Monday 31 January 2022

अर्थव्यवस्था की चुनौतियां और बजट 2022 से उम्मीदें / विजय शंकर सिंह

संसद का बजट सत्र शुरू हो चुका है। 1 फरवरी को लोकसभा में, सरकार, देश का बजट प्रस्तुत करने जा रही है। बजट में समक्ष खड़ी चुनौतियों का सामना और समाधान कैसे करती है, और एक साल तक के वित्तीय ढांचे की क्या रूपरेखा तय होती है, इस पर तो तभी लिखा जा सकेगा, जब पूरे बजट प्रस्ताव सार्वजनिक हो जांय और उनके अध्ययन के साथ अर्थ विशेषज्ञों के बजट विश्लेषण आ जांय। फिलहाल, भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने आने वाले प्रमुख मुद्दे क्या हैं, और उनके समक्ष कौन सी चुनौतियां है, बजट में किस सेक्टर पर विशेष ध्यान देन की जरूरत है, इन विन्दुओं पर विचार करते है। 

आम बजट हर साल 1 फरवरी के दिन पेश किया जाता है। इसके ठीक एक दिन पहले आर्थिक सर्वेक्षण सदन में प्रस्तुत किया जाता है। आर्थिक सर्वेक्षण के द्वारा, अर्थव्यवस्था का खाका प्रस्तुत किया जाता है, और पूरा लेखा.जोखा रहता है। आर्थिक सर्वेक्षण के माध्यम से, सरकार देश को अर्थव्यवस्था की वर्तमान दशा बताती है। साल भर में विकास का क्या ट्रेंड रहा, किस क्षेत्र में कितनी पूंजी आई, विभिन्न योजनाएं किस तरह लागू हुईं आदि आदि, इन सभी बातों का पूरा विवरण होता है। इसके साथ ही इसमें सरकारी नीतियों की जानकारी भी होती है। आर्थिक सर्वेक्षण, वित्तीय वर्ष अप्रैल 2022 से मार्च 2023 में 8 से 8.5 प्रतिशत की विकास दर का अनुमान लगाया गया है जो चालू वित्त वर्ष के 9.2 फीसदी जीडीपी वृद्धि दर के पूर्व अनुमान से कम है।

आज देश के सामने आर्थिकी के क्षेत्र में सरकार और सरकार के वित्तीय प्रबंधकों के समक्ष सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या हमारी अर्थव्यवस्था कोरोना महामारी के उन प्रभावों से उबरने की राह पर है जिसके कारण देश मे आर्थिक मंदी का वातावरण बन जाने की आशंका आ गयी थी ? सुधार की वास्तविक स्थिति का आकलन तभी किया जा सकता है जब हम, वित्तीय वर्ष 2019-20 यानी, महामारी काल के पहले के आर्थिक संकेतकों की तुलना, आज के आर्थिक संकेतकों से करें। हालांकि महामारी के दौर से हम अब भी पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए हैं। फिलहाल हम कोरोना के तीसरी लहर से गुज़र रहे हैं, पर यह समय, तबाही भरी दूसरी लहर की तुलना में काफी राहत भरा और बेहतर है। 

 भारत सरकार ने हाल ही में राष्ट्रीय आय 2021-22 के उन्नत अनुमान जारी किए हैं। सरकार के आंकड़ों के अनुसार,  महामारी से पहले की अवधि की तुलना में चालू वित्त वर्ष की जीडीपी वृद्धि 1.26% अधिक है।  इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि अर्थव्यवस्था कम से कम पूर्व महामारी के स्तर पर पहुंच गई है और ठीक होने की राह पर है। लेकिन क्या अर्थव्यवस्था में यह सुधार, आर्थिकी के सभी वर्गों में एक समान है ?  कई अर्थशास्त्रियों का मानना है कि यह सुधार, अंग्रेजी के K अक्षर के अनुसार है। इस प्रकार की आर्थिकी सुधार में, समाज का समृद्ध वर्ग तेजी से विकसित होता है, यानी वह और संपन्न होता जाता है, जबकि शेष आबादी की आर्थिक हैसियत तेजी से गिरती जाती है। K की दो भुजाओं की तरह समृद्ध वर्ग उर्ध्वगामी आर्थिक तरक़्क़ी की ओर अग्रसर होता है और आबादी का शेष बड़ा भाग अधोगामी होता जाता है। ज़ाहिर है पूंजी या सम्पत्ति का केंद्रीकरण तेजी से समाज के समृद्ध वर्ग में सिमटता जाता है और वहां भी यह विकास एक समान नहीं होता है, बल्कि अति समृद्ध और वह अति और बढ़ती जाती है। इसे आप आर्थिकी का अतिवाद कह सकते हैं। विकास का K मॉडल अमीर और गरीब के बीच की खाईं को और बढ़ा देता है। 

किसी भी अर्थव्यवस्था में मांग, डिमांड, की एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है और उपभोग व्यय किसी भी अर्थव्यवस्था में मांग का सूचक है। यदि उपभोग व्यय यानी कंजम्पशन कम हो रहा है तो, इसका एक बड़ा कारण मांग का कम होना है, और मांग का कम होना, व्यक्ति की क्रय शक्ति, परचेजिंग पॉवर से सीधे जुड़ा है। क्रय शक्ति का कम होना धन की आमद से जुड़ा है और धन की आमद का कम होना, व्यक्ति की माली यानी वित्तीय स्थिति का स्पष्ट संकेत है। यह आर्थिकी के कुछ मूलभूत सिद्धांत हैं। सरकार द्वारा दिये गए, वित्त वर्ष 2021-22 के उन्नत अनुमानों के अनुसार, 'महामारी से पहले की अवधि की तुलना में निजी उपभोग व्यय में 2.9% की गिरावट आई है।  इस प्रकार कुल मिलाकर लोगों द्वारा कम पैसा खर्च किया जा रहा है जिससे विकास में कमी आती है। लेकिन इसी दौरान आयात में 11.8% की बढ़ोतरी देखी गई है। इस आयात का एक हिस्सा औद्योगिक आयात होगा। लेकिन आयात का एक बड़ा भाग वह भी होगा जो उपभोग के लिए मंगाया गया है। यह आंकड़े, इंडियन पोलिटिकल डिबेट की वेबसाइट पर अर्थशास्त्री अनिंद्य सेनगुप्ता द्वारा लिखे एक लेख से लिये गए हैं। अनिंद्य कहते हैं कि, आंकड़ो का अध्ययन यह बताता है कि, 'आयात संबंधी खपत आम तौर पर विलासिता की वस्तुओं के लिए होती है।'

इसलिए इस बात का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि 'जब महामारी-पूर्व अवधि की तुलना आज से की जाती है, तब चालू वित्त वर्ष में कुल खपत में 2.9% की भारी गिरावट देखी गई है। विलासिता के सामानों की खपत में वृद्धि, जिसे आयात के आधार पर परिभाषित करें तो' स्पष्ट दिखाई दे रही है। इससे यह साफ पता चलता है कि, एक तरफ,  जहां समृद्ध जमात की मांग और खपत बढ़ रही है, वहीं बड़े पैमाने पर आम लोगों के लिए इसमें लगातार गिरावट आई है।' यह प्रवृत्ति, निश्चित रूप से K आकार की वृद्धि की ओर संकेत कर रहा है। यह अनुमान केवल अनिंद्य सेनगुप्ता का ही नहीं है, ब्लकि कई अर्थशास्त्रियों का भी है। 

 भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में प्राप्त, अन्य आंकड़ों से भी इसकी पुष्टि की जा सकती है। 16 जनवरी, 2022 को जारी ऑक्सफैम रिपोर्ट, जो आर्थिक असमानता पर एक जाना माना दस्तावेज है की ताजी रिपोर्ट, "असमानता मार रही है" यह बताती है कि, 
● वर्ष 2021 में एक तरफ तो, देश के 84 फीसदी परिवारों की आय में गिरावट आई है, लेकिन इसके साथ ही भारतीय अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गई। 
● महामारी के दौरान भारतीय अरबपतियों की संपत्ति ₹23.14 लाख करोड़ रुपए से बढ़कर ₹53.16 लाख करोड़ रुपए हो गई।
● वैश्विक स्तर पर चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के ठीक बाद भारत में अरबपतियों की तीसरी सबसे बड़ी संख्या है।
● वर्ष 2021 में भारत में अरबपतियों की संख्या में 39% की वृद्धि हुई है।
● वर्ष  2020 में 4.6 करोड़ से अधिक भारतीयों के अत्यधिक गरीब होने का अनुमान है जो संयुक्त राष्ट्र के आँकड़ों के अनुसार नए वैश्विक गरीबों का  लगभग आधा हिस्सा है।
● वर्ष 2020 में राष्ट्रीय संपत्ति में नीचे की 50% आबादी का हिस्सा मात्र 6% था।
● भारत में बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ रही है। 
आज अर्थव्यवस्था के सामने सबसे महत्वपूर्ण चुनौती, देश मे बढ़ती असमानता है। और यह थमने का नाम नही ले रही है, निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। अर्थव्यवस्था के विशाल बहुमत के साथ K आकार की यह रिकवरी वास्तव में एक प्रकार की अधोगामी आर्थिकी जिसे D कहा जा सकता है, की ओर जा रही है। 

सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती इस असमानता के लिये सबसे अधिक जिम्मेदार, 8 नवंबर 2016 को की गयी नोटबन्दी मानी जा सकती है, जिसने अनौपचारिक क्षेत्र को अस्त व्यस्त कर के अर्थव्यवस्था को लगभग ध्वस्त कर दिया। कोरोना महामारी के प्रकोप के पहले ही 31 मार्च 2020 तक देश की जीडीपी विकास दर में सीधे 2% की गिरावट आ गई थी। सरकार को भी यह तथ्य पता है, इसीलिए वह सड़कों, फ्लाईओवरों की उपलब्धियों को तो गिनाती है पर नोटबन्दी से क्या लाभ हुआ है, इस पर चुप्पी साध लेती है। अर्थव्यवस्था का अनौपचारिक क्षेत्र जो अर्थव्यवस्था के लगभग 90 प्रतिशत से अधिक को रोजगार देता है, लगातार सिकुड़ता जा रहा है और औपचारिक क्षेत्र बढ़ रहा है।  लेकिन औपचारिक क्षेत्र, अनौपचारिक क्षेत्र के सिकुड़ने से उत्पन्न बेरोजगारी को उस अनुपात में एडजस्ट नहीं कर पा रहा है, जिससे अमीर गरीब के बीच बढ़ती हुई खाईं के साथ साथ बेरोजगारी में भी चिंताजनक वृद्धि हो रही है। सीएमआईई के आंकड़े बताते हैं कि दिसंबर तक बेरोजगारी 8% थी।

आज वित्त मंत्री के सामने दो सबसे बड़े मुद्दे और समस्याएं, निरन्तर बढ़ती आर्थिक असमानता और उच्च बेरोजगारी की दर हैं। यह देखना होगा कि, वित्तमंत्री इस बजट में इन मुद्दों और समस्याओ के समाधान के लिये क्या क्या कदम उठाती हैं। फिलहाल वित्त मंत्रालय के सामने विकल्प क्या हैं, एक नज़र इस पर डालते है। अनिंद्य सेनगुप्ता के अनुसार, " संभावित तरीकों में से एक यह हो सकता है कि विभिन्न क्षेत्रों में बजट के पूंजीगत व्यय को बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना जारी रखा जाए।  इसका मतलब यह होगा कि बुनियादी ढांचे के विकास के लिए अधिक पैसा दिया जाय, जिससे अर्थव्यवस्था में अधिक रोजगार पैदा हो सके। अन्य संभावित क्षेत्र मनरेगा योजना हो सकती है, जो ग्रामीण आबादी के लिए 100 दिनों के रोजगार की गारंटी देती है।" 
गारंटीकृत रोजगार सुनिश्चित करने के लिए इस योजना में एक केंद्रित आवंटन की आवश्यकता है। वर्ष के मध्य में मनरेगा में बजटीय आवंटन से अधिक आवंटन के मामले में कई रिपोर्टें आई है। अर्थशास्त्रियों को, उम्मीद है कि इस क्षेत्र में बजटीय आवंटन बढ़ जाएगा। इसके अलावा, वर्षों से बढ़ते शहरीकरण के कारण, शहरी और अर्ध शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारो का एक बड़ा वर्ग पैदा हुआ है। देहाती क्षेत्र के लिये न्यूनतम  रोजगार गारंटी योजना तो है और इसका लाभ भी ग्रामीण क्षेत्रों में जनता को मिला है, पर क्या इसी तरह की कोई योजना, शहरी क्षेत्रों की बेरोजगारी की समस्याओं के समाधान के लिये लाई जा सकती है, यह तो बजट आने के बाद ही ज्ञात होगा।   

एक अन्य क्षेत्र जो अर्थव्यवस्था में मंदी की चपेट में आने के बाद से, लगातार विवाद में रहा है, वह है, नकदी का कुछ क्षेत्रों में एकत्रीकरण। अनौपचारिक क्षेत्र जो मूलतः नकद लेनदेन पर ही चलता है, नोटबन्दी से सबसे अधिक प्रभावित हुआ है। बाजार में गति आये, और मांग बढ़े इसलिए कुछ अर्थशास्त्रियों ने अधिक से अधिक नक़द धन जनता को सीधे देने की एक सुझाव दिया था। पर वह लागू नहीं हो पाया। फिर भी सरकार ने किसान सम्मान निधि के रूप में ₹2000 की धनराशि ज़रूर दी है, पर उससे अर्थव्यवस्था में उतनी गति नहीं आयी जितनी आनी चाहिए थी। थी। नकद हस्तांतरण प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है, यह गारंटीकृत रोजगार योजनाओं के माध्यम से हो सकता है।  देखना होगा कि सरकार इनमें से कोई रास्ता अपनाती है या नहीं। फिलहाल तो बजट प्रस्तावों की प्रतीक्षा है। 

(विजय शंकर सिंह)

किसान आंदोलन का स्वरूप और व्यापक हो रहा है / विजय शंकर सिंह

31 जनवरी को किसान संगठन फिर जुट रहे हैं, अपने अभूतपूर्व और शांतिपूर्ण आंदोलन की समीक्षा के लिये और वे 31 जनवरी का दिन, देश भर में “विश्वासघात दिवस” के रूप में मनाएंगे। यह विश्वासघात दिवस, उस आश्वासन के संदर्भ में आयोजित है, जो सरकार ने तीनों कृषि कानूनो की वापसी के समय किसान संगठनों से किया था। सभी जिला और तहसील स्तर पर प्रदर्शन आयोजित किए जाएंगे। उम्मीद है कि यह कार्यक्रम देश के कम से कम 500 जिलों में आयोजित किया जाएगा। संयुक्त किसान मोर्चा ने 15 जनवरी की अपनी बैठक में यह फैसला किया था। इन प्रदर्शनों में केंद्र सरकार के नाम ज्ञापन भी दिया जाएगा। पर इस बार इस आंदोलन में किसानों से जुड़े लोग और मुद्दे तो उठेंगे ही, साथ ही देश के मजदूरों और बेरोजगारों का भी मुद्दा उठेगा। यह जन आंदोलन न केवल देश मे बढ़ रहे कारपोरेटीकरण के खिलाफ एक सशक्त आवाज के रूप में उठा है, बल्कि, जनता की मूलभूत और असल समस्याओं के लिये भी मुखरित हो रहा है। इसी समय यूपी विधानसभा के चुनाव भी होने वाले हैं, अतः 31 जनवरी को होने वाले सम्मेलन का विशेष महत्व है। किसानों ने 3 फरवरी से मिशन यूपी की घोषणा की है। अब उसका क्या स्वरूप होगा, यह तो तभी बताया जा सकेगा, जब मिशन यूपी की रूपरेखा सामने आए। 

