Saturday 10 July 2021

हेमन्त शर्मा - खयाल गायकी के अमर गायक - पं राजन मिश्र

( काशी, कबीर चौरा,नाद ,अनहद नाद ,संगीत और पंडित राजन मिश्र जी की साधना... सब कुछ एक साथ।इण्डिया टुडे का ताज़ा अंक )
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भैरवी से भैरव तक 
बनारसी ख्याल गायकी का शिखर बिखर गया।  नाद के अनन्य उपासक पंडित राजन मिश्र अनहद नाद की खोज में चले गए। पंडित जी के जाने से ख़्याल गायकी का वह शिखर शून्य हो गया जिससे फिलवक्त बनारस घराने की ऊँचाई नापी जाती थी। वे बनारस घराने के वैश्विक प्रतिनिधि थे।  उनके असमय अवसान से समूची दुनिया में ख़्याल गायकी का परचम लहराने वाली उनकी संगीत यात्रा ‘भैरव से भैरवी‘ तक ठहर गयी। पंडित जी मानते थे संगीत जीवन की आत्मा है ,भक्ति है ,शक्ति है। इसी पर सवार होकर अनंत की दौड़ लगायी जा सकती है। इसी संगीत को साध वो अनंत में लीन हो गए।

ये संयोग ही है कि नाद और अनहद नाद, दोनों का ‘ब्रह्मकेन्द्र’ बनारस का कबीर चौरा ही है। नाद साधना यहॉं के संगीत कलाकारों ने की और अनहद को यहीं कबीर ने सुना। दोनों की परम्परा चार सौ साल पुरानी है। कबीर ने जिस मूल गादी पर बैठ ‘बीजक’ की रचना की उसी के ठीक सामने बैठ राजन- साजन मिश्र के पूर्वज संगीत के ज़रिए ईश्वरत्व की खोज कर रहे थे। आज भी राजन जी का पैतृक घर कबीर मठ के सामने ही है। मेरा मानना है बनारस का कबीर चौरा महज़ एक मुहल्ला नहीं है। वह भक्ति और संगीत का नाभिकीय केन्द्र है। कबीर चौरा भक्ति के साथ रस भी बरसाता है। करीब तीन बरस गिरिजा देवी यानी अप्पा जी के जाने के बाद ठुमरी और अब पंडित जी के जाने से ख़्याल गायकी बेजान हो गयी है। कबीर चौरा सूना हो गया।

ये परंपरा कोई आज की नहीं थी। कोई साढ़े चार सौ साल पहले पंडित दिलाराम मिश्र से यह परम्परा शुरू हो बड़े राम दास, महादेव मिश्र,  हनुमान प्रसाद मिश्र और राजन- साजन जी तक पहुँचती है। कबीरचौरा में ही पंडित कंठे महाराज से लेकर किशन महाराज और गोदई महाराज तक तबले की समृद्ध परंपरा विराजती थी। गिरिजा देवी की ठुमरी हो या सितारा देवी और गोपीकृष्ण के नृत्य की ताल। बड़े राम दास या फिर पंडित राम सहाय या राजन-साजन मिश्र का गायन। या फिर हनुमान प्रसाद मिश्र और पं गोपाल मिश्र की सारंगी। क्या मुहल्ला था। कलाओं की इस भूमि में विद्याधरी, सिद्धेश्वरी और हुस्नाबाई बड़ी मैना, छोटी मैना, चंपा बाई, जवाहर बाई...सब यहीं के नगीने थे। मोइजुद्दीन खान जैसा बेजोड़ गायक। छप्पन छूरी खाने वाली जानकी बाई भी यहीं की थी। कुछ ही दूरी पर बिस्मिल्ला खां का सराय हडहा। सबकी जडें इसी मुहल्ले में । एक एक कर सब चले गए। आज कबीर चौरा उदास है।

