाद उनकी मूर्तियों को तोड़ दे उनके नाम के शहरों के  नाम बदल दे,  और यह सिद्ध कर दे  कि वे मानवता के हत्यारे थे  तो उनके मानववाद का दानववाद से अलग करना  कठिन हो जाता है।

 मैं, एक समय में,  जब केवल पढ़ने का दौर था कार का प्रशंसक था।   जुमलों के मोह का शिकार था।  मैं किसी भी विषय को उस पर लिखने से पहले समझ नहीं पाता।   लेखन वह कसौटी है जिसकी अंतःसंगति के  निर्वाह में  असंगत प्रतीत होने वाली मान्यताएं छँट कर अलग हो जाती है।  सत्य सामने आ जाता है,  परंतु तभी जब आप अपने को सही सिद्ध करने के लिए प्रमाण नहीं जुटा रहे होते हैं,  प्रमाण जो कुछ कहते हैं उनके समक्ष  नतशिर हो जाते हैं।  इतिहास का अपने समय या जरूरत के लिए इस्तेमाल करने वाले इसका ध्यान नहीं रख पाते।  वे इतिहास की वैज्ञानिकता को नष्ट करते हैं,  और इतिहास की गलत समझ उनको नष्ट कर देती है और वे  भौचक्के रह जाते हैं हमारी अपेक्षाओं के विपरीत,  प्रयत्न के विपरीत यह परिणाम आया  कहां से? 

उत्तर छोटा सा है।  

 इतिहास की नासमझी से। पर यह छोटा सा उत्तर उनकी समझ में नहीं आ सकता क्योंकि  आरत के चित रहत न चेतू। पुनि पुनि कहई आपनै हेतू।

मैं  इसे दो उद्धरणों से स्पष्ट करना चाहूंगा।  
Carr divided facts into two categories, "facts of the past", that is historical information that historians deem unimportant, and "historical facts", information that the historians have decided is important. Carr contended that historians quite arbitrarily determine which of the "facts of the past" to turn into "historical facts" according to their own biases and agendas. Wikipedia. 

 इसकी व्याख्या  जिस रूप में हो सकती है और जिस रूप में की जाती रही है वह  है कि अतीत से सभी तथ्य एंतिहासिक उपयोग के नहीं होते, केवल वे होते हैं जिनका कोई इतिहासकार उपयोग करना चाहता है और यहीं से इतिहास की जानकारी के स्थान पर तथ्यों के मनमाने उपयोग का रास्ता खुलता है जो कम के कम भारत का इतिहास लिखने वाले मार्क्सवादी इतिहासकारकों की सबसे बड़ी व्याधि सिद्ध हुई, उनकी कब्र भी सिद्ध हुई।

दूसरे:

The Soviet Impact on the Western World, (1946) में, कार का तर्क था "The trend away from individualism and towards totalitarianism is everywhere unmistakable", 
और 1956, में Carr did not comment on the Soviet suppression of the Hungarian Uprising while at the same time condemning the Suez War.

मैं अपने इस निष्कर्ष पर केवल दूसरों के विचारों को पढ़ने के बाद नहीं पहुंचा हूं अपितु भारत में इस सिद्धांत सोचने लिखने और चलने वाले संगठनों और दलों को  उनकी उस परिणति पर पहुंचते  देखने के बाद और स्वयं अपने इतिहास लेखन में उस इतिहास दर्शन की सीमाओं को समझने के बाद पहुंचा।   आज भी कम्युनिस्ट संगठन और दल  उनकी एकहरी सोच से मुक्त नहीं हो पाए हैं।
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सरस्वती-सिन्धु लिपि
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सरस्वती-सिन्धु को  हड़प्पा सभ्यता की संज्ञा देने वालों को यह पता था कि जिसे परिपक्व हड़प्पा कहा जाता है या जिसके लिए नागर चरण का प्रयोग किया जाता है वह सभ्यता के ठहराव का काल था  जिसके बाद गिरावट ही शेष रह जाती है।  इस चरण में व्यापारिक क्षेत्र विस्तार और उपनिवेशों की संख्या में वृद्धि  को छोड़कर किसी तरह का नया विकास नहीं हुआ।   इसके निर्माण का दौर इसका सारस्वत  चरण है।  यही कारण है कि  ऋग्वेद के प्राचीन मंडल सरस्वती को प्रधानता देते हैं और उनमें सिंधु शब्द का प्रयोग नदी के अर्थ में अधिक है विशेष नदी के आशय में इसे हम नए मंडलों में पत्र नए मंडल  सेंधव  चरण  की देन हैं।  

