Saturday 20 July 2019

बैंकिग व्यवस्था - 19 जुलाई 1969 - आज से पचास साल पहले बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ था / विजय शंकर सिंह

देश की अर्थव्यवस्था खासकर बैंकिंग के इतिहास में 19 जुलाई का दिन बेहद अहम माना जाता है, क्योंकि 19 जुलाई, 1969 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। उस वक्त ये बैंक देश के बड़े औद्योगिक घराने चला रहे थे। इन बैंकों में सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ इंडिया, पंजाब नैशनल बैंक, बैंक ऑफ बड़ौदा, देना बैंक, यूको बैंक, केनरा बैंक, यूनाइटेड बैंक, सिंडिकेट बैंक, यूनियन बैंक ऑफ इंडिया, इलाहाबाद बैंक, इंडियन बैंक, इंडियन ओवरसीज बैंक तथा बैंक ऑफ महाराष्ट्र शामिल थे। आइए, जानते हैं कि इंदिरा गांधी के इस फैसले के क्रियान्वयन में किसने क्या भूमिका निभाई थी।

14 निजी बैंकों को राष्ट्रीयकृत करने के अपने फैसले को न्यायोचित ठहराते हुए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कहा था कि बैंकिंग को ग्रामीण क्षेत्रों तक ले जाना बेहद जरूरी है, इसलिए यह कदम उठाना पड़ रहा है। हालांकि, उनपर आरोप लगा कि उन्होंने अपने राजनीतिक लाभ के लिए यह कदम उठाया था।

12 जुलाई 1969 के बैंगलोर अधिवेशन में इंदिरा गांधी ने देश की बैंकिंग व्यवस्था के बारे में टिप्पणी करते हुये कहा था, कि, निजी बैंकों का जनहित में राष्ट्रीयकरण किया जाना चाहिये। उंस समय देश के वित्तमंत्री मोरार जी देसाई थे। वे निजीकरण के पक्ष में थे। उन्होंने इंदिरा गांधी के इस बयान पर सरकार से त्यागपत्र दे दिया। हालांकि बैंकों के राष्ट्रीयकरण की बात 1960 से ही चल रही थी, क्योंकि निजी बैंकिंग व्यवस्था देश की लोक कल्याणकारी योजनाओं, आकार और चुनौतियों को देखते हुये प्रगति के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पा रहे थे। साथ ही निजी बैंक डूबने भी लगे थे।

उंस समय वीवी गिरी देश के कार्यवाहक राष्ट्रपति थे। उन्होंने ही इस अध्यादेश पर हस्ताक्षर किया था। इसके दूसरे ही दिन उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया क्योंकि उन्हें राष्ट्रपति का चुनाव लड़ना था।

बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मसौदा 24 घँटे में तैयार किया गया। डीएन घोष जो वित्त मंत्रालय में उप सचिव थे, ने अपनी आत्मकथा में इस बात का वर्णन किया है कि केंद्रीय वित्त मंत्रालय में उप सचिव होते हुए कितने सक्रिय  थे और इस फैसले के क्रियान्वयन में अपनी अहम भूमिका निभाई थी। मोरारजी देसाई निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण करने की प्रधानमंत्री की योजना से बेहद नाराज थे। नाराजगी प्रकट करते हुए घोषणा के एक सप्ताह पहले उन्होंने वित्त मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था।

अध्यादेश का मसविदा तैयार हो जाने के बाद 19 जुलाई को शाम 5 बजे कैबिनेट की बैठक बुलाई गयी। उसी समय कैबिनेट ने इस अध्यादेश को अपनी मंजूरी दी और रात में ही राष्ट्रपति वीवी गिरी के हस्ताक्षर के बाद यह कानून बना और 14 निजी बैंक सरकारी बन गए । रात 8.30 बजे एक राष्ट्रीय प्रसारण में प्रधानमंत्री ने इस निर्णय की घोषणा की। जिन बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया वे देश के अग्रणी कारोबारी घराने जैसे, टाटा, बिरला, पाई और रजवाड़े जैसे बड़ौदा नरेश आदि थे। कुछ को उम्मीद थी कि शायद इंदिरा पर दबाव पड़े पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

प्रधानमंत्री के इस फैसले के क्रियान्वयन में आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर लक्ष्मीकांत झा ने बड़ी भूमिका निभाई थी, लेकिन विडंबना यह रही कि इस फैसले की शायद उन्हें पहले से जानकारी नहीं दी गई थी और वह बाद में इस मुहिम का हिस्सा बने। एलके झा की तरह इंद्रप्रसाद गोर्धनभाई पटेल जो तब आर्थिक मामलों के सचिव थे, प्रधानमंत्री के इस फैसले की घोषणा से महज 24 घंटे पहले इसका मसौदा तैयार करने के लिए कहा गया था।

आरबीआई के पूर्व गवर्नर सी रंगनाथन अपने एक इंटरव्यू में बैंकों के संभावित निजीकरण के मुद्दे पर राष्ट्रीयकरण पर कहते हैं,
" 1969 में किए गए बैंकों के राष्ट्रीयकरण का निर्णय कोई आर्थिक निर्णय ही नहीं था, बल्कि इस फैसले में राजनीति की भी भूमिका थी। यह सवाल आज कोई मायने नहीं रखता कि आज हमारे पास सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकिंग प्रणाली है या हमारे कुछ बैंक सरकारी हैं। प्रश्न यह है कि क्या जनता की अंशधारिता 51 % से नीचे की जा सकती है ? 1969 में किया गया बैंकों का राष्ट्रीयकरण देश मे बैंकिंग सुविधा के प्रसार की ओर एक बड़ा कदम था। 1990 में बैंकों के सुधार पर जो कदम उठाया गया था को 1969 के बैंकिंग राष्ट्रीयकरण से बहुत मदद मिली। 1969 के राष्ट्रीयकरण से बैंकिग सुविधाओं का प्रसार, नए और ग्रामीण क्षेत्रो में दूर दूर तक हुआ। इसी क़दम से 1991 के बैंकिंग सुधार की नींव पड़ी । "

