Saturday 29 June 2019

राजनीति - आरएसएस और हिंदू महासभा, गांधी नेहरू के खिलाफ क्यों रहता है ? / विजय शंकर सिंह

oउन्हें देश के बंटवारे का दुख है। यह वे बार बार कहते हैं कि जब देश बंट रहा था तो धर्म ही उसका मूल कारक था। उनका कहना दुरुस्त है। उन्हें और उनका से मेरा अभिप्राय सत्तारूढ़ दल और उसकी विचारधारा से है। यह बात बिल्कुल सही है कि देश के बंटवारे के मूल में  धर्म ही था। पर उस धर्म को मुल्क का पर्याय बनाया किसने ? जिन्ना साहब ने। यह उत्तर भी उचित है। पर जिन्ना साहब के साथ जुगलबंदी किसने की थी ? हमारे वीर सावरकर ने। हिंदू महासभा के 1937 के अधिवेशन में दिए सावरकर का  भाषण पढिये। पर व्हाट्सएप्प यूनिवर्सिटी के एंटायर हिस्ट्री के शिक्षकों से नहीं, बल्कि देश के किसी भी अकादमिक इतिहासकार की पुस्तक जिसने आधुनिक इतिहास के इस कालखंड पर काम किया है पढ़ लीजिये आप को भारत के बंटवारे का मूल पता चल जाएगा।

1937 के बाद का कुछ घटनाक्रम समझ लें। 1937 में असेम्बली के चुनाव हुए। अधिकांश राज्यों में कांग्रेस ने तो कुछ राज्यों में मुस्लिम लीग ने सरकार बनायी। चुनाव हिंदू महासभा ने भी लड़ा पर जनता ने उन्हें लगभग नकार दिया।

1938 आते आते जर्मनी का हिटलर पगला गया था। वह पूरा यूरोप जीतना चाहता था। वह लगभग सभी चुनाव जो भी उसने जर्मनी में लड़े थे, प्रबल बहुमत से जीते थे। वह आर्य श्रेष्ठ नस्ल का समर्थक था। यहूदी उसके निशाने पर थे। यहूदियों का उत्पीड़न वह कर ही रहा था। प्रथम विश्व युद्ध मे जर्मनी की बुरी तरह हार हुयी थी।हिटलर उसी हार का बदला और जर्मनी के सम्मान की बात कर, अपनी अद्भुत भाषणकला के बल पर हर बार अच्छे मतों से चुनाव जीतता रहा। अचानक यूरोप दो खेमे में बंट गया । एक मित्र देशों ब्रिटेन, फ्रांस, सोवियत रूस, चीन और अमेरिका का खेमा, दूसरी तरफ धुरी राष्ट्र, जर्मनी, इटली और जापान। अब युद्ध होने ही वाला था। 1939 में जर्मनी ने पोलैंड पर हमला कर दिया और युद्ध शुरू हो गया।

1939 में इस युद्ध को लेकर कांग्रेस में दो विचार धाराएं थीं। एक कांग्रेस के तेज तर्रार अध्यक्ष सुभाष बाबू की थी। दूसरी गांधी जी की। सुभाष बाबू का मत था कि युद्ध होने वाला है, अब आज़ादी का संग्राम तेज़ कर दिया जाय। अंग्रेज़ अपनी ही समस्या में फंसे हैं, इस समय उनपर दबाव बनाना आज़ादी के हित मे उचित होगा। सुभाष बाबू का यह विचार व्यवहारिक था। अंग्रेज़ इससे थोड़े संकट में पड़ सकते थे।

पर गांधी जी थोड़ा इंतजार करो और देखो की नीति पर चलना चाहते थे। प्रथम विश्व युद्ध मे भी गांधी जी ने ब्रिटेन का साथ दिया था। सुभाष, गांधी के समक्ष अकेले पड़ गए और उन्होंने कांग्रेस से त्यागपत्र दे दिया और अपना एक दल बनाया फॉरवर्ड ब्लॉक  जिसका बंगाल में अब भी अस्तित्व है और वह वाम मोर्चे का एक अंग है।

