Tuesday 29 June 2021

बालेंदु शेखर मंगलमूर्ति - बेहद तेज गति से लिखते थे मंटो !!

मंटो के रूप में भारतीय उपमहाद्वीप ने एक विश्व स्तर का कहानीकार पैदा किया है. मैक्सिम गोर्की से प्रभावित मंटो ने जब लिखना शुरू किया था, तब तक प्रेमचंद के चलते उर्दू साहित्य रुमानियत को पीछे छोड़ कर यथार्थ के ठोस धरातल पर आ चूका था. उनके समकालीन कहानीकारों- राजिंदर सिंह बेदी, इस्मत चुगताई, कृष्ण चन्दर  भी उर्दू साहित्य को बेहद समृद्ध कर रहे थे, पर मंटो अपने लिए बिलकुल अलग मुकाम बना पाए. 

हालाँकि मंटो के बचपन में ऐसी कोई झलक नहीं मिलती, जिससे उनकी आने वाली महानता का एहसास हो सके. बचपन में  पढ़ने लिखने में ध्यान नहीं देते. समय खेलने कूदने और शरारतों में जाता. दो बार उर्दू विषय में फेल हो गए, तीसरी बार किसी तरह पास हुए. हिन्दू महासभा कॉलेज में एडमिशन लेकर वे अपनी टेक्स्ट बुक से बाहर फ़िल्मी मैगजीन्स पढ़ा करते. उनके जीवन में महत्वपूर्ण बदलाव आया जब वे पत्रकार अब्दुल बारी अलिग से मिले. मंटो ने आगे चलकर उन्हें अपना मेंटर बताया. अब्दुल बारी किताबों के शौक़ीन थे. उन्होंने मंटो के अंदर छिपी प्रतिभा को पहचाना, और उन्हें विश्व साहित्य से जोड़ा। अब्दुल बारी के साहचर्य में मंटो ने काफी तेजी से ऑस्कर वाइल्ड, विक्टर ह्यूगो, मोपासां, चेखोव आदि कथाकारों को गहराई से पढ़ा.  अब्दुल बारी ने उन्हें इन महान कथाकारों की कुछ रचनाओं के अनुवाद के कार्य से भी जोड़ा. 

अलीगढ यूनिवर्सिटी पढ़ने के लिए गए मंटो पर उनकी पढ़ाई टीबी के चलते बाधित हुई. वहां से वापस आकर लाहौर में एक अखबार में काम किया. लेकिन अख़बार में उपलब्ध सीमित स्वतंत्रता के चलते वे आजिज आकर बॉम्बे चले गए. बॉम्बे में एक फिल्म मैगज़ीन मुसव्विर के एडिटर के रूप में १९४० तक काम किया. इस दौरान वे फिल्मों से भी जुड़े. डायलाग, स्क्रिप्ट आदि लिखने लगे. लेकिन फिल्मों में लिखने पर भी उन्हें रचनात्मक सुकून नहीं मिला. 

मुसव्विर में नौकरी खो देने के बाद वे दिल्ली आ गए और आल इंडिया रेडियो से जुड़ गए. यहाँ कई साहित्यकारों का जमावड़ा था. उनके साथ इंटरेक्शन से और साथ ही रेडियो  के लिए नाटक, फीचर आदि लिखने के चलते उनकी लेखनी में धार आने लगी. मंटो काफी तेजी से लिखते, और उन्हें अपनी लेखनी पर इतना यकीं और गुरुर था कि वे अपने स्क्रिप्ट को दूसरी बार देखते भी नहीं थे. आल इंडिया रेडियो में काम करते हुए उनका अपने बॉस उपेन्द्रनाथ अश्क़ से झगड़ा हो गया जिन्हे वे बहुत अव्वल दर्जे का लेखक नहीं मानते थे. कोम्प्रोमाईज़ नहीं करने के स्वाभाव के चलते उनका अपने सहयोगियों के साथ रह रह उनकी तनातनी हो जाया करती. आल इंडिया रेडियो की नौकरी छूटने के बाद वे फिर से बॉम्बे आ गए. मुसव्विर से एक बार फिर से जुड़े और फिल्म राइटिंग से भी और गहरे जुड़े. 

बॉम्बे में रहते हुए देश के विभाजन ने उन्हें सदमा दिया.देश में सांप्रदायिक विद्वेष बढ़ रहा था, बॉम्बे फिल्म इंडस्ट्री में भी ये मवाद फ़ैल रहा था.  इसी बीच उनकी कहानियों पर लाहौर हाई कोर्ट में अश्लीलता का मुकदमा चल रहा था. वे इस्मत चुग़ताई के साथ लाहौर गए. इस्मत पर भी लिहाफ कहानी के लिए अश्लीलता का मुकदमा चल रहा था. मंटो को सजा हुई और उन्हें जुर्माना  भरना पड़ा. इस्मत पर लगा केस खारिज हुआ था। 

मंटो फिर पाकिस्तान चले आये. दंगों की विभीषिका और  इंसानियत के क़त्ल के गवाह थे मंटो. इस दौरान उन्होंने अपनी सबसे पावरफुल कहानियां लिखीं. 
टोबा टेक सिंह, ठंडा गोश्त, खोल  दो, टिटवाल का कुत्ता आदि कहानियां विश्व साहित्य की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में शुमार होती हैं. 1955 में 43 साल की उम्र में मंटो का देहांत हो गया.

पाकिस्तान में रहते हुए अपनी कहानियों पर मुकदमों से परेशां मंटो ने पेन स्केच लिखा था जो दो vols में प्रकाशित हुआ था- गंजे फ़रिश्ते और लाउडस्पीकर. उनका ख्याल था इस तरह से वे समाज के नैतिकता के ठेकेदारों से बचे रहेंगे. 

हिंदुस्तान में रहते हुए मंटो ने इस्मत चुगताई का पेन स्केच लिखा था- इस्मत चुग़ताई.  मंटो जब पाकिस्तान चले गए, तो इस्मत चुग़ताई काफी आहत हुईं. उन्होंने  बहुत बाद में  मंटो पर पेन स्केच लिखा- मेरा दोस्त, मेरा दुश्मन (1960).

© बालेंदु शेखर मंगलमूर्ति
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प्रवीण झा - यूरोप का इतिहास (19)

क्या युद्ध भी देश के लिए अच्छा हो सकता है? 

माल्थस का मशहूर सिद्धांत है, “दुनिया में जनसंख्या चक्रवृद्धि से बढ़ेगी और उनके पोषण के लिए पर्याप्त भोजन नहीं बचेगा, बशर्तें कि युद्ध, बीमारी या नीतियों से जनसंख्या घटने लग जाए।”

यूरोप की जनसंख्या साफ हुई, इमारतें साफ हुई, फैक्ट्रियाँ ध्वस्त हुई। यूरोप में अब भी कुछ पुरानी इमारतें हर शहर में है, लेकिन जो हमें बहुधा नजर आती हैं, वे युद्ध के बाद बनी। नए और आधुनिक तरीकों से। जैसे पुराने शहर पर बुलडोज़र चला कर नया शहर बसा हो। विध्वंस से सृष्टि हुई हो।

चमचमाती नयी मशीनें, नई चौड़ी सड़कें, नए ट्रेन, नयी बसें। युद्ध के बाद का यूरोप अपने सभी पुराने संस्करणों से कहीं बेहतर था। इतना काम था कि रोजगार ही रोजगार था। पश्चिमी जर्मनी के नए चांसलर इटली जाकर मुफ्त बसें चलवा रहे थे, दक्षिण इटली और ग्रीस के बेरोजगार बस भर-भर कर जर्मनी आ रहे थे।

माल्थस ने यह सुझाया था कि युद्ध के बाद जनसंख्या घटेगी, लेकिन यह नहीं बताया कि उसके बाद क्या करना है? अर्थशास्त्र अब पलट चुका था। जनसंख्या बढ़ाओ, बजट बढ़ाओ, रोजगार बढ़ाओ, उत्पादन बढ़ाओ, बाज़ार खोल दो, खूब खरीदो, खूब बेचो, खूब खर्च करो। बेल्जियम से नीदरलैंड सामान भेजो, जर्मनी से फ्रांस। पूर्वी जर्मनी से भाग कर लोग पश्चिम जर्मनी आना चाहें तो आने दो। कोई रोक-टोक नहीं। पूरा यूरोप ही एक बाज़ार बन गया था।

लेकिन, माल्थस होते तो पूछते कि जब सभी फैक्टरी में लग जाएँगे तो खेती कौन करेगा? भोजन कहाँ से आएगा? 

युद्ध से पहले यूरोप काफी हद तक कृषि प्रधान ही था। ऑस्ट्रिया में तो खेत ही खेत थे। दक्षिण इटली और फ्रांस भी खेती-बाड़ी में लगी थी। यहाँ तक कि पश्चिम जर्मनी की चौथाई जनसंख्या खेती करती थी। लेकिन, अब तो नहीं करती। क्यों? 

कृषि का भी मशीनीकरण हो गया। गाय दूहने के लिए पहले महिलाएँ लगी थी। अब महिलाएँ स्कर्ट पहन कर बॉन में नौकरी कर रही थी। डेनमार्क और नीदरलैंड जैसे देशों में पूरा दुग्ध-उत्पादन ही मशीनीकृत हो गया। अब गायों की कतार मशीन दूह लेती थी। खेती-बाड़ी का भी औद्योगीकरण हो गया। खेतों में बड़े सिंचाई के स्प्रिंकलर लग गए, तमाम जोतने, बुआई, कटाई, और संचय के उपकरण लग गए। सत्तर के दशक तक इटली में मात्र सोलह प्रतिशत कामकाजी लोग ही किसान बचे, जो पहले साठ प्रतिशत से अधिक थे।

भारत में भी औद्योगीकरण की हरी-सफेद क्रांतियाँ होती रही, अब पुन: कॉरपोरेट खेती के कानून आए हैं। लेकिन, इसका लाभ किन क्षेत्रों तक कितना पहुँचेगा, इस पर संदेह है। मसलन पूर्वी कम्युनिस्ट शासित यूरोप में भी औद्योगिक और सहकारी खेती हो रही थी, लेकिन उनका ध्येय किसानों की संख्या घटाना या शहरीकरण नहीं था।  वह औद्योगिक खेती तो किसानों पर जुल्म थी। अगर भारत को पश्चिम-पूर्व में बाँट दें तो कुछ ऐसा ही अंतर दिखेगा। पश्चिमी राज्यों की कृषि मशीनीकृत है, जबकि पूरब में अब भी बैल, हल, कुदाल और यहाँ तक कि रहट भी कहीं-कहीं दिख सकते हैं। उनको पूरी तरह बदलना ही भविष्य है, अन्यथा पश्चिम की कटाई करने पूरब के किसान ट्रेन भर-भर कर जाते ही रहेंगे। 

यूरोप में एक और बात हुई। जब खेती-बाड़ी से शहरी उद्योगों की तरफ प्रवास हुआ, तो महिलाएँ भी शहर आ गयी। युद्ध के बाद अगले दशक में ब्रिटेन की एक तिहाई कामकाजी जनसंख्या महिलाओं की थी। बाकी पश्चिम यूरोप में भी यही हाल था। हालांकि महिलाओं ने बच्चे भी खूब जन्म दिए, लेकिन गृहणी का कंसेप्ट घटता गया। वे अर्थव्यवस्था में खुल कर शामिल हुई। ज़ाहिर है, वे इन शहरों में पढ़-लिख भी अधिक गयीं, जो आगे जाकर नारीवादी आंदोलनों में सहायक हुई। 

एक युवा यूरोप सामने था। इसलिए नहीं कि बच्चे पैदा हो रहे थे। उनके बड़े होने में तो अभी वक्त था। दर-असल युद्ध में बूढ़े तो भारी मात्रा में मरे, लेकिन बच्चे और किशोर अपेक्षाकृत बच गए थे। बारह से अठारह वर्ष की जनसंख्या सबसे अधिक थी, और साठ से ऊपर की कम। कुछ-कुछ आज के भारत की तरह। कुल मिला कर कहें तो सरकार पर बोझ कम था, और उत्पादक और सर्विस सेक्टर के लिए जनसंख्या अधिक थी। ये सभी करदाता भी थे।

मगर। किंतु। परंतु। पूँजीवाद का बुलबुला तो अमरीका के स्थायी डॉलर से चल रहा था। दो दशक बाद जब यूरोप अपने शीर्ष पर था, ढलान की ओर बढ़ने लगा। मुद्रा धड़ाम से गिरने लगी। 

कुछ पुराना ख़ामियाज़ा, कुछ नए जख्म। कुछ वियतनाम और कुछ इज़रायल। दुनिया में अब एक नयी ताकत जन्मी थी। जो न डॉलर थी, न सोना। वह था- तेल! 
( श्रृंखला समाप्त)
धन्यवाद 🙏

प्रवीण झा
© Praveen jha 

यूरोप का इतिहास (18)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/18.html
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Monday 28 June 2021

भगवान प्रसाद सिन्हा - क्रांतिकारक समाज सुधारक संत रैदास

संस्कृति के चार अध्याय में राष्ट्रकवि दिनकर इस प्रस्थापना को लेकर सही चलते हैं कि कबीर भारत के अत्यंत महान् क्रांतिकारी पुरुष थे। कबीर की परंपरा में जो अनेक संत और महात्मा जनमे उनमें नानक, दादू,मलूकदास आदि के साथ रैदास का महत्वपूर्ण स्थान है। अपितु, कबीर के बाद नानक और रैदास दो के विचार कबीर से संपूर्ण साम्य रखते हैं। इसलिए नानक के गुरु ग्रंथ साहिब में  कबीर  और रैदास की साखी और बानी एक साथ दर्ज़ है।  दिनकर ने तीन महत्वपूर्ण कारण बताये हैं कबीर एवं उनकी परंपरा के कवियों की क्रांतिकारिता के जो आगे चलकर हम उनकी रचनाओं के उद्धरणों के विश्लेषण में देखेंगे। 

दरअसल,  समाज और साहित्य की सौंदर्यदृष्टि में गहरी समानता होती है । कवि की आत्मा में जो कुछ होता है वह समाज द्वारा प्रदत्त होता है। अपने समय और समाज से कटकर साहित्य का सृजन कालजयी नहीं हो पाता है। शून्य में कुछ भी नहीं रचा जा सकता। रचनाकार का  अस्तित्व ही उसकी चेतना का जन्मदाता होता है ।  उसका सामाजिक अस्तित्व  उसकी चेतना के श्रेष्ठतर रूप साहित्य और दर्शन  के सभी मूल्यों और प्रतिमानों को निर्धारित, नियंत्रित और और अनुशासित करता है।एवज़ी तौर पर जिससे वह ऋण चुकाने के रूप में उस चेतना से अपने  सामाजिक अस्तित्व का परिमार्जन करता है। कहना न होगा कि   सामाजिक पृष्ठभूमि  की दृष्टि से संपन्न  किसी साहित्य का अध्ययन ही मानवसत्ता का अध्ययन है । 

प्रथमतः,भक्ति काल का  तेजतत्व तत्कालीन परिस्थितियों की जटिलताओं की चुनौती को पूरा करने के लिए कबीर, नानक रैदास आदि को न सिर्फ़ समाज के दो प्रमुख सम्प्रदायों हिंदु और मुसलमानों में व्याप्त फ़र्क़  के कारकों पर प्रहार करने में अपनी क्रांतिकारिता का परिचय दिया बल्कि दूसरे योगदान के रूप में  संस्कृत और फ़ारसी के अभिजात्य वर्चस्वता के प्रति विद्रोह कर एक नई भाषा का परचम भी लहराया।  और तीसरे लेकिन कम महत्वपूर्ण नहीं, संस्कृति का जो नेतृत्व ब्राह्मणों के हाथ में था उसे निम्न वर्ग के हाथ में पहुँचा दिया। यही कारण और इसका परिणाम भी था कि कबीर परंपरा में कोई भी संत साहित्यकार ब्राह्मण वंश में नहीं जनमा था। 

रैदास के  साखी और बानी में हर उस मंत्र को हम देख सकते हैं जो  सामाजिक विषमता और विभेद पर क़ायम ब्राह्मणवादी-मुल्लावादी वातायन को झकझोरने के लिए एक ओर सूफ़ी और दूसरी ओर भक्ति के नायकों ने अपने विचारों का थीम तैयार किया था। 

 उस समय की सामाजिक राजनीतिक स्थिति के अवलोकन से स्पष्ट है कि राजपूत राजाओं के पतन, तुर्कों के आगमन तथा बौद्ध, शैव, वैष्णवों के आंतरिक संघर्षों से ब्राह्मणों की हैसियत में ह्रास होने लगा। ज्यों ही यह शुरू हुआ कि ब्राह्मणों की श्रेष्ठता और उनके द्वारा सदियों से स्थापित जातिक्रम को चुनौती मिलनी शुरू हुई। दक्षिण में यह काम पहले हुआ फिर दक्कन के उत्तरी खंड महाराष्ट्र के नामपंथ आंदोलन के साथ उत्तर भारत में प्रवेश किया। रैदास इसी आंदोलन की उपज थे जो ज़ाति के चमार थे। इनके साथ कबीर जुलाहा, सेना नाई, सघन कसाई , नानक बढ़ई थे। नामदेव भी दर्जी थे। ये लोग तत्कालीन समाज व्यवस्था के सबसे प्रबल आलोचकों में शामिल हुए। न सिर्फ जात-पात बल्कि हिंदु-मुस्लिम विभेद तथा इस विभेद के सबसे बडे सहायक धार्मिक ग्रन्थों, पूजापाठ के स्थलों, कर्मकांडों आदि पाखंडों एवं पाखंडियों पर भी जबरदस्त प्रहार किया।  सामाजिक समानता की ललक को पूरा करने के लिए विभेद के मर्म पर प्रहार के उत्साह की सीमा कितनी दूर तक थी वह रैदास की इन पंक्तियों में आप सहज तलाश कर सकते हैं जिनमें उन्होंने ईश्वर के साथ अपनी समानता या समता को स्थापित कर मनुष्य मनुष्य के बीच के सदियों के विभेद के ध्वंस की व्यवस्था की है :"तुम चंदन हम पानी, तुम घन बन हम मोरा, चितबत चंद चकोरा, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोत बरै दिन राती.... ";इन पंक्तियों के ज़रिए जब एक चमार कुल में पैदा संत ईश्वर के साथ अपनी समानता को पराकाष्ठा पर पहुँचा सकता है तब समाज की मनुष्य योनि में उसी ईश्वर, ब्रह्म के प्रतिनिधि ब्राह्मणों के साथ समानता की विसात क्या रह जा सकती है। 

