Tuesday 31 January 2023

कमलाकांत त्रिपाठी / धार्मिक आतंकवाद का वैश्विक उभार और वहाबी पुनरुत्थानवाद (1)

सन्‌ 1996 में अमेरिकी राजनीतिशास्त्री सैम्युएल पी हंटिंगटन की एक पुस्तक आई—The Clash of Civilizations and the Remaking of World Order. शीतयुद्धोत्तर विश्व के बारे में उत्तर अधुनिकतावादियों के ‘इतिहास के अंत’ के बचकाने प्रमेय के जवाब में हंटिंगटन ने अपनी पुस्तक में प्रतिपादित किया कि शीतयुद्धोत्तर विश्व में धार्मिक और सांस्कृतिक अस्मिताएँ ही द्वंद्व और संघर्ष के मूल आधार बनेंगी और तज्जनित युद्ध राष्ट्रों के बीच नहीं, राष्ट्रों के भीतर धर्मों और संस्कृतियों के बीच लड़े जाएँगे. सभ्यताओं का संघर्ष—यह जुमला कामू से शुरू होकर कई विश्लेषकों द्वारा इस्तेमाल हो चुका था जिनमें संयोग से अयोध्या विवाद पर लिखनेवाले गिरिलाल जैन भी शामिल थे. हंटिंगटन ने साफ़ किया कि वे ऐसे युद्ध की वकालत नहीं कर रहे हैं, बस वैचारिकी पर आधारित संघर्ष के समाप्त होने पर विश्व के नए परिदृश्य का ख़ाक़ा खींच रहे हैं (जिससे निपटने की समुचित तैयारी की अपेक्षा थी). उन्होंने चिन्हित किया कि इस्लामिक सभ्यता में जनसंख्या का (जन्म और धर्म-परिवर्तन से) जबर्दस्त विस्फोट हुआ है जिससे उसकी सीमाओं पर और उसके भीतर भी बुनियादपरस्ती का ज्वार बढ़ रहा है जो एक विश्वव्यापी अस्थिरता पैदा करेगा. इसके पीछे पश्चिमी सभ्यता और उसके मूल्यों से आहत होने और अपनी प्राचीन सांस्कृतिक पहचान की रक्षा और उसका विस्तार करने की भावना निहित है. पश्चिमी सभ्यता के आघात से अपने सांस्कृतिक मूल्यों की सुरक्षा और उनके दृढ़ीकरण के लिए इस संस्कृति के एक मुखर वर्ग में प्रतिद्वंद्विता का युयुत्सु भाव है. उसके लिए यह अपना आधुनीकरण करेगी, शक्ति-संचय करेगी और अपनी अस्मिता के उन्मेष से 'सब कुछ या कुछ भी नहीं' की भावना से बहुकोणीय संघर्ष करेगी. इस प्रक्रिया में राष्ट्रों के भीतर जो सांस्कृतिक संकट के बिंदु (fault lines) हैं—चेचन्या, बोस्निया, कश्मीर वगैरह-- वहाँ अशांति की ज्वाला धधक सकती है.

इस पुस्तक की प्रतिक्रिया में और हंटिंग्टन के इस प्रमेय की काट के लिए कई पुस्तकें आईं जिनमें वस्तुस्थिति की इस निर्मम व्याख्या के विरुद्ध आदर्शवादी, सैद्धांतिक विमर्श के सहारे मानवमूल्यों की पैरवी की गई और ख़ासकर धर्म के भावात्मक प्रभाव की एकांतिकता को नकारा गया. इस अभियान में अपने अमर्त्य सेन ने भी Identity and Violence शीर्षक से एक बहुत भाव-प्रवण किताब लिखी जिसमें मनुष्य की अस्मिता में धार्मिक एकान्तिकता पर ज़ोर देने का प्रबल विरोध किया. उन्होंने यहाँ तक आरोप लगाया कि आतंक के विरुद्ध युद्ध में हंटिंग्टन के प्रमेयों के आधार पर मुसलमानों की धार्मिक और पश्चिम-विरोधी पहचान की एक गढंत गढ़ी जा रही है जो मानव-विरोधी है. 

दु:ख यही है कि इतिहास उच्च आदर्शों, महान मूल्यों और सैद्धांतिक विवेचनों के सहारे नहीं चलता. 1996 से लेकर अभी हाल तक अमेरिका के 9/11 और उसकी प्रतिक्रिया सहित विश्व के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में जो कुछ हुआ, हंटिंगटन के निर्मम यथार्थवादी प्रमेयों का ज़मीन पर उतरकर विश्व के लिए एक अकल्पित संकट पैदा करने का इतिहास है। आवश्यकता है, इसके कारणों की खोज में हम पीछे दूर तक इतिहास की एक निर्लिप्त यात्रा करें.

विश्व-इतिहास में 1453 ई. का साल बड़ा अहम है. इसी साल उस्मानी तुर्कों ने पूर्वी रोमन साम्राज्य (या बाइजेंटियम साम्राज्य) को निर्णायक शिकस्त दी और उस साम्राज्य की पुरानी और गौरवशाली राजधानी कुस्तुंतुनिया को जीत लिया. तुर्क भरभराकर यूरोप में घुस गए और आगे बढ़ते चले गए; बाद में वियना के फाटक तक पहुँच जाने पर ही उन्हें रोका जा सका. इसके लिए पूरा ईसाई जगत एक होकर लड़ा. लेकिन यह एकता भी पूर्वी और दक्षिणी यूरोप पर क़ब्ज़ा जमा चुके उस्मानी तुर्कों के टर्की साम्राज्य को वहाँ से बेदख़ल करने में असफल रही. वहाँ उन्होंने चार सौ सालों से ज़्यादा राज किया और वहाँ के ईसाइयों व अन्य गैर-मुस्लिमों पर वे सारी ज़्यादतियाँ कीं जो कोई भी साम्राज्यवादी सत्ता करती है. दरअसल जेरूसलम की ओर यहूदियों के पलायन की शुरुआत पूर्वी यूरोप के इन्हीं देशों से हुई जो टर्की साम्राज्य से लगातार उत्पीड़ित रहे. 

इतिहास के विद्यार्थी के लिए यह भूलना मुश्किल है कि लगभग हर एक ने अपने दौर में वही किया है जिसके चलते वह दूसरे दौर में पीड़ित रहा है और जिसकी दुहाई देते नहीं थकता.

इसी 1453 के साल को विश्व इतिहास में आधुनिक काल की शुरुआत माना जाता है. इसलिए नहीं कि इस साल तुर्कों ने कुस्तुंतुनिया को जीत लिया, बल्कि इसलिए कि इस जीत की वजह से जो कुछ हुआ, वह युगांतकारी साबित हुआ.

तुर्कों ने एशिया और यूरोप के बीच का रेशम और मसाले के व्यापार का पुराना ज़मीनी रास्ता बंद कर दिया. कुस्तुंतुनिया और सिकंदरिया की बड़ी मंडियाँ, जहाँ एशिया से आए माल—रेशमी, सूती कपड़े, मसाले, गुड़, चीनी वगैरह--की योरोप से आए नमक, ऊन और सोना-चाँदी से अदला-बदली होती थी, वीरान हो गईं. तुर्कों ने ऐसा क्यों किया ? यह सारा व्यापार मुख्यत: अरबों के हाथ में था. रेशम और मसाले के ज़मीनी रास्ते पर उनके ऊँटों के कारवाँ और फ़ारस की खाड़ी और अरब सागर में उनकी तिजारती नौकाएँ निर्बाध डोलती थीं. अरब इस्लाम आने के बहुत पहले से कुशल और  साहसी नाविक तथा व्यापारी थे, कृषि और हस्त-उद्योग में दुनिया भर में  सबसे उन्नत भारत की पुरानी समृद्धि में अरबों के इस वैश्विक व्यापार का बहुत बड़ा हाथ था. और तुर्क थे अरबों के जानी दुश्मन, उनका साम्राज्य छीन चुके थे और ख़िलाफ़त पर नज़र गड़ाए हुए थे. अरबों द्वारा ही जीतकर मुसलमान बनाए गए तुर्क अपने इलाक़े से नये-नये बाहर निकले उम्दा घुड़सवार और उत्साही लड़ाके थे, लड़ने-जीतने के अलावा उन्हें अभी और कुछ आता ही नहीं था, जब कि अरब सफल धार्मिक विजय-अभियान के बाद सभ्यता-संस्कृति, शिक्षा और ज्ञान-विज्ञान में डूब चुके थे. दुनिया देखने से उनका मानसिक क्षितिज विस्तृत हो चुका था और, जैसा कि हमेशा होता है, सभ्यता-संस्कृति के उन्नयन में लगे लोग युद्ध और सत्ता-विस्तार की एकमात्र भाषा जाननेवाले एकनिष्ठ लड़ाकू आक्रमणकारियों के सामने हार ही जाते हैं.

एशिया का माल यूरोप पहुँचना बंद हो गया तो वहाँ बड़ा तहलका मचा. मसाले के बिना तो उनका जाड़ा बीतना मुहाल हो गया. जाड़ा शुरू होते ही वे अपने अधिकांश जानवर मारकर उनका मांस मसाले में सिझाकर रख लेते थे और जाड़े भर उसी से काम चलाते थे. सरदी भगाने के लिए काली मिर्च, दालचीनी जैसे मसालों को उबालकर चाय की तरह गरम-गरम पीते थे. उनकी जलवायु में न तो कपास हो सकती थी न रेशमी कीड़े पल सकते थे, सिर्फ़ ऊनी या चमड़े के वस्त्र ही बनते थे, जो जाड़े में प्राण-रक्षा के लिए तो ठीक, लेकिन गर्मी और शानोशौकत के लिए बेकार. गन्ना और चावल की पैदावार भी यूरोप की जलवायु में असंभव थी तो वे भारत के साथ व्यापार से वंचित मीठे और चावल के स्वाद से तो महरूम हुए ही, मसालों के अभाव में जाड़े के दिनों के लिए मांस को सुरक्षित रखना कठिन हो गया। 

उस समय यूरोप की दो बड़ी शक्तियाँ थीं स्पेन और पुर्तगाल. पोप महोदय ने रोम में बैठे-बैठे यूरोप के बाहर की पूरी दुनिया स्पेन और पुर्तगाल में बाँट दी कि वे पूरब-पश्चिम दोनों तरफ़ से एशिया (जिसका मुख्य मतलब भारत था) से व्यापार का समुद्री रास्ता खोजें (दुनिया गोल है, यह मालूम हो चुका था) और दुनिया का जो हिस्सा मिले, उस पर राज करें, बस व्यापार सबको, यानी ईसाई जगत को, करने दें. तो दुनिया के पहले उपनिवेशवादी थे यही पोप महोदय—पोप अलेक्ज़ैंडर VI. स्पेन से पश्चिम की ओर चला कोलंबस 1492 में अमेरिका के पास के एक द्वीप पर पहुँच गया और एक ‘नई दुनिया’ प्रकाश में आई। पुर्तगाल से पूरब की ओर चला वास्को ड गामा इसके छ: साल बाद अरब नाविकों की सहायता से भारत के तटीय नगर कालीकट पहुंच गया.

और बस दुनिया बदल गई. ज़मीनी साम्राज्य का ज़माना लद गया, अब तो तिजारत के लिए समुद्री साम्राज्य बने जहाँ जाकर स्थायी रूप से बसने के बजाय व्यापार के लिए ज़रूरी तामझाम के रूप में शासन-सत्ता पर क़ब्ज़ाकर, निरंकुश व्यापार से उन्हें चूसने में ही यूरोपियों की दिलचस्पी रह गई. इसीलिए इन्हें साम्राज्य के बजाए उपनिवेश या colony कहा गया. समुद्री व्यापार और सामुद्रिक सैन्य शक्ति में यूरोप आगे बढ़ गया।  माल एशिया का, तिजोरी भरी यूरोप की. विश्व व्यापार में एशिया का प्रतिशत (जिसमें बड़ा हिस्सा भारत का था) सिमट गया, उसका निर्यात अधिशेष (export surplus) निर्यात घाटे में बदल गया. उसका भुगतान-संतुलन (balance of payments) उसके पक्ष से सरककर विपक्ष में चला गया. एशिया पिछड़ गया और यूरोप यूरोप हो गया.

अति-विकसित हस्त-उद्योग और मसालों के उत्पादन पर आधारित भारत के लाभकारी निर्यात पर एकाधिकार के लिए यूरोपी शक्तियों ने आपस में कई लड़ाइयाँ लड़ीं. विजयी इंग्लैंड ने इस एकाधिकार के दुरुपयोग से अंधाधुंध कमाई कर जो पूंजी अधिशेष अर्जित किया उसी के सहारे वह आगे चलकर औद्योगिक क्रांति में अग्रणी रहा. फिर तो भारत के अतिविकसित हस्त उद्योग के ढाँचे को पूरी तरह ध्वस्तकर उसने इसे कच्चे माल के उत्पादक और तैयार माल के बाज़ार में तब्दील कर दिया.

यूरोप की नई सम्पन्नता से नया आत्म-विशास जगा. हज़ार साल से छाया धार्मिक अंधकार छँटा, इब्नसीना और इब्न रुश्द जैसे अरब विद्वानों द्वारा अरबी में अनूदित और व्याख्यायित प्लेटो और अरस्तू का लैटिन में अनुवाद हुआ. इस तरह पुराने यूनान के बौद्धिक विचार की पुन: खोज से यूरोपी पुनर्जागरण का सूत्रपात हुआ. अरब में चली महीअत (being) और वुजूद (becoming या existence) की बहस यूरोप पहुँची और वहाँ ज्ञानोदय (Enlightenment) सम्पन्न हुआ. धर्म के वर्चस्व की अंतिम भभक धार्मिक सुधारों (Reformation) और कैथलिक-प्रोटेस्टैंट संघर्षों के रूप में उठी और फिर शांत हो गई. यूरोप ने बहुत मूल्य चुकाकर सीखा कि बुद्धि-विवेक से महरूम धर्म का उबाल बड़ी क़यामत लाता है. यह सीखने के बाद ही वहाँ धर्म की बंदिश से मुक्त होकर वैज्ञानिक आविष्कारों का सिलसिला आगे बढ़ा जो उपनिवेशों से अर्जित पूँजी के सहयोग से औद्योगिक क्रांति में परिणत हुआ.

लेकिन जिस अरब के उदारवादी बौद्धिक विद्वानों ने यूरोप में ‘नये ज्ञान’ की रोशनी फैलने में मदद की थी, कालांतर में वही विवेकशून्य धार्मिक अतिवादिता का उद्गम स्थल बन गया. अरब देशों के तेल धन से चलनेवाले मदरसों की बाढ़ ने पाकिस्तान को धार्मिक अतिवाद की ओर ठेलने में सबसे अहम भूमिका निभाई. विश्व भर में उभरे धार्मिक पुनरुत्थानवाद और उससे निकले वर्चस्ववाद की आँधी जब हमारे पश्चिमी पड़ोस तक आ गई तो हम उससे कैसे बच सकते थे? भारत में तो हिंदू-मुसलमान का मसला बहुत पुराना है. स्वतंत्रता-आंदोलन लगातार इसके थपेड़ों से जूझता, अपने लक्ष्य की ओर बढते हुए डगमगाता रहा. आख़िर आज़ादी मिली तो मज़हब के आधार पर देश को दो टुकड़ों में बांटकर, जिसके फलस्वरूप जो जघन्य मारकाट और क्रूर विस्थापन हुआ उसके आघात से हम आज तक उभर नहीं पाए हैं. आज़ादी के ठीक बाद कश्मीर का मसला उठ खड़ा हुआ जो सीधे-सीधे धार्मिक मसले में तब्दील हो गया और धार्मिक अतिवाद की वैश्विक लहर के भारत में घुसने का द्वार बन गया.

यह धर्म भी क्या शै है ! अरब सभ्यता के स्वर्णकाल में इस्लाम में जितनी उदारता और जितना लचीलापन दिखता है, वह बाद में धीरे-धीरे सूखता जाता है. और तो और, ख़ुद पैग़म्बर मोहम्मद के जीवनकाल में नई-नई स्थितियों से एडजस्ट करने और लचीलापन अख्तियार करने का जो माद्दा दिखता है, वह बाद के समय में ग़ायब होने लगता है. कोई भी विचार जब अनन्य, अनोखे और अकल्पित तथ्यों के संजाल से टकराता है तो इन तथ्यों को वस्तुपरक ढंग से समझने, समोने और उनके बीच से रास्ता निकालने की चुनौती पैदा होती है, जो बहुत उदारता और लचीलेपन की माँग करती है. जिस नेतृत्व के हाथ में विचार को व्यवहार में लाने का दारोमदार होता है, सब कुछ उसकी समझदारी, सदाशयता और दूरंदेशी पर निर्भर हो जाता है. यही गुण हैं जो पैग़म्बर मुहम्मद के जीवन में बार-बार दिखाई पड़ते हैं. उनके समय में आनेवाली हर नई स्थिति से निपटने के लिए उन्हें चिंतन-मनन करना पड़ता है और बेहद कठिन मोड़ आने पर ही पथ-प्रदर्शन के लिए ईश्वर की ओर देखना पड़ता है. अकारण नहीं है कि क़ुरान शरीफ़ की आयतें रह-रहकर लगातार 23 सालों तक नाज़िल होती रहीं, और जब पैग़म्बरके जाने के बाद, पहले ख़लीफ़ा अबू बक्र के समय में पैग़म्बर के साथी जैद बिन साबित ने उन्हें पुस्तकाकार संकलित किया तो 6232 (या 6666 ?) आयतों को 114 सूरों में विभक्त करना पड़ा. पैग़म्बर अपने इन्हीं गुणों के कारण अपने जीवनकाल में कभी समझा-बुझाकर तो कभी मज़बूरन किए गए बल प्रयोग से, बहुदेववादी, मूर्तिपूजक अरबों को अक्षुण्ण एकेश्वरवाद के झंडे तले एकता और भाईचारे के सूत्र में बाँधने और इस तरह उन्हें एक अप्रतिम शक्ति बना देने में सफल रहे. अब ऐसा तो है नहीं कि पैगम्बर के जाने के बाद नई, पहले से अकल्पित स्थितियाँ आएँगी ही नहीं. पग-पग पर आएँगी और उनसे निपटना पड़ेगा. विगत में निपटा भी गया है. इस्लाम को कई-कई बार बड़े कठिन दौर से गुज़रना पड़ा है. जब दुरुस्त और खुले दिमाग़ से, पैगम्बर की ही परिपाटी पर, अंत:प्रेरणा के साथ-साथ बुद्धि के निष्कपट इस्तेमाल से उनसे निपटा गया है, तो अच्छा, कल्याणकारी परिणाम सामने आया है; जब अहंकार और तंगनज़री से और लकीर का फ़क़ीर बनकर डंडा चलाया गया है, तो फ़ौरी तौर पर सफलता भले मिली हो, उसका दूरगामी असर भयानक, ध्वंसात्मक और दुखदायी ही रहा है.
(क्रमश:)

कमलाकांत त्रिपाठी
© Kamlakant Tripathi 


Sunday 29 January 2023

अडानी समूह का फ्रॉड उजागर करना, भारत पर हमला कैसे हो गया, मिस्टर गौतम अडानी / विजय शंकर सिंह

उद्योग बढ़ाने, धन कमाने और अपनी पूंजी का विस्तार करने का किसी भी पूंजीपति घराने की तरह अडानी समूह का भी उतना ही हक है, जितना सबको है, लेकिन यह अधिकार, देश के कानून और अपराध संहिता के अनुसार ही दिया जायेगा। पर अडानी समूह ने अपने राजनीतिक संपर्कों से, सत्तारूढ़ दल को राजनीतिक फंडिंग कर के, खुद को ही देश समझने का भ्रम पाल लिया है। जम कर, सरकारी बैंको एसबीआई और एलआईसी से इस समूह ने कर्जे लिए, राजनीतिक संपर्कों से, उसे एनपीए कराया, फिर उस राशि को इस कंपनी से  उस कंपनी में कर के, हेराफेरी की, और जब फ्रॉड का भांडा फूटा तो खुद को ही देश समझ लिया। 