बनारस के कबीर चौरा से निकल कर राजन - साजन मिश्र की इस जोड़ी ने दुनिया में ख़्याल गायकी का परचम लहराया। राजन जी अपने अचूक स्वराघात से गायकी में विस्मय पैदा करते थे। अपनी रससिद्धता से सम्मोहन का संसार रचते थे। उन्होंने इस धारणा को तोड़ा कि पक्की (ख़्याल) गायकी लोकप्रिय नही हो सकती है। वे चारों पट की गायकी यानी ठुमरी, ख़्याल ,ध्रुपद ,धमार ,टप्पा, भजन, कजरी ,चैती में पारंगत तो थे ही पर उन्होंने बड़े रामदास की ख़्याल गायकी को ही अपनी सरल शब्द योजना, तान और सरगम से लोक तक पहुँचाया। वे ध्रुपद और ठुमरी से बचते थे। पर ध्रुपद की गम्भीरता और ठुमरी की नज़ाकत दोनों उनकी ख़्याल गायकी में थी। गहरे समुद्र जैसा गंभीर आलाप और झरने जैसी चंचल तानें। उन्होंने रागो को इतना माँजा था कि वे श्रृंगार के राग में भी वीर रस की बन्दिशें गा लेते थे। बनारस घराने पर ठुमरी का ठप्पा था। इसे तोड़ने के लिए पंडित द्वय ने केवल ख़्याल साधा। और ऐसा साधा कि आज बरबस यह सवाल उठता है कि बनारस घराने में फिर ऐसा गायक होगा क्या?

राजन जी के जाने से जोड़ी टूट गयी । साजन जी का स्वर अधूरा हो गया। राजन साजन दोनो भाईयों को संगीत की शिक्षा और रससिद्धता उनके दादा, पंडित बड़े राम दास और पिता पंडित हनुमान मिश्रा ने दी थी। हालांकि पिता सांरगी वादक थे। बचपन में खाने और गाने का हिसाब किताब रखा जाता था। चाचा पं गोपाल मिश्र इन्हें दिल्ली ले आए। और गए पचास बरस में घरानेदार  बंदिशों और ख़्याल गायन में ये जोड़ी सबसे लोकप्रिय बनी।

राजन जी से मेरा रिश्ता महज श्रोता और गायक का नहीं था। वे मेरे बड़े भाई के साथ पढ़े थे और  पिता जी के विद्यार्थी थे। इसलिए उनसे पारिवारिक नाता था। हम एक ही मुहल्ले में रहते भी थे। हमारे और उनके घर के बीच सिर्फ एक सड़क का फासला था। पान खाने के लिये उन्हें इस पार आना पड़ता और संगीत सुनने हमें उस पार जाना पड़ता। अमूमन सितारा कलाकार इतने आत्मकेन्द्रित देखे जाते हैं कि अपने प्रभामण्डल से आत्ममुग्ध हो वो अपनी ही जमीन छोड जाते है। पर पंडित जी अपनी ज़मीन से हमेशा जुड़े रहे। बनारस जब भी आते उसी चाय की दुकान पर बैठते। मुहल्ले के पान वाले से हाल चाल और बाल काटने वाले नाई से बतकही। हम सबसे हहाकर मिलना। वही मस्ती, वही आत्मीयता, सितारा बनने के बाद भी क़ायम रही। ऐसे विरले होते है। पंडित जी कहते थे जब बैटरी ‘रीचार्ज’ करनी होती है तो बनारस चला जाता हूं। दिल्ली में भी वे बनारस ढूँढते रहते थे। राजधानी में बनारसियों को इक्कठा करने की कोशिश करने वाला केन्द्र अब शायद नहीं होगा।

दरअसल बनारसीपन का संबंध जन्म से नही, बल्कि डूब जाने से है। यही डूब कर गाना राजन जी की शैली थी। जो बनारस में डूब गया, वो बनारसी हो गया। बनारसीपन जन्म से नहीं होता पर जन्म जन्म साथ रहता है। आप बनारस की तरह जिन्दा रहेंगे राजन जी। आप कहते थे स्वर हमारी सृष्टि में बिखरा पड़ा है। उसी को जोड़ने का पुल संगीत है। जब स्वर खो जाते है, शून्य हो जाते हैं तो संगीत का सागर रह जाता है। जब तक यह सागर रहेगा राजन जी के स्वर जीवित रहेंगे।

© हेमन्त शर्मा 
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