Wednesday 30 September 2020

बाबरी विध्वंस मुकदमा - लिब्राहन आयोग के निष्कर्ष और अदालत के फैसले में रोचक विरोधाभास है / विजय शंकर सिंह

बाबरी मस्जिद गिराने के मामले में आज 30 सितंबर 2020 को स्पेशल सीबीआई कोर्ट लखनऊ  का फैसला आ गया है। बाबरी मस्जिद गिराने के लिये सभी दोषी अभियुक्त दोषी नहीं पाए गए। उन्हें अदालत ने बरी कर दिया है। स्पेशल सीबीआई जज एसके यादव ने यह बहुप्रतीक्षित निर्णय आज सुनाया है। जज एसके यादव, पहले से ही रिटायर्ड हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट के एक असाधारण आदेश के काऱण उनका रिटायरमेंट, इसी मुकदमे के फैसले को सुनाने तक रुका था और अब वे भी मुक्त हो गए। सीबीआई कोर्ट लखनऊ के फैसले के अनुसार, बीजेपी के नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती आदि को इस ढांचे को गिराने के लिये आपराधिक षडयंत्र का दोषी नहीं पाया गया है। अदालत ने सीबीआई की इस थियरी को भी खारिज कर दिया कि, इस ढांचे को गिराने के लिये कोई सोची समझी साजिश पहले से ही की गई थी। 

सीबीआई ऐसी किसी साज़िश का सुबूत अदालत में पेश नहीं कर पायी। यह सब अभियुक्त विध्वंस के समय घटनास्थल पर मौजूद थे और तब की खबरें पढिये या तब की विडियो क्लिप्स देखिए या तब ल वहां पर तैनात अधिकारियों से बात कीजिए तो सबका निष्कर्ष यही निकलता है कि कारसेवा के नाम पर लाखों की भीड़ जुटा लेना, फिर प्रतीकात्मक कारसेवा के बहाने, भवन गिराने वाले उपकरण खुल कर इकट्ठे करना, फिर एक सधे हुए ड्रिल की तरह से चार घँटे में ही एक बड़ी लेकिन पुरानी इमारत ज़मींदोज़ कर देना, जब यह सब हो रहा हो तो इन अभियुक्त नेताओ द्वारा एक दुसरो को बधाई देना, एक साजिश और उस साज़िश के पूरे होने पर खुशी के इजहार को प्रदर्शित करता है। अब सीबीआई इन सब साजिशों के बारीक सूत्रों को कैसे अदालत में सिद्ध नहीं कर पायी, यह तो जब अदालत में दाखिल किए गए सुबूतों और जिरह का अध्ययन किया जाय तभी कुछ कहा जा सकता है। 

आउटलुक मैगज़ीन में छपे एक लेख में इस मामले की न्यायिक जांच करने वाले, रिटायर्ड जस्टिस एमएस लिब्राहन ने इस फैसले और अदालत के इस निष्कर्ष कि, कोई कॉन्सपिरेसी थियरी नहीं है पर हैरानी व्यक्त की है। उन्होंने अंग्रेजी का अटर फ़ार्स यानी नंगा स्वांग शब्द का प्रयोग किया है। 

लिब्रहान आयोग, भारत सरकार द्वारा 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचे के विध्वंस की जांच पड़ताल के लिए गठित एक जांच आयोग था, जिसका कार्यकाल लगभग 17 वर्ष लंबा है। भारत सरकार के गृह मंत्रालय के एक आदेश से 16 दिसंबर 1992 को इसका गठन हुया था। इसके सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश मनमोहन सिंह लिब्रहान को बनाया गया था। आयोग को  जांच रिपोर्ट तीन महीने के भीतर पेश करनी थी, लेकिन इसका कार्यकाल अड़तालीस बार बढ़ाया गया और अंततः 30 जून 2009 को आयोग ने अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंप दी। 

आयोग को निम्न बिंदुओं की जांच कर अपनी रिपोर्ट सौंपने के लिये कहा गया था, 
● 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद के विवादित परिसर में घटीं प्रमुख घटनाओं का अनुक्रम और इससे संबंधित सभी तथ्य और परिस्थितियां जिनके चलते राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे का विध्वंस हुआ।
● राम जन्म भूमि -बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे के विध्वंस के संबंध में मुख्यमंत्री, मंत्री परिषद के सदस्यों, उत्तर प्रदेश की सरकार के अधिकारियों और गैर सरकारी व्यक्तियों, संबंधित संगठनों और एजेंसियों द्वारा निभाई गई भूमिका।
● निर्धारित किये गये या उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा व्यवहार में लाये जाने वाले सुरक्षा उपायों और अन्य सुरक्षा व्यवस्थाओं में कमियां जो 6 दिसंबर 1992 को राम जन्म भूमि - बाबरी मस्जिद परिसर, अयोध्या शहर और फैजाबाद मे हुई घटनाओं का कारण बनीं।
● 6 दिसंबर 1992 को घटीं प्रमुख घटनाओं का अनुक्रम और इससे संबंधित सभी तथ्य और परिस्थितियां जिनके चलते अयोध्या में मीडिया कर्मियों पर हमला हुआ। 
● इसके अतिरिक्त, जांच के विषय से संबंधित कोई भी अन्य मामला।

अपनी 16 वर्षों की कार्रवाई में, आयोग ने कई नेताओं जैसे कल्याण सिंह, स्वर्गीय पी.वी. नरसिंह राव, पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती और मुलायम सिंह यादव के अलावा कई नौकरशाहों और पुलिस अधिकारियों के बयान भी दर्ज किये। उत्तर प्रदेश के शीर्ष नौकरशाहों और पुलिस अधिकारीयों के अलावा अयोध्या के तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट आरएन श्रीवास्तव और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक डीबी राय का बयान भी दर्ज किया गया। एसएसपी डीबी राय और डीएम आरएन श्रीवास्तव दोनो ही घटना के बाद ही निलंबित हो गए थे। डीबी राय बाद में सुल्तानपुर से सांसद भी रहे पर उनका कार्यकाल पूरा न हो सका क्योंकि लोकसभा तय कार्यकाल के पहले ही भंग हो गयी थी। डीबी राय अपने अंतिम दिनों में अवसाद में आ गए थे जो जल्दी ही दिवंगत हो गए। आरएन श्रीवास्तव भी लम्बे समय तक निलंबित रहे और उनके बारे में मुझे बहुत अधिक पता नहीं है। 

आयोग ने 17 वर्षों में, 100 से अधिक गवाहों की गवाही ली, उनसे बात की, और उनसे जिरह किये, और जांच के बाद आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि यह विध्वंस एक नियोजित षडयंत्र का परिणाम है। आयोग की रिपोर्ट अंग्रेजी में है और आयोग ने इसे प्लांड कॉन्सपिरेसी शब्द से व्यक्त किया है। यह नियोजित षडयंत्र, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आरएसएस, बीजेपी और संघ परिवार के  कुछ नेताओं द्वारा रचा गया था। आयोग ने जिन 68 लोगो को ढांचा विध्वंस और साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने का दोषी पाया था, उनमे से प्रमुख हैं, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, साध्वी ऋतम्भरा, कल्याण सिंह, कलराज मिश्र, विनय कटियार, महंत नृत्यगोपाल दास। साथ ही पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी, बाल ठाकरे, अशोक सिंघल, लालजी टण्डन भी इस साजिश में शामिल पाए गए लेकिन यह सभी अब जीवित नहीं हैं। 

हालांकि लिब्राहन आयोग ने जिन 68 व्यक्तियों को अपनी रिपोर्ट में, ढांचा गिराने का दोषी पाया है वे सभी सीबीआई द्वारा की गयी विवेचना में अभियुक्त नहीं ठहराए गए थे। लेकिन, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, कल्याण सिंह, महंत नृत्यगोपाल दास, विनय कटियार आदि प्रमुख लोग सीबीआई की विवेचना में अभियुक्त बनाये गए थे। सीबीआई ने इनके ऊपर, आपराधिक साजिश करने और उत्तेजनात्मक भाषण देने, के आरोप लगाये थे, जिन्हें सीबीआई की अदालत ने 30 सितंबर के फैसले में, खारिज कर दिया। सीबीआई अदालत, ट्रायल के बाद, निम्न प्रमुख निष्कर्षों पर पहुंची है, 
● विवादित ढांचा का गिराया जाना पूर्व नियोजित नहीं था। यह इमारत अचानक गिराई गई।
● अभियुक्तों के खिलाफ इतने सुबूत नही हैं कि उनके आधार पर इन्हें दोषी ठहराया जा सके।  
● ऑडियो सुबूत को सत्य नहीं माना जा सकता है, क्योंकि जगह जगह ऑडियो क्लिप में आवाज़ स्पष्ट और श्रवणीय नहीं है। 
● सीबीआई ने जो वीडियो सबूत के तौर पर पेश किये हैं, उसमें जो लोग विवादित ढांचे की गुंबद पर चढ़े थे, अराजक तत्व थे। उनमें से इन  मुल्जिमान में से कोई नहीं था। 
● जो फोटो अभियोजन ने पेश किए गए हैं, उनके नेगेटिव नहीं मिले अतः उन्हें प्रमाण नहीं माना जा सकता है ।
● अखबार की क्लिपिंग व फोटो साक्ष्य अधिनियम के अनुसार प्रमाण नहीं माने जाते हैं ।

इस फैसले पर जस्टिस एमएस लिब्राहन की प्रतिक्रिया भी तुरंत आ गयी है जो 'आउटलुक' ने उनसे बात कर के छापी है। जस्टिस लिब्राहन के अनुसार, 
" इतने सुबूत आयोग को जांच में मिले थे जिससे कि, यह ढांचा गिराने के आरोप का दोष, इन सभी नेताओं के खिलाफ प्रमाणित हो सकता था । अभियोजन, अपना पक्ष अदालत में युक्तियुक्त तरह से प्रस्तुत नहीं कर सका। " 

जस्टिस लिब्राहन ने बताया कि 
" आयोग ने एक एक घटना का विस्तृत विवरण दिया है और यह भी सप्रमाण बताया है कि, किसकी इस कृत्य में क्या क्या भुमिका रही है।"  
आयोग ने जो अपने निष्कर्ष में जो लिखा है, उसके कुछ अंश नीचे मैं दे दे रहा हूँ। फिलहाल तो जस्टिस लिब्राहन का यही कहना है कि, आयोग के निष्कर्षों से सीबीआई अदालत के निष्कर्ष लगभग बिल्कुल उलट हैं। 

अब लिब्राहन आयोग की भारी भरकम रिपोर्ट के कुछ अंश पढिये जिनसे इस साजिश का संकेत मिलता है। 

" भारी संख्या में अयोध्या में लोगों को लाने और एकत्र करने का आह्वान किया गया था। अयोध्या में, बड़ी संख्या में लोग आ सकते हैं, इसलिए इतने बड़े जनसमूह को अयोध्या में आने, रुकने और ठहरने के लिये, ज़रूरी स्थान की व्यवस्था की गयी थी। इन सब व्यवस्थाओं के लिये पर्याप्त धन की भी ज़रूरत पड़ी थी। धन की व्यवस्था विभिन्न तरह से की गयी। अनेक संगठनों के खाते बैंकों में थे, जिनसे धन का आदान प्रदान हुआ। यह सभी खाते संघ परिवार से जुड़े अलग अलग संगठनों के थे। इनमे आरएसएस, वीएचपी, ( विश्व हिंदू परिषद ), बीजेपी, से जुड़े नेताओ के बैंक खाते शामिल थे। संघ परिवार समय समय पर चंदे आदि से धन एकत्र करता रहा है। जिन संगठनों के बैंक खातों में धन जमा हुआ वे बैंक खाते, रामजन्मभूमि न्यास, भारत कल्याण प्रतिष्ठान, वीएचपी, रामजन्मभूमि न्यास पादुका पूजन निधि, श्रीरामजन्मभूमि न्यास श्रीराम शिला पूजन, जन हितैषी के नाम से खोले गए थे। जो व्यक्ति इन बैंक खातों को ऑपरेट करते थे, वे, ओंकार भावे, महंत परमहंस रामचंद्र दास, गुरुजन सिंह, नारद शरण, आचार्य गिरिराज किशोर, विष्णु हरि डालमिया, नाना भगवंत, जसवंत राय गुप्ता, बीपी तोषनीवाल, सीताराम अग्रवाल, अशोक सिंघल, रामेश्वर दयाल, प्रेमनाथ, चंपत राय, सूर्य किशन, यशवंत भट्ट, अवधेश कुमार दास शास्त्री आदि हैं। " 

" इतनी बड़ी धनराशि के उपयोग से यह बात कदम दर कदम प्रमाणित होती गयी कि, सारी तैयारियां, ढांचे के विध्वंस होने तक, पूर्वनियोजित रूप से चलायी जाती रहीं। अगर सभी साक्ष्यों का अध्ययन किया जाय तो, यह निष्कर्ष निकलता है कि, इतनी बड़ी संख्या में कारसेवकों का अयोध्या की ओर जाना और वहां एकत्र होना न तो स्वैच्छिक था और न ही स्वयंस्फूर्त। यह एक सोची समझी योजना के अंतर्गत पूर्णतः नियोजित था। अतः इस आंदोलन के राजनीतिक और अन्य नेताओं का यह दावा कि, यह कृत्य कारसेवकों द्वारा भावनात्मक उन्माद और क्रोध में किया गया और स्वयंस्फूर्त था, सच नहीं है।" 

" यह स्थापित हो गया है कि, 6 दिसंबर 1992 तक जो घटनाएं घटी हैं, वे एक साजिश के तहत अंजाम दी गयीं थी। निश्चित रूप से कुछ मुट्ठीभर लोग, सब कुछ नष्ट कर देने के उद्देश्य से, सहिष्णु और शांतिपूर्ण समाज को असहिष्णु लोगो के गिरोह में बदल देने की एक साज़िश रच रहे थे। "

" कल्याण सिंह, उनके कुछ मंत्री और चुनिंदा नौकरशाहों ने जानबूझकर कर कुछ ऐसी विध्वंसक परिस्थितियों को रचा कि उन परिस्थितियों में उक्त विवादित ढांचे के विध्वंस होने और देश के दो समुदायों के बीच की खाई को और चौड़ा होने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प ही शेष नहीं रहा, परिणामस्वरूप पूरे देश मे व्यापक जनसंहार और दंगे भड़क उठे। यह स्वीकार करने मे कोई संदेह नहीं है कि, इन सबका दोष और जिम्मेदारी मुख्यमंत्री कल्याण सिंह, उनके मंत्रियों और कुछ उनके चुनिंदा नज़दीकी नौकरशाहों पर है। परमहंस रामचंद्र दास, अशोक सिंघल, विनय कटियार, विष्णुहरि डालमिया, केएस सुदर्शन, एचवी शेषाद्रि, लालजी टंडन, कलराज मिश्र, गोविंदाचार्य और अन्य जिनके नाम मेरी रिपोर्ट में अंकित हैं, इस कृत्य में साथ साथ थे और उन्हें, इस आंदोलन के बडे नेता, एलके आडवाणी, एमएम जोशी और एबी बाजपेयी का पूरा सहयोग और समर्थन था। " 

" एक तरफ संघ परिवार की विधितोड़क, अनैतिक और राजनीतिक नैतिकता के विरुद्ध, यह कृत्य औऱ दूसरी तरफ उसकी सार्वजनिक क्षवि, इस विरोधाभासी पहेली को आयोग, अपनी लंबी सुनवाई और गंभीर तथ्यान्वेषण के दौरान लगातार सुलझाता रहा। एबी वाजपेयी, एमएम जोशी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे निर्विवाद रूप से जनप्रिय नेतागण औऱ संघ परिवार के  नेताओं ने लगातार अपनी बेगुनाही की बात आयोग के समक्ष कही तथा खुद को दिसंबर 1992 की घटनाओं से बार बार अलग बताया। लेकिन एक क्षण के लिए भी यह नहीं माना जा सकता है कि,  लालकृष्ण आडवाणी, एबी वाजपेयी या एमएम जोशी को, संघ परिवार की योजनाओं की जानकारी नहीं थी। अतः  इन नेताओं को न तो संदेह का लाभ दिया जा सकता है और न ही उन्हें दोषमुक्त किया जा रहा है। "

एक तरफ 30 सितंबर 2020 का स्पेशल  सीबीआई कोर्ट का फैसला और दूसरी तरफ जस्टिस लिब्राहन आयोग के निष्कर्ष इस परस्पर विरोधी पहेली को और जटिल बना देते हैं। कानूनी विंदु यह है कि आयोग का निष्कर्ष एक तथ्यान्वेषण होता है जिसे फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट कहते हैं। इन्ही तथ्यों के आधार पर यदि कोई अपराध बनता है तो उसकी सीआरपीसी के प्राविधानों के अनुसार, जो पुलिस की किसी अपराध की विवेचना करने की शक्तियां होती हैं के अनुसार विवेचना की जाती है। सीबीआई ने यह विवेचना की और उसने 68 आरोपियों में से 32 आरोपियों को इस ढांचा गिराने का अभियुक्त मानते हुए अदालत में आरोप पत्र दिया। उसी आरोप पत्र पर जो ट्रायल हुआ उसी का फैसला 30 सितंबर 2020 को अदालत ने सुनाया जिंसमे न तो कॉन्सपिरेसी थियरी, जो आयोग ने सही पायी थी, साबित हो सकी और न ही कोई अभियुक्त दोषी पाया गया। अब यह सीबीआई पर है कि वह फैसले का अध्ययन कर के सरकार की अनुमति से इस फैसले के खिलाफ हाईकोर्ट में अपील करती है या नहीं। सरकार का अपील के संदर्भ में क्या दृष्टिकोण रहेगा, इस पर अभी कुछ भी जल्दबाजी होगी।

( विजय शंकर सिंह )

Tuesday 29 September 2020

हाथरस गैंगरेप पीड़िता का चुपके से किया गया अंतिम संस्कार अनुचित है / विजय शंकर सिंह