हिंडनवर्ग रिसर्च की रिपोर्ट के बाद, अडानी ग्रुप और अमेरिका की Hindenburg Research के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर गहरा गया है। अडानी ग्रुप ने रविवार को अमेरिकी कंपनी की रिपोर्ट पर 413 पेज का जवाब भेजा था। इस पर Hindenburg Research का भी जवाब आ गया है। उसका कहना है अडानी ग्रुप मुद्दों से ध्यान भटका रहा है। इस आरोप प्रत्यारोप के बीच सरकार की चुप्पी हैरान तो नहीं करती पर, अक्रोशित जरूर करती है। 

Hindenburg Research का कहना है कि, "राष्ट्रवाद को चोला ओढ़कर धोखाधड़ी से नहीं बचा जा सकता। अडानी ग्रुप ने असली मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश की है। आरोपों का जवाब देने के बजाय अडानी ग्रुप राष्ट्रवाद का सहारा ले रहा है।"
यह जवाब एक गंभीर आरोप भी है। सरकार को तुरंत अपनी एजेंसियों ईडी, प्रवर्तन निदेशालय, एसएफआईओ, सीरियस फ्रॉड इन्वेस्टिगेशन ऑफिस, आदि को सक्रिय कर के इस रिपोर्ट पर संज्ञान ले लेना चाहिए था। हो सकता है ऐसा हुआ भी हो। 

Hindenburg Research ने कहा, "हम मानते हैं कि भारत एक वाइब्रेंट डेमोक्रेसी है और एक सुपरपावर के तौर पर उबर रहा है। हम साथ ही यह भी मानते हैं कि अडानी ग्रुप भारत के भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहा है। यह ग्रुप राष्ट्रवाद की आड़ में देश को लूट रहा है।"
हमारा मानना है कि "फ्रॉड चाहे जो भी करे वह फ्रॉड होता है। आप इसे देश पर हमला बताकर बच नहीं सकते हैं। हमने  अडानी ग्रुप से 88 सवाल पूछे थे जिसमें से उसने 62 सवालों के जवाब नहीं दिए। इनमें से कई सवाल ट्रांजैक्शंस की प्रवृत्ति और हितों के टकराव के बारे में पूछे गए थे।"

लेकिन अडानी ग्रुप ने इनका कोई जवाब नहीं दिया। हिंडनबर्ग रिसर्च ने कहा कि, "उसकी रिपोर्ट में आरोप लगाया गया है कि अडानी ग्रुप ने गौतम अडानी के बड़े भाई विनोद अडानी और उनकी विदेशी शेल कंपनियों के साथ अरबों डॉलर की डीलिंग की है। विनोद अडानी की विदेश में 38 कंपनियां हैं, जो मॉरीशस, UAE, साइप्रस, सिंगापुर और कई कैरेबियाई देशों में फैली हैं। इनसे अडानी ग्रुप के शेयरों और अकाउंटिंग पर सवाल उठते हैं।" 
इसके जवाब में अडानी ग्रुप ने कहा कि विनोद उसकी किसी भी कंपनी से नहीं जुड़े हैं और कोई गड़बड़ी नहीं हुई है।

अडानी ग्रुप ने 29/01 को हिंडनबर्ग के आरोपों पर 413 पेज का जवाब भी जारी कर आरोपों को भारत पर हमला बताया। ग्रुप ने कहा कि "वह 24 जनवरी को 'मैडऑफ्स ऑफ मैनहट्टन' हिंडनबर्ग रिसर्च की रिपोर्ट को पढ़कर हैरान और काफी परेशान है। यह रिपोर्ट झूठ के अलावा और कुछ नहीं है। इसमें एक खास उद्देश्य के लिए ग्रुप को बदनाम करने के लिए निराधार आरोप लगाए गए हैं। इस रिपोर्ट के कारण अडानी ग्रुप के शेयरों में भारी गिरावट आई है।"

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh

Friday 27 January 2023

सिर्फ मुर्दे और पत्थर ही तटस्थ रहते हैं / विजय शंकर सिंह

प्रोफेसर विश्वनाथ तिवारी सर, आप को इनाम मिला, सम्मानित किए गए, इसके लिए आप को बधाई, और भविष्य के लिए शुभकामनाएं। 

पर तटस्थता तो सदैव शोषित और वंचितों के विरुद्ध, बने रहने का एक षडयंत्र है। सागर में चल रहे तूफान, झंझावत, उद्वेलन, के समय, तट पर तटस्थ रह कर, या समाज के द्वंद्व से दूर, दर्शक दीर्घा में बैठे बैठे, इसी आत्ममुग्धता में, रमण करते रहें, कि हम निरपेक्ष हैं तो, इसका एक कारण, भय, और जोखिम या खतरे से कतराकर, निकल जाना भी है। तटस्थता या तटस्थ लेखन, मेरी समझ में किसी लेखक का, जो समाज की व्यथा को अभिव्यक्त करता है, का दायित्व और कर्तव्य नहीं है। यह एक प्रकार का पलायन है। सुविधा की आस में किया गया पलायन।

किसी भी विकट समय में तटस्थता, या तटस्थ भाव एक अपराध भी है। समय ऐसे तटस्थदर्शी लोगों का अपराध दर्ज भी करता है। यह मेरा कहा नहीं, दिनकर जी की पंक्तियों का सार है। यदि आप तटस्थ है तो आप समाज के प्रतिगामी पक्ष के साथ खड़े हैं, और एक प्रगतिशील समाज में तट पर ही खड़े खड़े निरंतर पीछे की ओर जा रहे हैं। क्योंकि समाज तो आगे ही बढ़ेगा। यह उसकी प्रवृत्ति है। भले ही उसकी प्रगतिशीलता को जबरन, खींच कर रोकने की कोशिश की जाय, पर वह ठिठकता है, थमता है, जमीन पर, एडिया गड़ा कर प्रतिरोध भी जताता है, पर थोड़ा दम भर कर, अंततः, आगे ही बढ़ता है। समय खुद भी, कभी  कहां पीछे लौटता है! 

और अब जगन्नाथ आजाद का यह शेर, 
किनारे ही से तूफ़ाँ का तमाशा देखने वाले 
किनारे से कभी अंदाज़ा-ए-तूफ़ाँ नहीं होता !!

(विजय शंकर सिंह)

हिंडनबर्ग रिसर्च टीम के 88 सवाल जो उन्होंने अडानी समूह से पूछे हैं / विजय शंकर सिंह

ये रहे वे 88 सवाल जो प्रत्येक सचेत नागरिक को पढ़ने समझने चाहिए जिससे वे सांप्रदायिक घृणा से अचेत कर दिए गए समाज तक सच पहुंचा सकें। मीडिया के बिक चुके दौर में यह नागरिक जिम्मेदारी है। यह सवाल शीतल पी सिंह की फेसबुक वॉल से साभार.लिए गए हैं।

1-गौतम अडानी के छोटे भाई, राजेश अडानी पर राजस्व खुफिया निदेशालय (डीआरआई) द्वारा 2004-2005 के आस पास हीरा व्यापार आयात/निर्यात योजना में केंद्रीय भूमिका निभाने का आरोप लगाया गया था। सीमा शुल्क कर चोरी, जाली आयात दस्तावेज और अवैध कोयला आयात के आरोप में उन्हें बाद में दो बार गिरफ्तार किया गया था। उनके इतिहास को देखते हुए, बाद में उन्हें अडानी समूह में प्रबंध निदेशक के रूप में सेवा देने के लिए पदोन्नत क्यों किया गया?

2-गौतम अडानी के बहनोई, समीर वोरा पर डीआरआई द्वारा हीरा व्यापार घोटाले के सरगना होने और नियामकों को बार-बार झूठे बयान देने का आरोप लगाया गया था। उनके इतिहास को देखते हुए, उन्हें बाद में अडानी ऑस्ट्रेलिया डिवीजन के कार्यकारी निदेशक के रूप में पदोन्नत क्यों किया गया?

3- बिजली आयात के ओवर-इनवॉइसिंग की डीआरआई जांच के हिस्से के रूप में, अडानी ने दावा किया कि विनोद अडानी की “शेयर धारक को छोड़कर” किसी भी अडानी समूह की कंपनी में कोई भागीदारी नहीं थी। इस दावे के बावजूद, 2009 से अडानी पावर के लिए प्री-आईपीओ प्रॉस्पेक्टस ने विस्तार से बताया कि विनोद कम से कम 6 अडानी समूह की कंपनियों के निदेशक थे। क्या विनोद के बारे में नियामकों को दिए गए अडानी के मूल बयान झूठे थे?

4- अडानी समूह के साथ लेन-देन करने वाले सौदों और संस्थाओं पर सभी भूमिकाओं सहित, अडानी समूह में विनोद अडानी की भूमिका की आज तक की पूरी सीमा क्या रही है?

5-मॉरीशस स्थित संस्थाएं जैसे एपीएमएस इन्वेस्टमेंट फंड, क्रेस्टा फंड, एलटीएस इन्वेस्टमेंट फंड, एलारा इंडिया ऑपर्च्युनिटीज फंड और ओपल इन्वेस्टमेंट सामूहिक रूप से और लगभग विशेष रूप से अडानी-सूचीबद्ध कंपनियों में शेयर रखते हैं, कुल मिलाकर लगभग 8 बिलियन अमेरिकी डॉलर। यह देखते हुए कि ये संस्थाएं अडानी में प्रमुख सार्वजनिक शेयरधारक हैं, अडानी कंपनियों में उनके निवेश के लिए धन का मूल स्रोत क्या है?

6-सूचना के अधिकार के हालिया अनुरोध इस बात की पुष्टि करते हैं कि सेबी अडानी के विदेशी फंड स्टॉक स्वामित्व की जांच कर रहा है। क्या अडानी इस बात की पुष्टि कर सकते हैं कि यह जांच चल रही है और उस जांच की स्थिति के बारे में विवरण प्रदान कर सकते हैं?

7-किसी भी जांच के हिस्से के रूप में अब तक और किन नियामकों को क्या जानकारी प्रदान की गई है?

8-मॉन्टेरोसा इन्वेस्टमेंट होल्डिंग्स से जुड़ी संस्थाएं सामूहिक रूप से अडानी स्टॉक की केंद्रित होल्डिंग्स में कम से कम 4.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर की मालिक हैं। मॉन्टेरोसा के सीईओ ने भगोड़े हीरा व्यापारी जतिन मेहता के साथ 3 कंपनियों में निदेशक के रूप में काम किया, जिनके बेटे की शादी विनोद अडानी की बेटी से हुई है। मॉन्टेरोसा, इसके फंड और अडानी परिवार के बीच संबंध की पूर्ण सीमा क्या है?

9-जतिन मेहता के साथ अडानी समूह की कंपनियों और विनोद अडानी से जुड़ी किसी भी संस्था का लेन-देन कितना है?

10-अडानी के करीबी सहयोगी चांग चुंग-लिंग की अध्यक्षता वाली गुडामी इंटरनेशनल नामक अडानी की एक बार संबंधित पार्टी इकाई ने अडानी एंटरप्राइजेज और अडानी पावर को आवंटित मॉन्टेरोसा फंड में से एक में भारी निवेश किया। अडानी कंपनियों में मॉरीशस की प्रमुख शेयरधारक के रूप में मॉन्टेरोसा संस्थाएं बनी हुई हैं। अडानी सूचीबद्ध कंपनियों में एक संबंधित पक्ष इकाई द्वारा इस बड़े, केंद्रित निवेश के लिए अडानी का क्या कहना है?

11-मॉन्टेरोसा के प्रत्येक फंड और अडानी में उनके निवेश के लिए धन का मूल स्रोत क्या था?

12-इलारा के एक पूर्व व्यापारी, अडानी के शेयरों में लगभग 3 बिलियन डॉलर की केंद्रित होल्डिंग वाली एक फर्म, जिसमें एक फंड भी शामिल है, जो अडानी के शेयरों में 99% केंद्रित है, ने हमें बताया कि यह स्पष्ट है कि अडानी समूह शेयरों को नियंत्रित करता है। उन्होंने कहा कि धन की संरचना जानबूझकर उनके लाभकारी स्वामित्व को छिपाने के लिए डिज़ाइन की गई है। अडानी का जवाब क्या है?

13-लीक हुए ईमेल से पता चलता है कि इलारा के सीईओ ने केतन पारेख के साथी कुख्यात स्टॉक मैनिपुलेटर धर्मेश दोशी के साथ व्यवहार किया था, भले ही दोशी अपनी कथित हेर-फेर गतिविधि के लिए भगोड़ा हो गया था। यह देखते हुए कि इलारा अडानी के शेयरों के सबसे बड़े “सार्वजनिक” धारकों में से एक है, अडानी का इस रिश्ते पर क्या कहना है?

14-इलारा फंड और अडानी में उनके निवेश के लिए धन का मूल स्रोत क्या था?

15-अडानी ने अंतरराष्ट्रीय निगमन फर्म एमिकॉर्प के साथ बड़े पैमाने पर काम किया है, जिसने अपनी कम से कम 7 प्रवर्तक संस्थाओं की स्थापना की है, कम से कम 17 अपतटीय शेल और विनोद अडानी से जुड़ी संस्थाएं और अदानी स्टॉक के कम से कम 3 मॉरीशस-आधारित अपतटीय शेयरधारक हैं। पुस्तक बिलियन डॉलर व्हेल और अमेरिकी कानूनी मामले की फाइलों के साथ-साथ मलेशियाई भ्रष्टाचार-विरोधी आयोग की फाइलों के अनुसार, एमिकॉर्प ने 1MDB अंतरराष्ट्रीय धोखाधड़ी घोटाले में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एक प्रमुख अंतरराष्ट्रीय धोखाधड़ी और मनी लॉन्ड्रिंग स्कैंडल से निकटता के बावजूद अडानी ने एमीकॉर्प के साथ मिलकर काम करना क्यों जारी रखा है?

16-न्यू लीना एक साइप्रस-आधारित निवेश फर्म है, जिसके पास अडानी सूचीबद्ध कंपनियों के शेयरों में ~95% हिस्सेदारी है, जिसमें 420 मिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक शामिल हैं। इकाई एमिकॉर्प द्वारा संचालित है। न्यू लीना और अडानी में इसके निवेश के लिए धन का मूल स्रोत क्या था?

17-ओपल इन्वेस्टमेंट प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के 4.69% (फ्लोट के ~19% का प्रतिनिधित्व) के साथ अडानी पावर के शेयरों का सबसे बड़ा दावा किया गया स्वतंत्र धारक है। इसका गठन उसी दिन, उसी क्षेत्राधिकार (मॉरीशस) में विनोद अडानी से जुड़ी एक इकाई के रूप में एक ही छोटी निगमन फर्म (ट्रस्ट लिंक) द्वारा किया गया था। अडानी इसे कैसे समझाते हैं?

18-ओपल और अडानी में इसके निवेश के लिए धन का मूल स्रोत क्या था?

19- ट्रस्टलिंक के सीईओ अडानी के साथ अपने करीबी रिश्ते का दावा करते हैं। इसी ट्रस्टलिंक सीईओ पर पहले डीआरआई द्वारा अडानी के साथ शेल कंपनियों का उपयोग करके धोखाधड़ी में शामिल होने का आरोप लगाया गया था। डीआरआई जांच रिकॉर्ड में विस्तृत विवरण सहित ट्रस्ट लिंक के सीईओ के अडानी समूह के साथ लेन-देन का पूरा विवरण क्या है?

20-भारतीय एक्सचेंजों के डेटा के हमारे विश्लेषण और प्रति अडानी फाइलिंग के अनुसार ट्रेडिंग वॉल्यूम का खुलासा करने के अनुसार, अडानी स्टॉक में केंद्रित पदों वाली उपरोक्त नामित अपतटीय संस्थाओं की वार्षिक डिलीवरी वॉल्यूम में 30% -47% तक की हिस्सेदारी है, जो एक बड़ी अनियमितता है। अडानी समूह अपारदर्शी अपतटीय फंडों के इस केंद्रित समूह से अत्यधिक व्यापारिक मात्रा की व्याख्या कैसे करता है?

21-इस व्यापार की प्रकृति से पता चलता है कि ये संस्थाएं हेराफेरी में लिप्त व्यापार या जोड़ तोड़ व्यापार के अन्य रूपों में शामिल हैं। अडानी कैसे जवाब देता है?

22-वर्ष 2019 में, अडानी ग्रीन एनर्जी ने बिक्री के लिए दो पेशकशें (ओएफएस) पूरी कीं, जो यह सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण थीं कि इसके सार्वजनिक शेयरधारक 25% लिस्टिंग सीमा आवश्यकता से ऊपर थे। हमारी रिपोर्ट में नामित मॉरीशस और साइप्रस संस्थाओं सहित इन ओएफएस सौदों का कितना हिस्सा अपतटीय संस्थाओं को बेचा गया था?

23-भारतीय सूचीबद्ध कॉरपोरेट्स को एक साप्ताहिक शेयर होल्डिंग अपडेट प्राप्त होता है, जिसे जनता के सामने प्रकट नहीं किया जाता है, जो सौदों के आस-पास शेयर होल्डिंग परिवर्तनों का विवरण देगा। क्या अडानी ओएफएस सौदों में भाग लेने वाली अपतटीय संस्थाओं की पूरी सूची का विवरण देंगे?

24-अडानी ने ओएफएस पेशकशों को चलाने के लिए मोनार्क नेटवर्थ कैपिटल को चुना। एक अडानी निजी कंपनी की मोनार्क में एक छोटी स्वामित्व हिस्सेदारी है, और गौतम अडानी के बहनोई ने पहले फर्म के साथ मिलकर एक एयरलाइन खरीदी थी। ऐसा लगता है कि यह करीबी रिश्ता हितों का स्पष्ट टकराव पैदा करता है। अडानी कैसे जवाब देता है?

 25-अडानी ने पेशकश चलाने के लिए एक बड़े, सम्मानित ब्रोकर के बजाय, मोनार्क नेटवर्थ कैपिटल को क्यों चुना, जो एक छोटी फर्म थी जिसे पहले सेबी द्वारा बाजार में हेरफेर के आरोपों के कारण निलंबित और स्वीकृत किया गया था?

26- वर्ष 2021 में सार्वजनिक मंचों पर शेयर धारिता का मुद्दा उठने के समय ग्रुप सीएफओ रॉबी सिंह ने 16 जून 2021 को एनडीटीवी के एक साक्षात्कार में दावा किया था कि मॉरीशस के शेयरधारकों जैसे फंडों ने नया निवेश नहीं किया था और वर्टिकल डीमर्जर्स के जरिए अन्य अडानी शेयरों के मालिक बन गए थे। हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि यह लगभग निश्चित था कि मॉरीशस के शेयरधारकों ने अडानी ग्रीन में और निवेश किया। यह उस समय के साथ मेल खाता है जब सार्वजनिक शेयरधारिता मानदंडों को पूरा करने के लिए प्रमोटरों को अपनी शेयरधारिता को कम करना आवश्यक था। अडानी समूह इस नए साक्ष्य का जवाब कैसे देता है?

27-हमारे निष्कर्षों से संकेत मिलता है कि सेबी ने 1999 से 2005 के बीच अडानी के शेयरों में हेरफेर करने के लिए अडानी प्रमोटर्स सहित 70 से अधिक संस्थाओं और व्यक्तियों पर मुकदमा चलाया और उन पर मुकदमा चलाया। अडानी कैसे प्रतिक्रिया करता है?

