Monday 8 July 2019

कविता - तुम न जाने हो कहाँ / विजय शंकर सिंह

आप  ही  मेहरबाँ  हुए ,
खफा  भी  हुए  आप  ही ,
इब्तेदा  भी  हुयी  आप  से ,
की  इन्तेहा  भी  आप  ने ,

उम्मीद  जगा  दी  थी ,
मौसम  बदल  गया  था ,
गुफ्तगू  भी  हुयी  हम  से ,
हाल -ए-दिल  भी  हुआ  खूब ,

आया  एक  अजाब  सा ,
हिल  गए  राब्ते  सारे ,
जो  न  बनी  थी  अब  तक ,,
दरक  गयी  बुनियाद  वो  ,

खामोश  हम  खड़े  रहे ,
मिज़ाज -ए -मौसम  देखा  किये
घुमड़  उट्ठे , सैकड़ों  सवाल ,
पा  न  सका  उनके  जवाब ,

हार  कर  मैं  बैठ  गया .
घेर  लिया अँधेरे ने ,
अब  न  कहीं  आफताब .
और  न  कहीं  माहताब ,

अब  न  कोई  रौशनी  है ,
और  न  दर  है  कोई ,
नूर  की  एक  किरण  भी
कहीं  दूर  दूर  तक  नहीं ,

क्या  खता  हुयी  हुज़ूर  ?
कब  ये  सिलसिला  हुआ  ?
मुझको  कुछ  पता  नहीं .
तुम  ने  कुछ  कहा  नहीं .

एक  अजीब  इज़तेराब  है ,
न  चैन  है  न  होश  है ,
दिल  में  कुछ  कसक  सी  है ,
कैसे  मैं  बयान  करूँ.

तुम  न  जाने  हो  कहाँ ,
न  ली  खबर,  न  दी  खबर ,
आह  यह  सारी   तोहमतें ,
उफ़  ये  सारे  इलज़ामात ,

कैसे  कहूं  अपनी  बात ,
कैसे  रखूँ  अपना  हक ,
कैसे  सुनाये  दास्ताँ ,
कैसे  पाऊँ  चैन  मैं .

तुम  न  जाने  हो  कहाँ
तुम  न  जाने  हो  कहाँ .

© विजय शंकर सिंह

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