सुबह जब फेसबुक खोला तो पहली खबर मिली कि, हाथरस की, गैंगरेप पीड़िता का अंतिम संस्कार रात में ही कर दिया गया। चुपके से किये गये इस अंतिम संस्कार के निर्णय में घर और परिवार के लोग सम्मिलित नहीं थे। रात में ही शव अस्पताल से निकाल कर बिना घर परिवार की अनुमति और सहमति के शव का अंतिम संस्कार कर दिया गया ।

रात के अंधेरे में समस्त मानवीय और वैधानिक मूल्यों को दरकिनार कर के किया गया यह अंतिम संस्कार, मानवीयता का ही अंतिम संस्कार जैसा लगता है। यह अन्याय,अत्याचार और अमानवीयता की पराकाष्ठा है। पीड़िता के माँ बाप, घर परिवार के लोग, रोते कलपते रहे, लेकिन पुलिस ने खुद ही अंतिम संस्कार कर दिया। पीड़िता को न्याय मिलेगा या नहीं यह तो भविष्य के गर्भ में है, पर उसे अंतिम संस्कार भी सम्मानजनक और न्यायपूर्ण तरह से नहीं मिल सका।

यह कृत्य बेहद निर्मम और समस्त विधि विधानों के प्रतिकूल है। अगर शव लावारिस या लादावा है तो उस शव का उसके धर्म के अनुसार अंतिम संस्कार करने का प्राविधान है। पुलिस ऐसे लावारिस और लादावा शवों का अंतिम संस्कार करती भी है। लेकिन यहां तो शव घरवाले मांग रहे थे और फिर भी बिना उनकी सहमति और मर्ज़ी के उसका अंतिम संस्कार कर दिया जाता है। जबकि पीड़िता का शव न तो लावारिस था और न ही लादावा।

कभी कभी किसी घटना जिसका व्यापक प्रभाव शांति व्यवस्था पर पड़ सकता है और  कानून व्यवस्था की स्थिति उत्पन्न हो सकती है तो ऐसे शव के अंतिम संस्कार चुपके से, पुलिस द्वारा कर दिए जाते हैं। लेकिन ऐसे समय मे भी अगर शव लावारिस और लादावा नहीं हैं तो घर परिवार को विश्वास में लेकर ही उनका अंतिम संस्कार होता है।

गैंगरेप की इस हृदयविदारक घटना से लोगो मे बहुत आक्रोश है और इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हों भी रही है। अब जब इस प्रकार रात के अंधेरे में चुपके से अंतिम संस्कार कर दिया गया है तो इससे यह आक्रोश और भड़केगा। यह नहीं पता सरकार ने क्या सोच कर इस प्रकार चुपके से रात 2 बजे अंतिम संस्कार करने की अनुमति दी।

यह निर्णय निश्चित रूप से हाथरस के डीएम एसपी का ही नहीं रहा होगा। बल्कि इस पर शासन में बैठे उच्चाधिकारियों की भी सहमति होगी। ऐसे मामले जो मीडिया में बहुप्रचारित हो जाते हैं, अमूमन डीएम एसपी के निर्णय लेने की अधिकार सीमा से बाहर हो जाते हैं। मुझे लगता है, इस मामले में भी ऐसा ही हुआ होगा।

सवाल उठेंगे कि आखिर पुलिस ने ऐसा क्यों किया और किस घातक संभावना के कारण ऐसा किया गया ? सरकार कहेगी कि, इससे कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ सकती है। पर यह घटना और अपराध खुद ही इस बात का प्रमाण है कि कानून और व्यवस्था तो बिगड़ ही चुकी है। आधी रात का यह अंतिम संस्कार, व्यवस्था के ही अंतिम संस्कार की तरह लगता है और यह सब बेहद विचलित करने वाला तो है ही।

मानवाधिकार, न केवल जीवित मनुष्य का होता है, बल्कि शव के भी मानवाधिकार हैं। संविधान के मौलिक अधिकारों में एक अधिकार सम्मान से जीने का अधिकार भी है। यह अधिकार, मानवीय मूल्यों, जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के आधार पर दिया गया है। इसी मौलिक अधिकार के आलोक में, तरह तरह के नागरिक अधिकारों और श्रम अधिकारों के कानून बने हुए हैं। अब शव के अधिकार की भी बात हो रही है तो मृत्यु के बाद एक शव के क्या अधिकार हो सकते हैं, यह प्रश्न अटपटा लग सकता है, लेकिन राजस्थान के मानवाधिकार आयोग ने, शव के भी सम्मानजनक अंतिम संस्कार के रूप में यह सवाल उठाया है।

अक्सर सड़क पर शव रखकर चक्काजाम करने, बाजार बंद कराने, पुलिसकर्मियों या डॉक्टरों का घेराव करने की खबरें देश में आए दिन अखबारों में छपती रहती हैं और इस प्रकार, शव एक आक्रोश की अभिव्यक्ति के साथ साथ सौदेबाजी के उपकरण के रूप में भी बदल जाते हैं। राजनीतिक दलों के ऐसे मामलों में प्रवेश करने से स्थिति और विकट हो जाती है और बेचारा शव इन सब आक्रोश, सौदेबाजी और तमाशे के बीच पड़ा रहता है। जनता यह सोचती है कि जब तक शव है तभी तक शासन और प्रशासन पर वह अपनी मांगों, वे चाहे जो भी हों, के लिये दबाव बना सकती है। ऐसे में अक्सर मुख्यमंत्री को मौके पर बुलाने और मांगे मानने की ज़िद भी उभर आती है। 

इन सब ऊहापोह के बीच सरकार चाहती है कि शव का जल्दी से जल्दी अंतिम संस्कार हो जाय। राजस्थान के मानवाधिकार आयोग ने शव की इसी व्यथा को महसूस किया और उसने मृत्योपरांत मानवाधिकार या सम्मान से अंतिम संस्कार किया जाय और शव को अपमानजनक रूप से प्रदर्शित न किया जाय इसलिए एक निर्देश जारी किए। ऐसी स्थिति केवल राजस्थान में ही नहीं बल्कि लगभग हर राज्य में भी आयी है।  अपने एक महत्वपूर्ण आदेश में शव रख कर मांगें मनवाने की बढ़ती प्रवृत्ति पर आपत्ति जताते हुआ आयोग ने स्पष्ट किया है कि शव के भी कुछ अधिकार होते हैं।

राजस्थान मानवाधिकार आयोग ने सरकार से सिफारिश की है कि
" शव रख कर मांगें मनवाने की घटनाओं को रोकने के लिए इसे दंडनीय अपराध घोषित किया जाए। राजस्थान ही नहीं समूचे देश में शव रख कर मुआवजा, सरकारी नौकरी और अन्य तरह की मांगें मनवाए जाने की प्रवृत्ति बढ़ी है। शव का दुरुपयोग किए जाने, इसकी आड़ में आंदोलन कर अवैध रूप से सरकार, प्रशासन, पुलिस, अस्पताल और डॉक्टरों पर दबाव बनाकर धनराशि या अन्य कोई लाभ प्राप्त करना गलत है। ऐसी घटनाओं को आयोग शव का अपमान और उसके मानवाधिकारों का हनन मानता है।"

अयोग ने कहा है कि
" इसे रोकने के लिए आवश्यक नीति निर्धारण और विधि के प्रावधानों को मजबूत किया जाना जरूरी है। आयोग ने इस बारे में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश का भी उल्लेख किया है, जिसमें कहा गया है कि संविधान के तहत सम्मान और उचित व्यवहार का अधिकार जीवित व्यक्ति ही नहीं बल्कि उसकी मृत्यु के बाद उसके शव को भी प्राप्त है। आयोग ने कहा है कि विश्व के किसी भी धर्म के अनुसार शव का एकमात्र उपयोग उसका सम्मान सहित अंतिम संस्कार ही है।"

आयोग ने इस संदर्भ में निम्न सिफारिशें कीं
● दाह संस्कार में लगने वाले समय से अधिक तक शव को नहीं रखा जाए।
● परिजन अंतिम संस्कार नहीं कर रहे हैं तो राज्य सरकार की जिम्मेदारी है कि वह कराए।
● यदि किसी अपराध की जांच के लिए शव की जरूरत नहीं है तो ऐसी स्थितियों में पुलिस को अंतिम संस्कार का अधिकार दिया जाए
● शव को अनावश्यक रूप से घर या किसी सार्वजनिक स्थान पर रखना दंडनीय अपराध घोषित हो।
● शव का किसी आंदोलन में उपयोग दंडनीय अपराध माना जाय।

लेकिन यह सब तब है जब शव का दुरूपयोग किया जाय। हाथरस मामले में सबसे बड़ी अनियमितता यह हुयी है कि शव का अंतिम संस्कार करने में अनावश्यक रूप से जल्दीबाजी की गयी है। शव का पोस्टमार्टम डॉक्टरों के अलग पैनल द्वारा कराये जाने की मांग की जा रही थी और इसके लिए धरना प्रदर्शन भी चल रहा था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। शव का उसके परिजनों की मांग के अनुसार अलग और बड़े डॉक्टरों के पैनल से पोस्टमार्टम कराया जाना चाहिए था और अब तो ऐसे पोस्टमॉर्टम की वीडियोग्राफी कराने के भी निर्देश हैं। यह सब इसलिए कि तमाम अफवाहें जो जनता में फैल रही हैं, उनका निराकरण हो जाय। अब यह स्पष्ट नहीं हो रहा है कि, ऐसे गुपचुप अंतिम संस्कार के लिये पीड़िता के माता पिता और अन्य परिजन सहमत थे या नही। अगर वे सहमत नहीं थे तब यह गलत हुआ है ।

अब एक उद्धरण पढ़ लिजिए।
" तानाशाहों को अपने पूर्वजों के जीवन का अध्ययन नहीं करना पड़ता। वे उनकी पुरानी तस्वीरों को जेब में नहीं रखते या उनके दिल का एक्स-रे नहीं देखते। यह स्वत:स्फूर्त तरीके से होता है कि हवा में बन्दूक की तरह उठे उनके हाथ या बँधी हुई मुठ्ठी के साथ पिस्तौल की नोक की तरह उठी हुई अँगुली से कुछ पुराने तानाशाहों की याद आ जाती है या एक काली गुफ़ा जैसा खुला हुआ उनका मुँह इतिहास में किसी ऐसे ही खुले हुए मुँह की नकल बन जाता है।

वे अपनी आँखों में काफ़ी कोमलता और मासूमियत लाने की कोशिश करते हैं लेकिन क्रूरता एक झिल्ली को भेदती हुई बाहर आती है और इतिहास की सबसे क्रूर आँखों में तब्दील हो जाती है। तानाशाह मुस्कराते हैं, भाषण देते हैं और भरोसा दिलाने की कोशिश करते हैं कि वे मनुष्य है, लेकिन इस कोशिश में उनकी भंगिमाएँ जिन प्राणियों से मिलती-जुलती हैं वे मनुष्य नहीं होते।

तानाशाह सुन्दर दिखने की कोशिश करते हैं, आकर्षक कपड़े पहनते हैं, बार-बार सज-धज बदलते हैं, लेकिन यह सब अन्तत: तानाशाहों का मेकअप बनकर रह जाता है।इतिहास में कई बार तानाशाहों का अन्त हो चुका है, लेकिन इससे उन पर कोई फ़र्क नहीं पड़ता क्योंकि उन्हें लगता है वे पहली बार हुए हैं। "

तनाशाही का अर्थ केवल हिटलर और मुसोलिनी ही नही होता है, बल्कि हर वह  मनोवृत्ति और राजनीतिक सोच जो देश के संविधान, कानून और समाज के स्थापित मूल्यों को दरकिनार कर के उपजती है वही एकाधिकारवाद या तानाशाही की ओर बढ़ती हुई कही जा सकती है। अधिकतर तानाशाह उपजते तो अपनी एकाधिकारवादी मानसिकता, ज़िद, ठसपने और अहंकार से हैं, पर वे फलते फूलते हैं, जनता की चुप्पी से, नियतिवाद के दर्शन से, आस्थावाद के मोहक मायाजाल से, कुछ लोगो की, सत्ता के करीब होने की आपराधिक लोलुपता से और अंत मे यह सब मिलकर व्यक्ति, समाज और देश को  विनाश की ओर ही ले जाता है।

बचता तानाशाह भी नही  है। उसका अंत तो और भी दारुण होता है। कभी वह आत्महत्या कर लेता है तो कभी वह उसी जनता द्वारा, जिसकी लोकप्रियता के दम पर वह सत्ता के शीर्ष पर पहुंच चुका होता है, सड़क के किनारे लैम्पपोस्ट पर लटका दिया जाता है।  जिस लोकप्रियता की रज्जु पर वह तन कर दीर्घ और विशालकाय दिखता है और उसे खुद के अलावा कुछ भी नहीं दिखता है या यूं कहें वह कुछ और देखना भी चाहता है, वह भी जब यह तनी हुयी रस्सी टूटती है तो धराशायी ही नज़र आता है। इतिहास में इसके अनेक उदाहरण हैं। पर हम इतिहास से सीखते ही कब हैं !

( विजय शंकर सिंह )

Monday 28 September 2020

निरन्तर उपेक्षा का दंश झेलता किसान / विजय शंकर सिंह

2014 के लोकसभा चुनाव में अनेक लोकलुभावन वादों के बीच, किसानों के लिये सबसे प्रिय वादा भाजपा का था, 2022 तक किसानों की आय दुगुनी करना। साथ ही एमएस स्वामीनाथन आयोग की संस्तुतियों को लागू करना। लेकिन आज छह साल बाद जब 5 जून 2020 को सरकार ने किसानों से जुड़े, तीन अध्यदेशो को जारी किया, जो अब राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद कानून बन गए हैं, तो वे न केवल किसान विरोधी हैं बल्कि, खुलकर पूंजीपतियों के समर्थन में गढ़े गए कानून दिख रहे हैं। इन कानूनों को लेकर, किसानों के मन मे अनेक संशय हैं। वैसे तो इन कानूनों को लेकर, अध्यादेशों के जारी होने के दिन से ही, किसान आंदोलित थे पर जब राज्यसभा से विवादित माहौल में, यह तीनों बिल ध्वनिमत से पारित कर दिए गए तो सरकार की ज़िद और किसान विरोधी रवैये को लेकर देश भर के किसान भड़क उठे। 25 सितंबर 2020 को समस्त किसान संगठनों द्वारा, भारत बंद का आयोजन किया गया था, और यह आयोजन सफल भी रहा। 

हालांकि सरकार अब भी यह कह रही है कि, यह कानून किसान हित मे हैं, पर वह इन कानूनों के सन्दर्भ में निम्न संदेहों का समाधान नहीं कर पा रही है। 
● किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य मिले, इसके लिये इन कानून में कोई वैधानिक प्राविधान क्यों नहीं है ? 
● कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग वाले कानून में आपसी विवाद होने की स्थिति में, किसानों के लिये सिविल न्यायालय जाने का प्रबिधान क्यों नहीं है ? 
● कॉन्ट्रैक्ट में विवाद होने पर,  न्यायपालिका के बजाय, एक्जीक्यूटिव मैजिस्ट्रेट को ही क्यों यह विवाद तय करने की जिम्मेदारी दी गयी है ? 
● मंडी पर टैक्स और मंडी के बाहर कोई टैक्स नहीं, इससे मण्डिया धीरे धीरे बंद हो जाएंगी औऱ कॄषि उपज पर कम्पनी और व्यापारियों का एकाधिकार हो जाएगा, जिससे अंत मे सरकारी खरीद कम होने लगेगी जिसका परिणाम, सरकारी अन्न भंडारण और पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम पर भी पड़ेगा, परिणामस्वरूप किसान पूरी तरह से बाजार के रहमोकरम पर हो जाएगा। इस सन्देह के निवारण के लिये कानून में क्या प्राविधान किये गए हैं ? 
● अनाज, आलू, प्याज सहित अन्य वस्तुओं की जमाखोरी बढ़ जाएगी क्योंकि आवश्यक वस्तु अधिनियम में, संशोधन के बाद, यह सब जिंस आवश्यक वस्तु की श्रेणी से बाहर आ गयी हैं। अब इस संशोधन के अनुसार, इनकी जमाखोरी पर कोई कानूनी प्रतिबंध नहीं रहा है। इससे बाजार मे इन वस्तुओं का जब चाहे, जमाखोर और मुनाफाखोर व्यापारियों द्वारा कृत्रिम अभाव पैदा कर के मुनाफा कमाया जा सकता है। जिसका सीधा असर न केवल किसानों पर पड़ेगा, बल्कि हर उपभोक्ता पर पड़ेगा। ऐसी स्थिति में सरकार के पास ऐसा कौन सा कानूनी मेकेनिज़्म अब शेष है जिससे यह प्रवित्ति रोकी जा सके ? 