28-सेबी के एक फैसले ने निर्धारित किया कि अडानी के प्रमोटरों ने अडानी एक्सपोर्ट्स (अब अडानी एंटरप्राइजेज) के शेयरों में हेराफेरी में केतन पारेख की सहायता की और उकसाया, यह दर्शाता है कि 14 अडानी निजी कंपनियों ने पारेख द्वारा नियंत्रित संस्थाओं को शेयर हस्तांतरित किए। अडानी भारत के सबसे कुख्यात सजायाफ्ता स्टॉक धोखेबाजों में से एक के साथ मिलकर अपने शेयरों में इस समन्वित, व्यवस्थित स्टॉक हेरफेर की व्याख्या कैसे करते हैं?

29-अपने बचाव में, अडानी समूह ने दावा किया कि उसने पारेख और मुंद्रा बंदरगाह पर वित्त संचालन के लिए उनके स्टॉक हेरफेर के प्रयासों को निपटाया था। क्या अडानी स्टॉक हेरफेर के माध्यम से पूंजी की निकासी को वित्त पोषण की एक वैध विधि के रूप में देखता है?

30-केतन पारेख के करीबी लोगों ने हमें बताया है कि वह अडानी सहित अपने पुराने ग्राहकों के साथ लेन-देन पर काम करना जारी रखते हैं। पारेख और अडानी समूह के बीच संबंध की पूर्ण सीमा क्या थी और क्या है, जिसमें विनोद अडानी के साथ किसी भी इकाई का संबंध शामिल है?

31-यह देखते हुए कि अडानी समूह के प्रवर्तक ऋणों के लिए संपार्श्विक के रूप में शेयर गिरवी रखते हैं, स्टॉक हेरफेर कृत्रिम रूप से ऐसे ऋणों के लिए संपार्श्विक और उधार आधार को नहीं बढ़ाएंगे, जिससे प्रवर्तकों के प्रतिपक्षों के लिए एक महत्वपूर्ण जोखिम पैदा हो जाएगा और प्रॉक्सी द्वारा, अडानी शेयरधारकों के हाथों नुकसान होगा। इक्विटी बिक्री के माध्यम से संपार्श्विक कॉल या डीलेवरेजिंग?

32-वर्ष 2007 में, इकोनॉमिक टाइम्स के एक लेख में एक सौदे का वर्णन किया गया था, जिसमें केतन पारेख से जुड़े एक भगोड़े धर्मेश दोशी द्वारा नियंत्रित ब्रोकरेज ने बीवीआई इकाई के लिए एक दवा कंपनी में शेयर खरीदे थे, जहां विनोद अडानी ने शेयरधारक और निदेशक के रूप में काम किया था। विनोद अडानी सहित धर्मेश दोषी और अडानी समूह के बीच संबंध की पूर्ण सीमा क्या थी और है?

33- एक भगोड़ा और वांछित बाजार जोड़तोड़ करने वाले धर्मेश दोशी द्वारा संचालित ब्रोकरेज इकाई जेर्मिन कैपिटल के साथ लेनदेन के हिस्से के रूप में एक कथित यूएस $ 1 मिलियन प्राप्त करने वाली विनोद अडानी इकाई के लिए स्पष्टीकरण क्या है?

34-निवेशक आम तौर पर स्वच्छ और सरल कॉर्पोरेट संरचनाओं को पसंद करते हैं ताकि हितों के टकराव और लेखांकन विसंगतियों से बचा जा सके जो विशाल, जटिल संरचनाओं में दुबक सकते हैं। अडानी की 7 प्रमुख सूचीबद्ध संस्थाओं में सामूहिक रूप से 578 सहायक कंपनियां हैं और बीएसई के खुलासे के अनुसार अकेले वित्त वर्ष 2022 में कुल 6,025 अलग-अलग संबंधित-पार्टी लेनदेन में शामिल हैं। अडानी ने इस तरह के जटिल, आपस में जुड़े कॉर्पोरेट ढांचे को क्यों चुना है?

35-हमें विनोद अडानी और सुबीर मित्रा (अडानी निजी परिवार कार्यालय के प्रमुख) से जुड़ी कम से कम 38 मॉरीशस की संस्थाएं मिलीं। हमने विनोद अडानी से जुड़ी संस्थाओं को साइप्रस, यूएई, सिंगापुर और विभिन्न कैरिबियाई द्वीपों जैसे अन्य टैक्स हेवन न्यायालयों में भी पाया। इनमें से कई संस्थाओं ने लेन-देन के संबंधित पक्ष प्रकृति का खुलासा किए बिना अडानी संस्थाओं के साथ लेन-देन किया है, जो कानून का उल्लंघन प्रतीत होता है, जैसा कि हमारी रिपोर्ट में देखा गया है। इसका क्या स्पष्टीकरण है?

36-विनोद अडानी कितनी संस्थाओं से निदेशक, शेयरधारक या लाभार्थी स्वामी के रूप में जुड़े हुए हैं? इन संस्थाओं के नाम और अधिकार क्षेत्र क्या हैं?

37-अडानी साम्राज्य में निजी और सूचीबद्ध संस्थाओं के साथ विनोद अडानी से जुड़ी संस्थाओं के व्यवहार का पूरा विवरण क्या है?

38-हमें विनोद अडानी से जुड़ी 13 संस्थाओं के लिए वेबसाइटें मिलीं जो यह प्रदर्शित करने के लिए अल्प विकसित प्रयासों की तरह लगती हैं कि संस्थाओं का संचालन होता है।कई वेबसाइटों का ठीक उसी दिन गठन किया गया था और “विदेश में खपत” और “वाणिज्यिक उपस्थिति” जैसी निरर्थक सेवाओं के लिए सेट को सूचीबद्ध किया गया था। इनमें से प्रत्येक संस्था वास्तव में किस व्यवसाय या संचालन में संलग्न है?

39-विनोद अडानी से जुड़ी इकाई के लिए वेबसाइटों में से एक ने दावा किया कि “हम एक निर्माता और उपभोक्ता के बीच एक अमूर्त उत्पाद की बिक्री और वितरण जैसी सेवाओं में व्यापार करते हैं।” आखिर उसका क्या मतलब है?

40-एक विनोद अडानी-नियंत्रित मॉरीशस इकाई जिसे अब क्रुणाल ट्रेड एंड इंवेस्टमेंट कहा जाता है, ने एक निजी अडानी इकाई को INR 11.71 बिलियन (US ~$253 मिलियन) उधार दिया, बिना यह खुलासा किए कि यह एक संबंधित पार्टी ऋण है। अडानी इसकी कैसे व्याख्या कर सकते हैं?

41-इमर्जिंग मार्केट इन्वेस्टमेंट डीएमसीसी नामक एक विनोद अडानी-नियंत्रित यूएई इकाई ने लिंक्डइन पर किसी भी कर्मचारी को सूचीबद्ध नहीं किया है, उसकी कोई ठोस ऑनलाइन उपस्थिति नहीं है, उसने किसी ग्राहक या सौदे की घोषणा नहीं की है, और यह संयुक्त अरब अमीरात में एक अपार्टमेंट से बाहर है। इसने अडानी पावर की सहायक कंपनी को 1 बिलियन अमेरिकी डॉलर का कर्ज दिया। इमर्जिंग मार्केट इन्वेस्टमेंट डीएमसीसी फंड्स का स्रोत क्या था?

42-विनोद अडानी के नियंत्रण वाली साइप्रस इकाई वाकोडर इन्वेस्टमेंट्स के पास कर्मचारियों का कोई संकेत नहीं है, कोई ठोस ऑनलाइन उपस्थिति नहीं है, और कोई स्पष्ट संचालन नहीं है। अडानी की एक निजी संस्था में इसने 85 मिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश किया था, बिना इस बात का खुलासा किए कि यह एक संबंधित पार्टी थी। अडानी इसे कैसे समझाते हैं?

43-वाकोडर फंड का स्रोत क्या था?

44-हमने 2013-2015 से लेन-देन की एक श्रृंखला की पहचान की है, जिसके तहत इन सौदों की संबंधित पार्टी प्रकृति के प्रकटीकरण के बिना, सूचीबद्ध अडानी एंटरप्राइजेज की एक सहायक कंपनी से विनोद अडानी द्वारा नियंत्रित एक निजी सिंगापुर की इकाई को संपत्ति हस्तांतरित की गई थी। इस लेन-देन और प्रकटीकरण की कमी के लिए क्या स्पष्टीकरण है?

45-विनोद अडानी द्वारा नियंत्रित निजी सिंगापुर की इकाई ने हस्तांतरित संपत्तियों के मूल्य को लगभग तुरंत लिख दिया। अगर वे अभी भी अडानी एंटरप्राइजेज की किताबों में थे, तो संभवत: इसका परिणाम हानि और रिपोर्ट की गई शुद्ध आय में महत्वपूर्ण गिरावट होगी। इस बात का क्या स्पष्टीकरण है कि इन संपत्तियों को लिखे जाने से पहले एक निजी अघोषित संबंधित पार्टी को क्यों स्थानांतरित किया गया था?

46-हमने पाया कि एक “सिल्वर बार” व्यापारी, जो बिना किसी वेबसाइट के निवास पर स्थित है और संचालन के कोई स्पष्ट संकेत नहीं हैं, एक वर्तमान और पूर्व अडानी निदेशक द्वारा चलाए जा रहे हैं, ने निजी अडानी इंफ्रा को INR 15 बिलियन (US $202 मिलियन) उधार दिया, जिसका कोई खुलासा नहीं किया गया एक संबंधित पार्टी लेनदेन होने के नाते। आवश्यक प्रकटीकरण की कमी के लिए स्पष्टीकरण क्या है?

47-ऋण का उद्देश्य क्या था, और “सिल्वर बार” व्यापारी के धन का मूल स्रोत क्या था?

48-गार्डेनिया ट्रेड एंड इंवेस्टमेंट्स एक मॉरीशस-आधारित इकाई है जिसकी कोई वेबसाइट नहीं है, लिंक्डइन पर कोई कर्मचारी नहीं है, कोई सोशल मीडिया उपस्थिति नहीं है, और कोई स्पष्ट वेब उपस्थिति नहीं है। इसके एक निदेशक सुबीर मित्रा हैं, जो अडानी के निजी परिवार कार्यालय के प्रमुख हैं। इकाई ने निजी अडानी इन्फ्रा को INR 51.4 बिलियन (US $692.5 मिलियन) उधार दिया, जिसमें संबंधित पार्टी ऋण होने का कोई खुलासा नहीं किया गया। आवश्यक प्रकटीकरण की कमी के लिए स्पष्टीकरण क्या है?

49-ऋण का उद्देश्य क्या था, और गार्डेनिया ट्रेड एंड इंवेस्टमेंट फंड का मूल स्रोत क्या था?

50- माइलस्टोन ट्रेडलिंक्स, एक और दावा किया गया चांदी और सोने का व्यापारी, जो अडानी समूह के एक लंबे समय से कर्मचारी और अडानी कंपनियों के एक पूर्व निदेशक द्वारा चलाया जाता है, ने अडानी इंफ्रा में 7.5 बिलियन (US $101 मिलियन) का निवेश किया। एक बार फिर इनसे संबंधित पार्टी ऋण होने का कोई खुलासा नहीं हुआ। आवश्यक प्रकटीकरण की कमी के लिए स्पष्टीकरण क्या है?

51-ऋण का उद्देश्य क्या था, और माइलस्टोन ट्रेडलिंक्स फंड का मूल स्रोत क्या था?

52-ग्रोमोर ट्रेड एंड इन्वेस्टमेंट नामक एक अन्य गुप्त मॉरीशस इकाई ने अडानी पावर के साथ स्टॉक विलय के माध्यम से रातों रात यूएस ~$423 मिलियन का लाभ कमाया। अदालत के रिकॉर्ड के अनुसार, ग्रोमोर को चांग चुंग-लिंग द्वारा नियंत्रित किया जाता है, एक व्यक्ति जिसने विनोद अडानी के साथ एक आवासीय पता साझा किया था और डीआरआई धोखाधड़ी के आरोपों में एक प्रमुख मध्यस्थ इकाई के निदेशक के रूप में नामित किया गया था, जो अडानी एंटरप्राइजेज से धन निकालने के लिए इस्तेमाल किया गया था। अडानी परिवार के एक करीबी सहयोगी द्वारा नियंत्रित एक अपारदर्शी निजी संस्था को इस अप्रत्याशित लाभ के लिए क्या स्पष्टीकरण है?

53-चांग चुंग-लिंग के अडानी समूह और खासकर विनोद अडानी के साथ क्या रिश्ते हैं और उनके संबंधों की प्रकृति क्या है?

54-सूचीबद्ध अडानी कंपनियों ने बड़ी परियोजनाओं के निर्माण में मदद करने के लिए पिछले 12 वर्षों में निजी ठेकेदार पीएमसी प्रोजेक्ट्स को 63 अरब रुपये का भुगतान किया है। 2014 की डीआरआई जांच में पीएमसी प्रोजेक्ट्स को अडानी समूह के लिए एक “डमी फर्म” कहा गया। यह देखते हुए कि प्रमुख परियोजनाओं का निर्माण करना अडानी का व्यवसाय है, क्या पीएमसी प्रोजेक्ट्स वास्तव में सिर्फ एक “डमी फर्म” है?

55- पीएमसी प्रोजेक्ट्स की कोई वर्तमान वेबसाइट नहीं है। इसकी वेबसाइट के ऐतिहासिक कैप्चर से पता चलता है कि इसने अडानी कंपनी के साथ एक पता और फोन नंबर साझा किया था। कई कर्मचारी लिंक्डइन प्रोफाइल दिखाते हैं कि वे दोनों में एक साथ काम करते हैं। कई लोगों ने भ्रम व्यक्त किया कि क्या कोई अंतर था। क्या पीएमसी प्रोजेक्ट्स अडानी के लिए महज एक “डमी फर्म” है?

56-हाल ही में सामने आए स्वामित्व के रिकॉर्ड से पता चलता है कि पीएमसी प्रोजेक्ट्स का स्वामित्व विनोद अडानी के करीबी सहयोगी चांग चुंग-लिंग के बेटे के पास है, जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है। ताइवानी मीडिया की रिपोर्ट है कि बेटा “अडानी ग्रुप का ताइवान प्रतिनिधि” है। हमें एक आधिकारिक सरकारी कार्यक्रम में अडानी का चिन्ह पकड़े हुए उनकी तस्वीरें मिलीं, जहां उन्होंने अडानी का प्रतिनिधित्व किया था। एक बार फिर, क्या पीएमसी अडानी के लिए महज एक “डमी फर्म” है, जैसा कि सरकार ने पहले आरोप लगाया था?

57-यदि ऐसा है, तो दोनों में से किसी भी कंपनी ने आवश्यकता के अनुसार संबंधित पार्टी लेनदेन के रूप में अपने व्यापक लेनदेन की सूचना क्यों नहीं दी?

58- वित्त वर्ष 20 में, एड़ीकार्प एंटरप्राइसेस ने शुद्ध लाभ में केवल INR 6.9 मिलियन (US $97,000) उत्पन्न किया। उसी वर्ष, अडानी समूह की 4 कंपनियों की संस्थाओं ने इसे 87.4 मिलियन अमेरिकी डॉलर या आदिकॉर्प की शुद्ध आय के 900 से अधिक वर्षों के लिए उधार दिया था। ऐसा लगता है कि इन ऋणों का कोई वित्तीय अर्थ नहीं था। इन ऋणों को बनाने में हामीदारी प्रक्रिया और व्यावसायिक औचित्य क्या था?

59-एडिकॉर्प ने उन ऋणों में से लगभग 98% तुरंत अदानी पावर को सूचीबद्ध करने के लिए फिर से उधार दिया। क्या एडिकॉर्प का उपयोग अडानी समूह की अन्य संस्थाओं और साइड-स्टेप संबंधित पार्टी मानदंडों से चुपके से अडानी पावर में धन स्थानांतरित करने के लिए एक माध्यम के रूप में किया गया था?

60-सूचीबद्ध अडानी कंपनियों ने पिछले 5 वर्षों में निजी अडानी इकाई “अडानी इंफ्रास्ट्रक्चर मैनेजमेंट सर्विसेज” को 21.1 बिलियन (यूएस $260 मिलियन) का भुगतान क्यों किया है, यह देखते हुए कि सूचीबद्ध कंपनियों का व्यवसाय भी इन्फ्रास्ट्रक्चर का प्रबंधन कर रहा है?

61-सूचीबद्ध कंपनी अडानी एंटरप्राइजेज ने एक कंपनी को 100 मिलियन अमेरिकी डॉलर का भुगतान किया, जो अंततः ब्रिटिश वर्जिन आइलैंड्स (बीवीआई) में अडानी परिवार के निजी ट्रस्ट के पास थी, जो कि एक कुख्यात कैरेबियाई टैक्स हेवन था, जिसमें दावा किया गया था कि एक ऑस्ट्रेलियाई का उपयोग करने के लिए सुरक्षा जमा का भुगतान करना होगा। कोयला टर्मिनल। अडानी के निजी हितों के लिए सूचीबद्ध कंपनी को इतनी आकर्षक फीस देने की आवश्यकता क्यों थी?

62-अडानी एंटरप्राइजेज के पास 8 वर्षों के दौरान 5 मुख्य वित्तीय अधिकारी थे, जो संभावित लेखांकन अनियमितताओं का संकेत देने वाला एक प्रमुख लाल झंडा था। अडानी एंटरप्राइजेज को अपनी शीर्ष वित्तीय स्थिति के लिए किसी को बनाए रखने में इतना मुश्किल समय क्यों आया?

63-इनमें से प्रत्येक पूर्व सीएफओ के इस्तीफे या बर्खास्तगी के क्या कारण थे?

64-अडानी ग्रीन एनर्जी, अडानी पोर्ट्स और अडानी पावर में से प्रत्येक के पास 5 वर्षों में 3 सीएफओ थे, जबकि अडानी गैस और अडानी ट्रांसमिशन दोनों का पिछले 4 वर्षों के भीतर सीएफओ का कारोबार था। अडानी संस्थाओं ने अपने शीर्ष वित्तीय पदों पर व्यक्तियों को बनाए रखने के लिए संघर्ष क्यों किया है? इनमें से प्रत्येक पूर्व सीएफओ के इस्तीफे या बर्खास्तगी के क्या कारण थे?

65- इन सीएफओ की बर्खास्तगी और इस्तीफे के लिए क्या प्रमुख कारण रहे हैं?

66-अडानी एंटरप्राइजेज और अडानी गैस के लिए स्वतंत्र ऑडिटर शाह धनधरिया नामक एक छोटी फर्म है। इसकी वेबसाइट के ऐतिहासिक अभिलेखों से पता चलता है कि इसके केवल 4 भागीदार और 11 कर्मचारी थे। ऐसा लगता है कि वर्तमान में कोई वेबसाइट नहीं है। रिकॉर्ड बताते हैं कि यह मासिक कार्यालय किराए में INR 32,000 (2021 में US $ 435) का भुगतान करता है। केवल अन्य सूचीबद्ध इकाई हमने पाया कि इसका ऑडिट लगभग INR 640 मिलियन (US $ 7.8 मिलियन) का बाजार पूंजीकरण है। अडानी की सैकड़ों सहायक कंपनियों और हजारों परस्पर संबंधित सौदों के साथ सूचीबद्ध कंपनियों की जटिलता को देखते हुए, अडानी ने बड़े, अधिक विश्वसनीय लेखा परीक्षकों के बजाय इस छोटी और वस्तुतः अज्ञात फर्म को क्यों चुना?

67-अडानी गैस के वार्षिक ऑडिट पर हस्ताक्षर करने वाले शाह धनधरिया के ऑडिट पार्टनर की उम्र 23 वर्ष थी जब उन्होंने ऑडिट को मंजूरी देना शुरू किया। उसने अभी विश्वविद्यालय की पढ़ाई समाप्त की थी। क्या वह व्यक्ति वास्तव में दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्तियों में से एक द्वारा नियंत्रित एक फर्म की वित्तीय जांच करने और उसके खाते में रखने की स्थिति में है?