अमेरिकी पुरातत्व विदों का परिपक्व हड़प्पा काल के संबंध में यही विचार है परंतु पूर्ववर्ती चरण को लेकर वह लंबे समय तक सांकेतिक रूप में यश जाते रहे हैं की सभ्यता के तत्व पश्चिम से आए हो सकते हैं इसलिए सारस्वत चरण की उपलब्धियों की ओर ध्यान सचेत रूप में नहीं दिया उनमें कोई वैदिक साहित्य का पता भी नहीं था इसलिए हम यह आरोप भी नहीं लगा सकते कि उन्होंने ऐसा जानबूझकर किया परंतु सभ्यता के विकास की दिशा को समझने में उनके इस संभ्रम की वजह से उलझन अवश्य पैदा हुई।
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सिंधु लिपि और ब्राह्मी 
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 जिस लिपि के लिए  सेंधव लिपि का प्रयोग होता आया है उसका विकास  प्राचीन मंडलों के समय तक हो चुका था।  उसके लिए वे किसी शब्द का प्रयोग करते थे या नहीं यह हम नहीं जानते परंतु इतना अवश्य जानते हैं कि   टंक लिपि के विषय में एक लोक विश्वास है ब्रह्मा हमारे माथे पर हमारा भाग्य जन्म से पहले ही लिख देते हैं- यद् धात्रा निज भाग्यपट्ट लिखितं स्तोकं महद् वा फलं। ब्रह्मा की इस लिखावट को सभी पढ़ नहीं सकते।   भाग्यपट्ट पर लेखन का यह रूपक सरस्वती-सिन्धु कालीन लेखपट्टिका पर अंकन से इतना मेल खाता है यह सोचकर हैरानी होती है ऋवेद में ब्राह्मी  शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, यद्यपि ब्रह्मा शब्द का प्रयोग मंत्र के लिए कथन के लिए,  व्याख्याता के लिए अनेक बार हुआ है।  संभव है इसे सूर्या आता जाता रहा हो (सूर्यां यो ब्रह्मा विद्यात्) ऐसा मानने का सबसे बड़ा कारण यह है कि ऋग्वेद में लिखित वाणी के लिए  'सूर्यस्य दुहिता' का प्रयोग हुआ है।  यही दृश्य वाणी,  अज्ञान और अंधकार को मिटाने वाली  उषा के समान बताई गई है (सूर्यायाः पश्य रूपाणि तानि ब्रह्मा तु शुन्धति।) और ऐसे स्थलों पर इससे पूर्व लिपि के जानकार व्यक्ति को भी ब्रह्मा  कहा जाता था। वाणी  स्वयं अपना परिचय देते हुए कहती है कि मैं जिसे चाहती हूं उसे ब्रह्मा, ऋषि, चिंतक  बना देती हूं (यं कामये तंतमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ।। 10.125.5) इसके आधार पर दावे के साथ तो नहीं कहा जा सकता कि यहां ब्रह्मा का अर्थ लेखक या लिखित  पाठ को करने में सक्षम  व्यक्ति  है परंतु इसकी संभावना से इनकार भी नहीं किया जा सकता। 

सरस्वती सिंधु लिपि के वाचन में तत्काल में जो कठिनाई आती थी इसलिए थी के मात्रिक हो चुकी थी, स्वर के विकारी चिन्ह  व्यंजन से जुड़ते थे,  परंतु साथ साथ  शब्द प्रतीकों, भाव प्रतीको का भी प्रयोग होता था जिसमें चिन्ह वही होते हुए संदर्भ  के अनुसार उसके अर्थ बदल सकते थे।  लिपि को समझने के प्रयत्न में कई साल तक श्रम करता रहा कुछ भी स्पष्ट नहीं दिखाई दिया और मैंने उस पर अधिक समय लगाना उचित नहीं समझा।  परंतु इसका यह लाभ अवश्य है मैं दूसरों द्वारा इसके निर्वाचन के  दावों की सीमाओं को समझ सकता हूँ और बिचार, सुझाव पर तर्क और प्रमाण प्रस्तुत कर सकता हूं और करता आया  हूँ ।
(जारी)