जब एक साल से अधिक समय से चल  रहे किसान आंदोलन को कल बल छल से खत्म कराने की सारी कवायद विफल हो गयी तो 2021 की गुरुनानक जयंती के दिन, प्रधानमंत्री जी ने तीनों कृषि कानूनो को रद्द करने की घोषणा की और यह कहा कि संसद मे आगामी सत्र के पहले ही दिन, संसदीय अनुमोदन से यह तीनों कानून रद्द कर दिए जाएँगे और ऐसा हुआ भी। जो कानून बिना पर्याप्त विचार विमर्श और विधि निर्माण की  संसदीय परम्पराओ को दरकिनार कर के बनाये गए थे, वे उसी प्रकार बिना बहस और विचार विमर्श के रद्द कर दिए गए। वे कानून लाये क्यों गए थे और वापस क्यों ले लिए गए, यह प्रधानमंत्री न तो देश को समझा पाए और न ही किसानों को। समझा न पाने की बात प्रधानमंत्री जी ने खुद स्वीकार भी की है। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उम्मीद थी कि तीन नए कृषि क़ानूनों को रद्द करने के बाद, किसान अपना डेरा डंडा उखाड़ कर 'मोदी है तो मुमकिन है' का मंत्र जाप करते हुए दिल्ली छोड़ देंगे और वे एक साल से अधिक समय तक चले इस आंदोलन में विभिन्न कारणों से दिवंगत हुए सात सौ से अधिक किसानों की शहादत, आन्दोलन के दौरान झेली गयी दुश्वारियां देशद्रोही से लेकर खालिस्तानी तक लगाए जाने वाले लांछन, आंदोलन के दौरान दर्ज हुए मुक़दमे, एकता का दृढ़ संकल्प आदि सब भुला देंगे। पर यह गलत साबित हुआ है। इसके बजाय किसान यूनियनों ने घोषणा कर दी कि जब तक, केंद्र सरकार सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य मुहैया कराने के लिए कानूनी या वैधानिक गारंटी नहीं देती है, तब तक वे अपना एक साल पुराना समाप्त नहीं करेंगे।

एमएसपी को अक्सर एक विवादित मुद्दा कहा जाता रहा है और कमोबेश यह विवाद अब भी बनाया जा रहा है। एमएसपी पर कृषिअर्थशास्त्री और सामान्य अर्थशास्त्री, अपने अपने दृष्टिकोण के साथ, अलग अलग राय रखते हैं। एक पक्ष का कहना है कि, यह अर्थव्यवस्था को बर्बाद कर देगा, औऱ दूसरा पक्ष, एमएसपी को किसानों को तबाही और मौत से बचाने के एक ज़रूरी उपाय के रूप में मानते हैं। प्रोफेसर सुखपाल सिंह पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना में मुख्य अर्थशास्त्री (कृषि विपणन) हैं और उन्होंने न्यूनतम समर्थन मूल्य, ग्रामीण संकट और कृषि सुधार पर कई शोधपत्र भी लिखे हैं। साथ ही वह अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र विभाग के प्रमुख और "मूल फसलों की खेती की लागत" के मानद निदेशक भी रहे हैं।

न्यूज़क्लिक वेबसाइड को दिए एक इंटरव्यू में, वे कहते हैं,
"आर्थिक और राजनीतिक कारकों ने भारत की खाद्य नीति को निर्धारित किया था, जिसमें न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) एक महत्वपूर्ण तत्व है। यह नीति 1943 के बंगाल अकाल से निकली थी, जिस अकाल में दस लाख से अधिक लोग मारे गए थे। यह अकाल मोटे तौर पर खाद्यान्न की अपर्याप्त आपूर्ति का परिणाम था, और इस स्थिति ने ब्रिटिश भारत सरकार को जॉर्ज थियोडोर की अध्यक्षता में खाद्यान्न नीति समिति बनाने के लिए मजबूर कर दिया था, जिसने उस वक़्त खाद्यान्नों की राशनिंग पर जोर दिया था।"
कई शोधकर्ताओं का भी यह मानना है कि अंग्रेजों ने भी सोचा होगा कि भोजन की कमी अशांति और अराजकता पैदा कर सकती है। उनका दावा है कि हरित क्रांति का एक प्रोटोटाइप भी तभी तैयार हुआ था, जिसे हमने 1960 के दशक में पूरा होते देखा था।

1964 में, खाद्य मूल्य निर्धारण नीति विकसित करने के लिए पहले आयोग का गठन किया गया था – जिसका नाम एलके झा समिति था। इसने कृषि मूल्य आयोग की स्थापना की सिफारिश की, जो मौजूदा कृषि लागत और मूल्य आयोग (CACP) के नाम से जाना जाता है। कृषि मूल्य आयोग ने न्यूनतम समर्थन मूल्य और खरीद मूल्य की अवधारणा पेश की। उसी समय एमएसपी की परिभाषा भी तय की गयी। "एमएसपी वह न्यूनतम मूल्य है जो किसान को खाद्यान्न उत्पादन के लिए चुकाना होता है।  यह कीमत लागत को कवर करने और किसान को लाभ का एक निश्चित प्रतिशत देने वाली होती है।" इसका मतलब,
● बाजार में खाद्यान्न को एक विशेष कीमत या खरीद मूल्य पर बेचा जाएगा।
● यदि खरीद के मूल्य पर खाद्यान्न खरीदने वाला कोई खरीदार नहीं मिलता है तो सरकार गारंटी देती है कि वह न्यूनतम मूल्य या एमएसपी पर किसान की उपज खरीदेगी।
एमएसपी प्रणाली के पीछे का विचार किसानों को उनकी फसलों के लिए लाभकारी मूल्य प्रदान करना और उन्हें उपभोक्ताओं को उचित मूल्य पर बेचना था।
इसे लागू करने में एक बड़ी समस्या यह रही है कि सरकार एमएसपी पर कुल कृषि उपज का केवल एक छोटा सा हिस्सा ही खरीदती है। लेकिन भौगोलिक विविधताएं भी मौजूद हैं। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश से, सरकार लगभग सभी खाद्यान्न यानी गेहूं और धान की खरीद एमएसपी पर करती है।

अब थोड़ी चर्चा एमएसपी पर,
● 2014 में गठित शांता कुमार समिति ने कहा कि, "चूंकि कुल कृषि उपज का केवल 6 प्रतिशत एमएसपी पर खरीदा जा रहा है, तो सरकार इस मात्रा की खरीद भी बंद कर सकती है।" इससे एक भ्रांति पैदा हो गयी कि, केवल 6 प्रतिशत किसानों को ही एमएसपी से लाभ होता है। जबकि यह सही नहीं है। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रत्येक किसान के साथ-साथ अन्य राज्यों के किसान बड़ी संख्या में एमएसपी प्रणाली के लाभार्थी हैं।
● यह भी कहा जाता है कि, "एमएसपी पर बड़े पैमाने पर केवल गेहूं और चावल की ख़रीद की जा रही है, जिससे फसल की विविधिता पर असर पड़ा है?" जैसे, गेहूं और धान जोखिम भरी फसलें नहीं हैं, जैसे कि कपास है। [कपास कीटों के लिए अतिसंवेदनशील है।] गेहूं और धान दोनों का उत्पादन और विपणन सुनिश्चित है। ये दो कारक हैं जो किसानों को गेहूं और धान की तुलना में या उससे भी अधिक लाभदायक फसलों की ओर बढ़ने से रोकते हैं।
● इसके अतिरिक्त, एमएसपी की गणना करने के तरीके पर भी सवाल उठाया जाता। लेकिन एमएस स्वामीनाथन कमेटी ने एमएसपी का जो फॉर्मूला दिया है, उसे सरकार ने लगभग मान भी लिया है, और सभी राजनीतिक दल उसी फॉर्मूले के आधार पर एमएसपी देने का वादा भी अपने अपने घोषणापत्र में करते हैं, पर वे जब सरकार में रहते हैं तो उस वादे पर अमल नहीं करते हैं।

इस प्रकार यदि तीनो कृषिकानून जो अब अस्तित्वहीन हैं की चर्चा करें तो पाएंगे कि एमएसपी एक बड़ा और सबसे अहम मुद्दा है। हर उत्पादक की तरह किसानों को भी इस बात का हक़ है कि उनका उत्पाद, न सिर्फ लागत से अधिक मुनाफे पर बिके और यदि ऐसा न हो सके तो कुछ न कुछ ऐसा उपाय किया जाय जिससे उन्हें इतना लाभ और आय हो जिससे वे न केवल अपना घर बार चला सकें, बल्कि, वे अगली फसल के लिये भी खेत, उपकरण, बीज आदि की सुगमता से व्यवस्था कर सकें। पर फिलहाल ऐसा नही हो पा रहा है।

जब सरकार ने तीनों कृषिकानून रद्द करने की घोषणा की, तब किसानों ने एक कमेटी गठित कर, एमएसपी, किसानों पर दर्ज मुकदमों की वापसी, आंदोलन के दौरान, दिवंगत हुए किसानों को मुआवजा देने, सहित अनेक मांगो के संबंध एक कमेटी गठित कर उसे हल करने की मांग की थी। पर आज तक सरकार ने ऐसी कोई कमेटी गठित नहीं की जिससे किसानों में सरकार के प्रति जो पहले संशय था, वह जस का तस है बल्कि और वह बढ़ा ही है।

किसान आंदोलन को सामाजिक और आर्थिक नजरिए से लगातार विश्लेषण की जरूरत है। किसान आंदोलन अभी देशव्यापी नहीं हो पाया है। पर इसके कुछ उत्साहजनक और अलग तरह के परिणाम भी सामने आए हैं। सामाजिक तानेबाने पर असर के रूप में देखें तो यह आंदोलन भारत की धर्मनिरपेक्ष परंपरा को एक स्वस्थ आयाम दे रहा है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जहां ग्रामीण समाज, हिंदू मुस्लिम के रूप में अलग अलग बंट गया था, वह अब खेती किसानी और अपनी असल समस्याओं को लेकर साथ साथ आ रहा है। लंबे समय बाद ग्रामीण समाज ने सोचा कि साम्प्रदायिक विभाजन ने जो दरार गांव गांव मे हो गयी है, उसने सिवाय नुकसान के उन्हें कुछ नही दिया। अब वे अपनी साझी समस्या चाहे वह गन्ना मूल्य के बकाए के भुगतान की हो, या एमएसपी या खाद, डीजल, बिजली के महंगाई की, का समाधान मिलजुल कर करना चाहते हैं।हिंदी भाषी प्रदेश बुरी तरह से साम्प्रदायिकता की बीमारी से ग्रस्त है। इस आंदोलन की यह सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि अब उस बीमारी के प्रति समाज मे जागरूकता आयी है।

इस हालांकि इस सुखद परिवर्तन के बाद भी साम्प्रदायिक एकता के लक्ष्य का मार्ग कठिन और लम्बा है, पर पिछले सात साल से समाज को असल मुद्दे से भटका कर, जिस विभाजनकारी एजेंडे पर सत्तारूढ़ दल, उसके थिंकटैंक और सरकार, हाँक ले जा रही थी, वह मोहनिद्रा अब टूटने लगी है। तंद्रा, अवश्य अभी शेष है, पर लोग अब जाग गए हैं। वे देख रहे हैं कि, उनके बच्चों का भविष्य अधर में है, सात सालों में ढंग का एक भी इम्तिहान नौकरी के निमित्त सम्पन्न नही हो पाया, सरकारी आंकड़ों के ही अनुसार, लोगो की आमदनी आधी हो गयी है और महंगाई ने खर्चे दुगुने से भी अधिक कर दी गयी और जब सरकार से इन सब मुद्दों पर सवाल उठाया जाता है तो वह 80 बनाम 20 का राग अलापने लगती है, जिन्ना का उल्लेख करती है और पाकिस्तान से डराती है। इसे आप सात साल की उपलब्धि कह लें या देश, समाज और अपनी नियति। पर दूरियां चलने पर ही मिटेंगी..दिल की नजदीकियों की शुरुआत दिमाग की गांठों के खुलने से होती है..अभी बस गांठे ढीली हुई है। गांठों के खुलने में वक्त लगेगा। 

नेशनल फार्मर्स यूनियन, (NFU) अमेरिका का शायद सबसे बड़ा किसान संगठन है। इसका कहना है कि, भारत और अमेरिका के किसानों के हालात एक जैसे है। सोचिए, अमेरिका के किसानों को लगभग 12 लाख ₹ साल की सब्सिडी मिलती है..उसके बाद भी उनके हालात हमारे जैसे हैं। एनएफयू का कहना है कि भारतीय किसानों का आंदोलन किसानों की सार्वभौमिकता, ग्रामीण अर्थनीति और फेयर फ़ूड डिस्ट्रीब्यूशन के लिए जरूरी है। जबकि हमारे यहां ग्रामीण अर्थनीति यानी ग्राम आधारित अर्थव्यवस्था पर कभी जोर ही नहीं दिया गया। उपभोक्तावाद और पूंजीवाद के सबसे विकृत रूप क्रोनी कैपिटैलिज़्म यानी गिरोहबंद पूंजीवाद ने अर्थनीति में अपनी प्राथमिकता बनाये रखी और अब तो कृषि सेक्टर को ही कॉरपोरेट के चंगुल में दे देने की योजना थी, जिसे इस महान संघर्ष ने विफल कर दिया है। 

एनएफयू का यह भी कहना है कि, 'आज भारत मे किसानों के साथ जो हो रहा है वह अमेरिका में 1970, 80 के दशकों में हो चुका और अमेरिका का किसान बरबाद हो गया। पूरी अमेरिकन कृषि जमीन उद्योगपतियों के हाथों में चली गई और वहां का का किसान अपने मालिक पूंजीपतियों का एक प्रकार से बंधुआ मजदूर बन कर रह गया है। इन कानूनों में से एक कानून जो कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का था का पोशीदा एजेंडा अमेरिकी कृषि मॉडल की तर्ज पर, भारत की कृषि व्यवस्था को ले जाना था। आज अमेरिका की आधी कृषि ज़मीनों के मालिक बिल गेट्स हैं और जब पूंजी का एकत्रीकरण होने लगता है तो वह समाज को एक ऐसे विषम समाज मे बदल देती है जिसमे, आधी से अधिक सम्पदा पर, कुछ मुट्ठी भर लोगो का नियंत्रण होता है शेष में पूरी जनसंख्या जीवन बिताने को अभिशप्त होती है।

यह आंदोलन अभी खत्म न तो हुआ है और न ही खत्म होगा। जिस शांतिपूर्ण और गांधीवादी तरीके से किसानों ने यह आंदोलन संचालित किया वह एक अनोखा प्रयोग था और उस प्रयोग ने गांधी को आज भी प्रासंगिक कर दिया। अब इस आंदोलन के साथ, सार्वजनिक उपक्रमों, जिन्हें सरकार निजी कम्पनियों के हाथ बेचने जा रही है, के कामगार, और युवा भी शामिल होंगे। 31 जनवरी को किसान संगठन अपनी भावी रणनीति पर विचार करने के लिये बैठक करने जा रहे हैं। भारत मे कृषि एक उद्योग ही नहीं बल्कि एक हज़ारो साल से चली आ रही संस्कृति है। किसानों की समस्याओं से सरकारों का नज़रअंदाज कर जाना अब संभव नहीं है। 

(विजय शंकर सिंह)



प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (4)

पेरियार जब मूर्तियाँ तोड़ रहे थे, तो धर्मनिष्ठ ब्राह्मण राजागोपालाचारी मुख्यमंत्री थे। उनसे तो समर्थन की कोई उम्मीद नहीं थी। अन्नादुरइ ने भी इस आयोजन में साथ नहीं दिया। पेरियार के सहयोगियों को जान से मारने की धमकी दी जा रही थी। मगर पेरियार कह रहे थे कि चाहे जान चली जाए, पिल्लयार के बाद वह राम की मूर्तियाँ बना-बना कर तोड़ेंगे। उन पर मुकदमा किया गया। 

कचहरी में न्यायाधीश रमन नायर ने पूछा, “इन्होंने पिल्लयार की मूर्तियाँ खुद बना कर तोड़ी हैं। किसी दूसरे की संपत्ति या मंदिर नहीं तोड़ा। तो आपत्ति क्यों है?”

याचिकाकर्ताओं ने कहा, “यह हमारी भावनाओं को ठेस पहुँचाता है”

“मगर ये तो तीन महीने से घोषणा कर रहे थे। ऐसे आयोजन में जाना ही क्यों, जिससे दुख पहुँचे?”