2014 में लोकप्रियता के शिखर पर खड़ी नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार, विगत छह सालों में अपनी किसान विरोधी कुछ नीतियों के कारण,  किसानों के मन में, अपनी अच्छी छवि नहीं बना पाई है। यह स्थिति 2014 लोकसभा चुनाव के बाद ही बनने लगी थी जब केंद्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून को संसद में पेश कर दिया था। पूंजीपतियों के हित मे, पूंजीपतियों के ही इशारे पर ड्राफ्ट किये गए उक्त भूमि अधिग्रहण कानून ने, किसानों को सरकार के प्रति निराशा से भर दिया और उन्हें सशंकित कर दिया। आगे चलकर किसानों की उत्तरोत्तर खराब होती हुयी स्थिति ने उन्हें सड़कों पर उतरने के लिए बाध्य कर दिया। 2014 के बाद,  आंदोलन की प्रभावी शुरुआत महाराष्ट्र के नासिक जिले में हुयी, जब किसानों ने शहरों में फल, सब्जी और दूध की आपूर्ति रोक दी थी। उसके बाद और भी आंदोलन जगह जगह होने लगे, जिनका संक्षिप्त उल्लेख नीचे किया जा रहा है। 

25 सितंबर का भारत बंद, 2014 के बाद होने वाला कोई, पहला किसान आंदोलन नहीं है, बल्कि 2014 के बाद से ही देश भर में कहीं न कहीं, या तो स्वामीनाथन आयोग की संस्तुतियों को लागू करने को लेकर, या कर्जमाफी की मांग को लेकर या आत्महत्याओं से उपजे असंतोष को लेकर, या फसल बीमा में अनेक अनियमितताओं को लेकर,  किसान देश मे कहीं न कहीं आंदोलित होते रहे हैं। लेकिन इन नए कृषि कानूनो ने, देश भर के किसानों को आर पार की लड़ाई के लिये एकजुट कर दिया है। अपराध अभिलेख ब्यूरो, एनसीआरबी, के आंकड़ो के अनुसार, 2014 से 2016 के बीच किसानों के आंदोलन से जुड़े 4837 मामले पुलिस अभिलेखों में दर्ज है। यह वृद्धि इसके पहले के आंकड़ों की तुलना में 700 % से अधिक है। 25 सितंबर के बंद के पहले महाराष्ट्र में किसानों का नासिक से मुंबई मार्च, मध्यप्रदेश के मन्दसौर में किसानों द्वारा किया गया आंदोलन जिंसमे पुलिस की गोली से कई किसान हताहत हो गए थे, जैसे बड़े आंदोलनों के भी आंकड़े इस संख्या में शामिल हैं। सरकार के इस आश्वासन से कि, यह कानून, किसान हित मे है और वह किसानों का उपकार करना चाहती है, पर किसान सरकार की इस बात से बिल्कुल ही सहमत नहीं है और वे उन सभी संदेहों को बार बार उठा रहे हैं, जिन्हें मैंने इस लेख के प्रारंभ में ही लिख दिया है। सरकार के प्रति किसानों की विश्वसनीयता इतनी कम हो गयी है कि, वे इन लोकलुभावन आश्वासनों पर कोई भरोसा नहीं कर पा रहे हैं। अब यह किसान असंतोष इतना व्यापक हो गया है कि, सरकार अब इसे नजरअंदाज करने की स्थिति में भी नहीं है। 

2014 के पहले होने वाले किसान आंदोलन अधिकतर स्थानीय समस्याओं पर आधारित हुआ करते थे और वे अक्सर स्थानीय मुद्दों पर विभाजित भी हो जाते है। बड़े किसान संगठन भी, कभी गन्ने के बकाया मूल्यों को लेकर, तो कभी प्याज की घटती कीमतों को लेकर, तो कभी आलू आदि की भंडारण की समस्याओं को लेकर, तो कभी कर्जमाफी की मांग को लेकर अपने अपने प्रभाव क्षेत्र में आंदोलन करते रहते हैं। देशव्यापी एकजुटता और किसी कानून के सैद्धांतिक विरोध से उत्पन्न देशव्यापी आक्रोश का उनमे अभाव भी रहता था। लेकिन इन तीन कृषि कानूनो के बाद, अलग अलग मुद्दों पर आधारित किसानों के आंदोलन, न केवल एकजुट और देशव्यापी हो गए, बल्कि वे सरकार के किसान विरोधी दृष्टिकोण  के खिलाफ जबरदस्त और निर्णायक लड़ाई लड़ने के लिये आज लामबंद नज़र आ रहे है, जिसकी उपेक्षा करना, सरकार के लिये सम्भव नहीं हो पायेगा। 

2014 में जब नरेंद्र मोदी ने किसानों की मूल समस्याओं जैसे स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश के आधार पर एमएसपी तय करने, और 2022 में किसानों की आय को दुगुना करने की बात कही तो, किसानों को उम्मीदें बहुत बढ़ गयी थी। देश का माहौल ही ऐसा बन गया था कि लगने लगा था कि, अब सभी समस्याओं का समाधान आसानी से हो सकेगा। लोग उम्मीदों से लबरेज थे और उनकी अपेक्षाएं इस नयी सरकार और विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बहुत बढ़ गयीं थीं। लोगो को लगा कि अब तक, सरकार द्वारा बनाये गए बजट में अक्सर, उद्योग जगत और फिर संगठित क्षेत्र के कामगार प्रमुखता से अपना स्थान पाते रहते थे, लेकिन अब किसान उपेक्षित नहीं रह पाएंगे।पहली बार किसानों को लगा कि प्रधानमंत्री के रूप में, एक ऐसा नेता, उनके बीच आया है जो न केवल स्वामीनाथन आयोग की बहुत दिनों से लंबित सिफारिशों को पूरा करेगा, बल्कि 2022 में उनकी आय को दुगुनी करने के लिये हर सम्भव कोशिश करेगा। लेकिन यह मायाजाल लंबा नहीं चल सका। 2017 - 18 तक आते आते, किसानों में निराशा फैलने लगी। अब जब अचानक 5 जून को यह तीनों अध्यादेश सरकार ने जारी कर दिये तो किसानों की सारी उम्मीदे धराशायी हो गईं और वे खुद को ठगा हुआ महसूस करने लगे।

जून 2017 में मध्यप्रदेश के मन्दसौर में  किसानों के प्रदर्शन पर पुलिस ने उसे नियंत्रित करने के लिये बल प्रयोग किया और पुलिस द्वारा गोली चलाने से 6 किसान मारे गए और कुछ घायल हुए। इस घटना की व्यापक प्रतिक्रिया मीडिया और सोशल मीडिया में हुयी। उस समय मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार थी, जो बाद में होने वाले विधानसभा चुनाव में सत्ता से बाहर हो गयी और कांग्रेस की सरकार सत्ता में आयी। हालांकि कांग्रेस की सरकार भी फरवरी में संगठित दलबदल के कारण गिर गयी और फिर से भाजपा के शिवराज सिंह चौहान प्रदेश के मुख्यमंत्री बने जो मंदसौर गोलीकांड के समय भी मुख्यमंत्री थे। इस गोलीकांड से भाजपा की किसान विरोधी क्षवि और उभर कर सामने आ गयी। 2017 में ही दिल्ली में जंतर मंतर पर लम्बे समय तक धरने पर तमिलनाडु के किसान बैठे रहे और व्यापक जनचर्चा के बाद भी, सरकार ने उनकी उपेक्षा की। 

जब मन्दसौर गोलीकांड हुआ तो, टीवी मीडिया द्वारा बार बार यह नैरेटिव तय करने पर कि, तमिलनाडु के किसानों का जंतर मंतर आंदोलन एक तमाशा और मंदसौर गोलीकांड, किसानों की उद्दंडतापूर्वक कार्यवाही पर पुलिस की एक वैधानिक कार्यवाही थी, लेकिन कुछ टीवी चैनलों में सरकार के पक्ष में हवा बनाने के बाद भी, सरकार का किसान विरोधी स्वरूप और उजागर होता रहा। इसी बीच सरकार नोटबन्दी की घोषणा कर चुकी थी, जिसका असर, उद्योगों और बाजार पर पड़ना शुरू हो गया था। देश की अर्थव्यवस्था में मंदी की आहट मिलने लगी थी। सरकार ने किसानों से 2014 में किये वादे पर चुप्पी ओढ़ ली थी। सरकार की किसान विरोधी सोच और किसान हितों की लगातार हो रही इस उपेक्षा ने, किसानों को उद्वेलित और उन्हें भाजपा के खिलाफ लामबंद करना शुरू कर दिया। महाराष्ट्र और राजस्थान में स्थानीय किसान संगठनों ने छोटी छोटी पदयात्राएं आयोजित करनी शुरू कर दी और सरकार पर, उसके द्वारा किये गए वादे को पूरा करने के लिये दबाव डालना शुरू कर दिया। कुछ टीवी चैनल तो सरकार के साथ थे पर किसान संगठनों और उसके समर्थन में उतरे विरोधी राजनीतिक दलों ने किसान समस्या को प्रमुखता से उजागर करना शुरू कर दिया और इस अभियान में, सोशल मीडिया का भरपूर लाभ किसान संघठनो ने उठाया। 

किसान असंतोष ने किसानों के हर वर्ग को एकजुट करने में अपनी अहम भूमिका निभाई और देश भर के लगभग सभी किसान संगठनों ने मिल कर, एक सुनियोजित संगठनात्मक ढांचा बनाना शुरू कर दिया। इस ढांचे में ग्रामीण क्षेत्र में खेती से ही जीवन यापन करने वाले तबके से लेकर नगरों में कृषि उत्पाद पर निर्भर रहने वाले लोगों को एकजुट करने की एक सुव्यवस्थित मुहिम चलाई गयी। इस एकता का परिणाम यह हुआ कि यह संगठन ग्रामीण क्षेत्रो से लेकर नगरों तक फैल गया। भारी संख्या में किसानों के आंदोलन शुरू होने लगे और इन आंदोलनों में बड़े किसानों से लेकर छोटे किसानों तक ने अपनी अपनी समस्या को उठाना और उन समस्याओं के समाधान के लिये अपनी आवाज़ उठानी शुरू कर दिया। इसी का परिणाम यह हुआ कि, जून 2017 की मंदसौर गोलीकांड के बाद ही देश के लगभग 70 किसान संघटन एक झंडे के नीचे आ गए और शीर्ष स्तर पर अखिल भारतीय किसान संघर्ष कोऑर्डिनेशन कमेटी ( एआइकेएससीसी ) की स्थापना हुयी, जिंसमे इस समय देश भर के कुल 250 छोटे बड़े किसान संघटन सम्मिलित हैं। इस कोऑर्डिनेशन कमेटी में, छोटे, मझोले, बड़े किसानों के साथ साथ भूमिहीन किसान तथा खेत मज़दूर भी सम्मिलित हैं। इन संघटनों में क्षेत्र, उपज, राजनीतिक सोच और तरह तरह की विविधिताओं के बावजूद, एक बात पर सहमति है कि, कृषि को लेकर सरकार का रवैया मूलतः कृषि और किसान विरोधी है। 

किसानों की शीर्ष संस्था के रूप में गठित  किसान संघर्ष कोऑर्डिनेशन कमेटी ने, किसान राजनीति में एक नए युग का सूत्रपात किया है। इसने न केवल सरकार से उन वादों को पूरा करने की प्रबल मांग की है, जो सरकार ने अपने संकल्पपत्र मे खुद ही सम्मिलित किये हैं, बल्कि इसने सरकार से कृषि सुधार के लिये नए विधेयकों को लाने की भी मांग की, और यहीं नहीं, उन विधेयकों के प्रारूप भी तय किये और साथ ही अपनी मांगों के समर्थन में राजनीतिक दलों को भी सहमत करने की कोशिश की। कोऑर्डिनेशन कमेटी ने किसान मुक्ति विधेयकों के नाम से तीन कानूनो के प्रारूप भी तय किये, जिंसमे किसानों की दो सबसे पुरानी मांगे, कर्जमाफी और कृषि उपज की उपयुक्त कीमत की बात प्रमुखता से रखी गयी।एआइकेएससीसी ने खुद द्वारा ड्राफ्ट किये विधेयकों के लिये, भाजपा को छोड़ कर, 21 राजनीतिक दलों का समर्थन भी प्राप्त कर लिया था। पी साईंनाथ के एक लेख के अनुसार, 2018 में इन विधेयकों को एक निजी विधेयक के रूप में संसद में प्रस्तुत किये जाने पर भी रणनीति बनी थी, पर यह विधेयक संसद के, शीघ्र सत्रावसान के कारण सदन के पटल पर प्रस्तुत नहीं किये जा सके। 

देश के अलग अलग हिस्सो में अपनी अपनी तरह से अपनी बात कह रहे, तमाम किसान संगठनों ने 2018 के बाद संसद में कानूनी प्रक्रिया के रूप में अपनी बात कहने के लिये एकजुटता प्रदर्शित की थी। कोऑर्डिनेशन संघर्ष समिति जो शीर्ष प्रतिनिधि के रूप में उभर कर आयी है, से सरकार के किसी भी नुमाइंदे ने इनकी समस्याओं को हल करने के बारे में इनसे बात नही की और 5 जून को नए कृषि अध्यदेशो को जारी कर दिया। 5 जून से 20 सितंबर के बीच भी सरकार ने किसानों की इस शीर्ष संस्था से बातचीत कर के किसानों के संदेहों को समझने और उनकी शंका समाधान की कोई कार्यवाही नहीं की। यही नही जब 20 सितंबर को इन विधेयकों को राज्यसभा में पेश किया गया तो अफरातफरी में ही उसे राज्यसभा में उसे पारित करवा दिया गया और राष्ट्रपति जी ने उन पर हस्ताक्षर भी कर दिए, जो होना ही था। 

अब कुछ आंकड़ो की बात करते हैं। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन ने 31 मई, 2018 को कृषि वृद्धि दर पर कुछ आंकड़े जारी किए थे। इन आंकड़ों के अनुसार, 
● 2018 में, कृषि विकास दर 2.1 फीसदी रहने की उम्मीद जताई गयीं थी, जो कि पिछले वर्ष की तुलना में 4.9 फीसदी से काफी कम थी.
● आर्थिक सर्वेक्षण-2018 की रिपोर्ट कहती है कि कृषि आय पिछले 4 वर्षों में महज 1.9 फीसदी की दर से बढ़ी है। अब अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस दर से किसानों की आय दोगुनी करने में कितना समय लग सकता है ?
● पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, ने अपने एक बयान में कहा कि 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के लिए हमें 14 फीसदी की दर से किसानों की आय में बढ़ोतरी करनी होगी।
● नोटबन्दी के पहले, भारतीय अर्थव्यवस्था की विकास दर अच्छी थी तब भी, इसी अर्थव्यवस्था में कृषि के लिए स्थितियां प्रतिकूल वातावरण में ही थी, और, कृषि उत्पादों की गिरती कीमतों ने किसानों की आय को प्रभावित भी किया। 

यह सभी आंकड़े, बीएचयू के इकॉनोमिक थिंक काउंसिल के प्रमुख डॉ विक्रांत सिंह के एक लेख से लिये गए हैं। इन आंकड़ो से यह साफ पता चलता है कि सरकार जो कह रही है उससे ज़मीनी हक़ीक़त बिल्कुल उलट है। किसान संगठनों के अनुसार, 
● किसानों को एमएसपी के लिए कानूनी गारंटी मिलनी चाहिए। 
● इसके लिए एक स्वतंत्र, जवाबदेह आयोग बनाया जाना चाहिए
● किसानों को उनके उत्पादन के लिए एमएसपी प्राप्त करने का कानूनी अधिकार होना चाहिए. इससे वे अदालत में एमएसपी के लिए कानूनी लड़ाई लड़ भुगतान की देरी के लिए मुआवजा भी प्राप्त कर सकेंगे। 
लेकिन, क्या सरकार इन मांगों पर कोई विचार करेगी ? फिर 2022 तक किसानों की आय दुगुनी करने का उसके पास क्या रोडमैप है ? 
डॉ विक्रांत अपने शोधपत्र में कहते हैं, 
" इस देश की कृषि नीति की सबसे बड़ी समस्या यह रही है कि हमने किसानों की आमदनी को बढ़ाने के बजाय हमेशा उत्पादन बढ़ाने पर जोर दिया। जैसे यूपीए सरकार के लिए भ्रष्टाचार के मामले एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने आए थे, कुछ ऐसी ही स्थिति वर्तमान एनडीए सरकार के लिए कृषि संकट के रूप में सामने आने जा रही है। 

भारत मे कृषि केवल जीवन यापन का सांधन ही नहीं है बल्कि यह एक संस्कृति है। यह संस्कृति लम्बे समय से भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज व्यवस्था का आधार रही है। अमेरिकन या पाश्चात्य थिंक टैंक की मानसिकता शुरू से ही कृषि विरोधी रही है। 1998 से ही ऐसे किसान विरोधी कानूनो के लिये अमेरिकी थिंकटैंक भारत पर दबाव डालता रहा है। वह यह नही चाहता कि, किसानों को सब्सिडी दी जाय, खेती को सरकार की सहायता मिले, औऱ हमारा कृषितंत्र तथा, ग्रामीण अर्थव्यवस्था का आधार मज़बूत हो। 1966 में पीएल 480 पर अमेरिका से मंगाए गेहूं पर आश्रित रहने वाला भारत, केवल छह साल में ही, 1972 में हरित क्रांति कर के दुनियाभर के कृषि वैज्ञानिकों को चमत्कृत कर चुका है। यही जिजीविषा और देश की यही जीवनी शक्ति अमेरिकी थिंकटैंक को आज भी असहज करती रहती है। उद्योग और कृषि दोनो ही एक दूसरे के पूरक हैं। सरकार उद्योग की कीमत पर कृषि को जिस दिन से नज़रअंदाज़ करने लगेगी, उसी दिन से देश की आर्थिकी खोखली होने लगेगी। सरकार को चाहिए कि वह देश और अर्थव्यवस्था के हित में किसान संघठनो से बात करे और उनकी समस्याओं का समाधान निकाले। 

( विजय शंकर सिंह )
 

आज़ाद हिंद फौज का मुकदमा और गांधी जी / बिजय शंकर सिंह

अशोक कुमार पांडेय के एक लेख के अनुसार, आज़ाद हिंद फ़ौज के लोगों को गोपनीय तरीक़े से कोर्ट मार्शल किया जा रहा था। पटेल को पता चला तो गांधी से कहा। गांधी ने लॉर्ड वेवेल को लिखा,

" यह मैं इस भय के साथ लिख रहा हूँ कि सम्भव है मैने अपनी सीमा क्रॉस की हो। मै श्री सुभाष बाबू द्वारा बनाई गई सेना के लोगों के मुक़दमे को देख रहा हूँ। हालाँकि मैं किसी सशस्त्र विद्रोह के साथ नहीं हो सकता लेकिन मैं अक्सर सशस्त्र लोगों के शौर्य और साहस की तारीफ़ करता हूँ...भारत इन लोगों की प्रशंसा करता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकार के पास असीम ताक़त है। लेकिन अगर पूरे देश की राय के ख़िलाफ़ इसका प्रयोग किया गया तो यह ताक़त का दुरुपयोग होगा। यह मेरा काम नहीं है कि बताऊँ कि क्या किया जाए...लेकिन जो किया गया वह ग़लत है।" 

बाद में नेहरू की पहल पर आई एन ए डिफ़ेंस कमेटी बनी जिसमें भूलाभाई देसाई और आसफ़ अली जैसे कांग्रेसी वकील शामिल हुए। मुक़दमा तो नहीं जीत सके वे लेकिन जनदबाव में आम माफ़ी दी गई। वे गांधी से मिलने आए और ‘क़दम क़दम बढ़ाए जा’ सुनाया।
■ 
फ़ोटो में जो आज़ाद हिंद फौज के सेनानी उपस्थित हैं उनके बारे में शुभम शर्मा बता रहे हैं। 

" इस तस्वीर में बाएं से दाएं सबसे पहले मेजर एडी जहांगीर, दूसरे नंबर वाले मैं पहचान नहीं कर सकता, तीसरे नंबर पर कर्नल हबीब उर रहमान, चौथे नंबर पर कर्नल मेहर दास, पांचवे स्थान पर कर्नल इनायत कियानी साहब जो गांधी ब्रिगेड के कमांडर थे और अंत में वायलिन बजाते हुए कैप्टन राम सिंह ठकुरी..