गांधी जी और कांग्रेस को यह उम्मीद थी कि ब्रिटिश सरकार कांग्रेस से भारत को दूसरे  विश्व युद्ध में शामिल करने के पहले कांग्रेस सरकार से बात करेगी। पर अंग्रेजों ने ऐसा नहीं किया। उन्होंने भारत के कांग्रेसी या मुस्लिम लीग की सरकारों से कोई सलाह या सहमति नहीं ली और भारत को उस युद्ध क्षेत्र में बिना यहां की सरकारों से जो जनता द्वारा चुनी गयीं थीं, सम्मिलित कर लिया गया।

कांग्रेस की सरकारों ने इस पर विरोध स्वरूप त्यागपत्र दे दिया, पर मुस्लिम लीग की सरकारों और एमए जिन्ना ने इस विश्व युद्ध में अंग्रेजों का साथ दिया। हिंदू महासभा के सावरकर भी जिन्ना के साथ आये और दोनों ही अंग्रेजों के बगलगीर बन गए। अब यह समीकरण बना। एमए जिन्ना और सावरकर दोनों ब्रिटिश राज के साथ थे और गांधी तथा कांग्रेस अलग रास्ते पर चल पड़ी थी। सुभाष बाबू तो पहले ही अलग हो गए थे । वे एक दिन चुपके से देश के बाहर निकल गए और उन्होंने अंग्रेज़ो के खिलाफ धुरी शक्तियों ( जर्मनी, इटली और जापान ) के साथ मिल कर एक अनोखी जंग लड़ी।

जहां जहां मुस्लिम लीग की सरकार कमज़ोर थी, वहां उसे सहायता दी हिंदू महासभा ने। बंगाल इसका एक उदाहरण है। वहां संघ के सबसे चहेते राजनीतिक चेहरे डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने बंगाल में उप मुख्यमंत्री पद को सुशोभित किया और उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में अंग्रेजों की तरफ से जमकर स्वतंत्रता सेनानियो का उत्पीड़न किया। सुभाष बाबू ने उनके बारे में जो कहा था तब, उसे आप यहां पढ़ सकते हैं,

"The Hindu Mahasabha has deployed sannyasis and sannyasins with tridents in their hands to beg for votes. At the very sight of tridents and saffron robes, Hindus bow their head in reverence.By taking advantage of religion and desecrating it, the Hindu Mahasabha has entered the arena of politics. It is the duty of all Hindus to condemn it...
"Banish these traitors from national life. Don't listen to them."

— Netaji Subhas Chandra Bose, at a public meeting on 12th May 1940 at Jhargram in West Bengal.,

8 अगस्त 1942 को बम्बई में कांग्रेस वर्किग कमेटी की बैठक हुयी। विश्व युद्ध तेजी से चल रहा था। लंदन पर बमबारी हो चुकी थी। अंग्रेजों का मनोबल गिरा था। तभी गांधी जी का ऐतिहासिक भाषण हुआ, करो या मरो। यह अंतिम आंदोलन था जो अब तक का सबसे व्यापक जन आंदोलन बना। यह था भारत छोड़ो आंदोलन।

9 अगस्त 1942 की भोर में ही कांग्रेस के सभी बड़े नेता गिरफ्तार कर लिये गये और तीन साल तक जेल में रखे गए। सुभाष बाबू बाहर निकल गए थे। जिन्ना और सावरकर के चेले अंग्रेजी हुकूमत के साथ सरकार चला रहे थे। देश मे जबरदस्त आंदोलन चल रहा था।

1945 की अगस्त में अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर बम गिरा दिया और उसी के बाद यह विश्व युद्ध समाप्त हो गया। मुसोलिनी को उसी की जनता ने सड़क के किनारे लैंप पोस्ट से लटका कर फांसी दे दी। हिटलर जो अपने समय का अद्भुत वक्ता और जर्मनी के सम्मान के लिये खुद को कृतसंकल्प समझता था ने आत्म हत्या कर ली। जापान ने तो अपने दो नगरों हिरोशिमा और नागासाकी की तबाही के बाद आज तक युद्ध से तौबा कर लिया है।