उसी तरह ईश्वर के प्रति प्रेम का प्रकटीकरण का अंतिम उद्देश्य समानता और मानवीयता के प्रति प्रेम की स्थापना ही है । इसीलिए दास भाव की ज़गह रैदास तथा कबीर-परंपरा के तमाम संतों के द्वारा ईश्वर के प्रति साख्य भाव को ही माध्यम बनाया गया और प्रेम की दृढ़ता को काव्यों में व्यक्त किया गया है :
 "कह रैदास स्वामी क्यों बिछोहे, एक पलक जुग जाई"

मानवीय श्रेष्ठता के प्रबल विरोधी होने तथा मानवीयता के गुणों के प्रसारक होने के नाते रैदास की रचनाओं में अहंकार नहीं है, उसकी ज़गह प्रेम व्याप्त है :
 "पिउ संग प्रेम कबहुँ नहीं पावो, करनी कौन बिसारी
 चक को थ्यान दधिसुत सों हेत है, यों तुम ते मैं न्यारी।"
  
ईश्वर के नाम पर प्रचलित पाखंड समाज के लिए सबसे प्रबल विभाजनकारी तत्व को पैदा करता है रैदास ने इसे कबीर की तरह ही पहचान लिया था इसलिए  कबीर की ही तरह उस पर सीधा प्रहार करने से चूकते नहीं :

"थोथी पंडित थोथी बानी। थोथी हरि बिन सबै कहानी 
थोथा मंदिर भोग विलास। थोथी आन देव की आसा
साचा सुमिरन नाम विसासा। मन बच कर्म कहै रविदासा 

इस सिलसिले में उन्हें ईश्वर की स्थापित अवधारणाओं को भी चुनौती देनी पड़ी  तो उससे वे बाज नहीं आए । बल्कि यह चुनौती कभी कभी आगे बढ़कर ईश्वर के अस्तित्व के गिरेवान तक पहुँच जाती थी। ईश्वर या ईश्वरत्व उनके लिए तभी वैध है जब वह सबके लिए सदा सहज विद्यमान है। रैदास मानव मानव के बीच समानता के इस आग्रह से ईश्वर की प्रासंगिकता  निर्धारित करते हैं ।  मध्यकाल के सामंती समाज के लिए  ईश्वर की प्रासंगिकता पर सवाल क्रांतिकारी अवधारणा ही कही जाएगी । यहाँ तक कि आज के संदर्भ में भी रैदास की तत्संबंधी उक्तियाँ  6 सौ साल पहले की ही तरह प्रासंगिक और क्रांतिकारी बनी हुई है । आज भी उनके वारिसों और देश के सामाजिक रूप से वंचित समुदाय के लिए ईश्वर का प्रसंग बेमानी बना हुआ है जैसा तब रैदास को महसूस हुआ था:

"अखिल खिलै नहिं का कहि ,पंडित कोइ न कहै समुझाई
अबरन बरन रूप नहिं जाके जाके कंह तौ लाइ समाई। 

इतिहास का यह सुयोग था कि भारत की सड़ांध छोड़ती सामंती-ब्राह्मणवादी व्यवस्था के द्रोहस्वरूप सामाजिक अधिक्रम के निचले पायदान पर जीनेवालों के बीच से समाज सुधारक व धर्मसुधारक संतों की  भक्तिआंदोलन के नाम से ठीक उसी तरह की क्रांतिकारी परंपरा विकसित हुई जिस तरह की परंपरा विश्व इतिहास में यूरोपीय सामंती व्यवस्था और चर्च के विरुद्ध पुनर्जागरण ( रिनासाँ) के नाम से विकसित हुई थी। अलवार नयनार नामदेव खुसरो कबीर रैदास नानक आदि  जॉन विकलिफ़, दांते, विंची, शेक्सपियर आदि के भारतीय अवतार की तरह लगते हैं या यूँ कहें कि विकलिफ़, क्रिस्टोफर, शेक्सपीयर दांते वग़ैरह कबीर रैदास नानक के यूरोपीय प्रतिरूप हैं। रैदास और कबीर की तरह ही उनकी रचनाओं का केंद्र ईश्वर नहीं मनुष्य था, परलोक नहीं इहलोक था, दैवीय कल्पना नहीं मानवीय संवेदना और सामाजिक सरोकार था। याद करें शेक्सपियर हैमलेट में कबीर और रैदास की बानी (भावों को)दोहराते हुए मिलता है:

"कितनी अनुपम कृति है मनुष्य ! 
कितनी श्रेष्ठ है मनुष्य की बुद्धि  ! 
कितनी असीम है मनुष्य की क्षमताएं! 
रूप और गति में कितना श्लाघ्य है मानव  ! अपनी बुद्धि में ईश्वर के तुल्य है मानव! 
 
लेकिन दुर्योग है कि जहाँ रिनासाँ के चरमोत्कर्ष में शेक्सपीयर पैदा होता है वहीं भक्ति आंदोलन का संहार या उपसंहार तुलसीदास के रामायण और बाद में रीतिकाल, या रतिकाल ज़्यादे स्पष्ट होगा, के रूप में होता है। जहाँ रिनासाँ का साहित्य आगे की शताब्दियों में रिफ़ॉर्मेशन, एनलाइटमेंट, साइंटिफिक टेम्पर, इंडस्ट्रियल एंड पॉलिटिकल  रिवोल्यूशन्स, और अंत में पूरी दुनिया में यूरोप के साम्राज्य तथा वैज्ञानिक समाजवाद की अपरिहार्यता तक  निरंतर प्रवाहमान और प्रेरणावान दिखता है  वहीं भक्तिआंदोलन के क्रांतिकारी प्रवाह को मुगलिया सल्तनत और हिंदु -मुसलमानों की पतनोन्मुखी सामंती-धार्मिक व्यवस्था से उपजी साहित्यिक सामाजिक सांस्कृतिक कुंठा की प्रतिक्रांतिकारी साहित्य, दर्शन, धर्म, नैतिकता, राजनीति  की भेंट चढ़ जाती है। फलतः , देश आज 21वीं सदी में भी कथित तौर पर विश्वगुरु बनने के लिए पिछली सहस्राब्दी के उसी भक्तिकाल पूर्व के अंधकार में भटकते रहने को आतुर  है। यही कारण है कि रैदास और कबीर के अनुयायी, उनके वंशज और उत्तराधिकारी उनकी क्रांतिकारी चेतना को, उनके बानियों, साखियों और शबद के विचारों को व्यवहार की कसौटी पर परखने और आत्मसात करने की ज़गह उसी मठवाद और मूर्तिवाद की ब्राह्मणवादी प्रस्थापनाओं को अंगीकार करते हुए आत्ममुग्ध दिखते हैं  ! कहीं कबीर के मठ के मेले हैं तो कहीं रैदास की मूर्तियों के मेले! लेकिन अफ़सोस ये मेले कबीर और रैदास की बानी के अमल के लिए नहीं,  उनकी क्रांतिकारी चेतना चरित एवं कार्यों को आगे बढ़ाने के लिए नहीं,उन्हीं ब्राह्मणवादी प्रतिगामी प्रस्थापनाओं के राजनीतिक-सामाजिक हिस्से के रूप में आयोजित दिखते हैं रैदास और क़बीर जिनके विरुद्ध विद्रोह कर क्रांति करने के लिए इतिहास में जाने जाते हैं।

भगवान प्रसाद सिन्हा
© Bhagwan Prasad Sinha 
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फ़िल्म - सोफ़ी शोल : द फाइनल डेज़

2005 में आई सच्ची घटना पर आधारित एक फिल्म, जिसकी वास्‍तविक नायिका को आज से 78 वर्ष पहले मौत की सज़ा दी गयी थी।

22 फ़रवरी 1943 को सिर्फ 21 वर्ष की इस बहादुर लड़की, उसके भाई और एक साथी की गर्दन काट दी गयी थी। 
उनका गुनाह था, नफ़रत और सत्‍ता के नशे में पागल तानाशाह के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना।
 
यह फ़ि‍ल्‍म 'व्‍हाइट रोज़' नामक विद्यार्थियों के एक समूह और उससे जुड़ी युवती "सोफ़ी शोल " की कहानी है 
जो हिटलरी आतंक के साये में रहते हुए जर्मनी में लोगों को बर्बर नाज़ी हुकूमत के विरुद्ध उठ खड़े होने के लिए गुप्‍त प्रचार कार्य में लगे हुए थे।
 
1943 में ज‍िस वक्‍त हिटलर की सेनाएँ पूरे यूरोप में जंग छेड़े हुए थीं और जर्मनी में यहूदियों, कम्‍युनिस्‍टों और ह‍िटलर के तमाम विरोधियों का बर्बर फ़ासिस्‍ट दमन जारी था, उन्‍हीं दिनों युवा विद्यार्थियों के एक ग्रुप ने म्‍यूनिख़ में एक अंडरग्राउण्‍ड प्रतिरोध आन्‍दोलन शुरू क‍िया था। ख़ुद को 'द व्‍हाइट रोज़' कहने वाला यह ग्रुप हिटलर के झूठे प्रचार का भण्‍डाफोड़ करते हुए तथ्‍यों और फ़ासिस्‍ट युद्धोन्‍माद के विरोध के आह्वान से भरे पर्चे गुप्‍त रूप से तैयार करता और बाँटता था।
 
इसकी युवा सदस्‍य सोफ़ी, कॉलेज कैम्‍पस में अपने भाई हान्‍स के साथ ऐसा ही एक पर्चा बाँटते हुए पकड़ी जाती है। 
लम्बी पूछताछ और नाज़ी शासन के वफ़ादार प्रवक्‍ता जैसे जज की अदालत में मुक़दमे के नाटक के बाद सोफ़ी, हान्‍स और उनके साथी क्रिस्टोफ़ प्रोब्स्ट को मौत की सज़ा सुनाई जाती है, और दो दिन बाद उस पर अमल कर दिया जाता है। यह फिल्म गेस्टापो और नाज़ी अदालत की फ़ाइलों में इस मामले की पूछताछ और मुक़दमे के रिकॉर्ड के आधार पर सोफ़ी शोल और उसके साथियों द्वारा फासिस्टों के विरुद्ध जर्मन जनता को जगाने के प्रयास की इस शौर्यपूर्ण ऐतिहासिक घटना का चित्रण बहुत सच्‍चे और प्रेरक ढंग से करती है। 

मार्क रोथमुंड द्वारा निर्देशित 2005 में आयी यह फ़‍िल्‍म सर्वश्रेष्‍ठ विदेशी फ़िल्‍म के ऑस्‍कर अवॉर्ड के लिए नामांकित की गयी थी। इसके अलावा इसे दुनिया भर में अनेक पुरस्‍कार मिल चुके हैं।

फिल्म यूट्यूब पर उपलब्ध है ।
https://youtu.be/baRvF6ZBK18  

© नदीम
( जन विचार संवाद मंच )
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सुशोभित - गांधी की सुंदरता

रिचर्ड एटेनबरो की फ़िल्म "गांधी" का रिव्यू लिखते हुए विष्णु खरे ने कहा था- "गांधी जी कभी भी सौंदर्य और पौरुष की प्रतिमा नहीं थे, अलबत्ता यह इस पर निर्भर करता है कि सौंदर्य और पौरुष के आपके मानदंड क्या हैं!"

वहीं अन्यथा गांधी जी के कटु आलोचक रजनीश ने एक सहानुभूतिपूर्ण क्षण में कहा था कि जैसे जैसे गांधी जी बूढ़े होते गए, उनका व्यक्तित्व आकर्षक होता गया। अपनी युवावस्था में वे बहुत साधारण थे। किंतु जीवन के अंतिम दौर में वे बहुत सुंदर हो गए थे। फिर इसके बाद रजनीश ने जोड़ा, जब आप बुढ़ापे में युवावस्था से भी अधिक सुंदर हो जाते हैं तो माना जा सकता है कि आपने एक समृद्ध जीवन जिया है।

सौंदर्य के हमारे मानदंड क्या हैं, इस पर सच में ही बहुत कुछ निर्भर करता है। पुरुष-सौंदर्य के भी बहुतेरे मानक हैं। केश कुन्तल हों, मोर मुकुट हो, सुरुचिपूर्ण अंगवस्त्र हो, हाथ में धनुष हो या सुदर्शन चक्र, संन्यासी के गैरिक वस्त्र हों या इनमें से कुछ नहीं, केवल एक धोती हो, अलंकार के नाम पर केवल एक चश्मा हो- यह आपके पैमानों से तय होता है कि आपके लिए सुंदर क्या है।

मैं जब गांधी जी का यह चित्र देखता हूं तो सौंदर्य की इस मूरत पर मंत्रमुग्ध हो जाता हूं। जीवन भर के तप, धैर्य, परिश्रम, संकल्प और संघर्ष के ताप में कुंदन की तरह निखरी काया। छरहरा किंतु गठा हुआ शरीर। मुंडा सिर, आंख पर गोल फ्रेम का चश्मा, पकी मूंछों में चांदी के तार, हाथों में सितार के जैसे चरखे की डोर, उघड़ा बदन, उन्नत कंधे, चौड़ा सीना, सुघड़ घुटने, और विश्रांति से भरे पांव, जिन्होंने असंख्य मील लम्बी यात्राएं की थीं। और, व्यक्तित्व में ठहराव, गम्भीरता, आश्वस्ति, संतुलन, और एक अनन्य गरिमा। इस मनोहारी रूपछवि ने तीस और चालीस के दशक में स्वाधीनता आंदोलन की गहमागहमियों के परे गांधी जी को दुनिया के कौतूहल का केंद्र बना दिया था।

1931 में जब गांधी जी लंदन गए तो उनकी एक झलक देखने भीड़ उमड़ पड़ी। फिरंगियों में कौतूहल था कि उनके अपराजेय साम्राज्य को चुनौती देने वाला, उसे झुकने को विवश कर देने वाला भारत का यह अहिंसक जननायक कैसा दिखता होगा। जिस दिन गांधी जी लंदन पहुंचे, उस दिन वर्षा हो रही थी और यूरोप की हाड़ कंपा देने वाली सर्दी में वहां के जन मफ़लर-ओवरकोट में भी कांप रहे थे। तभी वह गौरवशाली भारत-मूर्ति लंदन के क्षितिज पर अवतरित हुई। पैरों में चप्पल, बदन पर लंगोट और शॉल, और उघड़े घुटने। भारत योगियों के देश के रूप में सदैव ही पश्चिम के लिए कौतूहल का विषय रहा है। उस दिन ब्रितानियों ने भारत देश के कर्मयोगी के दर्शन किए और सिर नवाया।

मीराबेन गांधी जी के साथ थीं। जब वो इंग्लैंड से भारत को चली थीं तो मेडलिन स्लेड कहलाती थीं। जब गांधी जी की शिष्या के रूप में लंदन आईं तो तपस्विनी बन चुकी थीं- जैसे बुद्ध की आम्रपाली, जैसे जीज़ज़ की मेरी मेग्दलीन। सभ्यता के सेतु को लांघकर दूसरी ओर चली गई उनकी अपनी मेडलिन को तब ब्रिटिश देखते ही रह गए।

किंतु गांधी जी के रूप-सौष्ठव पर सबसे ज़्यादा लट्‌टू होने वाली स्त्री का नाम था- मार्गरेट बूर्के व्हाइट। वह वर्ष 1946 में लाइफ़ मैग्ज़ीन की फ़ोटो-जर्नलिस्ट की हैसियत से भारत पहुंची। उसे गांधी जी के चरखे के प्रति बड़ा कौतूहल था। वो चरखा चलाते गांधी जी का छायांकन करना चाहती थी। आश्रमवासियों ने उसके सामने शर्तें रखीं कि उसे स्वयं चरखा चलाना होगा, आश्रम के नियमों का पालन करना होगा, बापू का मौनव्रत हो तो एक शब्द नहीं बोलना होगा और कैमरे के साथ फ़्लैश का इस्तेमाल नहीं करना होगा। मार्गरेट ने हर शर्त मान ली। गांधी जी के आगे-पीछे घूमते हुए उसने उनकी सैकड़ों तस्वीरें उतारीं। जब भी वो गांधी जी को किसी उम्दा फ्रेम में देखती तो मन ही मन एक कम्पोज़िशन बांधकर कहती- ठहरिए, एक तस्वीर लेना है। तब गांधी जी मुस्कराकर कहते- तुम तो भली टॉर्चरर हो, मार्गरेट!

