Sunday 28 July 2019

आरटीआई - क्या ये पांच आदेश आरटीआई अधिनियम में संशोधन के तात्कालिक कारण हैं / विजय शंकर सिंह

प्रश्न सभी को असहज करते हैं। उसका प्रतीक अंकुश ( ? ) की तरह है सभी को चुभता है। पर जब अधिकार और समर्थ व्यक्ति को चुभता है तो उसकी प्रतिक्रिया ही अलग होती है। 2005 में लंबे विचार विमर्श के बाद लागू किया गया यह कानून अब तक के सबसे प्रगतिशील और जनहितकारी कानूनों में से एक है।

पर 2019 के बाद चुन कर आने वाली भाजपा सरकार ने इसमे संशोधन करने का फैसला किया और उसे संसद से पारित भी करवा लिया। अब यह कानून राष्ट्रपति के पास दस्तखत के लिये भेजा जाएगा। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद यह कानून बदल जायेगा।

कानून की मुख्य बातों को छुआ नहीं गया है। पर जहां से यह अंकुश अधिक चला है बस उसी को भोथरा करने का काम सरकार ने किया है। सरकार ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त सीआईसी और अन्य आयुक्त तथा राज्यो के चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति, सेवा शर्तों और उनको पद से हटाने के प्राविधानों में बदलाव कर दिया है।

पहले इनका चयन एक विज्ञापन के आधार पर सरकार एक सर्च कमेटी बना कर करती थी जिसमे प्रधानमंत्री, लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता या नेता विरोधी दल और कुछ अन्य सदस्य करते थे। नियुक्ति प्रक्रिया पर सवाल उठा तो मामला सुप्रीम कोर्ट गया और तब सुप्रीम कोर्ट ने कई आपत्तियां की और चयन प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया। मुख्य सूचना आयुक्त का पद मुख्य चुनाव आयुक्त के पद के बराबर रखा। इनका कार्यकाल का समय 5 साल नियत किया गया। हटाने की प्रक्रिया भी जटिल रखी गयी।

पर इस संशोधन से नियुक्ति में सरकार का पूरा दखल और उसकी मनमर्जी चले ऐसा कर दिया गया है। सरकार जब चाहे जिसे चाहे नियुक्त कर सकती है और हटा भी सकती है। इस संशोधन को लेकर पूर्व चुनाव आयुक्तों ने सरकार से भी अनुरोध किया कि वह यह बदलाव नहीं लाये। उन्होंने सांसदों से भी संशोधन के पक्ष में न खड़े होने की बात की। अब राष्ट्रपति से यह अनुरोध किया गया है कि वे संशोधन कप मंजूरी न दें। उल्लेखनीय है कि 2005 के अधिनियम को जिस स्टैंडिंग कमेटी ने अनुमोदित किया था उसी कमेटी के एक सदस्य मा.रामनाथ कोविंद, जो अब राष्ट्रपति हैं, तब राज्यसभा के सदस्य की हैसियत से थे।

सरकार मुख्य सूचना आयुक्त के कुछ निर्णयों से असहज थी और उनके पर कतरना चाहती थी। वे मुख्य पांच निर्णय इस प्रकार हैं,

* प्रधानमंत्री नरेंद मोदी जी की शैक्षणिक योग्यता पहले से ही संदेह के घेरे में रही है। उन्होंने बीए दिल्ली विश्वविद्यालय से और एमए गुजरात विश्वविद्यालय से किया है। पर यह दोनों ही डिग्रियां संदिग्ध हैं। उन्होंने एमए एंटायर पोलिटिकल साइंस से किया है जब कि इस नाम का कोई विषय ही भारत क्या दुनिया मे नहीं पढ़ाया जाता है।
उनकी डिग्री के लिये आरटीआई दायर कर के दिल्ली विश्वविद्यालय से डिग्री मांगी गई। विश्वविद्यालय टाल मटोल करता रहा। डिग्री हो तब तो दे।
आरटीआई की अपील मुख्य सूचना आयुक्त तक पहुंची। सीएसीसी प्रो.एम श्री अचार्यालु ने जनवरी 2017 में  दिल्ली विश्वविद्यालय को 1978 के बीए के समस्त छात्रों के अभिलेखों के निरीक्षण करने को कहा। दिल्ली विश्वविद्यालय उक्त आदेश के विरुद्ध हाईकोर्ट चला गया। अभी वहां मामला लंबित है।