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )


शब्दवेध (89) अपने को दुहराना

इसे आप एक दोष कह सकते हैं। चाहें तो  इसे सबसे बड़ा गुण भी कह सकते हैं।   प्रत्येक रचनाकार और महान दार्शनिक के पास   केवल  एक जीवन सत्य होता है,  केवल  एक इबारत होती है,  और उसकी समग्र  रचनाएं  उसी की आवृत्ति,  उसी का भाष्य  होती हैं और यह भाष्य  उसके लाख प्रयत्नों  के बाद भी अधूरा ही रह जाता है। 

हमें इस सीमा के बाद भी अनगिनत सवालों के जवाब इस एक वाक्य से निकालना होता है।  यही हमें  द्रष्टा बनाता है,  यही हमें  स्रष्टा बनाता है,  यही हमें क्रांतदर्शी बनाता है। आरंभ से लेकर आज तक मेरा सारा लेखन एक ही इबारत को बार-बार  कई  रूपों,  विधाओं और अनुशासनों में  दुहराने की कथा है। इस सत्य का एक क्षीण  बोध मुझे सदा रहा है,  परंतु इसकी इतनी तीखी अनुभूति इससे पहले कभी न हुई थी जब मैंने  अपनी एक पुरानी रचना महाभिषग  के पन्ने पलटते हुए एक उद्धरण की तलाश आरंभ की जो मेरे तलाश के बाद भी अभी तक सामने नहीं आई।  मैं इतिहास की वैज्ञानिकता के सवाल को आगे विस्तार देना चाहता था और अपना लेख कुछ इस प्रकार आरंभ किया था:

“मेरे पास सभी सवालों के जवाब नहीं हैं। कुछ के जो जवाब हैं,  वे अंतिम सत्य नहीं हैं।  मेरे लिए सत्य  उपलब्ध  तथ्यों का  निष्कर्ष है । कोई नया तथ्य सामने आने पर इस निष्कर्ष में मामूली, या भारी, परिवर्तन हो सकता है। यही किसी अध्ययन दृष्टि को वैज्ञानिक बनाता है।  प्रमाण बोलते हैं, हम नहीं, फैसला करते हैं प्रमाण ही।  हमारी भूमिका उनकी  दृश्य भाषा  को  श्रव्य भाषा  में रूपांतरित करने तक सीमित होती है।

प्रमाण अपनी   दृश्य भाषा में सच तभी  व्यक्त कर पाएंगे जब  हमारी ओर से हस्तक्षेप,  या  उनके किसी  पक्ष का किसी तरह का  पटाक्षेप न हो। यदि ऐसी तटस्थता संभव न हो, या यांत्रिक  प्रतीत हो तो, कम से कम, ऐसा हस्तक्षेप न हो जो प्रमाण विरुद्ध हो और  औचित्य  की सीमा लाँघता हो। 

इसी कारण  किसी इतर से,  वह कितनी भी श्लाघ्य  क्यों न हो,  आसक्ति इतिहास की वैज्ञानिकता में बाधक है।  यही कारण है कि किसी विचारधारा, आंदोलन,  या  आस्था  से जुड़ा हुआ व्यक्ति, वैज्ञानिक सत्य पर नहीं पहुंच सकता।  ….इसी प्रसंग में मुझे गौतम बुद्ध के कालामों के बीच दिए गए उपदेश की याद आई और मुझे लगा इसे मैंने अपने उपन्यास महा अभिषेक में उद्धृत कर रखा है।  इसी आशा में उसे उतना आरंभ किया,  जल्दबाजी में खोज न पाया  परंतु नजर में आया वह मेरे लिए भी विश्व में की बात है कि मैं किसी दूसरे पर लिखता नहीं,  अपने पर लिखता हूं,  अपने को लिखता हूं,  अपना विस्तार करता हूं और वही विश्व दृष्टि का रूप ले लेता है।

मूल पाठ के लिए मुझे विकिपीडिया का  सहारा लेना पड़ा।  पाठ निम्न प्रकार है:

इति खो, कालामा, यं तं अवोचुंह एथ तुम्हे, कालामा, मा अनुस्सवेन, मा परम्पराय, मा इतिकिराय, मा पिटकसम्पदानेन, मा तक्कहेतु, मा नयहेतु, मा आकार परिवितक्केन , मा दिट्ठिनिज्झानक्खन्तिया, मा भब्बरूपताय, मा समणो नो गरूति।
यदा तुम्हे, कालामा, अत्तनाव जानेय्याथ – इमे धम्मा कुसला, इमे धम्मा सावज्जा, इमे धम्मा विञ्ञुगरहिता, इमे धम्मा समत्ता समादिन्ना अहिताय दुक्खाय संवत्तन्तीsति, अथ तुम्हे, कालामा, पजहेय्याथ।
(हे कालामाओ ! ये सब मैने तुमको बताया है, किन्तु तुम इसे स्वीकार करो, इसलिए नहीं कि वह एक अनुविवरण है, इसलिए नहीं कि एक परम्परा है, इसलिए नहीं कि पहले ऐसे कहा गया है, इसलिए नहीं कि यह धर्मग्रन्थ में है। यह विवाद के लिए नहीं, एक विशेष प्रणाली के लिए नहीं, सावधानी से सोचविचार के लिए नहीं, असत्य धारणाओं को सहन करने के लिए नहीं, इसलिए नहीं कि वह अनुकूल मालूम होता है, इसलिए नहीं कि तुम्हारा गुरु एक प्रमाण है,
किन्तु तुम स्वयं यदि यह समझते हो कि ये धर्म (धारणाएँ) शुभ हैं, निर्दोष हैं, बुद्धिमान लोग इन धर्मों की प्रशंसा करते हैं, इन धर्मों को ग्रहण करने पर यह कल्याण और सुख देंगे, तब तुम्हें इन्हें स्वीकर करना चाहिए।)

परंतु मेरी  खोज ने मेरी कृतियों के भीतर से मुझे जिस रूप में खोजा उसकी   बानगी  निम्न अंशों में (महाभिषग,1973, उद्धृत पन्ने  सस्ता साहित्य मंडल से प्रकाशित संस्करण के हैं) मिल जाएगी: 

आनंद, प्रत्येक  प्रवाद के पीछे  सत्य का एक स्वल्प अंश  अवश्य होता है, और सत्य का यह  बीजांश ही सत्य का सबसे बड़ा शत्रु होता है अन्य विषयों में संदेह उत्पन्न होने पर उस क्षीण  अंश की  पुष्टि होते ही  शेष  काल्पनिक अंश  को  भी वही प्रामाणिकता मिल जाती है जो उस सत्य अंश को।   67
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मानस  के विकास के अभाव में भी शिक्षा आदि के द्वारा बुद्धि का विकास संभव है।  अनुभव से बुद्धि का विकास संभव है परंतु इस तरह की बुद्धि का उपयोग क्या होता है? उन्हीं  मलिन आचारों को तर्क द्वारा उचित ठहरा कर अपने लिए एक दुर्ग खड़ा करना ….85
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...मुझे उनके प्रति क्रोध नहीं जगा था, आनंद।    हंसी भी नहीं आई थी । करुणा जगी थी।   सोचा था मैंने,  ब्राह्मण तूने इतना शास्त्र ज्ञान अपने को  अधिक बालिश बनाने के लिए अर्जित किया। तूने भुजंग की भांति दूध को भी विष बनाकर ही ग्रहण किया,  ब्राह्मण। 86
... 
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आशु आशु  अधीर करता है।   त्वरणशीलता  मन की चंचलता,  संयम के अभाव,  मन की  अपरिपक्वता का नाम है।  जो  पक्के विचार का है,  वह वस्तुओं,   गुणों,  और कर्मों के फूल, फल, और परिणाम की और कालों को जानता है। 90

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धर्म इंद्रजाल नहीं है, आनंद,  कि  एक क्षण में  समस्त लोक में  फैल  जाए। यह गति है।  पथ है। इसे चलकर ही जानना होगा।  धीरे-धीरे  फैलेगा और सिकुड़ेगा भी, पर लुप्त नहीं होगा। 91 