ये फोटो दिनांक 20 जून 1946 का है।
कर्नल हबीब उर रहमान साहब बादमें पाकिस्तान चले गए थे और ब्रिगेडियर रहे थे आज़ाद कश्मीर फोर्सेस के भीमबेर, कोटली वाले सेक्टरों में, वे बादमें पाकिस्तान के एडिशनल डिफेंस सेक्रेटरी पद से सेवानिवृत्त हुए।

कर्नल इनायत कियानी के चचेरे भाई मेजर जनरल ज़मान कियानी थे जो कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के बाद पूरी आज़ाद हिन्द सरकार व आज़ाद हिन्द फौज के सबसे महत्वपूर्ण शख़्स थे, वे आज़ाद हिन्द फौज की पहली डिवीजन के जनरल ऑफिसर कमांडिंग भी थे।
जनरल कियानी ने ही सन 1947 में कश्मीर पर हमले के लिए पूरी सेना का नेतृत्व किया था।

वे मेजर जनरल पद पर पाकिस्तानी सेना में आज़ादी के बाद रहे थे, वे भारतीय मिलिट्री एकेडमी से प्रथम भारतीय थे जिन्हें स्वॉर्ड ऑफ ऑनर मिला था।" 

( विजय शंकर सिंह )


नए कृषि कानूनो पर किसान संगठनों की प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

जिन किसानों के लिए ये कानून बनाए गए हैं, उन्हें या तो इन कानूनों के बारे में जानकारी नहीं है या वे इन कानूनों को फायदे से ज्यादा नुकसान के तौर पर देख रहे हैं. इस मसले पर मैंने उनकी राय जानने की कोशिश की.

छतरपुर जिले के बरा गांव के किसान कपिल कहते हैं,
"मैं अभी 35 बीघा के लगभग, फसल चक्र और अपनी सुविधा के अनुसार सोयाबीन, मिंट, मूंगफली, गेंहू और चने की खेती करता हूं. मेरे खेत भी इन फसलों के लिहाज से ठीक हैं." 

कपिल पूछते हैं कि कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग में ऐसा संभव है? वह बताते हैं 
“कोई भी कंपनी हर एक किसान के साथ अलग-अलग कॉन्ट्रेक्ट तो करेगी नहीं. और जब ऐसा नहीं होगा, तो ये उसकी मर्जी और जरूरत पर निर्भर करेगा कि वो जिस चीज की खेती कराए. तब हमें उसकी जरूरत के हिसाब से ही फसलों का उत्पादन करना पड़ेगा और जब ऐसा हो जाएगा, तब हमें बीज-खाद से लेकर फसल बेचने तक के लिए उनका मुंह ताकना पड़ेगा. वही फसलों के दाम तय करेगी. किसान से कब फसल खरीदेगा, कब भुगतान करेगा, सब कुछ उस कंपनी या व्यापारी के हाथ में होगा और तरह हम अपनी ही जमीन पर मजदूर बन जाएंगे."

किसान संगठनों की तरफ से भी इन कानून का विरोध हो रहा है. अखिल भारतीय किसान सभा के नेता अमराराम फोन पर बात करते हुए कहते हैं, 
“सरकार ने इन कानूनों को बनाकर साफ कर दिया कि किसानों का हित उसकी सूची में नहीं हैं. अगर होता तो ऐसे कानून नहीं बनाती.” 

अपनी बात जारी रखते हुए उन्होंने कहा, “सरकार ने कानून के जरिए पूरी कृषि का निजीकरण किया है. कृषि सुधारों और किसानों की आय बढ़ाने के नाम पर सरकार पूरी कृषि व्यवस्था को एग्रो-बिजनेस से जुड़ी बड़ी कंपनियों के हवाले करने जा रही है. ये काफी चिंताजनक है. 1991 में हुए आर्थिक सुधारों का खेती पर बहुत बुरा असर सामने आया है. नतीजे के तौर पर 30 सालों में 3.5 लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं. ऐसे में अब अगर ये नए कानून लागू हुए तो भारत की कृषि व्यवस्था पूरी तरह से बदल जाएगी, किसान अपनी ही जमीन में मजदूर बन जाएंगे और ये सब चंद लोगों के मुनाफे के लिए कानून बनाकर किया जा रहा है.” 

महज एक कानून बनाकर सरकार ने भारत में कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग को कानूनी बना दिया है. ये अमेरिका और ऑस्ट्रलिया जैसे देशों का कृषि मॉडल है, जहां के किसान हजारों एकड़ में खेती करते हैं. इसके एवज में वहां की सरकारें उनको तमाम सब्सिडी और सुविधाएं देती हैं. इसके उलट भारत में 85 प्रतिशत के लगभग किसान छोटी जोत वाले हैं, जिनको सुविधाओं के नाम पर केवल 'एमएसपी' मिलती है, वो भी इतनी कम है कि उससे उनकी फसलों की लागत तक निकलना मुश्किल होता है, मुनाफा तो दूर की बात है.

भारत में एग्रो-बिजनेस से जुड़ी कई देशी-विदेशी कंपनियां दशकों से इसकी मांग कर रही थीं, जिसे विरोधों के चलते कभी लागू नहीं किया गया. हालांकि कई राज्यों ने इसको प्रायोगिक तौर पर मंजूरी दी हुई थी. जबकि कोरोना महामारी के कारण पूरा देश बंद है, बाहर आने-जाने तक पर पाबंदी है, विरोध प्रदर्शन तो दूर की बात हैं. 

ऐसे में अध्यादेश जरिए उन कानूनों को बनाना जिनका दशकों से विरोध हो रहा है, सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करता है। यह आशंका तब और मुकम्मल लगने लगती है, जब अध्यादेश जारी होने के एक हफ्ते पहले रिलायंस समूह कंज्यूमर गुड्स की कैटेगरी में बिजनेस करने के लिए एक नया वेंचर "जियो मार्ट" शुरू करता है. 

मुकेश अंबानी के नेतृत्व वाले रिलांयस समूह के अंतर्गत शुरू हुए "जियो मार्ट" से पहले अडानी विल्मर, आईटीसी और रामदेव के पतंजलि सहित कई छोटे-बड़े ब्रांड मार्केट में मौजूद हैं लेकिन कभी उनको इतनी गंभीरता से नहीं लिया गया. सरकार की तरफ से इस तरह थाली में रखकर किसी को भी सहायता नहीं दी गई. ये कंपनियां अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकारी संस्थाओं के जरिए मार्केट रेट पर अपनी जरूरत का सामान लेती थीं. लेकिन अब यह व्यवस्था बदल जाएगी.

जय किसान आंदोलन से जुड़े अविक साहा बताते हैं कि 
“ये निजी कंपनियों का दबाव है कि सरकार कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग जैसी व्यवस्था को लागू करने के लिए कानून बना रही है. नहीं तो ऐसी क्या मजबूरी थी कि जो व्यवस्था (कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग) भारत में पहले ही फेल हो चुकी है, उसे कानून बनाकर लागू किया जाए?"

अविक आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन पर भी सवाल उठाते हैं. वह कहते हैं, "आवश्यक वस्तु अधिनियम में सरकार ने जो बदलाव किए हैं वे बहुत घातक सिद्ध होंगे. बदले हुए कानून के प्रभाव में आने के साथ ही कोई भी व्यक्ति/फर्म अपनी मर्जी के मुताबिक कृषि उपज की चाहे जितनी मात्रा खरीद-बेच सकता है. कोविड-19 की महामारी के बाद जब आर्थिक हालात और खराब हैं, करोड़ों लोग बेरोजगार हुए हैं, असमानता बढ़ रही है. ऐसे समय में, जब इस कानून की ज्यादा जरूरत है, सरकार ने चंद लोगों की खातिर इसको बदल दिया है.” 

कानून में संशोधन का जिक्र करते हुए वह कहते हैं, 
“इतिहास में कई ऐसे मौके आए, जब सरकार केवल इस एक कानून के सहारे विषम परिस्थितियों से निपटी है. सरकार कह रही है कि इससे किसानों को फायदा होगा, जबकि वास्तविकता तो यह है कि इस कानून और किसानों का सीधा संबध पहले भी नहीं था, अब बिल्कुल ही खत्म हो गया. ऐसे में उनका भला फायदा कैसे होगा? ज्यादा खरीदने वाला किसानों को उनकी फसल के ज्यादा पैसे देगा क्या?”

मध्य प्रदेश के किसान नेता भगवान मीणा फोन पर हुई बातचीत के दौरान बताते हैं.
"पेप्सिको कंपनी के ब्रांड लेज के लिए आलू उगाने वाले गुजरात के किसानों का मामला अभी ज्यादा पुराना नहीं हुआ है, जब कंपनी ने आलू के प्रतिबंधित बीजों से खेती करने के कारण किसानों पर मुकदमा दायर कर उनसे एक करोड़ रुपए का मुआवजा मांगा था. उससे पहले मध्य प्रदेश के उन किसानों का मामला भी ध्यान देने योग्य है, जब आईटीसी कंपनी किसानों से अनुबंध के तहत गेहूं की खरीद करती थी, किसानों ने कंपनी पर लगातार कई साल तक उनकी फसल के कम दाम देने का आरोप लगाया. उसके बाद तत्कालीन मध्य प्रदेश सरकार को किसानों के बढ़ते दबाव के कारण इस पर रोक लगानी पड़ी.” 

कृषि सुधार और किसानों के हित के लिए अब तक की सबसे बड़ी मांग स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करना है. इसको लागू करने का दावा हर सरकार करती है. लेकिन डेढ़ दशक बीत जाने के बाद भी इनको लागू नहीं किया जा सका है. चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने भी इसको लागू करने का वायदा किया था, लेकिन अब तक लागू नहीं किया गया. ऐसे में हालिया कानून किसानों का कितना भला करेंगे, इस पर संशय है.

आवश्यक वस्तू अधिनियम संशोधन और कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग को लीगल करने के साथ ही तीसरा और महत्वपूर्ण कानून बनाया गया है 'द फार्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड एंड कॉमर्स प्रमोशन एंड फेसिलिएशन एक्ट, (एफपीटीसी2020)'. सरकार की तरफ से जारी किए गए विज्ञापनों में, तीनों कानून में से इसका ही सबसे ज्यादा प्रचार किया जा रहा है. विज्ञापनों में इसे 'एक राष्ट्र-एक बाजार' के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है. सरकार की तरफ से कहा गया है कि पहले 
"किसानों को अपनी फसल बेचने के लिए यहां-वहां भटकना पड़ता था. अब ऐसा नहीं होगा. किसान अब अपनी फसल देश के किसी कोने में, जहां बेहतर दाम मिलें, वहां बेच सकते हैं.”

वरिष्ठ कृषि अर्थशास्त्री देविदंर शर्मा कहते हैं कि, '
"ये वन नेशन-टू मार्केट है.' पहले किसान और व्यापारी दोनों को ही खरीद-बिक्री के लिए राज्य की मंडी समितियों में जाना पड़ता था, जहां ट्रेडर को 6-7 प्रतिशत टैक्स देना होता था. नए कानून के बाद यह बाध्यता खत्म हो गई है. कोई भी ट्रेडर टैक्स देकर खरीद क्यों करेगा? 

आगे देवेन्द्र र्मा कहते हैं, 
“जबकि सरकार का कहना है कि मंडी समितियां पहले की ही तरह काम करती रहेंगी. यह व्यापारियों पर निर्भर करेगा कि वे मंडी से माल खरीद करना चाहते हैं या फिर मंडी के बाहर. कम लागत में ज्यादा मुनाफा कमाने वाला व्यापारी टैक्स देकर मंडी समितियों से ट्रेडिंग क्यों करेगा?” 

किसान संगठन आशंका जता रहे हैं कि राज्य सरकारें मंडी समितियों को ही बंद कर सकती हैं या फिर एमएसपी को खत्म कर सकती हैं. अगर ऐसा हुआ, तो किसान के लिए मुसीबत और बढ़ने वाली है.

राष्ट्रीय किसान महासंघ ने आधिकारिक रूप से पत्र जारी करते हुए कहा,  
“सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था से बाहर निकलना चाहती है. सरकार को किसानों के सामने आने वाली वास्तविक परेशानियों की जानकारी ही नहीं है.”

पत्र में आगे कहा गया है,
“85 प्रतिशत के लगभग किसान छोटी जोत वाले हैं, उनकी साल भर की पैदावार इतनी नहीं होती है कि वे हर बार नजदीकी मंडी तक जा सकें. ऐसे में यह मानना कि वे अपनी फसल बेचने के लिए किन्हीं दूसरे राज्यों में जाएंगे, किसी मजाक से कम नहीं.”

हमीरपुर जिले की राठ मंडी के लाइसेंसधारी एक व्यापारी फोन पर बात करते हुए बताते हैं, 
"एक बड़ी मंडी, जिसके अंदर सौ के आसपास गांव के लोग फसल बेचने आते हैं और जिसमें से ज्यादातर किसान हम जैसे व्यापारियों को ही फसल बेचते हैं. ऐसा करने का कारण है कि सरकार इतनी खरीद ही नहीं करती कि सबका माल बिक जाए. जो माल सरकार नहीं खरीद पाती, उसे हम लोग खरीदते हैं. जो किसान भाड़े पर साधन कर अपनी फसल बेचने आया है, वो बिना बेचे तो लौटना नहीं चाहता, क्योंकि यही उसकी आय का जरिया है और इसी के भरोसे वह साल भर की जरूरतों का सामान जुटाता है.” 

मंडी समितियों से जुड़े कर्मचारी भी इन कानूनों का विरोध कर रहे हैं. राठ मंडी में काम कर रहे चंद्र प्रकाश का कहना है, 
“इन कानूनों की आड़ लेकर राज्य सरकारें हमारे अधिकार क्षेत्र को सीमित कर कर सकती हैं या फिर बंद भी कर सकती हैं. ये सरकार के तीन साल पुराने निर्णय के विपरीत है, जिसमें केंद्र सरकार ने किसानों को सुविधा बढ़ाने के लिए हर 10 किलोमीटर पर मंडियों के निर्माण को मंजूरी दी थी.”

अगर ऐसा होता है तो किसानों के साथ मंडी से जुड़े लाखों लोगों को मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है. एक मंडी में किसान और व्यापारी के अलावा भी बहुत से लोग काम करते हैं, वे सीधे बेरोजगार हो जाएंगे.

केंद्र सरकार के अध्यादेश जारी करने के 15 दिन के अंदर ही उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रदेश की मंडी समितियों में संविदा पर काम कर रहे हजारों कर्मचारियों का कॉन्ट्रेक्ट 30 जून के बाद खत्म कर दिया है. उत्तर प्रदेश मंडी समिति के निदेशक जीतेंद्र प्रताप सिंह ने आउटसोर्स पदों की समाप्ति के आदेश जारी करते हुए नए कानूनों का हवाला दिया है जिसमें सब्जियों और फलों को मंडी शुल्क से मुक्त कर दिया है. इसका असर मंडियों पर पड़ा है.

कारवां मैगजीन के लिए लिखे गए अमन गुप्ता के एक लेख का अंश । 
( विजय शंकर सिंह )

Thursday 24 September 2020

एमरसपी का प्राविधान एक नया कानून बनाकर क्यों नहीं स्थायी किया जाता है ? / विजय शंकर सिंह

दुनिया का कोई भी विधिविधान त्रुटिरहित नहीं रहता है। जब भी कोई कानून बनता है तो उसका कुछ न कुछ उद्देश्य होता है, और जब वह कानून किताबो से उतर कर धरातल पर आता है तो उस कानून की कई कमियां भी, उपरोक्त उद्देश्य के अनुरूप सामने आती हैं, और तब उसमें ज़रूरत के अनुसार, संशोधन होते रहते हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य के मामले में भी यही हुआ है। एमएसपी की गणना को कुछ कृषि अर्थशास्त्रियों ने कई खामियो से भरा बताया है और उसे दूर करने के अनेक सुझाव दिये हैं। एमएस स्वामीनाथन ने तो एमएसपी तय करने का नया फॉर्मूला भी दिया है, हालांकि डॉ स्वामीनाथन का क्षेत्र जेनेटिक साइंस का था न कि कृषि अर्थशास्त्र का। अब यह सवाल उठता है कि, क्या न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने वाली प्रक्रिया में बदलाव की ज़रूरत है?