2. फरवरी 2019 में मुख्य सूचना आयुक्त ने आरबीआई बोर्ड के उस बैठक की कार्यवाही का विवरण ( मिनट्स ) जो नोटबंदी की घोषणा के पहले नोटबंदी के निर्णय को लेकर हुयी थी, को सार्वजनिक करने का आदेश दिया।
उक्त मिनिट्स के अनुसार, यह पाया गया कि बोर्ड नोटबंदी के फैसले पर सहमत नहीं था। उसने सरकार को यह आगाह भी किया था कि इसके बुरे प्रभाव अधिक होंगे। बोर्ड सरकार के इस तर्क से सहमत नहीं था कि इससे भ्रष्टाचार रुकेगा और काले धन पर अंकुश लगेगा।
जबकि प्रधानमंत्री ने काले धन पर अंकुश और भ्रष्टाचार पर लगाम इस नोटबंदी के मुख्य उद्देश्य बताये थे।

3. नवम्बर 2018 में मुख्य सूचना आयुक्त ने प्रधानमंत्री कार्यालय को यह निर्देश दिया था कि वह कर्ज़ लेकर उसे जानबूझकर न चुकाने वालों की सूची सार्वजनिक करे। यह सूची आरबीआई के गवर्नर रघुराम राजन द्वारा 2015 में पीएमओ को भेजी गयी थी।
सरकार, 2015 में भेजी गयी इस सूची को दबाए बैठी रही और उसने कोई कार्यवाही नहीं की। अगर कोई कार्यवाही हुयी होती तो नीरव मोदी, मेहुल चौकसी, विजय माल्या आदि का निकल भागना मुश्किल होता। यह मत सीईसी का था।

4. अक्तूबर 2017 में मुख्य सूचना आयुक्त ने यह व्यवस्था दी कि काले धन की जांच करने वाली स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम ( एसआईटी ) आरटीआई के प्राविधानों के अंतर्गत पब्लिक अथॉरिटी है। अतः उसके द्वारा जो तथ्य पाए गए हैं उन्हें सार्वजनिक किया जाना चाहिये, कि विदेशों में कितना काला धन उसे मिला है और उसे भारत लाने के क्या प्रयास किये जा रहे हैं।
सरकार आजतक इस पर कोई जवाब नहीं दे पायी। कभी कहा कि स्विस बैंक में जमा धन सब काला धन नहीं है और कभो कहा कुछ पता नहीं।

5. राज्यसभा में जयराम रमेश ने कहा कि, संसद में प्रधानमंत्री ने  कहा था कि 4 करोड़ बोगस राशनकार्ड नष्ट किये गए हैं।
पर जब आरटीआई से सूचना मांगी गयी तो सरकार ने बताया कि कुल 2.3 करोड़ बोगस राशनकार्ड रद्द हुये हैं।
इससे भी सरकार की स्थिति असहज हुयी।

इन पांच कारणों का उल्लेख राज्यसभा में बिल के संशोधन बहस पर राज्यसभा के सदस्य जयराम रमेश ने किया था। सभी सरकारें सवालों से बचना चाहती हैं। पार्टी विद अ डिफरेंस का दावा करने वाली यह सरकार भी अलग रहना तो दूर उसने असहज करने वाले सवालों के स्रोत को ही बंद करने का उपाय कर लिया।
#vssये वे पांच प्रकरण आरटीआई अधिनियम में संशोधन के तात्कालिक कारण हैं ? /  विजय शंकर सिंह