गांधी जी की यह तस्वीर मार्गरेट ने ही उतारी है। वास्तव में गांधी जी की सबसे सुंदर तस्वीरें मार्गरेट के ही खाते में आई हैं। जैसे उसकी आंख में बसा अनुराग उसकी छायाकृतियों में उतर आया हो। ध्यान मुद्रा में बुद्ध, सलीब पर जीज़ज़ और चरखा चलाते गांधी जी- ये मनुष्यता के इतिहास की अमर छवियां बन गई हैं।

मार्गरेट अपना असाइनमेंट पूरा करके इंग्लैंड लौट गई, किंतु उसका मन गांधी जी में अटका रहा। 1948 में वो फिर लौटकर भारत आई। 30 जनवरी 1948 को जब गांधी जी की हत्या की गई, तब संयोग से वह भारत में ही थी। उसने उसी दिन गांधी जी का इंटरव्यू भी लिया था। यह भी संयोग है कि दुनिया के सर्वश्रेष्ठ फ़ोटो-जर्नलिस्ट कहलाने वाले ऑनरी कार्तिएर ब्रेसां भी उस दिन दिल्ली में ही थे। जैसे ही ख़बर फैली कि गांधी जी को गोली मार दी गई है, ये दोनों बिड़ला हाउस की तरफ़ दौड़े। अफरातफरी का माहौल था और ये दोनों जानते थे कि उनके पास उम्दा कम्पोज़िशंस रचने का समय नहीं है। तब उन्होंने अवाक, स्तब्ध और शोकसंतप्त भारतीयों के बीसियों चित्र उतारे। बदहवास नेहरू जी की छवियां कैमरे में क़ैद कर लीं। और जब गांधी जी की देह को अंतिम दर्शन के लिए बिड़ला हाउस की प्राचीर पर प्रदर्शित किया गया तो उस नश्वर देह के अनेक छायाचित्र उतारे। 

गांधी फ़्यूनरल फ़ोटो एलबम ने ऑनरी कार्तिएर ब्रेसां को यूरोप का सितारा फ़ोटोग्राफ़र बना दिया था। जब गांधी जी की शवयात्रा निकली तो रेडियो पर एक कमेंटेटर ने कहा- लाखों की इस भीड़ में केवल एक ही चेहरा शांत और तन्मय है- स्वयं गांधी जी का।

मुझे नहीं मालूम मार्गरेट बूर्के व्हाइट ने उस दिन क्या सोचा होगा। किंतु गांधी जी के रूप-सौष्ठव पर आसक्त वह भूरे बालों वाली युवती निश्चय ही उन्हें यों अचल देखकर संतुष्ट नहीं हुई होगी। वो तो यही चाहती होगी कि यह कर्मठ रक्तपिंड उठे और चरखा चलाने लगे, ताकि वो खिलखिलाते हुए उसकी बारहा तस्वीरें उतार सके। लेकिन गांधी जी उस दिन उसकी फ़ोटो फ्रेम्स के बाहर चले गए थे। वो अब उनको टॉर्चर नहीं कर सकती थी।

यों भी, एक निरंतर सुंदर होता गया जीवन अपने उत्कर्ष के क्षण में इससे अधिक और क्या कर सकता था कि आंखें मूंदकर मौन हो जाए?

© सुशोभित
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सरकार की प्राथमिकता में, न तो किसान हैं, और न ही कामगार ! / विजय शंकर सिंह

सोशल मीडिया पर एक फोटो और एक खबर घूम रही है कि एक किसान नेता एसी में आराम कर रहे है। उस पर बहुत से कमेंट आये। कुछ मज़ाकिया तो कुछ उपालम्भ भरे, कुछ तंजिया तो कुछ हास्यास्पद। यह सारे कमेंट, उस पूंजीवादी मानसिकता को प्रदर्शित करते है कि, कोई किसान भला कैसे एयर कंडीशन कमरे में सो सकता है। भारत का किसान यदि आज आधुनिक तऱीके से खेती कर रहा है, संगठित होकर अपने अधिकारों के लिये शांतिपूर्ण ढंग से संघर्षरत है, सरकार की तमाम उपेक्षा, उसके प्रचारतंत्र के तमाम झूठ, मक्कारी, ऐय्यारी और फ़नकारी के, अपने लक्ष्य से ज़रा भी नहीं डिग रहा है तथा लोकतांत्रिक तरीके से सरकार को बदलने की बात करता है तो, इसे देश, समाज, और किसानों की उपलब्धि के रूप में देखा चाहिए, न कि इस पर मज़ाक़ बनाना चाहिए। किसान आंदोलन की शुरुआत में ही जब अंग्रेजी पढ़े लिखे, जीन्स और आधुनिक वेशभूषा मे किसानों के युवा पुत्र और पुत्रिया, टीवी पर दिखने लगे तो, अधिकांश टीवी चैनलों ने इसका भी मज़ाक़ उड़ाया और वे 2020 - 21 के किसानों के हुजूम में, 1936 में लिखे प्रेमचंद के कालजयी उपन्यास गोदान के नायक होरी और गोबर की तलाश करते रहे। पर 1936 से आज तक दुनिया और देश मे बहुत कुछ बदल गया है। 

आज किसान जब से देश मे हरित क्रांति आयी और सरकार ने कृषि को वैज्ञानिक शोधों से जोड़ कर खेती किसानी करने को प्रेरित किया है, तब से देश के कृषि क्षेत्र का सर्वांगीण विकास हुआ है। आज़ादी के बाद ही, प्रगतिशील भूमि सुधार के रूप में उठाए गए ज़मींदारी उन्मूलन अभियान, समय समय पर होने वाली चकबंदी कार्यक्रम, कृषि विश्वविद्यालयों सहित, अलग अलग फसलों के लिये अलग अलग शोध संस्थानों की स्थापना सहित अनेक छोटे बड़े कदमो ने भारत को न केवल अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाया बल्कि हम अनाज का निर्यात भी करने लगे। यह समृद्धि पूरे देश मे एकरस नही रही, यह भी एक विपरीत पक्ष है, पर कुछ राज्य कृषि के क्षेत्र में पूरे देश भर का पेट भरने की हैसियत में आ गए।

जब देश मे 2016 में अब तक के सबसे असफल और अदूरदर्शितापूर्ण आर्थिक कदम नोटबन्दी की घोषणा की गयी तो देश के लगभग सभी उद्योगों, विशेषकर लधु मध्यम, सूक्ष्म उद्योगों, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर, रीयल एस्टेट सहित तमाम संगठित और असंगठित क्षेत्र प्रभावित हो गए पर कृषि पर उसका असर बहुत नहीं पड़ा। कृषि से जुड़े रोजगार प्रभावित तो हुए, पर वे उतने प्रभावित नहीं हुए जितने कि उद्योगों और सेवा सेक्टरों के हुए। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर तो शून्य पर आ गया। रीयल एस्टेट सेक्टर में काम लागभग आधा हो गया। इसी प्रकार जब 2020 के मार्च में कोविड की पहली लहर आयी, लॉक डाउन लगा तो भी जो आर्थिक मंदी आयी उसका असर खेती पर कम पड़ा। बल्कि सरकार ने खुद इस तथ्य को स्वीकार किया है कि, गिरती हुयी जीडीपी की दर में भी जो थोड़ा बहुत उछाल था, वह कृषि सेक्टर के काऱण था। यह उसी किसान की मेहनत का नतीजा है जिसे आज एसी में सोते हुए देख कर, उस पर तंज कसे जा रहे हैं। 

इसी के बाद पूंजीपतियों या यूं कहिये कुछ सरकार के चहेते पूंजीपतियों का गिरोह सक्रिय हुआ और कृषि सुधार के नाम पर तीन ऐसे कानून पास हुए, जिससे कृषि का कॉरपोरेटीकरण हो जाय और किसान अपनी ज़मीन का मालिक न रह कर कॉरपोरेट का एक मुलाज़िम हो जाय और कृषि जो कभी उत्तम खेती कही जाती थी, कानूनी रूप से अधम चाकरी में बदल जाए। 

नए कानून के अंतर्गत जमाखोरी के अपराध को कानूनी वैधता प्रदान करना,  न्यूनतम समर्थन मूल्य के आश्वासन को बस कागज़ पर ही बनाये रखना, ठेका खेती के जरिए जमीनों पर कॉरपोरेट द्वारा  कब्जा करने और देश के खाद्य सुरक्षा कानून को दरकिनार कर के, पूरी कृषि व्यवस्था को ही, देशी विदेशी कारपोरेट घरानों के हवाले करने की नीति, आरएसएस-भाजपा सरकार की है औऱ वे इसे ही सुधार कहते हैं। लेकिन सरकार और कॉरपोरेट की जटिल दुरभिसंधि के खिलाफ किसान एकजुट हुए औऱ सात महीने से एक शांतिपूर्ण आंदोलन के द्वारा वे, अपनी बात सरकार तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे है। सरकार, भाजपा आईटी सेल के प्रचार तंत्र द्वारा आंदोलन को बदनाम करने और उसमें तोड़-फोड़ करने की तमाम कोशिशों के बावजूद यह आंदोलन न सिर्फ मजबूती से टिका हुआ है बल्कि उसके समर्थन का दायरा भी लगातार बढ़ रहा है। 26 जून 21 को किसान आंदोलन ने अपनी एकजुटता और संघर्ष के जिजीविषा का एक और प्रमाण दिया है। किसान विरोधी तीनों कानूनों को रद्द करने, विद्युत संशोधन विधेयक 2020 को वापस लेने और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी रूप देने की मांग अब भी जोर पकड़ रही है और ‘सरकार की क्रोनी कैपिटलिज्म की नीति हर दिन एक्सपोज़  हो रही है। 

सरकार के निशाने पर न केवल किसान और कृषि सेक्टर है, बल्कि उसके निशाने पर, देश के, संगठित और असंगठित क्षेत्रो के लाखों-करोड़ों मेहनतकश मजदूर भी हैं। जैसे कृषि सुधार के नाम पर तीन कृषि कानून लाये गए, वैसे ही श्रम सुधार के नाम पर, लम्बे समय से चले आ रहे अनेक संघर्षों के बाद प्राप्त हुए, श्रम कानूनों को खत्म कर, नया लेबर कोड बनाने की प्रक्रिया को भी इसी सरकार ने अपनी दूसरे कार्यकाल में लाने का काम किया है। सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि चाहे श्रम सुधार से जुड़े कानून हों या कृषि सुधार से, उनमे कॉरपोरेट हित मे ढालने के लिये सरकार ने जो समय चुना वह, कोरोना महामारी के वैश्विक संकट काल का समय था। 2020 के  मानसून सत्र में जब विपक्ष संसद में नहीं था तब बिना किसी चर्चा के सरकार ने तीन लेबर कोड औद्योगिक सम्बंध, सामाजिक सुरक्षा और व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशाएं पास करा लिए गए। अब इन सभी कोडो की नियमावली भी सरकार ने जारी कर दी है। सरकार ने मौजूदा 27 श्रम कानूनों और इसके साथ ही राज्यों द्वारा बनाए श्रम कानूनों को समाप्त कर इन चार लेबर कोड को बनाया है। सरकार का दावा है कि सरकार के इस श्रम सुधार कार्यक्रम से देश की आर्थिक रैकिंग दुनिया में बेहतर हुई है। 

अब देखना यह है कि, सुधार के नाम पर सरकार जिन कानूनों को खत्म कर रही है, वे वास्तव में देश और जनता की तरक्की के लिए जरूरी है या सुधारों के नाम पर, इस कदम से किसान और मजदूरो के बर्बादी की नयी इबारत लिखी जाएगी। लगभग दो सौ सालों से, किसानों, मजदूरों व आम जनता ने, समय समय पर, अपने संघर्षो के फलस्वरूप, जो अधिकार, कानूनों की शक्ल में, खुद की बेहतरी के लिये सरकारों से प्राप्त किये थे, उन्हें इस आपदा में अवसर के रूप में कॉरपोरेट के इशारे पर सरकार ने छीन लिए। ऐसा भी नही है कि सरकार ने किसी प्रगतिशीलता के कारण नए श्रम और किसान कानून बनाये, बल्कि नए कानून बनाये ही सिर्फ इसलिए गए हैं कि वे कॉरपोरेट के हित मे हैं। पुराने श्रम कानूनों के खात्मे और नए लेबर कोड के पारित करने तथा, बिना किसी मांग के किसानों को उपहार में दिए गए कृषि कानूनों में सरकार की इतनी गहरी रूचि और ज़िद यह बताती है कि यह दोनो ही कदम किसी व्यापक सुधार का एजेंडा नहीं है बल्कि यह देशी विदेशी कारपोरेट घरानों के हितों के लिए ही लाये गये है।

किसान कानूनों पर बहुत कुछ लिखा गया है और उससे किसानों का क्या हित होगा, यह सरकार कई बार बता चुकी है, पर वह हित होगा कैसे, यह आज तक सरकार किसानों को बताने में असफल रही है। पर इसी अवधि में खामोशी से बने नए लेबर कानूनो को लेकर, बहुत अधिक चर्चा न तो श्रम संगठनो ने की और न ही उस पर टीवी चैनलों पर ही डिबेट हुआ। अब एक नज़र, नए लेबर कोड और उसकी नियमावली पर डालते हैं। 
● व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यदशाएं लेबर कोड के लिए बनाई नियमावली का नियम 25 के उपनियम 2 के अनुसार किसी भी कामगार के कार्य की अवधि इस प्रकार निर्धारित की जाएगी कि उसमें विश्राम अंतरालों को शामिल करते हुए काम के घंटे किसी एक दिन में 12 घंटे से अधिक न हो। यानी पहले जो 8 घन्टे का समय था उसे 12 घन्टे का कर दिया गया है। बड़ी सफाई से उसमे विश्राम की अवधि भी जोड़ दी गयी है।
● पहले यह अवधि, कारखाना अधिनियम 1948 में 9 घंटे की थी। 
● मजदूरी कोड की नियमावली के नियम 6 में भी यही बात कहीं गई है। 
● व्यवसायिक सुरक्षा कोड की नियमावली के नियम 35 के अनुसार दो पालियों के बीच 12 घंटे का अंतर होना चाहिए। 
● नियम 56 के अनुसार तो कुछ परिस्थितियों, जिसमें तकनीकी कारणों से सतत रूप से चलने वाले कार्य भी शामिल है मजदूर 12 घंटे से भी ज्यादा कार्य कर सकता है और उसे 12 घंटे के कार्य के बाद ही अतिकाल यानी दुगने दर पर मजदूरी का भुगतान किया जायेगा। 

इससे स्पष्ट है कि 1886 के शिकागो, (यूएस) में मजदूरों ने आंदोलन और शहादत से जो 'काम के घंटे आठ' का अधिकार हासिल किया था उसे भी एक झटके में सरकार ने छीन लिया। यह भी तब किया गया जब हाल ही में काम के घंटे बारह करने के गुजरात सरकार के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ऐसा ही करने पर वर्कर्स फ्रंट की जनहित याचिका में हाईकोर्ट ने जबाब तलबी की और सरकार को इसे वापस लेना पड़ा। यहीं नहीं केन्द्रीय श्रम संगठनों की शिकायत को संज्ञान में लेकर अंतराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) ने इस पर कड़ी आपत्ति दर्ज करते हुए भारत सरकार को चेताया था कि काम के घंटे 8 रखना आईएलओ का पहला कनवेंशन है, जिसका उल्लंधन दुनिया के किसी देश को नहीं करना चाहिए। इससे यह बात स्पष्ट है कि इसके बाद देश के करीब 33 प्रतिशत मजदूर अनिवार्य छटंनी के शिकार होंगे जिससे, देश मे, पहले से ही मौजूद भयावह बेरोजगारी और भी बढ़ जाएगी। हालांकि यह कानून अभी लागू नहीं हुआ है। सरकार अभी फिलहाल इस मुद्दे पर खामोश है। पर इन पर चर्चा जितनी ज़ोरदारी से होनी चाहिए उतनी जोरदारी से हो भी नही रही है। व्यावसायिक और सामाजिक सुरक्षा के लिए बने इन लेबर कोडों में ठेका मजदूर को, जो इस समय सभी कार्याें में मुख्य रूप से लगाए जा रहे है, को भी शामिल किया गया है।  पहले ही निजीकरण और डाउनसाइजिंग के कारण हो रही छंटनी की मार से कामगारो का जीवन तो दूभर हो ही रहा है,  अब इन नए लेबर कोड ने तो उन्हें औऱ भी बुरी तरह से असुरक्षित बना  दिया है। नए कोड के अनुसार 49 ठेका  मजदूर रखने वाले किसी भी ठेकेदार को श्रम विभाग में अपना पंजीकरण कराने की कोई आवश्यकता नहीं है, अर्थात उसकी जबाबदेही के लिए लगने वाला न्यूनतम अंकुश भी सरकार ने समाप्त कर दिया है। जब वह ठेकेदार श्रम विभाग में पंजीकृत ही नहीं होगा तो उस पर श्रम कानूनों की पाबंदी की मॉनिटरिंग कौन करेगा ? 