इस विषय पर अर्थशास्त्री सचिन कुमार जैन ने कई लेख लिखे हैं और उन्होंने अपने अध्ययन और शोध से यह स्पष्ट किया है कि, एमरसपी में कई ऐसी विसंगतियां हैं जिससे कृषि उत्पाद का न्यूनतम समर्थन मूल्य औचित्यपूर्ण रूप से तय नहीं किया जा पा रहा है। यह शिकायत किसान संगठनों की भी है और अर्थशास्त्र के विद्वानों की भी। इसका कारण है, " भारत में खेती के क्षेत्र में ज़बरदस्त विविधता होती है लेकिन जब भारत सरकार कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की अनुशंसा पर न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण करती है, तब वह मूल्य पूरे देश के लिए एक जैसा ही होता है।" 

क्या भारत में कृषि उपज की लागत का सही-सही निर्धारण होता है ?  इसका उत्तर होगा, बिलकुल नहीं ! भारत में कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के द्वारा किया जाता है। इसकी स्थापना, जनवरी 1965 में हुई थी, तब इसे कृषि मूल्य आयोग के नाम से जाना जाता था.।वर्ष 1985 में इस संगठन को लागत निर्धारित करने का भी दायित्व सौंप दिया गया और तभी से इसे कृषि लागत एवं मूल्य आयोग कहा जाता है। 

वर्ष 2009 के बाद से न्यूनतम समर्थन मूल्य के निर्धारण में, उपज की लागत, मांग और आपूर्ति की स्थिति, आदान मूल्यों में परिवर्तन, मंडी मूल्यों का रुख, जीवन निर्वाह लागत पर प्रभाव और अन्तराष्ट्रीय बाज़ार के मूल्य को ध्यान में रख कर, न्यूनतम मूल्य निर्धारण किया जाने लगा है।  

यही यह सामान्य जिज्ञासा उठती है कि एमएसपी तय करते समय किसान और खेतिहर मजदूर को किस दृष्टिकोण से इस मूल्य निर्धारण में सोचा जाना चाहिए। इस जिज्ञासा पर जब संसद में बहस चल रही थी तो, कृषि एवं किसान मंत्रालय की ओर से राज्य सभा में यह बयान दिया गया कि,   
" खेती के उत्पादन की लागत के निर्धारण में केवल नकद या जिंस से सम्बंधित खर्चे ही शामिल नहीं होते हैं, बल्कि इसमें भूमि और परिवार के श्रम के साथ-साथ स्वयं की संपत्तियों का अध्यारोपित मूल्य भी शामिल होता है।"
यानी मूल्य निर्धारण के समय, फसल उपजाने के खर्चे ही नहीं शामिल किए जाते, बल्कि उसके साथ, भूमि, और किसान के श्रम को भी जोड़ा जाता है। पर क्या वास्तव मे ऐसा होता है ?

इस सवाल का उत्तर ढूंढने के पहले हमें देश की कृषि विविधता को भी ध्यान में रखना होगा।  भारत में कृषि और भूमि के क्षेत्र में जगह जगह विविधता है। कहीं गंगा यमुना का विस्तीर्ण मैदान है, तो कही पहाड़ और जंगलों के बीच खेत हैं, तो कही, गेंहू धान आदि परंपरागत फसलों के अतिरिक्त गन्ना, आलू, आदि अन्य नक़द फसल बोई जाती है, तो कही फलों के बाग हैं तो कहीं की अन्य कृषिक परंपरा है। न सिर्फ खेती की जमीनें ही विविधितापूर्ण हैं बल्कि, जलवायु, भौगोलिक स्थिति, मिट्टी का प्रकार और सांस्कृतिक व्यवहार और खानपान की आदतें भी अलग अलग हैं। कही कही तो यह सब एक दूसरे से बिल्कुल विपरीत भी हैं। विविधिता का यह प्रसार, कृषि के तौर तरीकों को गहरे तक प्रभावित करता हैं औऱ खेती के अलग अलग स्वरूप को सामने ला देता है। लेकिन जब सरकार कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की अनुशंसा पर न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण करती है, तब वह मूल्य पूरे देश के लिए एक जैसा ही होता है। 

यह कार्य इस प्रकार किया जाता है कि, 
" आयोग पूरे देश की विविधता के अनुसार, समस्त सूचनाओं को इकठ्ठा कर, उनका एक औसत निकाल लेता है और तब एक समेकित अध्ययन के बाद, न्यूनतम समर्थन मूल्य तय कर देता है, जो पूरे देश मे लागू होता है। "
हालांकि, आयोग के अपने ही आंकलन यह बताते हैं कि देश में उत्पादन की परिचालन लागत (इसमें श्रम, बीज, उर्वरक, मशीन, सिंचाई, कीटनाशी, बीज, ब्याज और अन्य खर्चे शामिल हैं) और खर्चे भिन्न-भिन्न होते हैं।  फिर भी न्यूनतम समर्थन मूल्य एक जैसा क्यों ? साथ ही यह भी सवाल उठता है कि, इससे किसान को कितना लाभ होता है और उसे कितना नुकसान उठाना पड़ता है ? 

इसमें मानव श्रम के हिस्से को खास नज़रिए से देखने की जरूरत है क्योंकि कृषि की लागत कम करने के लिए सरकार की नीति है कि खेती से मानव श्रम को बाहर निकाला जाए। पिछले ढाई दशकों में इस नीति ने खेती को बहुत कमज़ोर किया है. इन सालों में लगभग 11.1 प्रतिशत लोग खेती से बाहर तो हुए हैं, किन्तु उनके रोज़गार कहीं दूसरे क्षेत्र में भी सुनिश्चित हो पा रहे हों, यह दिखाई नहीं देता। कृषि लागत और मूल्य आयोग ने ही वर्ष 2014-15 के सन्दर्भ में रबी और खरीफ की फसलों की परिचालन लागत का अध्ययन किया, इससे पता चलता है कि कई कारकों के चलते अलग-अलग राज्यों में उत्पादन की बुनियादी लागत में बहुत ज्यादा अंतर आता है।

एक सबसे बड़ा सवाल उठता है कि अनाज या कृषि उपज का मूल्य निर्धारण करते समय, हम उस मूल्य में किसान श्रम का भी आकलन करते हैं या उसे नज़रअंदाज़ कर देते हैं। दुर्भाग्य से, श्रम एक सस्ती समझे जानी वाली चीज के तौर पर समाज मे स्थापित हो गयी है और श्रम जो पूंजी की तुलना में बिल्कुल भी कमतर नहीं है की बात कम ही की जाती है। श्रम की भूमिका को भी खास नज़रिए से देखने की जरूरत है, क्योंकि,  कृषि की लागत कम करने के लिए सरकार की यह पोशीदा नीति है कि खेती से मानव श्रम को बाहर निकाला जाए। एक अध्ययन के अनुसार, 
" पिछले ढाई दशकों में इस नीति ने खेती को बहुत कमज़ोर किया है। इन वर्षों में लगभग 11.1 % लोग खेती से बाहर तो हुए हैं, किन्तु उनके रोज़गार कहीं दूसरे क्षेत्र में भी सुनिश्चित हो पा रहे हों। पर यह दिखाई नहीं देता है। " 

देश के कृषि वैविध्य की चर्चा ऊपर की जा चुकी है। इसी आधार पर, न्यूनतम समर्थन मूल्य और उत्पादन की परिचालन लागत को भी कृषक या मानव श्रम के दृष्टिकोण से देखना जरूरी है। कृषि लागत और मूल्य आयोग ने भी वर्ष 2014 -15 के सन्दर्भ में रबी और खरीफ की फसलों की परिचालन लागत का अध्ययन किया, जिससे यह ज्ञात हुआ कि, कई कारकों के चलते अलग-अलग राज्यों में उत्पादन की बुनियादी लागत में बहुत ज्यादा अंतर आता है। यानी एमएसपी में एकरूपता का अभाव है। 

सचिन कुमार जैन ने अपने अध्ययन से प्राप्त, निष्कर्ष के पक्ष में कुछ फसलों की लागत के संदर्भ में कुछ उदाहरण भी दिए हैं, जिन्हें पढ़ा जाना चाहिए। जैसे, 
● चना – बिहार में एक हेक्टेयर में चने की खेती में 18,584 रुपये की परिचालन लागत आती है, जबकि आंध्रप्रदेश में 30,266 रुपये, हरियाणा में 17,867 रुपये, महाराष्ट्र में 25,655 रुपये और कर्नाटक में 20,686 रुपये लागत आती है। 

इस लागत को, अगर बिहार और आंध्र की दृष्टि से ही तुलना करें तो यह लागत लगभग दुगुनी के आसपास ठहरती है। इस लागत में इतने अधिक अंतर का एक बड़ा कारण है, मजदूरी पर होने वाला खर्च। हमें यह ध्यान रखना होगा कि खेती से सिर्फ किसान ही नहीं कृषि मजदूर भी जुड़ा होता है। अध्ययन के अनुसार, 
" बिहार में कुल परिचालन लागत में 44.3 प्रतिशत (8,234.6 रुपये), आंध्रप्रदेश में 44.2 प्रतिशत (13,381.3 रुपये) हरियाणा में 65.6 प्रतिशत (11,722 रुपये), मध्यप्रदेश में 33.4 प्रतिशत (6,966 रुपये), राजस्थान में 48 प्रतिशत (7,896 रुपये) हिस्सा मजदूरी व्यय का होता है। " 

यानी केवल एक फसल, चने की प्रति हेक्टेयर परिचालन लागत अलग-अलग राज्यों में 16,444 रुपये से लेकर 30,166 रुपये के बीच आ रही है.

● गेहूं – इसके अध्ययन से पता चलता है कि 
" खेती के मशीनीकरण के आखिर कहां असर किया है? पंजाब गेहूं के उत्पादन में अग्रणी राज्य है। वहां गेहूं उत्पादन की परिचालन लागत 23,717 रुपये प्रति हेक्टेयर है, इसमें से वह केवल 23 प्रतिशत (5,437 रुपये) ही मानव श्रम पर व्यय करता है, वह मानव श्रम से ज्यादा मशीनी श्रम पर खर्च करता है। जबकि हिमाचल प्रदेश में परिचालन लागत 22,091 रुपये है, जिसमें से 50 प्रतिशत हिस्सा (10,956 रुपये) मानव श्रम का है. इसी तरह राजस्थान में गेहूं उत्पादन की परिचालन लागत पंजाब और हिमाचल प्रदेश की तुलना लगभग डेढ़ गुना ज्यादा है. और वहां लागत का 48 प्रतिशत (16,929 रुपये) हिस्सा मानव श्रम पर व्यय होता है। इसी तरह मध्य प्रदेश 25,625 रुपये में से 33 प्रतिशत (8,469 रुपये), पश्चिम बंगाल 39,977 रुपये की परिचालन लागत में से 50 प्रतिशत (19,806 रुपये), बिहार 26,817 रुपये में से 36 प्रतिशत (9,562 रुपये) मानव श्रम पर व्यय करते हैं।" 
यानी गेहूं की बुनियादी लागत 20,147 रुपये से 39,977 रुपये प्रति हेक्टेयर के बीच आई थी। 

● धान – अनाजों के समूह में चावल महत्वपूर्ण स्थान रखता है, इसलिए धान की फसल को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता है. हिमाचल प्रदेश में धान के उत्पादन की परिचालन लागत 26,323 रुपये प्रति हेक्टेयर है. इसमें से 72 प्रतिशत (19,048 रुपये) मानव श्रम पर व्यय होते हैं। इसी प्रकार बिहार में 26,307 रुपये में से 58 प्रतिशत (15,281 रुपये), गुजरात में 41,447 रुपये में से 47 प्रतिशत (19,507 रुपये), पंजाब में 34,041 रुपये में से 43 प्रतिशत (14,718 रुपये), झारखंड में 23,875 में से 56 प्रतिशत (13342 रुपये), मध्य प्रदेश में 28,415 रुपये में से 44 प्रतिशत (12,449 रुपये) मानव श्रम पर व्यय होते हैं। वर्ष 2014-15 में धान की परिचालन लागत अलग अलग राज्यों में 23,875 रुपये (झारखंड) से 54,417 रुपये (महाराष्ट्र) के अंतर तक पंहुचती है। "

● मक्का – ओड़ीसा में मक्का उत्पादन की परिचालन लागत 39,245 रुपये प्रति हेक्टेयर है, इसमें से 59 प्रतिशत हिस्सा (23,154 रुपये) मानव श्रम पर व्यय होता है। हिमाचल प्रदेश में 21,913 रुपये में से 62 प्रतिशत, गुजरात में 35,581 रुपये में से 57 प्रतिशत, महाराष्ट्र 58,654 रुपये प्रति हेक्टेयर की लागत आती है, इसमें से 26,928 रुपये (58 प्रतिशत) और राजस्थान में 33,067 रुपये में से 58 प्रतिशत और मध्यप्रदेश में 24,518 रुपये में से 47 प्रतिशत खर्च मानव श्रम पर होता है। मक्का की परिचालन लागत उत्तर प्रदेश में 19,648 रुपये प्रति हेक्टेयर से तमिलनाडु में 59,864 रुपये प्रति हेक्टेयर के बीच बतायी गयी। 

गेहूं, धान, चना और मक्का की उत्पादन परिचालन लागत में इतनी विभिन्नता होने के बावजूद, सभी राज्यों के न्यूनतम समर्थन मूल्य एक समान ही तय किया गया, इससे किसानों को अपनी उपज का सही मूल्य नहीं मिल पाया। यह सब एक लोकप्रिय लोककथा की तरह दिखता है जहां एक अध्यापक, अपने कुछ छात्रों को नदी पार कराने के लिये उनकी लंबाई का औसत निकलता है और फिर नदी की गहराई को नाप पर, औसत से कम पाने पर छात्रों को नदी में उतार देता है, परिणाम यह होता है कि औसत से कम लंबाई वाले छात्र डूबने लगते हैं। इसी प्रकार कहीं किसान को एमएसपी से लाभ होता है तो कहीं उन्हें नुकसान उठाना पड़ता है। 

संविधान के मुताबिक कृषि राज्य सरकार के दायरे का विषय है, किन्तु वास्तविकता यह है कि विश्व व्यापार संगठन से लेकर न्यूनतम समर्थन मूल्य और कृषि व्यापार नीतियों तक को तय करने का अनाधिकृत काम केंद्र सरकार करती है, इससे राज्य सरकारों को कृषि की बेहतरी के काम करने से स्वतंत्र अवसर नहीं मिल पाये। सरकार ने कृषि सुधार की ओर कभी गंभीरता से ध्यान ही नहीं दिया। जबकि भारत की अर्थव्यवस्था का यह मूलाधार है। कृषि क्षेत्र में बड़े सुधार की बात ही छोड़ दीजिए,  विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री भी यह नहीं समझ पाये कि देश और समाज को खाद्य सुरक्षा प्रदान करने में किसान और खेती की ही भूमिका होती है, बड़े धनपशुओं की नहीं ! 

नए कृषि कानूनो के विरोध होने पर, सरकार यह सफाई दे रही है कि, वह एमएसपी खत्म नहीं करने जा रही है बल्कि एमएसपी और मजबूती से लागू की जाएगी। पी साईंनाथ ने एक सुझाव सरकार को दिया है कि वह जो कह रहे हैं, उसे भी एक विधेयक के रूप में लाकर कानून की शक्ल दे दें। उनके लेख के कुछ अंशो को यहाँ उद्धृत किया जा रहा है। यह टिप्पणी संजय कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार द्वारा अनूदित है। टिप्पणी इस प्रकार है, 

" प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बार-बार कहा है कि  
1) वे एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) को कभी खत्म नहीं होने देंगे। 
2) वे किसानों की कमाई 2022 तक दुगनी कर देंगे। 
बहुत अच्छी बात है। इन आश्वासनों को पांच पैराग्राफ के एक विधेयक द्वारा निश्चित करने से उन्हें कौन रोक रहा है ? बाकी तीन बिलों से अलग, यह बिल आमराय से पास होगा। 

विधेयक का आशय होगा: एमएसपी (स्वामीनाथन फॉर्मूला, जिसका भाजपा ने 2014 में वादा किया था) की गारंटी है। कोई भी बड़ा व्यापारी, कॉरपोरेशन या कोई 'नया खरीदार' एमएसपी से कम कीमत में सामान नहीं खरीद सकेंगा। साथ ही इस बात की गारंटी हो कि फसल खरीदी जाएगी ताकि एमएसपी मज़ाक ना बन जाये।

अंत में - बिल के जरिए किसानों के कर्ज को खारिज कर दिया जाए। जब किसान कर्ज में डूबे हैं तो ऐसा किए बिना किसानों की कमाई 2022 या 2032 तक भी दुगनी नहीं हो सकती। जब एमएसपी और किसानों की कमाई दूनी करने प्रधानमंत्री का वादा हो, तो उस बिल का कौन विरोध करेगा? 

तीन कृषि विधेयकों को जिस तरह जबरन पास कराया गया, उसके विपरीत इस बिल को, जिसमे एमएसपी और कर्ज ख़ारिज करने की गारंटी हो, प्रधानमंत्री आसानी से पास होते देखेंगे। संसद में इसको लेकर ना घमासान होगा और ना ही जबरदस्ती करनी पड़ेगी।

और चूंकि इस सरकार ने वैसे भी राज्य विषय - कृषि - पर अतिक्रमण किया है तो उसे इस विधेयक को पास कराने से रोकने का क्या कारण होगा? निश्चित रूप से संघीय संरचना और राज्यों के अधिकार का सम्मान कारण नहीं है। इसके लिए जो पैसा चाहिए वो तो वैसे भी केंद्र के पास ही है। " 

नए कृषि कानून के बारे में कहा जा रहा है कि यह किसानों के हित मे ही होगा, पर कैसे होगा, यह न तो सरकार बता पा रही है और न सरकार के समर्थक इसे समझा पा रहे हैं। 

( विजय शंकर सिंह )


Tuesday 22 September 2020

वादा, स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश लागू करने का, पर यहां तो एमसीपी ही खतरे में है / विजय शंकर सिंह

वादा फरामोशी, यूं तो दुनियाभर की सभी सरकारों और राजनीतिक दलों का स्थायी भाव होता है, पर चर्चा उसी की होती है जो वर्तमान में सामने है। 20 सितंबर को राज्यसभा से किसी तरह ध्वन्यात्मकता के सहारे सरकार ने कृषि विधेयकों को पारित ज़रूर करा लिया और जैसा कि प्रधानमंत्री जी ने कहा है कि यह सब तो कांग्रेस के भी घोषणापत्र में था, तो अचानक यह खयाल आया कि किसानों के लिये इनका क्या वादा है ? 