प्रश्न सभी को असहज करते हैं। उसका प्रतीक अंकुश ( ? ) की तरह है सभी को चुभता है। पर जब अधिकार और समर्थ व्यक्ति को चुभता है तो उसकी प्रतिक्रिया ही अलग होती है। 2005 में लंबे विचार विमर्श के बाद लागू किया गया यह कानून अब तक के सबसे प्रगतिशील और जनहितकारी कानूनों में से एक है।

पर 2019 के बाद चुन कर आने वाली भाजपा सरकार ने इसमे संशोधन करने का फैसला किया और उसे संसद से पारित भी करवा लिया। अब यह कानून राष्ट्रपति के पास दस्तखत के लिये भेजा जाएगा। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद यह कानून बदल जायेगा।

कानून की मुख्य बातों को छुआ नहीं गया है। पर जहां से यह अंकुश अधिक चला है बस उसी को भोथरा करने का काम सरकार ने किया है। सरकार ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त सीआईसी और अन्य आयुक्त तथा राज्यो के चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति, सेवा शर्तों और उनको पद से हटाने के प्राविधानों में बदलाव कर दिया है।

पहले इनका चयन एक विज्ञापन के आधार पर सरकार एक सर्च कमेटी बना कर करती थी जिसमे प्रधानमंत्री, लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता या नेता विरोधी दल और कुछ अन्य सदस्य करते थे। नियुक्ति प्रक्रिया पर सवाल उठा तो मामला सुप्रीम कोर्ट गया और तब सुप्रीम कोर्ट ने कई आपत्तियां की और चयन प्रक्रिया को पारदर्शी बनाया। मुख्य सूचना आयुक्त का पद मुख्य चुनाव आयुक्त के पद के बराबर रखा। इनका कार्यकाल का समय 5 साल नियत किया गया। हटाने की प्रक्रिया भी जटिल रखी गयी।

पर इस संशोधन से नियुक्ति में सरकार का पूरा दखल और उसकी मनमर्जी चले ऐसा कर दिया गया है। सरकार जब चाहे जिसे चाहे नियुक्त कर सकती है और हटा भी सकती है। इस संशोधन को लेकर पूर्व चुनाव आयुक्तों ने सरकार से भी अनुरोध किया कि वह यह बदलाव नहीं लाये। उन्होंने सांसदों से भी संशोधन के पक्ष में न खड़े होने की बात की। अब राष्ट्रपति से यह अनुरोध किया गया है कि वे संशोधन कप मंजूरी न दें। उल्लेखनीय है कि 2005 के अधिनियम को जिस स्टैंडिंग कमेटी ने अनुमोदित किया था उसी कमेटी के एक सदस्य मा.रामनाथ कोविंद, जो अब राष्ट्रपति हैं, तब राज्यसभा के सदस्य की हैसियत से थे।

सरकार मुख्य सूचना आयुक्त के कुछ निर्णयों से असहज थी और उनके पर कतरना चाहती थी। वे मुख्य पांच निर्णय इस प्रकार हैं,

* प्रधानमंत्री नरेंद मोदी जी की शैक्षणिक योग्यता पहले से ही संदेह के घेरे में रही है। उन्होंने बीए दिल्ली विश्वविद्यालय से और एमए गुजरात विश्वविद्यालय से किया है। पर यह दोनों ही डिग्रियां संदिग्ध हैं। उन्होंने एमए एंटायर पोलिटिकल साइंस से किया है जब कि इस नाम का कोई विषय ही भारत क्या दुनिया मे नहीं पढ़ाया जाता है।
उनकी डिग्री के लिये आरटीआई दायर कर के दिल्ली विश्वविद्यालय से डिग्री मांगी गई। विश्वविद्यालय टाल मटोल करता रहा। डिग्री हो तब तो दे।
आरटीआई की अपील मुख्य सूचना आयुक्त तक पहुंची। सीएसीसी प्रो.एम श्री अचार्यालु ने जनवरी 2017 में  दिल्ली विश्वविद्यालय को 1978 के बीए के समस्त छात्रों के अभिलेखों के निरीक्षण करने को कहा। दिल्ली विश्वविद्यालय उक्त आदेश के विरुद्ध हाईकोर्ट चला गया। अभी वहां मामला लंबित है।