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जो अतिरिक्त  संग्रह कर चुके हैं,  वे अपने पास पिशाच की  सी  शक्ति संचित कर चुके हैं । उसी से वे लोक को तोड़ रहे हैं अहंकार प्रदर्शन करते हुए पैशाचिक हंसी हँस रहे हैं और वह आनंद, जो सब कुछ से वंचित हैं, वह कीड़ों मकोड़ों की अवस्था में पड़े हुए हैं ।  उनमें कुछ ऐसे हैं जो संग्रहशीलो के उपकरण बने हुए हैं। 93 

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धर्म अति का नहीं है।   सम का है  धर्म।  वह वक्र नहीं है। ऋजु का है धर्म। ... मध्यम है उसका मार्ग। मध्यमा है उसकी गति । 94
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यदि सभी  विमाताएं  क्रूर होती हैं, राक्षसियों  जैसा व्यवहार करने लगती हैं,  उन्हीं सौतेली संतान से,   वह  दोष किसका है इसमें?  यदि वही बालिका किसी ऐसे व्यक्ति से विवाह करें जो कुमार है तो क्या उसे अपनी संतानों के साथ राक्षसी  व्यवहार करते पाया जाता है?  राक्षसी बनाई जाने वाली विमाता अपनी संतान के प्रति निष्ठुर होती है? वह तो देवी होती है अपनी संतान के लिए ।  हर  कुमारी मैं देवी बनने की वही क्षमता होती है पर उसे उसकी इच्छा के विपरीत एक विशेष परिस्थिति में डालकर,  उसे एक विशेष  दूषण  का आंखेट  बनाया जाता है और पुनः उसे ही  दोष दिया जाता है ।  यह कहां का न्याय है किसी को विष  के घट में डुबो  दिया जाए, विश्व का प्रकोप  उसकी  शिरा  उपशिरा  में हो जाए और जब उसके प्रभाव में वह  उन्मत्त जैसा  आचरण करने लगे तो उसका उपहास  और निंदा की जाए। 97-98 
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मैं सोचने लगा,  यदि आत्मपीड़न  ही धर्म है,  सुख से अपने को वंचित करना ही घर्म है तब स्वर्ग की अभिलाषा ही क्यों? स्वर्ग  जहां   भोग ही भोग है, सुख ही सुख है,  वाह तू अधर्म बीज हुआ।155
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उसी दिन मैंने जाना,  आनंद,  कि धरती से ऊपर केवल हिमाद्रि के ऊंचे शृंग ही नहीं हैं, कैलाश की चोटी एकमात्र   ऊंची भूमि नहीं।  सामान्य धरातल से कैलाश की ऊंची भूमिका के मध्य   दूसरे भी ऊँचे  स्थल पडते हैं। कुछ नहीं से  कुछ  सार्थक है,  कुछ से अधिक श्रेयस्कर है और  अधिक से  चरम  की  गति होनी चाहिए। “ 159-160
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तो, आनंद , मैंने स्पष्ट देखा कि जन्म से कोई वृषल नहीं होता। जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं होता। कर्म से वृषल होता है और कर्म से ब्राह्मण होता है।  ...191
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आजीवक उपल ने  उन्हें  प्रसन्न,  परिशुद्ध और  पर्यवदातवर्ण  देख, पूछा था, “  किसको गुरु मानकर तू प्रव्रजित दुआ? कौन  तेरा शास्ता है?” तो शास्ता ने उत्तर दिया था,  “ मैं स्वयं ही अपना गुरु बना  और स्वयं ही  अपना शास्ता। सभी धर्मों को निकट से देखा सभी का क्रम   क्रम से  अभ्यास किया । सभी  धर्मो  में  निर्लिप्त  सर्वत्यागी  अर्हत हूँ।…” 201  
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 “विनय के कारण,  लज्जा के कारण, भय के कारण,  अपने उपलब्ध को गुप्त रखना अविनय है, अधर्म है, आनंद। यदि तुम अपनी काया से जुड़े नहीं हो, राग से  लिप्त नहीं हो, तो  अपने जाने हुए को  अपनी काया और मन से क्यों  जोड़ोगे? ऐसे ही तो अहंकार होगा।” 201
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भगवान सिंह
Bhagwan Singh