68-अडानी एंटरप्राइजेज के वार्षिक ऑडिट पर हस्ताक्षर करने वाले शाह धनधरिया के ऑडिट पार्टनर की उम्र 24 साल की थी, जब उन्होंने ऑडिट को मंजूरी देना शुरू किया। क्या वह व्यक्ति वास्तव में दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्तियों में से एक द्वारा नियंत्रित एक फर्म की वित्तीय जांच करने और उसके खाते में रखने की स्थिति में है?

69-अडानी गैस और अडानी एंटरप्राइजेज के वार्षिक ऑडिट पर हस्ताक्षर करने वाले ऑडिट पार्टनर अब दोनों 28 साल के हो गए हैं। फिर से, क्या वे विश्व के सबसे शक्तिशाली व्यक्तियों में से एक द्वारा नियंत्रित फर्मों की वित्तीय स्थिति की विश्वसनीय रूप से जांच करने और उन्हें लेखा-जोखा रखने की स्थिति में हैं?

70-एक अर्न्स्ट एंड यंग सहयोगी अडानी पावर के ऑडिटर ने अपने ऑडिट में एक “योग्य” राय दी, जिसमें कहा गया कि उसके पास अडानी पावर द्वारा आयोजित निवेश और ऋण में INR 56.75 बिलियन (यू.एस. ~ 700 मिलियन) के मूल्य का समर्थन करने का कोई तरीका नहीं था। इन निवेशों और ऋणों के मूल्यांकन के लिए अडानी पावर की पूरी व्याख्या क्या है?

71-अडानी पावर के निवेश और ऋणों के मूल्यांकन के किन हिस्सों से ऑडिटर असहमत थे?

72-अडानी पर डीआरआई और अन्य सरकारी एजेंसियों द्वारा धोखाधड़ी के कई आरोप लगाए गए हैं। 2004-2006 के हीरा घोटाले की जांच में, सरकार ने आरोप लगाया कि अडानी एक्सपोर्ट्स लिमिटेड (बदला हुआ अडानी एंटरप्राइजेज) और संबंधित संस्थाओं का निर्यात उद्योग समूह में अन्य सभी 34 फर्मों के कुल निर्यात का 3 गुना था। ट्रेडिंग वॉल्यूम में अचानक उछाल को अडानी कैसे समझाते हैं?

73-हीरे के निर्यात की जांच ने विनोद अडानी और यूएई, सिंगापुर और हांगकांग में संस्थाओं द्वारा निभाई गई भूमिका का भी प्रदर्शन किया, जिनका उपयोग धन और उत्पाद के आगे-पीछे के आवागमन को सुविधाजनक बनाने के लिए किया गया था। अडानी, विनोद अडानी से जुड़ी संस्थाओं के साथ हुए सभी लेन-देन की व्याख्या कैसे करता है?

74- वर्ष 2011 में, कर्नाटक राज्य के लिए संसदीय लोकपाल ने 466 पन्नों की एक रिपोर्ट जारी की जिसमें अडानी को लौह अयस्क के अवैध आयात से जुड़े 600 अरब रुपये (यू.एस. योजना की सुविधा में सरकार के स्तर। जांच और इन निष्कर्षों के हिस्से के रूप में पेश किए गए व्यापक सबूतों पर अडानी की प्रतिक्रिया क्या है?)

75- वर्ष 2014 में, डीआरआई ने एक बार फिर अडानी पर विनोद अडानी द्वारा नियंत्रित मध्यस्थ यूएई-आधारित शेल संस्थाओं का उपयोग करने का आरोप लगाया, इस मामले में बिजली उपकरणों के ओवर-इनवॉइसिंग के माध्यम से। क्या अडानी ने बिजली उपकरण ख़रीदने के लिए इलेक्ट्रोजेन इंफ़्रा एफजेडई जैसी यूएई स्थित संस्थाओं को इनवॉइस किया था? यदि हां, तो क्यों?

76-क्या उपकरण के लिए मूल खरीद मूल्य से कोई मार्कअप था? विनोद अडानी से जुड़ी संस्थाओं ने कौन सी सेवाएं प्रदान कीं जो एक मार्कअप को उचित ठहरातीं?

77-उसी डीआरआई जांच में पाया गया कि विनोद अडानी की मध्यस्थ संस्था ने मॉरीशस में एक निजी स्वामित्व वाली अडानी संस्था को ~$900 मिलियन भेजे। इन लेन-देन के लिए स्पष्टीकरण क्या है?

78-मॉरीशस में एक निजी अडानी इकाई को भेजे जाने के बाद इन लेन-देन का पैसा कहां गया?

79-डीआरआई जांच में विनोद अदानी मध्यस्थ इकाई के माध्यम से कई अन्य लेन-देन भी दर्ज किए गए, जिनकी आगे जांचकर्ताओं द्वारा जांच नहीं की गई थी। इन अन्य लेन-देन के लिए अडानी की व्याख्या क्या है?

80-एक अन्य घोटाले में, अडानी पर दुबई, संयुक्त अरब अमीरात, सिंगापुर और बीवीआई में शेल संस्थाओं के माध्यम से कोयले के आयात को अधिक महत्व देने का आरोप लगाया गया था। क्या अडानी ने इन न्यायालयों में संस्थाओं के साथ लेन-देन किया था? यदि हां, तो कौन-कौन से हैं और क्यों?

81- वर्ष 2019 में, सिंगापुर की इकाई पैन एशिया कोल ट्रेडिंग ने अडानी समूह द्वारा मंगाई गई कोयला आपूर्ति निविदा जीती। पैन एशिया कोल ट्रेडिंग की वेबसाइट अपने कोयला व्यापार अनुभव पर कोई विवरण प्रदान नहीं करती है, न ही यह कंपनी से जुड़े किसी एक व्यक्ति का नाम लेती है। अडानी समूह ने कोयले की आपूर्ति के लिए इतनी छोटी फर्म का चयन क्यों किया? इसके चयन के लिए कौन-सी उचित प्रक्रिया अपनाई गई?

82- कॉर्पोरेट रिकॉर्ड बताते हैं कि अडानी समूह की कंपनी के पूर्व निदेशक पैन एशिया के निदेशक और शेयरधारक थे। अडानी समूह ने लेन-देन में हितों के संभावित टकराव का खुलासा क्यों नहीं किया?

83-उसी वर्ष 2019 में कोयला सौदा हासिल करने के बाद, पैन एशिया कोल ट्रेडिंग ने सिंगापुर के कॉर्पोरेट रिकॉर्ड के अनुसार, अडानी समूह की एक निजी इकाई को 30 मिलियन अमेरिकी डॉलर उधार दिए। अडानी परिवार की एक निजी कंपनी ने सिंगापुर में एक छोटी एकल शेयर धारक इकाई से उसी समय पैसा क्यों लिया जब उसकी सूचीबद्ध कंपनी उसे कोयला आपूर्ति का सौदा दे रही थी?

84- साक्षात्कारों में, गौतम अडानी ने कहा है “मेरा आलोचना के प्रति बहुत खुला दिमाग है।” इसे देखते हुए, अडानी कर चोरी के आरोपों पर अपने लेखों के बाद अडानी ने आलोचनात्मक पत्रकार परंजय गुहा ठाकुरता को जेल में डालने की मांग क्यों की?

86-उसी इंटरव्यू में गौतम अडानी ने कहा था, “हर आलोचना मुझे खुद को बेहतर बनाने का मौका देती है।” इसे देखते हुए, 2021 में, अडानी ने अडानी के आलोचनात्मक वीडियो बनाने वाले यू ट्यूबर पर कोर्ट गैग ऑर्डर की मांग क्यों की? उसी साक्षात्कार में, गौतम अडानी ने कहा “मैं हमेशा आत्मनिरीक्षण करता हूं और दूसरों के दृष्टिकोण को समझने की कोशिश करता हूं।” इसे देखते हुए, अडानी समूह ने पत्रकारों और एक्टिविस्टों के खिलाफ कानूनी मुकदमे क्यों दायर किए हैं, जिसकी मीडिया वॉचडॉग ने निंदा की है?

 87-निजी जांचकर्ताओं द्वारा ऑस्ट्रेलिया में एक कार्यकर्ता का अनुसरण क्यों किया गया? अगर अडानी समूह के पास छिपाने के लिए कुछ नहीं है, तो उसे अपने छोटे से छोटे आलोचक के खिलाफ भी कानूनी कार्रवाई करने की आवश्यकता क्यों महसूस होती है?

88-क्या अडानी समूह वास्तव में खुद को एक मजबूत कॉर्पोरेट प्रशासन वाले संगठन के रूप में देखता है जो अपने नारे “अच्छाई के साथ विकास” को मूर्त रूप देता है?

(विजय शंकर सिंह)

Thursday 26 January 2023

हिंडनबर्ग रिसर्च रिपोर्ट पर एक संक्षिप्त टिप्पणी, अडानी की प्रतिक्रिया और हिंडनबर्ग का जवाब / विजय शंकर सिंह

अडानी समूह पर हिंडनबर्ग रिसर्च रिपोर्ट  एक दिलचस्प और लंबी रिपोर्ट है, जिसे पढ़ने में लगभग एक घण्टे का समय चाहिए। उसे लेकर लगातार प्रतिक्रियाएं आ रही है। पर ऐसा लगता है कि बहुत कम लोगों ने रिपोर्ट के निहितार्थों को पढ़ा और समझा है। रिपोर्ट का यह संक्षिप्त रूप, शांतनु बसु की एक टिप्पणी पर, साभार आधारित है। शांतनु बसु, कोई स्टॉक एक्सचेंज से जुड़े हुए व्यक्ति नहीं हैं, लेकिन उन्होंने, इस रिपोर्ट से कुछ तथ्यों को तार्किक रूप से अपनी पोस्ट मे रखा है। अंग्रेजी में लिखे उस रिपोर्ट के  सारांश पर यह टिप्पणी आधारित है। अडानी समूह की प्रतिक्रिया और हिंडनबर्ग रिसर्च का उत्तर शांतनु बसु की टिप्पणी से अलग है। 

भारत के कुछ अन्य बिजनेस समूहों के समान, अडानी बिजनेस समूह भी किसी भी परिवारिक बिजनेस मॉडल से अलग नहीं है। गौतम अडानी इस समूह के प्रमुख हैं। उनका परिवार, समूह के बिजनेस के लिए, आउटसोर्स एजेंटों के रूप में, काम करता है और इस तरह, इस समूह के विकास में अपना योगदान देता है। जिस बिजनेस समूह का आर्थिक आपराधिक इतिहास जितना ही बड़ा होगा, विशेष रूप से, दुनिया भर में, उस समूह के विस्तार की उतनी ही संभावना होगी।

गुजराती पूंजीपतियों का बिजनेस मॉडल लगभग एक ही तरह का है। इनके बिजनेस तरीके को समझना ज्यादा मुश्किल भी नहीं है। एसबीआई (स्टेट बैंक ऑफ इंडिया) जैसे इच्छुक ऋणदाता से, शुरुआती कर्ज ले और फिर इसे, समूह की अन्य कंपनियों के बीच, एलएलपी और अन्य निजी कंपनियों के नेटवर्क के बीच गोल गोल घुमाते रहे।

फिर कर्ज द्वारा मिले इन पैसों को, इस कंपनी से उस कंपनी में, समय समय पर जरूरत के मुताबिक स्थानांतरित करें, अलग-अलग समय (समान वित्तीय वर्ष के साथ) में प्रत्येक कंपनी के कैश बैलेंस को बढ़ाते हुए, स्टॉक की कीमतों को बढ़ाते रहें, और फिर विशेष रूप से, SBI और अन्य संस्थागत निवेशकों से और अधिक कर्ज की मांग करते रहें। वे तो देने के लिए बैठे ही हैं!

बिजनेस समूह की आय के लिए, इन्हें भी समूह की अन्य कंपनियों के नेटवर्क में शामिल कर लिया जाता है, और फिर इसे सूचीबद्ध समूह की कंपनियों में पुनर्निवेश किया जाता है।  फिर कर्ज में डूबे पी एंड एल खातों को किनारे करने के लिए, उपरोक्त के साथ, जोड़ कर, एक साथ पी एंड एल खाते को तैयार करते हैं। और ऐसा करके, निवेशक के मन में यह भ्रम उत्पन्न कर दिया जाता है कि, समूह की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ है। समूह, इसके बदले में, कभी भी ऋण डिफॉल्ट के बारे में सोचे बिना, निवेशकों/बैंकों से, अतिरिक्त धन उगाहने में लग जाता है। एक प्रकार से यह यह एक विशाल पौंजी Ponzi बिजनेस मॉडल की तरह है, जिसमें एक को कुछ देने के लिए दूसरे को लूटने की जरूरत आ पड़ती है।

इस तरह के बिजनेस मॉडल के लिए, कंपनियों के गंभीर ऑडिटर की भूमिका, एक 23-24 वर्ष की आयु के ऑडिट क्लर्कों से अलग नहीं होती हैं। इस तरह की ऑडिट से, लेखा खामियों के बारे में, सच्ची और निष्पक्ष राय प्राप्त करना आसान नहीं होता है। यह एक चिंतित करने वाला विंदु है।

अब देखते हैं, यह पोंजी कैसे काम करता है?  
बता दें, अडानी एंटरप्राइजेज ने एसबीआई से 100 मिलियन डॉलर कर्ज लिए हैं।  इसके बाद इस राशि को, वह अपनी बैलेंस शीट पर ले जाता है। फिर यह 'अधिशेष' को या तो समूह की कंपनियों या संदिग्ध कंपनियों के अपने नेटवर्क में पुनर्वितरित कर देता है। इस तरह से होने वाली आय, अपेक्षाकृत छोटे मूल्यवर्ग (जैसे, $10-15 मिलियन) में समायोजित कर दी जाती है और, जरूरत पड़ने पर अन्य कंपनियों के नकदी अनुपात और स्टॉक की कीमतों को बढ़ाने या स्थिर रखने के लिए, हस्तांतरण हेतु, एक आरक्षित पूल के रूप में भी कार्य करती है।

इस तरह का समायोजन या पूंजी हस्तांतरण, भारत या विदेशों में प्रवर्तन एजेंसियों के मन में, बिना कोई संदेह उपजाए किया जा सकता है। जब भी नकदी संतुलन और स्टॉक मूल्य को बढ़ाने की आवश्यकता होती है, यही पोंजी मॉडल अपनाया जाता है। इस बिजनेस मॉडल में, करचोरी या अन्य आर्थिक अपराध से हुई अर्जित आय को भी वैध बनाना मुश्किल नहीं है। नकली चालान बना देना, निर्यात के लिए अधिक और आयात के लिए कम उत्पाद के फर्जी काग़ज़ तैयार करना, इस बिजनेस मॉडल का एक तरीका बन गया है। इसके लिए, बिक्री योग्य उत्पाद का भौतिक अस्तित्व का होना भी जरूरी नहीं है। बस कागज़ का पेट भरना होता है।

यहां तक ​​कि अगर भारत सरकार की एजेंसियां ​​अडानी समूह की किसी गड़बड़ी को पकड़ भी लेती हैं, तो, सत्ता में बैठे, अडानी के संरक्षक यह सुनिश्चित कर लेते हैं कि, एजेंसियों की जांच निष्फल हो जाए। आखिर, इन्हीं आर्थिक अपराध के, कीचड़ भरे पैसों से ही तो, सत्ताधारी पार्टी चुनाव प्रचार का खर्च उठाती है!

जहां तक ​​नेटवर्क की अन्य कंपनियों का सवाल है, उनके बारे में, कुछ न कहना ही बेहतर होगा। इनमें से, लगभग अधिकांश के पास कोई  वेबसाइट तक नहीं है और जिनके पास है भी, उसमे, कार्यालय, कर्मचारी, आदि न्यून सूचनाओं के ही उल्लेख हैं। फिर भी इन संस्थाओं को अरबों डॉलर का ऋण मिलता रहता है क्योंकि, इनके सरपरस्त, गौतम अडानी है।

आखिर अडानी समूह एसबीआई और अन्य सरकारी बैंकों का पसंदीदा कर्जखोर  क्यों है? ऐसा इसलिए है, क्योंकि केवल सरकारी वित्तीय संस्थान ही हैं जो, अनियंत्रित रूप से असुरक्षित शेयरों की गारंटी (?) पर असीमित धनराशि उधार देने के लिए, तैयार बैठे हैं। कोई भी सरकारी बैंक, कर्ज देते समय,  कंपनी की बैलेंसशीट और पी एंड एल खातों और उनके सही मूल्यांकन को विस्तार से देखने की हिम्मत नहीं करता है। क्योंकि, कहीं ऐसा न हो कि वे अपनी नौकरी ही न खो दें। या हो सकता है, यहां तक ​​कि झूठे आरोपों में जेल न, भेज दिया जाए।

इसका परिणाम यह है कि इस समूह के लगभग 4 लाख करोड़ रुपये के ऋण का एक बड़ा हिस्सा बहुत कम अथवा बिना किसी संपत्ति के आधार पर दिया गया है।  समूह की संपत्ति का मूल्यांकन, मात्र एक कल्पना है।

आज जब अडानी के शेयरों ने ₹46000 करोड़ का नुकसान हुआ, तो कोई भी सरकारी बैंक, ऐसा नहीं है जो, इस समूह को 50% मार्जिन मनी देने के लिए कहे। डर है, कहीं ऐसा न हो कि सच सामने आ जाए और जनता सड़को पर आ जाए और एसबीआई या किसी अन्य सरकारी बैंकों में जहां जनता का खाता है, वे बदनाम न हो जाय।

इससे भी अधिक दिलचस्प बात यह है कि वित्तीय सेवा विभाग, एमओएफ या भारत सरकार जो सभी सरकारी बैंक, (उनके सीए की नियुक्ति, उनके वार्षिक खातों को मंजूरी देने और सभी निदेशकों और सीएमडी/सीईओ की नियुक्ति सहित) का अधीक्षण करता है, अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं करता है। खासकर जब, बैंकिंग अधिनियम के अनुसार, बैंको की ऑडिट, CAG (सीएजी) जिसके पास समस्त विभागों के ऑडिट का दायित्व है,  द्वारा किसी भी ऑडिट से मुक्त है तब, क्या बैंको के बोर्ड का यह दायित्व नहीं है कि, वह इस तरह के ऋण दान का संज्ञान लेकर विशेष ऑडिट कराए ?

बैंको, आरबीआई और सरकार ने कभी भी किसी सरकारी बैंक के इस ऋण दान के विशेष ऑडिट कराने का निर्देश नहीं दिया है, जो अडानी समूह को दिए गए ऋण के नियमों और शर्तों को जांच के दायरे में लेकर जांच और ऑडिट करता। क्या वित्तमंत्री से, संसद में, इस मसले पर जवाब नहीं मांगा जाना चाहिए? 

यह आम बात है कि, स्टॉक दलाल, शेयरों का व्यापार करते हैं और प्रत्येक शेयर की बिक्री पर अच्छा मार्जिन पाते हैं। जितना अधिक शेयर मूल्य, उतना ही अधिक उनका कमीशन। क्या राजनीतिक फंडिंग का एक हिस्सा, इस तरह के असहज किए जा सकने वाले, सवालों पर चुप्पी के लिए तो नहीं रखा जाता है?

14 साल के लिए सेबी द्वारा शेयर ट्रेडिंग से प्रतिबंधित किए जाने के बावजूद, केतन मेहता जैसा मेगा स्टॉक ऑपरेटर, प्रॉक्सी का उपयोग करके अपने पुराने ग्राहकों (जैसे अडानी) को बनाए रखते हुए अपने भारतीय व्यवसाय को पहले की ही तरह, सुविधाजनक रूप से, लंदन में रहते हुए चलाना जारी रखता है?