ऐसा नहीं है कि आज पंजाब से कर्नाटक तक जो किसान आंदोलन चल रहा है वह भटके हुए कुछ मुट्ठीभर किसानों का आंदोलन है, बल्कि यह सरकार के प्रति अविश्वास, वादा खिलाफी, बार बार हो रहे मिथ्यावाचन और साख के संकट का परिणाम है। अन्नदाता, माईबाप, मिट्टी, भारत माता के सच्चे सपूत आदि आदि ख़िताबो से अलंकृत देश का कृषक समाज, आज पहली बार सड़कों पर नहीं उतरा है। वह हर राजनितिक दल के शासनकाल में, हर सरकार की किसान विरोधी नीतियों के खिलाफ, कभी गन्ने के बकाया भुगतान को लेकर, तो कभी प्याज़ की अचानक घट जाती कीमतों को लेकर, तो कभी कॉरपोरेट के इशारे पर ज़मीन के बलात अधिग्रहण को लेकर, तो कभी बिजली, खाद, डीजल को रियायती दर पर देने की मांग को लेकर, तो कभी अपनी उपज के वाजिब कीमत को लेकर, सड़को पर उतरता रहा है। 

अगर किसान आंदोलन के इतिहास को खंगाला जाय तो देश के हर हिस्से में कहीं न कहीं बराबर किसान आंदोलन होते रहे हैं। इस इतिहास को एक लेख वह कितना भी लंबा हो, उसे समेटना सम्भव नहीं होगा। उस पर अलग अलग आंदोलनों पर अलग अलग लेख लिखे जाने चाहिए। 

उपज की वाजिब कीमत और उसका समय पर  भुगतान, यह किसानों की एक बड़ी समस्या है। 1965 से किसानों को उनके फसल की लागत मिले इस लिए एक आयोग बनाया गया जो अध्ययन कर के उपज की न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करता था। गन्ने का मूल्य अलग से तय होता था। सभी सरकारें हर साल बुआई के पहले फसल की कीमत तय करती थी। हर साल इनकी कीमत सरकारें बढ़ाती भी है। यह अलग बात है कि किसी साल यह वृद्धि दर कम होती है तो किसी साल यह वृद्धि दर अधिक हो जाती है। यह बहुत कुछ बाजार और सरकार की आर्थिक स्थिति पर भी निर्भर करता है। 

ऐसी ही कृषि उपज की कीमतों को तय करने के लिये एक कमेटी एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में गठित हुयी थी, जिसने एक लंबी चौड़ी रिपोर्ट दी। इस कमेटी के रिपोर्ट की एक दिलचस्प कहानी यह है कि, जब कांग्रेस सत्ता के बाहर रहती है तो वह, यह मांग करती है कि, सरकार इस कमेटी की रिपोर्ट को लागू करे, और जब भाजपा सत्ता के बाहर विपक्ष में रहती है तो वह इस पर अड़ी रहती है कि, इस कमेटी की रिपोर्ट लागू की जाय और जब दोनों सरकार में होते हैं तो इस रिपोर्ट की बात भी नहीं करते हैं !

अब एक चर्चा वैज्ञानिक एम एस स्वामिनाथन की। जेनेटिक वैज्ञानिक, एमएस स्वामीनाथन, को भारत की हरित क्रांति का जनक माना जाता है। उन्होंने 1966 में मैक्सिको के बीजों को पंजाब की घरेलू किस्मों के साथ मिश्रित करके उच्च उत्पादकता वाले गेहूं के संकर बीज विकिसित किए। 'हरित क्रांति' कार्यक्रम के तहत ज़्यादा उपज देने वाले गेहूं और चावल के बीज ग़रीब किसानों के खेतों में लगाए गए थे। इस क्रांति ने भारत को दुनिया में खाद्यान्न की सर्वाधिक कमी वाले देश के कलंक से उबारकर 25 वर्ष से कम समय में आत्मनिर्भर बना दिया था। 

उस समय से भारत के कृषि पुनर्जागरण ने स्वामीनाथन को 'कृषि क्रांति आंदोलन' के वैज्ञानिक नेता के रूप में ख्याति दिलाई। उनके द्वारा सदाबाहर क्रांति की ओर उन्मुख अवलंबनीय कृषि की वकालत ने उन्हें अवलंबनीय खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में विश्व नेता का दर्जा दिलाया। एम. एस. स्वामीनाथन को 'विज्ञान एवं अभियांत्रिकी' के क्षेत्र में 'भारत सरकार' द्वारा सन 1967 में 'पद्म श्री', 1972 में 'पद्म भूषण' और 1989 में 'पद्म विभूषण' से सम्मानित किया गया था।

देश में जब-जब किसान आंदोलन होता है और किसान जब सड़क पर आते हैं तब-तब स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों की चर्चा होती है। महात्मा गांधी ने 1946 में कहा था, "जो लोग भूखे हैं, उनके लिए रोटी भगवान है।" इसी कथन को मार्गदर्शी सिद्धांत बनाते हुए 18 नवम्बर 2004 को यूपीए सरकार ने, कृषि की समस्या को गहराई से समझने और किसानों की प्रगति का रास्ता तैयार करने के लिए राष्ट्रीय किसान आयोग का गठन किया था। इस आयोग के चेयरमैन कृषि वैज्ञानिक और हरित क्रांति के जनक डॉ. एमएस स्वामिनाथन थे। इसलिए ही इसे स्वामीनाथन रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है।

इस आयोग ने अक्टूबर 2006 में अपनी रिपोर्ट दी है, जिसमें खेती-किसानी में सुधार के लिए बहुत सी बातें कही गई हैं। इसमे जो सबसे प्रमुख सिफारिश है, वह, कृषि को राज्यों की सूची के बजाय समवर्ती सूची में लाने की बात है, ताकि केंद्र व राज्य दोनों किसानों की मदद के लिए आगे आएं और समन्वय बनाया जा सके। आज भी यह सिफारिश लंबित है। 

आयोग के मुख्य मुख्य सुझाव निम्न प्रकार से हैं, 
● कमेटी ने बीज और फसल की कीमत को लेकर भी सुझाव दिया. कमेटी ने कहा कि किसानों को अच्छी क्वालिटी का बीज कम से कम दाम पर मुहैया कराया जाए और उन्हें फसल की लागत का पचास प्रतिशत ज़्यादा दाम मिले। 
● अच्छी उपज के लिए किसानों के पास नई जानकारी का होना भी जरूरी है। ऐसे में देश के सभी गांवों में किसानों की मदद और जागरूकता के लिए विलेज नॉलेज सेंटर या ज्ञान चौपाल की स्थापना की जाए। इसके अलावा महिला किसानों के लिए किसान क्रेडिट कार्ड की व्यवस्था की जाए। 
● कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में भूमि सुधारों पर भी जोर दिया और कहा कि अतिरिक्त व बेकार जमीन को भूमिहीनों में बांट दिया जाए। इसके अलावा कॉर्पोरेट सेक्टर के लिए गैर-कृषि कार्यों को लेकर मुख्य कृषि भूमि और वनों का डायवर्जन न किया जाए। कमेटी ने नेशनल लैंड यूज एडवाइजरी सर्विस का गठन करने को भी कहा। 
● कमेटी ने भी  किसानों के लिए कृषि जोखिम फंड बनाने की सिफारिश की थी, ताकि प्राकृतिक आपदाओं के आने पर किसानों को मदद मिल सके। 
● कमेटी ने छोटे-मंझोले किसानों को लेकर भी बड़ी सिफारिश की थी और कहा था कि सरकार खेती के लिए कर्ज की व्यवस्था करे, ताकि गरीब और जरूरतमंद किसानों को कोई दिक्कत न हो। 
● किसानों के कर्ज की ब्याज दर 4 प्रतिशत तक लाई जाए और अगर वे कर्ज नहीं दे पा रहे हैं तो इसकी वसूली पर रोक लगे। 

स्वामीनाथन आयोग की एक प्रमुख सिफारिश यह भी है, कि किसानों को उनकी फ़सलों के दाम उसकी लागत में कम से कम 50 प्रतिशत जोड़ के दिया जाना चाहिए। पूरे देशभर के किसान इसी सिफ़ारिश को लागू करने की माँग को लेकर सड़कों पर कई बार आंदोलन कर चुके हैं। लेकिन तमाम वादे करने के बाद भी इस सिफ़ारिश को न तो यूपीए सरकार ने लागू किया गया और न ही वर्तमान की भाजपा सरकार ने। लगभग दो सालों तक भारत के तमाम कृषि संगठन, जानकार और किसानों से बात करने के बाद आयोग ने अपनी कई महत्वपूर्ण सिफ़ारिशों के साथ कुल पाँच रिपोर्ट तत्कालीन यूपीए सरकार को 2006 में सौंप दी थी। पर अफ़सोस की दस साल बीत जाने के बाद भी अभी तक इस रिपोर्ट को पूरी तरीक़े से लागू नहीं किया गया है।

भाजपा ने 2014 के आम चुनाव के समय अपने घोषणापत्र जिसे वे संकल्पपत्र कहते हैं, में वादा किया है कि वे फ़सलों का दाम लागत में 50 प्रतिशत जोड़ कर के देंगे। लेकिन जब हरियाणा के एक आरटीआई एक्टिविस्ट पीपी कपूर की एक आरटीआई दायर कर के सरकार से इस वादे के बारे में पूछा तो,  सरकार ने जवाब दिया कि, वे इसे लागू नहीं कर सकते हैं। 

इस रिपोर्ट में मुख्यतः फ़सलों की मूल्य निर्धारण नीति और कर्ज़ा नीति पर ज़्यादा ज़ोर दिया गया है। स्वामिनाथन आयोग की एक सिफारिश यह भी है कि, साल भर में किसान की लागत है और उसकी मेहनत को जोड़कर, डेढ़ गुना दाम दिया जाय। यह मामला सुप्रीम कोर्ट में भी गया और वहां भी, सरकार ने हाथ खड़े कर दिए कि हम यह दाम नहीं दे सकते। विडंबना है, जो लोग सरकारी नौकरियों में हैं, उनका वेतन तो 150 गुना तक बढ़ाया गया है और किसान के लिए यही वृद्धि, 70 बरस में सिर्फ 21 गुने तक बढ़ी है। लगता है, पूरा तंत्र ही किसान विरोधी है।

एमएससी के संबंध में, स्वामीनाथन रिपोर्ट को लागू न करने पर खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक देविंदर शर्मा कहते हैं, 
"सरकारें ऐसा नहीं करेंगी क्योंकि इनकी जो नीति है वो खाद्य महंगाई को कम रखने की है, इसलिए आपको खाद्य मूल्य को कम रखना होगा और इसका मतलब है कि इसका ख़ामियाज़ा सीधे किसान को ही भुगतना है। इसलिए मै ये कहना चाहता हूँ कि सरकार की मंशा है कि किसान को खेती से ही बाहर कर दिया जाए।"
वर्तमान समय में कृषि मंत्रालय के अधीन आने वाली संस्था कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की सिफ़ारिश पर केंद्र सरकार फ़सलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है। सरकार का कहना है कि 
" स्वामीनाथन आयोग द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) सरकार द्वारा इस आधार पर अस्वीकार कर दिया गया क्योंकि एमएसपी की सिफ़ारिश कृषि लागत और मूल्य आयोग द्वारा संबंध घटकों की क़िस्म पर विचार करते हुए वस्तुपरक मानदंड पर की जाती है।" 

इस पर पूर्व कृषि मंत्री सोमपाल शास्त्री कहते हैं, 
"कृषि लागत एवं मूल्य आयोग द्वारा खेती के ख़र्चे का हिसाब लगाने की जो प्रणाली है वो बहुत ही त्रुटिपूर्ण है। ये ना तो किसी आर्थिक आधार पर तर्कपूर्ण है और ना ही किसी वैज्ञानिक आधार पर।"
वही मज़दूर किसान शक्ति संगठन की सदस्य और सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय कहती हैं, 
"चाहे जो भी सरकार सत्ता में हो, हमेशा ही आर्थिक नीतियां कारपोरेट और मुक्त बाज़ार की वकालत करने वाले अर्थशास्त्रियों को ध्यान में रख कर तय की जाती हैं जिन्हें उन ज़मीनी हक़ीक़त की कोई जानकारी नहीं होती जो ग़रीब हर रोज़ सामना करता है। यदि हम चाहते हैं कि देश में किसान बचा रहे तो स्वामिनाथन रिपोर्ट को तुरंत लागू कर देना चाहिए।"

इस रिपोर्ट में बताया गया है कि फ़सलों के सही दाम ना मिलना, मंडी की अव्यवस्थता, पानी की सही व्यवस्था ना होना, समय पर कर्ज़ ना मिलना, भूमि सुधार का अधूरा रह जाना ये सब किसानों की समस्या के मुख्य कारक है। वर्तमान में किसान की स्थिति पर स्वामीनाथन कहते हैं कि 
" खेती एक जीवन देने वाला उद्योग है और यह बहुत दुखद है कि हमारे देश का किसान ख़ुद ही अपना जीवन समाप्त कर लेता है।"
आप जो लगातार बढ़ती हुयी किसान आत्महत्याएं देख रहे हैं, उनकी तह मे यह असंतोष, कुंठा, बेबसी और अंधकार में डूबा हुआ भविष्य है, जहां दूर दूर तक, प्रत्यूष की कोई आस ही नहीं है। 

उद्योग, हाइवे, स्मार्टसिटी, बुलेट ट्रेन, आदि ज़रूरी हैं पर कृषि इन सबसे अधिक ज़रूरी है। आर्थिक सुधार के एजेंडे में समग्र कृषि सुधार पर कोई बात ही नही की गई। हर आपदा में उद्योगों को राहत देने की बात उठती है, उन्हें बैंक कर्ज़ भी देते हैं, कर्ज़ देकर उसकी वसूली भूल भी जाते हैं, पर किसानों को मिलने वाली सब्सिडी पर कोई ध्यान नही कभी नही देता है। 70 % आबादी जो खेती पर निर्भर है, देश की आर्थिकि का मूलाधार जहां कृषि हो, वहां किसानों के संबंध में कोई भी निर्णय लेने के पहले, क्या किसानों के नेताओ से उनकी समस्याओं के बारे में चर्चा नहीं की जानी चाहिए थी ? 

हो सकता है स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू करना किन्ही कारणों से सम्भव न हो, पर वे कारण तो किसानों और संसद की जानकारी में लाये जाने चाहिए। आश्वासनों का एक अंतहीन फरेब तो कभी न कभी खत्म होना चाहिए। 

( विजय शंकर सिंह ) 

हरिवंश जी की आत्मग्लानि या कुछ और ? / विजय शंकर सिंह

राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश जी ने उपराष्ट्रपति को लिखे पत्र में कहा है कि, " वह राज्यसभा में जो कुछ हुआ उससे बहुत दुख हुआ है. वह पूरी रात सो नहीं पाए. वह एक दिन का उपवास रखेंगे। " 
ऐसी आत्मग्लानि होती है जब दबाव में कोई ऐसा निर्णय लेना पड़ता है, जो आत्मा को गवारा नहीं रहता है तो। अब यह मुझे नहीं पता कि रातभर सो न सकने का कारण यही आत्मग्लानि है या कुछ और। 

राज्यसभा में हुआ हंगामा तो निंदनीय है ही और अब, 8 सांसदों के निलंबन के बारे में, जो भी उचित समझा सभापति ने, वह निर्णय ले भी लिया। पर एक सवाल बराबर हरिवंश जी को कचोटता और संसदीय कार्यवाही के जानकारों को उद्वेलित करता रहेगा कि, कि जब मतविभाजन की मांग की गयी तो मतविभाजन क्यों नहीं कराया गया ! राज्यसभा की रूल बुक यह कहती है कि, मतविभाजन की मांग यदि एक भी सदस्य करता है तो, मतविभाजन कराया जाना चाहिए।  

हरिवंश जी को सदन को यह बताना चाहिए कि, आखिर किस मजबूरी या किन कारणों से उन्होंने मतविभाजन की मांग किये जाने पर भी किसान बिलो में मतविभाजन की प्रक्रिया नहीं अपनाई । 

यह कहा जा रहा है, सदन में हंगामा हो रहा था तो, मतविभाजन सम्भव नहीं था। अतः ध्वनिमत से वोटिंग करायी गयी। लेकिन जब हंगामा हो रहा था, एक दूसरे की बात सुनना और समझना सम्भव नहीं था तो, फिर ध्वनिमत की ध्वनियां, आएस और नो कैसे सुनाई पड़ी ? सदन को पहले व्यवस्थित यानी आर्डर में लाने के बाद ही मतदान कराया जाना चाहिए था। सबको पता है कि सत्तापक्ष राज्यसभा में अल्पमत में है, उसके सहयोगी भी उससे इस विंन्दु पर अलग हैं। अतः मतविभाजन होता तो, यह विधेयक गिर जाता। 

पर इसे पास तो कराना ही था। यह दबाव तो इसी से स्पष्ट है कि, रविवार को सदन बुलाया गया और निर्धारित समय के बाद भी उसे बिना विपक्ष को भरोसे में लिये बढ़ाया गया। जब यह इरादा बन जाता है कि यह काम तो करना ही है तो फिर नियम कानून तो अप्रासंगिक हो ही जाते हैं। जिन सदस्यों ने हंगामा किया वे निलंबित हैं। उन्हें और भी जो दंड देना है वह सदन या सभापति दे सकते हैं। पर उपसभापति ने जो नियम रुलबुक का उल्लंघन किया है और एक ऐसा कानून जो करोड़ो किसानों के जीवन से जुड़ा है अवैध रूप से पास करा दिया है, इस अपराध का दोषी कौन है और उसे क्या सज़ा मिलेगी ? 