Saturday 23 January 2021

शब्दवेध (88) इतिहास की वैज्ञानिकता

हम  कल इस तथ्य को रेखांकित करना चाहते थे कि  वैज्ञानिक इतिहास  लिखा जाना  संभव भी है और जरूरी भी, क्योंकि यही उन विकृतियों का एकमात्र उपचार है,  जिससे पूरी मानवता ग्रस्त है। ऐसा इतिहास मानव सभ्यता का इतिहास ही हो सकता है, न कि प्रतापी राजाओं और देशों और जातियों के प्रताप का।  
 
वैज्ञानिक इतिहास की बात करने वाले नहीं जानते कि वैज्ञानिक इतिहास होता क्या है। इसका जिक्र आने पर वे यह मान लेते हैं कि इतिहास के मामले में न तो वह वस्तुपरकता और तटस्थता अपनाई जा सकती है जो प्राकृत विज्ञानों में संभव है, न ही उस तरह के प्रयोग किए जा  सकते है। सच तो यह है कि इतिहास स्वयं वह प्रयोगशाला है जिसमे एकल मनुष्य से लेकर मानव समुदायों के आचरण के परिणाम दर्ज हैं। इतिहास प्रक्रिया है, परिणति नही।  जहाँ एक परिघटना  का अन्त दिखाई देता है वहीं और उसके भीतर से ही दूसरे का आरंभ हो जाता है;  जो कार्य है, वह कारण के बदल जाता है।

इसमें हस्तक्षेप संभव नहीं।  हुआ तो कुछ न दीखेगा, न समझ में आएगा। आप केवल वह देखेंगे जिसे देखना चाहते हैं, मनोगत को देखने के लिए इतिहास पर नजर डालने की जरूरत नहीं। आज तक इतिहास का इसी रूप में ‘अध्ययन’ किया गया है। नतीजा सामने है, समाज विज्ञान की बात करने वाले स्वयं कहते हैं कि इतिहास विज्ञान की समकक्षता में नहीं आ सकता। यदि नहीं आ सकता तो विज्ञान मत कहो। कथा कह लो, इतिवृत्त कह लो। 

इस दुहरी समझ के पीछे इतिहास की मनमानी व्याख्या करते हुए, इसकी वैज्ञानिक साख का इस्तेमाल करने की चालाकी दिखाई देती है न कि इसकी वैज्ञानिकता की रक्षा की चिंता।  इसका राग अलापने वालों ने इसके स्रोतों के साथ जितनी छेड़छाड़ की है उतनी मध्यकालीन मूर्ति, मंदिर, शिक्षाकेंद्रों और ग्रंथागार को नष्ट-ध्वस्त और भस्म करने वालों ने ही किया होगा।   
                                                                       
मार्क्सवादी इतिहास को समझना नहीं, इसे अपनी योजना के अनुसार तोड़-मरोड़ कर इस्तेमाल करना चाहते हैं, और करते रहे हैं।  इतने कम समय में उनके व्यर्थ, उत्पीड़क और मानवद्रोही हो जाने का कारण यह नासमझी ही है और यही मार्क्सवादी इतिहास लेखन में असंगतियों और अंतर्विरोधों का भी  कारण है।  

यह मार्क्सवादी इतिहासकारों के ही बस की बात है कि आपात काल के दौर में सोवियत संघ के इतिहासकार भारत का एक नया इतिहास लिखते हैं और आपात काल की समाप्ति के बाद उसे वापस ले लेते हैं। वे कहते रहे पूँजीवाद संकट के दौर से गुजर रहा है, भविष्य कम्यूनिज्म  का है, और संकटग्रस्त कम्युनिज्म हो गया, पूँजीवाद उसकी व्यर्थता के कारण संजीवनी पा गया।

मार्क्सवादियो की सबसे बड़ी विडंबना यह कि वे मार्क्सवादी नहीं थे।  मार्क्सवाद उनका चेहरा नहीं मुखौटा था, असली चेहरा फासिज्म का था जो इनकी भाषा में गाली था।  यदि उन्होंने इतिहास के  उपयोगितावादी अध्ययन  को  इतिहास का आदर्श अध्ययन माना होता  तो मार्क्सवादी प्रभाव में आने के बाद,  मैं  स्वयं, वैज्ञानिकता का उपहास करते हुए,   ऐसे अध्ययन का कायल हो चुका होता,  और इतिहास में वैज्ञानिकता की माँग को अकादमिक पाखंड मानते हुए  इसका उपहास करता और उन निष्कर्षों पर नहीं पहुँचता जिनसे  मार्क्सवादियों से  मेरा  मोहभंग हो गया।  मेरा मोहभंग उन्हें उन्हीं की कसौटी पर गलत सिद्ध होने से हुआ।