हिंडनबर्ग रिसर्च रिपोर्ट पर अडानी समूह की प्रतिक्रिया भी आ गई है। समूह की कानूनी शाखा ने एक मीडिया बयान जारी कर के जो कहा है उसका सारांश इस प्रकार है। मीडिया बयान की फोटो आप पढ़ सकते है।
अडानी समूह के बयान के अनुसार, 
" यह रिपोर्ट दुर्भावना से ग्रस्त है और जो तथ्य बताए जा रहे हैं, वे निराधार है। इस रिपोर्ट से, अडानी समूह, उसके शेयर धारक, निवेशकों में भ्रम फैला और इसका असर शेयर बाजार पर भी पड़ा। हिंडनबर्ग रिसर्च ग्रुप खुद ही भ्रम फैला कर लाभ लेना चाहता है। हम इस तरह के दुर्भावना से प्रेरित खुलासे से आहत है, यह एक विदेशी एजेंसी द्वारा, समूह के निवेशकों, शेयर धारकों को बरगलाने और अडानी समूह की प्रतिष्ठा को हानि पहुंचाने तथा, अडानी समूह के FPO (follow on Public Offering) को बेपटरी करने की साजिश है। हम भारतीय और अमेरिकी कानून में उन प्राविधानों के प्रति मशविरा कर रहें ताकि इस पर हमारे समूह द्वारा कानूनी कार्यवाही की जा सके।"

हिंडनवर्ग ने भी अडानी समूह के कानूनी विभाग के इस बयान पर अपना जवाब दिया है। उनका कहना है कि, 
"रिपोर्ट प्रकाशित होने के 36 घंटे बाद तक अडानी समूह ने हमारे द्वारा रखे गए तथ्यों के बारे में कुछ भी नहीं कहा है। रिपोर्ट के अंत में हमारे द्वारा सीधे तौर पर पूछे गए, 88 सवालों के जवाब भी, जो पारदर्शिता के संबंध में थे, नहीं दिए गए। 
बजाय इसके, जैसा कि, हमने उम्मीद की थी, अडानी विफर गए और हमें धमकियां देने लगे। दो साल की मेहनत, और 720 संदर्भों से, 32000 शब्दों और 106 पृष्ठों में तैयार की गई इस रिसर्च रिपोर्ट को, उन्होंने "unresearched" कह दिया और यह भी कहा कि, वे हमारे खिलाफ दंडात्मक कानूनी कार्यवाही करने के लिए, भारत और अमेरिका में कानूनी सलाह ले रहे हैं। 

कम्पनी द्वारा, कानूनी कार्यवाही करने की, दी जा रही धमकी के संबंध में, हमारा यह कहना है कि, हम किसी भी कानूनी कार्यवाही का स्वागत करेंगे और,  अपनी रिपोर्ट में दिए गए तथ्यों और निष्कर्षों के साथ है और यह उम्मीद करते हैं कि, कोई भी कानूनी कार्यवाही मेरिट के आधार पर होगी।

यदि अडानी सच में (कानूनी कार्यवाही के लिए) गंभीर हैं तो हम, जहां से हम काम करते हैं, उन्हे वहां पर मुकदमा दर्ज कराना चाहिए। हमारे पास दस्तावेजों की लंबी सूची है, और हम इस संदर्भ में कानूनी कार्यवाही की मांग करेंगे।"

(विजय शंकर सिंह)



Sunday 22 January 2023

नेताजी सुभाष जयंती पर....नेताजी सुभाष और साम्प्रदायिक राजनीति / विजय शंकर सिंह

सुभाष बाबू 1938 के कांग्रेस अधिवेशन में कांग्रेस के अध्यक्ष बने थे। उनके अध्यक्ष बनने के बाद ही कांग्रेस में वैचारिक संघर्ष भी छिड़ गया था। वे 1921 से 1940 तक कांग्रेस में रहे। फिर उनका कांग्रेस से मोहभंग हो गया। 1939 में उन्होंने फॉरवर्ड ब्लॉक नामक दल का गठन किया जो प्रगतिशील विचारों का था। यह दल आज भी है और वामपंथी दलों के संयुक्त मोर्चे में है। अध्यक्ष का चुनाव उन्होंने 1939 में भी भी लड़ा था। पर 1939 में विश्वयुद्ध के समय उनकी राय युद्ध के मसले पर गांधी जी से अलग थी। अतः 1939 के कांग्रेस अधिवेशन में अध्यक्ष का पद जीतने के बाद भी उन्होंने गांधी जी की सहमति न होने पर त्यागपत्र दे दिया था। उन्होंने पट्टाभि सीतारमैय्या को हराया था, जिनकी हार को गांधी जी ने अपनी हार कहा था। लेकिन जब वे1938 में कांग्रेस के अध्यक्ष बने तो उन्हें गांधी सहित सबका व्यापक समर्थन प्राप्त था। 1938 में जवाहरलाल नेहरू भी अध्यक्ष पद के दावेदार थे, पर गांधी जी के सहमति से सुभाष बाबू कांग्रेस के अध्यक्ष बने।

1937 के चुनावों में देश साम्प्रदायिक आधार पर कुछ कुछ बंटना शुरू हो गया था। जो दबा छुपा साम्प्रदायिक बिखराव था, वह अब सतह पर आ चुका था। मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान के रूप में एक नए मुस्लिम राज्य की कल्पना को मूर्त रूप देना तय कर लिया था, पर उसने उसका आकार, इलाका और नाम तय नहीं किया था और न ही औपचारिक प्रस्ताव ही पारित किया था। 1937 में ही एक और महत्वपूर्ण घटना घटी, जिसमे विनायक दामोदर सावरकर हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बने। उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम दो राष्ट्र हैं का यह सिद्धांत दे दिया था। अब इन दोनों धार्मिक आधार पर, राष्ट्र की मांग करने वाले, सावरकर और जिन्ना ने खुद को , हिन्दू और मुस्लिम समाज का  मुखिया और प्रवक्ता मान लिया । जिन्ना का प्रभाव तो मुसलमानों में बहुत था और लेकिन सावरकर की हिन्दू महासभा का प्रभाव कांग्रेस के मुक़ाबले हिंदुओं में नगण्य था। 1938 में जब सुभाष बाबू अध्यक्ष बने तो कांग्रेस को तीन प्रतिद्वंद्वियों से एक साथ लोहा लेना था। एक तो ब्रिटिश राज था ही दूसरे थे, सवारकर और जिन्ना के धर्मांध नेतृत्व । कांग्रेस के लिये बड़ी चुनौती जिन्ना थे जो बेहद जिद्दी, शातिर, मेधावी , अंग्रेज़ो के नज़दीक और मुस्लिमों के एक तबके में खासे लोकप्रिय थे। जब कि सावरकर की हिंदुओं पर बहुत अधिक पकड़ नहीं थी पर उन पर अंग्रेज़ मेहरबान थे। बाद में जब भारत छोड़ो आंदोलन 1942 में 9 अगस्त को शुरू हुआ तो, एक समय ऐसा आया कि दोनों धर्मांध द्विराष्ट्रवादी अंग्रेज़ो के कंधे पर बैठ गए और कांग्रेस व्यापक जनाधार रहते हुये भी कुछ समय के लिये नेपथ्य में चली गयी। ऐसे ही समय जब साम्प्रदायिकता का उभार सतह पर दिखने लगा था तो, सुभाष बाबू ने कांग्रेस का नेतृत्व 1938 में ग्रहण किया।

2014 में जब एनडीए सरकार सत्ता में आयी तो, तब सुभाष बाबू से जुड़ी सीक्रेट फाइल्स का मुद्दा बहुत तूल पकड़ा था। तब दक्षिणपंथी ताक़तों ने सुभाष को गांधी नेहरू  विरोधी और दक्षिणपंथी विचारधारा के समर्थक के रूप में पेश करने का षड्यंत्र किया। पर सुभाष दिल, दिमाग, परवरिश से लेश मात्र भी न तो साम्प्रदायिक थे और न ही दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रभावित थे। उनके लेखों के संग्रह में एक भी ऐसा लेख नहीं मिलता जिससे वे धर्मान्धता से संक्रमित नज़र आयें । हिन्दू महासभा से उनका विरोध जग जाहिर था। उनका मतभेद गांधी, नेहरू से भी था, पर यह विरोध सांप्रदायिक मुद्दे पर नहीं बल्कि द्वीतीय महायुद्ध में अंग्रेज़ो के खिलाफ क्या रणनीति अपनाई जाय इस पर था।

सुभाष बोस ने अपने भाषणों और लेखों में कांग्रेस के हिंदुओं को राष्ट्रवादी हिन्दू और हिन्दू महासभा से जुड़े हिंदुओं को सांप्रदायिक हिन्दू बार बार कहा है। उन्होंने ऐसा क्यों विभाजन किया ? यह सवाल उठ सकता है। ऐसा करने का आधार, बंगाल की परिस्थितियां थी। बंगाल में मुस्लिम लीग का अच्छा खासा प्रभाव पहले से था और उसकी प्रतिक्रिया में  वहां हिन्दू महासभा का भी प्रभाव बढ़ने लगा था। 1905 के बंग भंग और 1906 में ढाका में मुस्लिम लीग की स्थापना के बाद बंगाल का साम्प्रदायिकरण होना शुरू हो गया था। लेकिन कांग्रेस का प्रभाव जनता पर कम नहीं हुआ था। 1938 में कांग्रेस के अध्यक्ष बनने के बाद सुभाष बोस ने पहला काम यह किया कि उन्होंने कांग्रेस के सदस्यों को हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग की सदस्य्ता ग्रहण करने पर रोक लगा दी। दोहरी सदस्यता के खिलाफ प्रतिबंध का यह पहला मामला था। वे हिन्दू महासभा को मुस्लिम लीग के बरक्स रख कर ही देखते थे। ' हिन्दू महासभा इन कोलोनियल नार्थ इंडिया' नामक पुस्तक जो प्रभु बापू द्वारा लिखी गयी है के पृष्ठ 40 पर लिखा यह अंश पढ़ें
"सुभाष बोस की अध्यक्षता में कांग्रेस ने 16 दिसम्बर 1938 को एक प्रस्ताव पास किया जिसमें कांग्रेस के सदस्यों को हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग के सदस्य होने पर रोक लगा दी गयी।"

1939 में कांग्रेस छोड़ने के बाद, उन्होंने फॉरवर्ड ब्लॉक ( अग्रगामी दल ) का गठन किया। यह दल साम्राज्यवाद के विरोध में गठित हुआ था, और वामपंथी विचारों का था। सुभाष यह चाहते थे 1939 में विश्वयुद्ध की शुरुआत होते ही अंग्रेज़ों को यह चेतावनी दे दी जाय कि 6 माह में वे भारत को आज़ाद करें। ब्रिटेन के समक्ष धुरी राष्ट्रों की चुनौती का वह राजनीतिक रणनीति के रूप में दोहन करना चाहते थे। हरिपुरा कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में ब्रिटेन को चुनौती पर जो प्रस्ताव उन्होंने पारित कराया, उसमें यह कहा गया कि,
"हरिपुरा कांग्रेस ने जो प्रस्ताव पारित किया था उसमें ब्रिटेन को 6 माह का अल्टीमेटम, भारत को आज़ाद करने के संबंध में निर्णय लेने के लिये दिया गया था। अगर ऐसा नहीं होता है तो फिर विद्रोह होगा। लेकिन गांधी जी इस से सहमत नहीं हुए। सुभाष ने अहिंसा और सत्याग्रह के रास्ते को भी , ब्रिटिश राज को उखाड़ फेंकने के लक्ष्य प्राप्ति हेतु, स्वीकार नहीं किया था। यही वह मुख्य कारण था कि सुभाष और गांधी जी के बीच मतभेद हो गए।"
यह प्रकरण मिहिर बोस द्वारा लिखी, द लॉस्ट हीरो और डॉ पट्टाभि सीतारमैया द्वारा लिखे गए कांग्रेस का इतिहास, पुस्तकों में विस्तार से दिया गया है।

सुभाष का रास्ता तभी अलग होने लगा था। उन्होंने सत्याग्रह और अहिंसा का पथ तो छोड़ दिया पर वे कांग्रेस के धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत पर अंत तक अडिग रहे। उनके लिये साम्प्रदायिकता देश की एकता, अखंडता और प्रगति की सबसे बड़ी शत्रु थी और प्रगति की राह में, बाधक थी। उधर कांग्रेस की प्रांतीय सरकारों ने, बिना कांग्रेस सरकार की सहमति के, भारत को युद्ध मे शामिल करने के ब्रिटिश राज के  निर्णय के विरुद्ध सामूहिक रूप से त्यागपत्र  दे दिया था और सरकारे गिर गयी। अंततः कांग्रेस सुभाष की ही नीतियों, कि, विश्वयुद्ध के समय, ब्रिटिश राज पर आज़ादी के लिये दबाव डाला जाय, उन्ही पर आयीं।

सुभाष बाबू ने अपने दल फारवर्ड ब्लॉक के नाम से एक साप्ताहिक पत्र भी निकाला था । जिसके संपादकीय लेख " कांग्रेस एंड कम्युनल ऑर्गेनाइजेशन " में , वे हिन्दू महासभा के बारे में लिखते हैं,
"बहुत समय से कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग जैसे साम्प्रदायिक दलों के सदस्य हो सकते थे। लेकिन वर्तमान समय मे ये दोंनो दल और अधिक साम्प्रदायिक हो गए हैं। इसके फलस्वरूप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने एक प्रस्ताव पारित कर के अपने संविधान में संशोधन कर दिया कि कोई भी व्यक्ति जो हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग का सदस्य न हो कांग्रेस का सदस्य हो सकता है।"
(संदर्भ - नेताजी कलेक्टेड वर्क्स, खंड 10, पृष्ठ 98 )
यह सुभाष बोस का हिन्दू महासभा के प्रति दृष्टिकोण था। उन्होंने दोनों ही दलों हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग को अपने लेखों और भाषणों में साम्प्रदायिक कहा और माना है।

राजनीति संभावनाओं का खेल है। एक दिलचस्प प्रकरण भी मिलता है जब सुभाष बाबू ने कलकत्ता कॉरपोरेशन के चुनाव में ब्रिटिश वर्चस्व को चुनौती देने के लिये हिन्दू महासभा के साथ स्थानीय स्तर पर तालमेल का भी प्रयास किया। पर हिन्दू महासभा ने सुभाष बोस के प्रस्ताव को ठुकरा दिया था। यह बात उन्होंने 1940 में ही अपने पत्र फारवर्ड ब्लॉक में लिखा था। सुभाष यह चाहते थे कि हिन्दू महासभा का साथ ले कर कलकत्ता कॉरपोरेशन में वे ब्रिटिश वर्चस्व को तोड़ सकेंगे। पर हिन्दू महासभ ने यह प्रस्ताव ठुकरा दिया था। बोस ने हिन्दू महासभा के इस कदम पर कहा था,
"महासभा, कांग्रेस के साथ लड़ने में अधिक रुचि दिखा रही थी बनिस्बत की ब्रिटिश का विरोध करने के । "
संपादकीय का यह अंश पढ़ें।
"हिन्दू महासभा के कुछ नेताओं जिनके प्रति मेरे मन मे  व्यक्तिगत रूप से बहुत सम्मान था, साथ ही हिन्दू महासभा के कुछ कार्यकर्ताओं ने चुनाव के समय हमें बहुत निराश और व्यथित किया। हिन्दू महासभा ने नीतिगत रूप से चुनाव नहीं लड़ा।"
आगे वे लिखते हैं,
"इतना ही नहीं, हिन्दू महासभा के प्रत्याशियों में वे तत्व अधिक थे, जिन्होंने म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन में कांग्रेस को तोड़ने का काम किया और अंत मे उन्होंने ब्रिटिश पार्षदों और कुछ नामांकित सदस्यों के साथ मिल कर एक मोर्चा बना लिया। उनका यह कदम बताता है कि भविष्य में वे क्या कदम उठाएंगे।"
वे यह भी लिखते हैं,
"ऐसे साक्ष्य मौजूद हैं, जिनसे यह प्रमाणित होता है कि हिन्दू महासभा ने हर उस अवसर का लाभ उठाया है जिससे कांग्रेस को नीचा देखना पड़े और कॉर्पोरेशन में ब्रिटिश वर्चस्व बना रहे।
(संदर्भ - नेताजी कलेक्टेड वर्क्स, खंड 10, पृष्ठ 88-9)
(Reference : Netaji Collected Works, Volume 10, Pg 88–90)

यहां यह ध्यान में रखने की बात है कि हिन्दू महासभा के अध्यक्ष ( 1937 - 43 ) वीडी सावरकर थे । सावरकर का ब्रिटिश आकाओं की तरफ झुकाव जग जाहिर था। जब डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी हिन्दू महासभा में आये तो उन्होंने अपनी डायरी में एक रोचक प्रसंग प्रस्तुत किया है। डॉ मुखर्जी भी बंगाल के बड़े प्रतिष्ठित और प्रबुद्ध परिवार के थे। वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति भी रह चुके थे। पर सुभाष बोस से उनका साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर बहुत टकराव था। अपनी डायरी में डॉ मुखर्जी लिखते हैं,
"एक बार बोस उनसे मिले थे, और यह कहा था कि, यदि आप हिन्दू महासभा को एक राजनीतिक दल के रूप में गठित करते हैं तो मैं देखूंगा , ( कैसे गठित करते हैं ) यदि आवश्यकता पड़ी तो बल प्रयोग से भी यदि यह सच मे गठित होती है तो इसे तोड़ डालूंगा।"

हिन्दू महासभा के 1937 में सावरकर के अध्यक्ष बनने के बाद इसे कांग्रेस के समानांतर एक राजनीतिक दल के रूप में स्थापित करने के प्रयास के संदर्भ में दिया गया यह उद्धरण है। डॉ शयमा प्रसाद मुखर्जी महासभा को बंगाल में, एक मजबूत राजनीतिक दल के रूप में स्थापित करना चाहते थे। बंगाल की राजनैतिक परिस्थितियों में सांप्रदायिकता का जहर अधिक फैल गया था। वहां यह हिन्दू समाज मे ध्रुवीकरण करने की एक साजिश थी। सुभाष इस तथ्य को समझ गए थे। वे कांग्रेस से बाहर ज़रूर थे और अपनी एक नयी पार्टी फॉरवर्ड ब्लॉक उन्होंने बना भी लिया था पर वे यह बिल्कुल नहीं चाहते थे कि मुस्लिम लीग के समानांतर हिन्दू महासभा स्थापित हो और बंगाल का साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण हो। वे मुस्लिम लीग और सावरकर दोनो की धर्म केंद्रित नीतियों के विरोधी थे।
डॉ मुखर्जी के इस कथन कि, सुभाष बोस ने हिन्दू महासभा को रोकने के लिये बल प्रयोग करने की बात कही है को सुभाष बोस ने स्वीकार भी किया है। इसी संदर्भ में बलराज मधोक , जो स्वयं उस समय हिन्दू महासभा के एक नेता थे, के लिखे इस अंश को पढ़ें,

"सुभाष चन्द्र बोस, ने हिन्दू महासभा की सभी जन सभाओं में व्यवधान डालने की अपने समर्थकों की सहायता से योजना बनाई। उन्होंने कहा कि उनके समर्थक महासभा की सभाएं नहीं होने देंगे और महासभा को सभा नहीं करने देंगे और ज़रूरत पड़ी तो पीटेंगे भी। डॉ मुखर्जी इसे सहन नहीं कर पाए और उन्होंने एक सभा का आयोजन किया जिसमे उन्हें भाषण देना था। जैसे ही डॉ मुखर्जी सभा मे भाषण देने के लिये खड़े हुए तभी एक पत्थर उन्हें भीड़ से आ लगा और उनके माथे से खून निकलने लगा।"
यह प्रसंग बलराज मधोक जो डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ भारतीय जनसंघ के संस्थापक थे की आत्मकथा में है।