( विजय शंकर सिंह )

राज्यसभा से निलंबन का रिकॉर्ड राजनारायण के नाम, दूसरे नंबर पर गोडे मुरहरि / विजय शंकर सिंह

कृषि सुधार विधेयकों पर हंगामा करने पर राज्यसभा (Rajya Sabha) के आठ सांसदों को निलंबित किया गया है. संसद में सांसदों के निलंबन का कार्रवाई का भी अपना इतिहास है।राज्यसभा से निलंबन के मामले में राजनारायण सबके गुरु हैं.। वे राज्यसभा से चार बार निलंबित हुए थे. सन 1966, 1967, 1971 और 1974 में उन्हें निलंबित किया गया था।

जनता पार्टी के सांसद राजनारायण एक जुझारू नेता थे। वे 80 बार जेल गए थे। उन्होंने जेल में कुल 17 साल बिताए थे, जिसमें से तीन साल आजादी से पहले और 14 साल आजादी के बाद के थे। उन्होंने सन 1977 के चुनावों में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को हरा दिया था। 

महिला आरक्षण बिल के विरोध में यूपीए ने 2010 में सात सांसदों को निलंबित किया था. दूसरे नंबर पर रिकॉर्ड गोडे मुरहरि का है. वे राज्यसभा से सस्पेंड होने वाले पहले सांसद थे. वे कुल तीन बार निलंबित हुए। वे 1962 में एक बार और 1966 में दो बार निलंबित हुए. मज़े की बात है कि बाद में वे राज्यसभा के उप सभापति भी चुने गए।

राज्यसभा में गोडे मुरहरि को तीन सितंबर 1962 को बाकी बचे सत्र के लिए निलंबित किया गया था। सन 1966 में भूपेश गुप्ता और गोडे मुरहरि को संसद के बाकी सत्र के लिए निलंबित कर दिया गया था। राजनारायण और मुरहरि को 25 जुलाई 1966 को एक सप्ताह के  लिए सस्पेंड किया गया था। 

सन 1966 में 16 नवंबर को बीएन मंडल को 10 दिनों के लिए निलंबित किया गया था।  सन 1967 में 14 दिसंबर को राजनारायण को निलंबित किया गया था। इसके बाद 12 अगस्त 1971 को राजनारायण फिर निलंबित किए गए। और फिर उन्हें 24 जुलाई 1974 को शेष सत्र के लिए निलंबित किया गया था। 

पुत्तपागा राधाकृष्णा को 29 जुलाई 1987 को एक सप्ताह के लिए निलंबित किया गया था. सन 2010 में सात सांसदों को निलंबित किया गया था। 

( विजय शंकर सिंह )

पीएमकेयर्स फ़ंड पर तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा का भाषण.

तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने संसद में पीएमकेयर्स फंड पर सवाल उठाए हैं, उन्होंने दिखाया है कि विपक्ष के सांसद को कैसा होना चाहिए, और संसद आख़िर है किस लिए. विपक्ष वाली सुषमा स्वराज जैसे तेवर के साथ उन्होंने कई सवाल पूछे हैं, सवाल नए नहीं हैं, लगातार पूछे जा रहे हैं, जवाब नहीं मिल रहे हैं. उन्होंने पीएमकेयर्स फंड को कानूनी चुनौती दी थी लेकिन अदालत ने कहा कि उन्हें ये सवाल संसद में उठाने चाहिए.

जो लोग अंग्रेज़ी नहीं जानते उनकी सुविधा के लिए कुछ ख़ास बातें जो महुआ मोइत्रा ने कही हैं. बातें बहुत गंभीर हैं, राष्ट्रहित से जुड़े नौ सवाल हैं. भाषण बहुत लंबा नहीं है, दिलचस्प है, सारी बातें यहाँ नहीं लिख सकता, आप अंत तक वीडियो में सुन सकते हैं. वीडियो की लिंक कमेंट बाॅक्स में है.

1. पीएमकेयर्स फंड संकट की घड़ी में आर्थिक संसाधनों का केंद्रीकरण कर रहा है, राज्यों के हाथों से संसाधन छीनकर एक जगह जमा कर रहा है. उन्होंने कहा कि ऐसा तब हो रहा है जब राज्य सरकारों को वादे के मुताबिक, जीएसटी में हुई कमी की भरपाई नहीं की जा रही है.

2. पीएमकेयर्स फंड केंद्र सरकार और राज्यों के बीच विभेदकारी नीति पर आधारित है. बड़ी कंपनियों से पीएमकेयर्स फंड के लिए मिलने वाला चंदा corporate social responsibility के मद में गिना जा रहा है लेकिन राज्यों के मुख्यमंत्रियों को दिया जाना वाला कॉर्पोरेट डोनेशन इस श्रेणी में नहीं आता, जो कि पहले आता था. नए नियमों के तहत राज्यों को मिलने कॉर्पोरेट डोनेशन को हतोत्साहित किया जा रहा है. CSR की व्यवस्था स्थानीय और क्षेत्रीय विकास को बढ़ावा देने के लिए थी, न कि एक जगह पैसा जमा करने के लिए.

3.टीएमसी सांसद का कहना है पीएमकेयर्स फंड पारदर्शिता के सिद्धांत के विपरीत है, इस फंड और इसे चलाने वाले लोग किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हैं. इसका ऑडिट न होना और इसे आरटीआई से बाहर रखना बुनियादी उसूलों के खिलाफ़ है. 

4.देश के 38 सार्वजनिक उद्यमों ने 2100 करोड़ से अधिक का चंदा पीएमकेयर्स फंड को दिया है, जो पीएमकेयर्स फंड में दिए गए डोनेशन का तकरीबन 70 प्रतिशत है. यह देश का ही पैसा है, देश की जनता का पैसा है, इसका ऑडिट क्यों नहीं होना चाहिए? सारा पैसा ऐसे अंधेरे कमरे में जा रहा है जहाँ रोशनी एक किरण नहीं जा सकती. 

5. कोल इंडिया ने 222 करोड़ रुपए पीएमकेयर्स फंड में दिए हैं, उसका ज़्यादातर काम झारखंड और बंगाल में है लेकिन वह वहाँ की सरकारों को कुछ नहीं दे रहा है. पावर फाइनेंस कॉर्पोरेशन ने पीएमकेयर्स फंड में 200 करोड़ रुपए दिए हैं जबकि उसका CSR बजट ही 150 करोड़ रुपए का है. ऐसा लग रहा है कि सम्राट के दरबारियों के बीच होड़ लगी है सम्राट को नज़राना देने के लिए, वह भी पब्लिक के पैसे से.

6. अगर आपको इसमें गड़बड़ नहीं लग रही है तो चीनी कंपनियों के डोनेशन पर ध्यान दीजिए. श्याओमी पर लोगों की जासूसी करने का आरोप है उसने पीएमकेयर्स फंड में 10 करोड़ रुपए दिए हैं, टिक टॉक जिसे हाल ही में इसी सरकार ने बैन कर दिया है उसने 30 करोड़ रुपए दिए हैं. हुआवे जिसका सीधा संबंध चीनी सेना से है, जिसकी वजह से पूरी दुनिया के देशों में उस प्रतिबंध है, उसने 10 करोड़ रुपए दिए. आप देश के दुश्मनों से क्यों पैसे ले रहे हैं?

7. पीएमकेयर्स फंड के तहत कितने वेंटिलेटर्स ख़रीदे गए, किन किन राज्यों के किन अस्पतालों को दिए गए, उनकी सप्लाई किन लोगों ने की, इसका हिसाब इस सदन को दिया जाना चाहिए. जिस तरह से एयरपोर्ट और एयरलाइन का निजीकरण हो रहा है, जिस तरह क्रोनी कैपिटलिज़्म को बढ़ावा दिया जा रहा है, क्यों नहीं माना जाना चाहिए कि पीएमकेयर्स फंड में चंदा देने वाले और सरकार की नीतियों का लाभ लेने वाले अलग-अलग लोग नहीं हैं.

8.जब प्रधानमंत्री आपदा राहत कोष पहले से मौजूद था तो एक अलग फंड बनाने की ज़रूरत क्यों पड़ी? फंड लंबे समय से है, प्रधानमंत्री आते-जाते रहते हैं, फंड पर सवाल नहीं है, लेकिन एक ही व्यक्ति के नाम पर हर चीज़ को समर्पित करने की ऐसी क्या ज़रूरत पैदा हो गई है.  यह लोकतंत्र है, चुना हुआ निरंकुश तंत्र नहीं है. 

9.इस फंड का सारा काम कैबिनेट मंत्री देख रहे हैं, सब कुछ मनमाने तरीके से हो रहा है. डोनेशन दिए नहीं, बल्कि लिए जा रहे हैं. 17 अप्रैल को एक सर्कुलर जारी किया गया, जिसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार के सभी कर्मचारियों को अपना एक दिन का वेतन पीएमकेयर्स फंड में देना होगा, यह पैसा उनकी सैलरी से ले लिया जाएगा, अगर वे पैसा नहीं देना चाहते हैं तो उन्हें लिखकर देना होगा कि वे फंड में पैसा नहीं देना चाहते. इस भय और प्रतिशोध के माहौल में आप ही बताइए कि कौन कर्मचारी या अधिकारी लिखकर देगा कि वह पीएमकेयर्स फंड में पैसे नहीं देना चाहता। 

-- साभार राजेश प्रियदर्शी
( विजय शंकर सिंह )

कृषि संबंधी नए कानून और एमएसपी. / विजय शंकर सिंह

कृषि सुधार के नाम पर तीन नए कानून आज 20 सितंबर 2020 को, राज्यसभा में पास घोषित कर दिये गए। इस बिल को कैसे  आनन फानन में बिना संसदीय औपचारिकताओं को पूरा किये कैसे पास कर दिया गया यह तो आज की बात है, पर इसी लोकसभा में कुछ सालों पहले, वित्तीय बिल यानी देश का बजट बिना चर्चा के पास करा लिया गया था, जब उस समय, स्वर्गीय अरुण जेटली वित्तमंत्री थे। संसद पहली बार अप्रासंगिक नही हो रही है। यह पहले भी हो चुकी है। बिल अगर सभी प्रक्रिया के बाद पारदर्शी तऱीके से पास हो जाता तो कोई बात नही थी। बहुमत ने चाहा और जो चाहा वह हुआ। पर पीठासीन अधिकारी ने, सारी प्रक्रिया को दरकिनार कर के इस बिल को पास घोषित कर दिया। हां, पर यह सब हुआ पारदर्शी तरीके से, सबके सामने। उच्च सदन का म्यूट हो जाना नोटबन्दी, व्यापारबन्दी, और तालाबंदी के बाद ज़ुबांबन्दी का एक प्रतीक है। 

उत्तर भारत के किसान, इस बिल का प्रबल विरोध कर रहे हैं। पंजाब इस विरोध का एपीसेन्टर है और विरोध की तीव्रता को ही भांप कर सरकार से एक मात्र अकाली मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। भाजपा की पितृ संस्था आरएसएस के किसान संगठन ने भी यह कह कर कि सरकार को जमीनी हकीकत का अंदाज़ा नहीं है, इन तीनो कानूनो का विरोध किया है। जब विरोध बहुत बढने लगा तो प्रधानमंत्री जी का बयान आया कि, यह विरोध भड़काया जा रहा है और इसके पीछे उन्होंने प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल कांग्रेस का नाम लिया और यह कहा कि यह सारे वादे तो कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में कर रखे थे, उनका विरोध राजनीतिक है। अब राजनीतिक दल तो विरोध और समर्थन राजनीतिक आधार पर तो करते ही हैं। यह विरोध और व्यापक हो रहा है,  साथ ही, किसानों के मन मे बिल को लेकर अनेक शंकाये अब भी हैं। 

अजीब विडंबना है, भाजपा ने अपने घोषणापत्र, संकल्पपत्र को तो जुमला कह दिया, और कांग्रेस के घोषणापत्र को अपनाने लग गयी ! पर वह यह भूल गयी कि, उसी घोषणापत्र पर तो कांग्रेस का सफाया 2014 में हो गया था ! सरकार अगर अपने ही घोषणापत्र या संकल्पपत्र को एक बार पढ़ लेती और उसके कुछ वादे लागू कर देती तो कम से कम आज किसानों की स्थिति कुछ तो बेहतर हो ही गयी होती। सरकार भी कुछ उपलब्धियां गिना सकती थी। किसानों से दो बड़े वादे  सरकार ने किए हैं, एक कृषि उत्पाद का दाम तय करने के संदर्भ में एमएस स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसा लागू करना, और दूसरे 2022 तक किसानों की आय दुगुनी करना। स्वामीनाथन कमेटी की अनुशंसा पर क्या हो रहा है यह सरकार को भी पता है या नहीं, और 2022 अभी डेढ़ साल दूर है, तो किसानों की दुगुनी आय का जश्न देखना अभी बाकी है।

इस कानून को लेकर सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि, यह कानून देर सबेर, न्यूनतम समर्थन मूल्य, यानी एमरसपी की लंबे समय से चली आ रही प्रथा को खत्म कर देगा और फिर कृषि उत्पाद के मूल्य निर्धारण का काम पूरी तरह से किसान और व्यापारियों के बीच रह जायेगा। अब एक चर्चा एमएसपी पर करते हैं। सरकार द्वारा किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य दिलाने के लिए प्रारंभ की गई न्यूनतम समर्थन मूल्य ( एमएससी ) नीति एक मज़बूत खरीद नीति और संबंधित रख-रखाव संबंधी सुविधा की नीति है। यह केवल उत्पाद का दाम नही है बल्कि यह सरकार द्वारा किसानों को उनके उत्पाद का न्यूनतम समर्थन मूल्य है। यानी किसान को इतना तो मिलना ही है। 

न्यूनतम समर्थन मूल्य वह न्यूनतम मूल्य होता है, जिस पर सरकार किसानों द्वारा बेचे जाने वाले अनाज की पूरी मात्रा क्रय करने के लिये तैयार रहती है। जब बाज़ार में कृषि उत्पादों का मूल्य गिर रहा हो, तब सरकार किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि उत्पादों को क्रय कर उनके हितों की रक्षा करती है। सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा फसल बोने से पहले करती है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा सरकार द्वारा कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की संस्तुति पर वर्ष में दो बार रबी और खरीफ के मौसम में की जाती है। 

कृषि लागत एवं मूल्य आयोग, ( एपीएमसी ) भारत सरकार की एक संस्था है जो, 1965 में गठित हुयी थी। यह आयोग कृषि उत्पादों के संतुलित एवं एकीकृत मूल्य संरचना तैयार करने के उद्देश्य से स्थापित किया गया है। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सलाह देता है। इस आयोग के द्वारा 24 कृषि फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी किये जाते हैं। इसके अतिरिक्त गन्ने के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य की जगह उचित एवं लाभकारी मूल्य की घोषणा की जाती है। गन्ने का मूल्य निर्धारण आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति द्वारा अनुमोदित किया जाता है।

विभिन्न वस्तुओं की मूल्य नीति की सिफारिश करते समय कृषि लागत एवं मूल्य आयोग निम्नलिखित कारकों  को ध्यान में रखता है:
● मांग और आपूर्ति
● उत्पादन की लागत
● घरेलू और अन्तर्राष्ट्रीय दोनों बाज़ार में मूल्य प्रवृत्तियाँ
● अंतर-फसल मूल्य समता
● कृषि और गैर-कृषि के बीच व्यापार की शर्तें
● उस उत्पाद के उपभोक्ताओं पर एमएसपी का संभावित प्रभाव।

न्यूनतम समर्थन मूल्य का मुख्य उद्देश्य किसानों को बिचौलियों के शोषण से बचाकर उनकी उपज का अच्छा मूल्य प्रदान करना और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिये अनाज की खरीद करना है। यदि किसी फसल का अधिक उत्पादन होने या बाजार में उसकी अधिकता होने के कारण उसकी कीमत घोषित मूल्य की तुलना में कम हो जाती है तो सरकारी एजेंसियाँ किसानों की अधिकांश फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद लेती हैं।

न्यूनतम समर्थन मूल्य  की भी कुछ खामियां हैं, जिनमे ये प्रमुख मुद्दे हैं-
● एमएसपी धान और गेहूँ के लिये  प्रभावी है, जबकि यह अन्य फसलों के लिये  केवल प्रतीकात्मक है। एमएसपी को बाज़ार  की गतिशीलता के साथ जोड़ने के बजाय, किसानों के हितों के अनुरूप बढ़ाने से कीमत निर्धारण प्रणाली विकृत हो गई है। इसलिये, जब सोयाबीन की  एमएसपी बढ़ती है, तब बाज़ार  की कीमतों में बढ़ोतरी होगी, भले ही फसल अच्छी हो, क्योंकि एमएसपी एक बेंचमार्क तय  करती  है। एमएसपी एक उचित बाज़ार  मूल्य  बनने के बजाय आय-निर्धारित करने वाली  बन जाती  है। इसका मुद्रास्फीति में भी योगदान है। इसे और तार्किक बनाना होगा। 
● एमएसपी विभिन्न वर्गों के बीच अंतर नहीं करता है, बल्कि यह एक औसत उचित गुणवत्ता को संदर्भित करता है। उच्च गुणवत्ता की फसल को आधार मूल्य पर बिक्री के लिये बाध्य करने से, किसानों और व्यापारियों दोनों की स्थिति एक जैसी हो जाती है। ऐसी नीतियाँ किसानों को अपने मानकों को कम करने और निम्न किस्मों के उत्पादन के लिये प्रेरित करती हैं,  जिससे क्रेता कम गुणवत्ता वाली अन्न के लिये उच्च मूल्य का भुगतान करने को अनिच्छुक होगा और इससे गतिरोध हो सकता है।
● धान और गेहूँ के लिये  खरीद तय की गई है, जो सीधे पीडीएस से जुड़ी हुई है। यह व्यवस्था अच्छी तरह से काम करती है, लेकिन यह कुछ विशिष्ट फसलों तक सीमित होती है। इसके अलावा, एक ओपन एंडेड स्कीम होने पर, एफसीआई के पास अधिशेष अनाज बढ़ जाता है, जिससे भंडारण और अपव्यय की समस्याएँ  उत्पन्न होती हैं। इससे पूर्व भी यह देखा गया है कि दालों, चीनी और तिलहन के उत्पादन में तेज़ी आने से बाज़ार की कीमतें बढ़ जाती हैं। इसलिये ऐसी सभी भेद्य ( वल्नरेबल ) वस्तुओं का न्यूनतम स्टॉक बनाए रखने की आवश्यकता है।
● थोक व्यापारी और फुटकर विक्रेता द्वारा जमा की जाने वाली राशि को प्रतिबंधित करने के लिये आवश्यक वस्तु अधिनियम को किसी भी समय लागू किया जा सकता है। चूँकि, यह अवधारणा सही लगती है, क्योंकि यह जमाखोरी से निपट सकती है, परंतु जो बात भुला दी जाती है वह यह है कि अधिकांश फसलें वर्ष में एक बार ही काटी  जाती हैं  और शेष वर्ष के लिये  संग्रहीत की जाती हैं। किसी न किसी को फसल का भण्डारण करना ही पड़ता है, अन्यथा इसे उपभोक्ताओं के लिये पूरे वर्ष उपलब्ध नहीं कराया जा सकता है। इसमें गुणवत्ता के नुकसान के जोखिम के साथ-साथ लागत का जोखिम भी शामिल है, जो मध्यस्थ द्वारा वहन किया जाता है। अतः प्रश्न यह है कि कोई भंडारण और संग्रहण के बीच अंतर कैसे कर सकता है?
● कृषि उत्पादों के लिये  हमारी व्यापार नीति भी विकृत है। जैसे जब अन्न के निर्यात पर प्रतिबंध लगा रहता है तब फसल उत्पादन में कमी के समय, अन्न की कमी की पहचान करने और बोली प्रक्रिया के माध्यम से आयात करने में अधिक समय लग जाता है। कई बार ऐसा भी हुआ है कि जब तक अन्न का आयात होता है, तब तक  मूल्य  सामान्य हो जाता है।