2. फरवरी 2019 में मुख्य सूचना आयुक्त ने आरबीआई बोर्ड के उस बैठक की कार्यवाही का विवरण ( मिनट्स ) जो नोटबंदी की घोषणा के पहले नोटबंदी के निर्णय को लेकर हुयी थी, को सार्वजनिक करने का आदेश दिया।
उक्त मिनिट्स के अनुसार, यह पाया गया कि बोर्ड नोटबंदी के फैसले पर सहमत नहीं था। उसने सरकार को यह आगाह भी किया था कि इसके बुरे प्रभाव अधिक होंगे। बोर्ड सरकार के इस तर्क से सहमत नहीं था कि इससे भ्रष्टाचार रुकेगा और काले धन पर अंकुश लगेगा।
जबकि प्रधानमंत्री ने काले धन पर अंकुश और भ्रष्टाचार पर लगाम इस नोटबंदी के मुख्य उद्देश्य बताये थे।

3. नवम्बर 2018 में मुख्य सूचना आयुक्त ने प्रधानमंत्री कार्यालय को यह निर्देश दिया था कि वह कर्ज़ लेकर उसे जानबूझकर न चुकाने वालों की सूची सार्वजनिक करे। यह सूची आरबीआई के गवर्नर रघुराम राजन द्वारा 2015 में पीएमओ को भेजी गयी थी।
सरकार, 2015 में भेजी गयी इस सूची को दबाए बैठी रही और उसने कोई कार्यवाही नहीं की। अगर कोई कार्यवाही हुयी होती तो नीरव मोदी, मेहुल चौकसी, विजय माल्या आदि का निकल भागना मुश्किल होता। यह मत सीईसी का था।

4. अक्तूबर 2017 में मुख्य सूचना आयुक्त ने यह व्यवस्था दी कि काले धन की जांच करने वाली स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम ( एसआईटी ) आरटीआई के प्राविधानों के अंतर्गत पब्लिक अथॉरिटी है। अतः उसके द्वारा जो तथ्य पाए गए हैं उन्हें सार्वजनिक किया जाना चाहिये, कि विदेशों में कितना काला धन उसे मिला है और उसे भारत लाने के क्या प्रयास किये जा रहे हैं।
सरकार आजतक इस पर कोई जवाब नहीं दे पायी। कभी कहा कि स्विस बैंक में जमा धन सब काला धन नहीं है और कभो कहा कुछ पता नहीं।

5. राज्यसभा में जयराम रमेश ने कहा कि, संसद में प्रधानमंत्री ने  कहा था कि 4 करोड़ बोगस राशनकार्ड नष्ट किये गए हैं।
पर जब आरटीआई से सूचना मांगी गयी तो सरकार ने बताया कि कुल 2.3 करोड़ बोगस राशनकार्ड रद्द हुये हैं।
इससे भी सरकार की स्थिति असहज हुयी।

इन पांच कारणों का उल्लेख राज्यसभा में बिल के संशोधन बहस पर राज्यसभा के सदस्य जयराम रमेश ने किया था। सभी सरकारें सवालों से बचना चाहती हैं। पार्टी विद अ डिफरेंस का दावा करने वाली यह सरकार भी अलग रहना तो दूर उसने असहज करने वाले सवालों के स्रोत को ही बंद करने का उपाय कर लिया।

© विजय शंकर सिंह

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