यह भी एक नियम है कि, व्यावसायिक सुरक्षा कोड के नियम 70 के अनुसार यदि ठेकेदार किसी मजदूर को न्यूनतम मजदूरी देने में विफल रहता है तो श्रम विभाग के अधिकारी नियम 76 में जमा ठेकेदार के सुरक्षा जमा से मजदूरी का भुगतान करायेंगे। यह नियम देखने मे एक बेहतर सुरक्षा कवच के रूप में लग सकता है। पर इस पर चर्चा के पहले यह भी जानना ज़रूरी है कि, ठेकेदार के जमा का स्लैब किस प्रकार से तय किया गया है।  
● 50 से 100 मजदूर नियोजित करने वाले को मात्र 1000 रूपया, 
● 101 से 300 नियोजित करने वाले को 2000 रूपया और 
● 301 से 500 मजदूर नियोजित करने वाले ठेकेदार को 3000 रूपया सुरक्षा जमा की पंजीकरण राशि जमा करना है। 

क्या इतनी कम धनराशि से, बकाया या न्यूनतम मजदूरी का भुगतान किसी संकट में या ठेकेदार के भाग जाने पर उसके मजदूरों को दिया जाना सम्भव होगा ? नियोक्ता या सरकार बीच मे कहीं नहीं है। ठेकेदार यह धनराशि मजदूर सुरक्षा के नाम पर जमा करेगा और जब वह मजदूरी देने पर विफल रहेगा तो इसी धन से मजदूरी का भुगतान होगा। यही नहीं कोड और उसकी नियमावली मजदूरी भुगतान में मुख्य नियोजक की पूर्व में तय जिम्मेदारी तक से उसे बरी कर देती है और स्थायी कार्य में ठेका मजदूरी के कार्य को प्रतिबंधित करने के प्रावधानों को ही खत्म कर लूट की खुली छूट दे दी गई है।

नए लेबर कोड्स में, 44 व 45 वे इंडियन लेबर कांग्रेस की संस्तुतियों के विपरीत,  कुछ कामगारो, जैसे आगंनबाडी, आशा, रोजगार सेवक, मनरेगा कर्मचारी, हेल्पलाइन वर्कर आदि को शामिल नहीं किया गया है। हालांकि, कुछ नए कामगारों के वर्ग, जैसे फिक्स टर्म श्रमिक, गिग श्रमिक और प्लेटफार्म श्रमिक आदि को शामिल किया गया है। इनमे से प्लेटफार्म श्रमिक वह है जो, इंटरनेट आनलाइन सेवा प्लेटफार्म पर और गिग कामगार वह है जो अर्थव्यवस्था में अंशकालिक स्वरोजगार या अस्थायी संविदा पर काम करते है। नए कृषि कानूनों में उन कारपोरेट मंडियों को लाने की योजना है जो अमेजन, फिलिप कार्ड आदि विदेशी कम्पनियों के ऑनलाइन कामगार हैं। ‘वाई-फाई क्रांति’ या पीएम वाणी कार्यक्रम की घोषणाएं भी इसी दिशा की ओर हैं।  

लेकिन इन श्रमिकों का उल्लेख औद्योंगिक सम्बंध और मजदूरी कोड में नहीं है, क्योंकि इनकी परिभाषा में ही यह अंकित है कि इनके मालिक और इन श्रमिकों के बीच परम्परागत मजदूर-मालिक सम्बंध नहीं है। इसका कारण यह है कि, इन कामगारो के मालिक विदेशों में, अमेरिका, यूरोप या किसी अन्य देश में हो सकते है। इनमें से ज्यादातर फिक्स टर्म इम्पलाइमेंट में ही लगाए जायेंगे। दिखाने के लिए कोड में कहा तो यह गया है कि फिक्स टर्म इम्पालाइज को एक साल यानी 12 महीने काम करने पर ही ग्रेच्युटी भुगतान हो जायेगी यानी उसे नौकरी से निकालते वक्त 15 दिन का वेतन और मिल जायेगा। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा हो सकेगा ? यदि कोई नियोक्ता, किसी भी कामगार को बारह महीने काम पर ही नहीं रखे तो क्या किया जा सकता है ? उसे सरकार या लेबर कोड किस प्रकार से वैधानिक संरक्षण देगा ? जैसा कि ठेका मजदूरों के मामले में अक्सर यह चालबाजी भी की जाती है कि, ठेका मजदूर एक ही स्थान पर पूरी जिदंगी काम करते है लेकिन सेवानिवृत्ति के समय उन्हें ग्रेच्युटी नहीं मिलती क्योंकि उनके ठेकेदार हर साल या चार साल में बदल दिए जाते है और वह कभी भी पांच साल एक ठेकेदार में कार्य की पूरी नहीं कर पाते जो ग्रेच्युटी पाने की अनिवार्य शर्त है।

भारतीय मजदूरों द्वारा 1920 में की गई हड़ताल के बाद, ब्रिटिश सरकार ने  ट्रेड डिस्प्यूट बिल पारित किया। तब तक 1917 मे रूसी क्रांति हो चुकी थी और दुनियाभर में श्रमिक चेतना जाग्रत हो रही थी। इस हड़ताल के बाद अंग्रेजों ने इस ट्रेंड डिस्प्यूट बिल द्वारा हडताल को प्रतिबंधित कर दिया था और हडताल करने वाले को बिना कारण बताए जेल भेज देने का प्राविधान था। बाद में 1942 से 1946 तक भारत में वायसराय की कार्यकारणी के श्रम सदस्य रहते हुए डा. बीआर अम्बेडकर ने औद्योगिक विवाद अधिनियम का निर्माण किया जो 1947 से लागू है। इस महत्वपूर्ण कानून की आत्मा को ही सरकार ने लागू किए जा रहे लेबर कोडों में निकाल दिया है। इस कानून में नियोक्ता और कामगारो के बीच विवाद होने पर वैधानिक मेकेनिज़्म बनाने की अनिवार्यता है। हड़ताल का अधिकार कोई मौलिक अधिकार नहीं है पर अपनी मांगों के लिये शांतिपूर्ण हड़ताल को विधिविरुद्ध भी नहीं माना गया है। इस कानून के अनुसार श्रम विभाग एक विधि इन्फोर्सर के रूप में था, पर नए लेबर कोड के अनुसार, श्रम विभाग के अधिकारी श्रम कानून के उल्लंधन पर उसे लागू कराने मतलब प्रर्वतन (इनफोर्समेंट) का काम नहीं करेंगे बल्कि उनकी भूमिका सुगमकर्ता (फैसीलेटर) की होगी यानी अब उन्हें मालिकों के लिए सलाहकार या सुविधाकर्ता बनकर काम करना होगा। अब वे कामगारों के हित के बजाय मालिको के हित रक्षक के रूप में दिखेंगे। किसी भी प्रकार की कोई हड़ताल, इस नई संहिता के प्रावधानों के अनुसार मुश्किल हो गयी है, साथ ही, हड़ताल के लिए मजदूरों से अपील करना भी अपराध की कोटि में आ गया है। औद्योगिक सम्बंध कोड की धारा 77 के अनुसार 300 से कम मजदूरों वाली औद्योगिक ईकाईयों को कामबंदी, छंटनी या उनकी बंदी के लिए सरकार की अनुमति लेना जरूरी नहीं है। साथ ही घरेलू सेवा के कार्य करने वाले मजदूरों को औद्योगिक सम्बंध कोड से ही बाहर कर दिया गया है।

व्यावसायिक सुरक्षा कोड की धारा 61 के अनुपालन के लिए बने नियम 85 के अनुसार प्रवासी मजदूर को साल में 180 दिन काम करने पर ही मालिक या ठेकेदार द्वारा आवगमन का किराया दिया जायेगा। अमानवीयता की हद यह है कि कोड में लोक आपात की स्थिति में बदलाव करने के दायरे को बढाते हुए अब उसमें वैश्विक व राष्ट्रीय महामारी को भी शामिल कर लिया गया है। ऐसी महामारी की स्थिति में मजदूरों को भविष्य निधि, बोनस व श्रमिकों के मुफ्त इलाज के लिए चलने वाली कर्मचारी राज्य बीमा (ईएसआई) पर सरकार रोक लगा सकती है।

यही नहीं, सातवें वेतन आयोग द्वारा तय न्यूनतम वेतन 18000 रूपए को मानने की कौन कहे सरकार ने तो लाए नए मजदूरी कोड में मजदूरों की विशिष्ट श्रेणी पर ही बड़ा हमला कर दिया है। अभी अधिसूचित उद्योगों के अलावा इंजीनियरिंग, होटल, चूड़ी, बीड़ी व सिगरेट, चीनी, सेल्स एवं मेडिकल रिप्रेंसजेटेटिव, खनन कार्य आदि तमाम उद्योगों के श्रमिकों की विशिष्ट स्थितियों के अनुसार उनके लिए पृथक वेज बोर्ड बने हुए है, जिसे नया कोड समाप्त कर देता है। इतना ही नहीं न्यूनतम मजदूरी तय करने में श्रमिक संघों को मिलाकर बने समझौता बोर्डों की वर्तमान व्यवस्था को जिसमें श्रमिक संघ मजदूरों की हालत को सामने लाकर श्रमिक हितों में बदलाव लाते थे उसे भी खत्म कर दिया गया है। याद कीजिए, जब लॉक डाउन - 1 लगा था तो सरकार ने कहा था कि वह प्रवासी कामगारो को लॉक डाउन की अवधि का वेतन कम्पनियों की तरफ से दिलाएगी। पर जब कम्पनियां धन की कमी और उद्योगों की बंदी का रोना लेकर, सुप्रीम कोर्ट गयी तो सरकार पूंजीपतियों के पक्ष में खड़ी नज़र आयी और कामगारो को उनका हक नहीं मिला। 

‘ईज आफ डूयिंग बिजनेस’ के लिए मोदी सरकार द्वारा लाए मौजूदा लेबर कोड मजदूरों के लिये घातक हैं। उद्योगों के लिये केवल पूंजी ही ज़रूरी नहीं होती है बल्कि श्रम भी उतना ही ज़रूरी होता है। कामगारो को न केवल उचित वेतन और भत्ते मिलें बल्कि उन्हें और उनके परिजनों को उचित शिक्षा, स्वास्थ्य और रहन सहन के लिये उचित वातावरण मिले। सरकारी उपक्रम अपने कामगारो को यह सब सुविधाएं देते है। पर निजी कम्पनियां, कुछ नियोक्ताओं को छोड़ कर यह सब सुविधाएं नहीं देना चाहती हैं। इस सब सुविधाओं से, कामगारो की कार्यक्षमता व क्रय शक्ति में वॄद्धि ही होगी और देश तथा समाज के उत्थान के साथ आर्थिक विषमता भी कम होगी। अन्यथा, पर्याप्त कानूनी सुरक्षा के अभाव में औद्योगिक अशांति बढ सकती है, जो औद्योगिक विकास को भी बुरी तरह से प्रभावित करेगी। कारपोरेट हितों को ही ध्यान में रख कर बनाये गए तीनों कृषि कानून और नए लेबर कोड,  पूंजी के आदिम संचय की प्रवित्ति को बढायेंगे और भारत जैसे श्रम-शक्ति सम्पन्न देश में श्रम के शोषण को ही बढ़ाएंगे।  लूट को अंजाम देंगे।

© विजय शंकर सिंह 
 

इतिहास - जजिया-घृणित कर !!

"जजिया कर भेदभावपूर्ण प्रशासन और इस्लामी शासन के दौरान, हिन्दुओ पर होने वाले अत्याचार का प्रतीक है। हिन्दुओ को जिंदा रहने के लिए जजिया देना पड़ता था। जजिया लगाने वाले शासक बुरे थे, उदाहरण के लिए औरँगजेब..."

यही सब आपने अब तक जाना, और माना है। मगर इसी रटी-रटाई धारणा,  और हिन्दू होने की आत्मदया के साथ मर जाएं, इस पोस्ट को पढ़ लेना जरूरी है। 
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कोई भी शासन प्रणाली टैक्स आधारित होती है। टैक्स उस दौर में आय के साधनों पर लगता है। टैक्स छूट भी होती है, पेनाल्टी टैक्स भी होते हैं। सब उस दौर की रियलिटीज पर आधारित होते हैं। 

तो जयचंद और पृथ्वीराज के झगड़े में गौरी का फायदा हुआ, वो लड़ाई जीत गया। अपने लोगो को गवर्नर बनाकर चला गया। उन लोगो ने आगे भारत का शासन अपने सिस्टम से चलाया। आगे का दौर दिल्ली सल्तनत का काल है। इस दौर में पांच किस्म के टैक्स थे- खिराज, खिज्र, खम्स, जकात और जजिया

पहले दो टैक्स किसान और व्यापारी देते थे। जीएसटी समझ लीजिए, सब पर लागू था। खम्स- लूट का माल था। 

छोटे छोटे राज्य थे, सेना पर्मानेंट, सैलरीड नही थी। आप किसान भी थे, सुल्तान की कॉल आने पर अपना भाला उठाकर लड़ने भी जाते थे। तो लड़ने के दौरान भत्ते मिलते, और लूट के माल में हिस्सा भी। बाकायदा सिस्टम था। लूट में 80% आपका (सेना का), 20% राजा (राजकोष) का। यह 20% ही खम्स था। 

यह मत सोचिये की लूटपाट के केवल मुस्लिम राजा करते थे, क्योकि बुरे थे। इंद्र द्वारा अनार्यों को गायें और धन लूटकर लाने के किस्से ऋग्वेद में हैं।मराठे तो बेसिकली लूट की आदत से ही अलोकप्रिय रहे, और तीसरे पानीपत में एलायंस नही मिला।

तो राजाओ के काल में यह स्टेंडर्ड प्रेक्टिस थी। अच्छा बुरा जज मत करें। बल्कि मुस्लिम शासकों में अच्छी बात यह थी, की लूट की बंदरबाट नही होती थी, कम से कम उंसके बंटवारे का एक सिस्टम था। खम्स निर्धारित था। 
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बचा जकात और जजिया। ये धार्मिक कर थे। जकात मुसलमान और जजिया गैर मुसलमान देते, फंडा दोनों का अलग था। 

जकात का पैसा, मस्जिद बनाने, इमामों की तनख्वाहें, मदरसे आदि चलाने में जाता। यह पैसा सरकार टैक्स के रूप में वसूलती, धार्मिक पर्पज में लगाती। यह शायद आय का 2.5% था। 

जजिया का पैसा गैर मुस्लिम देते। एक दौर में यह 48-24-12 दिहरम था। याने धनवान गैर मुस्लिम 48 दिहरम, कम धनवान 24 दिहरम, साधारण लोग 12 दिहरम वार्षिक देते। आय विहीन, अपंग, औरत, बच्चे, पुरोहित इससे एग्जेम्प्टेड थे ( पॉइंट टू बी नोटेड) 

क्यों देते थे?? इसलिए कि गैर मुस्लिम को युद्ध के समय लड़ने के लिए सुल्तान की कॉल नही आती थी। इसलिए कि सुल्तान बाबू, जब लड़ते, तो अमूमन लोकल राजाओं के विरुद्ध ही लड़ते, जो गैर मुस्लिम थे। तो अपनी फ़ौज में वे गैर मुस्लिम कैसे रखते। यह एक तरह से सुल्तान की सेवा में कमी थी, जजिया से वह कम्पसेट होता था। 
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तो जजिया देकर, आपको सुल्तान की सेना में जाकर जान जोखिम में डालने से आपको भी मुक्ति मिल जाती थी। दोनों पक्षो के लिए एक कनवेनिएंट अरेंजमेंट था। जजिया, लेकिन अलग ही प्रोपगंडा का शिकार होता गया, आज ही नही, तब भी। 

अकबर ने जजिया हटा लिया, यह उसकी लोकप्रियता का कारण था। मगर यह भी नोटिस किया जाए, की तब हिन्दू भी बढ़चढ़कर सल्तनत के लिए सेना में भर्ती होकर लड़ने भी लगे थे। 

याद रहे, अगर सुल्तान का आप पर फेथ है, तो आप सेना जॉइन कर सकते थे, और जजिया एग्जेम्प्ट हो जाता है। 
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धर्म आधारित टैक्स, आज मॉर्डन युग मे गलत माने जाते है। जजिया बन्द हो गया है, मगर जकात कई देशों में लागू है। लोग खुशी से देते हैं। भारत मे बहुत से मुसलमान, आज भी कमाई में जकात अलग कर देते हैं, गरीबो में, या धार्मिक पर्पज में दान कर देते है। इधर गुजरात रेजिमेंट नही है, मगर वहां से कोई जजिया नही देता। (सॉरी, रॉन्ग कमेंट 😋) 

तो इतिहास में किसी भी चीज को टोटेलिटी में जानिए, समझिये। बिट्स एंड पीसेज में सुनी सुनाई बातों में धारणा मत बनाइये। इसलिए कि इस टुकड़े टुकड़े सोच से, इतिहास तो बनने बदलने वाला नही

हमारा भविष्य जरूर बिगड़ता दिखाई दे रहा है।

मनीष सिंह
© Manish Singh
#vss

अफ्रीकी गुलाम महिलाओं की त्रासदी.

गुलामों की खरीद-फरोख्त के करीब 350 साल के इतिहास में अफ्रीका के करीब पचास लाख काली औरतों को उनके घरों से उठा कर दुनिया के अलग-थलग कोनों में फेंक दिया गया जहाँ उन्हें नरक से भी बदतर परिस्थितियों में जानवरों जैसा जीवन मिला. लम्बी समुद्री यात्राओं में इन गुलाम स्त्रियों को मोटा अफ्रीकी चावल खाने को मिलता था. इस चावल का स्वाद उन्हें उनकी मातृभूमि की स्मृतियों से जोड़े रखता. 

ठिकाने लगा दिए जाने के बाद इन्हें गन्ने और कॉफ़ी के अमेरिकी और यूरोपियन प्लान्टेशनों में जोत दिया जाता. इन जगहों पर एशियाई मूल का सफ़ेद चावल पहले से ही पहुँचाया जा चुका था. यह चावल अफ्रीकी चावल के मुकाबले बेस्वाद तो होता ही था उसकी न्यूट्रीशनल वैल्यू भी कम होती थी.

अफ्रीका और ख़ास तौर पर अफ्रीका के पश्चिमी तटों से लगे विस्तृत इलाकों में काले छिलके वाले चावल की खेती किये जाने का आठ से नौ हजार साल का इतिहास खोजा जा चुका है. धान रोपने से लेकर चावल माड़ने तक की लम्बी और जटिल प्रक्रियाओं को काली स्त्रियों ने साध रखा था. उनके खेत उनके मंदिर थे. यह उनकी नैसर्गिक समझ और प्रकृति के ज्ञान का नतीजा था कि उनका चावल विषम से विषम परिस्थितियों में उग जाता था.

अजनबी परिवेश में गुलाम बनाये जा चुकने के बावजूद उन्होंने अपनी पुरखिनों द्वारा अर्जित किये गए पारम्परिक ज्ञान को महफूज रखने का हर संभव जतन किया. गोरों द्वारा जबरन कब्जाए जाने के बाद अमेरिका और गोरे उपनिवेशों वाले जिस संसार को उन्होंने अपने मजबूत शरीरों की मशक्कत के बल पर आकार दिया उसे न्यू वर्ल्ड कहा गया. अटपटे स्वाद वाला भोजन परोसे जाते समय इस न्यू वर्ल्ड में उन्हें अपने घर की रसोई का स्वाद याद आता था.

फिर यूँ हुआ कि समूचे न्यू वर्ल्ड में अफ्रीकी चावल उगने लगा. 

पश्चिमी अफ्रीका की औरतें अपने बालों की लटों में धान के बीज गूंथ कर रख सोया करती थीं. क्या मालूम कब उन्हें बेच दिया जाय, किस ठौर फेंक दिया जाय!

इस तरह अजनबी मुल्कों में बनाई गयी अपनी रसोइयों में उन्होंने खुशबू पैदा की. चूंकि मालिकों द्वारा अपने गुलामों को किसी तरह का श्रेय दिए जाने की परम्परा नहीं थी उनकी इस उपलब्धि को अमरीकी इतिहास में बीस-तीस साल पहले तक दर्ज तक नहीं किया गया था. अब दुनिया भर के कृषि विश्वविद्यालय चावल का नया इतिहास लिख रहे हैं.

आज आप काली औरतों को दुनिया फतह करते हुए देखते हैं तो उनके चेहरों पर गौर करें. उनकी चमकदार आभा धान के उन बीजों से आई है जिसे उनकी बेनाम परदादियाँ-परनानियाँ और उनकी भी परदादियाँ-परनानियाँ अपनी जटाओं में छुपा कर लाई थीं ताकि उनकी सन्ततियों के घर-भंडार भरे रहें. ताकि कल उनका हो सके!