जिन्ना और सावरकर ने उस कठिन समय मे अंग्रेजों का जो साथ दिया था उसका तो उन्हें पुरस्कार मिलना ही था। जिन्ना, एक स्वतंत्र मुस्लिम राष्ट्र के लिये ज़िद पर थे। उनके साथ मुसलमानों का बहुमत भी था। मौलाना आज़ाद, और खान अब्दुल गफार खान साहब जैसे नेता जिन्ना के खिलाफ थे और कांग्रेस के साथ थे। अगर सरहदी गांधी जैसा कोई दमदार धर्मनिरपेक्ष व्यक्तित्व मुसलमानों में उस समय पंजाब और बंगाल में होता तो हो सकता था, जिन्ना का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता। पर काश, से न तो इतिहास बदलता है और न ही जीवन।

सावरकर यह सोचे बैठे थे कि जब धर्म के नाम पर देश बंटेगा और पाकिस्तान मुस्लिम देश बनेगा तो हिंदुस्तान अपने आप ही हिंदू राष्ट्र बन जायेगा। अब भी कुछ संघी दिमाग के मित्र यह सवाल पूछते हैं कि ऐसा क्यों नहीं हुआ ? जब इस्लाम धर्म के नाम पर पाकिस्तान बना तो हिंदू धर्म के नाम पर भारत क्यों नहीं बना ?

सीधे तौर पर देखिये तो यह सवाल बड़ा ही तार्किक लगता है। पर एक धर्म एक राष्ट्र का सिद्धांत ही भारतीय बहुलतावाद के विपरीत है। यह सिद्धांत एमए जिन्ना और डीवी सावरकर का था। जिन्ना ने अंग्रेजों का साथ दिया ही इसलिए था, कि वे मार्च1940 के लाहौर अधिवेशन में मुस्लिम लीग द्वारा पारित पाकिस्तान सम्बंधी प्रस्ताव के साथ खड़े रहेंगे। सावरकर ने भी यही सोचा था कि यह बिल्कुल गणित की तरह हल होगा कि जब मुसलमानों को पाकिस्तान दिया जाएगा तो हिंदुओं को हिंदुस्तान मिल ही जायेगा। पर ऐसा नही हुआ। राजनीति और इतिहास गणित के सूत्रों की तरह नहीं चलते हैं।

ऐसा इसलिए नहीं हुआ क्योंकि तब भारतीय राजनीतिक फलक पर सावरकर और उनके हिंदू महासभा की कोई असरदार आवाज़ नहीं थी। जनता में इन्हें लेकर आशंकाएं थीं। सावरकर की क्षवि उनके अंडमान में अंग्रेजों के चरणों मे दिये गए माफीनामे के कारण अंग्रेजों के पिछलग्गू होने की थी। कांग्रेस जिस राष्ट्रवाद के साथ खड़ी थी, सावरकर का राष्ट्रवाद उसकी तुलना में बौना और बीमार था। सावरकर और जिन्ना का राष्ट्रवाद धर्म पर आधारित था और भारतीय सनातन परंपरा के विपरीत था। बहुसंख्यक समाज ने हिंदू महासभा और आरएसएस को तब भी नकारा और जब इनका राजनैतिक चेहरा भारतीय जनसंघ बना और जब तक जनसंघ अस्तित्व में रहा तब तक नकारते रहे। 1977 में जेपी आंदोलन के सहारे और 1989 से राम मंदिर आंदोलन के सहारे ही यह सत्ता में आने लायक हुए।

1945 में जब विश्व युद्ध समाप्त हो गया तो कांग्रेस के सभी नेता छोड़ दिये गए। उधर 1946 में ग्रेट ब्रिटेन में भी सरकार बदल गयी थी। चर्चिल चुनाव हार गया था और लेबर पार्टी की सरकार बन गयी थी। क्लीमेंट एटली वहां के प्रधानमंत्री हो गये थे। वे भारत की आज़ादी के पक्ष में थे। यह उनकी उदारता नहीं अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के क्षय का परिणाम था। आज़ादी दी कैसे जाय, इस पर अंग्रेजों ने भारतीय नेताओं से बात चीत शुरू की। उनकी बातचीत मुख्यतया कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं से शुरू हुयी। कांग्रेस का स्टैंड साफ था कि बंटवारा न हो। पर मुस्लिम लीग को बंटवारे और इस्लामी मुल्क से कम मंजूर नहीं था। हम बिल्ली की तरह झगड़ते रहे और और अंग्रेज़ बंदरों की तरह न्याय करते रहे। कांग्रेस का दूसरा स्टैंड यह था कि अगर किसी कारण से पाकिस्तान बनता भी है तो शेष भारत धर्मनिरपेक्ष ही रहेगा और किसी भी धर्म विशेष का नहीं होगा। यह स्टैंड अकेले गांधी जी का ही नहीं था बल्कि नेहरू, पटेल, आज़ाद, आदि सभी अग्रिम पंक्ति के कांग्रेस के लोगों का था। सावरकर इस स्टैंड से सहमत नहीं थे पर गांधी और कांग्रेस के जनाधार और जन स्वीकृति के सामने वे कहीं नहीं टिक पाये। अस्वीकार कर दिए जाने और जिन्ना द्वारा अपना लक्ष्य पा लेने और खुद का लक्ष्य खो देने की कुंठा का परिणाम पूरी की पूरी हिंदू महासभा और आरएसएस में तब भी था और आज भी है। यही कुंठा आनुवांशिक होकर कभी कभी भाजपा के नेताओं में दिखती है।

आप को लग सकता है कि, भाजपा ने सरदार पटेल की मूर्ति लगवायी और वे सरदार पटेल की निरंतर प्रशंसा करते रहते हैं, तो वे पटेल के पक्ष में खड़े हैं। यह बात बिल्कुल हास्यास्पद है। संघ, और हिंदू महासभा कांग्रेस ही नहीं आज़ादी के आंदोलन से जुड़े हर उस चेहरे के खिलाफ है जो भारतीय परंपरा और बहुलतावाद की बात करता है। चाहे वह गांधी हों, नेहरू हों, पटेल हों, सुभाष बाबू हों या भगत सिंह हों ।

वे भगत सिंह के विचारों के साथ, जो समाजवादी अन्तराष्ट्रीयतावाद और मार्क्सवाद से प्रभावित थे, के कारण नहीं बल्कि गांधी ने भगत सिंह के लिये कुछ नहीं किया और इस बहाने गांधी पर निशाना साधा जा सकता हैं, इसलिए भगत सिंह का नाम लेते हैं। पर गांधी के बारे में भगत सिंह ने क्या कहा था, यह वह नहीं पढ़ना चाहते हैं।

वे पटेल के साथ इसलिए हैं कि नेहरू पटेल पत्राचार में दोनों के बीच एक शिष्ट मतभेद है जिसे वे बार बार उभारते हैं। पर यह वे नहीं जानते कि ऐसे मतभेदों और असहमति की एक लंबी परम्परा हमारे यहां रही है। यह मतभेद कुछ विन्दुओं पर थे न कि कांग्रेस की मूल विचारधारा और रणनीति पर थे।

कभी कभी भाजपा के मित्रगण, सुभाष बाबू के साथ इसलिए खड़े होते हैं कि सुभाष को गांधी जी के कारण कांग्रेस अध्यक्ष के पद से हटना पड़ा था, और कांग्रेस छोड़ कर नयी पार्टी बनानी पर इस पर वे चुप्पी साध लेते हैं कि जब सुभाष ने सिंगापुर में आज़ाद हिंद फौज की स्थापना की तो अपनी तीन ब्रिगेडों का नाम गांधी, नेहरू और आज़ाद के नाम पर  रखा और सुभाष ने ही गांधी जी को राष्ट्रपिता के संबोधन से संबोधित किया। वे यह भी भूल जाते हैं कि आज़ाद हिंद फौज के मुकदमे की सुनवाई में नेहरू और कांग्रेस की क्या भूमिका थी। आज़ाद हिंद रेडियो से बोलते समय नेता जी ने गांधी जी को उस आज़ादी के आंदोलन का नेता स्वीकार किया था।

गांधी की यह विपुल लोकप्रियता और व्यापक जनस्वीकार्यता ही उनकी हत्या का कारण बनी। यही लोकप्रियता सावरकर को तब भी कुंठित किये रही जब वे अंडमान से माफी मांग कर देश की राजनीति में हिन्दू महासभा के माध्यम से राजनीति करने उतरे और इसी कुंठा जनित हताशा में वे जीवन भर जीते रहे। सावरकर एक विद्वान, जुझारू और संघर्षशील स्वातंत्र्य योद्धा थे। वे एक अच्छे लेखक और तार्किक सोच के थे। अंडमान जेल में उन्हें भीषण यातनाएं दी गयी। वे टूट गए। हर व्यक्ति की कष्ट सहने की अपनी अपनी क्षमता होती है। वे माफी मांग कर बाहर आये और फिर उन्होंने धर्म की राजनीति शुरू की।  जिन्ना के साथ मिलकर सरकार चलायी। गांधी हत्याकांड में मुल्ज़िम बने पर बरी हो गये और फिर बेहद खामोशी से दिवंगत भी हो गए।

इतिहास में कोई भी त्रुटि रहित नहीं है। मनुष्य त्रुटि रहित हो ही नहीं सकता है। चाहे वह कोई भी हो। ईश्वर भी जब मनुजावतार में आता है तो वह भी त्रुटिरहित नही रहता है। यही कुंठा कि गांधी और कांग्रेस ने जैसें जिन्ना ने धर्म के आधार पर पाकिस्तान को स्वीकार किया, भारत को भी धर्म के आधार पर स्वीकार क्यों नहीं किया। पर वे यह पचा नहीं पाते हैं कि गांधी का व्यक्तित्व तो विराट था ही नेहरू भी कम करिश्माई नेता नहीं थे। गांधी, नेहरू, पटेल सुभाष, आज़ाद सहित जितने भी कांग्रेस के नेता थे सबमे अनेक बातों पर मतैक्य कभी कभी भले ही न रहा हो, पर देश लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चलेगा और देश का स्वरूप धर्मनिरपेक्ष रहेगा इसपर सबका दृढमत और एका था। गांधी और नेहरू और कांग्रेस के इसी स्टैंड के कारण संघी और हिंदू महासभाई विचारधारा और उनके लोगों की खुन्नस है। इसीलिए आप अक्सर इन्हें इन महान नेताओं की निंदा और तथ्यहीन आलोचना करते पाते हैं।

© विजय शंकर सिंह

Friday 28 June 2019

पुण्यतिथि 27 जून - पत्रकार स्व. एसपी सिंह जी को याद करते हुये / विजय शंकर सिंह

आज पत्रकार एसपी सिंह जी, ( सुरेंद्र प्रताप सिंह ) जिन्होंने आजतक को शुरू किया था कि पुण्यतिथि है और उनके साथ रहे उनके सभी मित्र उनका स्मरण कर रहे हैं। उनसे जुड़ी मेरी भी कुछ पारिवारिक और घरेलू स्मृतियां हैं जिन्हें आप सब से साझा कर रहा हूं।

मेरा बचपन कलकत्ता में बीता है, पर कलकत्ता शहर में नहीं, बल्कि कलकत्ता के उत्तर लगभग 20 किमी दूर श्यामनगर रेलवे स्टेशन के पास गरुलिया नामक एक कस्बे में। मेरे पिता वहां स्थित एक कॉटन मिल डनबर मिल्स में परसनल मैनेजर थे और उसी गरुलिया कस्बे में ही एसपी सिंह जी के पिता जी और उनका परिवार रहता था। कुछ दूर की रिश्तेदारी भी थी और मेरे पिताजी से उनके पिताजी की कुछ घनिष्ठता भी तो आना जाना लगा रहता था। तब मेरा बचपन था। पिता जी के साथ कई बार उनके घर गया हूँ। तब एसपी सिंह जी से मिला भी खूब हूँ, पर एक दूरी बनी रही क्योंकि वे उम्र में बड़े थे और बात भी कम करते थे। मिलने पर कुछ न कुछ पढ़ाई के बारे में पूछने लगते थे।

जब में बीएचयू में पढ़ता था, तब छुट्टियों के बीच इम्तिहान देकर नियमित कलकत्ता चला जाता था तो गरुलिया स्थित मिल कैम्पस के आवास में मन नहीं लगता था। जब भी मन होता श्यामनगर से लोकल ट्रेन पकड़ कर कलकत्ता चला जाता था। श्यामनगर से लोकल ट्रेन मिलती थी, और चालीस मिनट में सियालदह। उन्ही दौरान वे हिंदी पत्रिका रविवार के संपादक हो गये थे। तब आनंद बाजार ग्रुप में दो  पत्रिकाएं निकलना शुरू हुयी थी, एक हिंदी की रविवार और दूसरी अंग्रेज़ी की संडे। संडे के सम्पादक एमजे अकबर थे और रविवार के एसपी सिंह जी। एमजे अकबर से भी मेरी मुलाकात तभी हुयी थी। पर उनसे मेरा कोई अधिक संपर्क नहीं रहा।

एसपी सिंह जी को यह पता था मैं प्रतियोगी परीक्षाएं दे रहा हूँ तो उन्होंने वहां की नेशनल लाइब्रेरी में अपने एक मित्र के माध्यम से मेरा कार्ड बनवा दिया था और मैंने उस लाइब्रेरी का जो भी लाभ उठा सकता था उठाया। उसी दौरान उनकी पत्रिका में कुछ रिक्तियां निकली तो उन्होंने मेरे पिता जी को यह बात बतायी और बनारस में मेरे पते पर उन रिक्तियों का विवरण देते हुए आवेदन करने को कहा और यह भी कहा कि यहीं आकर आवेदन भर दो।

मैं कलकत्ता गया और उन रिक्तियों के संदर्भ में आवेदन किया और फिर वापस बनारस और इलाहाबाद चला आया। इलाहाबाद में मैं पढा नहीं हूं बल्कि प्रतियोगी परीक्षाओं के लिये वहां के मम्फोर्डगंज मुहल्ले में मेरे मामा जी जो इलाहाबाद में ही एजी ऑफिस में अधिकारी थे, के यहां रहता था। 1977 में पीसीएस का इम्तहान देकर मैं कलकत्ता गया तो लंबे समय तक वहां रुका और तब बराबर उनसे मुलाकात होती रहती थी।

मैं जब बनारस में था तो मेरा रिजल्ट निकल गया और मेरा चयन पुलिस सेवा में हो गया। रिजल्ट के बाद एक निश्चिंतता सी हुयी और मैं बनारस से कलकत्ता पिता जी के पास चला गया। वहां पहुंच कर, खुशी खुशी  मैं यह खबर देने दूसरे ही दिन श्यामनगर से लोकल ट्रेन पकड़ कर कलकत्ता चला गया।  धर्मतल्ला पर स्थित केसी दास की दुकान से रसगुल्ला लेकर एसपी सिंह जी को अपने चयनित होने की खुशी में शामिल करने, उनके दफ्तर पहुंचा तो वे अपने केबिन में व्यस्त थे। थोड़ी ही देर में उन्होंने मुझे बुलाया और रसगुल्ला देखते हुये आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता से पूछा यह किस खुशी में ? मैंने उन्हें कारण बताया तो,  उन्होंने प्रसन्न मुद्रा में रसगुल्ला एक तरफ रखते हुए पूछा कि
" हमारे साथ अखबार में काम करोगे या पुलिस की नौकरी में जाओगे ? "
मैं चुप रहा। उनसे मैं अक्सर कहता था कि आप के साथ ही काम करूंगा। यह लिखना पढ़ना मुझे बहुत अच्छा लगता है। अब जब एक अच्छी नौकरी में चयन हो गया है तो क्या कहूँ।
फिर मैंने कहा, "अभी मेरे पास यूपीएससी का एक अवसर और शेष है। अब इलाहाबाद जाकर उसी की तैयारी करूंगा। इसमे तो हो ही गया है। "

उन्होंने अपने दफ्तर से चपरासी को बुलाया। फिर मिठाईयां तथा नाश्ते का सामान अलग से मंगाया और अपने अन्य कुछ सहकर्मियों को भी बुला लिया और एक बड़े भाई की तरह मेरे जीवन मे आये उन खुशी के पलों को जीवंत बना दिया। फिर मैं एक महीना निर्द्वन्द्व हो कर कलकत्ता रोज घूमता था और अक्सर उनके यहां जाता रहता है।

वे फिर कब नवभारत टाइम्स में आ गए यह मुझे नहीं पता है। मैं फिर ट्रेनिंग और नौकरी में व्यस्त हो गया। 1980 में पिता जी भी अपने पद से रिटायर होकर बनारस आ गए। यह सम्पर्क लगभग टूट गया। जब मुझे पता चला कि वे नवभारत टाईम्स में प्रबंध सम्पादक हैं तो दिल्ली उनसे मिलने गया था। बहादुर शाह जफर मार्ग स्थित कार्यालय में उनसे भेंट हुयी। उस दौरान जब मैं एक हफ्ता दिल्ली में था तो दो तीन बार भेंट हुयी। वे मेरे अग्रज थे, मित्र नहीं तो बात भी बहुत औपचारिक ही होती थी।

1995 - 96 में मैं लखनऊ में डीजीपी का पीआरओ था। प्रेस से नियमित संपर्क रखना ही मेरा काम था। तब मैं दिल्ली और लखनऊ के प्रेस के मित्रों से नियमित भेंट होती थी और उनमें से कुछ से जो मित्रता हुयी वह अब तक बनी हुयी है। मेरे डीजीपी थे डॉ गिरीश बिहारी। उन्होंने मुझसे कहा कि
' दिल्ली से उनके एक पत्रकार मित्र जहाज से अमौसी आएंगे और सप्रू मार्ग स्थित पुलिस अफसर मेस में रुकेंगे। उन्हें लेकर सीधे डीजीपी मुख्यालय लाना है और फिर मेस में ले जाकर छोड़ना है। उनके साथ अजय सोलंकी भी होंगे। '
मुझे उनका नाम नहीं बताया गया। उनके साथ एक और सज्जन अजय सोलंकी भी आ ही रहे थे तो मैंने डीजीपी साहब से अधिक पूछना उचित नहीं समझा।

मैं अमौसी एयरपोर्ट पहुंचा। जब एसपी सिंह जी सोलंकी के साथ बाहर निकल रहे थे तो उन्हें देख कर खुशी और हैरानी दोनों हुयी। मैंने उनके पांव छुए तो उन्होंने कहा कि " तुम यहाँ कैसे ? "
तब सोलंकी ने उनसे कहा कि " यह तो डीजीपी के पीआरओ हैं ।"
फिर कुछ खास बात नहीं हुयी। सोलंकी की यह आदत थी कि जब वे साथ रहते थे तो किसी को बोलने नहीं देते थे। तब एसपी सिंह जी 'आज तक'  मे आ चुके थे।
तब से उनके दिवंगत होने तक सम्पर्क बना रहा। फिर मैं, 1996 अगस्त में  पीआरओ से  एसपी ट्रैफिक के पद पर स्थानांतरित होकर कानपुर आ गया।

बाद में आज तक पर उनका प्रोग्राम नियमित देखता था। उपहार सिनेमा अग्निकांड जिसमे 50 से अधिक लोग मर और सैकड़ों घायल हो गए थे पर उनकी स्टोरी आज भी याद है। इस कांड का उनपर बहुत गहरा असर पड़ा।  मितभाषी थे वे। और बेहद संवेदनशील भी। अग्निकांड की यह रिपोर्टिंग और उनकी ऐंकरशिप कमाल की थी। उस दुःखद कांड  के प्रति यह उनकी समानुभूति थी। तब मेरी बात हुयी थी। तब मोबाइल का जमाना नहीं था। उनसे बात भी फोन पर बहुत कम होती थी। होती भी थी तो बस पारिवारिक, हाल चाल। किसी खबर पर नहीं और राजनीति पर तो बिलकुल नहीं।

आज जब 27 जून को उनकी पुण्यतिथि से जुड़ी खबरें उनके पत्रकार और गैर पत्रकार मित्रों द्वारा फेसबुक पर देखा तो वह सब याद आया जो धूल और गर्द के नीचे कहीं पड़ा था।

पुण्य प्रसून बाजपेयी का उनके बारे में एक कथन इसी फेसबुक पर मिला है। मुझे अच्छा लगा । उसे भी जोड़ दे रहा हूँ। यह अंश पत्रकारिता पर है,

" सच को बताने निकलते हैं तो आपकी साख बनती है और झूठ को बताने निकलते हैं तो वो ब्रांड हो जाता है। पत्रकार सिर्फ..पत्रकार होता है इनका उनका नहीं होता..चाहे दौर कोई भी हो। मीडिया का एक बड़ा समंदर हो गया है जिसमें पत्रकार गायब हो गया है। अगर पत्रकार थम गया, यदि पत्रकारिता रूक गयी तो अच्छा नेता,अच्छा शिक्षक, अच्छा वकील,अच्छा समाज नहीं दे पायेंगे । "

स्व. एसपी सिंह जी  को स्मरण करते हुए उनका विनम्र स्मरण !!

© विजय शंकर सिंह

Thursday 27 June 2019

सरकार और डॉ मनमोहन सिंह की मुलाकात / विजय शंकर सिंह

अभी कुछ ही दिनों पहले सरकार ने डॉ मनमोहन सिंह को उनको पूर्व प्रधानमंत्री की हैसियत से मिलने वाली सुविधाओं में कटौती की थी, जब कि डॉ सिंह ने उन सुविधाओं को जो मुख्यतया कार्यालयी सुविधाएं थीं को बनाये रखने के लिये अनुरोध भी किया था। कल सरकार खुद ही डॉ सिंह से मिलने और बजट की पेचीदगियां समझने उनके दर पर आ गयी।

डॉ मनमोहन सिंह एक ख्यातिप्राप्त अर्थशास्त्री हैं, यह वक़्त की बात थी कि वे दस साल देश के पीएम रहे। उनके कार्यकाल के मूल्यांकन के लिये किसी लंबे चौड़े अध्ययन की आवश्यकता नहीं है। बस 2014 से अब तक के आर्थिक सूचकांक के आंकड़े ही पर्याप्त हैं।

न शोर, न नारे, न नाटकीय संवाद,न वस्त्र परिवर्तन और न ही भरत मुनि की विद्या का आंगिक प्रदर्शन। खामोशी और एक शिक्षकीय गरिमा से, आधे अधूरे बहुमत और जनाधार विहीन राजनीतिक क्षवि के सहारे उनसे जो बन पड़ा उन्होंने किया। जो कुछ भी उनके खिलाफ उच्छृंखल रूप से  अमर्यादित शब्दो मे कहा गया, उन्होंने सुना।

इतिहास उनका मूल्यांकन बात में करेगा। इतिहास कैसे करता है उनका मूल्यांकन यह भावी पीढ़ी देखेगी। पर फिलहाल तो उनका कार्यकाल अर्थव्यवस्था की दृष्टि से 2014 से चल रही सरकार से बेहतर है, जब हम देख रहे हैं कि, एक निकम्मे नशेड़ी वारिस की तरह अपने पूर्वजों की बनी बनाई पूंजी और संसाधन को बेच कर ही अर्थव्यवस्था के सुनहरे होने का जश्न आज की सरकार मना रही है।

रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण का डॉ मनमोहन सिंह के आवास पर शिष्टाचार मुलाकात के लिये जाना एक सराहनीय पहल है। सरकार के इस कदम की सराहना की जानी चाहिये, विशेषकर ऐसे माहौल में जब सत्ता और विपक्ष पट्टीदारी के मूर्खतापूर्ण रंजिश से संक्रमित हो चुके हों । डॉ सिंह को भी सरकार को अर्थव्यवस्था के बेहतरी के लिये जो कुछ भी वे सुझाव दे सकते हैं, देना चाहिये।

© विजय शंकर सिंह