Tuesday 30 July 2019

कैफे कॉफी डे के मालिक सिद्धार्थ लापता / विजय शंकर सिंह

किसानों की आत्महत्या तो देश का स्थायी भाव बन गया है। अब वह खबर पहले पन्ने की सुर्खियों से हट कर जहां उसे अखबार में जगह मिलती है समा जाती है। कोई पढता है तो कोई बिना पढ़े उसी पर पकौड़ी रख कर खाने लगता है।

यह खबर है तो लापता की पर परिस्थितियां आत्महत्या के दुखद अंत की ओर संकेत दे रही है। पर खबर देश के सबसे प्रसिद्ध कॉफी चेन, कैफे कॉफी डे के मालिक वीजी सिद्धार्थ से जुड़ी है। सिद्धार्थ, कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एसएम कृष्णा के दामाद भी हैं।  तनाव मिटाने के लिये लोग कॉफी पीते हैं, और इसी व्यापार ने उन्हें इतना तनाव दिया कि वे अवसाद में लापता हो गए। तटरक्षक दल फिलहाल उनकी तलाश कर रहा है।

सिद्धार्थ ने 27 जुलाई को एक पत्र अपनी कंपनी के नाम लिखा था जिससे उनके ऊपर पड़ रहे दबावों का उल्लेख था। धन तनाव तो देता ही है। उंस पत्र में उन्होंने लिखा है,

" बेहतर प्रयासों के बावजूद मैं मुनाफे वाला बिजनेस मॉडल तैयार करने में नाकाम रहा। मैं लंबे समय तक संघर्ष किया लेकिन अब और दबाव नहीं झेल सकता। एक प्राइवेट इक्विटी पार्टनर 6 महीने पुराने ट्रांजेक्शन से जुड़े मामले में शेयर बायबैक करने का दबाव बना रहा है। मैंने दोस्त से बड़ी रकम उधार लेकर ट्रांजेक्शन का एक हिस्सा पूरा किया था। दूसरे कर्जदाताओं द्वारा भारी दबाव की वजह से मैं टूट चुका हूं। आयकर के पूर्व डीजी ने माइंडट्री की डील रोकने के लिए दो बार हमारे शेयर अटैच किए थे। बाद में कॉफी डे के शेयर भी अटैच कर दिए थे। यह गलत था जिसकी वजह से हमारे सामने नकदी का संकट आ गया।’’

सरकार जिन आर्थिक नीतियों पर चल रही है वे आखिर किसे लाभ पहुंचा रही हैं ? किसान दुखी है, मजदूर दुखी हैं, मध्यम वर्ग के लोग पीड़ित हैं, और अब तो पूंजीपति भी दुखी होने लगे। यह पूंजीवाद नहीं एक प्रकार का गिरोहबंद पूंजीवाद है जो सत्ता के शीर्ष से निजी तौर पर जुड़े उन धनपतियों का युग्म है जिनके लिये सरकार जीती मरती रहती है। यह युग्म अंबानी और अडानी का है।

लगभग सारी सरकारें पूंजीपतियों से चंदा लेती रही हैं और इसके एवज में उन्हें उपकृत करती रही हैं। जिस लोकतांत्रिक समाजवाद के मॉडल से हम शासित हैं वहां यह काम सभी सरकारों को करना पड़ेगा । यह तंत्रगत यानी बाई डिफॉल्ट है। पर जिस तरह से यह सरकार इन दो औद्योगिक घरानों के प्रति साष्टांग है वैसी स्थिति कभी भी पहले नहीं आयी थी।

गिरोहबंद पूंजीवाद के राज में, नीतियों के अनुसार ये पूंजीपति नहीं ढलते हैं, बल्कि पूंजीपतियों के अनुसार सरकार की नीतियां ढलती हैं। पहले भी ऐसी नीतियां बनी हैं जिनसे कुछ विशेष पूंजीपति घराने खूब लाभ कमाते थे। पर तब यह निर्लज्जता नहीं थी कि प्रधानमंत्री खुद ही उनके उत्पाद के लिये अखबार के पहले पन्ने पर छपें।

सरकार की यह नीति, और देश की वर्तमान परिस्थितियां, देश के समग्र आर्थिक विकास की ओर नहीं बल्कि वे समाज को पूंजी के वितरण की घोर असमानता की दौर में ले जाएगी या यूं कहें हम उस शर्मनाक दौर में पहुंच गए हैं।

© विजय शंकर सिंह

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