अशोक पांडेय 
© Ashok Pandey 
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Sunday 27 June 2021

यूरोप का इतिहास (18)

कौन सी नस्ल सर्वश्रेष्ठ है ? द्वितीय विश्व-युद्ध का मुख्य प्रश्न तो यही उभरा। मान्यता तो यही बनी थी कि सबसे ताकतवर जर्मन आर्य, और सबसे कमजोर यहूदी। विश्व-युद्ध के बाद क्या हुआ? 

यहूदियों ने तो अपनी बल और बुद्धि, दोनों ही सिद्ध कर दी। जर्मन मुँह के बल गिरे। बर्लिन चार टुकड़ों में टूट गया। 

लेकिन, जर्मनी की एक ताकत थी, जो यहूदियों में भी थी। उनकी एकता और उनका जुझारूपन। ये दोनों ही नस्ल गिर-गिर कर खड़े होते आए थे। इतिहास में कई बार। जर्मनी प्रथम विश्व-युद्ध के बाद जितनी तेजी से खड़ा हुआ, उसी तरह द्वितीय विश्व-युद्ध के बाद भी जी-जान लगा दी। मैं नोबेल पुरस्कार की बात कर रहा था कि यूरोप के अधिकांश देश युद्ध के बाद दो दशक तक नहीं जीत सके। जर्मनी ने इन दो दशकों में अठारह विज्ञान नोबेल जीते! 

यह बात अमरीकियों ने भी मानी, कि जितना धन उन्होंने पश्चिम जर्मनी पर लगाया, उससे कहीं अधिक वहाँ उत्पादन होने लगा। जर्मन लोग फैक्टरियों में खूब पसीना बहाते, और ईमानदारी से काम करते। यह आदत उन्हें हिटलर ने भी लगा दी थी। युद्ध के पहले तीन वर्ष में जर्मनी अपनी शानदार स्थिति में था। आज भी जर्मन चाहे कितने भी अक्खड़ हों, उनका काम पक्का होता है।

बाकी के यूरोप के साथ लाटसाहबी आने की एक वजह थी उनके उपनिवेश। उनको अफ्रीका, एशिया, और कैरीबियन की रोटी खाने की आदत पड़ गयी थी। उनके पास यह बैक-अप था, जो जर्मनी के पास नहीं था। लेकिन, कब तक?

इंग्लैंड की अकड़ तो तभी हवा हुई जब सिंगापुर में उन्हें जापानी सेना ने आत्मसमर्पण कराया। अब उनके पास राज करने का आत्मविश्वास नहीं रहा। उन्होंने जैसे-तैसे भारत को जापानी सेना से बचा लिया था, लेकिन यह बात सिद्ध हो चुकी थी कि ‘ग्रेट ब्रिटेन’ अब ग्रेट नहीं रहा।

अफ्रीका में बंदरबाँट अगले कुछ दशकों तक चलती रही। वहीं, फ्रांस का हिन्द-चीन (वियतनाम) मोह नहीं जा रहा था। हो ची मिन्ह के विद्रोह के बाद भी उन्होंने अपनी ताकत लगा रखी थी। फ्रेंच फौजियों में भी अब जोश नहीं बचा था, तो उन्होंने शीत-युद्ध का हौवा खड़ा कर अमरीका को इस ‘वाटरलू’ में घुसेड़ दिया। उसका हश्र क्या हुआ, वह भिन्न विषय है।

यूरोप को अब यह सब मोह छोड़ कर अपने बल पर खड़ा होना था। नयी दुनिया इस तरह उपनिवेशों का बोझ लिए नहीं चल सकती थी। उन्हें अपनी पूरी आर्थिक संरचना को कुछ यूँ बदलना था कि लंबा टिके और कोई वर्ग-संघर्ष न जन्म ले।

पहला आधुनिक जनकल्याणकारी राज्य जर्मनी के चांसलर बिस्मार्क ने बनाया था, जो अडोल्फ हिटलर के समय अधिक मुखर हो गया। हिटलर ने अपने देशवासियों को जो वेलफेयर सिस्टम दिया, कमो-बेश वही आज के विकसित यूरोप में भी नजर आता है। भले अब यह क्रेडिट कोई देने से भी कतराए, लेकिन अमीरी-गरीबी के भेद को मिटाने में हिटलर की योजनाओं का महत्व है। ‘सोशलिस्ट’ लहर पूरे यूरोप में उस समय से ही कायम है, जो ‘कम्युनिस्ट’ और अमरीकावादी लहर से अलग चली।

इसका कंसेप्ट साधारण था। पूरे मेहनत से उद्योग खड़े किए जाएँगे, उत्पादन होगा, और जो पूँजी निकल कर आएगी, उससे देश के बच्चों, बूढ़ों और रोगियों का खर्च निकाला जाएगा। शिक्षा और स्वास्थ्य सरकार की जिम्मेदारी होगी। पूंजीवाद पोषित समाजवादी लोकतंत्र या ‘मॉडर्न वेलफेयर स्टेट’।

अगर इटली का उदाहरण लें, तो उन्होंने देखा कि रोम के दक्षिण देश के अस्सी प्रतिशत गरीब रहते हैं, जहाँ अशिक्षा, बेरोजगारी और अपराध सबसे अधिक है। उन्होंने अगले दो दशक उन पर लगा दिया। उत्तरी इटली की पूंजी दक्षिण पर खर्च की गयी, वहाँ विकास की लहर चली, और परिणाम दिखने शुरू हो गए।

ऐसा नहीं कि यूरोप एक भ्रष्टाचार-मुक्त, अपराध-मुक्त, अति-शिक्षित समाज था, इसलिए एशिया से आगे बढ़ा। ऐसी स्थिति तो आज भी नहीं है। यूरोप ने स्वयं को वर्ग-संघर्ष से मुक्त और उससे जुड़ी राजनीति से मुक्त ज़रूर काफी हद तक कर लिया। (क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

यूरोप का इतिहास (17)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/17.html 
#vss

यूरोप का इतिहास (17)

अधिकतर बूढ़े यूरोपीय उस काल का वर्णन करते हैं, तो लगता है कि किसी अविकसित देश की बात कर रहे हों। न उनके पास गाड़ी थी, न फ़्रिज, न टेलीविजन। लगभग सभी घरों में एक तहख़ाना तो आम है ही। सब्जियाँ भी वह कम ही खरीदते थे, क्योंकि उनको जमा करने की जगह नहीं थी। उत्तरी यूरोप (नॉर्वे/स्वीडन) को छोड़ दें तो बाकी यूरोप को युद्ध से उबरने में दो दशक लग गए।

“हम फ़िल्म बहुत देखते थे”

नीदरलैंड के एक बुज़ुर्ग ने मुझे बताया। यह बात अजीब लगी कि युद्ध के बाद कोई फ़िल्म देखना चाहेगा। शायद काम के बाद थक कर यही एक मनोरंजन हो।विश्व-युद्ध के बाद से उस युद्ध पर फ़िल्म बने ही जा रही है। यह फ़िल्म उन्हें दिखाया भी जा रहा था!

यूरोपियों को हिटलर से इतनी घृणा या मन में ग्लानि न भी होती। हिटलर-प्रेमी तो पूरी दुनिया में पसरे थे। केनेडी परिवार के हिटलर-प्रेम की मैंने चर्चा की है। भारत के कई नेता भी हिटलर और मुसोलिनी में भविष्य देखते थे। मसलन नेताजी सुभाष चंद्र बोस का ही उदाहरण लें। जब नाजीयों की सजा तय करने के लिए टोक्यो ट्रायल हुआ, तो उसमें भारतीय न्यायाधी़श राधाबिनोद पाल ने ही कुछ हद तक नाजीयों का पक्ष लिया। मरहूम इरफ़ान ख़ान ने उस विषय पर बनी सीरीज़ में वह किरदार खूब निभाया है।

हिटलर से घृणा जन्मी फ़िल्मों से, जो हॉलीवुड में बैठे यहूदी बना रहे थे; अथवा पूर्वी यूरोप और दक्षिण यूरोप के कम्युनिस्ट फ़िल्मकार बना रहे थे। उन्होंने उस काल पर किताबें भी खूब लिखी। ‘होलोकॉस्ट’ जैसे घृणित कार्य का ख़ामियाज़ा हिटलर को भुगतना पड़ा। अन्यथा अगर वह यहूदी-विरोधवाद नहीं अपनाते, और सिर्फ युद्ध लड़ते तो संभव है कि यहूदी उनकी मदद भी करते। यह बात कोई रहस्य नहीं कि प्रथम विश्व-युद्ध के समय यहूदी मुख्य हथियार डीलर थे।

अब यूरोप को अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए तीन चीजों की जरूरत थी- धन, जनसंख्या और...धर्म।

विश्व-युद्ध के बाद कैथोलिक चर्च की शक्ति बढ़ती चली गयी। पहली बात कि प्रोटेस्टेंट चर्च का बड़ा हिस्सा सोवियत के नियंत्रण में चला गया था, तो क्या बढ़ता? दूसरी बात कि कैथोलिक चर्च के पास धन भी था, और राजनैतिक शक्ति भी। तीसरी बात कि साम्यवाद को रोकने के लिए चर्च एक हथियार था। बल्कि एक समय तो इटली के चर्चों ने घोषणा कर दी कि साम्यवादियों का बहिष्कार करो। चौथी बात कि अमरीका और ख़ास कर यहूदियों के प्रभाव को रोकने में भी चर्च ने भूमिका निभायी। पाँचवी बात यह कि ईसाई जनसंख्या बढ़ाने या ‘बेबी बूम’ के पीछे भी चर्च था।

यूरोप की पुरानी पीढ़ी को देखता हूँ तो बड़े परिवार नजर आते हैं। सात-आठ भाई-बहन वाले। युद्ध से पहले यूरोप में परिवार नियोजन किया जा रहा था, और छोटे परिवार प्रचलित हो रहे थे। युद्ध के बाद तो फ्रांस में सबसे अधिक बिकने वाली चीजों में बच्चों के सामान थे। उन्होंने वाकई युद्धस्तर पर ही बच्चे पैदा किए। ज़ाहिर है, इतने लोग मरे थे, और इतना अधिक काम बचा था, कि उन्हें अगली पीढ़ी तैयार करनी ही थी।

रही बात धन की। वह नहीं था। पहले दो दशक तक यूरोप कुछ मानकों में गरीब ही रहा। बारह-तेरह साल के बच्चे फैक्टरी में नौकरी करने लगे थे। 1951 में इटली में हर नौ बच्चों में सिर्फ एक बच्चा तेरह वर्ष के बाद स्कूल गया। मैंने अपनी पिछली शृंखला में सोनिया गांधी के स्कूली जीवन की चर्चा की है। ग्रैजुएट तो गिने-चुने ही हुए, अधिकांश कामचलाऊ नौकरी लायक ही हुए। आप अगर 1945 से 1965 तक के नोबेल पुरस्कार की सूची देखें, तो उसमें ऑस्ट्रिया, फ्रांस जैसे देशों से कोई मिलेगा ही नहीं। जबकि उसके बाद नोबेल ही नोबेल हैं। यूरोप के नोबेल वाले अधिकांश यहूदी थे, जो वहाँ बचे ही नहीं थे। 

दरअसल, शून्य से राष्ट्र को उठाने के लिए लाखों ग्रैजुएट जरूरी भी नहीं, बल्कि कामकाजी मजदूरों और स्वावलंबी लोगों की जरूरत है। इस बात पर गांधी ने भी शिक्षा-पद्धति में जोर दिया, भले भारत गैजुएट पैदा करने की होड़ में वर्षों तक रहा। खैर, भारत तो बड़ा देश है और हर तरह के लोग मिल जाते हैं।

यूरोप के लोग दशकों तक युद्ध के भय से भी जीते रहे। उन्हें लगता रहा कि तीसरा विश्व-युद्ध भी होकर रहेगा। वह इसकी तैयारी भी करने लगे थे। यही कारण था कि सोवियत और अमेरिका के एटम बम योजना की सुन कर इंग्लैंड और फ़्रांस भी अपने एटम बम बनाने लगे। एटम बम एक गारंटी थी कि फिर कभी विश्व-युद्ध नहीं होगा। और ऐसा ही हुआ। तृतीय विश्व-युद्ध कभी नहीं हुआ।
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

यूरोप का इतिहास (16)
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Saturday 26 June 2021

कोरोना महामारी का कामकाजी महिलाओं पर क्या प्रभाव पड़ा है - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

कोविड 19 के संक्रमण का असर, विशेषकर दूसरी लहर के दौरान, बड़ी संख्या में मौतों के रूप में हुआ है, और इसका असर कोरोनोत्तर काल आर्थिक स्थिति पर भी पड़ रहा है। इसमे भी, इसका सबसे बुरा असर, बेरोजगारों और लोगों की नौकरियों पर पड़ा है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2020 के जून माह तक दुनियाभर में 400 मिलियन लोग अपनी नौकरियां खो चुके थे। आईएलओ के आंकड़ो के अनुसार, सबसे अधिक प्रभाव कामकाजी महिलाओं की नौकरियों पर पड़ा है। इसका काऱण यह है कि, महिलाओं को जिन सेक्टर्स में नौकरियां मिलती हैं, वे इस महामारी जन्य आर्थिकि दुरवस्था से बहुत ही अधिक प्रभावित हुयी हैं। जून 2020 में आईएलओ ने उन सभी आर्थिक सेक्टरों का एक सर्वेक्षण अध्ययन प्रकाशित किया है, जिन पर इस महामारी का असर पड़ा है। आईएलओ ने ऐसे कुल 14 आर्थिक सेक्टर की पहचान की है, और उन पर पड़े असर को, सबसे अधिक प्रभावित, मध्यम प्रभावित और सबसे कम प्रभावित, की तीन श्रेणियों में बांट कर उनका अध्ययन किया है। सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों में, रीयल स्टेट, प्रशासनिक गतिविधियां, आवास और खानपान सेवाएं, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर, होलसेल और फुटकर व्यापार, मोटर गाड़ियों की मरम्मत और उनके कारखाने, रखे गए हैं। इन क्षेत्रों में सबसे अधिक व्यवधान पड़ा भी है। इसी प्रकार, कला, मनोरंजन और आमोद प्रमोद से जुड़े क्षेत्रो को मध्यम प्रभावित क्षेत्र में रखा गया है। इसके अतिरिक्त मध्यम प्रभावित क्षेत्रों मे, निर्माण, वित्तीय और बीमा संस्थान, खनन आदि भी रखे गये हैं। खेती और कृषि से जुड़ी अन्य गतिविधियां सबसे कम प्रभावित क्षेत्रों में आती हैं। इसमे, जनस्वास्थ्य, सामाजिक कार्य, शिक्षा, जन उपयोगी गतिविधियां, लोक प्रशासन, रक्षा और अनिवार्य सेवाएं रही हैं। 

इंडियन पोलिटिकल ड्रामा वेबसाइट के लिये आर्थिक मामलों पर लगातार लिखने वाली धृतिश्री ने एक बेहद तथ्यपूर्ण लेख लिख कर इस त्रासदी का कामकाजी महिलाओं पर क्या असर पड़ा है, की गम्भीर विवेचना की है।  अक्सर हम बेरोजगार युवाओं की बात करते हैं पर, यह भूल जाते हैं कि देश मे कामकाजी महिलाओं की संख्या भी कम नहीं है और उनका अनुपात लगातार बढ़ता जा रहा है। विशेषकर, शिक्षा, हॉस्पिटैलिटी, मेडिकल, शोध, कम्प्यूटर, इलेक्ट्रॉनिक, और अन्य उन क्षेत्रों में जहाँ प्रत्यक्ष श्रम की ज़रूरत कम पड़ती है, उनकी संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुयी है। घरेलू काम करने वाले सेक्टर को तो अलग ही रख दीजिए, जहां यह काफी संख्या में हैं। यह कामकाजी महिलाएं, न केवल अपने पुरुष सहकर्मी के साथ कंधा से कंधा मिला कर कार्य कर रही हैं, बल्कि वे अपने अपने क्षेत्र में, वे कहीं कहीं शिखर पर भी हैं। यह लेख, भारत में, उन्ही कामकाजी महिलाओं के ऊपर पड़ रहे कोरोनोत्तर दुष्प्रभावों का एक अध्ययन है। पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे (पीएलएफएस) 2018-19 और आईएलओ की रिपोर्ट जो कोविड 19 के विविध सम्भावित दुष्प्रभावों पर है, को मिला कर अध्ययन करते हैं तो, कामकाजी महिलाओं के समक्ष रोजगार जन्य जो चुनौतियां हैं, वे स्वतः स्पष्ट हो जाती हैं। पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे भारत सरकार के सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन विभाग द्वारा हर साल जारी किया जाता है। पीएलएफएस की 2017-18 की रिपोर्ट के अनुसार, जो देश मे कुल 1,01,579 जिंसमे, 55,812 ग्रामीण क्षेत्रो में और 45,767 शहरी क्षेत्रों के घरों के सर्वे पर आधारित है पर यह अध्ययन आधारित है। 

आईएलओ मॉनिटर कोविड 19 एंड वर्ल्ड ऑफ वर्क के तीसरे संस्करण में, जो 29 अप्रैल 2020 को और पीएलएफएस के सर्वे 2017-18 में जो अध्ययन के परिणाम दिए गए हैं, उनमें कामकाजी महिलाओं औऱ पुरुषों के बारे में, उन्हें पांच श्रेणियों में बांट कर उनका अध्ययन किया गया है। उसके अनुसार, पुरूष 24% और महिलायें 33% सबसे अधिक प्रभावित होने वाले आर्थिक क्षेत्रो में काम करते हैं। सबसे अधिक प्रभावित होने वाले क्षेत्रों का विवरण ऊपर दिया गया है। कोरोना से प्रभावित इन क्षेत्रों के आंकड़े जहां शहरी इलाक़ो में बढ़ रहे हैं वहीं वे ग्रामीण इलाक़ो में कम हो रहे हैं। शहरी क्षेत्रों में, 39% महिलाएं और 31% पुरुष सबसे अधिक प्रभावित होने वाले आर्थिक सेक्टरों में हैं। 