अपनी जड़ें मजबूत करने के लिए उन्होंने न  केवल विचार  को नष्ट किया,  अपितु  विचार के माध्यम, भाषा को, निर्णायक महत्व के शब्दों का अर्थ उलट कर नष्ट कर दिया और आज का साहित्यकार, पत्रकार, बुद्धिजीवी अपने ही समाज के समक्ष बे-आवाज भौचक खड़ा है ताे इसके अपराधी वे हैं। यदि ज्ञान और कर्म के क्षेत्र में कतिपय अपवादों को छोड़कर कोई अपना काम नही कर रहा है तो इसकी शिक्षा उन्होंने दी, सब कुछ छोड़ कर राजनीति करो और वह भी गंभीर राजनीतिक विमर्श न बन कर सतही सत्ताबुभुक्षु राजनीति ही बनी रहे।  

यह कितनी शर्मनाक बात है कि जिस सोवियत संघ के इशारे पर भारतीय कम्युनिस्ट अपना रुख बदलते रहते थे, उसकी नजर में वे उपयोगी मूर्ख थे। यह मेरा आरोप नहीं बल्कि केजीबी के एक एजेंट के इंटरव्यू का अंश है :
In an interview with G. Edward Griffin in 1984, former KGB informant Yuri Bezmenov had exposed the insidious operations of the Soviet Union and how the Communist apparatus viciously overtakes the conscience of a country.
He began his interview by revealing that people who towed the Soviet foreign policy, in their home country, were elevated to positions of power through media and manipulation of public opinion. However, those who refused to do so were either subjected to character assassination or killed.Recounting his time in India, the KGB informant revealed how he was shocked to discover the list of known pro-soviet journalists in India who were doomed to die. He said that even though those journalists were idealistically leftists, yet the KGB wanted them dead as ‘they knew too much’. Benzmenov emphasised, “Once the useful idiots (leftists), who idealistically believe in the beauty of Soviet socialism or Communism, get disillusioned, they become the worst enemies.”
The former KGB informant reiterated there are no grassroots revolutions but one engineered by a professional, organised group. He revealed that the Awami League party leaders were trained in Moscow, Crimea, and Tashkent.

तथाकथित मार्क्सवादियों के भारतीय जनक कोसंंबी माने जाते हैं और उनकी अपनी इतिहास दृष्टि के जनक ई.एच. कार हैं जिनके  What is History  को विस्तार से उद्धृत करते हुए वह अपना What is History लिखते हैं । कार आजीवन एक कूटनीतिविद रहे, कई देशों में ब्रिटेन के राजदूत रहे।  उनकी इतिहासदार्शनिक के रूप में ख्याति Clash of Civilizations के लेखक हंटिंगटन के समकक्ष ही ठहरती है।  उतने ही झटके से दोनों लोगों की नजर में चढ़े थे। 
 
कार की समझ से अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के  चिंतक (The Twenty Year's Crisis, July 1939) दो तरह के होते हैं एक यथार्थवादी (realists)  और दूसरे खयाली  utopians. यदि हम कहें नेहरू दूसरी कोटि के चिंतक थे तो भारतीय मार्क्सवादी बुरा मान जाएँगे क्योंकि वे नेहरू से हर मामले में मीलों आगे थे।  भारतीय मार्क्सवादी इतिहास वैज्ञानिक हो ही नहीं सकता था।  उसी में कालपत्र लिखा जा सकता था, उसी में इतिहास की एक संस्था का कई बार प्रधान बनने और मनचाहा इतिहास लिखवाने के लिए संस्था का धन और मान अर्थलोलुप इतिहासकारों के हवाले करने के बल पर एक व्यक्ति इतिहास का निर्माता हो सकता था ( The Making of History: Essays Presented to Irfan Habib) और उसी के सारे इतहासकार जुट मिल  कर एक अदना जिज्ञासु के सवालों के सामने ढेर हो सकते थे। 