उन्होंने क्रोधित होकर कहा, “पेरियार कान खोल कर सुन लें- जितनी मूर्तियाँ टूटेगी, उससे कहीं अधिक मंदिर बन जाएँगे”

पेरियार ने कहा, “फिर तो आप ही हमारा काम हल्का कर दें। हम मूर्तियाँ देंगे, आप जम कर तोड़ें। इसी बहाने आपके कहीं अधिक मंदिर बन जाएँगे।”
 
पेरियार के इस मूर्ति-भंजक अभियान से भिन्न अन्नादुरइ का दल अलग दिशा में आगे बढ़ रहा था। 

युवा नेता करुणानिधि अपने लोगों के साथ घूम-घूम कर रेलवे स्टेशनों में देवनागरी नामों पर कालिख लगा रहे थे। उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। वहीं, अन्नादुरइ राजागोपालाचारी के जाति-कर्म विद्यालयों के विरुद्ध आंदोलन कर रहे थे। उन्हें भी गिरफ़्तार कर लिया गया। इन गिरफ़्तारियों से राजागोपालाचारी के प्रति जनता में रोष उत्पन्न होने लगा। 

मद्रास प्रांत में एक और हलचल पहले ही शुरू हो चुकी थी। तेलुगु भाषी तमिलों से अलग होने की माँग कर रहे थे। पेरियार और तमिलों से तो वे चिढ़े ही हुए थे, किंतु जवाहरलाल नेहरू भाषा के आधार पर विभाजन के क़तई समर्थन में नहीं थे।

सबसे पहले 15 अगस्त, 1951 को स्वामी सीताराम एक अलग तेलुगु प्रदेश के लिए आमरण अनशन पर बैठे थे। जब 35 दिन तक व्रत के बाद वह मरणासन्न हुए तो विनोबा भावे ने नेहरू से विनती की। नेहरू के आश्वासन पर उन्होंने व्रत तो तोड़ा, मगर शर्त मानी नहीं गयी। 

19 अक्तूबर, 1952 को गांधीवादी नेता पोट्टी श्रीरामलु मद्रास में आमरण अनशन पर बैठ गए। उन्होंने गांधी के साथ पहले ऐसे अनशन किए थे, मगर छह हफ्तों के अनशन के बाद उनकी स्थिति खराब होने लगी। नेहरू ने आखिर राजागोपालाचारी को चिट्ठी लिखी कि मद्रास का विभाजन करना ही होगा, अन्यथा स्थिति बेकाबू हो जाएगी। लिखित करारनामे में देरी हो गयी, और 58 दिन के व्रत के बाद श्रीरामलु चल बसे। आंध्र जल उठा। दंगे होने लगे, बस जलाए जाने लगे। 

हड़बड़ी में संसद ने 1 अक्तूबर, 1953 को स्वतंत्र भारत का पहला भाषा-आधारित राज्य बनाया, करनूल राजधानी बनी। बाद में हैदराबाद रियासत को मिला कर 1956 में बड़ा आंध्र राज्य बना (जो 2014 में पुन: विभक्त हो गया)। 

आंध्र के अलग होते ही पेरियार का ‘द्रविड़ नाडु’ स्वप्न भी बिखरने लगा। मलयाली पहले ही अलग मिज़ाज के थे, तेलुगु अलग ही हो गए। उनका द्रविड़नाडु स्वप्न सिकुड़ कर तमिलनाडु बनता जा रहा था।

कहीं न कहीं मद्रास की प्रगति इन द्रविड़ आंदोलनों की वजह से रुक रही थी। पेरियार को किसी भी तरह रोकना आवश्यक हो गया था। मगर जो व्यक्ति गांधी से नहीं संभले, राजागोपालाचारी से नहीं संभले; जो भारतीय संविधान को जला रहे हों, मूर्तियाँ तोड़ रहे हों, जिनका ध्येय ही कांग्रेस का अंत हो; उन्हें आखिर कौन रोकता? 

उस समय एक ऐसे व्यक्ति ने मद्रास की कमान संभाली, जो भविष्य में पूरे देश के कांग्रेस के चाणक्य बने। उनके आते ही हिंदी विरोधी आंदोलन घटने लगे, कांग्रेस में भरोसा बढ़ने लगा, राज्य प्रगति-पथ पर बढ़ने लगा। और पेरियार? 

पेरियार तो जीवन में पहली बार किसी कांग्रेसी के कंधे पर हाथ रख कर उन्हें वोट देने कह रहे थे। दृढ़निश्चयी पेरियार का कामदेव वशीकरण करने वाले वह स्वनामधन्य थे- कुमारस्वामी कामराज!
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (3)
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#vss

Sunday 30 January 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (3)



“अम्बेडकर तीस के दशक में मुसलमान बनना चाह रहा था। मैंने रामनाथन के माध्यम से उसे चिट्ठी लिख कर समझाया कि हड़बड़ी में यह फैसला मत लो। मुसलमान समझते हैं कि उनका धर्म इतना  सिद्ध है, कि उसमें किसी बदलाव की ज़रूरत नहीं। जब बदलाव ही नहीं होगा, तो तुम्हारे जैसे तर्कशील व्यक्ति के लिए किसी काम की नहीं।”

- पेरियार, 1956 (अम्बेडकर के बौद्ध धर्म धारण पर बोलते हुए)

राजाजी के मुख्यमंत्री काल (1952-54) में पेरियार का सबसे आक्रामक रूप नज़र आता है। वह समय ऐसा था, जब पेरियार और अम्बेडकर, दोनों ही बौद्ध धर्म से खिंचे चले जा रहे थे। लेकिन, दोनों के मार्ग भिन्न थे। पेरियार एक अराजक व्यक्तित्व थे।

अगस्त, 1952 को चेन्नई के त्रिप्लिकेन बीच पर पेरियार दल-बल लेकर संविधान जलाने आ गए। उन्होंने कहा,

“मैं संविधान जलाने आया हूँ। पूछिए क्यों? 

क्या अंग्रेज़ों से पहले द्रविड़ों की धरती पर किसी ग़ैर-द्रविड़ ने राज किया? आज इन अंग्रेज़ों ने कहीं की ईंट, कहीं का रोड़ा जोड़ कर, एक मुसलमानों से सुने नाम का देश बना दिया। इंडिया! खैर, अब जो बन गया, वह तो बन गया। मगर अब हम पर अपनी भाषा थोपोगे? इतनी तो मुगलों और अंग्रेज़ों ने भी ज़बरदस्ती नहीं की। 

संविधान बनाने वाले कौन हैं? पौने तीन हिस्से ब्राह्मण, पाँच हिस्से रईस, और बाकी उनके नौकर। क्या लाखों गरीबों की राय ली गयी? आपने कहा था कि पहले आम चुनाव के बाद संविधान बनाएँगे, जनता से पूछेंगे, वह भी नहीं किया। 

आपका संविधान हम द्रविड़ों के शोषण के लिए बना है। अभी-अभी हमने एक लड़ाई लड़ी, मगर कब तक यूँ एक-एक बिंदु बदलते रहेंगे। हमने रामायण, महाभारत जलाया, अब संविधान भी जलाएँगे। ऐसा हर ग्रंथ जलाएँगे, जो हमारे शोषण के हथियार बनेंगे।”

मगर संविधान-निर्माता रूप में तो एक दलित नेता अम्बेडकर का ही नाम सभी की जबान पर है, फिर पेरियार ने ऐसा संविधान किस तर्क से जलाया? अम्बेडकर का ही मत लिया जाए। 

अगले वर्ष अम्बेडकर ने राज्यसभा में कहा, “लोग मुझ पर इल्जाम लगाते हैं कि मैंने संविधान बनाया। मैं यह स्पष्ट करना चाहूँगा कि अगर संविधान जलाया जाएगा, तो सबसे पहले मैं जलाऊँगा”

इसका एक अगले भाषण में स्पष्टीकरण देते हुए उन्होंने कहा, “संविधान जलाने की बात मैंने क्यों कही? आप एक मंदिर बनाते हैं, वहाँ देवता स्थापित करते हैं। अगर देवता से पहले वहाँ राक्षस आकर बस जाए, तो उस मंदिर का क्या करेंगे? मैं चेतावनी दे रहा हूँ कि यह संविधान ऐसे ही राक्षसों का हथियार बनता जा रहा है।”

पेरियार का अगला कार्यक्रम इससे भी अधिक भड़काऊ था। मगर मैं इस इतिहास को सेंसर कर दूँ, तो बात पूरी न होगी। 1953 में पेरियार ने तीन महीने का नोटिस देकर सार्वजनिक रूप से पिल्लयार (गणेश) की मूर्ति तोड़ने का ऐलान किया। उन्होंने कहा,

“हमें उन देवताओं को समाप्त करना ही होगा, जो किसी को ब्राह्मण तो किसी को शूद्र बनाते हैं। शूद्र दिन-रात पसीना बहाते हैं, और ये ब्राह्मण मूर्तियों को दीप दिखा कर धन कमाते हैं। पिल्लयार से शुरुआत इसलिए कर रहा हूँ, क्योंकि सभी शुभ कार्यों की शुरुआत इन्हीं से होती है। 

जब मैं मूर्ति तोड़ने की बात करता हूँ, तो यह स्पष्ट कर दूँ कि मैं किसी मंदिर प्रांगण में प्रवेश नहीं कर रहा। न ही किसी स्थापित मूर्ति को हानि पहुँचाऊँगा। हम यह मूर्तियाँ स्वयं बनवा कर लाएँगे। यह कार्य हम अपने खर्च पर, प्रतीकात्मक रूप में कर रहे हैं। किसी भी मंदिर को तनिक भी हानि नहीं पहुँचायी जाएगी।” 

27 मई, 1953 को ‘बुद्ध पूर्णिमा’ के दिन मूर्ति तोड़ते हुए पेरियार ने कहा, “मैं उस प्रतीक को तोड़ रहा हूँ, जिसने मुझे जन्मजात शूद्र बनाया”

1956 में अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। पेरियार कभी बौद्ध नहीं बने। शायद वह किसी धर्म के लिए बने ही नहीं थे। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (2)
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पेगासस जासूसी और निजता का अधिकार / विजय शंकर सिंह

न्यूयार्क टाइम्स के रॉनेन बर्गमन और मार्क मज़ेटी की एक रिपोर्ट ने देश और सरकार के अलोकतांत्रिक और नागरिक अधिकार विरोधी चेहरे को उजागर कर दिया है। इन खोजी पत्रकारों ने, पेगासस स्पाइवेयर पर एक रिपोर्ट तैयार की है जिंसमे कहा गया है कि, 
"मेक्सिको और पनामा के अलावा भारत ने भी पेगासस जासूसी उपकरण ख़रीदा है। इज़रायल ने इस सॉफ़्टवेयर को बेच कर दुनिया में अपने कूटनीतिक प्रभाव का विस्तार किया है। जिन देशों ने इज़रायल से पेगासस ख़रीदा है वो अब इसके हाथ ब्लैकमेल हो रहे हैं।"
न्यूयार्क टाइम्स आगे लिखता है,
"नरेंद्र मोदी 2017 में इजरायल गए थे, और उसी यात्रा के दौरान पेगासस ख़रीदने का सौदा हुआ। जिसका इस्तेमाल विपक्ष के नेताओं, पत्रकारों के फ़ोन से डेटा उड़ाने और बातचीत रिकार्ड करने में हुआ।"
हालांकि रक्षा मंत्रालय पहले ही इस बात से इनकार कर चुका है कि कि रक्षा मंत्रालय और एनएसओ के बीच कोई सौद हुआ है। न्यूयार्क टाइम्स के  अनुसार, पेगासस रक्षा सौदे का हिस्सा था। सरकार के लाख ना नुकुर के बाद आज यह रहस्य खुल गया कि भारत सरकार ने रक्षा उपकरणों के रूप में पेगासस स्पाइवेयर की खरीद की है और उसका उपयोग सुप्रीम कोर्ट के जजों, निर्वाचन आयुक्त सहित विपक्ष के नेताओ और पत्रकारों सहित अनेक लोगों की जासूसी करने में किया गया है। 

पेगासस जासूसी के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित जस्टिस रवीन्द्रन कमेटी इसकी जांच कर रही है। उस कमेटी में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज, जस्टिस आरवी रवीन्द्रन सहित पांच अन्य विशेषज्ञ हैं। यह जांच कमेटी, न्यूयार्क टाइम्स की रिपोर्ट पर संज्ञान लेती है या नहीं, यह तो बाद में ही पता चलेगा। फिलहाल इस लेख में, हम, जासूसी के अन्य पहलुओं के बजाय, निजता के अधिकार से सम्बंधित कानूनी विन्दुओं पर चर्चा करते हैं। 

भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों में निजता के अधिकार का कहीं उल्लेख नहीं है, पर अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार' के मौलिक अधिकार से, निजता का अधिकार स्वतः आच्छादित हो जाता है। निजता के अधिकार पर पहली बार एक गंभीर बहस तब शुरू हुयी जब आधार कार्ड के द्वारा नागरिकों की बहुत सी निजी सूचनाएं लेने के लिये एक कानून लाया गया। तब यह भी सवाल उठा कि, क्या सरकार इन सूचनाओं की गोपनीयता बनाये रखने के लिये सक्षम और कृतसंकल्प है भी ? सरकार ने तब सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा था, कि उसने नागरिकों के डेटा सुरक्षित रखने के लिये सारे ज़रूरी कदम उठाए हैं और यह आंकड़े एक मजबूत दीवार के घेरे में सुरक्षित हैं। 

आधार पर, यह विवाद इसलिए पैदा हुआ क्योंकि आधार में व्यक्ति की बायोमेट्रिक और तमाम निजी जानकारियां होती हैं। आधार में, धारक की उंगलियों के निशान भी शामिल होते हैं। यह सब सूचनाएं, किसी भी नागरिक की निजी सूचनाएं होती हैं, और इनका सार्वजनिक हो जाना या किसी के द्वारा चुरा लेना, उक्त व्यक्ति की निजता के अधिकार का उल्लंघन तो है ही साथ ही इन सूचनाओं के दुरूपयोग से, उक्त व्यक्ति को तरह तरह से नुकसान भी पहुंचाया जा सकता है। निजता के अधिकार और डेटा को सुरक्षित रखे जाने सम्बंधित मामले में, सुप्रीम कोर्ट में माना है कि, 
" निजता का अधिकार जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार के दायरे में आता है और इसमें किसी के व्यक्तिगत निर्णयों पर स्वायत्तता का अधिकार, शारीरिक अखंडता और व्यक्तिगत जानकारी भी शामिल है।  यद्यपि यह अधिकार प्रकृति में पूर्ण नहीं है और कानून द्वारा बनाए गए प्रत्येक कानून जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी भी व्यक्ति की निजता के अधिकार का उल्लंघन करता है। " 

अब एक नज़र निजता के अधिकार के विकास पर डालते है । 
● स्वाधीनता के पहले भी निजता के अधिकार पर अदालत और अन्य समाज मे बहस छिड़ चुकी थी। 1935 में इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक महत्वपूर्ण मामला अदालत के सामने आया था, निहाल चंद बनाम भगवान देई का। उसकी सुनवाई मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सुलेमान ने की थी। उंस मामले में अपने मकान में खिड़की खोलने पर निजता के भंग होने का आरोप था। अदालत ने माना कि, दूसरे के घर की तरफ जहां उसकी जमीन नही है, खिड़की खोलना निजता के अधिकार में अतिक्रमण है। हालांकि यह कोई महत्वपूर्ण विवाद विंदु नहीं था, पर अदालत में पहली बार, निजता की परिभाषा, सीमा और उसके अधिकार पर बहस चली और अदालत ने इसे माना कि व्यक्ति की निजता उसका एक अधिकार है और उसमे सेंध लगाने की इजाज़त सबको नहीं है। 

● 1948 में संयुक्त राष्ट्र संगठन, यूएनओ ने एक यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स जारी किया जिंसमे मानव की प्रतिष्ठा और उसकी निजता के अधिकार की बात कही गयी है। हालांकि निजता का अधिकार इस चार्टर में अलग से परिभाषित नहीं है अपितु वह व्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार के अंदर ही समाहित है। यदि किसी व्यक्ति की निजता के मामले में कोई दखल देता है तो, वह उसके निजी स्वतंत्रता के मामले में भी दखल होगा, और इसी पर्सनल लिबर्टी को यूडीएचआर ने अपने चार्टर में मुख्य स्थान दिया है। भारतीय संविधान में जो मौलिक अधिकार हैं वे भी 1948 के यूडीएचआर की घोषणा पर आधारित हैं। 