ग्रामीण इलाक़ो में महिलाओं के लिये यह प्रतिशत गिर कर 14% और पुरुषों के लिये 20% हो गया है। यह आंकड़ा ग्रामीण इलाक़ो में इसलिए कम हो गया है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रो में अधिकतर रोजगार कृषि सेक्टर ही देता है, जिस पर इस महामारी का आर्थिक दुष्प्रभाव कम पड़ा है। महिलाओं को अधिकतर काम देना वाला सेक्टर कृषि है, जो 68% महिलाओं को, ग्रामीण क्षेत्रो में काम देता है। कृषि सेक्टर आपदा से प्रभावित होने वाले सेक्टरों में सबसे कम प्रभावित होने वाला सेक्टर है। यह प्रवित्ति केवल भारत मे ही नही, बल्कि पूरे विश्व की है। कृषि क्षेत्र में काम करने वाले पुरुषों की संख्या 49% है। इसी प्रकार शहरी क्षेत्रों में शिक्षा, लोक प्रशासन और स्वास्थ्य सेक्टर जिन पर महामारी - बाद का प्रभाव कम पड़ा है में काम करने वाली महिलाओं का प्रतिशत 32% और पुरुषों का 13% है। उपरोक्त आंकड़ो के अध्ययन से एक बात स्पष्ट होती है कि, महामारी - बाद दुष्प्रभावों से सबसे अधिक पीड़ित होने वाले आर्थिक सेक्टर में पुरुषों का अनुपात, महिलाओं की तुलना में बहुत अधिक है। जबकि, कम प्रभावित सेक्टरों में महिलाओं की संख्या, उनके पुरूष सहकर्मियों की तुलना में अधिक है। 

हाल ही में सीएमआईई द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार, पुरुषों की तुलना में कामकाजी महिलाओं को कोविड काल के बाद अपनी खोई हुई नौकरियों को, दुबारा पाने के लिये अधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। वे पुरुषों की तुलना में अपनी नौकरिया दुबारा वापस कम ही पा सकीं हैं। लगभग 22% कामकाजी महिलाएं, अब भी अपना छूटा हुआ, काम वापस नहीं पा सकीं हैं, जबकि, पुरुषों में यह प्रतिशत 15 है। हालांकि, कोरोना पूर्व की स्थिति में भी, 95% कामकाजी महिलाएं असंगठित क्षेत्र में काम करती थीं, ओर उनका वेतन, पुरुषों की तुलना में 34% कम था। यह भी कहा जाता है कि, अधिकतर कामकाजी महिलाएं, पुरुषों की अपेक्षा, कम जोखिम और खतरनाक कामों में काम करती हैं। पर उन्हें काम भी तो, अधिकतर असंगठित क्षेत्रों में ही मिलता हैं, जहां उन्हें वेतन भी कम मिलता है। अब हम कोविड के बाद कामकाजी महिलाओं पर कोरोनाजन्य आर्थिक मंदी का क्या असर पड़ा है, इसकी समीक्षा करते हैं। 

धृतिश्री अपने अध्ययन लेख में उल्लेख करती हैं कि, 
" भारत के शहरी इलाक़ो में कामकाजी महिलाओं का एक बहुत बड़ा हिस्सा, मैन्युफैक्चरिंग उद्योग के बाद, कला, शिक्षा, मनोरंजन उद्योग, और अन्य सेवाओ में कार्यरत है। सबसे अधिक महिलाओं को रोजगार देने वाले उपरोक्त तीन सेक्टरों में से दो सेक्टर अत्यधिक प्रभावित और मध्यम प्रभावित क्षेत्रों में आते हैं।"
अध्ययन से पता चलता है कि, उपरोक्त सभी सेक्टरों में से मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में सबसे अधिक संख्या में, लगभग 20%, कामकाजी महिलाएं कार्यरत थीं। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का विकास कोरोना के आने के पहले से ही बुरी तरह से प्रभावित हो चुका था।

सीएमआईई की ही रिपोर्ट के अनुसार, ग्रामीण इलाकों में, फिलहाल, कृषि सेक्टर में सबसे अधिक कामकाजी महिलाएं हैं, जिनका प्रतिशत 63% है। इसके बाद शिक्षा में 10.1%, मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में 9.9%, है। उपरोक्त तीनो आर्थिक सेक्टरों में दो आर्थिक सेक्टरों पर कोरोनोत्तर आर्थिक प्रभाव, कम या मध्यम रूप से पड़ा है। शहरी और ग्रामीण इलाकों के इन आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि, यदि हम सबसे अधिक प्रभावित और मध्यम प्रभावित आर्थिक सेक्टरों की बात करें तो, शहरी इलाकों में, 56% और ग्रामीण इलाकों में, 19% कामकाजी महिलाएं, इस श्रेणी में कोरोनोत्तर आर्थिक दुष्प्रभाव से पीड़ित हैं। अतः यदि हम केवल शहरी इलाक़ो की अर्थव्यवस्था के ही आंकड़ों के अनुसार, इस अध्ययन को केंद्रित करें तो, शहरों में काम करने वाली महिलाओं पर, ग्रामीण इलाक़ो की तुलना में अधिक संकट आया है। यदि हम अधिक जोखिम वाले सेक्टरों में, कम वेतन पर काम करने वाली महिलाओं के, संकट के बारे में अध्ययन करें तो कम वेतन और कम बचत के कारण वे इस आर्थिक संकट में अपने पुरूष सहकर्मियों की अपेक्षा सबसे अधिक पीड़ितों की श्रेणी में हैं।  

पीएलएफएस के 2017-18 "की रिपोर्ट में आय के आंकड़े उपलब्ध नहीं है, अतः अध्ययन के लिये प्रति व्यक्ति व्यय के परसेंटाइल को, इस अध्ययन का आधार बनाया गया है। प्रति व्यक्ति व्यय को, अध्ययन के लिए, पांच परसेंटाइल सेगमेंट में विभक्त किया गया है। ये हैं, शून्य से 20, 20 से 40, 40 से 60 के सेगमेंट और सबसे शीर्ष पर, 20 परसेंटाइल वाला सेगमेंट रखा गया हैं। शून्य से 20 परसेंटाइल वाले सेगमेंट में लगभग 44% वे कामकाजी महिलाएं हैं जो, हाई रिस्क या अत्यधिक प्रभावित क्षेत्रों में काम करती हैं। कम जोखिम वाले क्षेत्रों में काम करने  वाली महिलाओं का प्रतिशत 16 है। उसी प्रकार, लगभग 52% कामकाजी महिलाएं, उच्चतम स्तर पर 20 परसेंटाइल की श्रेणी में हैं, जो कम जोखिम वाले कामो में लगी हैं, और इसी सेगमेंट में 27% वे कामकाजी महिलाएं हैं जो, अधिक जोखिम वाले कामों में कार्यरत हैं। इस प्रकार, 52% कामकाजी महिलाएं, जो सम्पन्न परिवारों से आती हैं  और कम जोखिम के कामो में कार्यरत हैं, और 44% कामकाजी महिलाएं, जो अधिक जोखिम वाले कामों में कार्यरत हैं , पर वे अपेक्षाकृत गरीब परिवारों से आती हैं, जो महामारी से अधिक प्रभावित हैं। 

20 परसेंटाइल के सेगमेंट में, कम जोखिम वाले कार्यो में कार्यरत महिलाओं की संख्या कम है। इसके विपरीत, शीर्ष 20 परसेंटाइल वाले सेगमेंट को छोड़ कर, अन्य सभी सेगमेंट में अधिक जोखिम वाले कार्यो में कार्यरत, कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत 40 से अधिक है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत सबसे अधिक, 28% है, जो सबसे कम परसेंटाइल और शीर्ष परसेंटाइल, दोनो सेगमेंट में आते हैं। यह सेक्टर आर्थिक संकट को लेकर, सबसे अधिक जोखिम वाले कामकाज से भी जुड़ा है। इसी प्रकार, कला, मनोरंजन, और अन्य कम आय वाले सेगमेंट में, 19% महिलाएं कार्यरत हैं जो मध्यम और अधिक प्रभावित क्षेत्रों में से हैं। 

इसके विपरीत, शीर्ष आय वर्ग की 32 प्रतिशत कामकाजी महिलाये, शिक्षा के क्षेत्र में हैं, जिसमें कोरोना महामारी के कारण अन्य सेक्टरों की तुलना में, कम जोखिम रहा है।  शीर्ष आय वर्ग में महिलाओं की अगली बड़ी भागीदारी (11 प्रतिशत) एक अन्य कम जोखिम वाली श्रेणी, यानी मानव स्वास्थ्य और सामाजिक कार्य गतिविधियों के क्षेत्र में है। इससे एक अलग और विशिष्ट बात प्रमाणित होती है कि, निम्न आय वर्ग की लगभग 63 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं उच्च जोखिम और मध्यम उच्च जोखिम वाली नौकरी में हैं जबकि शीर्ष आय समूह में 39 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं उच्च जोखिम और मध्यम उच्च जोखिम वाली नौकरी में हैं।

एक अन्य अध्ययन से यह तथ्य प्रकाश में आया है कि मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर, उद्योग का एक विशाल क्षेत्र है, जिसमें अन्य औद्योगिक उत्पादों के अतिरिक्त, खाद्य, रबर, रासायनिक उत्पादों आदि का निर्माण भी सम्मिलित है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर की वे कामकाजी महिलाएं, जो आमदनी के निचले स्तर पर हैं, भारत में परिधान, वस्त्र और तंबाकू के निर्माण में प्रमुख रूप से सलग्न हैं।  यह नौकरियां छोटी, कम वेतन वाली और अस्थिर प्रकृति यानी मौसमी स्वभाव की हैं।  इसलिए, ऐसे उद्योगों की महिलाओं को पर्याप्त मजदूरी भी प्राप्त नहीं होती है, जिसके कारण वे, आय स्तर के निचले पायदान पर बनी रहती है और, उनकी असंगठित क्षेत्र के समान नौकरी  की यह प्रकृति उन्हें आर्थिक संकट के अंतर्गत निरन्तर कमजोर बनाये रखती है।  निर्माण उद्योग की तरह, कला, मनोरंजन और इसी तरह की अन्य सेवाओं में निम्न आय  वर्ग की कामकाजी महिलाएं ज्यादातर निजी और घरेलू सेवाओं का हिस्सा होती हैं।  यहाँ व्यक्तिगत सेवाओं का अर्थ है, घरेलू सहायिका आदि। 

महामारी के व्यापक संक्रमण के भय ने, महिलाओं को घरेलू नौकरियों से भी दूर कर दिया है। लोगो ने ऐसी परिस्थितियों में घरेलू कामकाज पर लगी महिलाओं को बुलाना भी बंद कर दिया है। ऐसा दूसरी लहर के दौरान और अधिक हुआ है, क्योंकि संक्रमण की भयावहता दूसरी लहर में, पहली लहर की अपेक्षा अधिक थी।  इसलिए, शहरी क्षेत्रों में लगभग सभी कामकाजी महिलाओं की नौकरियां अभी भी संकट में ही हैं। निम्न आय के स्तर पर, थोक और खुदरा व्यापार एक और उच्च जोखिम वाला क्षेत्र है जहां कामकाजी महिलाओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा जो लगभग 11 प्रतिशत है, कार्यरत है।  थोक और खुदरा व्यापार के हालात पर एक विस्तृत विश्लेषण से पता चलता है कि इस क्षेत्र के अंतर्गत महिलाओं का एक महत्वपूर्ण वर्ग, छोटी दुकानें या सब्जियां, फल, आदि के व्यापार में संलग्न है। ये कामकाजी महिलाएं न केवल खुद को आय की सीढ़ी में सबसे नीचे पाती हैं, बल्कि महामारी के दौरान ये अक्सर, बिना किसी आय के भी रही हैं।  लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी, उनकी आर्थिक स्थिति में, कोई उल्लेखनीय सुधार नही हुआ है। 

कमजोर आय वर्ग की कामकाजी महिलाये जो आय वर्ग के निचले 20 प्रतिशत संवर्ग से संबंधित हैं, तथा शहरी क्षेत्रों में उच्च जोखिम या मध्यम उच्च जोखिम वाली नौकरियां करती  हैं, वे महामारी के दौरान अत्यधिक गरीबी में रही हैं। भारत में प्रमुख रूप से, चार सामाजिक समूह बनते हैं, जिनमें से तीन को विशेषाधिकार प्राप्त समूहों के रूप में रखा गया गया है।  वे हैं, अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) हैं। इसके अतिरिक्त अन्य जातियों को सामान्य वर्ग में रखा गया है।  कमजोर समूहों की लगभग 25 प्रतिशत और 43 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं एससी और ओबीसी वर्ग से आती हैं। इसलिए, सबसे कमजोर समूह के पास न केवल कम वेतन वाली लेकिन, उच्च जोखिम से भरी नौकरी है, बल्कि उनमें से एक बड़ा प्रतिशत सामाजिक रूप से भी वंचित समूहों का है। 

अब कामकाजी महिलाओं के इस अध्ययन को धार्मिक दृष्टिकोण से देखते हैं। लगभग 73 प्रतिशत निम्न आय वाली, कामकाजी महिलाएं हिंदू धर्म की हैं । लगभग 6 प्रतिशत निम्न आय वर्ग की कामकाजी महिलाएं ईसाई समाज से हैं, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर 11 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं ईसाई धर्म से आती हैं। अतः हिंदू और ईसाई दोनों ही धर्मो के लिए, कमजोर समूह में महिलाओं की हिस्सेदारी उनके राष्ट्रीय मानक से कम है। मुस्लिम महिलाओं के लिए यह पैटर्न बदला हुआ है। लगभग 17 प्रतिशत कमजोर कामकाजी महिलाएं मुस्लिम हैं लेकिन, राष्ट्रीय स्तर पर कामकाजी महिलाओं का केवल, 9 प्रतिशत हिस्सा मुस्लिम हैं। 

हाल ही में सीएमआईई के आंकड़ों में कहा गया है कि 2016 के बाद से महिलाओं, विशेष रूप से युवा महिलाओं को नौकरी पाने में अत्यधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा है।  कमजोर कामकाजी महिला समूह आयु वितरण पर उपरोक्त अध्ययन से एक समान तस्वीर उभर रही है कि, 15 से 19 वर्ष की आयु की लगभग 63 प्रतिशत युवा महिलाएं और 20 से 29 वर्ष की आयु की 47 प्रतिशत महिलाएं कमजोर वर्ग की हैं। 

इसलिए, 15 से 29 वर्ष के आयु वर्ग में कामकाजी महिलाओं की संख्या महत्वपूर्ण है और वह, अर्थव्यवस्था को बेहतरी की ओर ले जा रही है। यदि  इनमें से पचास प्रतिशत से अधिक उपयुक्त नौकरी पाने में कठिनाई का सामना कर रहे हैं या कम मजदूरी पर जोखिम भरा काम करने के लिये बाध्य हैं। लेकिन उच्च आयु वर्ग की कामकाजी महिलाओं के लिए यह सुविधा अधिक नहीं बदलती है। आईएलओ के अध्ययन के अनुसार, औसतन, 30 से 39 वर्ष, 40 से 49 वर्ष और 50 से 59 वर्ष के प्रत्येक आयु वर्ग की लगभग 40 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं कमजोर समूह यानी एससी, एसटी ओबीसी से आती है। 

अब आते हैं,  काम की स्थिति पर। काम करने की स्थिति स्व-रोजगार से लेकर नियमित वेतनभोगी और कैजुअल लेबर से लेकर कई अन्य कार्यों तक समय, स्थान और ज़रूरतों के आधार पर अलग अलग हो सकती है। सभी काम करने की स्थितियो में, नियमित वेतनभोगी या वेतनभोगी कर्मचारियों को सक्षम नौकरी की स्थिति में से एक माना जाता है क्योंकि यह नौकरी के अंत में वेतन की निश्चित गारंटी देता है। कमजोर वर्ग की लगभग 39 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं नियमित वेतनभोगी या वेतनभोगी कर्मचारी हैं। कमजोर वर्ग की लगभग 35 प्रतिशत कामकाजी महिलाएं स्वरोजगार कर रही हैं। जिंसमे वेतन की नियमित गारंटी नहीं है। इस बात की अधिक संभावना है कि ये स्व-नियोजित महिलाएं लंबे समय तक कमजोर समूह में पड़ी रह सकती हैं क्योंकि उन्हें किसी भी संकट के दौरान धन प्राप्त करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है।  इंटरनेशनल फाइनेंस कॉरपोरेशन स्टडी (2019) के अनुसार, ऋण के लिए आवेदन करने वाली महिला उद्यमियों को पुरुषों (8 प्रतिशत) की तुलना में दोगुने से अधिक अस्वीकृति (19 प्रतिशत) का सामना करना पड़ता है।  इसलिए, इस बात की बहुत कम संभावना है कि ऐसी पृष्ठभूमि वाली महिलाओं को ऋण देकर,  उन्हें और मज़बूत तथा आत्मनिर्भर बनाया जाय, जब तक कि सरकार और बैंकों की नीतियां उन्हें ऐसा करने में सक्षम नहीं बनातीं हैं ।

शासी निकाय के आधार पर कार्यस्थल की आठ श्रेणियां तय की गयी हैं।  ये महिला स्वामित्व, पुरुष स्वामित्व, नियोक्ता के घर, सार्वजनिक या निजी लिमिटेड कंपनी, एक ही घर के सदस्य के साथ साझेदारी, सरकार की सेवा में हैं, या स्थानीय निकाय, ट्रस्ट या गैर-लाभकारी संस्थान और अन्य हैं।  लगभग 39 प्रतिशत कमजोर समूह, महिलाओं के स्वामित्व में काम करता है। इंटरनेशनल फाइनेंस कॉरपोरेशन स्टडी (2019) की इसी रिपोर्ट के अनुसार, भारत में महिला उद्यमियों की कुल संख्या का धन की आवश्यकता का 70 प्रतिशत से अधिक कभी पूरा नहीं होता है। धन की कमी बनी रहती है। इस देश में महिला उद्यमियों को न केवल वित्तीय अनुपलब्धता के संकट का सामना करना पड़ता है, बल्कि सक्षम नेटवर्क की अनुपस्थिति, लैंगिग पूर्वाग्रह, सामाजिक मानदंडों, प्रतिबंधित गतिशीलता जैसी समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है।  