विज्ञान की ही नहीं वैज्ञानिक इतिहासबोध का भी सबसे पुराना परिचय बुद्ध में ही मिलता है, एक तो कालामों के बीच सत्यज्ञान का परिचय देते देते हुए राग और दबाव के सभी रूपों से मुक्त हो कर उभय कल्याणकारी निष्कर्ष पर पहुँचने का उपाय बताते हैं और दूसरा गणसंघ की एकता में दरार आए बिना उनके अजेय होने की बात करते हैं।  उपयोग करने वालों ने तो उनका भी उसी तरह उपयोग कर लिया जैसे उनके समय से ढाई हजार साल बाद पैदा होने वाले आइंस्टाइन का।
 
मैं अपना दुश्मन स्वयं हूँ इसलिए मुझे किसी दुश्मन की जरूरत नहीं। लिखता हूँ शोध-निबंध और प्रसंगों को स्पष्ट करने के लिए ऐसे व्यौरों की ओर भटक जाता हूँ कि शोधनिबंध ललित निबंध बन जाता है।  मैं स्थापित यह करना चाहता था कि इतिहास के नियमों का सम्मान न करने पर वह इतिहास नहीं रह जाता, वह विषवेलि का रूप ले लेता है और सभी के लिए अनिष्टकारी होता है जब कि वैज्ञानिक इतिहास  इतिहास के नियमों का सम्मान करते हुए ही संभव है और इसका परिणाम (बोध) उभयकल्याण होता है। इसमें हार-जीत नहीं होती। जीतने वाले और हारने वाले कुछ खोते नहीं पाते हैं, सत्य के अधिक निकट पहुँचते हैं।    
 
हम इसके बाद अपनी नजर में आए इतिहास के उन वैज्ञानिक सिद्धांतों में से कुछ की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं जिनका पालन करने में शिथिलता बरतने पर हम सही निर्णय पर पहुँच ही नही सकते।  हम लिपि पर बात कर रहे थे और हमारा तर्क वही था कि जिसका विवेचन बुद्ध ने किया था कि अमुक के हुए बिना अमुक नहीं हो सकता।  यदि अमुक न हो तो अमुक नहीं हो सकता।  विकास की पिछली मंजिलों के बाद ही अगली मंजिल पर पहुँचा जा सकता है, यदि उन तक पहुँचना बाधित हो जाए या उसे रोक दिया जाए तो अगला चरण बाधित हो जाएगा।  
 
अहमद हसन दानी अपने जीवनकाल में पूरे दक्षिण एशिया के सबसे कद्दावर पुरातत्वविद थे।  बह संस्कृत जानते ही नहीं, उसमें बात भी कर सकते थे जो मेरे वश का नहीं।  उन्होंने सिंधु-सरस्वती लिपि, ब्राह्मी और सामी लिपि के आपसी संबंधों की व्याख्या करते हुए ब्राह्मी की उत्पत्ति सामी के दर्शाने का प्रयत्न किया था जो फिनीशियन या तथाकथित अनातोलियन का पर्याय थी।  पर वह यह भूल गए थे कि वर्णिक अवस्था  alphabetic  मात्रिक syllabic का जनक नहीं हो सकती थी,  मात्रिक syllabic के बाद ही संभव थी।  दानी से एक चूक हुई या अपने निर्णय मे बाधक पा कर उन्होंने इसकी अवज्ञा कर दी कि अमुक के बिना अमुक संभव ही नहीं।  यह तथ्य था ग्रीक का सबसे पुराना प्रमाण  माइसीनिया की लीनियर- बी में पाया जाना।  लीनियर-बी मात्रिक लिपि थी और फिनीशियन लिपि इससे ही पैदा हुई थी: 
Mycenaean language, the most ancient form of the Greek language that has been discovered. It was a chancellery language, used mainly for records and inventories of royal palaces and commercial establishments. Written in a syllabic script known as Linear B, it has been found mostly on clay tablets discovered at Knossos and Chania in Crete and at Pylos, Mycenae, Tiryns, and Thebes on the mainland, as well as in inscriptions on pots and jars from Thebes, Mycenae, and other cities that imported these vessels from Crete. Encyclopedia Britanica. 
इसके कुछ दूसरे भी पक्ष हैं जिन पर यहाँ विचार नहीं किया जा सकता।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )