Wednesday 31 May 2023

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, 'यादों की बारात' का अंश (3) शायर बनाने की शुरुआत / विजय शंकर सिंह

     चित्र, मलीहाबाद के आमों के बगीचे का है। 

जोश साहब को शायरी घुट्टी में तो नहीं मिली थी, लेकिन जोश मलीहाबादी की साहित्यिक रुचि का प्रस्फुटन उनके बचपन में, ही हो गया था। हालांकि जोश साहब के पिता, भी शौकिया शायर थे। लेकिन जब जोश के बारे में, उन्हें यह पता लगा कि, शब्बीर (जोश का असल नाम) चुपके चुपके से, शेर लिखते हैं तो, वे आपे से बाहर हो गए। जोश ने पिता के हांथों मार भी खाई, लेकिन बाद में, उन्होंने जोश के इस शौक को, स्वीकार भी कर लिया और उन्हें अपने साथ, एक मुशायरे में भी ले गए और वह मुशायरा, जोश के अदबी जीवन का पहला मुशायरा था। 
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यों तो नौ बरस की उम्र ही से शे’र की देवी ने मुझे आग़ोश में लेकर मुझसे शे’र कहलाना शुरू कर दिया था। लेकिन आगे चलकर जब शायरी से मेरा लगाव बढ़ने लगा तो शायद इस ख़याल से कि अगर मैं शायरी में डूब गया तो मेरी तालीम नाक़िस2 रह जाएगी, मेरे बाप के कान खड़े हो गए और उन्होंने मुझसे इरशाद फ़रमाया कि ख़बरदार अब अगर तुमने शायरी की तो मुझसे बुरा कोई न होगा। इसके साथ उन्होंने ज़नाने में बुआ गुलज़ार और मर्दाने में उम्मीदअली को मामूर फ़रमाया कि वे जब मुझे शे’र कहते देखें तो उनकी जनाब में रिपोर्ट कर दें। बाप के इस हुक्म और ज़नाना-मर्दाना की ख़ुफ़िया पुलिस ने मुझे बौखला दिया। 

भाग्य का यह फ़रमान कि शायरी कर, शरीयत का यह हुक्म कि ख़बरदार शायरी के क़रीब भी न फटक। मैं इस कशमकश में पड़ गया कि अपनी फ़ितरत का हुक्म मानूँ कि अपने बाप का ख़ारिजी3 फरमान क़बूल करूँ। 

सोचने लगा, मैं अपनी ज़ात से जुदा क्योंकर हो जाऊँ। शे’र कहता हूँ तो बाप बिगड़ते हैं, नहीं कहता तो दिल पर बिगाड़ आते हैं। क्या करूँ और क्या न करूँ? शे’र कहूँ तो बाप डाँट पिलाएँ, अपने दस्तरख़्वान पर खाना न खिलाएँ और शे’र न कहूँ तो दिमाग़ के परखचे उड़कर रह जाएँ। 

इसलिए मैं शायरी छोड़ नहीं सका। चोरी-छिपे शे’र कहता, इधर-उधर देखता हुआ किसी गोशे में जाकर उन्हें लिखता और पर्चे अपने सन्दूक़चे के अंदर बन्द कर देता और स्मगलरों की तरह इस सन्दूक़चे को अपनी माँ के हवाले कर देता था कि वह इसे छिपाकर रख दें। मेरी माँ को मेरी इस हालत पर बड़ा तरस आता था। मगर वह उदास हो जाने के सिवा और कर ही क्या सकती थीं। 

लेकिन इस एहतियात के बावजूद मैं अंदर और बाहर ऐन मौक़े पर शे’र कहता पकड़ा गया। मेरा जेब-ख़र्च बंद हुआ, बाप ने अपने साथ खाना खिलाना तरक4 कर दिया और अक्सर थप्पड़ भी मारे। अपनी हर ज़िल्लत के बाद मैंने बार-बार कान पकड़-पकड़कर क़समें खाईं कि अब कभी शे’र नहीं कहूँगा। अब खाई सो खाई, अब खाऊँ तो राम दुहाई। लेकिन जैसे ही मेरे दिल में शायरी की रुगरुगाहट होने लगती थी, मेरी तमाम क़समें चूर-चूर होकर रह जाया करती थीं और हज़रते-वहशत का यह शे’र मुझ पर लागू होता था,
मजाले तर्के-मुहब्बत न एक बार हुई 
ख़याले तर्के-मुहब्बत तो बार-बार आया ⁠। 

० शे’र कहने की इजाज़त 

एक बार मैं अपने सन्दूक़चे में जेब से पुर्ज़े निकाल-निकालकर रख रहा था कि बुआ गुलज़ार ने देख लिया। वह भाँप गईं। मियाँ को ख़बर कर दी। मियाँ आए। मेरी माँ से कहा, “शब्बीर का सन्दूक़चा कहाँ है?” मेरी माँ का रंग हल्दी का-सा हो गया। मियाँ का ख़ौफ इस क़दर था कि वह इनकार नहीं कर सकीं और मेरा सन्दूक़चा उनके सामने रख दिया। मियाँ ने मुझसे कुंजी मांगी। काँपते-लरज़ते हाथों से मैंने कुंजी दे दी। उन्होंने सन्दूक़चा खोला। मेरे पुर्ज़े एक-एक करके निकाले। मैं अपने बाप को इस तरह देखने लगा जिस तरह गाय अपने बछड़े को छुरी के नीचे देखकर काँपती है। जब उन्होंने मेरे तमाम पुर्ज़े चर-चर फाड़कर फेंक दिए, मेरे मुँह से एक दर्दनाक चीख निकली और मैं बेहोश हो गया। मेरी माँ दीवानावार मुझसे चिमटकर रोने लगीं। मियाँ के हवास उड़ गए। दादी जान ने आकर मेरे बाप को डाँटा कि क्या बच्चे को मार डालेगा? 

डॉक्टर अब्दुल करीम को मेरे बेहोश हो जाने की ख़बर की गई। वह तुरन्त आ गए। मेरी नब्ज़ देखी और कहा, “ख़ाँ साहब, घबराइए नहीं। मैं दवा साथ लाया हूँ।” उन्होंने मेरा मुँह खोलकर दवा पिलाई। रईस की अन्ना ने मुँह पर छींटे मारे और दस-पन्द्रह मिनट के बाद मुझे होश आ गया। मेरे बाप ने मुझे सीने से लगाकर इरशाद फ़रमाया, “बेटा, मैंने तुम्हें शे’र कहने की इजाज़त दे दी है। मैं ख़ुद तुझे इस्लाह दिया करूँगा। इधर आकर दम-भर के लिए इस पलंगड़ी पर लेट जा।” मैं लेट गया तो मेरा जी बहलाने के लिए उन्होंने मुझसे कहा—बेटा इस शे’र के मानी बयान कर,
वो जल्द आयेंगे या देर में शबे-वादा 
मैं गुल बिछाँऊ कि कलियाँ बिछाऊँ बिस्तर पर ⁠। 
अब शे’र की इजाज़त मिल जाने के बाद मेरी तबियत बहाल हो चुकी थी। मैंने ज़रा-सा ग़ौर करके अर्ज़ किया—“शायर से उसके दोस्त ने वादा किया है कि आज मैं आऊँगा। अब शायर इस असमंजस में है कि मैं गुल बिछाऊँ कि कलियाँ। अगर वह ठीक वक़्त पर आने वाला है तो मैं खिले हुए फूल और अगर देर में आने वाला है तो बेखिली कलियाँ बिछा दूँ।” 

मियाँ ने पूछा, “डॉक्टर साहब, मानी सही बयान किए हैं शब्बीर ने?” डॉक्टर साहब ने कहा, “इससे ज़्यादा सही मानी बयान नहीं किए जा सकते।” मियाँ ने कहा, “मुझे आपकी राय से इत्तफ़ाक़ है। लेकिन तर्ज़े-बयान5 में उसने दो ठोकरें खाई हैं।” डॉक्टर साहब ने कहा, “साहबज़ादे, फिर तशरीह6 कर दीजिए!” मैंने फिर एक-एक लफ़्ज़ दोहरा दिया। डॉक्टर ने कहा, “मेरे नज़दीक तो साहबज़ादे ने कहीं ठोकर नहीं खाई है।” मियाँ ने हँसकर कहा, “आप लाख सुख़न-संज (शे’र समझने वाले) और हाली के हम वतन सही फिर भी जाए-उस्ताद ख़ालीस्त। सुनिए, उसकी पहली ग़लती तो यह है कि उसने ‘खिले हुए फूल’ कहा है। कली जब चटककर खिल जाती है तो उसे फूल कहा जाता है। खिलावट तो फूल की ऐन ज़ात है। इसलिए ‘खिले हुए फूल’ कहना हश्वो-जवाइद (व्यर्थ) में दाख़िल है। दूसरी ग़लती यह है कि उसने कली को ‘बेखिली कली’ कहा है। हालाँकि कली को तो इसीलिए कली कहते हैं कि वह अभी चटककर खिली नहीं है और बेखिलापन उसकी ऐन ज़ात है।” डॉक्टर साहब ने कहा, “बेशक आपका ख़याल दुरुस्त है। फूल और कली के साथ किसी सिफ़त की कोई ज़रूरत नहीं।” इसके बाद मियाँ ने इरशाद फ़रमाया—अच्छा, एक और शे’र के भी मानी बता दो तो मैं तुम्हारी शे’र-फ़हमी को मान जाऊँगा — 
आ रहे हैं लाश के वो साथ-साथ 
अब हमारी क़ब्र कितनी दूर है।

शे’र सुनकर मैं उलझन में पड़ गया। दोनों मिसरों में कोई रब्त (संबंध) ही नज़र नहीं आया और सोचने लगा। दस-पन्द्रह मिनट सोचने के बाद मैं ख़ुशी से उछल गया। बिस्तर से उठ बैठा। मैंने कहा, “शायर के जनाज़े में उसका दोस्त शरीक है। शायर को यह ख़याल सताने लगता है कि उसके दोस्त को पैदल चलने में तकलीफ़ हो रही होगी। इसलिए वह उकताकर पूछ रहा है कि अब हमारी कब्र किस क़दर फ़ासले पर रह गई है।” मियाँ ने झुककर मुझे सीने से लगा लिया। डॉक्टर साहब ने भी बहुत दाद दी और इस बात को स्वीकारा कि उन्हें यह शे’र निरर्थक लग रहा था। मियाँ ने कहा, “तुम्हें इस शे’र में फ़न के नुक़्ताए-नज़र से कोई ऐब तो नज़र नहीं आ रहा है?” मैं बेचारा फ़न से वाक़िफ़ ही कब था। मैंने कहा, “कोई ऐब नहीं है।” मियाँ ने फ़रमाया, “इसके पहले मिसरे में ताक़ीद है।” और फिर मिसालें देकर समझाया कि ताक़ीद क्या चीज़ होती है। 

डॉक्टर ने कहा, “ख़ाँ साहब, आप साहबज़ादे को शायरी से बाज़ तो नहीं रख सकते। लेकिन यह बात ज़रूर समझा दीजिए कि पढ़ाई खत्म करने से पहले इस मश्ग़ले (काम, हॉबी) पर ज़्यादा वक़्त सर्फ़ न किया जाए।” 

मियाँ ने फ़रमाया, “मैं तालीम से भी आगे की बात सोच रहा हूँ। यानी शायरी वह चीज़ है जो शायर को इस बात की इजाज़त ही नहीं देती कि वह शे’र कहने और शायराना ज़िन्दगी बसर करने के अलावा दुनिया का कोई और काम भी कर सके। यह वह बद बला है कि शायर के दिल में दौलत को इस क़दर हक़ीर कर देती है कि वह उसकी तरफ़ आँख उठाकर भी नहीं देखता। नतीजा यह कि वह मुफ़्लिसी9 का शिकार होकर रह जाता है…” इतना कहकर उनकी आँखों में आँसू भर आए। उन्होंने मेरी तरफ़ निगाह करके दुआ के लिए हाथ बुलंद फ़रमाए कि ऐ अल्लाह मेरे शब्बीर को तबाही10 से बचाना और उस पर ऐसी करम की निगाह रखना कि रोज़गार की ख़ातिर इसे दूसरों का मुँह न देखना पड़े।”
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इस तरह जोश साहब की काव्य यात्रा शुरू हुई। उनका पहला मुशायरा लखनऊ में हुआ था, जिसमें उनके पिता जी भी मौजूद थे। उसका भी एक दिलचस्प किस्सा है। अगले भाग में आप उसे पढ़ेंगे। 
(क्रमशः)

विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh

भाग (2)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/05/2.html 


Monday 29 May 2023

मणिपुर में सामान्य स्थिति की वापसी के लिए सरकार और नागरिक समाज द्वारा ठोस कार्रवाई की आवश्यकता है / विजय शंकर सिंह

मणिपुर में हिंसा फिर से भड़क उठी है। महज तीन हफ्ते बाद आगजनी में सैकड़ों मौतें हुईं और विशेष रूप से चुराचांदपुर और इंफाल में लोगों का विस्थापन हुआ।  चिंताजनक रूप से, मणिपुर के उच्च न्यायालय द्वारा 27 मार्च को राज्य की अनुसूचित जनजाति सूची में मेइती समुदाय को शामिल करने की मांग के एक आदेश के खिलाफ विरोध के रूप में जो हिंसा शुरू हुई, उसने आदिवासी और गैर आदिवासी विवाद के   साथ, एक विचित्र मोड़ ले लिया है।  

वहां के विधायक "अलग अलग प्रशासन" की मांग कर रहे हैं। अलगाववाद की ऐसी स्थिति कभी नहीं आनी चाहिए थी। दिक्कत यह है कि,  अंतर-सामुदायिक संबंध जब  कभी  भड़क उठते हैं तो इसका असर वर्षों तक पड़ता है और संबंध लंबे समय तक अविश्वास से भरे तथा तनावपूर्ण बने रहते हैं। मई में हुई झड़पें, पहाड़ी-घाटी संबंधों में गिरावट और मैतेई में मौजूद कट्टरपंथियों और बदमाशों द्वारा की गई हिंसा को रोकने में सरकार पूरी तरह से  विफल रही है। यह भाजपा के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह के नेतृत्व वाली राज्य सरकार द्वारा हिसक तत्वों के खिलाफ, समय पर और निष्पक्ष तरीके से कार्य न करने की का परिणाम है।   

राज्य सरकार को केंद्र की मदद से, दंगा प्रभावित क्षेत्रों में अर्धसैनिक और पुलिस बलों की गश्त बढ़ाकर, विस्थापित लोगों को राहत प्रदान करके और उग्रवादी वर्गों के प्रभाव को कम करके सामान्य स्थिति वापस लाने के लिए मिलकर काम करना चाहिए।  साथ ही, विस्थापितों की उनके घरों में वापसी की अनुमति देने की योजना को भी सुरक्षा बलों की मदद से, संपन्न कराया जाना चाहिए।  ऐसा न करना दोनों ओर के अंधराष्ट्रवादियों के हाथों में ही खेलता है जो मतभेदों, असामंजस्य और अलगाव पर जोर देते हैं। यह सभी दीर्घावधि में राज्य के लिए विनाशकारी होंगे।  

मणिपुर, कुछ अन्य पूर्वोत्तर राज्यों को, अपने नागरिकों के बीच एक नागरिक चेतना को बढ़ावा देने की जरूरत है जो उन्हें जातीय पहचान से ऊपर उठकर खुद को अलग करने के स्वार्थ से, हट सकें। समुदाय के नेताओं और राज्य सरकार के प्रतिनिधियों के बीच विश्वास टूटने के साथ, यह मणिपुर के भीतर और बाहर नागरिक समाज के सदस्यों पर निर्भर है, कि वे, अंतर-समुदाय संबंधों के पुनर्निर्माण का दायित्व संभालें और अराजकवादी और उग्रवादी समूहों को, समाज में सक्रिय न होने दें। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Sunday 28 May 2023

सेंगोल को कभी आनंद भवन में नहीं रखा गया था / विजय शंकर सिंह

28 मई को संसद में स्थापित सेंगोल पर जवाहरलाल नेहरू की छड़ी के रूप में "गलत लेबल" लगाए जाने की खबरों के संदर्भ में, इलाहाबाद संग्रहालय के एक सेवानिवृत्त क्यूरेटर डॉ. ओंकार आनंद राव वानखेड़े ने 'द वायर' को बताया कि जो छड़ी यहां प्रदर्शित की गई थी, उस पर,  इलाहाबाद संग्रहालय ने, शीर्षक केवल "गोल्डन स्टिक" दर्ज किया था। भाजपा झूठा दावा कर रही है कि छड़ी को "नेहरू की छड़ी" के रूप में लेबल किया गया था और इसे आनंद भवन में रखा गया था।  

पूर्व क्यूरेटर, डॉ ओंकार राव वानखेड़े ने आगे कहा कि, "यहां तक ​​कि विवरण में जवाहरलाल नेहरू शब्द का उल्लेख भी नहीं किया गया था," वे कहते हैं, "हमारा काम, बस यह वर्णन करना है कि, किस वस्तु या ऑब्जेक्ट प्रदर्शित किया जा रहा है। और इसलिए सेगोल को 'सुनहरी छड़ी' के नाम से प्रदर्शित किया गया। संग्रहालय में रखी गई, वस्तु की व्याख्या का कार्य इतिहासकार या अन्य विशेषज्ञों का होता है।" 

वे आगे कहते हैं, "यही कारण है कि हमारे पहले क्यूरेटर और बाद में निदेशक, एस.सी. काला, जिन्होंने लगभग 1948 से 1952 तक संग्रहालय में प्राप्त हुए, उपहार की सूची बनाई थी, ने उसमें, इसे केवल गोल्डन स्टिक के रूप में रजिस्टर में दर्ज किया। तब से, यही वह नाम, सभी आधिकारिक रिकॉर्ड में अंकित है। यह छड़ी कभी भी, नेहरू-गांधी परिवार के घर, आनंद भवन में नहीं रखी गई, बल्कि  इसे, दिल्ली से सीधे लाकर, इलाहाबाद संग्रहालय में रखा गया था।" 

यहीं यह सवाल उठता है कि, फिर इस छड़ी को जवाहरलाल नेहरू की छड़ी कब से कहा जाने लगा ? क्योंकि एक फोटो ऐसी सोशल मीडिया पर वायरल है जिसमें इसे 'जवाहरलाल नेहरू की सुनहरी छड़ी' कहा गया है। इस फोटो को मैने भी अपनी एक पोस्ट के साथ साझा  किया था। 

28 मई को समारोह के तुरंत बाद, उपस्थित अतिथियों को, संबोधित करते हुए, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, 
"प्रयागराज के आनंद भवन में 'चलने वाली छड़ी (वाकिंग स्टिक) के रूप में सेंगोल को रखा गया था ... अब सरकार ने इसे आनंद भवन से बाहर कर दिया है।" 
जबकि सत्यता यह है कि, 4.6 फीट लंबा सेंगोल राष्ट्रीय संग्रहालय में नवंबर 2022 से रखा गया है। इसे राज्यपाल उत्तर प्रदेश आनंदी बेन पटेल की औपचारिक अनुमति के बाद दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में भेजा गया था। 

सेंगोल को लेकर, कई खबरें फैलाई गई है। लॉर्ड माउंटबेटन से लेकर चोल राजदंड से होते हुए सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में, तरह तरह की खबरें, फैल रही है। झूठ का कुहासा छंट रहा है और सच, अब सामने आ रहा है। जब मिथ्या वाचन स्थायोभाव और दुष्प्रचार, स्थाई रणनीति, बन जाती है तो, हर भाषण, हर वक्तव्य, में झूठ का अंश स्वाभाविक रूप से आ जाता है। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Saturday 27 May 2023

सेंगोल, जिसे चोल साम्राज्य का राजदंड कहा जा रहा है, का सच / विजय शंकर सिंह

जिस सेंगोल को, लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा सत्ता के हस्तांतरण के संदर्भ में, चोल साम्राज्य के राजदंड के रूप में,  जवाहरलाल नेहरू को प्रदान करने की बाद सरकार के कुछ मंत्रियों द्वारा कही जा रही है, वह अब तक, किसी तत्कालीन साक्ष्य या दस्तावेजों से प्रमाणित नहीं हो पायी है। 

सेंगोल का सच, इस पेपर कटिंग से आप जान सकते हैं। यह पेपर कटिंग, मद्रास, (अब चेन्नई) से छपने वाले अखबार, इंडियन एक्सप्रेस के 12 अगस्त का है। इंडियन एक्सप्रेस में एक खबर शीर्षक, Golden Sceptre For Pandit Nehru, से छपी थी, जिसमे इस सेंगोल का पूरा विवरण अंकित है। अंग्रेजी में छपे इस खबर का हिंदी अनुवाद इस प्रकार है। 
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पंडित नेहरू के लिए सुनहरा राजदंड
थिरुवदुथुराई मठ के प्रमुख द्वारा प्रस्तुति

मायावरम, 11 अगस्त। यह आधिकारिक रूप से घोषित किया गया है कि, परम पावन श्री ला श्री अंबालावना देसिका स्वामीगल, तिरुवदुथुरे के महासन्निदनम!  आदिनम, तंजौर डीआईबी-ट्रस्ट ने पंडित जवाहरलाल नेहरू, भारतीय डोमिनियन के पहले प्रधान मंत्री के लिए एक स्वर्ण  राजदंड, पेश करने का फैसला किया है, जो लगभग 15,000 रुपये मूल्य के रत्नों से जड़ा हुआ है और पंडित जवाहरलाल नेहरू ने परम पावन द्वारा प्रदत्त यह उपहार ठीक उसी समय, 14 अगस्त को, 11 बज कर 5 मिनट पर, ग्रहण करना स्वीकार किया है।  

इस समारोह में परम पावन का प्रतिनिधित्व करने के लिए थिरुवथिगल के श्री कुमारस्वामी थम्बिरन और श्री आर रामलिंगम पिल्लई, दक्षिणम अधीक्षक कल न्यू दिल्ली के लिए रवाना हुए। गोल्डन राजदंड को नाथस्वरम या श्री टी. एन. राजरत्नम पिल्लई आदिनम विद्वान के साथ जुलूस में संविधान सभा हॉल में ले जाया जाएगा।
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इससे यह साफ पता चलता है कि, यह दक्षिण भारत के एक प्रतिष्ठित मठ द्वारा गढ़वाया गया और मंत्रों से अभिषिक्त और पूजित दंड है और उसे मठ के आचार्य, जिन्हे अखबार में His Holiness परम पावन कहा गया है, ने अपने आशीर्वाद स्वरूप जवाहरलाल नेहरू को भेजा था। 10 अगस्त को यह प्रसाद दंड,  चेन्नई, (तब मद्रास) से, रवाना किया गया और यह तय हुआ था कि, संविधान सभा के हॉल में जहां आजादी के उत्सव का प्रारंभ होना था, वहां इसे जुलूस में, समारोह पूर्वक ले जाया जाएगा और यह प्रसाद, नेहरू जी को दिया जायेगा। और ऐसा ही हुआ भी। 

अब इस पूरे प्रकरण में न तो लॉर्ड माउंटबेटन का उल्लेख है और न ही चोल राजाओं के राजदंड का। यह एक आशीर्वाद प्रतीक था, जिसे नेहरू ने,  ग्रहण किया और फिर इसे म्यूजियम में रख दिया गया। तत्कालीन इतिहास की पुस्तकों में भी लॉर्ड माउंटबेटन द्वारा राजदंड दिए जाने का कोई उल्लेख इसलिए नहीं मिलता है कि, ऐसी कोई सेरेमनी हुई ही नहीं थी। यदि माउंटबेटन द्वारा ऐसी कोई सेरेमनी हुई होती तो, वह उस समय के संस्मरणों में जरूर लिखी होती। 

आप खबर का अंग्रेजी अंश यहां पढ़ सकते हैं ~ 

GOLDEN SCEPTRE FOR PANDIT NEHRU

Presentation by Head Of Thiruvaduthurai Mutt

MAYAVARAM, Aug. 11. It is officially announced that His Holiness Sri La Sri Ambalavana Desika Swamigal, the Mahasannidanam of the Thiruvaduthure ! Adinam, Tanjore DIB- trust has decided to present Pandit Jawaharlal Nehru, the first Prime Minister to the Indian Dominion with a Golden Sceptre studded with jewels and worth about Rs 15,000 and that Pandit Jawaharlal Nehru has accepted to receive the present of His Holiness at exactly 11-5 pm. on Aug. 14.

To represent His Holiness at the function Sri Kumaraswami Thambiran of Thiruvathigal and Mr. R Ramalingam Pillal, Dakshinam Superintendent left for New Dell yesterday. The Golden Sceptre will be taken to the Constituent Assembly Hall in pro- cession to the accompaniment of the Nathaswaram or Mr. T. N. Rajaratnam Pillai the Adinam Vidwan.

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

फोटो, इंडियन एक्सप्रेस की पेपर कटिंग, साभार सौमित्र रॉय  (Soumitra Roy)

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (2) थर्ड क्लास और इक्के का पहला सफ़र / विजय शंकर सिंह

जोश मलीहाबादी की शुरुआती शिक्षा, सीतापुर में हुई थी। उनके पिताजी, जिन्हें जोश साहब ने, अपनी आत्मकथा में मियां साहब कह के संबोधित किया है, जोश साहब को, अपने से दूर नहीं भेजना चाहते थे। हालांकि घर पर ही उन्हीने जोश साहब के लिए अरबी, फारसी और अंग्रेजी के लिए शिक्षक नियुक्त कर रखे थे। पर जोश के अनुसार यह तीनों शिक्षक, जिसमे दो मौलाना, जो फारसी और अरबी पढ़ाते थे और एक बाबू गोमती प्रसाद थे, जो अंग्रेजी पढ़ाते थे, जोश से खुद ही डरते रहते थे। जोश पढ़ाई लिखाई में होशियार थे और मलीहाबाद के अपने घर की तालीम के बजाय किसी अच्छे स्कूल में पढ़ना चाहते थे, ने अपने पिता से यह बात कही। पर यहां भी पुत्रमोह आड़े आ गया। 

जोश के एक फुफेरे भाई थे, सफदर हुसैन खान, जो सीतापुर में पढ़ते थे और पढ़ने में तेज भी थे। थे तो वे भी बड़े ज़मीदार, पर उनकी सोच प्रगतिशील थी और वे व्यर्थ के ज़मीदारना वैभव प्रदर्शन से दूर रहते थे। जोश ने, उनसे कहा कि, वे भी आगे पढ़ना चाहते है। सफदर खान ने फिर बड़े खान साहब, यानी जोश के वालिद साहब को समझा बुझा कर राजी किया कि जोश को सीतापुर पढ़ने के लिए भेजें। फिर, जोश के वालिद साहब, इस बात पर राजी हो गए और यह तय हो गया कि, जोश को पढ़ने के लिए सीतापुर भेजा जाए। 

सीतापुर के स्कूल में दाखिला कराने और ले जाने की जिम्मेदारी सफदर को दी गई। लेकिन सीतापुर में, जोश का दाखिला हो तो गया था, पर उनका वहां मन नहीं लगा। हालांकि सीतापुर में, मलीहाबाद के कई और लड़के पढ़ते थे, जिसमे, जोश का एक दोस्त अबरार भी था। उधर जोश के वालिद साहब, भी उदास रहने लगे। वे चाहते थे कि, सीतापुर के बजाय, जोश का दाखिला, लखनऊ के किसी स्कूल में हो जाय। उन्होंने जोश को सीतापुर से वापस बुला लिया और, फिर उनका दाखिला, लखनऊ के एक स्कूल में करा कर, वहीं उनके रहने की व्यवस्था कर दी। 

इस अंश में जोश की सीतापुर यात्रा, स्कूल में दाखिले, वहां से मलीहाबाद वापसी और फिर, लखनऊ के एक स्कूल में दाखिले का दिलचस्प वर्णन है। 
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थर्ड क्लास और इक्के का पहला सफ़र

सफदर भाई ने स्टेशन जाते हुए मुझे एक लम्बा लेक्चर पिलाया,जिसका खुलासा यह था कि जमाना अब बड़ी तेज़ी के साथ बदल रहा है। अमीरी की बू अपने सर से निकाल दो मामू ने मुझे फर्स्ट क्लास का किराया दिया है, मगर मैं तुम्हें ले जाऊंगा थर्ड क्लास में मंजूर है तुम्हें? मुझे क्या मालूम था कि थर्ड क्लास के मुसाफिरों को किन-किन बलाओं से दो चार होना पड़ता है। मैंने उनकी तजवीज़ मंजूर कर ली।

मगर थर्ड क्लास में कदम रखा तो जी सन्न से होके रह गया। पाँव के नीचे से जमीन निकल गई। सबसे पहले उस डिब्बे की उस बदबू ने मेरे दिल पर घूंसा मारा, जिससे में कभी दो-चार हुआ ही नहीं था। फिर मैंने देखा कि वह डिब्बा औधा- आंधा-सा है और बेगहों की खुरदरी जलील बचे मुझे मुंह चिढ़ा रही हैं। एक बेंच पर चन्द्र गँवार बिच्छू मार्का तम्बाकू की चिलमें पी-पीकर बुरी तरह खास रहे हैं। नाक में डंक मारने लगी तम्बाकू की बदबू । मरता क्या न करता, सर झुकाकर खरी सीट पर बैठ गया। सीट चुभने लगी, सास मेरे सीने में उलझ गई और इमाम-जामिन गर्म होकर मेरे बाजू पर दाग लगाने लगे। मैं खिड़की से मुँह निकालकर बैठ गया। चारबाग से निकलकर सफदर भाई ने दो खबीस इक्केवालों को इशारे से बुलाया और वे दो कौड़ी के जलील इक्के, अपने गधों के से अफ़्यूनी घोड़ों के साथ चू चू करते जब मेरी तरफ रंगने लगे तो मुझे ऐसा लगा जैसे मुंह काला करके मुझे गधे पर बिठाया जा रहा है। सफ़दर भाई ने मेरी हालत का अन्दाजा लगाकर कहकहा मारा और यह कहकहा घाव पर नमक छिड़कने की तरह मुझे बहुत बुरा लगा। उन्होंने मुझे परेशान देखकर कहा, 'शब्बीर मियां, यह ऑपरेशन बहुत फायदेमन्द है। इससे तुम्हारे दिल में गुरूर का जो मवाद है, वह निकल जाएगा।" मैं चुप हो गया।

इक्का मेरे करीब आया तो मैंने कहा, "सफदर भाई, इस पर बैठें कैसे?" उन्होंने मेरी बग़लों में हाथ देकर मुझे हजार दिक्कत के साथ बिठा दिया और दूसरे इक्के पर सैयद बाबचीं सामान समेत सवार हो गया। इक्के के चिकने गई की बू से मुझे मतली होने लगी। अब चारबाग से हमारे ज़लील इक्के आग़ामीर की ड्योढ़ी की तरफ धीरे-धीरे रंगने लगे। जब हमारा इक्का झाऊलाल के पुल से गुज़रने लगा तो मेरी नजरों के सामने से अपने परदादा का मुहल्ला गुज़रने लगा, जिसके नुक्कड़ के पत्थर पर 'अहाता-ए-फ़कीर मुहम्मद मोट अक्षरों में अंकित था। इस बोर्ड को देखकर मेरे तमाम रोंगटे झन-से हो गए। खयाल आया कि इधर से दादा जान हाथी पर गुजरते और उनकी सवारी के आगे चोबदार बोला करते थे। आज उसी तरफ से उनका पोता एक तुच्छ तोता बना हुआ इक्के में बैठा टरबट्टे-टरखट्टे गुज़र रहा है। शर्म के मारे मैंने अपना मुँह छिपा लिया। खैर, ये दिक्कतें और जिल्लते उठाता हुआ सीतापुर पहुंच गया। मलीहाबाद के तमाम लड़के निहाल हो गए। अबरार ने दौड़कर मेरे गले में बाहें डाल दी।

दूसरे ही दिन मेरा नाम ब्रांच स्कूल में लिखा दिया गया। सफ़दर भाई ने हाई स्कूल के देवता स्वरूप हैड मास्टर घमंडीलाल और बोटिंग के हंसमुख इन्चार्ज घोषबाबू से भी मुझे मिला दिया और मैं हजारों बलवलों के साथ बाकायदा स्कूल आने-जाने और जी लगाकर लिखने-पढ़ने में व्यस्त हो गया।

अभी सीतापुर आए मुश्किल से पन्द्रह-बीस दिन ही गुजरे होंगे। एक रोज शाम के वक्त क्या देखता हूँ कि हमारे घर के दारोगा शेख मुहम्मदअली चले आ रहे हैं। शेख साहब को देखकर में समझा कि मियाँ सीतापुर तशरीफ़ ले आए हैं। लेकिन जब दारोगा साहब ने मियाँ का खत दिखाया तो मालूम हुआ कि मिया ने फक्त दो रोज के लिए मलीहाबाद बुलाया है। दो दिन की छुट्टी लेकर जब रात की ग्यारह बजे वाली गाड़ी से मलीहाबाद आया और अपने मकान की गली में पहुँचा तो देखा कि मियाँ, डॉक्टर अब्दुल करीम और चंद सिपाहियों को लिए, आदत के विपरीत अचकन और टोपी के बगैर फाटक से निकल रहे हैं। जैसे ही मुझ पर उनकी नज़र पड़ी, 'हाय मेरा बेटा' कहकर वह झपट पड़े और मुझे सीने से लगाकर रोने लगे। डॉक्टर अब्दुल करीम ने कहा, "खाँ साहब, आप खुश होने के बदले रो रहे हैं?" मेरे बाप ने इरशाद फ़रमाया, "डॉक्टर साहब, काकोरी के पुल से गुजरते ही रेल हमेशा सीटी देती है। लेकिन आज उसने साठी नहीं दी। मैं यह खयाल करके दीवाना हो गया कि कहीं ख़ुदा न खास्ता पुल तो नहीं टूट गया है। डॉक्टर साहब, जिसका बेटा रेल में आ रहा है, उसके जी से पूछिए कि अपने वक्त पर रेल का सीटी न देना कितने वहम पैदा कर सकता है।'

सीतापुर में मेरी तालीम का सिलसिला साल डेढ़ साल से ज्यादा जारी नहीं रह सका। मेरी जुदाई की ताब न लाकर शायद 1902 में मेरे बाप ने मुझे लखनऊ तलब करमाकर हुसैनाबाद हाई स्कूल में दाखिल करा दिया और मेरी रिहायश के लिए नख्यास (चिड़िया बाज़ार) में सैयद एजाज़ हुसैन साहब के मकान के ऊपर का पूरा खुला हिस्सा किराये पर ले लिया गया। मेरे मकान के नीचे मुंशी वाहिद अली की नथादर्श की दुकान थी। उनकी दुकान के सामने किसी बुजुर्ग की मजार थी जिस पर हर जुमेरात। (बृहस्पतिवार) को चिराग़ा (रोशनी) हुआ करता था और उसके आस-पास हर इतवार को चिड़ियों का बाज़ार लगा करता था। और मेरे मकान के ऐन सामने हज़रत रियाज़ खैराबादी रहते थे। 

उस जमाने में मेरे मकान के सामने और हज़रत रियाज़ खैराबादी के मकान की दीवार के नीचे दूर तक घोड़ा - गाड़ियों का अड्डा था, जहां पचीस-तीस गाड़ीवाले रहते थे। हर रोज़ बिला नागा सुबह से चार बजे एक साहब विक्टोरिया रोड की तरफ से 'मौला अली इमाम अली, मुर्तजा अली, गाते हुए जैसे ही मेरे मकान के सामने से गुजरते थे तो गाड़ीवाले ठुमकीदार आवाज़ में नारा लगाया करते थे, नवाब साहब, बकरा हाजिर है।' और वह 'नवाब साहब' उन्हें गालियों पर घर लिया करते थे। पर क्या मजाल कोई अश्लील शब्द जबान पर आ जाए। 

जैसे ही गाड़ीवालों की आवाज बुलंद होती थी- "नवाब साहब, बकरा हाजिर है," वैसे ही वह बड़ी सुरीली और ठहरी हुई आवाज़ में कहने लगते थे, ऐ आले रसूल के दुश्मनो ए मुआविया के दुम्बो. ऐ इब्ने ज़याद के ऊँटो, तुम पर लानत, तुम पर आख थ ऐ यजीद के पिल्लो, ऐ इब्ने मलजम के बोकड़ो, ऐ हिंदे-जिगरख्यार के पड़दी, तुम पर लानत, हज़ार बार लानत। आख आख थू, आख थे और उन गालियों पर गाड़ीवालों के कहकहे बुलंद हो जाते थे। और जब वह गालियाँ देते हुए बड़े वाली सराय की तरफ मुड़ने लगते थे तो गाड़ीवालों की आवाज़ फिर बुलंद हो जाती, "नवाब साहब, बकरा हाजिर है, नवाब साहब बकरा हाज़िर है और वह उसी क़िस्म की गालियाँ देते हुए मुड़ जाया करते थे। उस तरफ मेरे गांव के बाशिंदे मिया नौरोज़ बावर्ची का भी यह मामूल था कि जब यह 'नवाब साहब, बकरा हाज़िर है' की आवाज़ सुनते थे तो चारपाई पर उठकर बैठ जाते और बड़बड़ाने लगते थे, "इन साले गाड़ीवालन पर नालत (लानत), रोज-रोज बकरा हाजिर, बकरा हाजिर चीखा करते हैं। यू का वाहियातपना है। साले सबेरे-सवेरे अल्लाह रसूल का नाम
तो लेत नाही, बकरा हाजिर, बकरा हाजिर का गुल मचा देते हैं। थू है उनकी औकात पर।
(क्रमशः)

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

भाग (1)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/05/1.html 


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Friday 26 May 2023

सेंगोल, सत्ता का हस्तांतरण और नेहरू की छड़ी / विजय शंकर सिंह



यहां दो प्रतीक दिए गए हैं। एक के शीर्ष पर, सिंह और एक के शीर्ष पर बैल या नंदी जो कह लें वह है। शेर तो सम्राट अशोक का प्रसिद्ध प्रतीक है जो भारत का अब राज चिह्न है और सारनाथ म्यूजियम में रखा है। नंदी या बैल भी मौर्य या मगधकालीन प्रतीक है। वैसे नंदी प्रतीक तो सैंधव सभ्यता के समय से ही मिलता आया है। हो सकता है मौर्यों से ही कालांतर में यह प्रतीक दक्षिण पहुंच कर, चोल साम्राज्य का प्रतीक बन गया हो। या हो सकता है कि, सिंधु घाटी का ही नंदी, मगध से होते हुए चोल साम्राज्य तक पहुंच गया हो। जो भी हो, इसकी कोई विशेष जानकारी मुझे नहीं मिली। इतिहासकार मित्रों से अनुरोध है कि, वे इसपर शोध कर हम सबका ज्ञानवर्धन करें। 

मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त आखिरी समय में जैन हो गए थे और उन्होंने दक्षिण में ही देह त्याग किया था। हो सकता है उन्ही के बाद जो दक्षिण उत्तर के साम्राज्यों का जो सम्मिलन हुआ हो, उसी में नंदी की यह यात्रा हुई हो। सैंगोल, जिसे चोल साम्राज्य का राजदंड कहा जा रहा है, उसे भी इलाहाबाद के म्यूजियम में जवाहरलाल नेहरू की सुनहरी छड़ी के रूप में रखा गया है। अमूमन अजायबघरों में, सरक्षित वस्तुओं का संक्षिप्त विवरण भी अंकित होता है। यदि यह चोल साम्राज्य के राजदंड की अनुकृति है तो इस पर चोल साम्राज्य का राजदंड जरूर अंकित होना चाहिए था। अब वामपंथी इतिहासकारों ने इसे भी छुपा लिया हो तो मैं नहीं जानता। 

14/15 अगस्त को जो सत्ता के हस्तांतरण का जो उल्लेख, तत्कालीन विवरणों के रूप में, जैसे, वीपी मेनन की ट्रांसफर ऑफ पावर, उस समय उपस्थित देश विदेश के पत्रकारों के विवरण, फ्रीडम एट मिडनाइट, लॉर्ड माउंटबेटन की डायरी, उनका एक इंटरव्यू है और भी कुछ संदर्भ है में संगोल का उल्लेख नहीं मिलता है। हो सकता है यह नेहरू को किसी मीमेंटो के रूप में दिया गया हो, और इसे नेहरू ने स्वीकार कर फिर अलग रख दिया हो। एक ऐतिहासिक क्षण में दिया गया हर उपहार का महत्व ऐतिहासिक ही होता हो। फिर यह सेगोल, इलाहाबाद म्यूजियम में रख दिया गया हो। 

जो भी सच्चाई हो, पर सेंगोल, सत्ता के हस्तांतरण का प्रतीक नहीं है। क्योंकि एक दिन पहले, 14 अगस्त को, पाकिस्तान भी अस्तित्व में आया था, पर वहां इस तरह के किसी प्रतीक की चर्चा नहीं होती है। गृहमंत्री अमित शाह जी का एक इंटरव्यू मैं देख रहा था। इतिहास की जानकारी वह साझा कर रहे थे। अडानी के मनी लांड्रिंग आधारित, 20 हजार करोड़ रुपए के निवेश की, उन्हे जानकारी हो या न हो, सत्ता के हस्तांतरण और सेंगोल की आध्यात्मिकता की उन्हे पूरी जानकारी है। सेंगोल या राजदंड का आदान प्रदान, सत्ता के हस्तारण का प्रतीक नहीं था, यह एक सामान्य घटना थी। सत्ता के हस्तांतरण का प्रतीक था, यूनियन जैक का उतारा जाना और तिरंगे का आरोहण। ट्रिस्ट ऑफ डेस्टिनी जैसे कालजयी उद्बोधन का प्रसारण और जब दुनिया सो रही थी तो, एक राष्ट्र का अंगड़ाई लेते हुए उठ खड़ा होना। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

नई संसद के लोकार्पण पर विवाद, चोल साम्राज्य का सेंगोल और लोकतंत्र / विजय शंकर सिंह

प्रधान मंत्री द्वारा नए संसद भवन का उद्घाटन किए जाने के संबंध में, चल रहे राजनीतिक विवाद के बीच, सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका भी दायर हो गई है। याचिकाकर्ता ने शीर्ष अदालत से, यह निर्देश देने की मांग की है कि, नए संसद भवन का उद्घाटन भारत के राष्ट्रपति द्वारा किया जाना चाहिए। अधिवक्ता, सीआर जया सुकिन द्वारा पार्टी-इन-पर्सन के रूप में दायर याचिका में लोकसभा सचिवालय को कोई "निर्देश, अवलोकन या सुझाव" देने की मांग की गई है कि उद्घाटन राष्ट्रपति द्वारा किया जाना चाहिए। याचिकाकर्ता ने 18 मई को लोकसभा महासचिव द्वारा जारी एक बयान का हवाला दिया, जिसके अनुसार नए संसद भवन का उद्घाटन 28 मई को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया जाएगा। उनका कहना है कि लोकसभा सचिवालय ने राष्ट्रपति को आमंत्रित नहीं करके संविधान का उल्लंघन किया है।  

अब अदालत, इस याचिका पर क्या निर्णय लेती है, यह तो बाद में ही पता चलेगा, पर मुझे लगता है कि, अदालत इस पचड़े में नहीं पड़ेगी। हालांकि, याचिकाकर्ता ने संविधान के अनुच्छेद 79 का उल्लेख किया है, जिसके अनुसार, "संसद राष्ट्रपति और दोनों सदनों से मिलकर बनती है।"  जिसमे यह कहा गया है कि, राष्ट्रपति, देश का पहला नागरिक होता है और, संसद सत्र बुलाने और सत्रावसान करने की शक्ति रखता है। यह राष्ट्रपति ही है जो, प्रधान मंत्री और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है और सभी कार्यकारी कार्य राष्ट्रपति के नाम पर किए जाते हैं।" याचिका में तर्क दिया गया है कि, "राष्ट्रपति को समारोह में आमंत्रित नहीं करना, राष्ट्रपति का अपमान और संविधान का उल्लंघन है।"

याचिकाकर्ता का तर्क है कि, लोकसभा सचिवालय का बयान मनमाने तरीके से, बिना उचित दिमाग लगाए जारी किया गया है। याचिका में कहा गया है कि, "भारत की राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को नए संसद भवन के उद्घाटन के लिए आमंत्रित नहीं किया जा रहा है। भारतीय राष्ट्रपति को कुछ शक्तियां प्राप्त हैं और वे कई प्रकार के औपचारिक कार्य करते हैं। राष्ट्रपति की शक्तियों में कार्यकारी, विधायी, न्यायपालिका, आपातकालीन और सैन्य शामिल हैं।"

यह तो हुई अदालत की बात। उधर इस लोकार्पण को लेकर, 19 विपक्षी दलों ने, यह कहते हुए उद्घाटन समारोह का बहिष्कार करने का फैसला किया है कि, "प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नए संसद भवन का उद्घाटन करने का निर्णय, राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को पूरी तरह से दरकिनार करना है। और यह न केवल, उनका गंभीर अपमान है, बल्कि हमारे लोकतंत्र पर सीधा हमला है, जो एक, उचित न्यायिक प्रतिक्रिया की मांग करता है।"

विपक्षी दलों द्वारा जारी बयान में, आगे कहा गया है कि, “संक्षेप में, राष्ट्रपति के बिना संसद कार्य नहीं कर सकती है। फिर भी, प्रधानमंत्री ने उन्हें आमंत्रित किये बिना, नए संसद भवन का उद्घाटन करने का निर्णय लिया है। यह अशोभनीय कृत्य राष्ट्रपति के उच्च पद का अपमान करता है, और संविधान के प्राविधान  और उसकी भावना का उल्लंघन करता है। यह समावेशन की भावना को कमजोर करता है, जिसने देश को अपनी पहली महिला आदिवासी राष्ट्रपति प्राप्त होने का जश्न मनाया था।", पार्टियों द्वारा जारी बयान में कहा गया है।

अब एक नजर, राष्ट्रपति और कैबिनेट मंत्रियों की विभिन्न भूमिकाओं जैसे, विधायी भूमिका, कार्यकारी भूमिकाओं आदि पर डालते हैं। भारत के राष्ट्रपति देश के सशस्त्र बलों के सुप्रीम कमांडर भी होते हैं। वह विभिन्न राज्यों के राज्यपालों, भारत के मुख्य न्यायाधीश और अन्य सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, अटॉर्नी जनरल और भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG) की नियुक्ति भी करते है।  राष्ट्रपति के कर्तव्यों और जिम्मेदारियों में चुनाव आयुक्तों और राजदूतों की नियुक्ति भी शामिल है। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि, राष्ट्रपति इन प्रतिष्ठित पदों के लिए व्यक्तियों का चयन, खुद या उनके सचिवालय द्वारा नहीं किया जाता है, बल्कि मंत्रिपरिषद की सलाह पर करते हैं। लेकिन, वे औपचारिक असाइनमेंट को, अंतिम रूप देने से इनकार कर सकते हैं, और सरकार से चयन पर पुनर्विचार करने के लिए कह सकते हैं।

बजट सत्र के दौरान, राष्ट्रपति संसद को संबोधित करते हैं। संसद के दोनो सदनों के बीच विधायी प्रक्रिया में गतिरोध की स्थिति में, राष्ट्रपति गतिरोध को तोड़ने के लिए एक संयुक्त सत्र भी बुला सकते हैं। नया राज्य बनाने, मौजूदा राज्य की सीमाओं में संशोधन या राज्य के नाम में परिवर्तन जैसे कानून के लिए, राष्ट्रपति की मंजूरी आवश्यक है। संविधान के तहत, मूल अधिकारों से संबंधित कानून को राष्ट्रपति की स्वीकृति की आवश्यकता होती है। कानून बनने से पहले, संसद द्वारा अधिनियमित सभी कानूनों को राष्ट्रपति की स्वीकृति अनिवार्य है। संसद के अंतराल के दौरान, अध्यादेशों या आपातकालीन कानून को लागू करने के लिए राष्ट्रपति जिम्मेदार होता है

प्रधान मंत्री और मंत्रिपरिषद जैसे उच्च पदस्थ संवैधानिक अधिकारियों पर शक्तियों की नियुक्ति और निष्कासन का दायित्व राष्ट्रपति का है। इसके अतिरिक्त, राष्ट्रपति को आपात स्थिति की घोषणा, लोकसभा के विघटन और विधायी सत्रों के सत्रावसान और स्थगन करने का अधिकार है।

राष्ट्रपति को, न्यायिक शक्तियां भी प्राप्त हैं। सजा से क्षमा और, समय पूर्व रिहाई का भी उसे अधिकार है। राष्ट्रपति कानूनी और संवैधानिक मुद्दों और राष्ट्रीय और सार्वजनिक महत्व के विषयों पर सर्वोच्च न्यायालय की सलाह भी लेता है। राष्ट्रपति के पास राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति में आपातकाल की घोषणा करने का अधिकार है जो, देश की सुरक्षा , चाहे वह बाहरी आक्रमण से हो या आंतरिक सशस्त्र विद्रोह के कारण हो।  राज्य में राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356) लगाने का भी अधिकार राष्ट्रपति को है। जाता है।  हालाँकि, ऐसी आपात स्थिति की सिफारिश प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल द्वारा की जाती है। यदि देश या किसी राज्य की वित्तीय स्थिरता खतरे में पड़ती है तो राष्ट्रपति हस्तक्षेप कर सकता है।  राष्ट्रपति राज्य सरकार को राजकोषीय संयम बरतने का आदेश दे सकता है।

केंद्रीय मंत्रिपरिषद कार्यपालिका (एक्जीक्यूटिव) का प्रभारी होता है। कैबिनेट मंत्री, राज्य मंत्री और उप मंत्री से मिलकर, मंत्रिपरिषद का गठन होता है। प्रधान मंत्री, परिषद की अध्यक्षता करते हैं। अपने कर्तव्यों को पूरा करने में, प्रधान मंत्री राष्ट्रपति की सहायता करेंगे और सलाह देंगे। लोकसभा के प्रति, मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से, जवाबदेह होती है। संघ के मामलों के प्रशासन से संबंधित मंत्रिपरिषद के सभी निर्णय और कानून और उनसे संबंधित सूचनाओं के प्रस्तावों को राष्ट्रपति को सूचित किया जाना चाहिए।

अनुच्छेद 74 में अंकित है, राष्ट्रपति की सहायता और सलाह देने के लिए प्रधान मंत्री के नेतृत्व में एक मंत्रिपरिषद होगी। प्रधान मंत्री कार्यालय संविधान के अनुच्छेद 74 के अनुसार, अपने कर्तव्यों को पूरा करने में राष्ट्रपति की सहायता के लिए मंत्रिपरिषद की स्थापना करता है। मंत्रिपरिषद को सिफारिशें देने का अधिकार है, लेकिन उनके पास बाध्यकारी निर्णय लेने का भी अधिकार है।  राष्ट्रपति को प्रधान मंत्री द्वारा परिषद मंत्री के निर्णयों के बारे में सूचित किया जाएगा।  राष्ट्रपति पुनर्विचार के लिए मामले को मंत्रिपरिषद के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है।

इसी बीच, एक राजदंड की चर्चा भी हो रही है जो चोल राजाओं का सेंगॉल कहा जाता था, जिसे लॉर्ड माउंटबेटन ने ब्रिटिश राज की  समाप्ति के बाद, सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सौंपा था। हालांकि इसका कोई उल्लेख किसी महत्वपूर्ण घटना के रूप में नहीं मिलता है। जब यह राजदंड सौंपा गया था, तब संविधान बन रहा था और चार शेर वाला राज प्रतीक , को स्वीकार नहीं किया गया था। तब, सेंगोल, इलाहाबाद म्यूजियम से मंगाया गया। इलाहाबाद म्यूजियम में इसे, जवाहरलाल नेहरू की सुनहरी छड़ी (वाकिंग स्टिक) के नाम से रखा गया है। इसी सुनहरी वाकिंग स्टिक को लोकार्पण के अवसर पर, फिर सौंपा जाएगा। लेकिन, सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में, कौन किसे सत्ता सौंप रहा है यह स्पष्ट नहीं है  हमारा संविधान सत्ता के केंद्र में केवल 'वी द पीपुल ऑफ इंडिया', यानी 'हम भारत के लोग' को केंद्र में रखता है।

28 मई को, हम न किसी औपनेशिक सत्ता से मुक्त होने जा रहे हैं और न ही कोई नई संविधान सभा, किसी नए संविधान का ड्राफ्ट तैयार कर रही है। न तो अनुच्छेद 79 के अंतर्गत कोई नई संसद गठित हो रही है। हो बस यह रहा है कि, भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए एक नए संसद भवन का लोकार्पण किया जा रहा है। यह अलग बात है कि, इस उद्घाटन के अवसर पर, संसद के अनिवार्य अंग के रूप में, न तो राष्ट्रपति को न्योता दिया गया और न ही संसद के ही उच्च सदन राज्यसभा के सभापति को, जो उपराष्ट्रपति पदेन होते हैं, उनको। 

० विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh 

Thursday 25 May 2023

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (1) लखनऊ का पहला सफ़र


जोश मलीहाबादी, उर्दू के इंक़लाबी शायर माने जाते हैं। जोश की आत्मकथा, यादों की बारात, आत्मकथा साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। लखनऊ के पास, लखनऊ जिले की एक तहसील है मलीहाबाद। दशहरी आमों के बाग़ात के लिए, मशहूर, इस कस्बे में जोश साहब का जन्म हुआ था। जोश साहब के पुरखे, वहां के ताल्लुकेदार थे। यह ताल्लुकेदारी, जोश साहब की पैदाइश तक तो महफूज रही, फिर जैसे वक्त के साथ, सारी रियासतें और ज़मीदारियाँ खत्म हुईं, जोश साहब की यह ताल्लुकेदारी भी उजड़ गयी। जमींदारी खत्म होने के बाद, ज़मीदारों की पहली पीढ़ी, अक्सर, जमींदारी के क्षीण होते वैभव को पचा नहीं पाती है। इस आत्मकथा में, जोश साहब ने, ताल्लुकेदारी की क्षीण होते वैभव से व्याप्त अपनी मनोदशा का वर्णन भी किया है, जो आगे के अंशों मे आयेगा। 

आज इस आत्मकथा, यादों की बारात, का पहला अंश प्रस्तुत कर रहा हूँ। इस अंश में जोश साहब, जब किशोर थे, तब वे, पहली बार लखनऊ गए थे। मलीहाबाद, अवध के नवाब के अंतर्गत का तालुका था। तालुका एक बड़ी ज़मीदारी को कहते हैं। अवध की ताल्लुकेदारी का इतिहास में स्थान रहा है। 1857 के विप्लव में, अवध के तालुकेदारों ने, खुल कर, अवध के नवाब, वाजिद अली शाह को, अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार किए जाने बाद, उनकी बेगम, बेगम हजरत महल के नेतृत्व में, ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना का जबरदस्त प्रतिरोध किया था। लेकिन विप्लव विफल रहा और अंग्रेज़ो ने अवध पर अपना नियंत्रण पुख्ता किया लेकिन ताल्लुकेदारी परंपरा उन्होंने जारी रखी। मलीहाबाद की ताल्लुकेदार के चश्मो चिराग जब पहली बार लखनऊ तशरीफ़ ले जातें हैं तो लखनऊ उनके खयालों और शब्दों में कैसा लगता हूँ, इसे आप इस अंश में पढ़ सकते हैं। 
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लखनऊ का पहला सफ़र 
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हमारी गाड़ी अकबरी दरवाज़े के सामने जाकर खड़ी हो गई और हमारा सामान ‘बाँसवाली सराय’ में जाने लगा। लखनऊवाले हमारे अफग़ानी नैन-नक़्श, डील-डौल, हमारे सिपाहियों की सज-धज, उनके बड़े-बड़े पग्गड़, उनके मोटे-मोटे लट्ठ देखने के लिए ठट लगाकर हमारे गिर्द जमा हो गए। 

मैंने अकबरी दरवाज़े के अन्दर क़दम रखा तो देखा कि इस चौड़े-चकले दरवाज़े के दायें-बायें, लकड़ी के तख़्तों पर मिट्टी के इस क़दर सजल, सुंदर, और नाज़ुक खिलौने ऊपर-तले रखे हुए हैं कि उन्हें देख यह ख़याल होने लगा कि करीब जाऊँ तो हर खिलौना पलकें झुकाने और बातें करने लगेगा और गुजरिया भाव बताने लगेगी और सक्क़ों (भिश्ती) को अगर ज़रा-सा भी छू लिया तो उनकी भरी मशकों से धल-धल पानी बहने लगेगा। 

खिलौने ख़रीदकर जब मैंने चौक में क़दम रखा, तो ख़ुशबूदार लकड़ियों और लोबान की लपटों ने मेरा स्वागत किया। आगे बढ़ा तो चाँदी के वर्क़ कटने की नपी-तुली आवाज़ ने मेरे पाँव में ज़ंजीर डाल दी। वह व्यवस्थित और संगठित खटा-खट ऐसी मालूम हुई जैसे तबले पर बोल कट रहे हैं। फिर हारवाले की सुरीली आवाज़ आई, ‘हार बेले के, फूल चम्पा के,’ वहाँ से आगे बढ़ा तो क्या बताऊँ क्या-क्या देखा? हाय तंबोलियों की वे झलझलाती तितरी कुलाहें (लंबी टोपी), वे दुपल्ली टोपियाँ, वे शरबती अंगरखे, वे घने-घने पट्‌ठे, वे चूड़ीदार पायजामे, कंधों पर वे बड़े-बड़े रेशमी रूमाल, आड़ी-तिरछी माँगें, कल्लों (दाढ़ों) में दबी हुई सुगंधित गिलोरियाँ, साक़ियों और साक़िनों के हाथों में वे ख़ुशबूदार तम्बाकू के हुक़्क़ों पर वे लिपटे हार, हारों से पानी के क़तरों का वह टपकना, वे बजते कटोरे, वे सारंगियों की थरथराहट के हवाओं में हल्कोरे, वे गमकते हुए तबले, बालाख़ानों (कोठा) के छज्जों से वह मुखड़ों की बरसती हुई चाँदनी और ज़ुल्फ़ों के गिरते हुए सियाह आबशार (प्रपात), कोठेवालियों में कोई गोरी, कोई चम्पई, कोई साँवली-सलोनी, नैन-नक़्श इस क़दर बारीक गोया हीरे की क़लम से तराशे हुए, कोई कड़ियल जवान, कोई नौजवान और कोई इन दोनों के दरमियान, गोया हुमकती हुई उठान, कोई गठे जिस्म की और कोई धान-पान—किसी की नाक में नथ, किसी की नाक में नीम का तिनका, तमाशाइयों का हुजूम, कन्धे से कन्धे छिलते रैले और कोठों पर नज़र जमाए हुए विपरीत दिशाओं से आने-जाने वालों के सीनों का टकराव और टकराव पर वह विनीत क्षमा-याचना। मैं अभी इस तिलिस्म के दरिया में गोते खा रहा था कि मशीर ख़ाँ ने मेरा हाथ पकड़कर अपनी तरफ़ खींचा। मैं किनारे पर आ गया। सारा तिलिस्म टूट गया। और मैं सबके साथ, मियाँ के पीछे-पीछे सर झुकाकर सराय आ गया। सराय में क़दम रखते ही दम-सा घुटने लगा। मैंने बड़ी लजाजत के साथ कहा—“मियाँ, (यह संबोधन, जोश साहब अपने पिता के लिए करते थे) हम सिपाहियों को साथ लेकर नीचे घूम आएँ?” मशीर ख़ाँ मुस्कुराए और मियाँ ने बड़ी भयंकर संजीदगी से कहा—“चौक बच्चों के टहलने की जगह नहीं है।” मैं कलेजा मसोसकर रह गया। 

इतने में सालह मुहम्मद ख़ाँ ढोरे (लखनऊ का सबसे मशहूर कुल्फी वाला) को साथ लिए आ गए। उसने जस्ते की बड़ी-बड़ी कुल्फ़ियों को दोनों हाथों की हथेलियों में बड़े माहिराना अन्दाज़ से घुमा-घुमाकर और बालाई के काग़ज़ी आबख़ोरों को मिट्टी की सौंधी-सौंधी रकाबियों में खोल-खोल कर पेश किया। और मिट्‌टी के कोरे-कोरे चमचे भी सामने रख दिए। क्या बताऊँ इन कुल्फ़ियों और आबख़ोरों की लज़्ज़त और मुलायमियत, ज़बान ने इससे पहले कभी कोई ऐसी चीज़ चखी ही नहीं थी। उनके मज़े को बयान करूँ तो क्योंकर ? उपमा दूँ तो किस चीज़ से ?—और मुलायमियत का तो यह आलम कि उन्हें सिर्फ़ होंठों से और तालू से खाया और नज़र की हरारत से पिघलाया जा सकता था। रात होते ही हमारे बावर्ची के पकाए हुए खानों के साथ-साथ—अब्दुल्ला की दुकान की पूरियाँ, अहमद की बाक़रख़्वानियाँ, सआदत की शीरमालें, शबराती के अठारह-अठारह परतों के पराँठे, झुम्मन रकाबदार के भुने हुए मुर्ग़, शाहिद का बटेरों का पुलाव, हैदर हुसैन ख़ाँ के फाटक की गली का अनन्नास का मीठा चावल, ग़ुलामहुसैन ख़ाँ के पुल के कबाब, कप्तान के कुएँ के पिस्ते-बादाम की मिठाई और हुसैनबाद की बालाई। और न जाने क्या-क्या नेमतें हमारे दस्तरख़्वान पर चुन दी गईं—और मैं खा-पीकर सो रहा। 

भोर-दर्शन की चाट तो पड़ ही चुकी थी। मैं सबसे पहले बेदार होकर बालाख़ाने की छत पर चढ़ गया। सुबह का स्वागत करने को जब आसमान की तरफ़ नज़र उठाई, शहर की ऊँची-ऊँची इमारतों के कारण उषा की रंगीनी दूर-दूर भी नज़र न आई। आँखें मुरझा गईं। मैंने देखा पौ तो ज़रूर फट रही है और मुर्ग़ भी बाँग दे रहे हैं; लेकिन न पौ फटने में सुहानापन है और न मुर्ग़ों की बाँग में ज़ोर—ज़मीन से आसमान तक एक फीकापन छाया हुआ है। साँस लेता हूँ तो धांस-भरी, मोटी-मोटी हवा सीने को खुरच और दिल पर बोझ डाल रही है। प्रात-समीर चल रही है; पर उसके झोंकों में प्यार नहीं है। प्रकृति की दुल्हन के पाँव में न चाँदी के घुँघरू हैं न सर पर छपका। मेरे वलवले ऐसी मलगज़ी-मलगज़ी, खोई-खोई, फीकी-फीकी, उबली-उबली, हेठी-सेठी, रूठी-रूठी, औंधी-औंधी, गूँगी-गूँगी, भिंची-भिंची और बुझी-बुझी सुबह को देखकर, गुल हो गए और धुआँ देने लगे। मैं भारी दिल के साथ नीचे आया और मुँह-हाथ धोने लगा—मुँह पर बार-बार छपक्के मारे, दिल की कली नहीं खिली। 

इतने में नाश्ता आ गया। रोग़नी रोटी, अंडों के सितारे, बालाई, शीरमाल और नमश का नाश्ता करके फ़ारिग़ हुआ तो मेरे बाप ने दो सिपाहियों और मशीर ख़ाँ को साथ करके मुझे लखनऊ की सैर के लिए रवाना कर दिया। 

मैंने लखनऊ में हफ़्ता-भर रहकर नीचे लिखे स्थान देखे— 
हुसैनाबाद की शाही कोठी, उसका क्लॉक-टॉवर, हुसैनाबाद का इमामबाड़ा उसकी भूलभुलैया, आसिफ़ुद्दौला का इमामबाड़ा, रूमी दरवाज़ा, हज़रत अब्बास की दरगाह, नजफ़ अशरफ़, ताल कटोरे और भूल कटोरे की करबलाएँ, बेलीगारद, अजायबघर, शाह पीर मुहम्मद, टीले की मस्जिद, शाह मीनार की मज़ार और मोती महल, हज़रतगंज, चुनिया बाज़ार, अमीनाबाद, गोमती, ठंडी सड़क, लोहे का पुल, लाल बाग़, सिकंदर बाग़, बंदरिया बाग़, विक्टोरिया बाग़ और बनारसी बाग़ और छतर मंज़िल का फ़क़त वह हिस्सा जो सड़कों से नज़र आता है। हरचंद मेरी लड़कपन की नज़र में ये सारे स्थल बड़े अजीब थे; लेकिन इनसे भी अजीबतर नज़र आए लखनऊ के वे रईस, आलिम, अदीब और शायर जो मेरे बाप के पास आते थे। वह उनके वहाँ तशरीफ़ ले जाया करते थे। अल्लाह-अल्लाह उनके वे लचकीले सलाम, उनके उठने-बैठने के वे पाकीज़ा अंदाज़, उनके वे तहज़ीब में डूबे हाव-भाव, उनके लिबास की वह अनोखी तराश-ख़राश, सामाजिक और साहित्यिक समस्याओं पर उनका वह वाद-विवाद, उनके शब्दों का ठहराव, उनके लहज़ों के वे कटाव, ग़ज़ल सुनाते समय शे’र के भाव के अनुसार उनकी आँखों का रंग और चेहरों का उतार-चढ़ाव वह क़हक़हों से बचाव, उनका हल्का-हल्का तबस्सुम, विनम्रता के साँचे में ढला हुआ उनका वह स्वाभिमान, और बावजूदे-कमाल उनका वह हाथ जोड़-जोड़कर अपनी कम-इल्मी का एतराफ़ ये सारी बातें देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया। वे तमाम लोग इस क़दर सभ्य, शालीन और सुसंस्कृत थे कि ऐसा मालूम होता था, वे इस दुनिया के नहीं किसी प्रकाशमंडल के वासी हैं। 

इन्हीं बुज़ुर्गों की जूतियाँ सीधी करके मैंने शाईस्तगी (शालीनता) सीखी और यह ज़रा-सी सुध-बुध जो आज मुझे अदब और ज़बान पर हासिल है, यह उन्हीं की सोहबत का असर है। अब वह लखनऊ है न लखनऊवाले। एक-एक करके सब चले गए ख़ाक के नीचे। खा गई मिट्टी उनके जौहरों को। बहुत दिन हुए, मैंने एक रुबाई कही थी : 

जलती हुई शमओं को बुझाने वाले, 
जीता नहीं छोड़ेंगे ज़माने वाले, 
लाशे-देहली पे, लखनऊ ने यह कहा, 
अब हम भी हैं कुछ रोज़ में आने वाले ⁠। 
(क्रमशः)

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 


Wednesday 24 May 2023

राजदंड, लोकतंत्र का प्रतीक नहीं है / विजय शंकर सिंह

आजकल राजदंड की चर्चा है। यह राजदंड चोल राजाओं की विरासत थी, कहा जा रहा है, इस राजदंड को, लॉर्ड माउंटबेटन ने ब्रिटिश सत्ता की  समाप्ति के बाद, सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को सौंपा था। ब्रिटिश सत्ता से एक लंबे संघर्ष के बाद मुक्त होने के प्रतीक के रूप में यह राजदंड अंतिम वायसराय लार्ड माउंटबेटन ने इसे जवाहरलाल नेहरु को सौंपा था। जब यह राजदंड सौंपा गया था, तब संविधान बन रहा था। संविधान की ड्राफ्ट कमेटी डॉ बीआर अंबेडकर के नेतृत्व ने संविधान का ड्राफ्ट तैयार कर रही थी। अंत में 26 नवंबर 1949 को, यह संविधान तैयार हुआ और 26 जनवरी 1950 को, 26 जनवरी 1930 के, लाहौर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में, पूर्ण स्वराज्य के संकल्प  को, चिर स्थाई बनाए रखने के लिए, यह संविधान लागू हुआ।

खबर आ रही है कि, नए संसद भवन के उद्घाटन के अवसर पर, वह राजदंड फिर, संग्रहालय से मंगाया गया है और उस राजदंड को फिर से सौंपा जाएगा। लेकिन यह तय नहीं है कि, इस सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में, कौन किसे सत्ता सौंप रहा है। हमारा संविधान सत्ता के केंद्र में केवल 'वी द पीपुल ऑफ इंडिया', यानी 'हम भारत के लोग' को केंद्र में रखता है। लोककल्याण राज्य की अवधारणा संविधान के नीति निर्देशक तत्वों में है और मौलिक अधिकार, संविधान के मूल ढांचे का अंग, जिसे सर्व शक्तिमान संसद भी नही बदल सकती है।

28 मई को, हम न किसी औपनेशिक सत्ता से मुक्त होने जा रहे हैं और न ही कोई नई संविधान सभा किसी नए संविधान का ड्राफ्ट तैयार कर रही है। न तो अनुच्छेद 79 के अंतर्गत कोई नई संसद गठित हो रही है। हो बस यह रहा है कि, भविष्य की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए एक नए संसद भवन का लोकार्पण किया जा रहा है। यह अलग बात है कि, इस उद्घाटन के अवसर पर, संसद के अनिवार्य अंग के रूप में, न तो राष्ट्रपति को न्योता दिया गया और न ही संसद के ही उच्च सदन राज्यसभा के सभापति को, जो उपराष्ट्रपति होते हैं, उनको।

इतिहास की नकल हमेशा नहीं की जा सकती है। बहुत कुछ साम्य होते हुए भी, आप नदी में, एक ही जल में दो बार स्नान नही कर सकते हैं। जल आगे बढ़ जाता है। प्रवाह युक्त नदी, और काल कभी थमता नहीं है। संसद भवन का उद्घाटन हो, यह अच्छी बात है पर यह ऐसी संसद तो न बने जिसमें, माइक म्यूट कर के, ट्रेजरी बेंच के मनमाफिक विधेयक पास करा लिए जाय। ऐसी संसद तो न बने, जिसमें बिना किसी बात के विपक्षी नेताओं के, प्रधानमंत्री के भ्रष्टाचार पर सवाल उठाए जाने पर, भाषण, डिलीट कर दिए जाय। ऐसी संसद तो बने जिसमें ट्रेजरी बेंच सिर्फ इसलिए हंगामा कर के सदन बाधित करे कि, नेता सदन के पास, अडानी घोटाले के आरोपों पर, अपने बचाव में कहने के कुछ भी नहीं है। और ऐसी संसद तो न बने, जिसमें, लोकसभाध्यक्ष, विपक्ष के एक सांसद को सदन में बोलने के लिए समय तक न दे सकें। स्पीकर सर की ऐसी बेबसी, तकलीफदेह ही है।

गोल इमारत हो या तिकोनी, चौसठ योगिनी मंदिर से प्रेरित स्थापत्य हो या किसी और स्थान से प्रेरित स्थापत्य, सदन का महत्व स्वस्थ वाद विवाद संवाद से होता है। लोकहित से होता है। टेबल पीटने से नही होता है। लोकतंत्र, इमारतों में नही, लोक में बसता है। वह किसी राजदंड में नही बसता है। राजदंड कभी प्रतीक था, अब नहीं रहा। अब केवल संविधान है और हम भारत के लोग हैं।

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh

ऑल्ट न्यूज / फैक्ट चेक: बीच सड़क पर नमाज पढ़ रहे लड़के का वीडियो कर्नाटक का नहीं है.

कुछ दिनों से एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल है जिसमे एक लड़का बीच सड़क पर नमाज पढ़ रहा है और सारा ट्रैफिक रुका हुआ है। यह विडियो क्लिप, कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद से ही वायरल है। ऑल्ट न्यूज के वंश शाह ने इस वीडियो क्लिप की पड़ताल की तो पाया कि, यह विडियो कर्नाटक का नही है और यह, संगठित दुष्प्रचार का एक अंग है।

वंश शाह का यह लेख के अनुसार, "कर्नाटक विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत की पृष्ठभूमि के खिलाफ, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर एक वीडियो वायरल हो गया है जिसमें एक युवा लड़के को सड़क के बीच में नमाज अदा करते हुए दिखाया गया है जिससे वाहनों का ट्रैफिक रुक गया है।  वीडियो में एक पुलिसकर्मी को भी देखा जा सकता है कि कार लड़के को नमाज़ अदा करने की अनुमति दे रही है।"

सोशल मीडिया यूजर्स ने वीडियो को हिंदी में एक कैप्शन के साथ शेयर किया जिसमें कहा गया है, "आज सुबह कर्नाटक के स्ट्रीट व्यू का आनंद लें, सेक्युलर हिंदू जरूर देखें।  आपने जो वोट दिया है उसका असर देखिए। एक मुस्लिम बच्चे की वजह से पूरा ट्रैफिक रूट बदल जाता है, ये लोग अपने तरीके से संविधान चलाते हैं, बस कुछ समय बाद इसे 40% रहने दें, फिर देखें कि ये क्या करते हैं।”

० @Bhushanlalb नाम के एक ट्विटर यूजर ने वीडियो को इसी समान दावे के साथ शेयर किया है।
० ट्विटर यूजर्स @neetaa31 और 
० @prabhato777 ने भी इसी कैप्शन के साथ इस वीडियो को शेयर किया है।  बाद में दोनों ने ट्वीट डिलीट कर दिया।

इस वायरल वीडियो को, ट्विटर और फेसबुक पर कई बार शेयर किया गया है।  कुछ पोस्ट के स्क्रीनशॉट ऑल्ट न्यूज की लिंक जो कमेंट बॉक्स में हैं, पर क्लिक करके आप देख सकते हैं। 

फैक्ट चेक
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० InVid सॉफ़्टवेयर का उपयोग करके वीडियो को की-फ़्रेम में तोड़कर, और फ़्रेम को Google पर रिवर्स-सर्च करने पर, ऑल्ट न्यूज़ ने पाया कि @ajom75uddin नाम के एक उपयोगकर्ता ने 10 जनवरी, 2023 को टिकटॉक पर वीडियो अपलोड किया था,  जबकि, कर्नाटक चुनाव हुए हैं, मई 2023 में।

० वीडियो के एक फ्रेम को गौर से देखने पर हमें एक कार की रजिस्ट्रेशन प्लेट दिख रही थी.  प्लेट का प्रारूप दुबई की मानक पंजीकरण प्लेट से मेल खाता है।  एक साथ-साथ तुलना नीचे देखी जा सकती है।  कार की प्लेट के फॉर्मेट से पता चलता है कि वीडियो भारत का नहीं है।

० एक की-फ़्रेम में, एक अन्य ध्यान देने योग्य तत्व, एक व्यक्ति था, जो नारंगी जैकेट या टी-शर्ट पहने हुए एक खाद्य-वितरण एजेंट की तरह दिखता था। सड़क किनारे एक बाइक भी खड़ी देखी जा सकती है। बाइक से जुड़ा बॉक्स भी नारंगी रंग का है। फिर हमने फ्रेम के साथ रिवर्स इमेज सर्च किया और फूड डिलीवरी कंपनी तलबत का एक फेसबुक पोस्ट मिला।

० कंपनी की वेबसाइट पर हमने पाया कि वे मध्य एशियाई शहरों में काम कर रहे थे।

० नीचे दी गई तुलना, इस बात की पुष्टि करती है कि वायरल वीडियो में फूड-डिलीवरी एजेंट तालाबत का है।  इसलिए वीडियो मध्य एशिया या मध्य पूर्व का है।

० हमने यह भी देखा कि मार्च 2023 में इसी वीडियो को व्यापक रूप से साझा किया गया था और इसे लेकर एक विवाद था क्योंकि लड़का सड़क के बीच में नमाज पढ़ रहा था जिससे यातायात बाधित हो रहा था, जिससे दूसरों को असुविधा हो रही थी। अल्जीरियाई समाचार प्रस्तुतकर्ता अनिया एल अफंदी ने इस वीडियो को, एक कैप्शन के साथ साझा किया जिसमें कहा गया है कि "एक बच्चा सड़क पर नमाज पढ़ता है, और यातायात में बाधा डालता है ....  कोई टिप्पणी नहीं!"

० कई समाचार एजेंसियों ने भी इस घटना के पीछे की वास्तविक कहानी की सूचना दी।  तवासुल अखबार ने बताया कि बच्चे को शुक्रवार की नमाज के लिए देर हो रही थी और इसलिए वह नमाज अदा करने के लिए सड़क के बीच में बैठ गया।

इस पड़ताल से यह स्पष्ट है कि सड़क के बीच नमाज पढ़ते हुए एक, युवा लड़के का वीडियो कर्नाटक का नहीं है और राज्य के विधानसभा चुनाव  से, इस वीडियो का किसी भी तरह से, कोई संबंध नहीं है।

वंश शाह 
Vansh Shah 

Fact check: Video of boy praying in the middle of a road is not from Karnataka - https://www.altnews.in/fact-check-video-of-boy-praying-in-the-middle-of-a-road-is-not-from-karnataka/

Sunday 21 May 2023

नोटबंदी-2 का निर्णय यह बताता है कि, सरकार ने नोटबंदी-1 की खामियों से, कुछ नहीं सीखा / विजय शंकर सिंह

8 नवंबर 2016 को रात 8 बजे पहली नोटबंदी की गई थी, जब प्रधानमंत्री ने, जनता से रूबरू होते हुए घोषणा की थी कि, रात बारह बजे के बाद, एक हजार और पांच सौ रुपए के नोट लीगल टेंडर नहीं रहेंगे। यह नोटबंदी, किसकी सलाह पर, किस उद्देश्य से, और क्यों की गई थी, यह रहस्य आज भी बना हुआ है। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर हुई, उसकी सुनवाई भी की गई, लेकिन आज तक उक्त नोटबंदी के उद्देश्य जो उस समय सरकार ने घोषित किए थे, उन्हे पा लिया गया या नहीं, यह आजतक सरकार देश को नहीं बता पाई। 

लेकिन, नोटों को बदलवाने के लिए बैंकों के सामने लाइनों में खड़े खड़े लगभग 150 लोग मर गए। सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योगों की कमर टूट गई। असंगठित क्षेत्र जो, अधिकतर नकदी लेनदेन पर चलता है, वह लगभग तबाह हो गया। खुदरा व्यापार, जो समाज के निचले स्तर पर जनता के जीवन यापन का मुख्य आधार था, वह भी उजड़ गया। इन खुदरा और परचून व्यापार के तबाह होने की दशा में, उनकी जगह, बड़े कॉर्पोरेट के बड़े बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर खुल गए, जिससे इस असंगठित क्षेत्र में भी, कॉरपोरेट की पैठ शुरू हो गई। इसका सीधा प्रभाव निम्न मध्यम वर्ग के असंगठित व्यापार क्षेत्र पर पड़ा। 

2016 की नोटबंदी के सरकार ने निम्न उद्देश्य गिनाए थे,
० काला धन का खात्मा,
० नकली नोट के चलन को खत्म करना,
० आतंकी फंडिंग को रोकना
० भ्रष्टाचार पर रोक लगाना 
लेकिन आज तक सरकार के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं है कि, वह बता सके कि, 
० कितनी धनराशि का कलाधन सामने आ पाया है,
० काले धन का एकत्रीकरण किस क्षेत्र में अधिक है।
० कितने प्रतिशत नकली नोट चलन में पकड़े गए,
० आतंकी फंडिंग रुकने के कारण, क्या आतंकी घटनाओं पर, असर पड़ा या नहीं।

जब इन सारे बिंदुओं पर, जब सरकार कोई स्पष्ट जवाब नहीं दे पाई, तब एक नया शिगूफा छोड़ा गया कि, यह कदम डिजिटल अर्थव्यवस्था के लिए लाया गया है और तत्कालीन वित्तमंत्री अरुण जेटली, जिनके बारे में तब अखबारों में भी यह छपा था कि, नोटबंदी के बारे में भी उन्हे अंतिम समय में ही पता चला था, ने कैशलैस आर्थिकी, यानी नकदी विहीन अर्थव्यवस्था की ओर, देश को ले जाने हेतु, यह कदम उठाया गया था। जब कैशलेस का जुमला फेल होने लगा तो इसे लेसकैश कहा जाने लगा। लेकिन, 2016 की नोटबंदी, सरकार का एक सनक भरा निर्णय था, जिसका कोई सार्थक परिणाम नहीं निकला और सरकार ने भी फिर इसे अपनी उपलब्धियों के रूप में कभी कहीं, उल्लेख भी नहीं किया। आज भी सरकार और सत्तारूढ़ दल, इसे उपलब्धि बताने से कतराते हैं। 

2016 की नोटबंदी पर पूर्व प्रधानमंत्री और जाने माने अर्थशास्त्री डॉ मनमोहन सिंह ने इसे एक संगठित लूट कहा था। मोदी सरकार का यह सबसे मूर्खतापूर्ण आर्थिक निर्णय था जिसके कारण देश की जीडीपी विकास दर 2% तत्काल गिर गई और आज, सात साल बाद भी, देश की आर्थिकी, नोटबंदी पूर्व की स्थिति में नहीं आ पाई है। इसका एक कारण, कोरोना महामारी, भी लोग कहते है, लेकिन, महामारी के आगमन के पहले ही देश की जीडीपी 2% तक गिर चुकी थी। 

नोटबंदी- 2 के समय जब हजार और पांच सौ के नोट रद्द हो गए तो सरकार ने ₹2000 के नए नोट जारी किए। जल्दीबाजी में जारी किए गए ये नोट आकार प्रकार में ऐसे नहीं थे, जो तब प्रचलित एटीएम मशीनों की करेंसी ट्रे में फिट हो सकें। फिर इन नोटों को एटीएम मशीनों के लायक बनाने के लिए, देशभर के सभी बैंकों की एटीएम मशीनों को कैलिब्रेट किया गया, क्योंकि नोट तो पहले ही बिना इस बात की पड़ताल किए छापे जा चुके थे कि, यह नोट, एटीएम की करेंसी ट्रे में आ भी पाएंगे कि नहीं। नोट छापने के आंकड़े का अक्सर उल्लेख किया जाता है, लेकिन एटीएम के कैलिब्रेट किए जाने पर, देशभर के बैंकों ने, कितना धन व्यय किया था, इसका आंकड़ा मुझे कहीं नहीं मिलता है। 

अब वही दो हजार के नोट फिर आरबीआई (रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया) के आदेश से, धारकों से वापस लिए जा रहे है। अब यहां फिर भ्रम की एक स्थिति, आरबीआई के आदेश से उत्पन्न हो गई है, क्योंकि एक तरफ तो आरबीआई का कहना है कि, ₹2000 का नोट लीगल टेंडर बना रहेगा और यह बताते हुए इसमें किसी प्रकार की समय सीमा का उल्लेख नहीं है। हालांकि, यह भी कहा गया है कि, इन नोटों को बदलने की सुविधा 30 सितंबर तक ही खुली है। यानी 30 सितंबर के बाद, इन नोटों की कानूनी स्थिति क्या रहेगी। बैंक तो ₹2000 के नोट लेंगे नही, और जब बैंक यह नोट नहीं लेंगे तो, कोई भी व्यक्ति यह नोट क्यों लेगा ?

क्या ऐसी स्थिति में, 1 अक्तूबर के बाद,  ₹2000 के नोट, लीगल टेंडर के रूप में रहते हुए भी लीगल टेंडर नहीं रह जायेंगे ? ऐसी विषम स्थिति का सामना आम जनता को करना पड़ेगा क्योंकि, कोई भी इसका उपयोग सामान और सेवाएं खरीदने के लिए नहीं कर सकता है ? देश की मुद्रा लेने के लिए, उसे वैध लीगल टेंडर रहते हुए भी, लोग इसे मानने से इंकार कर सकते हैं। देश की मुद्रा, देश में ही, न चले, क्या यह विडंबना नहीं है? अगर इनमें से कुछ भी सच नहीं है, तो समय सीमा तय करने का क्या मतलब है?  

अब ₹2000 के करेंसी नोट का इतिहास भी, संक्षेप में, पढ़ लें, 

 1. ₹2000 के नोट की शुरूआत अपने आप में एक विचार के रूप में आत्म-विरोधाभासी था। जैसा कि ऊपर मैं लिख चुका हूं कि, प्रधान मंत्री ने, 08/011/2016 को, विमुद्रीकरण/नोटबंदी (500 रुपये और 1000 रुपये के उच्च मूल्य के नोटों को अमान्य करना) की घोषणा करके देश को चौंका दिया था। तब यह तर्क दिया गया था कि, इन उच्च मूल्य के नोटों के रूप में, जो काले धन और आतंकवाद के धन का बड़ा हिस्सा जमा है, वह सामने आ जाएगा और काला धन रखने वालों की कमर टूट जायेगी। 

लेकिन, ₹2000 का नोट जारी करना, इस तर्क को स्वतः झुठला देता है।  सच्चाई यह है - और आरबीआई इस बारे में रिकॉर्ड में है - अधिकांश काला धन सोने या संपत्ति जैसी अन्य संपत्तियों में जमा होता है, न कि मुद्रा में। वैसे भी आरबीआई के आंकड़ों के अनुसार, 99% तक की मुद्रा, बैंकों में वापस आ गई थी। 

 2. मामला तब और उलझ गया, जब ₹2000 रुपये के नोटों का वितरण गड़बड़ियों से भरा हुआ किया गया।  इन नोटों को पहले आरबीआई अधिनियम की धारा 24 (2) के तहत "अधिसूचित" किया गया था।  लेकिन जल्द ही यह एहसास हो गया कि, यह गलत सेक्शन था। यह आरबीआई अधिनियम की धारा 24(1) है, जिसने केंद्र को घोषणा में आवश्यक संशोधन के लिए बैंक नोट जारी करने का अधिकार दिया गया है। यह नोट अलग आकार के थे और इसलिए मौजूदा एटीएम मशीनों में फिट नहीं हो सकते थे;  इसने सभी एटीएम को फिर से कैलिब्रेट करने के लिए मजबूर किया और "पुनर्मुद्रीकरण"  में और देरी हुई, जबकि पूरा देश, मुद्रा के लिए कतारों में खड़ा था और लोग मरे भी। 

 3. ₹2000 रुपये के नोटों में बहुप्रतीक्षित सुरक्षा अद्यतनों में से कोई भी मानक नहीं था। 26 नवंबर, 2016 की शुरुआत में, ₹2000 के नकली नोटों की खबरें तेजी से अखबारों में आईं थीं। कुछ लड़कों ने मुद्रा सुरक्षा की धज्जियां उड़ाते हुए घर के ही कंप्यूटर और प्रिंटर पर, ₹2000 की नकल बना ली। वे पकड़े भी गए। पुराने करेंसी नोटों की जालसाजी और नकली बनाना, आसान नहीं था, जबकि ₹2000 के नकली नोट, धड़ल्ले से बनए जाने की खबरें अखबारों में आईं थी। 

 4. अंत में, ₹2000 का नोट उन मूलभूत उद्देश्यों में से एक को प्राप्त करने में विफल रहा, जो, एक मुद्रा का उद्देश्य होता है। पैसे को विनिमय का माध्यम होना चाहिए। बाजार में, एक समय, अधिकांश के पास ₹2000 के नोट थे लेकिन कोई भी इसे भुनाकर, चीजों को खरीदने के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकता था।  विनिमय के माध्यम के रूप में, तब इसका बहुत सीमित उपयोग था। विशेष रूप से उस समय, जब ₹1000 और ₹500 के नोट, रद्द हो चुके थे, डिजिटल भुगतान के एप्प न तो इतने लोकप्रिय थे, और न ही इतने उपलब्ध। साथ ही लोगों का माइंडसेट भी डिजिटल भुगतान की प्रति तब इतना नहीं बन पाया था। ₹100, ₹50, ₹20, ₹10 के नोट कम थे। ऐसा इसलिए हुआ था कि, लगभग 88% मुद्रा जो 1000 और 500 के नोटों में थी, को चार घंटे की नोटिस पर रद्द कर दिया गया था।

आरबीआई ने निर्धारित किया है कि, ₹2000  के नोट का कोई भी एक्सचेंज एक समय में ₹20,000 से अधिक नहीं हो सकता है।  इसका मतलब यह है कि अगर किसी व्यक्ति ने इन नोटों में 2 लाख रुपये की बचत की है - मान लीजिए शादी के आयोजन के लिए - तो उसे वापस पाने के लिए 10 बार लाइन में खड़ा होना होगा (पूरे देश में आरबीआई के 19 क्षेत्रीय कार्यालयों में से एक के बाहर)। चूंकि नोटबंदी को व्यापक रूप से भारतीयों के बीच एक मास्टरस्ट्रोक के रूप में देखा गया था, इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं होगा कि, इसे भी, उसी तर्ज पर, मास्टरस्ट्रोक के एक नए संस्करण के रूप में देखा जाय। 

एक दिलचस्प आंकड़ा यह भी है कि, 8 नवंबर 2016 से 31 दिसंबर 2016 तक आरबीआई ने दो सौ से अधिक दिशा निर्देश जारी किये थे। वर्तमान आरबीआई गवर्नर, तब वित्त सचिव थे और हर रोज शाम को होनी वाली अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में, कोई न कोई नया फरमान सुना जाते थे। सुबह कुछ और शाम को कुछ जारी होने वाले यह आदेश/निर्देश, प्रशासन की अपरिपक्वता और बदहवासी ही बताते हैं। यह एक ऐसा मास्टरस्ट्रोक था, कि, इसे लागू करने के पहले लगता है कोई होमवर्क किया ही नहीं गया था और रोज, देशभर से अफरातफरी की खबरें आ रही थी। अब नोटबंदी 2 के मामले में भी कुछ ऐसा ही भ्रम दिखाई दे रहा हैं। किसी भी देश की मुद्रा उस देश की अस्मिता से जुड़ी होती है। पर नौ वर्षों के कार्यकाल में, भारतीय मुद्रा के साथ जो तमाशा किया गया है, उसका विपरीत असर देश की अर्थव्यवस्था पर तो पड़ा ही है, मुद्रा को लेकर भी लोगों के मन में संशय उठने लगा है। ऐसा लगता है कि, नोटबंदी-1 के समय हुई प्रशासनिक गलतियों से, न तो आरबीआई ने और न ही सरकार ने कुछ सीखा है।

० विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh 

Saturday 20 May 2023

केंद्र ने एक नया अध्यादेश जारी कर दिल्ली के एलजी को, दिल्ली सरकार पर पुनः नियंत्रण के अधिकार दिए / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले कि, "दिल्ली के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र यानी दिल्ली की चुनी हुई सरकार के पास सार्वजनिक व्यवस्था (पब्लिक ऑर्डर), पुलिस और भूमि से संबंधित मामलों को छोड़कर, राष्ट्रीय राजधानी की प्रशासनिक सेवाओं पर विधायी और कार्यकारी शक्तियां रहेंगी" के कुछ ही दिनों बाद, केंद्र सरकार ने एक नया अध्यादेश 'दिल्ली में 'राष्ट्रीय राजधानी सिविल सेवा प्राधिकरण' के संबंध में जारी किया है। इस नए अध्यादेश के अनुसार, प्राधिकरण का नेतृत्व दिल्ली के मुख्यमंत्री करेंगे, तथा इसमें दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव और गृह सचिव शामिल होंगे। इस अथॉरिटी को अब दिल्ली सरकार में सेवारत ग्रुप 'ए' अधिकारियों और दानिक्स अधिकारियों के ट्रांसफर और पोस्टिंग पर फैसला लेना है।

सरकार द्वारा जारी अधिसूचना में कहा गया है कि, अनुच्छेद 239AA के उद्देश्य और मंतव्य को, प्रभावी रूप से लागू करने के लिए एक स्थायी प्राधिकरण का गठन किया जा रहा है और यह प्राधिकरण, स्थानांतरण पोस्टिंग, सतर्कता और अन्य प्रासंगिक विषयों से संबंधित मामलों में उपराज्यपाल (एलजी) को सिफारिशें करने के लिए विचार करेगा। 

अधिसूचना के अनुसार, 
"देश की राजधानी में लिया गया कोई भी निर्णय या कोई भी कार्यक्रम न केवल राष्ट्रीय राजधानी के निवासियों को बल्कि देश के बाकी हिस्सों को भी प्रभावित करता है और साथ ही राष्ट्रीय प्रतिष्ठा, छवि, विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा पर भी असर डालने की क्षमता रखता है। अंतरराष्ट्रीय वैश्विक स्पेक्ट्रम में भी दिल्ली की किसी गतिविधि का असर पड़ सकता है। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि इस अध्यादेश के अनुसार, यदि दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच कोई मतभेद उभरता है तो ऐसे मामालों में दिल्ली के एलजी का निर्णय अंतिम होगा।"
आगे लिखा गया है,
"केंद्र सरकार, प्राधिकरण के परामर्श से, प्राधिकरण को, उसके कार्यों के निर्वहन में सहायता करने के लिए आवश्यक अधिकारियों और अन्य कर्मचारियों की प्रकृति और श्रेणियों का निर्धारण करेगी और ऐसे अधिकारियों और कर्मचारियों की सेवाये,  प्राधिकरण को, जैसा वह उचित समझेगी, उपलब्ध कराएगी।" 

इस अध्यादेश पारित होने के कुछ ही घंटों के भीतर एक महत्वपूर्ण विवाद खड़ा हो गया है। अध्यादेश के बारे में कानूनी सर्किल में, यह तर्क दिया गया है कि, "अध्यादेश सर्वोच्च न्यायालय की हालिया संविधान न्यायाधीश पीठ के, निर्णय, जिसमे एलजी और सरकार के अधिकार, परिभाषित किए गए हैं, के उद्देश्य और इरादे के विपरीत है। उल्लेखनीय है कि, केंद्र सरकार वाया एलजी और दिल्ली एनसीटी की सरकार के बीच लंबे समय से हो रही रस्साकशी के बाद,  सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का हालिया फैसला जो, दिल्ली की चुनी हुई सरकार के पक्ष में है, से केंद्र सरकार असहज महसूस कर रही है, और यह अध्यादेश उसी असहजता का परिणाम है। 

मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति एमआर शाह, न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी, न्यायमूर्ति हिमा कोहली और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा की खंडपीठ ने माना था कि, यदि सेवाओं को जीएनसीटीडी के विधायी और कार्यकारी डोमेन से बाहर रखा गया तो, एनसीटीडी के क्षेत्र में नीतियां बनाने वाले, जो 
मंत्री और कार्यकारी प्रभारी और ऐसे कार्यकारी निर्णयों को लागू करने वाले होंगे, वे, सिविल सेवा अधिकारियों को नियंत्रित नहीं कर पाएंगे। 
फैसले में कहा गया है कि "प्रविष्टि 41 सूची 2 के तहत, उपराज्यपाल, सेवाओं पर, दिल्ली सरकार द्वारा किए गए, जीएनसीटीडी के निर्णयों से बंधे होंगे जैसा कि ऊपर बताया गया है। यह स्पष्ट है कि, प्रासंगिक नियमों में लोक व्यवस्था, पुलिस और भूमि से संबंधित सेवाओं को छोड़कर उपराज्यपाल के किसी भी संदर्भ का अर्थ, उपराज्यपाल होगा।"

हालांकि, यह अध्यादेश, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के बिल्कुल विपरीत बनाया गया  है। जैसे, "किसी भी न्यायालय के किसी निर्णय, आदेश या डिक्री में निहित कुछ भी होने के बावजूद, संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची II की प्रविष्टि 41 में उल्लिखित किसी भी मामले को छोड़कर, विधान सभा को अनुच्छेद 239एए के अनुसार कानून बनाने की शक्ति होगी।"
लगता था कि एलजी दिल्ली बनाम सीएम दिल्ली के बीच का विवाद अब हल हो गया है, लेकिन इस नए अध्यादेश से, यह विवाद फिर खड़ा हो जायेगा, और यह मामला फिर से सुप्रीम कोर्ट का रुख करेगा। केंद्र सरकार दिल्ली सरकार की कार्यकारी शक्तियों को, बरास्ते एलजी अपने नियंत्रण में रखना चाहती है तो दिल्ली सरकार, जनता द्वारा निर्वाचित होने के कारण, कार्यकारी शक्तियां, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के निर्णय के अनुसार, अपने पास रखना चाहती है। 

दिल्ली में अधिकारियों की ट्रांसफर-पोस्टिंग को लेकर केंद्र सरकार द्वारा अध्यादेश जारी करने के बाद से आम आदमी पार्टी के नेताओं ने विरोध किया है। उन्होंने कहा कि, "यह अघ्यादेश। भारत के संविधान के खिलाफ है। केंद्र के इस रवैये के खिलाफ आम आदमी पार्टी सड़क से लेकर संसद तक अघ्यादेश का विरोध करेगी. उन्होंने कहा कि संसद में जब यह आयेगा तो मुझे उम्मीद है की पूरा विपक्ष इस अघ्यादेश के खिलाफ होगा. इतना ही नहीं, यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक जाएगा।"

आम आदमी पार्टी के नेताओं संजय सिंह, सौरभ भारद्वाज आदि ने कहा है कि, "संविधान के बाहर जाकर कोई अघ्यादेश जारी नहीं हो सकता है। भारत के संविधान से बाहर जाकर कोई अघ्यादेश कैसे लाया जा सकता है। यह अध्यादेश नहीं बल्कि जनता द्वारा चुनी सरकार के खिलाफ काला कानून है। इस अध्यादेश के जरिए चुनी हुई सरकार को मारा जा रहा है। यह अध्यादेश, सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सीएम अरविंद केजरीवाल अधिकारियों की ट्रांसफर पोस्टिंग के लिए मिले अधिकार को छीनने का प्रयास है। 

० विजय शंकर सिंह 

Friday 19 May 2023

दिल्ली के, एलजी सीएम बीच टकराव का एक कारण, अहम भी है / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिल्ली सरकार बनाम उपराज्यपाल का मामला हल कर दिए जाने के बाद भी उपराज्यपाल द्वारा दिल्ली सरकार की एक सिफारिश को लंबे समय तक लंबित रखे जाने की शिकायत आ रही है और, यह शिकायत, आज फिर से जब सुप्रीम कोर्ट में की गई तो अदालत ने फिर उपराज्यपाल को आड़े हाथों लिया। सुप्रीम कोर्ट ने आज, शुक्रवार को दिल्ली सरकार द्वारा दिल्ली विद्युत नियामक आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति के प्रस्ताव को पांच महीने से अधिक समय तक लंबित रखने के लिए दिल्ली के उपराज्यपाल को जमकर फटकार लगाई। 

दिल्ली सरकार द्वारा, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश, न्यायमूर्ति राजीव कुमार श्रीवास्तव को डीईआरसी (दिल्ली विद्युत रेगुलेटरी अथॉरिटी) के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त करने के प्रस्ताव को मंजूरी देने में एलजी की ओर से देरी किए जाने के कारण, दिल्ली सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका दायर की।  भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन की खंडपीठ ने मामले की सुनवाई की। 

लाइव लॉ के अनुसार पूरा प्रकरण इस प्रकार है। जीएनसीटीडी की ओर से पेश एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड शादान फरासत के निर्देश पर वरिष्ठ अधिवक्ता डॉ अभिषेक मनु सिंघवी ने पीठ को सूचित किया कि, "एलजी को प्रस्ताव भेजे हुए पांच महीने बीत चुके हैं।  हालांकि, एलजी यह कहकर अपने फैसले में देरी कर रहे थे कि नियुक्ति करने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सहमति की आवश्यकता है या नहीं, यह पता लगाने के लिए उन्हें कानूनी राय की आवश्यकता है।"
इस संदर्भ में, सीनियर एडवोकेट, अभिषेक मनु सिंघवी ने बताया कि, "विद्युत अधिनियम की धारा 84 (2) के अनुसार, नियुक्त किए जाने वाले व्यक्ति के मूल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ परामर्श की आवश्यकता थी।"
मुख्य न्यायाधीश ने उसी पर सहमति व्यक्त करते हुए मौखिक टिप्पणी की, "यदि नियुक्त किया जा रहा व्यक्ति मद्रास उच्च न्यायालय का न्यायाधीश था, तो किससे परामर्श किया जाएगा? यह मद्रास उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश होगा। यह कोई अन्य उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश क्यों होगा?"

एलजी की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता मुकुल रोहतगी ने तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, एलजी एंट्री 1, 2 और 18 से संबंधित मामलों (सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस या भूमि) पर स्वतंत्र रूप से कार्य कर सकते हैं। यह वे विंदु हैं, जिनमे एलजी को अधिकार और शक्तियां हैं। उन्होंने आगे कहा, "अन्य मामलों में, यदि कोई मतभेद है, तो राज्यपाल राष्ट्रपति को संदर्भित कर सकता है। और उस निर्णय के लंबित रहने तक, राज्यपाल अपने दम पर कार्य कर सकता है।"
इस पर CJI डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा, "गवर्नर इस तरह एक सरकार का अपमान नहीं कर सकते... असाधारण मामलों में संदर्भित करने की शक्ति का भी प्रयोग किया जाना चाहिए।"

विद्युत अधिनियम 2003 की धारा 84(2) के प्रावधान को स्पष्टता प्रदान करते हुए, जो राज्य आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति का प्रावधान करता है, सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने आदेश लिखवाते हुए कहा, "इस प्रावधान का मूल भाग इंगित करता है कि राज्य सरकार किसी भी व्यक्ति को 'जो उच्च न्यायालय का न्यायाधीश है और रह चुका है' में से किसी भी व्यक्ति को नियुक्त कर सकती है। हालांकि, नियुक्ति उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद की जानी है। जहां एक मौजूदा न्यायाधीश  नियुक्त किया जाना है तो, उस मुख्य न्यायाधीश से परामर्श के बाद, किया जाएगा, जहां से न्यायाधीश लिया जाना है। इसी तरह, जहां तक एक पूर्व न्यायाधीश का प्रश्न है, उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श किया जाएगा जहां न्यायाधीश ने पहले सेवा की थी। इन स्पष्ट प्रावधानों के मद्देनजर, डीईआरसी के अध्यक्ष की नियुक्ति दो सप्ताह में तय की जाएगी।"

विवाद की पृष्ठभूमि इस प्रकार है। डीईआरसी के पूर्व अध्यक्ष, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश, न्यायमूर्ति शबिहुल हसनैन ने 09.01.2023 को 65 वर्ष की आयु प्राप्त करने पर, स्वतः रिटायर हो गए। याचिका में कहा गया है कि, "इसके परिणामस्वरूप, 04.01.2023 को सेवानिवृत्त मप्र उच्च न्यायालय के न्यायाधीश, न्यायमूर्ति राजीव कुमार श्रीवास्तव को नियुक्त करने का प्रस्ताव दिल्ली के उपराज्यपाल के समक्ष रखा गया था। बताया गया कि तब से उपराज्यपाल ने सरकार द्वारा भेजे गए प्रस्ताव पर कोई कार्रवाई नहीं की है।  इसके अलावा, डीईआरसी पिछले 5 महीनों से, बिना किसी अध्यक्ष काम कर रहा है।  यह संकेत दिया गया था कि, अधिनियम, 2003 के अनुसार, न्यायमूर्ति श्रीवास्तव की नियुक्ति के लिए मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की सहमति पहले ही प्राप्त की जा चुकी थी।  ऐसा प्रतीत होता है कि उपराज्यपाल ने प्रस्ताव पर कोई कार्रवाई करने के बजाय कानून और न्याय मंत्री को पत्र लिखकर 'उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श' वाक्यांश के स्पष्टीकरण की मांग की थी।"

यह याचिका गुजरात राज्य बनाम यूटिलिटी यूज़र्स वेलफेयर एसोसिएशन पर आधारित थी, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायिक अधिकारी की उपस्थिति या कानून की प्रैक्टिस में पर्याप्त अनुभव रखने वाले और उच्च न्यायालय या जिला न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के योग्य होने की बात कही थी।  निर्णायक कार्य करना अनिवार्य है। उसी के मद्देनजर यह तर्क दिया गया कि चूंकि डीईआरसी में कोई भी न्यायिक सदस्य मौजूद नहीं है, इसलिए उसे किसी भी न्यायिक कार्यों को करने से रोकना पड़ा।

याचिका में कहा गया है कि इन परिस्थितियों में उपराज्यपाल या तो सरकार के प्रस्ताव पर सहमति दे सकते हैं या इसे राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं।  इसने उल्लेख किया, क्योंकि यह मुद्दा सार्वजनिक व्यवस्था, पुलिस या भूमि के आरक्षित विषयों से संबंधित नहीं था, अतः उपराज्यपाल के पास, इस  मामले में, कोई स्वतंत्र निर्णय लेने की शक्ति नहीं थी, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली के एनसीटी बनाम भारत संघ (2018) के केस में व्यवस्था दी है। डीईआरसी के अध्यक्ष का चयन और नियुक्ति, सरकार की विशेष एक्जीक्यूटिव अधिकारों और शक्तियों के भीतर है।  याचिका में आरोप लगाया गया है कि उपराज्यपाल की ओर से की जा रही निष्क्रियता भी रूल्स ऑफ बिजनेस के नियमों का उल्लंघन थी। जिसके अनुसार, सात कार्य दिवसों की अवधि के भीतर, सरकार द्वारा भेजे गए प्रस्ताव पर, एलजी को अपने विचार दर्ज करने का प्राविधान है। मतभेद के मामले में पंद्रह कार्य दिवसों के भीतर मामले को सुलझाने और फिर इसके बाद इसे मंत्रिपरिषद के समक्ष रखा जाना चाहिए।  जिसका निस्तारण/निर्णय दस कार्य दिवसों के भीतर करना है। यदि फिर भी मतभेद बना रहता है तो मामला राष्ट्रपति के पास भेजने का स्पष्ट प्राविधान है। लेकिन ऐसा नहीं किया गया और डीईआरसी के अध्यक्ष की नियुक्ति की पत्रावली, एलजी के पास छह महीने तक, बिना किसी कार्यवाही के लंबित रही। 

दिल्ली सरकार ने दायर याचिका में कहा है कि, "... अध्यक्ष के बिना कार्य करने के लिए डीईआरसी न केवल दिल्ली की निर्वाचित सरकार के जनादेश को नकारता है, बल्कि प्रशासनिक और नियामक असमंजस की स्थिति भी पैदा होती है, जिसके कारण, डीईआरसी, दिल्ली एनसीटी के अंतर्गत, प्रभावी शासन और प्रशासन के लिए आवश्यक कई महत्वपूर्ण कार्य संपन्न नहीं कर पा रहा है।"

एक बार जब सुप्रीम कोर्ट द्वारा यह तय कर दिया गया कि, पब्लिक ऑर्डर, पुलिस और भूमि से जुड़े मामलों को छोड़ कर, दिल्ली एनसीटी से जुड़े शेष अन्य प्रशासकीय मामलों में, दिल्ली की निर्वाचित सरकार का क्षेत्राधिकार रहेगा और  उपराज्यपाल, दिल्ली सरकार के मंत्रिमंडल के फैसले के अनुसार कार्य करेंगे, तब उपराज्यपाल द्वारा बार बार किए जा रहे ऐसे, हठपूर्ण आचरण का कोई औचित्य नहीं है। मिथ्या अहम की इस मानसिकता से सबसे अधिक प्रभाव, दिल्ली एनसीटी के नागरिकों पर पड़ता है। 

० विजय शंकर सिंह 

Thursday 18 May 2023

नहीं, पाकिस्तान के पीएम शहबाज शरीफ ने कांग्रेस को चुनने के लिए कर्नाटक को धन्यवाद नहीं दिया था। यह दुष्प्रचार आईटी सेल द्वारा फैलाया गया है / विजय शंकर सिंह

ऑल्ट न्यूज़ के वंश शाह ने फैलाये गए प्रोपगैंडा कि, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ ने, कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के बाद, बधाई ट्वीट किया था कि पड़ताल की तो, इस ट्वीट को झूठा पाया। शहबाज शरीफ के नाम से एक ट्वीट का स्क्रीनशॉट सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर वायरल हो रहा है जिसमें,  स्पष्ट रूप से पाकिस्तान के प्रधान मंत्री द्वारा, कर्नाटक विधानसभा के चुनाव परिणामों के दिन, 13 मई को कांग्रेस को चुनने के लिए कर्नाटक के लोगों के प्रति आभार व्यक्त करते हुए दिखाया गया है।  

कई राइट विंग यूजर्स ने स्क्रीनशॉट शेयर किया और पार्टी का मजाक उड़ाया।  'ट्वीट', जो उर्दू में है, का अंग्रेजी में अनुवाद है, "मैं कांग्रेस को चुनने के लिए कर्नाटक के लोगों को दिल से धन्यवाद देना चाहता हूं।  मुझे उम्मीद है कि कांग्रेस हमारे एसडीपीआई के साथ भारत में इस्लाम को मजबूत करने और कर्नाटक की संप्रभुता के लिए काम करेगी!"

अखबारों मे कॉलम लिखने वाले, राकेश कृष्णन सिम्हा ने इस तस्वीर को कैप्शन के साथ साझा करते हुए लिखा, “इस्लाम = पाकिस्तान = कांग्रेस पार्टी = गांधी राजवंश”।  ट्वीट को बाद में डिलीट कर दिया गया था, लेकिन उसका स्क्रीनशॉट नीचे देखा जा सकता है:

भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी ने इसे एक कैप्शन के साथ साझा किया “क्या यह वास्तविक है?  मुझे यह एक व्हाट्सएप अकाउंट से मिला है ”।
ट्विटर और फेसबुक पर कई अन्य सोशल मीडिया खातों ने स्क्रीनशॉट साझा किया:

ऑल्ट न्यूज़ के व्हाट्सएप हेल्पलाइन नंबर (7600011160) पर भी ट्वीट की सत्यता की पुष्टि करने का अनुरोध किया गया। और तथ्यों की जांच की गई। 
 
ऑल्ट न्यूज़ के अनुसार, 
"ऑल्ट न्यूज ने 13 मई को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के ट्वीट की जांच करने के लिए प्रासंगिक कीवर्ड और समय सीमा का उपयोग करते हुए एक उन्नत ट्विटर खोज की। हमें 13 मई, 2023 को शहबाज शरीफ के तीन ट्वीट मिले। उनमें से कोई भी कर्नाटक चुनाव के बारे में नहीं था।

हमने उनके ट्वीट्स के जवाब भी ढूंढे।  भारत में कांग्रेस की जीत या चुनावों का कोई जिक्र नहीं था।

सोशल ब्लेड और ट्रुथ नेस्ट जैसी सोशल मीडिया मॉनिटरिंग वेबसाइटों को देखते हुए, हम इस बात की पुष्टि कर सकते हैं कि शरीफ ने 13 मई, 2023 को केवल तीन ट्वीट साझा किए थे। इसकी पुष्टि उनके ट्विटर टाइमलाइन पर हमारे निष्कर्षों से हुई थी, जैसा कि ऊपर बताया गया है। 
आगे की जांच में, हमने पाया कि ट्वीट स्क्रीनशॉट को बीएचके ट्वीट्स नाम के एक ट्विटर हैंडल द्वारा 13 मई को शाम 4:01 बजे साझा किया गया था। उपयोगकर्ता का बायो कहता है "थ्रेड्स, मेम्स, कार्टून, व्यंग्य"। स्क्रीनशॉट बाद में दिन में 10 बजकर 18 मिनट पर लिया गया था।

दरअसल, यूजर ने कर्नाटक चुनाव से पहले और बाद में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री के ऐसे कई फर्जी ट्वीट शेयर किए।  उसी के स्क्रीनशॉट यहां (लिंक नीचे है, उस पर क्लिक कर के) देखे जा सकते है। 

हमने कर्नाटक चुनावों पर शरीफ की टिप्पणी पर भारतीय और पाकिस्तानी मीडिया आउटलेट्स में रिपोर्ट की तलाश की, लेकिन कुछ भी नहीं मिला।

इसलिए, पाकिस्तान के पीएम शहबाज शरीफ द्वारा कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जीत पर कांग्रेस को बधाई देने के बारे में सोशल मीडिया पर जो ट्वीट शेयर किया जा रहा है, वह वास्तव में एक व्यंग्य पेज द्वारा साझा किया गया एक फर्जी ट्वीट है।  ऑल्ट न्यूज़ की जाँच से पुष्टि होती है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने चुनाव परिणामों पर कुछ भी ट्वीट नहीं किया।"

No, Pakistan PM Shehbaz Sharif did not thank Karnataka for electing Congress - https://www.altnews.in/no-pakistan-pm-shehbaz-sharif-did-not-thank-karnataka-for-electing-congress/

(ऑल्टन्यूज AltNews के वंश शाह के लेख और Pratik Sinha की वॉल से साभार)
० विजय शंकर सिंह 

Wednesday 17 May 2023

आर्यन खान केस और समीर वानखेड़े की याचिका / विजय शंकर सिंह

आर्यन खान मामले में सीबीआई की ओर से दर्ज एफआईआर में नॉरकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (NCB) के पूर्व जोनल डायरेक्टर समीर वानखेड़े के खिलाफ, दिल्ली हाईकोर्ट ने, 5 दिनों तक कोई भी एक्शन लेने से, सीबीआई को मना किया है। 

इस याचिका में समीर वानखेड़े और एनसीबी के वरिष्ठ अधिकारियों के बीच हुई बातचीत (चैट) भी कोर्ट के सामने रखी गई। एबीपी के अनुसार, यह चैट राहत मिलने की बड़ी वजह है। चैट से यह बात भी सामने आई है कि, समीर वानखेड़े, आर्यन खान से जुड़ा हर अपडेट वरिष्ठ अधिकारियों को बता रहे थे। एनसीबी के वरिष्ठ अधिकारी समीर वानखेड़े को मेसेज भेजकर आर्यन खान के ज्यादा दिनों की रिमांड के लिए जोर देने को कह रहे थे।

याचिका में उल्लिखित चैट के मुताबिक, आर्यन खान कॉर्डेलिया क्रूज ड्रग्स केस के दौरान एनसीबी के जोनल डायरेक्टर रहे समीर वानखेड़े जांच और कानूनी प्रक्रिया से जुड़ी हर डिटेल एनसीबी के महानिदेशक (डीजी) सत्यनारायण प्रधान , उपमहानिदेशक (DDG) अशोक मुथा जैन, उपमहानिदेशक (DDG) ज्ञानेश्वर सिंह और अतिरिक्त महानिदेशक (ADG) संजय सिंह के साथ साझा कर रहे थे।

एबीपी की खबर के अनुसार, डीडीजी अशोक मुथा जैन ने कहा था कि डीजी का आदेश है कि, रिमांड के लिए मजबूती से लड़ा जाए। जैन ने वानखेड़े से इस मामले में अतिरिक्त सहायता के लिए इंदौर, अहमदाबाद से अधिकारी और स्टाफ की भी पेशकश की थी जिस पर समीर वानखेड़े ने हां कहा था। इसके बाद डीडीजी ने अतिरिक्त स्टाफ भेजने की बात कही। अब डीजी एनसीबी ने एक ऐसे मामले में, जिसमे बिना बरामदगी के, एनडीपीएस एक्ट का केस दर्ज है में, रिमांड पर लेने के लिए ऐसा क्यों कह रहे हैं, जैसे अनेक सवाल आगे उठेंगे। अभी तो सीबीआई की जांच शुरू हुई है, अभी कोई अनुमान लगाना जल्दबाजी होगी।

मुझे लगता है, समीर वानखेड़े, अदालत को अब यह समझा रहे हैं कि, आर्यन खान केस में जो कुछ भी हुआ था, वह अकेले उनके स्तर पर नहीं हुआ था। एनसीबी NCB मुख्यालय और वरिष्ठ अधिकारियों के द्वारा जैसा निर्देश मिल रहा था, वैसा ही वे कर रहे थे। रिमांड लेना या न लेना, जमानत का विरोध करना या न करना, यह जांचकर्ता का दायित्व है। महत्वपूर्ण मामलों में मुख्यालय से निर्देश मिलना भी कोई अनोखी बात नहीं है। महत्वपूर्ण मामलों में निर्देश मिलते भी रहते हैं। 

लेकिन समीर वानखेड़े का यह भी दायित्व था कि वे जमीनी स्थिति से अपने वरिष्ठ अधिकारियों को अवगत कराते रहें। अब यह पता नही है कि केवल चैट ही के द्वारा मुख्यालय से उन्हे आदेश निर्देश मिलते रहे हैं, और समीर भी जमीनी हकीकत से अपने वरिष्ठों को अवगत कराते रहे हैं, या कोई अन्य विभागीय पत्र व्यवहार भी हुआ है। 

आर्यन खान के पास से कोई ड्रग बरामद नहीं हुआ था। फिर भी लंबी अवधि तक, उन्हे रिमांड पर रखा गया और जमानत का विरोध किया गया। यह भी अखबारों से पता चलता है कि, उन्हे छोड़ने और मामला रफा दफा करने के लिए, ₹25 करोड़ की रिश्वत, शाहरुख खान से, समीर वानखेड़े के नाम पर मांगी गई। इतनी बड़ी रकम, बिना समीर वानखेड़े की मर्जी से नहीं मांगी गई होगी। अब जब जांच पूरी हो तो पता चले। यह भी खबर है कि, ₹50 लाख की रकम एडवांस में ली भी गई। क्या इन सबका भी कोई उल्लेख चैट में होगा? मुझे नहीं लगता, इसका कोई उल्लेख चैट में होगा।  

यह मामला शुरू से ही संदिग्ध और एक्सटोर्शन का लग रहा था। न तो ड्रग की बरामदगी, न करनेलिया शिप से गिरफ्तारी, छोड़ने के लिए रिश्वत की मांग करना, रिमांड की अवधि में, इंटेरोगेशन के समय की फोटो सार्वजनिक रूप से मीडिया/सोशल मीडिया पर वायरल कराया जाना, यह सब कुछ ऐसी असामान्य गतिविधियां हैं,  जो समीर वानखेड़े द्वारा की गई कार्यवाहियों को संदेहास्पद बनाती हैं। 

० विजय शंकर सिंह 

मणिपुर की भयावह स्थिति / विजय शंकर सिंह

मणिपुर के रहने वाले, वैपेई, मध्यप्रदेश कैडर के आईपीएस अफसर हैं। अब वे सेवानृवित्त हैं तथा अपने परिवार सहित, इंफाल में रहते हैं। इसी 3 मई को, वह अपने 3 बच्चों और पत्नी के साथ, रात में 0130 बजे अपनी जान बचाने के लिए घर से भागे। वे अपनी खुद की चारदीवारी से कूद गए और एक पड़ोसी के घर के पीछे की दलदली जमीन में मय बाल बच्चों के छिपे रहे। इस उम्मीद में वे रात भर वहीं पड़े रहे कि कोई उन्हें नहीं मारेगा। 

लेकिन भोर होते ही, फिर हिंसा शुरू हो गई। किसी तरह से, वे पास ही स्थित एक सीआरपीएफ शिविर में पहुंचे और अपना परिचय दिया। उन्हें वहां शरण मिली। उनके पास न तो पैसे थे, न, कुछ अतिरिक्त कपड़े और न ही कुछ और जरूरी चीजें। दिन में, उन्हें खबर मिली, कि, उनका नवनिर्मित घर जला कर राख कर दिया गया। उनके घर का सारा सामान लूट लिया गया। उन्होंने अपने चचेरे भाई, पॉल, जो खुद 1991 बैच के आईएएस हैं से, एक जोड़ी जींस और जूते उधार लिए। अब वह शिलांग में एक शरणार्थी है।  

के.टी. वैपेई 1991 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं, जो 28 फरवरी, 2023 को सेवानिवृत्त हुए। उन्होंने अंतर-राज्य प्रतिनियुक्ति पर मणिपुर में भी काम किया था। वह मणिपुर के मूल निवासी हैं और कुकी जनजाति से है। यह घटना एक वरिष्ठ पुलिस अफसर के परिवार के साथ घटी है, जिसके परिवार में अन्य लोग भी अखिल भारतीय सेवाओं में हैं। आम नागरिक, जिनका कोई पुरसा हाल नहीं है, उन पर क्या बीत रही होगी, यह हम आप, सिर्फ अंदाजा लगा सकते हैं। 

देश के अन्य हिस्सों में जमीनी हालात से अनभिज्ञ लोग इस सच्चाई पर विश्वास नहीं कर सकते हैं, कि मणिपुर में लगी यह आग, कितनी भयावह है। मणिपुर में आज जो, जनजातिगत संघर्ष छिड़ा है, वह विभाजनकारी ताकतों की राजनीति का परिणाम है। वहां स्थिति अब भी नाजुक है। आदिवासी और गैर आदिवासी समुदाय के बीच लगातार हिंसक संघर्ष जारी है। अखबार बता रहे हैं, गृहमंत्री ने वहां के मुख्यमंत्री को हड़काया है। सीआरपीएफ, वहां की स्थिति सुधारने के लिए जरूरी कार्यवाही कर भी रही है। पर समाज या समुदाय में विभाजनकारी वायरस इंजेक्ट कर के, शांति और सद्भावना की उम्मीद आप नहीं कर सकते है। 

० विजय शंकर सिंह 

Tuesday 16 May 2023

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में आचार संहिता के उल्लंघन पर, निर्वाचन आयोग की निंदनीय चुप्पी / विजय शंकर सिंह

चुनाव, लोकतंत्र की धुरी है। यही वह महापर्व है, जो जनता को, अपने सरकार होने का भान कराता है। चुनाव, बिना किसी दबाव, लोभ, और भय के हो, इसके लिए केंद्रीय निर्वाचन आयोग का गठन किया गया है। संविधान, अनुच्छेद 324 में, निर्वाचन आयोग को, देश में, निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराने के लिए शक्तियां और अधिकार देता हैं। मुख्य निर्वाचन आयुक्त  का पद एक संवैधानिक पद माना जाता है। सीईसी को, उसके पद से, बिना संसद में महाभियोग लाए हटाया नहीं जा सकता है। यह विशेषाधिकार, इस पद से इसलिए जुड़ा है कि, सीईसी और उनके अन्य निर्वाचन आयुक्त, निर्भय होकर, बिना किसी लोभ और दबाव के अपने दायित्व का निर्वहन करें। 

संविधान में, सीईसी की नियुक्ति की कोई प्रक्रिया निर्धारित नहीं की गई है, बल्कि यह अंकित है कि, सीईसी और अन्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। लेकिन राष्ट्रपति यह नियुक्ति स्वतः नहीं कर सकता है, वह यह नियुक्ति, केंद्र सरकार की सिफारिश पर ही कर सकता है। सरकार ही एक तरह से, इनकी नियुक्ति कर सकती है, पर सरकार, हटा नहीं सकती है। लेकिन इस नियुक्ति प्रक्रिया पर हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने, एक महत्वपूर्ण जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए, नियुक्ति प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण संशोधन किया है। इस संशोधन के अनुसार, सरकार खुद ही सीईसी या ईसी का चयन नहीं करेगी, बल्कि यह चयन, एक पैनल द्वारा किया जाएगा, जिसके प्रधानमंत्री अध्यक्ष, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और नेता विरोधी दल अथवा लोकसभा में सबसे बड़े विरोधी दल के नेता सदस्य होंगे। इस पैनल द्वारा चुने गए नाम की ही सिफारिश राष्ट्रपति के पास भेजी जाएगी, जिसे राष्ट्रपति, स्वीकार कर, मुख्य निर्वाचन आयुक्त या अन्य निर्वाचन आयुक्त नियुक्त करेंगे। 

चुनाव को निष्पक्षता पूर्वक संपन्न कराने के लिए, किसी भी राज्य में चुनाव से पहले एक अधिसूचना जारी की जाती है। इसके बाद उस राज्य में ‘आदर्श आचार संहिता’ लागू हो जाती है और नतीजे आने तक जारी रहती है। आदर्श आचार संहिता, दरअसल ये वे दिशा-निर्देश हैं, जिन्हें सभी राजनीतिक पार्टियों को मानना पड़ता है और इनका मकसद चुनाव प्रचार अभियान को निष्पक्ष एवं साफ-सुथरा बनाना तथा सत्तारूढ़  दलों को, सत्ता का गलत लाभ उठाने और सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग से रोकना भी है। आदर्श आचार संहिता को राजनीतिक दलों और चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों के लिये आचरण एवं व्यवहार का पैरामीटर माना जाता है।

लेकिन, आदर्श आचार संहिता, किसी संवैधानिक प्राविधान या किसी अन्य कानून के अंतर्गत नहीं बनी है बल्कि, यह सभी राजनीतिक दलों की सहमति से बनी और धीरे धीरे, समय तथा समस्याओं के बरअक्स विकसित हुई है।
० सबसे पहले 1960 में केरल विधानसभा चुनाव के दौरान आदर्श आचार संहिता को, चुनाव के दौरान, क्या करें और क्या न करें, के रूप में, लागू किया गया था। 
० 1962 के लोकसभा चुनाव में पहली बार चुनाव आयोग ने, एक आदर्श आचार संहिता का ड्राफ्ट तैयार कर,  सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों में वितरित किया, तथा उनकी राय ली। फिर उसे उक्त चुनाव के समय, देशभर में लागू किया गया। 
० इसके बाद 1967 के लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में पहली बार राज्य सरकारों से आग्रह किया गया कि वे राजनीतिक दलों से, आदर्श आचार संहिता का अनुपालन करने को कहें और कमोबेश ऐसा हुआ भी। इसके बाद से लगभग सभी चुनावों में आदर्श आचार संहिता का पालन कमोबेश होता आ रहा है।

भारत में होने वाले चुनावों में अपनी बात वोटर्स तक पहुँचाने के लिये चुनाव सभाओं, जुलूसों, भाषणों, नारेबाजी और पोस्टरों आदि का इस्तेमाल किया जाता है। वर्तमान में प्रचलित आदर्श आचार संहिता में राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के सामान्य आचरण के लिये दिशा-निर्देश दिये गए हैं। सबसे पहले तो 
० आदर्श आचार संहिता लागू होते ही राज्य सरकारों और प्रशासन पर कई तरह के अंकुश लग जाते हैं।
० सरकारी कर्मचारी चुनाव प्रक्रिया पूरी होने तक निर्वाचन आयोग के तहत आ जाते हैं।
० सरकारी मशीनरी और सुविधाओं का उपयोग चुनाव के लिये न करने और मंत्रियों तथा अन्य अधिकारियों द्वारा अनुदानों, नई योजनाओं आदि का ऐलान करने की मनाही है।
चुनाव आयोग को यह अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के एस.आर. बोम्मई मामले में दिये गए ऐतिहासिक फैसले से मिला है। 1994 में आए इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि कामचलाऊ सरकार को केवल रोज़ाना का काम करना चाहिये और कोई भी बड़ा नीतिगत निर्णय लेने से बचना चाहिये।
० मंत्रियों तथा सरकारी पदों पर तैनात लोगों को सरकारी दौरे में चुनाव प्रचार करने की इजाजत भी नहीं होती।
० सरकारी पैसे का इस्तेमाल कर विज्ञापन जारी नहीं किये जा सकते हैं। इनके अलावा चुनाव प्रचार के दौरान किसी के निजी जीवन का ज़िक्र करने और सांप्रदायिक भावनाएँ भड़काने वाली कोई अपील करने पर भी पाबंदी लगाई गई है।
० यदि कोई सरकारी अधिकारी या पुलिस अधिकारी किसी राजनीतिक दल का पक्ष लेता है तो चुनाव आयोग को उसके खिलाफ कार्रवाई करने का अधिकार है। 
० चुनाव सभाओं में अनुशासन और शिष्टाचार कायम रखने तथा जुलूस निकालने के लिये भी गाइडलाइंस बनाई गई हैं।
० किसी उम्मीदवार या पार्टी को जुलूस निकालने या रैली और बैठक करने के लिये चुनाव आयोग से अनुमति लेनी पड़ती है और इसकी जानकारी निकटतम थाने में देनी होती है।
० हैलीपैड, मीटिंग ग्राउंड, सरकारी बंगले, सरकारी गेस्ट हाउस जैसी सार्वजनिक जगहों पर कुछ उम्मीदवारों का कब्ज़ा नहीं होना चाहिये। इन्हें सभी उम्मीदवारों को समान रूप से मुहैया कराना चाहिये।

इन सारी कवायदों का मकसद सत्ता के गलत इस्तेमाल पर रोक लगाकर सभी उम्मीदवारों को बराबरी का मौका देना है। सर्वोच्च न्यायालय इस बाबत 2001 में दिये गए अपने एक फैसले में कह चुका है कि चुनाव आयोग का नोटिफिकेशन जारी होने की तारीख से आदर्श आचार संहिता को लागू माना जाएगा। इस फैसले के बाद आदर्श आचार संहिता के लागू होने की तारीख से जुड़ा विवाद हमेशा के लिये समाप्त हो गया। अब चुनाव अधिसूचना जारी होने के तुरंत बाद जहाँ चुनाव होने हैं, वहाँ आदर्श आचार संहिता लागू हो जाती है।
यह सभी उम्मीदवारों, राजनीतिक दलों तथा संबंधित राज्य सरकारों पर तो लागू होती ही है, साथ ही संबंधित राज्य के लिये केंद्र सरकार पर भी लागू होती है।

आदर्श आचार संहिता को और यूज़र-फ्रेंडली बनाने के लिये कुछ समय पहले चुनाव आयोग ने ‘cVIGIL’ एप लॉन्च किया। तेलंगाना, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, मिज़ोरम और राजस्थान के पिछले विधानसभा चुनावों में इसका इस्तेमाल हुआ भी था । cVIGIL के ज़रिये चुनाव वाले राज्यों में कोई भी व्यक्ति आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन की रिपोर्ट, आयोग को कर सकता है। इसके लिये उल्लंघन के दृश्य वाली केवल एक फोटो या अधिकतम दो मिनट की अवधि का वीडियो रिकॉर्ड करके अपलोड करना होता है। उल्लंघन कहाँ हुआ है, इसकी जानकारी GPS के ज़रिये स्वतः, संबंधित अधिकारियों को मिल जाती है। शिकायतकर्त्ता की पहचान गोपनीय रखते हुए रिपोर्ट के लिये यूनीक आईडी दी जाती है। यदि शिकायत, सही पाई जाती है तो एक निश्चित समय के भीतर कार्रवाई की जाती है। अब मुझे यह नहीं पता कि, कर्नाटक के इस चुनाव में, इस एप्प का प्रयोग हुआ था नहीं।

अब बात करते हैं, कर्नाटक विधानसभा चुनाव की। पहले आदर्श चुनाव संहिता का यह आदर्श वाक्य पढ़ लें..
"राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के द्वारा जाति, धर्म व क्षेत्र से संबंधित मुद्दे न उठाना।"

सेक्युलरिज्म, देश के संविधान की प्रस्तावना में लिखा केवल एक शब्द ही नहीं, बल्कि सेक्युलरिज्म, संविधान के मूल ढांचे, बेसिक स्टक्चर का एक मजबूत अंग है। प्रस्तावना एक औपचारिकता है और इस औपचारिकता में, जिस साल सेक्युलर शब्द जोड़ा गया था, उसके पहले संविधान अपने लागू होने की तिथि से ही सर्वधर्म समभाव पर आधारित है। लेकिन पिछले दस सालों में, इस शब्द और भावना को एक अपशब्द में बदलने का षडयंत्र, आरएसएस और बीजेपी द्वारा किया गया। और यह षडयंत्र, बीजेपी आईटी सेल द्वारा रोज गढ़े गए दुष्प्रचार भरे, व्हाट्सएप संदेश, अफीम के डोज की तरह, जनता के दिल दिमाग में, उतारे गए। यह सिलसिला अब भी जारी है, हालांकि अब इसका असर कम हो रहा है। इसीलिए जानबूझकर, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए, हर चुनाव में धर्म से जुड़े मुद्दे, धार्मिक प्रतीक और हिंदू देवी देवताओं को घसीटने का शर्मनाक प्रयास किया जाता रहा है। 

जैसे ही बजरंग बली की इंट्री कर्नाटक चुनाव में हुई, उनकी बांछे खिल गई। अधिकांश भारतीय जनता की मानसिकता आज भी सांप्रदायिक नहीं है। वह साफ सुथरा शासन चाहती है और रोजी, रोटी, शिक्षा, स्वास्थ्य की अपेक्षा अपनी सरकारों से करती है। राजनीतिक दल, चूंकि इन मूल समस्याओं को हल करने में, अक्सर खुद को अयोग्य पाते हैं, इसलिए वे जानबूझकर, धर्मांधता के मुद्दे को चुनावों के केंद्र में ले आते हैं और लोगों को वहीं ले भी आते हैं। धर्म की स्थापना करना, सरकारो का काम नहीं है। सरकार का काम, एक साफ सुथरी प्रशासनिक व्यवस्था और जनता के मूल मुद्दों को हल करना है। संविधान ने सभी धर्मों को एक ही पटल पर रखा है। हर नागरिक अपनी आस्था के अनुसार उपासना पद्धति अपनाने के लिए स्वतंत्र है।

आज जब कर्नाटक में बीजेपी ने शीर्ष नेता चुनाव प्रचार में उतरे थे तो उन्होंने न तो वहां व्याप्त भ्रष्टाचार की बात की, और न ही महंगाई की, न ही बेरोजगारी की और न ही शिक्षा स्वास्थ्य की। बात की, कि, बजरंगबली के नाम पर वोट दीजिए। लफंगों और गुंडों के गिरोह के रूप में, बदनाम हो चुके बजरंग दल को, बजरंग बली के रूप में चित्रित करना, कौन सी धार्मिकता है? यह तो हनुमानजी का अपमान करना हुआ। निश्चित रूप से, वे हनुमानजी के कथित अपमान से आहत नहीं थे, उनका उद्देश्य बजरंग बली के नाम पर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर के वोट झटकना था। 

यही यह सवाल उठता है कि, निर्वाचन आयोग ने, प्रधान मंत्री द्वारा जनसभाओं में, बजरंग बली के नाम पर वोट मांगने पर, प्रधान मंत्री को कोई नोटिस जारी की? खुले आम धर्म के नाम पर वोट मांगना न केवल आदर्श चुनाव संहिता का उल्लंघन है बल्कि यह संविधान की अवहेलना है। अपनी आदर्श चुनाव संहिता का पालन आदर्श रूप से, हो,  यह दायित्व चुनाव आयोग का है। यदि आयोग कहे कि उसके पास इस बारे में कोई शिकायत नहीं पहुंची तो यह एक बचकाना बचाव होगा। चुनाव के समय सारा प्रशासनिक अमला, निर्वाचन आयोग के आधीन रहता है। अगर इस तंत्र के बावजूद, आयोग को आदर्श चुनाव संहिता के इस गंभीर उल्लंघन की खबर नहीं लगी तो, क्या कहा जाय। आयोग को इस आरोप पर नोटिस भी जारी करनी चाहिए थी, और बीजेपी के खिलाफ कार्यवाही भी करनी चाहिए थी। 

यदि आयोग, अपनी ही आचार संहिता की धज्जियां उड़ते, देख कर भी चुप है, कोई कार्यवाही नहीं कर रहा है, आयोग के अधिकारियों में यह साहस ही नहीं है कि, वे प्रधानमंत्री द्वारा किए गए, आदर्श आचार संहिता का इस घोर उल्लंघन पर उन्हे नोटिस भेजे या अग्रिम कार्यवाही करें तो, यह आयोग की क्लीवता है। आयोग अपनी संस्था के, उद्देश्य, औचित्य और साख को खो रहा है। लगता है, आयोग, एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था के बजाय, सरकार का एक विभाग बन कर रह गया है। सीईसी की नियुक्ति को लेकर भी सरकार पर सवाल उठे हैं। यह मामला भी अभी अदालत में है। सीईसी को खुद ही अपने विभाग की साख को बनाए रखने के लिए पक्षपात रहित कार्यवाही करनी चाहिए, विशेषकर उन परिस्थितियों में, जब निर्वाचन आयोग विवादो के घेरे में है। निकट भविष्य में अन्य कुछ राज्यों में भी विधानसभा के चुनाव इसी साल होने हैं, ऐसी स्थिति में सीईसी का दायित्व है कि वे न केवल पूरी निष्पक्षता से चुनाव संचालित कराएं, बल्कि यह निष्पक्षता दिखे भी। 

० विजय शंकर सिंह)