● एक महत्वपूर्ण मामला है, एमपी शर्मा बनाम सतीश चंद्र का जिंसमे 8 जजो की पीठ ने निजता के अधिकार के संबंध में यह फैसला दिया है कि,
" कानूनी कार्यवाही के दौरान तलाशी और जब्ती के राज्य के अधिकार, निजता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करते हैं।"
एमपी शर्मा का मामला 15 मार्च 1954 का है। यह मामला डालमिया समूह की कंपनियों के दस्तावेजों की तलाशी और जब्ती से संबंधित था। इसमें डालमिया जैन एयरवेज लिमिटेड के कारोबार की जांच हुई थी। इस कंपनी का पंजीकरण जुलाई 1946 में हुआ था और जून 1952 में यह कंपनी बंद हो गई थी। जांच में ज्ञात हुआ कि, कंपनी के भीतर भ्रष्टाचार हुआ है। जांच में पाया गया कि गलत बैलेंस शीट के जरिए शेरयधारकों से वास्तविक जानकारी छुपाने के प्रयास किए गए थे। इस मामले में 19 नवंबर 1953 को एफआईआर दर्ज कराई गई थी और दिल्ली के जिला मजिस्ट्रेट से दरख्वास्त की गई कि इस मामले में सर्च वारंट जारी किया जाए। इस पर आरोपी ने दस्तावेजों की तलाशी और जब्ती को अदालत में चुनौती दी थी। मामले में मुख्य विचाराधीन मुद्दा ‘संपत्ति के संवैधानिक अधिकार’ और ‘खुद पर दोष लगाने से बचाव के अधिकार’ था।

न्यायाधीशों को इस मामले में यह पता लगाना था कि, 'निजता के अधिकार के उल्लंघन की स्थिति में क्या सरकार द्वारा तलाशी और जब्ती के अधिकार के लिए कोई संवैधानिक सीमाएं हैं।'  इसमें सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एमसी महाजन की अगुआई वाली आठ जजों की पीठ ने फैसला दिया था कि,
"तलाशी और जब्ती का अधिकार राज्य का है। समाज की रक्षा के लिए कानून के तहत राज्य को ये अधिकार मिले हैं। संविधान बनाने वालों ने भी इस मामले को निजता के अधिकार के दायरे में भी सीमित नहीं किया है।" 

● इसी प्रकार का एक मामला, खड़क सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य का है जिंसमे, न्यायालय ने यह स्थापित किया कि 'गोपनीयता मौलिक अधिकार नहीं है।' इस मामले में यूपी पुलिस ने खड़ग सिंह नामक एक व्यक्ति को एक मुकदमे में गिरफ्तार किया था, लेकिन साक्ष्य के अभाव में वह बरी हो गया। मुकदमे से बरी हो जाने के बाद भी पुलिस उसकी गतिविधियों पर नजर रख रही थी और इसका काऱण, पुलिस के पास उसकी अवांछित गतिविधियों के संबंध में कुछ सूचनाएं थीं। इस निगरानी पर, खड़ग सिंह ने न्यायालय में याचिका दायर की और याचिका में कहा कि 
" पुलिस की जासूसी के कारण उसके निजता के अधिकार का हनन हो रहा है।पुलिस रात में भी मेरे घर में छापेमारी करती है।"
इस पर अदालत ने खड्ग सिंह का तर्क नहीं माना और, कहा कि आपराधिक और अवांछित गतिविधियों की सूचना पर, पुलिस को निगरानी और अन्य निरोधक उपचार जो पुलिस रेगुलेशन, पुलिस एक्ट और सीआरपीसी या अन्य पारित आपराधिक कानूनो में दिए गए हैं,  कर सकती है।  यूपी पुलिस को मिले अधिकार के मुताबिक वह रात में भी छापेमारी कर सकती थी। कोर्ट ने इसे निजता के अधिकार का हनन मानने से इंकार कर दिया था।

● पुलिस निगरानी पर एक और रोचक मामला मध्यप्रदेश के गोविंद का है। गोविंद मध्यप्रदेश का निवासी था और उसपर, 1960-1969 की अवधि के दौरान कई अपराधों का आरोप लगाया गया था, जिनमें से कुछ को उसने झूठा बताया था। वर्ष 1962 में, अदालत ने उसे, दोषी पाया और दो महीने की कैद और ₹ 100 के जुर्माने की सजा दी। एक अन्य मामले में भी, उसे दोषी पाया गया और एक महीने के कारावास के साथ-साथ ₹ 501 रुपये के जुर्माने की सजा दी गई। 

इसी बीच, एमपी पुलिस ने, मध्य प्रदेश पुलिस रेगुलेशन की धारा 855 और 856 की स्थापना की, जिसके अनुसार
" किसी न किसी आपराधिक गतिविधि में शामिल होने के संदेह पर, संदिग्धों के नाम एक रजिस्टर में दर्ज किए जाने चाहिए और ऐसे  व्यक्तियों को निरंतर निगरानी में रखा जाना चाहिए।  इन व्यक्तियों के घर का अनियमित अंतराल पर भ्रमण किया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे किसी भी आपराधिक कृत्य में तो शामिल नहीं हैं जो सार्वजनिक नीति के खिलाफ हैं।"
इस प्राविधान के बाद, गोविंद को एक आदतन अपराधी के रूप में सूचीबद्ध किया गया और उसकी नियमित निगरानी की गई। उन्होंने दावा किया कि उनके घर में पुलिस अधिकारी नियमित रूप से आते थे और कई बार इन पुलिसकर्मियों ने उन्हें पीटा और मारपीट की।  उसने इस आधार पर नियम 855 और 856 का विरोध किया कि वे निजता के अधिकार के अनुसार नहीं थे और लागू कानून द्वारा भी समर्थित नहीं थे।" 

इस कानून के बन जाने के बाद गोविंद को पुलिस ने आदतन अपराधी की श्रेणी में रखा, और उसे नियमित निगरानी सूची में रख दिया। इस पर गोविंद ने इसे अपने निजता के अधिकार का हनन माना और कहा कि यह प्राविधान, उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। इस पर लंबी बहस हुयी और मामला सुप्रीम कोर्ट में गया। अदालत ने माना कि नियम 855 और 856 वैधानिक है, और यह पुलिस अधिनियम, 1888 की धारा 46 (2) (सी) के अंतर्गत है, जिंसमे सरकार को ऐसे नियम बनाने की शक्ति है, जो अपराधों की रोकथाम में ज़रूरी हों। संदिग्धों की नियमित निगरानी के डर से, अपराधी तत्वो की आपराधिक गतिविधियों में कमी आएगी और अपराध कम होंगे।  

● मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) का भी एक मामला इस विषय मे चर्चित है। वर्ष 1977 में मेनका गांधी का पासपोर्ट वर्तमान सत्तारूढ़ जनता पार्टी सरकार द्वारा ज़ब्त कर लिया गया था। जवाब में उन्होंने सरकार के आदेश को चुनौती देने के लिये सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की। इस मामले में उन्होंने  अनुच्छेद 21 का हवाला दिया, जिसके अंतर्गत,  जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान किया गया है जो यह सुनिश्चित करता है कि बिना, कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुपालन के अतिरिक्त, कोई भी व्यक्ति अपने जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकेगा। इस मुकदमे के निर्णय के अस्तित्व में आने से पहले अदालतों द्वारा किसी भी कानून पर सवाल उठाने का दृष्टांत नहीं मिलता है, चाहे वह कानून के अनुकूल हो या ना हो, चाहे वह जीवन के अधिकार या व्यक्तिगत स्वतंत्रता के उल्लंघन के मामले में मनमाना या दमनकारी ही, क्यों न हो। हालाँकि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत,  अपने आप को कानून की पुनर्समीक्षा का अधिकार देकर न्यायालय ने पर्यवेक्षक से संविधान के प्रहरी का रूप धारण कर लिया।

मेनका गांधी मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का मूल अर्थ यह था कि 
"अनुच्छेद 21 के संदर्भ में 'कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया' के साथ 'कानून की उचित प्रक्रिया ' को ध्यान में रखा जाएगा।"
बाद के एक निर्णय  में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि 
" अनुच्छेद 21 के अनुसार कोई भी व्यक्ति वैध कानून द्वारा स्थापित न्यायसंगत और उचित प्रक्रिया के अलावा अपने जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं होगा।"

● वर्ष 1994 में, आर राजगोपाल बनाम भारत संघ" के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय का विचार था कि,
" व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का एक हिस्सा होने से संबंधित अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में दी गई सभी सुरक्षा को कवर करने के रूप में माना जाना चाहिए और  एक कार्रवाई योग्य दावे के रूप में सामने लाया जाए।"
यानी अदालत ने, निजता के अधिकार को, व्यक्तिगत स्वतंत्रता का ही एक अंग माना है और प्रकारांतर से इसे भी मौलिक अधिकारों में समाविष्ट, स्वीकार किया है। 

● टेलीफोन टेपिंग को लेकर 1997 में पीयूसीएल ने एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दायर की थी,  जिस पर जस्टिस कुलदीप सिंह की बेंच ने जो कहा, उसे पढिये, 
" टेलीफोन-टैपिंग किसी व्यक्ति की निजता पर गंभीर आक्रमण है।  अत्यधिक परिष्कृत संचार प्रौद्योगिकी के विकास के साथ साथ, बिना किसी हस्तक्षेप के अपने घर या कार्यालय की गोपनीयता बरकरार रखते हुए, टेलीफोन पर बातचीत करने के अधिकार नागरिक को है। निःसंदेह यह भी सही है कि प्रत्येक सरकार, चाहे वह कितनी भी लोकतांत्रिक क्यों न हो, अपनी खुफिया एजेंसियों के माध्यम से राज्य और जनहित में, ऐसे निगरानी की व्यवस्था रखती है। लेकिन साथ ही नागरिकों के निजता के अधिकार का हनन, अधिकारियों द्वारा इस शक्ति के दुरुपयोग से न हो सके, इसका ध्यान, राज्य द्वारा सुनिश्चित किया जाना चाहिए।"
याचिकाकर्ता ने भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम, 1885 (अधिनियम) की धारा 5(2) की संवैधानिक वैधता को भी  चुनौती दी। इसके विकल्प में यह तर्क दिया जाता है कि उक्त प्रावधानों का मनमाना दुरुपयोग न हो सके, इसके लिए ज़रूरी सुरक्षा मेकवनिज़्म के उपायों को भी शामिल करना होगा। जिससे अंधाधुंध टेलीफोन टैपिंग न की जा सके। 

● वर्ष 2004 में जिला रजिस्ट्रार और कलेक्टर बनाम केनरा बैंक और अन्य के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने फिर से यह उल्लेख किया कि अनुच्छेद 19 के तहत प्रदान की गई स्वतंत्रताएं निजता के अधिकार को और मजबूत करने के लिए हैं। यह दृष्टिकोण, जिला रजिस्ट्रार और कलेक्टर बनाम कैनरा बैंक में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में दिया है। अदालत ने कहा कि 
" एक बैंक और उसके ग्राहकों के बीच बैंकिंग लेनदेन के संबंध में गोपनीयता का एक तत्व मौजूद होता है। गोपनीयता का अधिकार, ग्राहक द्वारा बैंक को दी जाने वाली गोपनीय जानकारी के परिणामस्वरूप खो नहीं जाता है। बैंक को सूचना देने के साथ उसकी गोपनीयता नष्ट नहीं होती है। इसके अलावा, बैंक गोपनीयता बनाए रखने के लिए बाध्य है, जब तक कि इसके प्रकटीकरण की आवश्यकता, कानून द्वारा नहीं होती है। बैंक और ग्राहक के बीच का संबंध परस्पर विश्वास पर आधारित है।" 
अदालत ने आयकर रिटर्न की जानकारी को भी निजता के अधिकार के दायरे में माना है। 
"कोई भी जानकारी, जो करदाता ने आयकर विभाग को अपने रिटर्न में दिया हैं यह उसकी व्यक्तिगत जानकारी मानी जायेगी। किसी व्यक्ति द्वारा दायर आयकर रिटर्न का किसी अनधिकृत व्यक्ति को, किया गया खुलासा, या ऐसी मांग करने से उस व्यक्ति की निजता का हनन होगा।"
 
●  वर्ष 2010 में सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य के मामले ने एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य सामने लाया गया क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मानसिक और शारीरिक गोपनीयता में गोपनीयता के वर्गीकरण के संबंध में की गई टिप्पणियों के कारण, एक बहुत ही महत्वपूर्ण पहलू पर चर्चा की गई थी, और इस पर निजता के अधिकार को अनुच्छेद 20(3) के मौलिक अधिकार से जोड़ने का निर्देश दिया।

सेल्वी बनाम कर्नाटक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने, पहले कहा था कि 
" जांच अधिकारी किसी मामले में आरोपी को नार्को या लाई डिटेक्टर टेस्ट किए जाने के लिए मजबूर नहीं कर सकता क्योंकि इन टेस्टों में आरोपी अपने ही खिलाफ बयान दे सकता है जो संविधान के अनुच्छेद 20 (3) का हनन है।" 

लेकिन, सुप्रीम कोर्ट ने, संवैधानिक प्रावधानों और अपने ही अन्य फैसलों पर विचार करते हुए कहा, 
"'सबूतों की पुष्टि के लिए किसी भी व्यक्ति के फिंगर और फुट प्रिंट लिए जा सकते हैं और इसे अनुच्छेद 20 (3) के अंतर्गत मिले नागरिक अधिकारों का हनन नहीं माना जा सकता।" 
यह मामला, उत्तर प्रदेश के इटावा का था। 

● 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने निजता के अधिकार को, मौलिक अधिकारों का एक अंग माना है। शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में कहा है कि,
" जीने का अधिकार, निजता के अधिकार और स्वतंत्रता के अधिकार को अलग-अलग करके नहीं बल्कि एक समग्र रूप देखा जाना चाहिये।" 
न्यायालय के शब्दों में 
“निजता मनुष्य के गरिमापूर्ण अस्तित्व का अभिन्न अंग हैं और यह सही है कि संविधान में इसका जिक्र नहीं है, लेकिन निजता का अधिकार वह अधिकार है, जिसे संविधान में गढ़ा नहीं गया बल्कि मान्यता दी गयी है। निजता के अधिकार को संविधान संरक्षण देता है क्योंकि यह जीवन के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार का एक बाईप्रोडक्ट है। निजता का अधिकार, स्वतंत्रता और सम्मान के साथ जीने के अन्य मौलिक अधिकारों के साहचर्य में लोकतंत्र को मज़बूत बनाएगा।" 
निजता की श्रेणी तय करते हुए न्यायालय ने कहा कि,
" निजता के अधिकार में व्यक्तिगत रुझान और पसंद को सम्मान देना, पारिवारिक जीवन की पवित्रता, शादी करने का फैसला, बच्चे पैदा करने का निर्णय, जैसी बातें शामिल हैं। किसी के अकेले रहने का अधिकार भी उसकी निजता के अंतर्गत आएगा। निजता का अधिकार किसी व्यक्ति की निजी स्वायत्तता की सुरक्षा है और जीवन के सभी अहम पहलूओं को अपने तरीके से तय करने की आज़ादी देता है।" 

न्यायालय ने यह भी कहा है कि 
"अगर कोई व्यक्ति सार्वजनिक जगह पर हो तो ये इसका अर्थ यह नहीं कि वह निजता का दावा नहीं कर सकता।"
अन्य मूल अधिकारों की तरह ही निजता के अधिकार में भी युक्तियुक्त निर्बन्धन की व्यवस्था लागू रहेगी, लेकिन निजता का उल्लंघन करने वाले किसी भी कानून को उचित और तर्कसंगत होना चाहिये।
न्यायालय ने यह भी कहा है कि, 
" निजता को केवल सरकार से ही खतरा नहीं है बल्कि गैरसरकारी तत्त्वों द्वारा भी इसका हनन किया जा सकता है। अतः सरकार डेटा सरंक्षण का पर्याप्त प्रयास करे।" 
न्यायालय ने सूक्ष्म अवलोकन करते हुए कहा है कि, 
"‘किसी व्यक्ति के बारे में जानकारी जुटाना उस पर काबू पाने की प्रक्रिया का पहल कदम है।" 
इस तरह की जानकारियों का प्रयोग असहमति का गला घोंटने में किया जा सकता है। अतः ऐसी सूचनाएँ कहाँ रखी जाएंगी, उनकी शर्तें क्या होंगी, किसी प्रकार की चूक होने पर जवाबदेही किसकी होगी? इन पहलुओं पर गौर करते हुए कानून बनाया जाना चाहिये।

निजता के अधिकार के संदर्भ में, जिन प्रमुख मुकदमो का उल्लेख ऊपर किया गया है, उनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि, 
● निजता का अधिकार, मौलिक अधिकार के अनुच्छेद 21 में समाविष्ट है और वह अलग से लिखित नहीं है।
● मौलिक अधिकारों के समान ही वह निर्बाध और असीमित रूप में नागरिकों को प्राप्त नहीं है। उसपर विधिक प्रतिबंध राज्य द्वारा लगाए जा सकते हैं। राज्य इनके लिये सक्षम है। 
● राज्य विधिहित औऱ जनहित में कानूनन अवांछित व्यक्तियों की निगरानी कर सकता है और इसके लिये राज्य कानून भी बना सकता है। 
● लेकिन, राज्य का यह भी दायित्व है कि वह इन कानूनों, निगरानी की शक्तियों और अधिकारों का दुरुपयोग न होने दे। इसके लिये उचित मेकेनिज़्म बनाये और एजेंसियों द्वारा कोई भी विधिविरुद्ध कार्य न होने दे। 

अब इस अधिकार के संदर्भ में पेगासस जासूसी के मामले को देखते हैं। भारत में राज्य और केंद्रीय एजेंसियों द्वारा की जा रही निगरानी पूरी तरह सेअवैध और कानूनन प्रतिबंधित नहीं है।  सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम,(आईटी एक्ट) 2000 की धारा 69A के अनुसार,
" आईटी अधिनियम की धारा 69 (ए) सरकार को उन पोस्ट और अकाउंट्स के खिलाफ कार्रवाई करने की अनुमति देती है जो सार्वजनिक व्यवस्था या भारत की संप्रभुता और अखंडता, भारत की रक्षा, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध के हित के लिए खतरा बन सकते हैं।" 
इंटेलिजेंस ब्यूरो और रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) सहित 10 केंद्रीय एजेंसियां टेलीफोन टैप करने के लिए सरकार द्वारा अधिकृत है।  2013 में हुए एक आरटीआई खुलासे के अनुसार,  
" केंद्र सरकार द्वारा मासिक आधार पर 5,000 से 9,000 वैध सर्विलांस आदेश जारी किए जा रहे थे।  यहां तक ​​कि निजता का अधिकार विधेयक, जिसे अभी पारित किया जाना है, भारतीय नागरिकों को निगरानी से पूरी तरह मुक्त नहीं करता है।" 

हालाँकि, यह निगरानी फोन टैपिंग या लोकेशन ट्रेसिंग या फोन सुनकर कोई जानकारी जुटाना और उससे कानून के हित मे कोई निष्कर्ष निकालना ही होता था, और इसके लिये सामान्य उपकरण इस्तेमाल किये जाते हैं। इंडिया टुडे में छपे एक लेख के अनुसार, 
" एक भारतीय सुरक्षा सलाहकार, नाम न छापने का अनुरोध करते हुए, कहते हैं कि पेगासस मैलवेयर, जैसा कि एनएसओ बता रहा है, वास्तव में आतंकवाद विरोधी कार्यवाहियो के लिए विकसित किया गया है।  मुंबई 26/11 जैसी घटना के दुबारा, होने वाली स्थिति में, सुरक्षा बलों को यह जानने के लिए कि आतंकवादियों की गतिविधियां क्या हैं यह स्पाइवेयर उनके फोन में पहुंचाया जा सकता है जिससे उनकी क्या योजनाएं हैं, यह पता चल सके या लक्ष्य का फोन डेटा निकाला जा सकता है या उन्हें भ्रमित करने के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है।"  

आखिर पेगासस का सौदा किया ही क्यों गया ? इसका उत्तर यह होगा कि, देश मे होने वाली आतंकी घटनाओं और देशविरोधी गतिविधियों की जानकारी के लिये, इसे खरीदना ज़रूरी था। फिर सरकार ने इसका उपाय अपने ही नागरिकों, संवैधानिक पदों पर बैठे शीर्ष महानुभावों के खिलाफ क्यों किया ? क्या यह एक सार्वभौम और आज़ाद मुल्क को एक गिरोह के हाथ में सौंप देने जैसा मामला नहीं है? क्या पेगासस को इस उद्देश्य से खरीदा गया जिससे विपक्ष और स्वतंत्र पत्रकारिता को डरा कर उसे हतोत्साहित किया जाय ? क्या हम एक ऐसी स्थिति में आ पहुंचे हैं कि, इजरायल हमे कभी भी ब्लैकमेल कर सकता है ? जो भी हो, अभी तो इस स्पाइवेयर की खरीद का रहस्य खुला है, न्यूयॉर्क टाइम्स के खुलासे से, देश की साख, दुनियाभर में गिरी है और हम एक उदार लोकतांत्रिक देश के बजाय दुनियाभर में एक गैरजिम्मेदार और तानाशाही में तब्दील हो रहे, देश के रूप में देखे जा रहे हैं।  

( विजय शंकर सिंह )

Saturday 29 January 2022

कनक तिवारी - विवेकानन्द की दुनिया और हिन्दुत्व - धर्माचरण में जनपक्षधरता

विवेकानन्द ने यथास्थितिवाद का लगातार मुंह नोचा। रूढ़, मजहबी, चिन्तक सांसारिक, दैहिक जीवन का तो भरपूर सरंजाम लूटते रहे हैं। जनभावनाओं का शोषण करने के बावजूद अवाम को सांसारिक सुखों का नकार करने की सलाह देते रहेे हैं। मोटे ताजे मुस्टंडे, लगभग निरक्षर, अर्द्धसभ्य कथित साधु कहलाता जमावड़ा कर्ज लेकर चार्वाक शैली में जनता के गाढ़े परिश्रम की कमाई से घी पीकर प्रवचन करता रहा है। विवेकानन्द ने इस विचार से मोर्चा लिया लेकिन अवाम के लिए भौतिक तथा सांसारिक सभ्यता को खारिज या गर्हित नहीं कहा। उन्होंने कहा आसमानी नस्ल के विचारकों के लिए अंगूर खट्टे रहे होंगे। विवेकानन्द के जाने के लगभग एक सौ उन्नीस वर्ष होने पर आज भी खुद को साधु कहती जमात उनकी भाषा में आत्मप्रताड़ित फतवा जारी करने की हिम्मत दिखा नहीं सकती। 

विवेकानन्द को ईसाइयत की कुरीतियों तथा इस्लाम की हमलावर अवधारणाओं के समानान्तर हिन्दू धर्म की अवैज्ञानिक मान्यताओं से मुखर होकर लड़ना पड़ा। शूद्र कहलाते अकिंचन वर्ग में हौसला पैदा करने का उनमें जज्बा मुखर होता रहता। विवेकानन्द ने शोषित और दलित वर्ग को कुरीतियों से केवल बाहर निकालने के बदले उन्हें शिक्षित करने की प्राथमिकता दी। स्पष्ट कहा राजनीति पिछड़े वर्गों की कभी मदद नहीं कर सकती, जब तक वे शिक्षित, समृद्ध और सांस्कृतिक दृष्टि से सम्पन्न नहीं हों।
 
विवेकानन्द ने कहा था ‘आधुनिक भारत सभी प्राणियों की आध्यात्मिक बराबरी को तो स्वीकार करता है, लेकिन क्रूरता के साथ सामाजिक भेदभाव करता है।‘ उन्होंने यह भी कहा था ‘वह देश जहां करोड़ों व्यक्ति महुआ के पौधे के फूल पर जीवित रहते हैं और जहां दस लाख से ज्यादा साधु हैं और कोई दस करोड़ ब्राह्मण जो गरीबों का खून चूसते हैं। वह देश है या नर्क? वह धर्म है या शैतान का नृत्य?‘ 

कुछ नासमझ या शातिर लोग विवेकानन्द को एकांगी, धार्मिक या आध्यात्मिक प्रचारक कहते थकते नहीं हैं। उन्हें विवेकानन्द के इस कथन को फिर समझने की कोशिश करनी चाहिए-‘हम भौतिक सभ्यता के खिलाफ मूर्खों की तरह बातें करते हैं। भौतिक सभ्यता, नहीं नहीं, ऐशोआराम तक गरीब आदमी के लिए काम पैदा कर सकते हैं।‘ पुरोहितवाद पर चोट करते विवेकानन्द ने इसीलिए कहा था ‘मैं ऐसे ईश्वर में विश्वास नहीं करता जो मुझे यहां तो रोटी नहीं दे सकता लेकिन स्वर्ग में अनंत सुखोें की बौछार कर देगा।‘ 

परंपराओं से प्रेरित कर भी विवेकानन्द नये प्रयोगशील आधुनिक ऋषि हस्ताक्षर हैं। उनके मौलिक तेवर में ब्रह्मचर्य के युवा संन्यासियों की निस्वार्थ देशभक्त टीम तैयार करना था। ऐसी टीम सांस्कृतिक इलाके में रहकर जन आंदोलनों को आदर्शवादिता से सींच सके। विवेकानन्द का साहसिक प्रयोग शुरुआत में लोगों की तसल्ली और समर्थन का सबब नहीं बना। कई गुरु भाई और अन्य समाज विचारक उनके अनूठे सुझाव से सहमत नहीं हुए।              समय ने लेकिन विवेकानन्द का साथ दिया। धीरे धीरे सिद्ध हुआ उनमें अपने समय के परे देखने की भविष्यमूलक समझ का आभास उनके गुरु श्रीरामकृष्णदेव को था। 

एक विश्व की समझ के बावजूद विवेकानन्द प्रतिनिधि भारतीय बने रहे। वे बेहतर भारतीय रूप में भी उन्नत होते रहे। भारत को दुनिया को एक करने रोल माॅडल की भूमिका देने के प्रवक्ता भी रहे। इसके दो बड़े कारण उनके नजरिए में रहे होंगे। पहला यह कि भारत की वैचारिक देन का इतिहास शायद संसार में सबसे पुराना है। दूसरा कि विवेकानन्द का समकालीन भारत आर्थिक हालात में करोड़ों मुफलिसों का देश था। देश न केवल पूंजीवाद का शिकार था बल्कि पूंजी कमाने की उसकी एनाॅटाॅमिकल बनावट ही नहीं थी। 
 
विवेकानन्द ने कहा था सदियों से भारतीयों को केवल पस्तहिम्मती का पाठ पढ़ाया गया है। उनमें यहां तक भर दिया गया कि हिन्दुस्तानी औसत से भी गए बीते हैं। इसलिए सबसे पहले ज़रूरत है उन्हें आत्मविश्वास से लबरेज़ किया जाए। तब ही अंग्रेज़ों से हीनतर होने का भावबोध गायब होगा। हर भारतीय खुद को शक्तिवान समझें। हम कमज़ोर हो गए हैं। इसलिए पाखण्ड, रहस्यवाद, जादू-टोना और सुपरनैचुरल हथकंडे आजमाए जा रहे हैं। विवेकानन्द ने कहा हमें लोहे की मांसपेशियां और फौलाद की नसें चाहिए। बहुत रोनाधोना कर चुके। धोखे का तिलिस्म खत्म होना चाहिए। वह धर्म चाहिए जो मनुष्य को रचे। वह शिक्षा चाहिए जो मनुष्य का बहुआयामी निर्माण करे। धर्म की रहस्य रोमांचकता महत्वपूर्ण भले हो। वह मनुष्य को कमज़ोर ही करती है। उन सबकी छोड़छुट्टी करने का वक्त आ गया है। 

लाॅस एंजिलिस, केलिफोर्निया के भाषण में उन्होंने कटाक्ष किया था। ‘‘भारत में, हमें पूरे देश में ऐसे पुराने सठियाए बूढ़े मिलते हैं, जो सब कुछ साधारण जनता से गुप्त रखना चाहते हैं। इसी कल्पना में वे अपना बड़ा समाधान कर लेते हैं कि वे सारे विश्व में सर्वश्रेष्ठ हैं। वे समझते हैं कि ये भयावह प्रयोग उनको हानि नहीं पहुंचा सकते। केवल साधारण जनता को ही उनसे हानि पहुंचेगी!‘‘ 
(वि0स0, 3/111)

विवेकानन्द सामाजिक लक्षणों, प्रथाओं, कुरीतियों और रूढ़ियों को नेस्तनाबूद भर कर देने के पक्ष में नहीं थे। कहर बनकर उस पुराने विचार संकुल पर भी टूटे थे जिसने हिन्दू धर्म के मूल और अमर मानवीय संदेशों को अपनी गिरफ्त में लेकर उसके चेहरे को विकृत कर दिया था। सदियों से चले आ रहे विकृत विचार समुच्चय की फेसलिफ्टिंग भर हो जाने से विवेकानन्द को संतोष नहीं था। उनसे चिढ़ते पोंगापंथी, ढकोसलाग्रस्त, जाहिल और मनुष्य विरोधी पुरोहित वर्ग और धर्मांध समझ ने उन्हें एक संप्रदायवादी हिन्दू साधु के रूप में प्रचारित कर उनका मनुष्य संदर्भ ही बदल दिया है।

प्रगति और प्रतिक्रिया लगातार लेकिन पारस्परिक भी होती हैं। हर सामाजिक, सियासी मुद्दा या विचार कभी प्रासंगिक, कभी अप्रासंगिक होता चलता है। बंगाल के बूर्जुआ वर्ग के उद्भव तथा विकास का एक कारण विवेकानन्द भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की हुकूमत को भी मानते हैं। वह हुकूमत भारत में सबसे पहले बंगाल में ही स्थापित हुई थी। ब्रिटिश हुकूमत द्वारा किए गए सामाजिक आर्थिक परिवर्तनों की वजह से रूढ़िवादी हिन्दू समाज व्यवस्था के सामने चुनौतियां ही चुनौतियां बिखेरी गईं। 

विरोधाभास यह भी हुआ कि तथाकथित कुछ कुलीन हिन्दुओं ने पश्चिमी शिक्षा, तहजीब और संस्कृति को ही खुद होकर अपनाया। ऐसे लोग पश्चिमी किस्म के नवजागरण के साथ सम्पृक्त होने से खुद को ज्यादा प्रगतिशील और ज्ञानवान समझने लगे। भारत की तत्कालीन यूरोप से तुलना करते ऐसे कुलीन हिन्दू नवोदयी भारतीय समाज की बदहाली देखकर हीन भावना और संकोच में डूबने लगे थे। समाज में धार्मिक अंधविश्वास, कुरीतियां, आडंबर और रूढ़ियां तो पहले से ही थीं। कथित भद्रलोक को ये अब ज्यादा विकृत दीखने लगीं। 

उन दिनों चली आ रही सतीप्रथा का विरोध करने में दकियानूसी परंपराओं की बनावट में आर्थिक कारण भी रहे होंगे। सतीप्रथा की खोज के पीछे विधवा स्त्री को सम्पत्ति से भी महरूम रखने की साजिशें पंडितों और पोंगापंथियों ने रची ही होंगी। ऐसी धार्मिक कुरीतियों का उल्लेख हिन्दू धर्म के किसी प्रामाणिक ग्रन्थ में अलबत्ता दिखाई नहीं देता। अज्ञानी और निरक्षर जनमानस के लिए लेकिन षड़यंत्रकारी पुरोहितों का वर्ग वेदों और पुराणों का नासमझी की संस्कृत उच्चारण का उल्लेख करता जनता को शोषित करता रहा। 

‘भारत का भविष्य‘ नामक अपने प्रसिद्ध भाषण में विवेकानन्द ने स्वीकार किया है कि संसार के कई मुल्कों के मुकाबले भारत में समस्याओं का अम्बार और उनकी अलग तरह की जटिलता जनता की परेशानदिमागी का कारण है। वर्ण, जाति, धर्म, भाषा और सामाजिक जड़ताओं वगैरह ने मिलकर भूगोल के भारत में अलग तरह के समाज का अलग तरह का मुल्क रच दिया है। दुनिया के ज्यादातर मुल्क इस तरह के विरोधाभासी और असंगत सर फोड़ते तत्वों या अवयवों से नहीं बने हैं। भारत में आर्य, द्रविड़, तुर्क, मुगल, मुसलमान, पुर्तगाली और अंगरेज़ आदि कौमों का एक के बाद एक शासन रहा है। इतने हमले संसार के किसी देश पर नहीं हुए होंगे। इसके बावजूद खुद भारतीयों ने अपने लिए दर्जनों भाषाओं, तरह तरह के आचार विचार और प्रथाओं को जाने कैसे खोज जाने कैसे निकाला है। ऐसे अनोखे माहौल में यह केवल धर्म है जिसने पूरे देश को एक सूत्र में बांध रखा। वह एक मजबूत कड़ी है। 

विवेकानन्द ने कहा कि सभी तरह के धर्मों की एकता भारत के भविष्य की सबसे बड़ी जरूरत है। भारत में केवल एक धर्म होना चाहिए का उन्होंने जवाब के बदले आगे उलट सवाल किया ‘एक ही धर्म से मेरा क्या मतलब है? यह उस तरह का एक ही धर्म नहीं, जिसका ईसाइयों, मुसलमानों या बौद्धों में प्रचार है। हम जानते हैं। हमारे अलग अलग सम्प्रदायों के सिद्धान्त तथा दावे चाहे कितने ही जुदा जुदा क्यों न हों। हमारे धर्म में कुछ सिद्धान्त ऐसे हैं जो सभी सम्प्रदायों द्वारा मान्य हैं। इस तरह हमारे सम्प्रदायों के ऐसे कुछ सामान्य आधार अवश्य हैं। उनको स्वीकार करने पर हमारे धर्म में नायाब विविधता के लिए गुंजाइश हो जाती है। साथ ही विचार और अपनी रुचि के अनुसार जीवन निर्वाह के लिए हमें मुकम्मल आजादी मिलती जाती है। हम लोग, कम से कम वे जिन्होंने इस पर विचार किया है यह बात जानते हैं। अपने धर्म के ये जीवनदायी सामान्य तत्व हम सबके सामने लाएं और देश के सभी स्त्री, पुरुष, बच्चे, बूढ़े उन्हें जानें, समझें तथा जीवन में उतारें। यही हमारे लिए जरूरी है। सबसे पहले यही हमारा काम है।‘ 
(वि0स0, 5/180)। 

वर्णाश्रम के समर्थक ढकोसला ढोते आदर्शवादी कहलाते विद्वान उन्नीसवीं सदी की ब्रिटिश सामाजिक राजनीतिक अवधारणाओं से उपजी नई वर्गीय चेतना को भी राष्ट्रवाद का घटक करार दे देते हैं। ऐसे लोग भगवा प्रयोजनों के लिए विवेकानन्द को कठमुल्ला साधु बनाये अपने कांधों पर लादे रहते हैं। मकसद है राजनीतिक दूकान सजी रहे और विवेकानन्द के असली संदेश जनता के भले के लिए उसके पल्ले नहीं पड़ें। विवेकानन्द ने खुद मुख्तार बने कुलीन और भद्र समाज द्वारा जनता के शोषण को बुरी लताड़ लगाई थी। उन्होंने ऐसी प्रवृत्ति को क्रूर और राक्षसी तक कहा था। 

विवेकानन्द ने कहा था देशभक्त बनने की पहली शर्त करोड़ों लोगों के दुखों को समझना है। भवानीप्रसाद मिश्र की कविता में भी है ‘जिनका दुख गाना है, उनका दुख जानो तो।‘ उन्होंने जोर देकर कहा किसी के लिए कोई प्राथमिकता या बड़प्पन नहीं होना चाहिए। सबको बराबर मौका दिया जाना जरूरी होगा। नौजवानों को सामाजिक उत्थान और बराबरी के आदर्शों का खुद होकर प्रचार करना होगा। देशभक्ति का यह भी धर्मगांठ लगा वर्ग चरित्र था। उसे वर्षों पहले विवेकानन्द ने ही पहचान लिया था। आजादी का आंदोलन तक वर्गचरित्र के विरोधाभासों से भरा हुआ रहा है। ऐसा भी विवेकानन्द का पूर्व संकेत दिखाई पड़ता है। 

स्वाधीनता आंदोलन का मुख्य मकसद धीरे धीरे बूर्जुआ वर्ग के पक्ष में सत्ता हासिल करने तक सिमट गया था। विवेकानन्द ही ऐसे खतरे की ओर वर्षों पहले आगाह करते हैं। उन्होंने कहा था कि बहुजन पिछड़ा समाज अपनी आदिम प्रवृत्तियों का मौजूदा संस्करण नहीं समझा जाकर बराबर का हकदार बनाया जाये। तब तक आजादी के आंदोलन का सच्चा मुकाम देश को बदलने के लिए में नहीं पाया जा सकता। केवल राजनीतिक आजादी की लुकाठी लिए चलने वाली जनयात्राएं आर्थिक धार्मिक और सामाजिक तब्दीलियों के कंटूर तय किये बिना आखिरकार ऐसे ही मुकाम पर पहुंचती हैं जिसकी ताईद विवेकानन्द ने नहीं की थी।

कनक तिवारी
© Kanak Tiwari


नेताजी सुभाष का साम्प्रदायिक ताकतों से टकराव / विजय शंकर सिंह

सुभाष चन्द्र बोस भारतीय स्वाधीनता संग्राम के अप्रतिम योद्धा थे। योद्धा शब्द सच मे केवल उन्हीं के लिये कहा जा सकता है। अंग्रेज़ी हुक़ूमत के खिलाफ 1857 का विप्लव एक विद्रोह था जो चर्बी मिले कारतूस के मुद्दे पर अचानक भड़क उठा था। तब अंग्रेज़ उतने मज़बूत नहीं थे संख्या भी कम थी। 1885 ई में कांग्रेस के गठन के बाद और फिर महात्मा गांधी के राजनीतिक परिदृश्य पर आने के बाद आज़ादी के लिये जो संघर्ष चला उसमें मुख्यतः चार आयाम थे। महात्मा गांधी के नेतृत्व में उनके सिद्धांतों पर चलने वाला आंदोलन मुख्य धारा का संघर्ष था। भगत सिंह और साथियों द्वारा किया जा रहा संघर्ष सशस्त्र और क्रांतिकारी संघर्ष था। रासबिहारी बोस, एमएन रॉय, श्यामजी कृष्ण वर्मा, राजा महेन्द प्रताप, सावरकर आदि द्वारा किया जा रहा आंदोलन देश के बाहर था जो विश्व जनमत भी अंग्रेजी राज के खिलाफ बना रहा था। हालांकि सावरकर ने काले पानी की सज़ा के दौरान माफी मांग कर खुद को स्वतंत्रता संग्राम से अलग कर लिया और वे अंग्रेजों के हमदर्द बन गए। पर सुभाष बोस ने जो किया वह सबसे अलग और अनोखा था। 1938 में अध्यक्ष चुने जाने के बाद भी, गांधी जी द्वारा ऐतराज जताने पर कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के बाद उन्होंने एक अलग वामपंथी सोच का दल,  फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया। फिर वे अंग्रेजी पुलिस को चकमा देकर, कलकत्ता में अपने ही घर मे अपनी नज़रबंदी के दौरान फरार हो, काबुल के रास्ते से होते हुये रूस निकल गए। द्वितीय विश्व युद्ध के समय वे जर्मनी जा कर हिटलर से मिले। हिटलर की मदद से वे पूर्वी मोर्चे पर सिंगापुर पहुंचे जो अंग्रेज़ो के कब्जे से जापान, जो, धुरी राष्ट्रों का एक अंग था ने छुड़ा लिया था। फिर वहीं मोहन सिंह द्वारा गठित आज़ाद हिंद फौज का पुनर्गठन किया और ब्रिटिश भारत पर हमला कर दिया। इम्फाल तक वे पहुंच गए थे। इस आधार पर हम सुभाष को आज़ादी का एक सच्चा योद्धा कह सकते हैं और वे हैं भी।

सुभाष को अक्सर गांधी विरोधी नायक के तौर पर प्रचारित किया जाता है। ऐसे लोगों का उद्देश्य, यहां सुभाष का महिमामंडन कम और गांधी को उनकी तुलना में कमतर दिखाना होता है।   यह सत्य है कि गांधी जी के ही कारण सुभाष को कांग्रेस छोड़ना पड़ा और नियति ने उन्हें एक अलग भूमिका निभाने पर बाध्य कर दिया। जैसे सामान्य लोग इन महान नेताओं के वैचारिक मतभेदों को निजी समझ बैठते हैं जब कि ऐसा नहीं था। यह एक लंबा लेख है जो सुभाष बोस और साम्प्रदायिक राजनीति पर आधारित है। सुभाष 1940 से लापता होने तक देश के सबसे चर्चित नायक थे। आज भी उनके प्रति लोगों का एक रूमानी लगाव है। दुर्भाग्य से भारत के इतिहास का 1940 से 47 तक का कालखंड स्वाधीनता संग्राम का सबसे मनहूस समय था जब देश साम्प्रदायिक आधार पर बंटा और दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक विस्थापन और साम्प्रदायिक दंगे हुए। सुभाष बंगाल के थे। बंगाल में उस समय मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा दोनों ही साम्प्रदायिक दलों का प्रभाव था। भारत से पलायन करने के पहले देश और बंगाल की राजनीति में सुभाष बाबू की साम्प्रदायिक शक्तियों के बारे में क्या दृष्टिकोण था वह इस लेख और इसमें दिये गए उद्धरणों से स्पष्ट होता है।

12 मई 1940 को बंगाल के झाड़ग्राम नामक एक स्थान पर बंगाल में हिन्दू महासभा के प्रचार के तरीके पर टिप्पणी करते हुये, नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने निम्न पंक्तियां कहीं थीं।

" हिन्दू महासभा ने वोट लेने के लिये सन्यासियों और सन्यासिनियों का एक दल बना रखा है जो हांथो में त्रिशूल ले कर गांव गांव घूम रहा है। सन्यासी समूह को देख कर हिन्दू श्रद्धा के साथ अपने सिर झुका देते हैं, और हिन्दू महासभा के लोग उनकी धार्मिक श्रद्धा का राजनीतिक लाभ उठाने लगते हैं। इस प्रकार धर्म के आधार पर श्रद्धा का दोहन करके राजनीति में हिन्दू महासभा का प्रवेश हो रहा है। सभी हिंदुओं का कर्तव्य है कि वे इसकी निंदा करें और देशद्रोहियों को राष्ट्रीय जीवन से बहिष्कृत करें । "

‪"The Hindu Mahasabha has deployed sannyasis and sannyasins with tridents in their hands to beg for votes. At the very sight of tridents and saffron robes, Hindus bow their head in reverence.By taking advantage of religion and desecrating it, the Hindu Mahasabha has entered the arena of politics. It is the duty of all Hindus to condemn it. Banish these traitors from national life."‬

‪Netaji Subhas Chandra Bose, at a public meeting on 12th May 1940 at Jhargram in West Bengal.
( The Lost Hero  A biography of Subhash bose by Mihir bose )

1940 में कांग्रेस की अंतरिम सरकारों ने त्यागपत्र दे दिया था। यह त्यागपत्र उन्होंने बिना इन सरकारों से बिना पूछे ही भारत को द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटेन द्वारा शामिल कर लेने के कारण यह कदम उठाया था। लेकिन जब कांग्रेस के हट जाने के कारण शून्य बना तो मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा ने अंग्रेज़ो का साथ दे दिया। दोनों ही धर्म आधारित दलों ने एक साथ मिल कर कुछ प्रांतों में मिली जुली तो कुछ में मुस्लिम लीग ने केवल अपने दम पर सरकारें बनायी। यह धर्म आधारित राजनीति का एक ज़हरीला खेल था। दोनों ही अपने अपने धर्मो को एक एक अलग अलग राष्ट्र मान चुके थे। धर्म ही राष्ट्र है का बेतुका राष्ट्रवाद उतपन्न हो चुका था।  पाकिस्तान का विचार जो अल्लामा इक़बाल और चौधरी रहमत अली के मन से होता हुआ जिन्ना साहब के तेज और उर्वर मस्तिष्क में आ चुका था, अब मूर्त रूप ले चुका था। कांग्रेस अलग थलग पड़ गयी थी।  सरकार के सामने वह भले ही अलग थलग पड़ गयी हो फिर भी भारतीय जन मानस पर उसका व्यापक प्रभाव तब भी था। दोनों ही धर्म आधारित दल अपने अपने मकसद की प्राप्ति के लिये अंग्रेजों की गोद मे जा बैठे थे। बिटिश सरकार विशेषकर इंग्लैंड के तत्कालीन प्रधानमंत्री सर विंस्टन चर्चिल की महात्मा गांधी से चिढ़ जग जाहिर थी। चर्चिल गांधी को एक अराजकता फैलाना वाला नेता समझता था। 2008 में प्रकाशित आर्थर हरमन की पुस्तक Charchil and Gandhi - The Epic Rivalry that destroyed an Empire में चर्चिल और गांधी के बीच जो प्रतिद्वंदिता थी को बहुत ही अच्छे तरह से उकेरा गया है। चर्चिल अक्सर गांधी को नंगा फकीर कहता था। वायसरीगल हाउस जो आज का राष्ट्रपति भवन है कि सीढ़ियों पर चढ़ते हुये अधनंगे गांधी जी की फ़ोटो और लार्ड तथा लेडी माउंटबेटन के कंधों पर हांथ रख कर चहलकदमी करती हुई गांधी की मुद्रा उसे कोफ्त से भर देती थी। यह एक व्यक्तिगत ईर्ष्या थी, चिढ़ थी, प्रतिद्वन्द्विता थी, या शासक होने का स्वाभाविक दर्प यह बता पाना कठिन है।

कांग्रेस के राष्ट्रीय परिदृश्य से अलग हो जाने और ब्रिटेन द्वारा उसे और दरकिनार कर देने के कारण धर्मों को ही राष्ट्र मानने वाले दोनों धर्मांध दल, मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा एक साथ अंग्रेज़ो के साथ आ गए। अंग्रेज़ द्वीतीय विश्वयुद्ध में फंसे थे। 1939 से 42 तक जब तक रूस इस युद्ध मे मित्र देशों के साथ नहीं आ गया था तब तक जर्मनी और हिटलर ने यूरोप में तबाही मचा दी थी। लंदन पर भारी बमबारी हो रही थी। सम्राट को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया गया था। ऐसे कठिन समय मे अंग्रेज़ो के साथ मिल कर जिन्ना और सावरकर ने न केवल अंग्रेज़ों की सदाशयता प्राप्त की बल्कि उन्होंने अंग्रेज़ों पर अपना एहसान भी लाग दिया। इसी एहसान के कारण मुस्लिम लीग और पाकिस्तान की मांग की तरफ अंग्रेज़ों का झुकाव हुआ। इसी झुकाव ने सावरकर को भी अपना लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र पाने के लिये लालायित कर दिया। पर जितनी पकड़ जिन्ना की मुस्लिम समाज मे थी उतनी पकड़ सावरकर की हिन्दू समाज पर नहीं हो सकी थी। इसका कारण दोनों धर्मो की मूल प्रकृति है।  यहीं पर सावरकर हिन्दू मानसिकता, सनातन धर्म की मूल प्रवित्ति, धर्म और राज्य में सदियों से चले आ रहे अंतर को समझने की भूल कर गए। वे तब तक तो अंग्रेज़ों के हमसफ़र बने रहे जब तक गांधी, और अन्य कांग्रेसी नेता विश्व युद्ध के समाप्ति के थोड़ा पहले जेल से छूट कर बाहर नहीं आ गए। जैसे ही युद्ध की विभीषिका कम हुयी, कांग्रेस के बड़े नेता जेल से छोड़े जाने लगे, गांधी फिर समस्त भारत के स्वर बन गए। अंग्रेज़ों ने सावरकर की बजाय गांधी और कांग्रेस तथा जिन्ना और मुस्लिम लीग से बात करनी शुरू कर दी। सावरकर ने यह मंसूबा पाल रखा था कि जब अंग्रेज़ मुस्लिम हितों पर जिन्ना और मुस्लिम लीग से एक पक्ष के रूप में बात करेंगे तो वे बहुसंख्यक यानी हिन्दू हित पर हिन्दू महासभा और सावरकर से बात करेंगे। वे यह भी चाहते थे कि जिन्ना मुस्लिमों के लिये पाकिस्तान की बात करते समय काँग्रेस से न बात कर सावरकर से बात करें। सावरकर खुद को हिंदुओं का स्वयंभू प्रतिनिधि मानते थे। जब कि ऐसा था नहीं। सावरकर का हिंदुओं में कितना प्रभाव है यह न अंग्रेज़ों से छुपा था और न ही जिन्ना से।  अंग्रेज़ भी यह जानते हुए कि भारत की राजनीति और स्वाधीनता समर में गांधी और कांग्रेस का कोई विकल्प नहीं है जिनसे वे संवाद कर सकें, सावरकर तो एक तदर्थ साथी थे, ( आर्थर हरमैन इसी किताब में अंग्रेज़ सावरकर मित्रता को स्टॉप गैप अरेंजमेंट कहते हैं, ) से क्यों बात करते ? लेकिन जिन्ना अपने समुदाय के सबसे बड़े नेता बने रहे।

इस उद्धरण में सुभाष बाबू ने धर्म के राजनीति में आगमन को अनुचित ठहराया है। उन्होंने इसी धर्मान्धता भरी राजनीतिक सोच की निंदा की है। यह उद्धरण बंगाल के संदर्भ में है जहां पर मुस्लिम लीग का प्रभाव मुसलमानों में अधिक था। हिन्दू महासभा के बड़े नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी खुद भी बंगाल के एक प्रभावी नेता थे। वे एक शिक्षाविद भी थे। वे बंगाल की एक और बड़ी प्रतिभा सर आशुतोष मुखर्जी के पुत्र थे। पर अपनी मेधा, प्रतिष्ठा और पारवारिक पृष्ठभूमि के कारण भी वे कांग्रेस के लिए कोई ख़तरा नहीं बन सके। हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग दोनों ने ही एक दूसरे की कट्टरता का उपयोग अपने अपने दल को खूब किया। सुभाष बाबू एक क्रांतिकारी व्यक्तित्व और विशाल हृदय व्यक्ति थे। आज़ादी की लड़ाई में उनका योगदान अनोखा था। जिस साम्राज्य से दुनिया की कोई ताक़त लड़ने की सोच नहीं सकती थी, उसी साम्राज्य के खिलाफ उन्होंने गैर पेशेवरों और अपने, धुरी राष्ट्रों द्वारा द्वितीय विश्वयुद्ध में बंदी बनाये गए सैनिकों को इकट्ठा कर एक पेशेवर फौज बनायी जो पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष थी। यह फौज थी आज़ाद हिंद फौज। हालांकि यह फौज पहले ही बन चुकी थी पर जब नेता जी ने कमान संभाला तो इसकी तस्वीर बदल गयी। गांधी, नेहरू, आज़ाद इसकी तीन ब्रिगेड बनीं। जय हिंद इसका अभिवादन और दिल्ली चलो इसका बोध वाक्य बना। संघ के लोग सुभाष का यह रूप जान बूझ कर नहीं देखना चाहते हैं। यह रूप उन्हें असहज करता है।

( विजय शंकर सिंह )

यह चार लेखों की शृंखला है। यह दूसरा लेख है। अभी दो लेख और हैं। पहला लेख, इस लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं। 
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नेताजी सुभाष और सन बयालीस में सावरकर और डॉ मुखर्जी की भूमिका / विजय शंकर सिंह

पिछले साल कोलकाता में नेताजी की 125 वी जयंती मनाई जो रही थी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस समारोह के मुख्य अतिथि थे। बंगाल  ने यूँ तो देश को अनेक रत्न दिए हैं, पर नेताजी सुभाष बोस और रवींद्रनाथ टैगोर का स्थान उनमे विशिष्ट है। टैगोर ने जहां बांग्ला साहित्य, संस्कृति और ललित कलाओं पर अपनी अमिट छाप छोड़ी वही सुभाष बाबू ने बांग्ला क्रांतिकारिता और अदम्य जुझारूपन को अपनी पहचान दी। उस समारोह के बाद जब प्रधानमंत्री, नेताजी भवन जा रहे थे तो, उनके साथ अन्य भाजपा नेताओं को, नेता जी के घर वालों ने अंदर नहीं जाने दिया। इसका कारण स्थानीय भाजपा विरोधी तृणमूल कांग्रेस की राजनीति भी हो सकती है पर एक बड़ा कारण,  नेताजी सुभाष और भाजपा के पूर्व अवतार भारतीय जनसंघ के संस्थापक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी में जबरदस्त वैचारिक मतभेद का होना था। डॉ मुखर्जी, हिन्दू महासभा के नेता और अध्यक्ष, वीडी सावरकर के साथ थे और नेताजी देश मे पनप रहे साम्प्रदायिक खतरे को भांप चुके थे। नेताजी ही पहले कांग्रेस अध्यक्ष थे जिन्होंने कांग्रेस के सदस्यों को हिन्दू महासभा या मुस्लिम लीग के सदस्य होने पर भी अधिकृत रूप से रोक लगा दी थी। वे सांप्रदायिकता के इस परिणाम को संभवतः समझ चुके थे, लेकिन यह देश का दुर्भाग्य था कि आजादी और विभाजन के समय जब देश मे साम्प्रदायिक दंगे फैल चुके थे तो नेताजी देश मे नहीं थे। वे कहां थे, थे भी या नहीं रहे, यह सब अब भी एक रहस्य है। 

अब सवाल उठता है कि, नेताजी सुभाष बोस और डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बीच कैसे रिश्ते थे ? इस रिश्ते को जानने के लिये हमें नेताजी के भाषणों, लेखों और उनसे जुड़े दस्तावेजों का अवलोकन  करना होगा। नेताजी ने हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग दोनो संगठनो को सांप्रदायिक संगठन कहा है। और यह बात वे बराबर जोर देकर कहते रहे हैं। हालांकि उनके लेखों और भाषणों में आरएसएस यानी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उल्लेख बहुत कम है। संघ तब भी पर्दे के पीछे ही था और सामने थी हिन्दू महासभा जिसके अध्यक्ष वीडी सावरकर थे जो 1937 में अध्यक्ष चुने गए थे। 1937 में ही धर्म और राष्ट्र के घालमेल पर हिन्दू राष्ट्र की थियरी विकसित की गयी और उसी के बाद सावरकर और एमए जिन्ना ने अपने अपने धर्म के आधार पर देश की बात करना शुरू कर दी। नेताजी इस खतरे को 1938 में ही भांप गए थे, तभी उन्होंने यह कहा था कि साम्प्रदायिक संगठनों से जुड़े लोग कांग्रेस के सदस्य नहीं रह पाएंगे। लेकिन हिन्दू महासभा और आरएसएस एक ही विचारधारा के संगठन थे। महासभा मंच पर थी और संघ, विंग्स से प्रॉम्प्टिंग करता था। 

प्रभु बापू ने तत्कालीन राजनीति में हिन्दू महासभा की भूमिका पर एक शोध ग्रँथ लिखा है। यह किताब है, हिन्दू महासभा इन कोलोनियल नार्थ इंडिया। इस पुस्तक के पृष्ठ 40 पर यह अंकित है कि, 
" सुभाष बोस के कांग्रेस अध्यक्ष के कार्यकाल में 16 दिसम्बर 1938 को कांग्रेस के किसी सदस्य को हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग की सदस्यता लेने पर रोक लगा दी गयी थी। उसके पहले ऐसी रोक नहीं लगायी गयी थी। 

जब नेताजी ने, पट्टाभिसीतारमैया को हराने के बाद गांधी जी की इस टिप्पणी कि, पट्टाभिसीतारमैया की हार मेरी हार है, पर कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया तो उन्होंने 1940 में अग्रगामी दल फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया। यह दल अब भी है और बंगाल में वाममोर्चा का एक अंग है। 30 मार्च 1940 में फॉरवर्ड ब्लॉक के मुखपत्र में अपने एक संपादकीय में नेताजी सुभाष लिखते हैं, 
उन्होंने, कलकत्ता कॉर्पोरेशन के चुनाव में  कांग्रेस और हिन्दू महासभा को एक साथ लाने की एक कोशिश की थी। लेकिन हिन्दू महासभा अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के बजाय कांग्रेस से लड़ रही थी। उस समय बंगाल में हिन्दू महासभा के सबसे बड़े नेता डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे। उसी संपादकीय का यह उद्धरण पढिये, 
" कुछ हिन्दू महासभा के नेताओ, जिनका हम सम्मान करते है, के निर्देश पर उनके कार्यकर्ताओं द्वारा जो रणनीति, कलकत्ता कॉर्पोरेशन के चुनाव के समय  अपनाई गयी थी उससे हमे बहुत ही दुःख और तकलीफ पहुंची है। हिन्दू महासभा ने साफ सुथरा चुनाव नही लड़ा बल्कि उन्होंने कांग्रेस के खिलाफ जा कर अंग्रेजों का साथ दिया। यहाँ तक कि वे ब्रिटिश कॉर्पोरेटर के साथ मिल कर यूनाइटेड पार्टी का गठन भी किया, जिंसमे अंग्रेज काउंसिलर शामिल थे। कुछ अंग्रेजों को पुनः जितवाने में हिन्दू महासभा के लोगों का हांथ था। इससे यह अंदाज़ लगाया जा सकता है कि, भविष्य में हिन्दू महासभा क्या करने वाली है। हिन्दू महासभा की यह प्रबल इच्छा थी कि, कॉर्पोरेशन के चुनाव में कांग्रेस हार जाय और अंग्रेज जीत जांय। वह ब्रिटिश विरोध के बजाय कांग्रेस से लड़ने में ज्यादा दिलचस्पी रखती थी। ( नेताजी कलेक्टेड वर्क्स, वॉल्यूम 10, पृष्ठ 88 - 89 )

जब दोहरी सदस्यता का प्रतिबंध नेताजी सुभाष बाबू द्वारा 1938 में लगाया गया था, तब हिन्दू महासभा के अध्यक्ष वीडी सावरकर थे। सावरकर 1937 से 1943 तक हिन्दू महासभा के अध्यक्ष रहे। हिन्दू महासभा द्वारा अंग्रेजों के पक्ष में खड़े होने और कांग्रेस का प्रबल विरोध करने पर सुभाष बाबू द्वारा की गयी महासभा की आलोचना एक प्रकार से सावरकर की ही आलोचना थी। अंडमान बाद के सावरकर बिल्कुल ही एक नए सावरकर थे और वे अंग्रेजी राज के एक पेंशन भोगी व्यक्ति बन चुके थे। फॉरवर्ड ब्लॉक के साप्ताहिक पत्र में 4 मई 1940 को लिखे अपने एक सम्पादकीय लेख में सुभाष बाबू हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग को खुल कर कहते हैं कि 'दोनों ही दल सांप्रदायिक दल हैं' और यह भी कहते हैं कि 'समय के साथ साथ दोनो ही दल कट्टरपंथी होते जा रहे हैं।'

1938 के बहुत पहले से कांग्रेस से जुड़े नेता मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा के सदस्य हुआ करते थे। इस प्रकार की दोहरी सदस्यता पर कोई भी न तो प्रतिबंध था और न ही ऐसा कोई प्रतिबंध लगाने बारे में सोचा भी गया था। हिन्दू महासभा से जुड़े लाला लाजपत राय और मदन मोहन मालवीय तो कांग्रेस के अग्रणी नेता थे। लाला लाजपत राय, तो लाल बाल पाल, जो लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चंद्र पाल की प्रसिद्ध त्रिमूर्ति थी, के एक अंग थे, और मदन मोहन मालवीय जी तो चार बार कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। इसी प्रकार प्रसिद्ध अली बंधु, कांग्रेस के साथ साथ, मुस्लिम लीग के भी सदस्य थे। पर जब 1937 में पहली बार सावरकर की हिन्दू राष्ट्र की थियरी सामने आयी और उधर चौधरी रहमत अली तथा अल्लामा इक़बाल का धर्म आधारित राज्य का दर्शन सामने आया तो, इस खतरे को सबसे पहले सुभाष बाबू ने ही भांपा और उन्होंने इस प्रकार कांग्रेस के सदस्यों द्वारा सांप्रदायिक दलों के साथ किसी भी प्रकार की सांठगांठ करने और सदस्यता लेने से वंचित कर दिया। लेकिन, 1938 तक देश के माहौल में धर्मान्धता का ज़हर फैलने लगा था। तब जाकर कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में सुभाष बाबू को यह प्रतिबंध लगाना पड़ा। यह पूरा विवरण, नेताजी - कलेक्टेड वर्क्स वॉल्यूम 10, पृष्ठ 98 पर है। 

आज़ाद हिंद रेडियो द्वारा 31 अगस्त 1942 को नेताजी द्वारा दिया गया भाषण, इस बात का प्रतीक है कि वह भारत छोड़ो आंदोलन के समय देश की मुख्य धारा से दूर होने के बावजूद कितनी गहराई से स्वाधीनता संग्राम के गतिविधियों की खबर रखते थे। उन्होंने इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिये कांग्रेस के लोगों को कुछ उपाय बताए। इस आंदोलन के समय कांग्रेस के प्रथन पंक्ति के सभी नेता जेलों में बंद थे। बस हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग के नेता जो अपने अपने धर्म पर आधारित राष्ट्र के लिये चिंतित थे, बाहर थे औऱ वे अंग्रेजों के साथ थे। अपने ब्रॉडकास्ट में नेताजी ने सावरकर और जिन्ना दोनो की, उनके इस स्टैंड के लिये तीखी आलोचना की थी। 
एक उद्धरण पढिये, 
" मैं श्री जिन्ना और श्री सावरकर सहित उन सब लोगों से जो आज ब्रिटिश साम्राज्य के साथ हैं से अनुरोध करूँगा कि, कल ब्रिटिश साम्राज्य का अस्तित्व नहीं रहेगा। आज वे सारे लोग, सारे दल जो आज स्वाधीनता संग्राम में संघर्षरत हैं, उन्हें कल के भारत ( स्वाधीन भारत ) मे एक सम्मानजनक स्थान मिलेगा। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के जो सनर्थक होंगे स्वतंत्र भारत मे उनका कोई स्वाभाविक अस्तित्व नहीं रहेगा। 
( संदर्भ - सेलेक्टेड स्पीचेस, सुभाष चंद्र बोस, पृष्ठ 116 - 117 और पब्लिकेशन डिवीजन, नेताजी कलेक्टेड वर्क्स वॉल्यूम 11, पृष्ठ - 144 )

देश के सबसे व्यापक जन आंदोलन जो स्वाधीनता संग्राम का एक अमिट भाग है के समय सावरकर ने अपने दल हिन्दू महासभा के कैडर को जो निर्देश जारी किया था, को भी पढ़े। सावरकर को यह आशंका थी कि जन आंदोलन की यह व्यापक आंधी उनके दल के लोगो को भी प्रभावित कर सकती है तो, इसे रोकने के लिये उन्होंने एक निर्देश जारी किया जिसका शीर्षक था, स्टिक टू योर पोस्ट ( जहां हो वही डटे रहो ) और इस लेख में, हिन्दू महासभा के सभी पदाधिकारियों को भारत छोड़ो आन्दोलन से दूर रहने का निर्देश दिया गया था। विडंबना है कि जब पूरा देश ब्रिटिश साम्राज्य के विरोध में खड़ा था तब, बंगाल में हिन्दू महासभा के बड़े नेता डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी, अंग्रेजी हक़ूमत के अफसरों को यह सुझाव दे रहे थे कि कैसे इस आंदोलन का दमन किया जा सकता है। वे दमन के तरीके सुझा रहे थे, और कांग्रेस के नेताओ की मुखबिरी कर रहे थे। यह सब दस्तावेजों में हैं। नेताजी को यूरोप में जब वे जर्मनी में थे तो कलकत्ता की यह सारी खबरें मिला करती थी। नेताजी अपने मिशन में लगे थे, पर वे भारत मे हो रहे 1942 के आंदोलन की हर गतिविधियों की खबर रखते थे। 

सावरकर, डॉ हेडगेवार, गुरु गोलवलकर, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस, यह सब समकालीन थे। लगभग एक ही उम्र के रहे होंगे। थोड़ा बहुत अंतर हो सकता है। पर इन नेताओं ने सुभाष के बारे में अपने समय मे क्या लिखा पढ़ा और कहा है यह ढूंढने और जानने की ज़रूरत है। स्वाधीनता संग्राम के समय, चाहे भगत सिंह और उनके साथी आज़ाद आदि हों, या गांधी के नेतृत्व में मुख्य धारा का आंदोलन, या फिर सुभाष के नेतृत्व में, औपनिवेशिक गुलाम भारत पर हमला कर के उसे आज़ाद कराने की एक अत्यंत दुर्दम्य और महत्वाकांक्षी अभिलाषा, इन सबका उद्देश्य एक था, भारत की ब्रिटिश दासता से मुक्ति। सबके तरीके अलग अलग थे, उनकी विचारधाराएं अलग अलग थीं, राजनीतिक दर्शन अलग अलग थे, पर यह तीनों ही धाराएं एक ही सागर की ओर पूरी त्वरा से प्रवाहित हो रही थी, वह सागर था, आज़ाद भारत का लक्ष्य। 