अब तो, इन कानूनों के साथ साथ, आवश्यक वस्तु अधिनियम भी संशोधित हो गया है। यह एक्ट जिसे आम तौर पर ईसी एक्ट कहते हैं, बहुत दिनों से व्यापारियों के निशाने पर रहा है। यह जमाखोरी रोकने के लिये 1955 में सरकार ने पारित किया था। अब कोई भी पैनकार्ड धारक कितना भी अनाज खरीदे और उसे असीमित रूप से कहीं  भी जमा कर के रखे, जब अभाव हो तो बाजार में निकाले, और जब बेभाव होने लगे तो वह उसे रोक ले, यानी बाजार की दर, किसान की उपज, मेहनत और ज़रूरत नहीं तय करेगी, बल्कि अनाज की कीमत यही पैनकार्ड धारक व्यापारी, जमाखोरी करने वाले आढ़तिये और नए जमीदार कॉरपोरेट तय करेंगे। वे जमाखोरी करेंगे पर उनपर जमाखोरी का इल्जाम आयद नहीं होगा। किसान अपनी ही भूमि पर इन तीनो के बीच मे फंस कर रह जायेगा और सरकार दर्शक दीर्घा में बैठ कर यह तमाशा देखेगी क्योंकि उसके पास कोई नियंत्रण मैकेनिज़्म है ही नहीं या यूं कहें उसने ऐसा कुछ अपने आप रखा ही नही कि वह बाजार को नियंत्रित कर सके। 

इस नए कानून के संदर्भ में निम्न संदेह भी स्वाभाविक रूप से उठते हैं, 
● सरकार का कहना है कि, एमएसपी और एपीएमसी सिस्टम पर इन कानूनों से कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। अगर सरकार एमएसपी को जारी रखने के लिये प्रतिबद्ध है तो वह इस कानून में यह प्राविधान क्यों नहीं जोड़ देती है, कि मंडियों के बाहर होने वाली खरीद पर सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी रहेगा और एमएसपी से कम कीमत पर अनाज की खरीद एक दंडनीय अपराध होगी ? 
● किसानों की मांग और सरकार का एक पुराना वादा है कि,एमएसपी,  एमएस स्वामीनाथन कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार दी जाय। पर अचानक ऐसी क्या स्थिति आ गयी कि, कोरोना आपदा के बीच आनन फानन में पहले यह अध्यादेश लाये गये और अब संसदीय परंपराओं का उपहास उड़ाते हुए, यह बिल 20 सितंबर को ही, मत विभाजन की मांग को दरकिनार करते हुए ध्वनिमत से पारित घोषित कर दिया गया ? 
● निजी कम्पनियां या व्यापारी किसान हित मे कोई भी समर्थन मूल्य नहीं देने जा रहे हैं, क्योंकि, आज भी वे, मंडियों में, एमएसपी से नीचे पिट रही धान, कपास, मक्का, बाजरा और दूसरी फसलों को एमरसपी या एमएसपी से अधिक दर पर क्यों नहीं खरीद रहीं हैं ?  व्यापारी किसी के हित अनहित पर नहीं, लाभ के आधार पर चलता है। 
● कहा जा रहा है कि, किसान पूरे देश मे अपनी उपज को बेच सकता है। यह तो वह पहले भी कर सकता था। फिर नया क्या है ? लेकिन, हरियाणा-पंजाब का किसान अपनी धान, गेहूं, चावल, गन्ना, कपास, सरसों, बाजरा बेचने कहाँ जाएगा, जहां उसे हरियाणा-पंजाब से भी ज्यादा रेट मिल जाएगा ? उत्पाद ले जाने का व्यय ऊपर से उसके उत्पाद की कीमत बढ़ा देगा। 80 % किसान मझोले और छोटे किसान हैं जो अपने जिले से दूसरे जिलों में जाकर अपने उत्पाद न तो बेचने में सक्षम हैं, और न ही उनका भंडारण करने में। उनके यहां जो भी व्यापारी आएगा और जो भी भाव बताएगा उसी पर किसान बेच देगा। क्योंकि उसी फसल की बेच से उसका घर चलता है। 
● सरकार नए क़ानूनों के ज़रिए बिचौलियों को हटाने का दावा कर रही है, लेकिन किसान की फसल ख़रीद करने या उससे कॉन्ट्रेक्ट करने वाली प्राइवेट एजेंसी, आदि को सरकार किस श्रेणी में रखती है- उत्पादक, उपभोक्ता या बिचौलिया ? जो व्यवस्था अब पूरे देश में लागू हो रही है, लगभग ऐसी व्यवस्था तो बिहार में 2006 से लागू है। तो बिहार के किसान इतना क्यों पिछड़ गए ?
● मंडी में टैक्स और मंडी के बाहर कोई टैक्स नहीं, यह मंडी को धीरे धीरे अप्रासंगिक कर देगा। मंडी को टैक्स का नुकसान हुआ तो, उसकी आय पर असर पड़ेगा और अगर आय गिरी तो मंडियां कितने दिन तक चल पाएंगी ? फिर क्या रेलवे, टेलीकॉम, बैंक, एयरलाइन, रोडवेज, बिजली महकमे की तरह घाटे में बोलकर मंडियों को भी निजी हाथों में सौंपा जाएगा? 
● अगर नए कानून के अनुसार, किसान पूरे देश मे कही भी फसल बेच सकता है तो, हरियाणा सरकार किस आधार पर, दूसरे राज्यों से हरियाणा में मक्का और बाजरा नहीं आने देंने का आश्वासन अपने राज्य के किसानों को दे रही है ?
● सरकार, सरकारी ख़रीद को बनाए रखने का दावा कर रही है तो उसने इस साल सरकारी एजेंसी एफसीआई की ख़रीद का बजट क्यों कम कर दिया? वह यह आश्वासन क्यों नहीं दे रही कि भविष्य में यह बजट और कम नहीं किया जाएगा ? वास्तविकता यह है कि सरकार फूड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया को बंद करना चाहती है, जो सरकार के अनुसार, लंबे घाटे में है। धीरे धीरे अनाज खरीद की सरकारी खरीद कम होती जाएगी और इन सब निजी क्षेत्रो में स्थानांतरित होते जाएंगे। एमरसपी कागज़ पर बरकरार रहेगी। लेकिन उसे न मानने पर कोई दंडात्मक प्राविधान नहीं रहेगा। और इस प्रकार पूरे कृषि उत्पाद की खरीद और भंडारण निजी क्षेत्रों को चला जायेगा। 
● सरकार द्वारा सरकारी ख़रीद से हाथ खींचने पर, इसका असर, भविष्य में ग़रीबों के लिए जारी पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम में भी कटौती के रूप में होगा।  राशन डिपो के माध्यम से जारी पब्लिक डिस्ट्रीब्युशन सिस्टम, ख़रीद प्रक्रिया के निजीकरण के बाद कॉरपोरेट के स्टोर के माध्यम से प्राइवेट डिस्ट्रीब्युशन सिस्टम बन जाएगा। 

अब इन कानूनों के बाद, न्यूनतम समर्थन मूल्य , पीडीएस, एफसीआई आदि पर क्या असर पड़ता है यह देखना दिलचस्प रहेगा। यह तीनों बिंदु त्रुटिरहित नहीं हैं, लेकिन इनकी त्रुटियां सुधारने के बजाय खेती, मूल्य निर्धारण और बाजार सबको बाजार के भरोसे ही छोड़ देना उचित नहीं होगा। हालांकि सरकार यह सब रहेगा, ऐसा कह रही है, पर वादा निभाने का ट्रैक रिकॉर्ड, सरकार का सदैव सबसे बुरा रहा है। सरकार को किसान प्रतिनिधियों से बात कर के उनकी शंकाओं का समाधान करना होगा। पर यह तभी संभव है जब सरकार का रुझान किसान हित की तरफ़ हो, और उसकी नीति स्पष्ट तथा नीयत साफ हो। 

भारत में कृषि को एक जोखिम भरा व्यवसाय माना जाता है। ऊत्तम खेती माध्यम बान जैसे दोहों और अन्नदाता के भारी भरकम खिताब के बावजूद किसानों की दशा लम्बे समय से खराब ही रही है। सिचाई के कुछ साधनों के बाद भी बाढ़ और सूखे की मार से किसान बेहाल रहे हैं। इसके अतिरिक्त, किसानों को फसलों के रोपण से लेकर अपने उत्पादों के लिये बाज़ार खोजने तक तमाम मुसीबतों का सामना करना पड़ता रहता है। यह जोखिम फसल उत्पादन, मौसम की अनिश्चितता, फसल की कीमत, ऋण और नीतिगत फैसलों से भी जुड़े हैं।  कीमतों में जोखिम का मुख्य कारण पारिश्रमिक लागत से भी कम आय, बाज़ार की अनुपस्थिति और बिचौलियों द्वारा अत्यधिक मुनाफा कमाना है। बाज़ारों की अकुशलता और किसानों के उत्पादों की विनाशशील प्रकृति, उत्पादन को बनाए रखने में उनकी असमर्थता, अधिशेष या कमी के परिदृश्यों में बचाव या घाटे के खिलाफ बीमे में बहुत कम लचीलेपन के कारण कीमतों में जोखिम बहुत अधिक है। इन जोखिमों से किसान को यह तीन नए कानून कैसे राहत दिला पाएंगे यह  सरकार नहीं बता पा रही है। 

किसान को उसकी आय की सुरक्षा के साथ साथ, अन्न उत्पादकता बढ़ाने के लिये  भी प्रोत्साहन मिलना चाहिये। उन्नत बीजो की आपूर्ति और सिंचाई की सुविधा सरकार द्वारा की जानी चाहिए। दुनियाभर के किसान सब्सिडी पाते हैं। अमेरिका खुद अपने किसानों को अच्छी खासी सब्सिडी देता है और वर्ल्ड बैंक के माध्यम से भारत मे किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी पर आपत्ति करता रहता है। फसल की कीमतें बाजार आधारित रहेंगी, यह बात भी सच है, लेकिन किसान और उसकी मेहनत को, बाजार की शातिराना चाल से बचाने के लिये सरकार को सदैव आगे आना पड़ेगा। किसान या कृषि महज फसल की दाम और खरीद फरोख्त तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह एक संस्कृति है और इतने आघात के बाद भी भारत अगर बार बार उठ खड़ा होता है तो यह जिजीविषा कृषि ही है। इस जिजीविषा को बचाये रखना होगा। 

( विजय शंकर सिंह )




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Monday 21 September 2020

उच्च सदन का म्यूट हो जाना, ज़ुबांबन्दी का प्रतीक है / विजय शंकर सिंह

मीडिया की एक खबर के अनुसार, सभापति राज्यसभा द्वारा किया गया राज्यसभा से आठ सदस्यों का निलंबन भी अवैधानिक है, क्योंकि जिन्हें निलंबित किया गया है उनका पक्ष तो सुना ही नहीं गया। उन्हें अनुशासनहीनता की नोटिस दी जानी चाहिए थी। सांसद और सभापति के बीच, ब्यूरोक्रेटिक तंत्र के अफसर मातहत टाइप रिश्ता नहीं होता कि जब अफसर को बाई चढ़ी उसने स्टेनो बुलाया और निलंबन आदेश टाइप करा कर दस्तखत कर दिया। 

जब विपक्षी सांसदों ने उप सभापति  के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की घोषणा की, तो उस पर जब सदन में बहस होती तो कई चीजें साफ होती। सत्तापक्ष भी एक्सपोज होता और विपक्ष के खिलाफ में काफी कुछ कहा जाता। इस फजीहत ने बचने के लिये सभापति ने आनन फानन में सांसदों का निलंबन आदेश जारी कर दिया और मानसून सत्र के शेष दिनों के लिये 8 सदस्यों को निलंबित कर दिया। देखा जाय तो, अब सरकार को सदन की ज़रूरत भी नहीं है। बिल तो उसने जैसे तैसे दबाव देकर पास करा ही लिया। 

उच्च सदन का म्यूट हो जाना नोटबन्दी, व्यापारबन्दी, और तालाबंदी के बाद ज़ुबांबन्दी का एक प्रतीक है। सदन की कार्यवाही को कवर करने वाले और लोकसभा, राज्यसभा टीवी से जुड़े कुछ पूर्व सम्पादक और पत्रकारों का कहना है कि यह म्यूट करने की तकनीक या म्यूट बटन, केवल उपसभापति के पास रहती है। या तो वे खुद यह बटन दबा कर ज़ुबांबन्दी कर दें या उनके निर्देश पर कोई और सदन की आवाज़ें खामोश कर दे। 

मैं कल राज्यसभा टीवी पर इस बिल पर चल रही बहस की कार्यवाही देख रहा था कि अचानक आवाज़ आनी बंद हो गयी।  लोग हंगामा करते दिख रहे थे, सदन के वेल में उत्तेजित होकर घूमते दिख रहे थे, उपसभापति अपने स्टाफ या न जाने किससे कुछ मशविरा करते दिख रहे थे, पर आवाज़ नहीं आ रही थी। मुझे लगा कि, कहीं मेरा ही रिमोट तो नहीं दब गया है। पर वह ठीक था। टीवी दुबारा ऑफ कर के ऑन किया पर सदन की गतिविधियां जारी थीं पर आवाज़ म्यूट थी। बाद में पता चला कि यह जानबूझकर म्यूट किया गया था। 

अब इससे यह नहीं पता चल रहा है कि कौन क्या और किसे कह रहा था। फिर सदन स्थगित हो जाता है। थोड़ी देर बाद सदन पुनः शुरू होता है। फिर एक एक कर के उपसभापति, बिल के एक एक संशोधनों को पढ़ते जाते हैं और उसी पर आएस और नो यानी हुंकारी और नहीं दुहराते जाते हैं। बिल्कुल सत्यनारायण बाबा की कथा की तरह वे धाराप्रवाह पढ़ते जाते हैं, और फिर अंत मे बिल पास हो गया कह कर पीछे पतली गली से अदृश्य हो जाते हैं। 
एक कानून विधिनिर्माताओ ने बना दिया और अब इस पर राष्ट्रपति के दस्तखत होने हैं, जो औपचारिकता भी है और नहीं भी। अगर राष्ट्रपति विवेक से देखते हैं तो वे कुछ आपत्ति के साथ या अनापत्ति के साथ उसे संसद को लौटा सकते हैं। पर ऐसा बहुत कम होता है। हमारे यहां बाथरूम में बैठ कर कानूनो पर दस्तखत करने की आज्ञापालक परंपरा रही है, और हम सब हज़ारो साल की परंपरा निभाने में सदैव गर्व का अनुभव करते हैं, तो यही परंपरा अब भी बाकी है। 

राज्यसभा के सांसदो का कहना है कि, जब पहले से सदन को एक बजे तक चलाने की बात तय थी तो, उसे क्यों बढ़ाया गया ? 
मत विभाजन की मांग होने पर, उपसभापति ने मत विभाजन क्यों नहीं कराया ? 
एक भी सदस्य अगर मतविभाजन की मांग करता है तो मतविभाजन कराया जाना चाहिए। 

ध्वनिमत भी बिल पर वोट लेने का एक उपाय है। अगर ट्रेजरी बेंच यानी सरकार एक आरामदायक बहुमत में रहती तो इस उपाय पर किसी को आपत्ति नहीं होती। लेकिन सरकार राज्यसभा में अल्पमत में है और इस बिल पर उसे अकाली दल का भी साथ नहीं था और हो सकता था अन्य दल भी, घोषित विपक्ष के अतिरिक्त इस बिल के विरोध में जाते, तो यह बिल गिर जाता और यह कानून अध्यदेशो की शक्ल में, अगर छह माह तक पास नहीं होता तो ही बना रहता और उसके बाद स्वतः निष्प्रभावी हो जाता।

अभद्रता और विधिविहीनता कही भी हो, वह निंद्य है, सदन में कुछ सांसदों द्वारा की गयी अभद्रता भी अवांछित, अनापेक्षित और निंदनीय है। सदन खुद ही ऐसी कार्यवाहियों पर अंकुश लगाने और ऐसे सांसदो के खिलाफ कार्यवाही करने के लिये सक्षम है। लेकिन इस अभद्रता और विधिविहीनता की आपदा के बीच तुरन्त एक अवसर की तलाश कर के, अविधिक रूप से यह विधेयक पारित करा लेना भी तो निंदनीय ही कहा जायेगा। बल्कि यह अधिक शर्मनाक है, क्योंकि यह कृत्य उसके द्वारा किया गया है जिसके ऊपर सदन को सदन की रुलबुक के अनुसार चलाने का दायित्व है। 

सरकार को भी यह पता था, और उपसभापति भी इस दांव पेंच से अनजान नहीं थे। इसलिए उन्होंने यह जिम्मा खुद ओढा और बेहद फूहड़ तऱीके से समस्त संसदीय मर्यादाओं को ताख पर रखते हुए, इस बिल को ध्वनिमत से पास घोषित कर दिया और फिर जो काम उन्हें सौंपा गया था उसे पूरा किया। 

सच तो यह है कि अगर विधेयकों के पारित कराने की संवैधानिक बाध्यता नहीं रहती और छह महीने से अधिक दो अधिवेशनों में अंतराल, संवैधानिक रूप रखा जाना आवश्यक नहीं होता तो सरकार कभी संसद ही नहीं बुलाती। पर यह संवैधानिक अपरिहार्यतायें हैं कि सरकार को सदन बुलाना पड़ता है। 

( विजय शंकर सिंह )