नेताजी, वीडी सावरकर की हिंदू महासभा और एमए जिन्ना की मुस्लिम लीग के साम्प्रदायिक और विभाजनकारी चाल, चरित्र चेहरे को समझ गए थे। यह दोनों दल, किसी धार्मिक उद्देश्य से नहीं बने थे, बल्कि धर्म के नाम पर एक ऐसी राजनीति कर रहे थे, जिसका परिणाम घातक हो सकता था और परिणाम, घातक ही नही, विनाशकारी सिद्ध हुआ। यह एक प्रकार से, दोहरी सदस्यता पर पहला ऐतराज था। सुभाष भारत की बहुलतावादी संस्कृति से परिचित थे और सामरदायिक राजनीति का क्या दुष्परिणाम हो सकता है इस से वे अच्छी तरह से समझते थे। आज जब देश मे साम्प्रदायिकता का जहरीला वातावरण जानबूझकर बनाया जा रहा है, तो सुभाष के सेक्युलर मूल्य स्वाभाविक रूप से प्रासंगिक हो गए हैं। 

( विजय शंकर सिंह )

कॉलेजियम के मीटिंग मिनिट्स को सार्वजनिक करना एक उचित और साहसिक निर्णय है / विजय शंकर सिंह

न्यायाधीशों के पास अपने पक्ष में जनमत बनाने के लिए मीडिया के माध्यम से जनता तक जाने की स्वतंत्रता नहीं है, जो विधायिका, कार्यपालिका तथा एक सामान्य नागरिक को आसानी से सुलभ है। ऐसा पहली बार हुआ है कि, सुप्रीम कोर्ट ने, अपने कॉलेजियम प्रस्तावों के माध्यम से, तीन प्रमुख नामों- सौरभ किरपाल, सोमशेखर सुंदरेसन, और आर जॉन सत्यन को क्रमशः दिल्ली उच्च न्यायालय, बॉम्बे उच्च न्यायालय और मद्रास उच्च न्यायालय में नियुक्ति के लिए पुन: सिफारिश करते हुए, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और समलैंगिक अधिकारों पर सरकार को, कानून की नई व्याख्या से, प्रशिक्षित किया। और यह सब भी किसी सीलबंद लिफाफे में नहीं बल्कि अपनी वेबसाइट पर, तर्कों और तथ्यपूर्ण व्याख्या सहित किया गया।

दिनांक 20 जनवरी को, सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम, जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश, डीवाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस संजय किशन कौल और केएम. जोसेफ भी शामिल थे, की बैठक हुई। उनपर, उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्त के लिए, उपयुक्त नामों की सिफारिश करने का दायित्व था।  कॉलेजियम की इस बैठक के बाद, पहले सुझाए गए कुछ नामों को, दुबारा सरकार को, विभिन्न उच्च न्यायालयों में नियुक्ति के लिए भेजा गया। कॉलेजियम द्वारा की गई किसी सिफारिश को दुबारा भेजे जाने का अर्थ है कि, कार्यपालिका (सरकार) द्वारा व्यक्त की गई आपत्तियों के आलोक में, पिछली सिफारिश पर पुनर्विचार करने के बाद, कॉलेजियम को उन आपत्तियों में कोई ऐसा तथ्य नहीं मिला, जिसे कॉलेजियम निरस्त कर दे। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के अनुसार, जजों की नियुक्ति के लिए, कॉलेजियम द्वारा दुबारा भेजी गई सिफारिश,  कार्यपालिका के लिए बाध्यकारी है। 

पिछले कई महीनों से सरकार के विभिन्न मंत्री तथा उपराष्ट्रपति द्वारा जिस तरह से न्यायपालिका पर सार्वजनिक रूप से हमले हो रहे हैं, उसे देखते हुए, यह साफ कहा जा सकता है कि, सरकार और न्यायपालिका के बीच सबकुछ सहज नहीं चल रहा है। उपराष्ट्रपति ने तो सुप्रीम कोर्ट के, कार्यपालिका के फैसलों की न्यायिक समीक्षा के अधिकार और शक्तियों पर ही सवाल उठा दिया जबकि सुप्रीम कोर्ट, संविधान के कस्टोडियन के रूप में कार्यपालिका ही नहीं, संसद यानी विधायिका द्वारा पारित किसी भी कानून, यहां तक कि संवैधानिक संशोधनो की भी न्यायिक समीक्षा करने के लिए संविधान द्वारा शक्ति संपन्न और अधिकृत है। केशवानंद भारती के मामले में 13 जजों की बेंच ने तो, संसद की सर्वोच्चता के बावजूद, यह व्यवस्था दी है कि, संसद, संविधान के मूल ढांचे में कोई परिवर्तन या संशोधन करने के लिए सक्षम नहीं है।  

अक्सर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया जिसे कॉलेजियम सिस्टम कहा जाता है, पर पारदर्शिता के अभाव के आरोप लगते रहे हैं। लेकिन, सरकार द्वारा, पहली बार की गई सिफारिशों के वापस लौटा देने के बाद, कुछ जजों के नाम की सिफारिश, दुबारा क्यों की जा रही है, इसके कारणों को या यूं कहें कि, कॉलेजियम के मीटिंग के मिनिट्स, इस बार सुप्रीम कोर्ट ने अपनी वेबसाइट पर सार्वजनिक कर दिए गए हैं। कोई भी व्यक्ति, उन कारणों को देख और पढ़ सकता है। यह एक अभूतपूर्व और समयानुकूल निर्णय है। हालांकि, पहले की गई, किसी सिफारिश की पुनरावृत्ति, उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया का, केवल एक हिस्सा है, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने अपने दूसरे न्यायाधीशों के मामले (1993) में परिकल्पित किया था।  लेकिन इस बार की पुनरावृत्ति, कई मामलों में महत्वपूर्ण है कि,  पहली बार, कॉलेजियम ने सार्वजनिक डोमेन में सिफारिशों के तर्कपूर्ण पुनरावृत्तियों को अपलोड करना उचित समझा है। न्यायपालिका के अनुसार, इसका उद्देश्य कार्यपालिका को किसी खराब रोशनी में दिखाना नहीं है, बल्कि इसका उद्देश्य, कार्यपालिका की पिछली प्रवृत्ति के आलोक में कॉलेजियम के दोहराव की खूबियों की व्याख्या करना और उसे पारदर्शी बनाना है। 

स्पष्ट है कॉलेजियम, अपनी स्थिति जनता के सामने साफ करना चाहता है ताकि पारदर्शिता के अभाव का जो आरोप इधर, अक्सर कॉलेजियम पर, लगाया जा रहा है, उसे सुप्रीम कोर्ट, तथ्यों और तर्कों द्वारा, विधिक रूप से, स्पष्ट कर सके। पहले जो कॉलेजियम थे, उन्होंने, दुबारा सिफारिशें कम की और यदि सरकार ने कोई सिफारिश वापस कर भी दी, या उसे लंबित रखी, तो उस पर बहुत अधिक दबाव नहीं दिया। यह एक प्रकार से सरकार के अघोषित वीटो को स्वीकार करना था। हो सकता है, तब के सीजेआई और कॉलेजियम, सरकार से कोई विवाद नहीं चाहते हों। तब सरकार की तरफ से कॉलेजियम की कोई मुखर आलोचना भी नहीं की जाती थी। नए सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में, मौजूदा कॉलेजियम, अब इस आरोप, कि, सारा कार्य व्यापार, अपारदर्शी तरह से हो रहा है, की छाया से बाहर आ गया है और उसने, जो जैसी स्थिति है, उसे वैसे ही सार्वजनिक पटल पर रखने का स्वागतयोग्य कार्य किया है।  

ऐसा करने में कॉलेजियम की कोई हानि भी नहीं है, बल्कि इस पारदर्शिता से, उनकी विश्वसनीयता ही बढ़ेगी। यदि कार्यपालिका, कॉलेजियम द्वारा दुबारा भेजे गए सिफारिशों का अनुपालन नहीं करती है, तो, लोगों की राय, कार्यपालिका के प्रति विपरीत तो होगी है, और यह सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना भी होगी, क्योंकि, कॉलेजियम द्वारा दुबारा भेजी गई सिफारिश, सरकार के लिये बाध्यकारी है। तब अनावश्यक रूप से न्यायपालिका और कार्यपालिका का विवाद सार्वजनिक पटल पर आयेगा, जो किसी के लिए भी भला नहीं होगा। सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय, जनमत के बढ़ते प्रभाव का परिणाम है। तेजी से आगे बढ़ती और बदलती दुनिया में पारदर्शिता का, अपना एक अलग महत्व है।

जिन कुछ महत्वपूर्ण सिफारिशों को, दुबारा भेजा गया है उनके बारे में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गये कारण और तर्क, को पढ़ा जाना चाहिये। वरिष्ठ अधिवक्ता सौरभ किरपाल को दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत करने की सिफारिश की पुनरावृत्ति का एक कारण यह है कि, "किसी के यौन पसंदगी या आदत के आधार पर, क्या उसके साथ कोई भेदभाव हो सकता है।"
दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में सौरभ कृपाल की पदोन्नति का महत्व इसलिए भी है कि, यह एक अभूतपूर्व परिस्थितियों और उनकी निजी यौनरुचि पर आधारित निर्णय है। हालांकि, इस नियुक्ति को, दक्षिण अफ्रीका के संवैधानिक न्यायालय के न्यायमूर्ति एडविन कैमरन की नियुक्ति के समानांतर भी देखा जा रहा है। उल्लेखनीय है कि, इस सिफारिश से पहले सौरभ किरपाल ने खुद को, खुले तौर पर समलैंगिक घोषित किया है। इस विंदु पर, कॉलेजियम यह सवाल उठाता है कि, "संविधान के अनुच्छेद 15(1) के तहत भारत का समृद्ध न्यायशास्त्र इस बात का एक अतिरिक्त कारक है कि, किरपाल की नियुक्ति सिफारिश को मानने में सरकार द्वारा की गई, अत्यधिक देरी अनुचित क्यों है?" 
अनुच्छेद 15(1) के शब्द - कि 'राज्य किसी भी नागरिक के खिलाफ केवल धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा, के आधार पर, कॉलेजियम ने, किरपाल की नियुक्ति की दुबारा सिफारिश की है। कॉलेजियम का कहना है कि, "लिंग या यौनरुचि के आधार पर, इस तरह का भेदभाव नहीं किया जा सकता है। यह संविधान के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा।"

 न्यायशास्त्र और संविधान पर,  कल्पना कन्नबीरन ने एक बेहद महत्वपूर्ण और सारगर्भित  पुस्तक लिखी है, 'टूल्स ऑफ जस्टिस: गैर-भेदभाव और भारतीय संविधान'। यह किताब साल, 2012 में, प्रकाशित हुई है। कल्पना के अनुसार, "मौलिक अधिकार से सम्बंधित, अनुच्छेद 15 (1) में प्रयुक्त वाक्यांश, 'या उनमें से कोई' - का अर्थ 'केवल' से अलग है।" कल्पना ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि, "वाक्यांश 'या उनमें से 'कोई' स्पष्ट रूप से निहित है कि, राज्य केवल सूचीबद्ध आधारों पर और, किसी भी सूचीबद्ध आधारों पर - एकवचन या बहुवचन में, और कारकों के साथ किसी भी सूचीबद्ध सूचकांक के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। यानी जो विंदु सूची में शामिल नहीं हैं, और वे जो बड़े संदर्भ की ओर इशारा करते हैं, उन्हें भी इस विंदु में शामिल किया जा सकेगा।"
हालांकि  2018 में नवतेज सिंह जौहर मामले में अपना फैसला सुनाए जाने तक, सुप्रीम कोर्ट ने कल्पना कन्नाबिरन की न्यायशास्त्र की इस थीसिस को शामिल नहीं किया था। अब जाकर छह साल बाद, सुप्रीम कोर्ट ने इस व्याख्या को, अपनी पुनः सिफारिश का आधार बनाया है। 

हालांकि, सरकार ने, कॉलेजियम द्वारा की गई, किरपाल की नियुक्त सिफारिश न मानने और नियुक्त करने से इनकार करने पर, नवतेज सिंह जोहर के मामले का उल्लेख करते हुए अपनी बात रखी थी। कॉलेजियम द्वारा दुबारा की गई इस सिफारिश में, यह स्पष्ट किया गया है कि, किरपाल को दोहरी अयोग्यता का सामना करना पड़ा, एक लिंग (यहां समलैंगिक यौनरुचि) के आधार पर भेदभाव और दूसरे अन्य आधार। यह 'दूसरा' आधार, फिर अनुच्छेद 15 के तहत सूचीबद्ध नहीं था, लेकिन, उसके मूल में निहित है। दूसरा विंदु जो सरकार ने उठाया, वह है, किरपाल का एक, विदेशी नागरिक को अपने साथी के रूप में रखना। नवतेज सिंह जौहर मामले में, अदालत ने इस विवाद को जोरदार तरीके से खारिज कर दिया, क्योंकि अदालत के विचार में, "लिंग के आधार पर भेदभाव, स्वभाव से, अंतर्विरोधी है, और इसलिए, उसे अन्य भेदभावपूर्ण विशेषताओं से अलग नहीं किया जा सकता है। जब यौनरूचि में भेदभाव, कानूनन रद्द मान लिया गया है तो फिर साथी चुनने के अधिकार पर किसी प्रतिबंध को कैसे माना जा सकता है।"

शब्द लिंग केवल जेंडर का ही बोध नहीं कराता है। इसकी व्याख्या, जेंडर से भी व्यापक है। बोस्टॉक बनाम क्लेटन काउंटी के मुकदमे में 2020 में, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के 6:3 के फैसले से पता चलता है कि शब्द "लिंग", "यौन अभिविन्यास" या यौनरुचि और "ट्रांसजेंडर स्थिति" एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, जिससे यौन अभिविन्यास या ट्रांसजेंडर स्थिति के आधार पर भेदभाव करना असंभव हो जाता है। यह सामान्य सेक्स से अलग है, और इस तरह सेक्स के आधार पर किये जाने वाले भेदभाव को कानूनी सुरक्षा से, वंचित नहीं किया जा सकता है। बोस्टॉक मामले की ही तरह, यूएस सुप्रीम कोर्ट ने दो अन्य मामलों पर भी विचार किया, जिनमें से प्रत्येक जज ने समान भेदभावपूर्ण व्यवहार पर चिंता जताई। बोस्टॉक मामले में, गेराल्ड बोस्टॉक को समलैंगिक सॉफ्टबॉल लीग में भाग लेने के बाद, उसकी नौकरी से निकाल दिया गया था। इसी तरह, एल्टीट्यूड एक्सप्रेस, इंक. बनाम ज़र्दा के मामले में, डोनाल्ड ज़र्दा को, एक ग्राहक के सामने अपने समलैंगिक होने का खुलासा करने के तुरंत बाद, नौकरी से निकाल दिया गया था। एक अन्य मामला, आरजी एंड जीआर हैरिस फ्यूनरल होम्स बनाम समान रोजगार अवसर आयोग में, एक कर्मचारी जिसने, पहले खुद को पुरुष के रूप में प्रस्तुत किया था, को उसके नियोक्ता को सूचित करने के बाद निकाल दिया गया था कि, उसने लिंग परिवर्तन सर्जरी से गुजरने की प्रत्याशा में, महिला के रूप में खुद को प्रस्तुत करना शुरू करने की, योजना बनाई थी। यह तीन मामले अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के, महत्वपूर्ण मामले है, जिनका आधार कॉलेजियम ने, किरपाल की पुनः सिफारिश करते समय लिया है। 

बोस्टॉक मामले में, न्यायालय ने 1964 के नागरिक अधिकार अधिनियम के शीर्षक VII का आधार लिया और उसकी व्याख्या की, जो किसी कर्मचारी की जाति, रंग, धर्म, लिंग या राष्ट्रीय मूल के कारण होने वाले रोजगार के भेदभाव को रोकता है। कंजरवेटिव न्यायाधीश, न्यायमूर्ति नील गोरसच द्वारा लिखे गए बहुमत के फैसले ने 1964 में सांसदों के इरादों पर विचार करने से इनकार कर दिया, जो शायद अलग हो सकता था।  शीर्षक VII का पाठ यौन अभिविन्यास या लिंग पहचान के आधार पर रोजगार भेदभाव को स्पष्ट रूप से प्रतिबंधित करता है, यह निष्कर्ष, जस्टिस गोरसच ने निकाला। बोस्टॉक मामले में यूएस सुप्रीम कोर्ट का फैसला इस दृष्टिकोण को पुष्ट करता है कि, किसी मामले के तथ्यों पर विचार करते समय न्यायाधीशों के पक्षपाती होने की संभावना नहीं होती है।  

किरपाल की पदोन्नति पर, कॉलेजियम के प्रस्ताव में, केंद्रीय कानून मंत्री को उनके 1 अप्रैल, 2021 के पत्र के हवाले से उद्धृत किया गया है: “हालांकि भारत में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है, फिर भी समान-लिंग विवाह अभी भी या तो संहिताबद्ध वैधानिक कानून या असंहिताबद्ध व्यक्तिगत कानून में मान्यता से वंचित है।" 
प्रस्ताव में आगे कानून मंत्री के हवाले से कहा गया है कि, "उम्मीदवार की "समलैंगिक अधिकारों के लिए उत्साही भागीदारी और भावुक लगाव" पूर्वाग्रह और पूर्वाग्रह की संभावना से इंकार नहीं करेगा।"
इस पर कॉलेजियम, ने यूएस सुप्रीम कोर्ट का उल्लेख किया, जहां न्यायाधीश, अपने राजनीतिक दलीय झुकाव के लिये जाने जाते हैं और अमेरिका में, यह उनकी नियुक्ति का आधार भी होता है, और कहा, "यह बताने की जरूरत है क्या, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में, जहां नौ न्यायाधीशों में से प्रत्येक की राजनीतिक निष्ठा अच्छी तरह से जानी जाती है, जिसके आधार पर राष्ट्रपति ने उन्हें नियुक्त किया था, दो कंजरवेटिव न्यायाधीश (जस्टिस गोरसच और मुख्य न्यायाधीश जॉन रॉबर्ट्स) जिनके राजनीतिक आकाओं ने अतीत में LGBTQI अधिकारों के लिए कोई स्पष्ट सहानुभूति नहीं दिखाई थी, भी बोस्टॉक मामले में एक निष्पक्ष दृष्टिकोण ले सकते हैं। क्या कानून मंत्री की आशंका का कोई औचित्य है कि, किरपाल के न्यायिक फैसले (जज के रूप में यदि वे नियुक्त हो जाते हैं तो) पूर्वाग्रह से ग्रस्त हो सकते हैं?"  
कॉलेजियम ने किरपाल के संवैधानिक रूप से प्राप्त अधिकारों की ओर ध्यान आकर्षित किया, और यह माना कि, उनकी नियुक्ति समावेश और विविधता प्रदान करेगी।

इसी तरह के दो और, दुबारा भेजे जाने वाले मानले हैं, सोमशेखर सुंदरेसन, आरजॉन सथ्यन के। सोमशेखर  सुंदरेसन को बॉम्बे हाईकोर्ट के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत करने की अपनी सिफारिश को कोलेजियम द्वारा दुबारा भेजे जाने से यह स्पष्ट हो जाता है कि "सोशल मीडिया पर, किये गए उनके पोस्ट्स के लिए, वे जिम्मेदार तो हैं, पर यह उनकी अयोग्यता का कारण नहीं है। सोशल मीडिया पर की गई उनकी गतिविधियां, यह अनुमान लगाने का कोई आधार प्रस्तुत नहीं करती हैं कि, वह पक्षपाती होंगे।" 
सरकार के न्याय विभाग का यह विचार कि, "वह सरकार की महत्वपूर्ण नीतियों, फैसलों और निर्देशों पर, सोशल मीडिया पर चुनिंदा रूप से आलोचनात्मक रहते हैं," कॉलेजियम द्वारा, उचित ही, इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि, "किसी के द्वारा विचारों की अभिव्यक्ति, उसे संवैधानिक पद पर, नियुक्ति के लिए अयोग्य नहीं बनाती है।" कॉलेजियम ने इस तथ्य पर ध्यान आकर्षित किया कि, "सुंदरसन के विचार मजबूत वैचारिक झुकाव वाले किसी भी राजनीतिक दल के साथ किसी भी तरह के संबंध की ओर झुकाव का संकेत नहीं देते हैं।"