पर उस दौरान, जब कम्युनिस्ट भगत सिंह और उनके साथी, गांधी और उनके अनुयायी और सुभाष और उनके योद्धा, भारत माता को कारा से मुक्ति दिलाने के लिये, अपने अपने दृष्टिकोण से संघर्षरत थे, तब वीडी सावरकर, डॉ हेडगेवार, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी, क्या कर रहे थे ? इस सवाल का उत्तर, इन महानुभावों के उन समर्थकों को भी जानना चाहिए।इतिहास के किसी पन्ने में भारत की आज़ादी के लिये किये गए किसी संघर्ष की कोई कथा, संघ और हिन्दू महासभा के नेताओं के बारे में दर्ज नहीं है। बस सावरकर एक अपवाद हैं। वे अपने शुरुआती दौर में ज़रूर स्वाधीनता संग्राम के एक प्रखर सेनानी रहे हैं, पर अंडमान पूर्व और अंडमान बाद के सावरकर में जो अंतर है वह स्पष्ट है। 

भगत सिंह, गांधी और सुभाष में वैचारिक मतभेद था। यह मतभेद उनके राजनीतिक सोच और दर्शन का था। भगत सिंह कम्युनिस्ट और मार्क्स तथा लेनिन से प्रभावित थे। वे न केवल ब्रिटिश साम्राज्य से आज़ादी चाहते थे, बल्कि वह साम्राज्यवादी, पूंजीवादी शोषण से मुक्ति चाहते थे। गांधी, यह तो चाहते थे कि भारत आज़ाद हो, पर वह यह लक्ष्य अहिंसा और मानवीय मूल्यों को बरकरार रखते हुए प्राप्त करना चाहते थे। वे ब्रिटिश हुक़ूमत के खिलाफ थे पर ब्रिटिश लोकतंत्र के मूल्यों को सम्मान देते थे। नेताजी एक योद्धा थे। उनके लिये यह संघर्ष एक युद्ध था। वे आक्रामक थे और जब भी, जहां भी उन्हें अवसर मिला, उन्होंने ब्रिटिश के खिलाफ मोर्चा खोला और अपने इस पावन लक्ष्य की प्राप्ति के लिये हिटलर से भी मदद लेने में उन्होंने कोई संकोच नहीं किया। 

पर संघ और हिन्दू महासभा के लोग, एमए जिन्ना औऱ उनकी मुस्लिम लीग के साथ थे। जब देश एक होकर आज़ादी के लिये संघर्षरत था, जिन्ना औऱ सावरकर विभाजनकारी एजेंडे पर काम कर रहे थे। उनका लक्ष्य देश नहीं उनका अपना अपना धर्म था। वे अपने अपने धर्म को ही, देश समझने की अफीम की पिनक में थे। कमाल यह है कि दोनो ही आधुनिक वैज्ञानिक सोच से प्रभावित और नास्तिक थे। आज भले ही संघ के मानसपुत्र नेताजी सुभाष बोस की जयंती मनाये, पर सच तो यह है कि सुभाष के प्रति न तो श्यामा प्रसाद मुखर्जी का कोई लगाव था न सावरकर का। मुझे कोई ऐसा दस्तावेज नही मिला जिंसमे इन दोनों महानुभावों ने नेताजी के संघर्ष और उनकी विचारधारा के बारे में कुछ सार्थक लिखा हो। 

नेताजी सुभाष की जयंती मनाने का हर व्यक्ति को अधिकार है और हमे उन्हें याद करना भी चाहिए। पर यह सच भी आज की नयी पीढ़ी को जानना चाहिए कि जब आज़ादी के लिये नेताजी सिंगापुर में आज़ाद हिंद फौज का नेतृत्व ग्रहण कर के अपने मिशन में लगे थे तब डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी और सावरकर के लोग, एमए जिन्ना के साथ मिलकर भारत छोड़ो आंदोलन 1942 के खिलाफ थे। डॉ मुखर्जी मुस्लिम लीग के साथ मंत्री थे औऱ अंग्रेजों की मुखबिरी कर रहे थे। सावरकर द्वितीय विश्व युद्ध के लिये ब्रिटेन की तरफ से सैनिक भर्ती कर रहे थे । संघ या संघ के लोग आज चाहे जितनी बार भारत माता की जय बोले, खुद को बात बात पर देशभक्त घोषित करे, पर वे स्वाधीनता संग्राम में अपनी अंग्रेजपरस्त भूमिका के कलंक से कभी मुक्त नहीं हो सकते हैं। यह आज की पीढ़ी को जानना चाहिए। 

( विजय शंकर सिंह )

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (2)

भारत की राष्ट्रभाषा क्या हो? हिंदी की लिपि जानने वाले और मिलती-जुलती भाषा बोलने वालों के लिए सहज भाषा हिंदी थी। मगर, जिस तरह से हिंदी में अवधी, उर्दू, भोजपुरी, मैथिली, पंजाबी, से शब्द आए, क्या उतने ही शब्द दक्षिण भारतीय भाषाओं से आए? क्या पर्यायवाची शब्दों में उन भाषाओं को सम्मिलित किया गया? अगर बीस-तीस प्रतिशत शब्द भी किए जाते, तो क्या स्वीकार्यता अधिक होती? खैर, शुरुआत तो धौंस से हुई।

10 दिसंबर, 1946 को जब संविधान सभा बैठी, तो पंडित रघुनाथ धुलेकर ने हिंदी में बोलना शुरू किया। राजेंद्र प्रसाद ने कहा, “आप कृपया अंग्रेज़ी में अपनी बात रखें, ताकि हमारे ग़ैर हिंदी-भाषी मित्र भी समझ सकें”

धुलेकर ने कहा, “जिन्हें हिंदुस्तानी नहीं आती, उन्हें भारत में रहने का कोई अधिकार नहीं। आज आप यहाँ भारत का संविधान रचने बैठे हैं, और आपको हिंदुस्तानी नहीं आती, तो आपको यह सभा छोड़ देनी चाहिए”

1951 के सेंसस के अनुसार मात्र 45 % भारतीयों ने अपनी  भाषा हिंदी, उर्दू या पंजाबी दर्ज़ की। अगर इनमें पच्चीस प्रतिशत थोड़ी-बहुत बोलने वाले और जोड़ लें, तो भी तीस प्रतिशत हिंदी नहीं जानते थे। क्या उनको भारत में रहने का अधिकार नहीं? वह भी संविधान बनने की पहली तारीख से? एक दिन में दुनिया का कौन सा व्यक्ति एक नयी भाषा सीख सकता है? अगर केंद्र मद्रास में होता, और सभी उत्तर भारतीयों को एक ही दिन या एक साल में तमिल सीखने कहा जाता तो? बच्चों से बुजुर्ग तक? 

मद्रास के टी. टी. कृष्णामचारी खड़े हुए और कहा,

“साम्राज्यवाद के कई रूपों में एक भाषा साम्राज्यवाद भी है। मुझे अंग्रेज़ी बिल्कुल पसंद नहीं। शेक्सपीयर और मिल्टन में कोई रुचि नहीं। शक्तिशाली अंग्रेज़ों ने हमें अंग्रेज़ी का गुलाम बनाया। अब आप शक्तिशाली उत्तर भारतीय हमें हिंदी का गुलाम बनाना चाहते है। मैं बचपन से सीखता तो भिन्न बात थी, मगर इस उम्र में मेरे लिए यह भाषा सीखनी कठिन है। आप यह जानते हैं कि दक्षिण में अलगाववाद की लहर चल रही है। मैं अपने यू. पी. के भाइयों से पूछना चाहूँगा कि आप बहु-भाषी संपूर्ण भारत चाहेंगे या सिर्फ़ हिंदी-भाषी आधा भारत?”

आखिर कन्हैयालाल मुंशी और गोपालस्वामी आयंगार ने मिल कर एक हल निकाला, जिसे मुंशी-आयंगार फार्मूला कहा गया। इसके तहत अंग्रेज़ी और हिंदी, दोनों ही अगले पंद्रह वर्ष तक औपचारिक भाषा रहती। हर पाँच वर्ष में समिति विचार करती कि भाषा की क्या स्थिति है। उस मध्य हिंदी का प्रचार-प्रसार किया जाता। 

मई, 1950 में वल्लभभाई पटेल ने त्रिवेंद्रम में कहा, “अगर आप दक्षिण भारतीय जल्दी हिंदी नहीं सीखते, तो केंद्रीय नौकरियों में आपको प्राथमिकता नहीं मिलेगी”

ऐसी धमकियाँ दक्षिण भारतीयों को रास नहीं आयी। उन्हें लगने लगा कि जान-बूझ कर उन्हें केंद्रीय संस्थानों से दूर रखा जा रहा है। हालाँकि जो भी तमिल-मलयाली दिल्ली या बंबई गए, वे भाषा सीख ही गए, लेकिन वहाँ उसका परिवेश था।

खैर, पेरियार और अन्नादुरइ के दलों को छोड़ कर हिंदी के लिए घृणा पूरी तरह आयी नहीं थी। कांग्रेस अब भी मद्रास में ताकतवर थी, और 1951-52 का चुनाव महत्वपूर्ण था। पेरियार और अन्नादुरइ के दल चुनाव में स्वयं नहीं शामिल हुए। पेरियार ने कम्युनिस्टों, और अन्नादुरइ ने कुछ अन्य विपक्षी दलों का साथ दिया।

कम्युनिस्टों ने कड़ी टक्कर दी, और कांग्रेस पूर्ण बहुमत नहीं हासिल कर सकी। इस तरह पहले चुनाव से ही शुरू हो गया दक्षिण का तिकड़म गणित। तमिल कांग्रेस राजनीति के मैक्यावेली कहे जाने वाले राजाजी को उनके रिटायरमेंट से खींच कर लाया गया, जबकि वे चुनाव भी नहीं लड़े थे। उन्होंने सभी तरह के हथकंडे अपनाए। विधायकों को तोड़ा, प्रलोभन दिए, कुछ के हाथ भी मरोड़े। 

कांग्रेस के पास 152 सीटें थी, 188 पर विश्वास मत मिल जाता, राजाजी ने अपने पक्ष में दो सौ मत दिलवाए!

मगर मुख्यमंत्री पद पर बैठते ही राजाजी ने फिर से ग़लती कर दी। इस बार हिंदी तो नहीं लागू किया, मगर एक विद्यालय व्यवस्था बनायी। इसके अनुसार एक लुहार के बच्चे को आधे दिन स्कूल में पढ़ना था और आधे दिन अपना जाति-कर्म सीखना था। इसी तरह अन्य जातियों के बच्चों को भी। 

पेरियार ने कहा, “राजाजी चाहते हैं कि ब्राह्मणों के बच्चे पढ़ कर ऊँचे पदों पर जाते रहें। हमारे बच्चे वही श्रम करते रहें, जो उनके शूद्र पुरखे करते रहे। यह उसी वर्णाश्रम पद्धति की ओर लौटना है, जिसमें ब्राह्मण सर्वोच्च और शूद्र सबसे निचले स्थान पर था।”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (1)
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प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (1)


“26 जनवरी, 1950 को हम राजनैतिक समानता हासिल कर लेंगे, लेकिन हमें शीघ्र ही सामाजिक और आर्थिक समानता भी लानी होगी। अन्यथा जो लोग इस विषमता के शिकार हैं, वे एक दिन इस पूरी संरचना को हिला कर रख देंगे, जिसे हमने इतने परिश्रम से खड़ा किया है।”

- भीमराव अम्बेडकर, संविधान सभा में

भारत जब आज़ाद हुआ तो उत्तर भारत और अधिकांश राज्यों में आरक्षण की पूरी व्यवस्था नहीं थी। मद्रास में यह ढाई दशकों से थी। उत्तर भारत की संस्थानों पर जहाँ ब्राह्मणों और अन्य सवर्णों का प्रभुत्व कायम था, मद्रास में यह अनुपात बदलना शुरू हो चुका था। मेडिकल कॉलेजों में, विश्वविद्यालय में, नौकरियों में, हर जगह अ-ब्राह्मण जातियाँ जगह ले चुकी थी। 

एक उदाहरण के साथ इस प्रश्न का हल ढूँढते हैं कि भारतीय संविधान में पहली बार कलम कब चलायी गयी। संविधान में पहला संशोधन कब और क्यों किया गया?

आज़ादी से पहले मद्रास मेडिकल कॉलेज में दाखिले के लिए चौदह सीटें थी। उनमें 6 सीटें बहुसंख्यक अ-ब्राह्मणों, 2 पिछड़े हिंदुओं, 2 ब्राह्मणों, 2 हरिजन, 1 भारतीय ईसाई, 1 एंग्लो-इंडियन और 1 मुसलमान के लिए थी। 

इसी तरह इंजीनियरिंग कॉलेजों में 77 ब्राह्मण, 224 अब्राह्मण, 51 ईसाई, 26 मुसलमान और 26 हरिजन सीटें थी। 

ग़ौर करें कि इसमें ‘जनरल कैटगरी’ नहीं थी। यानी, एक तरह से ब्राह्मणों के लिए भी दस प्रतिशत से अधिक सीटें आरक्षित थी, जो उनकी पाँच प्रतिशत जनसंख्या के मुताबिक अधिक ही थी।

आज़ादी मिलने के बाद ब्रिटिश कानून खत्म हुआ और भारतीय संविधान बना। उस समय एक ब्राह्मण छात्रा चंपकम दोराइराजन ने एक मुकदमा किया कि एक ब्राह्मण होने के नाते उसका एडमिशन नहीं हो रहा। यह संविधान के आर्टिकल 29 (2) का स्पष्ट उल्लंघन था जो कहता है,

“राज्य द्वारा पोषित या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा”

अप्रिल 1950 में याचिका दाखिल हुई, जुलाई में मद्रास उच्च न्यायालय ने उस छात्रा के पक्ष में निर्णय देकर इस जाति-आधारित आरक्षण को अवैधानिक कह दिया। अगले महीने सर्वोच्च न्यायालय तक बात पहुँची। उन्होंने भी निर्णय को सही ठहराया। मद्रास में तो इस फैसले ने आग लगा दी। 

पेरियार भड़क उठे। उन्होंने संविधान की निंदा करते हुए अम्बेडकर को ब्राह्मणों का एजेंट कह दिया। 14 अगस्त, 1950 को ‘समुदाय अधिकार दिवस’ (Community Rights Day) मना कर काले झंडे दिखाते हुए ‘संविधान निंदनीय है’ के नारे लगाए गए। अन्नादुरइ, जो अभी-अभी पेरियार के दूसरी शादी से नाराज होकर अलग हुए थे, वे भी काला झंडा लिए साथ आ गए। इस तरह आज़ाद भारत में द्रविड़ों का पहला आंदोलन शुरू हो गया।

पेरियार ने कहा, “मैं जानता हूँ ये उत्तर भारतीय हमारे लिए संविधान नहीं बदलेंगे। अब एक ही रास्ता है। हम अपना द्रविड़िस्तान बनाएँ, जहाँ इन उत्तर भारतीयों का काला कानून नहीं चलेगा।”

गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल का स्वास्थ्य उस समय ठीक नहीं था, और आज़ादी के मात्र तीन वर्ष बाद नेहरू विभाजक परिस्थितियों से घिर रहे थे। कम्युनिस्टों का भी विरोध जारी था, जिनकी जेल-बंदी पटेल ने ही शुरू कर दी थी। 1951 में देश का पहला चुनाव होने वाला था, तो नेहरू की चिंताएँ बढ़ गयी थी। 

उस समय यह निर्णय लिया गया कि संविधान में संशोधन किए जाएँ। जून, 1951 में पहली बार संविधान पर कलम चली। आर्टिकल 15 (4) लाया गया, जिसके अनुसार

“राज्य सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग, एससी, एसटी, ओबीसी के लिए स्पेशल प्रोविजन बना सकते हैं। अगर वे कमज़ोर वर्ग के लिए कोई योजना बनाते हैं तो यह आर्टिकल 15 का उल्लंघन नहीं होगा। राज्य सीटों का रिजर्वेशन या फीस में छूट देने जैसे निर्णय ले सकते हैं।”

इस संशोधन से पेरियार की जीत तो हुई, लेकिन नेहरू ने कुछ बिंदु और जोड़े, जो उनके गले से नहीं उतरा। एक के अनुसार - 

‘अभिव्यक्ति की आजादी मान्य नहीं होगी अगर अभिव्यक्ति शत्रु देश के समर्थन में हो या अपने देश में हिंसा या अव्यवस्था फैलाए।’

जब श्यामाप्रसाद मुखर्जी और अन्य नेताओं ने इसे तानाशाही और मूलभूत अधिकारों पर चोट कहा, तो नेहरू ने भड़क कर कहा, 

“आप मुझसे जहाँ चाहें, वहाँ मैं लड़ने की चुनौती देता हूँ। चाहे बीच बाज़ार में, या देश में कहीं भी”

देश में कहीं भी। इस चुनौती की गूँज दक्षिण तक भी पहुँची। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (1)
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