लगभग 25 प्रतिशत कमजोर समूह की महिलायें, पुरुषों के स्वामित्व में काम करती हैं।  अब, ये सभी स्वामित्व एमएसएमई क्षेत्रों का हिस्सा हैं।  यह स्पष्ट है कि ये क्षेत्र महामारी के दौरान बुरी तरह प्रभावित हुए हैं और अभी भी अपनी कोरोना पूर्व की स्थिति में वापसी के लिए संघर्ष कर रहे हैं।  एमएसएमई क्षेत्रों को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न राहत पैकेज सरकार ने दिए हैं।  यह सेक्टर निश्चित रूप से भविष्य में आर्थिकी के प्रमुख क्षेत्रों में से एक होगा और इससे कमजोर समूह की कामकाजी महिलाओं की स्थिति में सुधार होगा। लेकिन यह होगा कब, यह अभी नहीं कहा जा सकता है। इसके अतिरिक्त, कमजोर समूह की लगभग 20 प्रतिशत महिलाएं नियोक्ता के घर के लिए काम करती हैं, यानी इस कमजोर समूह की 20 प्रतिशत महिलाएं नौकरानी, रसोइया, गवर्नेस आदि घरेलू सहायकों के रूप में काम करती हैं। ऐसी श्रेणियों की नौकरियां लॉकडाउन के दौरान पूरी तरह से बाधित हो गई थीं और इन नौकरियों में काफी कमी आई है। कोविड के पूर्व की बेहतर स्थिति कब तक आती है, इसे अभी कहना मुश्किल है। 

भारत में 28 राज्य और 8 केंद्र शासित प्रदेश हैं। सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक कारकों के संदर्भ में सभी क्षेत्र विशिष्ट रूप से एक दूसरे से भिन्न भिन्न हैं।  इसलिए हर राज्य की कामकाजी महिलाओं की स्थिति दूसरे राज्य से अलग होती है। प्रत्येक राज्य में उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत अलग अलग है। जिन राज्यों में उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में कामकाजी महिलाओं की हिस्सेदारी (50 प्रतिशत से अधिक) अधिक है, वे ज्यादातर भारत के दक्षिणी भाग (तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और महाराष्ट्र) से हैं, कुछ भारत के उत्तरी भाग (पंजाब,  हरियाणा, उत्तर प्रदेश और गुजरात) और शेष भारत के पूर्वी भाग (पश्चिम बंगाल, सिक्किम और मणिपुर) से हैं।  इसलिए, इन सभी राज्यों को अपनी कामकाजी महिलाओं की नौकरियो की संख्या को देखते हुए, वे महामारी से प्रभावित होने का उच्च जोखिम क्षेत्र में आती है।  केवल तीन राज्यों, उत्तरांचल, बिहार और अरुणाचल प्रदेश में 30 प्रतिशत से भी कम कामकाजी महिलाएं हैं जो उच्च जोखिम वाले क्षेत्रों में भाग लेती हैं।  इसलिए, महामारी के दौरान महिलाओं को देखते हुए इन तीन राज्यों में काम करने का जोखिम कम है। 

दो राज्यों, मणिपुर और मिजोरम में उच्च गरीबी दर है जो कामकाजी महिलाओं के बीच कमजोर समूह की अधिक उपस्थिति को यथोचित रूप से परिभाषित करती है।  दिलचस्प बात यह है कि तेलंगाना और सिक्किम दोनों में महिला कार्यबल की भागीदारी की दर बहुत अधिक है और गरीबी दर कम है।  इसलिए, कमजोर समूह की उच्च उपस्थिति का एकमात्र स्पष्टीकरण कार्यस्थल पर लिंग भेद द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।  हालांकि महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा काम कर रहा है लेकिन वे उच्च जोखिम वाली नौकरी और कम आय के साथ काम कर रही हैं। 

पारंपरिक अर्थव्यवस्था की तरह, नई उभरती हुई गिग अर्थव्यवस्था ने अतिरिक्त रूप से बहुत कम महिलाओं को कार्यबल में नियोजित किया। गिग अर्थव्यवस्था से आशय रोजगार की ऐसी व्यवस्था से है जहां स्थायी तौर पर कर्मचारियों को रखे जाने के बजाए अल्प अवधि के लिए अनुबंध पर रखा जाता है। कुछ साल पहले जब बिना रोजगार सृजन के वृद्धि की बात कही जा रही थी, सरकार ने अस्थायी तौर पर सृजित होने वाले रोजगार यानी गिग अर्थव्यवस्था को अपनाया था। ऐसी अर्थव्यवस्था में, नौकरी छूटने और विषम वेतन का खतरा अधिक रहता है। इन परिस्थितियों में, पुरुषों की तुलना में महिलाओं की नौकरी छूटने का खतरा अधिक होता है क्योंकि उनमें से अधिकांश समान रूप से कम वेतन पर घरेलू काम ही करती हैं। बहुत सी महिलाओं ने अपनी आजीविका खोने के बाद सब्जियों को बेचने का विकल्प चुना है, जबकि उन्हें यह पता है कि, उन्हें इस काम मे, थोड़ा ही लाभ प्राप्त होगा। हालांकि ऐसे वेंडर्स या विक्रेताओं को कर्ज के रूप में धन के लिए आवेदन करने का प्राविधान है।  प्रधान मंत्री स्ट्रीट वेंडर की आत्मानिभर निधि (पीएम स्वानिधि) की योजना के तहत ₹ 10,000 के पूंजी ऋण का प्राविधान है, लेकिन उन्हें यह साबित करने की आवश्यकता है कि वे 24 मार्च, 2020 से पहले वेंडर थे। और साथ ही अन्य पेपर वर्क भी थे।  जैसा कि पहले ही चर्चा की जा चुकी है, एक महिला होने के नाते उस लगभग अप्राप्य ऋण तक पहुंचने में और भी मुश्किलें आती हैं।  

© विजय शंकर सिंह 

यूरोप का इतिहास (16)

यहूदियों या किसी भी वैश्य समुदाय ने नयी दुनिया बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। औद्योगिक क्रांति के बाद सामंतवाद का कोई महत्व नहीं रह गया था। यह उन्हीं देशों में कायम था, जहाँ इस क्रांति के बीज नहीं आए थे। पहले जमीनी संपत्ति या सोना-चाँदी का महत्व था, लेकिन विज्ञान की प्रगति ने फैक्ट्रियों और उससे जुड़ी कंपनियों को महत्वपूर्ण बना दिया।

अगर समाजवाद नहीं भी आता तो सामंतवादी वर्गों का कोई महत्व नहीं रह जाता। भारत का उदाहरण लें तो ब्राह्मणों या राजपूतों ने अपना खानदानी काम इसलिए नहीं छोड़ा कि वे लोहिया से प्रेरित हो गए थे। उस वजह से उन्होंने बर्ताव भले बदला हो, लेकिन उद्योगों के आने के बाद उन्हें भी यही लगा कि पैसा कलकत्ता-बंबई के इन उद्योगों में ही है। वे समाजवाद से आने के पहले ही मुख्य प्रशासनिक संस्थानों, शैक्षनिक संस्थानों, वित्तीय संस्थानों और राजनीति की तरफ जा चुके थे और कुंडली मार कर बैठ गए थे। जमीन-जायदाद और पंडिताई में अगर अब उन्हें कोई उलझाए भी तो न उलझें। भारत में यह देर से हुआ क्योंकि भारत में औद्योगीकरण देर से हुआ।

लेकिन एक सामंतवादी वर्ग आज तक पूरी दुनिया में कायम है। वैश्य समुदाय। आपको आज भी ऐसे वैश्य मिलेंगे, जिनकी पिछली कई पुश्तें वैश्य ही हैं। ये संभव है कि उनके परदादा गाँव में साहूकार थे, या गेंहू का व्यापार करते थे। अब वह फैक्टरी चलाते हैं। मोदीनगर के वंशज आइपीएल डील करते मिल जाएँगे। उनके पास अन्य वर्गों की तरह मजबूरी नहीं आयी कि पुश्तैनी काम-धंधा छोड़ना पड़े। इसके उलट उनका कार्य-क्षेत्र बढ़ ही गया। उनका वैश्य रहने में ही फायदा था, भले समाजवाद आता रहे। परिवार में किसी ने नौकरी-चाकरी करने की ठान भी ली,  तो भी एक-दो भाई दुकान चलाते रहेंगे। अगर यहूदियों का समकक्ष पारसी वर्ग, या भारत के अन्य वैश्य वर्ग न होते, तो कहाँ होते ये टाटा, बिरला, डालमिया, वाडिया? और कौन चलाता उद्योग? और कैसे बढ़ता भारत?

यहूदियों की इस भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने यूरोप को यूरोप बनाया। औद्योगिक क्रांति की दूसरी लहर के समय ब्रिटेन के पहले और आख़िरी यहूदी मूल प्रधानमंत्री डिजराइली ही गद्दी पर थे। तमाम वित्तीय संस्थान जो इन उद्योगों को सहायता दे रहे थे, वह उनके हाथ में था। एक साधारण उदाहरण देता हूँ।

हम बैंक का नोट इस्तेमाल करते हैं। वह क्या है? एक तरह का क्रेडिट नोट कि बैंक धारक को सौ रुपए देने का वादा करता है। लेकिन आपने बैंक को ऐसा क्या दिया कि वह आपको सौ रुपए दे रहा है?

मार्को पोलो जब चीन आए तो उन्होंने वहाँ के यहूदी साहूकारों का वर्णन किया है जो कुबलाई खान के समय थे। वह सामान के बदले उस मूल्य के नोट देते थे। वह नोट पूरे चीन में चलता था, जिससे खरीद-बिक्री की जा सकती थी। यूरोप में भी जो तेरहवीं सदी में पहला नोट बना, वह एक यहूदी ने ही बनाया था। वेनिस के व्यापारी तो इसी तरह से व्यापार करते थे। कोई सोना-चाँदी लेकर नहीं घूमता था। वह सब उनके एक केंद्रीय लॉकर में जमा था, और उसको मुद्रा बना कर चलाया जाता था। 

अब तो खैर यह हाल है कि आपके पास नोट भी नहीं, एक संख्या है जो कंप्यूटर में दर्ज है। आपने करोड़ों कमा लिए, और भारत पर कई एटम बम गिर गये, मुद्रा का मूल्य शून्य हो गया, आपके पास बचेगा मुंडु। न जमीन, न सोना, न चांदी।

यूरोप के साथ द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इससे भी बुरा हुआ। मुद्रा का मूल्य तो घटा ही, टाटा-बिरला को भी उन्होंने धकिया कर इजरायल भेज दिया। अब उनके पास एक ही रास्ता था। वे यहूदियों का काम संभालें। खरीद-फ़रोख़्त और मुनाफ़े का गणित सीखें।

अब तो भारत में भी सभी वर्गों के लोग यह गणित सीख गए हैं, वे तो खैर ईसाई ही थे। पूँजी हाथ में आते ही पूँजी संभालना भी धीरे-धीरे आ ही जाता है।
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

यूरोप का इतिहास (15) 
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Friday 25 June 2021

यूरोप का इतिहास (15)

यहूदी न फासीवादी थे, न साम्यवादी थे, वे अनंत काल से पूँजीवादी ही थे।

ईसाई धर्म और इस्लाम, दोनों में ही बहुधा सूदखोरी (usury/रिबा) वर्जित थी। यही कारण था कि सूदखोरी का काम यहूदियों के पल्ले आया। अगर भारतीय समाज से तुलना करें, तो वे वैश्य के समकक्ष कहे जा सकते हैं। भारत में भी मुनाफाखोरी पर नियंत्रण था, ब्राह्मणों और क्षत्रियों पर तो पाबंदी ही थी। यहूदियों के ग्रंथ ‘तोह-राह’ में यह स्पष्ट था कि यहूदियों को ब्याज नहीं देना होगा, लेकिन अन्य धर्मों को ब्याज पर ही कर्ज दिया जाए। पूँजी की जितनी समझ यहूदियों को थी, वह किसी को नहीं थी। दुनिया को भी पूँजी का मतलब उन्होंने ही समझाया।

ज़ाहिर है, ईसाई धर्मी उनको एक शातिर साहूकार की नजर से ही देखते थे। शेक्सपीयर के यहूदी किरदार शैलॉक सूद न चुकाने पर अंतोनियो के शरीर का मांस काट लेने की बात कहते हैं। ईसाईयों की उनसे नफ़रत कड़ी सूदखोरी की वजह से बढ़ती गयी। उनको जबरन ईसाई बनाने की कवायद हुई, जैसा काल्पनिक पात्र शैलॉक के साथ हुआ। दूसरा विकल्प यही था कि उन्हें खत्म कर दिया जाए, या भगा दिया जाए। हिन्दी फ़िल्म ‘यहूदी’ (यहूदी की लड़की पर आधारित) में रोमन राजा ब्रूटस द्वारा इसी उत्पीड़न को दिखाया गया है।

यहूदियों को जितनी बार भगाया गया, वे भाग कर समूह ही बनाते गए। पहले वे सिर्फ स्पेन में थे, लेकिन भाग-भाग कर पूरे यूरोप में पसरते गए। उनमें कुछ ने ईसाई धर्म अपनाया और दो समूह में बँट गए। एक कहलाए, ‘कन्वर्सो’ (धर्मांतरित), दूसरे कहलाए मरानो जो छुप-छुप कर यहूदी धर्म पालन करते रहे। 

अब उनके तीन लक्ष्य थे-
● पहला कि अपने लिए नयी सुरक्षित जगह तलाशें, 
● दूसरा कि सामंतवादी व्यवस्था को पूँजीवादी व्यवस्था में बदलें, और 
● तीसरा कि अपनी पुण्य-भूमि जेरूसलम हासिल करें।

नयी जगह तो तभी मिलती जब नयी दुनिया मिलती। इसके लिए जहाजों से यात्रा करनी होती, नैविगेशन विज्ञान विकसित करना होता और धन लगाना होता। उनकी बुद्धि इतनी प्रखर थी कि दुनिया के पहले आधुनिक नैविगेशन सिस्टम उन्होंने बना लिए। कोलंबस नामक व्यक्ति को यात्रा करनी थी, जिसे यहूदियों ने अलग से धन भी मुहैया कराया। यह और बात थी कि झंडा स्पेन के राजा का था। 

यह इतिहास अब जाकर लिखा जा रहा है कि उपनिवेशवाद के मूल में यहूदी थे। कोलंबस के जहाज का मुख्य दिशा-निर्देशक भी यहूदी थे और उनके जहाज से पहली बार अमरीकी जमीन पर कदम रखने वाले भी यहूदी। वास्को डी गामा के सहायक गैस्पर डी गामा भी यहूदी थे।

मुझे यह नहीं मालूम कि ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में उनकी कितनी भागेदारी थी, और न ही चितपावन ब्राह्मणों के अतिरिक्त भारत में अन्य  बड़े हस्तक्षेप की जानकारी है। लेकिन, डच ईस्ट इंडिया कंपनी के मुख्य शेयर-होल्डर यहूदी थे। दक्षिण अफ्रीका में जाकर डच ईस्ट इंडिया कंपनी का व्यापार स्थापित करने वाला समुदाय यहूदियों का था। ऑस्ट्रेलिया में भी यहूदी व्यापार स्थापित करने आए। यहाँ तक कि अमरीका की धरती पर पहली औद्योगिक पहल यहूदियों ने ही की।

यहूदी हिटलर के आने से बहुत पहले अमरीका महाद्वीप में अपना ज्ञान और व्यापारिक विस्तार करना शुरू कर चुके थे। उन्होंने यूरोप से बाहर सुरक्षित जगह ढूँढ ली थी।

दूसरा लक्ष्य यानी सामंतवादी व्यवस्था को पूँजीवादी व्यवस्था में तब्दील करना कठिन था। मैं यह नहीं कह रहा कि यहूदी परिवार में जन्मे कार्ल मार्क्स का यही लक्ष्य था, और इसलिए उन्होंने साम्यवाद का जुमला फेंका। न ही यह कि इससे एक तीर से दो निशाने हुए- सामंतवाद पर भी चोट पड़ी और ईसाईयत भी कम्युनिस्ट नास्तिकता से ढक गया। न ही यह कि अमरीका-सोवियत की मुर्ग-लड़ाई के पीछे यहूदियों का दिमाग था। लेकिन, यह लक्ष्य तो पूरा हो ही गया। सामंतवादी व्यवस्था धीरे-धीरे कमजोर पड़ गयी, और पूरी दुनिया मुनाफ़े का खेल खेलने लगी। अगर कुछ इस्लामिक बैंकों को छोड़ दें, तो बिना ब्याज कर्ज अब मिलना असंभव है।

तीसरा लक्ष्य यानी जेरूसलम पर कब्जा। वह भी उन्होंने हासिल किया। वक्त लगा, मगर हासिल किया। ऐसा धर्मयुद्ध तो आज तक दुनिया के शक्तिशाली धर्म भी नहीं लड़ पाए कि दुनिया ही पलट दी। अब हर कोई ब्याज कमाने वाला यहूदी ही है। इत्तफाकन डोनाल्ड ट्रंप की बेटी इवान्का तो बाकायदा धर्म-परिवर्तन कर यहूदी बन चुकी है। 

एक आखिरी खुलासे के साथ बात खत्म करता हूँ। 

इतिहासकार मानते हैं कि क्रिस्टोफ़र कोलंबस स्वयं एक ‘मोरानो’ थे, यानी ईसाई के भेष में पक्के धर्मनिष्ठ यहूदी। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

यूरोप का इतिहास (14)
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आज सहजानन्द सरस्वती की पुण्यतिथि है.

स्वामी सहजानन्द सरस्वती (जन्म:22 फ़रवरी 1889 ग़ाज़ीपुर - मृत्यु:25 जून, 1950 पटना) भारत के राष्ट्रवादी नेता एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। स्वामी जी भारत में किसान आन्दोलन के जनक थे। वे आदि शंकराचार्य सम्प्रदाय के दसनामी संन्यासी अखाड़े के दण्डी संन्यासी थे। वे एक बुद्धिजीवी, लेखक, समाज-सुधारक, क्रान्तिकारी, इतिहासकार एवं किसान-नेता थे।

सहजानन्द सरस्वती ने लिखा है-
"एक वक्त था - और वह आज से प्राय: छ: साल पहले तक था - जब मैं मानता था कि मेरे जैसे गीता-प्रेमी के लिए मार्क्‍सवाद में स्थान नहीं है और यह कि गीताधर्म का मार्क्‍सवाद के साथ मेल नहीं है - विरोध है! मगर आज? आज तो वह खयाल सपने की चीज हो गई है और मैं न सिर्फ यही मानता हूँ कि गीताधर्म का मार्क्‍सवाद के साथ विरोध नहीं है; किंतु मेरे जानते गीताधर्म मार्क्सवाद का पोषक है। मेरे खयाल से गीता के 'सर्वभूतात्मभूतात्मा' और 'सर्वभूतहितेरता:' सिवाय सच्चे मार्क्सवादियों के और कौन हो सकते हैं? वही तो समस्त मानव समाज का पुनर्निर्माण इस तरह करना चाहते हैं कि एक भी आदमी दु:खी, पराधीन, समुन्नति के सभी साधनों से वंचित न रहने पाए।"

स्वामी सहजानन्द सरस्वती-जीवन-वृत्त एवं कृतित्व

● 1889:- ई. महाशिवरात्रि के दिन गाजीपुर जिले के देवाग्राम में जन्म।
● 1892:- ई. माता का देहान्त।
● 1898:- ई. जलालाबाद मदरसा में अक्षरारम्भ।
● 1901:- ई. लोअर तथा अपर प्राइमरी की 6 वर्ष की शिक्षा 3 वर्षों में समाप्त।
● 1904:- ई. मिडिल परीक्षा में सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में छठा स्थान प्राप्त कर छात्रवृत्ति प्राप्ति।
● 1905:- विवाह (वैराग्य से बचाने के लिए)
● 1906:- पत्नी का स्वर्गवास।
1907:- पुन: विवाह की बात जानकर महाशिवरात्रि को घर से निष्क्रमण तथा काशी पहुँचकर दसनामी संन्यासी स्वामी अच्युतानन्द से प्रथम दीक्षा प्राप्त कर संन्यासी बने।
● 1908:- प्राय: वर्षपर्यन्त गुरु की खोज में भारत के तीर्थों का भ्रमण।
● 1909:- पुन: काशी पहुँचकर दशाश्वमेधा घाट स्थित श्री दण्डी स्वामी अद्वैतानन्द सरस्वती से दीक्षा ग्रहण कर दण्ड प्राप्त किया और दण्डी स्वामी सहजानन्द सरस्वती बने।
● 1910:- से 1912 तक-काशी तथा दरभंगा में संस्कृत साहित्य व्याकरण, न्याय तथा मीमांसा का गहन अध्यायन।
● 1913:- स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती के प्रयास से 28 दिसम्बर को बलिया में हथुआ-नरेश की अध्यक्षता में सम्पन्न अ. भा. भूमिहार ब्राह्मण महासभा में प्रथम बार उपस्थित तथा ब्राह्मण समाज की स्थिति पर भाषण।
● 1914:- काशी से 'भूमिहार ब्राह्मण पत्र' निकालकर 1916 तक उसका सम्पादन तथा प्रकाशन।
● 1914-15:- भारत के विभिन्न भागों में भ्रमण कर भूमिहार ब्राह्मणों तथा अन्य ब्राह्मणों का विवरण एकत्र करना।
● 1916:- 'भूमिहार ब्राह्मण परिचय' का प्रकाशन। [ काशी के अतिरिक्त विश्वम्भरपुर (गाजीपुर) में अधिकांश समय निवास। ]
● 1917:- प्रथम बार भोजपुर के डुमरी में आगमन तथा कान्यकुब्ज और शाकद्वीपी ब्राह्मणों के विवाद में पं. देवराज चतुर्वेदी (का. ब्रा. भा.) द्वारा ।
● 1919:- सिमरी (आरा) आकर पुन: विश्वम्भरपुर (गाजीपुर) वापस।
● 1920:- 5 दिसम्बर को पटना में श्री मजहरुल हक के निवास पर ठहरे महात्मा गाँधी से राजनीतिक वार्ता तथा राजनीति में प्रवेश का निश्चय कर कांग्रेस में शामिल।
● 1921:- गाजीपुर जिला कांग्रेस का अध्यक्ष चुना जाना तथा अहमदाबाद कांग्रेस में शामिल होना।
● 1922:- 2 जनवरी को गिरफ्तार होकर 1 वर्ष का कारावास।
● 1923:- जेल से छूटने पर सिमरी (भोजपुर) में निवास।
● 1924:- सिमरी तथा आसपास प्रयत्न से खादी वस्त्रोत्पादन के लिए 500 चर्खे तथा 4 कर्घे का चलवाना प्रारम्भ। सामाजिक सभाओं में ब्राह्मणों की एकता तथा संस्कृत शिक्षा प्रचारार्थ भाषण। सिमरी (भोजपुर) में चार महीने में 'कर्मकलाप' (जन्म से मरण तक के संस्कारों का 1200 पृष्ठों के हिन्दी के विधि सहित विशाल ग्रन्थ की रचना)।
● 1925:- काशी में आयोजित संयुक्त प्रान्तीय भू. ब्रा. सभा में भू. ब्रा. द्वारा पुरोहिती करने से सम्बन्धित भाषण। दिसम्बर में खलीलाबाद (बस्ती) में राजा चन्द्रदेश्वर प्र. सिंह (मकसूदपुर, गया) की अध्यक्षता में सम्पन्न अ. भा. भूमिहार ब्राह्मण महासभा में पुरोहिती वाला प्रस्ताव पेश कर उसमें महत्त्वपूर्ण भाषण।
● 1925:- भूमिहार ब्राह्मण परिचय का परिवर्ध्दन कर 'ब्रह्मर्षि वंश विस्तार' नाम से प्रकाशन।
● 1926:- 'कर्मकलाप' का काशी से प्रकाशन।
● 1926:- अमिला, घोषी आजमगढ़ में आयोजित भू. ब्रा. महासभा में भाषण तथा संस्कृत शिक्षा प्रचार का सन्देश।
समस्तीपुर में निवास तथा पटना में आयोजित अखिल भारतीय भू. ब्रा. महासभा में त्यागी ब्राह्मण चौ. रघुवीर सिंह को अध्यक्ष निर्वाचित कराना तथा पुरोहिती के प्रस्ताव को पारित कराना।
● 1927:- समस्तीपुर से आकर पटना जिले के बिहटा में श्री सीताराम दासजी द्वारा प्रदत्त भूमि में श्री सीतारामाश्रम बनाकर स्थायी निवास तथा पश्चिमी पटना किसान सभा की स्थापना।
● 1928:- सोनपुर (छपरा) में 17 नवम्बर को सम्पन्न बिहार प्रान्तीय किसान सम्मेलन का अध्यक्ष चुना जाना।
● 1929:- अन्तिम बार मुंगेर की अ. भा. भूमिहार ब्राह्मण महासभा में सम्मिलित, मतभेद के कारण वापस।
● 1930:- अमहरा (पटना) में 26 जनवरी को नमक कानून भंग के कारण 6 माह का कारावास। हजारीबाग जेल में 'गीता रहस्य' (गीता पर महत्त्वपूर्ण भाष्य) की रचना। जेल से लौटकर कांग्रेस तथा किसान सभा के कार्यों में संलग्न होना।
● 1934:- भूकम्प पीड़ितों की सेवा हेतु बिहार में समिति गठित कर सेवा कार्य का संचालन।
● 1935:- पटना जिला कांग्रेस के अध्यक्ष प्रादेशिक कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य तथा अ. भा. कांग्रेस समिति का सदस्य चुना जाना।
● 1936:- अ. भा. किसान सभा का संगठन तथा प्रथम अधिवेशन का अध्यक्ष पद ग्रहण। (लखनऊ)
● 1937:- अ. भा. किसान सभा का महामन्त्री चुना जाना।
● 1938:- 13 मई से 15 मई तक सम्पन्न अ. भा. किसान सम्मेलन (कोमिल्ला, बंगाल) के अध्यक्ष।
● 1939:- अ. भा. किसान सभा के महामन्त्री निर्वाचित तथा 1943 तक उक्त पद पर।
● 1940:- (19-20 मार्च) को रामगढ़ (बिहार) में श्री सुभाषचन्द्र बोस की अध्यक्षता में आयोजित अ. भा. समझौता विरोधी सम्मेलन के स्वागताध्यक्ष। उपर्युक्त सम्मेलन में भाषण के लिए 3 वर्ष का कारावास।
● 1941: से 43 :- जेल में कई पुस्तकों की रचना।
● 1944 :- 14,15 मार्च को बेजबाड़ा (अन्धा्र) में अ. भा. किसान सम्मेलन के अध्यक्ष। 
● 1948:- 6 दिसम्बर को कांग्रेस की प्राथमिक एवं अ. भा. कांग्रेस की सदस्यता का त्याग तथा साम्यवादी सहयोग से किसान मोर्चा का संचालन।
● 1949:- महाशिवरात्रि को बिहटा (पटना) में हीरक जयन्ती समारोह समिति द्वारा साठ लाख रुपये की थैली भेंट तथा उसका तदर्थ दान।
● 1949:- 9 अप्रैल (रामनवमी) को अयोध्या में सम्पन्न अ. भा. विरक्त महामण्डल के प्रथम अधिवेशन में शंकराचार्य के बाद अध्यक्षीय भाषण।
● 1950:- अप्रैल में रक्तचाप से विशेष पीड़ित होकर प्राकृतिक चिकित्सार्थ डॉ. शंकर नायर (मुजफ्फरपुर) से चिकित्सा प्रारम्भ। मई-जून से अपने अनन्य अनुयायी किसान नेता पं. यमुना कार्यी (देवपार, पूसा, समस्तीपुर) के निवास पर निवास।
● 1950:- 26 जून को पुन: डॉ. नायर को दिखाने आने पर मुजफ्फरपुर में ही पक्षाघात का आक्रमण तथा 26 जून की रात्रि 2 बजे प्रसिद्ध वकील पं. मुचकुन्द शर्मा के निवास पर देहान्त।
● 27/6/50 को शव का पटना गाँधी मैदान में लाखों लोगों द्वारा अन्तिम दर्शन
डॉ. महमूद की अध्यक्षता में शोकसभा, नेताओं द्वारा श्रध्दांजलि।

28/6/50 डॉ. श्रीकृष्णसिंह मुख्यमन्त्री तथा अन्य नेताओं का अर्थी के साथ
श्री सीतारामाश्रम, बिहटा (पटना) में पहुँचना तथा वहीं अन्तिम समाधि।
-डॉ. राजेन्द्र प्रसाद आदि का शोक सन्देश।

● स्वामीजी द्वारा रचित पुस्तकें

ब्रह्मर्षि वंश विस्तार, ब्राह्मण समाज की स्थिति, झूठा भय मिथ्या-अभिमान, कर्म-कलाप, गीता-हृदय (धार्मिक) क्रान्ति और संयुक्त मोर्चा, किसान सभा के संस्मरण, किसान कैसे लड़ते हैं, झारखण्ड के किसान, किसान क्या करें, मेरा जीवन संघर्ष (आत्मकथा) आदि।

● स्वामीजी द्वारा सम्पादित पत्र

स्वामीजी ने क्रमश: भूमिहार ब्राह्मण, काशी और लोक संग्रह, पटना नामक पत्रों का सम्पादन 1911-16 और 1922-24 तक सफलतापूर्वक किया। उनके लेख 'हुंकार' पटना, जनता (पटना), विशाल भारत (कलकत्ता) तथा कल्याण (गोरखपुर) के ईश्वरांक तथा योगांक में भी प्रकाशित हुए थे।

प्रो. जगदीश्वर चतुर्वेदी
© Jagadishwar Chaturvedi
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Thursday 24 June 2021

असग़र वजाहत की कहानी - सब की ज़मीन

दोनों देशों के बीच एक जमीन है जिसे नो मैंस लैंड कहते हैं। इस जमीन पर कोई नहीं रहता। न तो इस देश के लोग रहते हैं और न उस देश के लोग रहते हैं।

इस देश में रहने वालों की तकलीफें  जब हद से बढ़ गई तब उन्होंने सोचा चलो नो मैंस लैंड में रहा जाए।

धीरे-धीरे इस देश के लोग नो मैंस लैंड में रहने के लिए आने लगे।
उस देश के लोगों ने भी अपने देश में रहने की तुलना में नो मैंस लैंड में  रहने को प्राथमिकता दी है ।

दोनों देशों के लोग नो मैंस लैंड  में रहने के लिए आने लगे। धीरे-धीरे हुआ यह कि दोनों देशों के पूरी आबादी नो मैंस लैंड में आ गई।

और दोनों देशों में केवल देशों की सरकारें रह  गयीं।

© असग़र वजाहत 
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यूरोप का इतिहास (14)

“यहूदी नीच और गंदे लोग हैं। ये घिनौने लोग सोवियत को तोड़ने की साजिश करते रहते हैं।”
- कर्नल व्लादिमीर कोमारोव, सोवियत रूस

यहूदी थे क्या? अमरीकावादी या साम्यवादी? आखिर इतने पढ़े-लिखे और बुद्धिजीवी समाज से सबको नफ़रत कैसे हो गयी? उनको पश्चिम, पूरब, कहीं भी जगह क्यों नहीं मिली? अरब में तो धर्मयुद्ध समझ आता है, जो उनका इस्लामिक देशों से बाद में हुआ, लेकिन यूरोप जैसे महादेश में उन्हें जगह क्यों नहीं मिली? अगर उनको अरब से भी भगा दिया जाता, जिसके प्रयास वर्षों से चल ही रहे हैं, तो वे कहाँ जाते? 

बुद्धिजीवी पूरी दुनिया में वाम-धारा के ही हैं। यही उनकी जगह है, जहाँ वे स्वयं को सबसे उचित स्थान पर पाते हैं।  उनका स्वर जनवादी होता है, और सामंतवाद या राजशाही के वे विरोधी होते ही हैं। कवि, कलाकार, साहित्यकार, समाजशास्त्री का ज्ञान आह से उपजता है, और वह सर्वहारा के स्वर हैं। अधिकांश यहूदी भी वही थे।

यहूदियों को हिटलर से पहले भी ईसाई भगाना चाहते थे, और यहूदी-विरोधवाद कोई आधुनिक इतिहास नहीं। बल्कि रूस की जारशाही उन्हें भगाने के इंतजामात कर चुकी थी। क्या रूस की क्रांति इन यहूदियों के दिमाग की ही उपज थी?

बोल्शेविक क्रांति के तीन चौथाई मुख्य सदस्य यहूदी ही थे। स्वयं त्रौत्सकी, जिन्होंने लेनिन के साथ क्रांति के बीज बोए, यहूदी थे। तमाम बुद्धिजीवी जिन्होंने साम्यवाद और सर्वहारा एकता का परचम लहराया, वे यहूदी ही थी। पूरे यूरोप में साम्यवाद के प्रचार में उनकी मुखर भूमिका थी। ज़ाहिर है, वे फ़ासीवाद के विरोधी थे, और हिटलर जैसे तानाशाह उन्हें अपना विपक्ष मानते थे। इसमें कोई दो राय नहीं कि वे हिटलर-विरोधी थे भी। हिटलर ने तो खैर उनका अकल्पनीय नरसंहार किया, जो संपूर्ण मानवता पर कलंक है।

लेकिन, कम्युनिस्टों ने उन्हें क्यों भगाया? कम्युनिस्ट तो ईसाई भी नहीं थे, और उनकी पूरी जमात ही यहूदियों के दिमाग से चल रही थी। फ़ासीवाद के विरोध में और सर्वहारा एकता के यहूदी-बहुल संगठन मौजूद थे। वह तो वाकई अपनी बुद्धि से पूरे यूरोप में लाल झंडा लहरा देते। 

12 जनवरी, 1948 को सोवियत यहूदी थियेटर के प्रणेता, अलबर्ट आइंस्टाइन के दोस्त और मशहूर अभिनेता सोलोमन मिखोएल्स की हत्या हो गयी। ख़बर थी कि स्तालिन के मंत्री ने अपने कार्यालय में बुला कर गोली मारी, और उसके बाद मिंस्क की सड़क पर फेंक दिया। उनकी लाश के ऊपर से ट्रक चलायी गयी और स्तालिन ने उनकी मृत्यु को राष्ट्रीय शोक का दर्जा दिया।

इसके ठीक अगले वर्ष सभी यहूदी अखबारों और पत्रिकाओं पर पाबंदी लगा दी गयी। एक यहूदी चिकित्सकों के समूह को आतंकवादी समूह घोषित कर दिया गया, कि वे सोवियत नेताओं को ग़लत दवा देकर मारना चाहते हैं। यहूदियों को पकड़ कर चीन सीमा पर बिरोबिडझिन में भेज दिया गया, कि सभी यहूदी औद्योगिक सोवियत से दूर ही रहें। यह इलाका आज भी सोवियत का अपना ‘इजरायल’ कहा जाता हैं, भले वहाँ अब गिने-चुने यहूदी बचे। 

शेष कम्युनिस्ट यूरोप में भी यहूदियों का यही हश्र हुआ। चेकोस्लोवाकिया के शीर्ष स्तालिनवादी और पार्टी महासचिव स्लांस्की और उनके अन्य यहूदी साथियों पर CIA का एजेंट होने का इल्जाम लगा। उन पर अभियोग का रेडियो पर प्रसारण हुआ, जिसमें उन लोगों को कुत्ते और लोमड़ी जैसे विशेषणों से नवाज कर सार्वजनिक सजा-ए-मौत दी गयी। रोमानिया में यहूदियों को स्वेच्छा से देश छोड़ने कहा गया, और लगभग नब्बे हज़ार यहूदी इजरायल चले गए।

पहले फ़ासीवादियों ने यहूदियों को भगाया, और फिर साम्यवादियों ने। विडंबना यह थी कि दूसरा हथियार तो उनका ही तराशा था। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

यूरोप का इतिहास (13)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/06/13.html
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