एक अन्य एडवोकेट, आर. जॉन सत्यन की सिफारिश, सरकार ने इस लिये लौटा दी थी कि, इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) ने उनके विरुद्ध प्रतिकूल रिपोर्ट दी थी। केंद्र सरकार ने, उसी इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए, उनका नाम खारिज कर दिया था। जिस आईबी रिपोर्ट का हवाला देते हुए केंद्र सरकार ने, उनका नाम खारिज कर दिया था, में अंकित है कि, "आर जॉन सत्यन ने, क्विंट वेबसाइट में प्रकाशित एक लेख साझा किया था, जो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के संबंध में लिखा गया था। उन्होंने ने द क्विंट में प्रकाशित इस तरह के एक लेख के साथ-साथ, 2017 में एक मेडिकल आकांक्षी की आत्महत्या को 'राजनीतिक विश्वासघात' और 'भारत की शर्म' के रूप में चित्रित करने वाली एक अन्य पोस्ट भी साझा की थी।"
इस पर, कॉलेजियम ने अपने ताजा बयान में कहा, "आईबी की रिपोर्ट में कहा गया है कि, उनका कोई राजनीतिक झुकाव नहीं है। इस पृष्ठभूमि में, आईबी की प्रतिकूल टिप्पणियां उनके द्वारा किए गए, सोशल मीडिया पोस्ट से, निकाली गई हैं। वेबसाइट, 'द क्विंट' में प्रकाशित एक लेख को, उनके द्वारा साझा करना और एक अन्य पोस्ट से उनकी राजनैतिक  प्रतिबद्धता समझ लेना, उचित नहीं है। 2017 में एक मेडिकल आकांक्षी उम्मीदवार द्वारा आत्महत्या करने से श्री सत्यन की उपयुक्तता, चरित्र या अखंडता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।"

16 फरवरी, 2022 को, भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना की अध्यक्षता वाले कॉलेजियम ने छह वकीलों - निदुमोलू माला, सुंदर मोहन, कबाली कुमारेश बाबू, एस सौंथर, अब्दुल गनी अब्दुल हमीद, और आर जॉन सत्यन के नामों की सिफारिश की थी। यह, मद्रास हाईकोर्ट कॉलेजियम द्वारा 2021 में शीर्ष अदालत से सिफारिश करने के बाद किया गया। जबकि अन्य नामों को मंजूरी दे दी गई थी और उन्हें उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के रूप में नियुक्त भी किया जा चुका था, सत्यन और हमीद के नाम वापस भेज दिए गए थे। कॉलेजियम ने खुलासा किया कि, "उस समय के परामर्शदाता जजों - जस्टिस संजय किशन कौल, इंदिरा बनर्जी, वी रामासुब्रमण्यम और एमएम सुंदरेश - ने सत्यन को पदोन्नति के लिए उपयुक्त पाया था।"
इसने आगे कहा कि "उनकी एक अच्छी व्यक्तिगत और पेशेवर छवि है, और उनकी ईमानदारी के खिलाफ कुछ भी प्रतिकूल नहीं है।"

कोलेजियम ने सत्यन के हाईकोर्ट नियुक्ति प्रस्ताव को दुबारा भेजा है,
 "कॉलेजियम आगे अनुशंसा करता है कि उन्हें मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के रूप में नियुक्ति के लिए इस कॉलेजियम द्वारा आज अलग से अनुशंसित कुछ नामों पर न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के मामले में वरीयता दी जाए।"
क्या एक लेख जो पीएम के बारे में किसी वेबसाइट पर छपा हो को, यदि कोई एडवोकेट साझा कर देता है और एक लेख जो एक मेडिकल आकांक्षी छात्रा की खुदकुशी पर, उसे राजनीतिक विश्वासघात और भारत के लिए शर्म की बात कह कर अपनी भावना जाहिर करता हो तो क्या उसका यह आचरण, हाईकोर्ट के न्यायाधीश के लिए अनुपयुक्त माना जाएगा ? सरकार ने आईबी रिपोर्ट के साफ साफ यह लिखने के बावजूद कि सत्यम का कोई राजनैतिक झुकाव नहीं है, केवल दो लेख साझा करने पर, (यह लेख किसी अन्य लेखक ने लिखे हैं) कॉलेजियम की सिफारिश को, 2017 से ही, रोक रखा है। कॉलेजियम के प्रस्तावों के माध्यम से सार्वजनिक डोमेन में सरकार या इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) इनपुट की आपत्तियों को उजागर करना कॉलेजियम के लिए अभूतपूर्व है। अब यह सिफारिश दूसरी बार की गई है, और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार, यह अनुशंसा सरकार के लिए बाध्यकारी होगी।

जजों की नियुक्ति के इतिहास में सन 1973 में जस्टिस कृष्णा अय्यर की नियुक्ति और उसके विरोध का एक रोचक मामला भी है। जस्टिस कृष्णा अय्यर को, 1973 में, सरकार, न्यायाधीश के रूप में नियुक्त करना चाहती थी, और उनकी नियुक्ति हुई भी, पर उनका विरोध इस आधार पर हुआ कि वे घोषित वामपंथी थे, और मुकदमो की सुनवाई के दौरान, उनकी राजनीतिक विचारधारा, उन्हें पक्षपातरहित निर्णय देने के दायित्व को प्रभावित कर सकती है। जस्टिस कृष्णा अय्यर के खुले वामपंथी झुकाव को उनकी पदोन्नति पर, किसी अन्य ने नहीं, बल्कि प्रसिद्ध एडवोकेट, सोली जे सोराबजी ने आपत्ति की थी। सोराबजी, ने, हालांकि, बाद में यह स्वीकार किया कि, उनकी यह धारणा गलत साबित हुई कि, जस्टिस अय्यर पक्षपाती होंगे। 

कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के रूप में अमितेश बनर्जी और शाक्य सेन को पदोन्नत करने की अपनी सिफारिशों को दोहराते हुए, कॉलेजियम ने रेखांकित किया है कि, "सरकार का न्याय विभाग, एक ही प्रस्ताव को बार-बार वापस भेजने के लिए नहीं गठित है, विशेषकर उस प्रस्ताव को, जिसे, कॉलेजियम ने विधिवत विचार करने के बाद दुबारा सरकार को भेज दिया है। सरकार की आपत्तियों पर, कॉलेजियम ने सरकार को बार-बार, की गई सिफारिशों की स्थिति के संबंध में, सही कानूनी स्थिति को स्पष्ट कर एक अच्छा कदम उठाया है। यहां यह भी याद दिलाना उचित है, कि, दुबारा भेजी गईं सिफारिशें, सरकार के लिए बाध्यकारी हैं। यह तथ्य कि भारत के महान्यायवादी को, इस संदर्भ के आलोक में अलग तरीके से सोचने की कोई गुंजाइश नहीं है।" एडवोकेट एसोसिएशन ऑफ बैंगलोर द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस कौल की अध्यक्षता वाली पीठ को आर. वेंकटरमणी ने सुझाव दिया था।

(विजय शंकर सिंह)

Friday 20 January 2023

दिल्ली में पहलवानों का धरना और कुश्ती संघ का विवाद / विजय शंकर सिंह

राष्ट्रीय कुश्ती संघ के प्रमुख और सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ यौन शौषण के कुछ आरोपों को लेकर, कुछ बड़े और अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में भाग ले चुके पहलवान और महिला पहलवान दिल्ली के जंतर मंतर पर धरने पर बैठे हैं। 

बृजभूषण, गोंडा से 6 बार सांसद रह चुके हैं और उनका और उनके परिवार का इलाके में प्रभाव है। यह बात सही है कि, वे बाहुबली हैं और उन पर आपराधिक धाराओं में मुकदमे भी दर्ज है। पर बाहुबली और आपराधिक इतिहास का होना, सांसद या जनप्रतिनिधि बनने की कोई अयोग्यता तो है नही। कैबिनेट में तो आपराधिक इतिहास वाले एमपी भी मंत्रीपद पर सुशोभित हैं। 

अब रहा सवाल, यौन शौषण का। बृजभूषण शरण को मै, जितना निजी तौर पर जानता हूं, उसके अनुसार, मुझे इस तरह के आरोप पर संशय है। मार पीट देना, हड़का देना, आदि के बारे में मुझे कोई संशय नहीं है। यह उनके स्वभाव का अंग हो सकता है। उनके इस अमर्यादित आक्रामक आचरण की निंदा होती है और,  किसी भी, किसी के भी, अमर्यादित आचरण की निंदा की भी जानी चाहिए। 

लेकिन, उनके ऊपर, यौन शौषण का आरोप यदि किसी महिला खिलाड़ी ने लगाया है तो उसे, इस आरोप की जांच के लिए आगे आना चाहिए। सरकार को, इस गंभीर आरोप की जांच करानी चाहिए। जांच कैसे और किसके द्वारा हो, यह भी सरकार को ही तय करना है। 

बृजभूषण इधर बाबा रामदेव को लेकर भी चर्चा में रहे हैं। उन्होंने रामदेव की दवाइयों और उत्पादों की गुणवत्ता पर, भी कुछ बयान दिए थे। रामदेव आज से विवादित नहीं हैं। जमीन के कब्जे से लेकर, वैद्य बालकिशन के फर्जी वैद्यक की डिग्री से होते हुए अपने अनेक उत्पादों के लैब टेस्टिंग के विफल पाए जाने तक, उन पर बराबर विवाद उठता रहा है, और अब भी वे इन विवादों और आरोपों से मुक्त नहीं हैं। क्या हालिया विवादों की पृष्ठभूमि में, कही रामदेव के बारे में दिए गए, बृजभूषण शरण के बयान तो नहीं हैं। इसे भी देखा जाना चाहिए। 

उनसे कुश्ती संघ से इस्तीफा देने की मांग की जा रही है। यौन शौषण के आरोप और कुश्ती संघ से इस्तीफा दोनो अलग अलग मामले हैं। यदि उनके कार्यकाल में कुश्ती संघ में कोई अनियमितता, पक्षपात या भ्रष्टाचार हुआ है तो सरकार इस मामले की जांच कराकर उन्हें हटने के लिए कह सकती है। पर किसी महिला खिलाड़ी का यौन शौषण एक अलग और गंभीर आपराधिक मामला है।  

अखबारों के अनुसार, बृजभूषण ने अपने ऊपर लगाए आरोपौ की जांच की मांग की है। जब इतने दिनों से, यह पहलवान जंतर मंतर में अपनी व्यथा लिए बैठे हैं तो, उनकी बात सुनी जानी चाहिए। खिलाड़ी किसी भी जाति, प्रदेश या धर्म का हो, वह किसी भी अंतर्राष्ट्रीय खेल आयोजन में देश का प्रतिनिधित्व करता है, न कि, अपनी जाति बिरादरी, धर्म या प्रदेश का। सरकार को इस मामले को गंभीरता से लेना चाहिए। हर धरना प्रदर्शन प्रतिरोध पर शतुरमुर्गी चुप्पी अनुचित है। 

(विजय शंकर सिंह)

Thursday 19 January 2023

क्या प्रधानमंत्री पर लिखे लेख को साझा और खुदकुशी के मामले पर नाराजगी जाहिर करना, हाईकोर्ट के जज लिए, कोई अनुपयुक्तता है? / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने एडवोकेट आर जॉन सत्यन को मद्रास हाईकोर्ट के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत करने के अपने प्रस्ताव को दुबारा, केंद्र सरकार को भेजा है। उनका नाम पहले भी भेजा गया था, पर केंद्र सरकार ने इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए, उनका नाम खारिज कर दिया था।

जिस आईबी रिपोर्ट का हवाला देते हुए केंद्र सरकार ने, उनका नाम खारिज कर दिया था, में अंकित है कि, "आर जॉन सत्यन ने, क्विंट वेबसाइट में प्रकाशित एक लेख साझा किया था जो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के संबंध में लिखा गया था। उन्होंने ने द क्विंट में प्रकाशित इस तरह के एक लेख के साथ-साथ, 2017 में एक मेडिकल आकांक्षी की आत्महत्या को 'राजनीतिक विश्वासघात' और 'भारत की शर्म' के रूप में चित्रित करने वाली एक अन्य पोस्ट भी साझा की थी।"

इस पर, कॉलेजियम ने अपने ताजा बयान में कहा,
 "आईबी की रिपोर्ट में कहा गया है कि उनका कोई राजनीतिक झुकाव नहीं है। इस पृष्ठभूमि में, आईबी की प्रतिकूल टिप्पणियां उनके द्वारा किए गए पोस्ट के संबंध में निकाली गई हैं। यानी 'द क्विंट' में प्रकाशित एक लेख को साझा करना और एक अन्य पोस्ट से उनकी  प्रतिबद्ध समझ लेना उचित नहीं है। 2017 में एक मेडिकल आकांक्षी उम्मीदवार द्वारा आत्महत्या करने से श्री सत्यन की उपयुक्तता, चरित्र या अखंडता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।"

16 फरवरी, 2022 को, भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना की अध्यक्षता वाले कॉलेजियम ने छह वकीलों - निदुमोलू माला, सुंदर मोहन, कबाली कुमारेश बाबू, एस सौंथर, अब्दुल गनी अब्दुल हमीद, और आर जॉन सत्यन के नामों की सिफारिश की थी। यह, मद्रास हाईकोर्ट कॉलेजियम द्वारा 2021 में शीर्ष अदालत से सिफारिश करने के बाद किया गया। जबकि अन्य नामों को मंजूरी दे दी गई थी और उन्हें उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के रूप में नियुक्त भी किया जा चुका था, सत्यन और हमीद के नाम वापस भेज दिए गए थे।

कॉलेजियम ने खुलासा किया कि, "उस समय के परामर्शदाता जजों - जस्टिस संजय किशन कौल, इंदिरा बनर्जी, वी रामासुब्रमण्यम और एमएम सुंदरेश - ने सत्यन को पदोन्नति के लिए उपयुक्त पाया था।"
इसने आगे कहा कि "उनकी एक अच्छी व्यक्तिगत और पेशेवर छवि है, और उनकी ईमानदारी के खिलाफ कुछ भी प्रतिकूल नहीं है।"

कोलेजियम ने सत्यन के हाईकोर्ट नियुक्ति प्रस्ताव को दुबारा भेजा है,
 "कॉलेजियम आगे अनुशंसा करता है कि उन्हें मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के रूप में नियुक्ति के लिए इस कॉलेजियम द्वारा आज अलग से अनुशंसित कुछ नामों पर न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के मामले में वरीयता दी जाए।"

क्या एक लेख जो पीएम के बारे में किसी वेबसाइट पर छपा हो को, यदि कोई एडवोकेट साझा कर देता है और एक लेख जो एक मेडिकल आकांक्षी छात्रा की खुदकुशी पर, उसे राजनीतिक विश्वासघात और भारत के लिए शर्म की बात कह कर अपनी भावना जाहिर करता हो तो क्या उसका यह आचरण, हाईकोर्ट के न्यायाधीश के लिए अनुपयुक्त माना जाएगा ?

सरकार ने आईबी रिपोर्ट के साफ साफ यह लिखने के बावजूद कि सत्यम का कोई राजनैतिक झुकाव नहीं है, केवल दो लेख साझा करने पर, (यह लेख किसी अन्य लेखक ने लिखे हैं) कॉलेजियम की सिफारिश को, 2017 से ही, रोक रखा है। अब यह सिफारिश दूसरी बार की गई है, और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार, यह अनुशंसा सरकार के लिए बाध्यकारी होगी। 

(विजय शंकर सिंह)

Sunday 15 January 2023

जोशीमठ त्रासदी (4) चारधाम यात्रा मार्ग पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी, इस संकट को बढ़ा सकता है / विजय शंकर सिंह

मिश्र कमेटी रिपोर्ट 1976, जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, करेंट साइंस के विशेषज्ञ लेखकों, आईआईटी कानपुर के वैज्ञानिक राजीव सिन्हा सहित अनेक विशेषज्ञों की जोशीमठ के बारे में यह स्पष्ट राय थी कि, निर्माण कम से कम हो, बहुमंजिला निर्माण तो बिल्कुल ही न हो, और आबादी का घनत्व न बढ़ने दिया जाय। पर इन सभी विशेषज्ञ सलाहों के बाद, सरकार एक नई योजना लेकर आई चारधाम यात्रा मार्ग जिसमे बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री को एक साथ चार लेन सड़क से जोड़ना है और इससे उत्तराखंड में पर्यटन भी बढ़ेगा और तीर्थाटन भी। केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय की इस महत्वाकांक्षी  सड़क विस्तार परियोजना से, हिमालय की पारिस्थितिकी, पड़ने वाले, संभावित खतरनाक परिणाम को देखते हुए पर्यावरण के सजग कार्यकर्ताओ ने साल 2018 में एक याचिका दायर की।

देहरादून स्थित सिटीजन्स फॉर ग्रीन दून सहित, अनेक पर्यावरणविद समूहों ने, इस राजमार्ग के चौड़ीकरण का विरोध करते हुए अपनी याचिका में, बड़े पैमाने पर भूस्खलन और अन्य पर्यावरणीय आपदाओं का हवाला दिया, और पहले के किये गए वैज्ञानिक अध्ययनों और निष्कर्षों को अदालत के समक्ष रखा और यह कहा कि, इससे न केवल धरती पर अनावश्यक दबाव बढ़ेगा, बल्कि, इस इंफ्रास्ट्रक्चर ढांचा परियोजना के लिए, बहुत से पेड़ों की कटाई होने से, हिमालय की इन उपत्यकाओं के पारिस्थितिक तंत्र का विनाश भी होने लगेगा। 

सुप्रीम कोर्ट ने, याचिका पर प्रारंभिक सुनवाई के बाद, हिमालय की घाटियों पर चारधाम परियोजना के संचयी और स्वतंत्र प्रभाव पर विचार करने के लिए, एक उच्चाधिकार समिति (एचपीसी) का गठन किया। शीर्ष अदालत ने कहा, “हम एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति (HPC) का गठन करते हैं जिसमें सभी संबंधित विशेषज्ञ शामिल किये जायेंगे। इस हाई पॉवर कमेटी की अध्यक्षता प्रो. रवि करेंगे। इसके सदस्यों में, भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला, अंतरिक्ष विभाग, भारत सरकार, अहमदाबाद, भारतीय वन्यजीव संस्थान, देहरादून, रक्षा मंत्रालय के एक एक प्रतिनिधि होंगे। साथ ही, निदेशक सीमा सड़क संगठन, सहित कुल 21 सदस्यों की यह कमेटी जिसे एचपीसी (हाई पॉवर कमेटी) नाम दिया गया, गठित की गई। इस उच्चाधिकार प्राप्त, एचआईसी को, हिमालय की भूगर्भीय, भौगोलिक, पारिस्थितिकी, वनस्पति और जीव जंतु के इको सिस्टम पर, इस सड़क परियोजना का क्या असर पड़ सकता है और उनके निदान क्या है, इस पर अध्ययन कर, एक विस्तृत विशेषज्ञ रिपोर्ट देने के लिये, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने निर्देश दिया। इस याचिका की सुनवाई, जस्टिस चंद्रचूड़ ही कर रहे थे, तब सीजेआई नहीं बने थे। 

इस कमेटी ने जुलाई 2020 में अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंपी। पहाड़ी सड़कों के लिए आदर्श चौड़ाई के मुद्दे पर इस हाई पॉवर कमेटी के सदस्यों के बीच, मतभेद भी उभरा। इस मतभेद के बाद एचपीसी ने, अदालत में, दो रिपोर्ट प्रस्तुत कीं। एचपीसी के 4 सदस्यों द्वारा की गई, अल्पमत की सिफारिश में यह तर्क दिया गया है कि "एक आपदा प्रतिरोधी सड़क, एक व्यापक सड़क की तुलना में, बहुत अधिक महत्वपूर्ण है।" क्योंकि, इस पूरे इलाके में, लगातार रुकावट, भूस्खलन और आवर्ती ढलान के कारण, सड़कों के बाधित हो जाने की बहुत अधिक संभावनाएं हैं। इंडियन एक्सप्रेस ने, इस मुकदमे को कवर करते हुए, हाई पॉवर कमेटी के इस अंतर्द्वंद को, बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट किया था। 

दूसरी ओर, एचपीसी के 21 सदस्यों, जिनमें से 14 सरकारी अधिकारी थे, में सरकारी अधिकारियों के बहुमत ने, सड़क की चौड़ाई, 12 मीटर तक रखने का सुझाव दिया। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हिमालयी क्षेत्र की संवेदनशीलता को देखते हुए, सितंबर 2020 में, हाई पॉवर कमेटी के अल्पमत गुट की सिफारिश को, तर्कसम्मत मानते हुये, यह फैसला सुनाया कि अनिश्चित (अंप्रेडिक्टेबल) और संवेदनशील इलाके में कैरिजवे (सड़क) की चौड़ाई 5.5 मीटर तक ही सीमित होनी चाहिए। यानी सुप्रीम कोर्ट ने 12.5 मीटर से सड़क की चौड़ाई आधी कर दी, जो, चार लेन के बजाय, दो लेन की हो जा रही थी। 

भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को नहीं माना और सड़क की चौड़ाई बढ़ाने के लिये दुबारा सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष रखा। अब, केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंताओं का हवाला देते हुए, इस फैसले को चुनौती दी। भारत सरकार का कहना था कि, दोनो तरफ पक्की दीवार और 10 मीटर की चौड़ाई वाली सड़क को, दो-लेन में विकसित करने के लिए, अनुमति दी जाय। यानी सड़क एक मजबूत दीवार वाली डिवाइडर से सुरक्षित रखा जाय। इस रिटेनिंग दीवार के लिये भी तो ज़मीन चाहिये, और पर्वतीय क्षेत्र में जो भी, ज़मीन निकाली जाएगी, वह पहाड़ को तोड़ या खुरच कर ही निकाली जायेगी। पहाड़ पर इस तरह के अनावश्यक दबाव को बचाने के लिए ही तो यह मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। सरकार की तरफ से सरकार का पक्ष रखते हुए, अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने नवंबर 2021 में शीर्ष अदालत को बताया, "चीन दूसरी (सीमा के उस पार) तरफ हेलीपैड और इमारतों का निर्माण कर रहा है ... इसलिए तोपखाने, रॉकेट लॉन्चर और टैंक आदि ले जाने वाले ट्रकों को इन सड़कों से गुजरना पड़ सकता है।" इसलिये इन सड़कों का पर्याप्त चौड़ा होना ज़रूरी है। यहां यह तथ्य नज़रअंदाज़ कर दिया गया कि, चीन या तिब्बत की तरफ, हिमालय की भूगर्भीय, भौगोलिक, और इकोलॉजिकल स्थितियां, हमारी ही तरह के अस्थिर और भुरभुरे पहाड़ी भाग हैं, या तिब्बत के ऊंचे पठार के कारण, दृढ़ चट्टानी श्रृंखला हैं । 

इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार, भारत सरकार के, सड़क चौड़ीकरण के राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर, पर्यावरणविदों का तर्क था कि, सेना मौजूदा सड़कों से संतुष्ट थी लेकिन, वह, केवल सरकार के निर्देशों का पालन कर रही थी। एनजीओ ने आगे तर्क दिया कि, सड़क चौड़ीकरण की यह कवायद, सुरक्षा की आड़ में, चार धाम यात्रा को सुविधाजनक बनाने के लिए, की की जा रही है। जिसका बेहद विपरीत असर हिमालय की इन उपत्यकाओं की पारिस्थतिकी और इकोलॉजी पर पड़ेगा।

आखिरकार, चारधाम मामले में, फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार, 14 दिसंबर 2021 को चारधाम सड़क परियोजना के लिए, सरकार के अनुसार, चौड़ी सड़क बनाने की अनुमति दे दी। अदालत का आदेश, भारत-चीन सीमा पर हाल की सुरक्षा चुनौतियों और सशस्त्र बलों के तेजी से आवागमन के लिए डबल-लेन सड़कों के सामरिक महत्व को ध्यान में रखते हुए तैयार किया गया था। 14 दिसंबर, 2021 को हिमालय एक महत्वपूर्ण लड़ाई हार गया, जब, सुप्रीम कोर्ट ने चार धाम परियोजना (सीडीपी) के लिए व्यापक रूप से चौड़ी, 10 मीटर कोलतार वाली सतह, डबल-लेन पेव्ड शोल्डर (डीएल-पीएस), सड़क की चौड़ाई के पक्ष में फैसला सुनाया। प्रस्तावित मार्ग, चार प्राचीन हिमालयी तीर्थों, बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री को आपस मे जोड़ता है। यह प्राचीन भागीरथी की नाजुक और संवेदनशील घाटियों से होकर गुजरता हुआ, गंगा, अलकनंदा, मंदाकिनी और यमुना नदियों की उपत्यकाओं को पार करता है। 12,000 करोड़ रुपये की इस परियोजना में सुधार के साथ-साथ 889 किलोमीटर लंबे राष्ट्रीय राजमार्गों के विकास की भी परिकल्पना की गई है। इन राष्ट्रीय राजमार्गों में कुल परियोजना का 700 किमी की लंबाई शामिल है।

सुप्रीम कोर्ट का, 83 पन्नों का यह फैसला 'सतत विकास' की अवधारणा पर आधारित है। अदालत ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिये गए पिछले कई, फैसलों के कुछ प्रशंसनीय उद्धरण उद्धृत करते और उनका उल्लेख करते हुए,  पर्यावरणीय चिंताओं के साथ साथ सामाजिक और आर्थिक आवश्यकताओं को भी संतुलित करने की आवश्यकता पर बल दिया है। लेकिन विकास की ज़रूरतों को, जीने के मानव अधिकारों और पर्यावरणीय चिंताओं से अलग कर के नहीं देखा जा सकता है। विकास का अर्थ है, किसी एक संकाय की अनदेखी या उसका विनाश नहीं, बल्कि, अपनी पूरी क्षमता से, विकास को साकार करना है। अदालत ने, इस फैसले में, वर्तमान और भावी पीढ़ियों के लिए संरक्षण को लागू करने के रूप में, स्थिरता को भी रेखांकित किया है। फैसला, इस बात पर भी जोर देता है कि, सतत विकास, केवल निवारण के लिए नहीं है, बल्कि पर्यावरण की रक्षा में विफलताओं को रोकने के लिए भी है।

अदालत फिर, अपने तर्क के मूल को स्पष्ट करती है। फैसले में कहा गया है, "न्यायिक समीक्षा के अपने अधिकार के दौरान, अदालत, सशस्त्र बलों की ढांचागत जरूरतों का अनुमान नहीं लगा सकती है।" सुरक्षा के लिये सशस्त्र बलों को किस तरह की ढांचागत सुविधाएं चाहिये, इसे अदालत तय नहीं कर सकती है। अदालत के इस तर्क से असहमति नहीं हो सकती है। सुरक्षा के आक्रमण और बचाव के तौर, तरीके, रणनीति, संसाधन आदि सेना को ही तय करना है। इसीलिये, जब अदालत ने हाई पॉवर कमेटी के बहुमत द्वारा डबल लेन - पेव्ड शोल्डर्स (डीएल पीएस) सड़क की बात रखी तो अदालत का विकल्प सीमित हो गया। पर्यावरणीय चिंताओं के विरुद्ध, रक्षा हितों को संतुलित करना एचपीसी के दायरे से बाहर था। हालांकि, केंद्रीय रक्षा मंत्रालय का एक निदेशक स्तर का अधिकारी हमेशा एचपीसी का सदस्य रहा है। 

हाई पॉवर कमेटी के अध्यक्ष के नेतृत्व वाले अल्पसंख्यक विशेषज्ञों और याचिकाकर्ताओं ने बार-बार, अदालत से कहा है कि "सेना की आवश्यकता विवाद का मुद्दा नहीं थी। सेना को डीएल-पीएस या छह-लेन राजमार्ग की आवश्यकता हो सकती है, लेकिन जमीन पर। हिमालय, जहां जगह जगह भू स्खलन, और ढलान जैसी समस्याएं हैं, क्या वहां, इतनी चौड़ाई की सड़क बनाई और उसे लंबे समय तक बिना धंसे या भूस्खलित हुए, सुरक्षित और बरकरार रखा जा सकता है? निश्चित रूप से क्षेत्र के विशेषज्ञ ही इसका मूल्यांकन कर सकते हैं। पिछले दो वर्षों में इस तरह के भूस्खलन के कारण सड़कों की गतिशीलता में गंभीर बाधा देखी गई है। केवल भूस्खलन, ही नहीं हुए, इन आपदाओं के कारण, अनेक बाधाएं और कई दुखद मौतें भी हुई हैं।

प्रियदर्शिनी पटेल, जो 'गंगा आह्वान' नामक संस्था की एक प्रमुख सदस्य हैं, ने भू धंसाव की गतिविधियों पर एक अध्ययन किया है और उनके हवाले से, इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर के अनुसार, हिमालय की संवेदनशीलता का अंदाज़ा इसी बात से स्पष्ट हो जाता है कि "भारत सरकार के, केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने, वर्ष  2021 में 200 से अधिक भूस्खलन की घटनाओं की सूचना दी। यह सब आंकड़े सरकार के अभिलेखों में दर्ज है। इन भूसख्लनों से राष्ट्रीय राजमार्ग-58 और राष्ट्रीय राजमार्ग-94, दोनों ही, जो रक्षा मंत्रालय के लिए रणनीतिक महत्व के हैं, जगह जगह प्रभावित हुए हैं। इन दुर्घटनाओं के कारण, मरम्मत के लिये, संबंधित जिला मजिस्ट्रेटों द्वारा अनिश्चित काल के लिए, यह दोनों राजमार्ग, समय समय पर, जगह जगह, बंद भी किये गए थे। बंद करने का कारण, यात्रियों के लिये ये राजमार्ग, भू स्खलन की जगहों पर, असुरक्षित हो गए थे। उनपर,  मलबे, बोल्डर लगातार गिर रहे थे और घाटी की तरफ की 'संरक्षण दीवार' यानी रिटेनिंग दीवारें भी के ढहने लगी थी। हालांकि यह प्रतिबंध, नागरिकों के लिये था, न कि सैन्य गतिविधियों के लिये। सेना का आवागमन जारी रहा और जहां भू स्खलन की घटनाएं होती रहीं,, वहां बॉर्डर रोड संगठन उसे साफ भी करता रहा।

सरकार के ही आंकड़ों के अनुसार, "एनएच-58 पर, एक ही दिन में 18 स्लोप फेलियर/मलबा गिरने की सूचना मिली थी। तोताघाटी में एक भूस्खलन हुआ, जो कि सीडीपी के पहाड़ी-कटाव शुरू होने से पहले पूरी तरह से स्थिर था। लेकिन पिछले डेढ़ साल से यह बार-बार होने वाला भूस्खलन क्षेत्र बन गया है।  इस मानसून में ढलान की विफलताएं निरंतर और असहनीय तरह से हो रही थी।" एनएच-58, पहाड़ों पर बद्रीनाथ और माणा तक तथा एनएच 94, ऋषिकेश - आमपता - टेहरी - धरासू - कुठनौर - यमुनोत्री तक जाती है। एक बार तो, एनएच-94 पर, भारी बारिश के कारण पक्की सड़क का 25-30 मीटर का हिस्सा ढह गया और डूब गया। दोनों हिस्सों को तारकोल और सुरक्षा दीवारों के साथ डीएल-पीएस की चौड़ाई तक पूरा किया गया था।

केंद्रीय सड़क और राजमार्ग मंत्रालय ने अक्टूबर 2020 को बताया था कि NH-125 जो, सितारगंज को, खटीमा - टनकपुर - पिथौरागढ़ से जोड़ती है, पर भूस्खलन की 72 घटनाएं हुई। इस प्रकार, कागजी जुमलों और टालू आश्वासनों के बावजूद, न केवल हमारी सभी एजेंसियां, हो रहे, भू ​​ढलान का हल नहीं ढूंढ पाई। धरती गिरती रही, साफ सफाई कर रास्ता खुलवाया जाता रहा, पर ऐसी कोशिश कम हुई कि, कम से कम भू स्खलन हो, और इसके लिए विशेषज्ञों की बात मानी जाय। रक्षा गतिशीलता जरूरी है पर जब सड़कों पर अधिक बोझ पड़ेगा, सड़कें, अधिक पहाड़ खुरच कर और चौड़ी की जायेंगी तो कभी ऐसा भी हादसा हो सकता है कि, रक्षा गतिशीलता ही बाधित हो जाय। तीर्थयात्रा रोकी जा सकती है। लंबे समय तक रोकी जा सकती है, पर सेना/आईटीबीपी/बीआरओ/मेडिकल/पुलिस/सरकारी महकमे  आदि का आवागमन नही रोका जा सकता है। 

राजमार्ग चौड़ीकरण के संदर्भ में, डीएल-पीएस मानक को सही ठहराने के लिए सरकारी परिपत्रों, संशोधित दस्तावेजों पर भी कुछ टिप्पणी इंडियन एक्सप्रेस के उक्त लेख में मिलती है। सड़क और राजमार्ग मंत्रालय का 2020 का सर्कुलर 2018 के सर्कुलर का संशोधित रूप है। यह संशोधन, 15 दिसंबर, 2020 को किया गया था, जिस दिन एचपीसी ने रक्षा मंत्रालय द्वारा अदालत में दाखिल किए जाने वाले हलफनामे पर विचार करने के लिए बैठक की थी। इस संशोधन में,  डीएल-पीएस की सिफारिश की गई, जो हाई पॉवर कमेटी की बैठक के ही दौरान, प्रस्तुत किया गया, जहां एचपीसी ने, बहुमत से, सडक़ के डीएल-पीएस मानक के अनुसार अपनी राय दे दी। यही नहीं, आईआरसी यानी इंडियन रोड कांग्रेस 2019 दिशानिर्देश को भी अगस्त 2020 में जल्दबाजी में संशोधित किया गया।  आईआरसी के निर्देश, वास्तव में राजमार्ग से लेकर छोटे जिले और गाँव की सड़कों तक सभी सड़कों के लिए डीएल-पीएस का मानक निर्धारित करते हैं। आखिर इन सड़को को चौड़ा करने की जिद किसकी थी कि, उसे पूरा करने के लिए, एचपीसी की मीटिंग के दौरान, इच्छानुसार संशोधन पर संशोधन किए जा रहे थे?

अदालत ने, इस तथ्य को कि, बीईएसजेड, यानी भागीरथी इको-सेंसिटिव ज़ोन के भीतर डीएल- पीएस प्रतिबंधित है, भी नहीं देखा। अदालत ने, बीईएसजेड अधिसूचना में संशोधन के संबंध में अटॉर्नी जनरल के बयान पर भरोसा किया, जिसे उन्होंने "राष्ट्रीय सुरक्षा हित के लिए जरूरी है कह कर, अनुमति देने की बात कही थी।  पर्यावरणीय चिंताओं और उनके प्रभावों के उचित अध्ययन के बिना सुरक्षा का बुनियादी ढांचा भी तो, स्थिर और कारगर नहीं रखा जा सकता है। सच तो यह है कि, पुनर्निर्माण, आपदा न्यूनीकरण, लिफ्ट सिंचाई, अस्पतालों, स्कूलों, खाद्य गोदामों और अन्य सामाजिक और राष्ट्रीय सुरक्षा बुनियादी ढांचे से संबंधित कार्य, बिना पर्यावरणीय प्रभावों के उचित अध्ययन और उनके शमन के नही किए जाने चाहिए। 

दस बारह साल पहले, हमारा देश प्राचीन गंगा के अंतिम खंड को, उसके उद्गम (उत्तरकाशी-गंगोत्री) की घाटी में संरक्षित करने के लिए एकजुट हुआ था। तब, कम से कम तीन पनबिजली परियोजनाओं को, पर्यावरणीय चिंताओं को देखते हुए, रद्द कर दिया गया था।  गंगा के जलग्रहण क्षेत्र की स्थायी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए घाटी को एक पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र बीईएसजेड घोषित किया गया था। वर्षों की सुरक्षा को नष्ट करने के लिए केवल एक भारी भूल की आवश्यकता थी, जो इस सरकार के सनक भरे चारधाम यात्रा राजमार्ग की मंजूरी ने पूरी कर दी। अभी इस पर काम शुरू ही हुआ था कि, जोशीमठ से बेहद चिंतित करने वाली खबरें आने लगीं। 

अदालत के फैसले में कहा गया है कि, इस मामले में रक्षा मंत्रालय का "सुसंगत रुख" रहा है। लेकिन, एक तथ्य यह भी है कि, रक्षा मंत्रालय ने नवंबर 2020 में, जो अपना पहला हलफनामा दायर किया था और रक्षा गतिशीलता के लिए डबल लेन कॉन्फ़िगरेशन मांगा था वह सात मीटर की चौड़ाई का मांगा था। फैसले में, अनुमति, डीएल-पीएस को दी गई है, लेकिन रक्षा मंत्रालय ने केवल डीएल यानी डबल लेन के लिए कहा था, क्योंकि तब तक कि सभी सरकारी परिपत्रों को डीएल-पीएस में संशोधित नहीं किया गया। हालांकि, इस संशोधन के बाद, जनवरी 2021 में, रक्षा मंत्रालय ने भी, तदनुसार, अदालत में अपना रुख बदल दिया और उसने, 10 मीटर की सड़क मांगी, जो पहले 7 मीटर की मांगी गई थी। एचपीसी की सर्वसम्मत सिफारिशों के अनुसार तीर्थयात्रियों के लिए पैदल मार्ग बनाने जैसी बातें भी कही गई थी। लेकिन विशेषज्ञों ने बताया है कि, डीएल-पीएस की चौड़ाई वाली सड़क, पैदल चलने के लिए कोई जगह नहीं छोड़ती है। 

इस प्रकार इस याचिका में पहले एचपीसी के अल्पमत गुट ने, सड़क की चौड़ाई, 5.5 मीटर तक रखने की राय दी। पर इसी कमेटी की एक बड़े समूह ने, उसे बढ़ा कर 12.5 मीटर रखने की राय दी। फिर जब बहस हुई तो, अदालत ने, सेना की रिपोर्ट पर सुरक्षा हित को देखते हुए 10 मीटर रखने की बात मान ली। लेकिन अदालत में सेना पहले 7 मीटर की सड़क के लिए हलफनामा दे चुकी थी। अब अदालत ने 10 मीटर की डीएल-पीएस मानक की सड़क को एचपीसी की सिफारिश पर मान लिया है। सड़कें चौड़ी होनी चाहिए और अच्छी भी, पर यह भी तो हमें देखना है कि, जहां सड़कें बन या चौड़ी की जा रही हैं, वहां की जमीन, भौगोलिक स्थिति, भूगर्भीय स्थिति क्या है। अदालत के सामने जो प्रश्न था वह केवल सड़क को चौड़ा करने का नहीं था, बल्कि मूल प्रश्न था कि, हिमालयी परिस्थितियों में, सड़कों को, बिना स्थानीय पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंचाए, कितना चौड़ा किया जा सकता है। लेकिन सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे को, आगे रखते हुए, चारधाम यात्रा राजमार्ग की अनुमति की बात रखी और, शीर्ष अदालत ने भी, पर्यावरणीय चिंताओं को लगभग नज़रअंदाज़ करते हुए, रक्षा हित के मुद्दे पर मुहर लगा दी। 

(विजय शंकर सिंह)