जिन 14 बड़े बैंकों को राष्ट्रीयकृत किया गया था वे आरबीआई के मानक के अनुरूप सबसे बड़े बैंक थे। जिनमें मूल जमा 50 करोड़ से अधिक का था। जिनमे तब के हिसाब से देश के कुल जमा बैंकिग धन का 85 % जमा था। उसी समय देश मे नेशनल और ग्रिण्डलेज जैसे विदेशी बैंक भी थे। उनका भी राष्ट्रीयकरण किये जाने की बात पर विचार किया गया, पर कुछ तकनीकी ओए कूटनीतिक कारणों से उन्हें उस आदेश से अलग रखा गया।

इस अध्यादेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती भी दी गयी। 10 फरवरी 1970 को सुप्रीम कोर्ट ने इस अध्यादेश को इस आधार पर निरस्त कर दिया कि यह आदेश स्वेच्छाचारी है और सरकार को आदेश दिया कि वह 9000 करोड़ रुपये का जो मुआवजा राष्ट्रीयकृत बैंकों को दिया गया है वह अपर्याप्त है। लेकिन इंदिरा झुकी नहीं। उन्होंने एक कानून बैंकिग कंपनीज ( एक्वीजिशन एंड ट्रांसफर ऑफ अंडरटेकिंग ) एक्ट 1970, सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद ही पारित कर दिया।

अब आज पचास साल बाद बैंकों के पुनः निजीकरण की बात चलने लगी है। हालांकि निजीकरण के पक्षधर पचास साल पहले उठाये गये इस कदम की प्रशंसा करते हुये कहते हैं कि, उस कदम से देश के दूरस्थ जगहों में बैनिग व्यवस्था पहुंचाने का एक कठिन और आवश्यक लक्ष्य प्राप्त किया गया, जो देश की आर्थिक प्रगति के लिये जरूरी था। लेकिन वे ये भी कहते हैं कि तब की परिस्थितियों के अनुसार जो उचित था वह तब की सरकार ने किया और आज की परिस्थितियों में जो देशहित में हो वह किया जाना चाहिये।

स्टेट बैंक की पूर्व चेयरपर्सन अरुंधति राय का कहना है कि, राष्ट्रीयकरण से नुकसान के बजाय लाभ अधिक हुआ है, इसमें कोई संशय नहीं है, लेकिन बैंकिंग सिस्टम का यही स्वरूप सदैव के लिये लाभप्रद रहे, यह भी ज़रूरी नहीं है। आगे वे कहती हैं,
" यदि बैंकों के राष्ट्रीयकरण का उद्देश्य देश के दूरस्थ इलाक़ों में, बैंकिंग सुविधा का पहुंचाना था तो यह उद्देश्य लगभग पूरा कर लिया गया है। अब हम एक ऐसे मोड़ पर आ पहुंचे हैं कि हमे बैंकिंग व्यवस्था के नए स्वरूप की बात सोचनी और करनी होगी, जो जनता को बेहतर, उन्नत और आधुनिक सुविधा दे सके।

इस कदम का विरोध भी हुआ था। उंस समय यह सवाल पुनः प्रासंगिक हो गया था, कि देश के आर्थिक विकास के लिये दक्षिणपंथी मॉडल उपयुक्त रहेगा या वामपंथी मॉडल। इंदिरा का विरोध स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ ने किया था। यह दोनों दल दक्षिणपंथी आर्थिक मॉडल के पक्ष में थे। स्वतंत्र पार्टी तो रजवाड़ों और बडे धनपतियों की ही पक्षधर थी । और उसी समय पूर्व नरेशों का प्रिवी पर्स और अन्य विशेषाधिकार जो उन्हें आज़ादी के समय रियासतों के विलीनीकरण के समझौते के अंगर्गत मिले थे, सरकार ने समाप्त कर दिया था।

जनसंघ की कोई स्पष्ट आर्थिक नीति न तो तब थी और न ही अब उसके नए स्वरूप भारतीय जनता पार्टी के पास है। पर मौलिक रूप से यह दल भी दक्षिणपंथी आर्थिक विकास के मॉडल का पक्षधर है। कांग्रेस में भी जो पुरानी पीढ़ी थी वह भी इस नए बदलाव से असहज थी और उसने भी इंदिरा के इन प्रगतिशील और जनपक्षीय कदमों का विरोध किया। पर जनता ने इन प्रगतिशील कदमों की खुल कर सराहना की और इंदिरा सही मायनों में तब जननेत्री बन गयीं थी।

1969 के साल में घटी, पचास साल पहले की यह घटना, इंदिरा गांधी के राजनीतिक जीवन और देश के इतिहास में एक टर्निंग प्वाइंट थी। यह कांग्रेस के विचारधारात्मक बदलाव का भी एक संकेत था। यह इंदिरा का वामपंथी खेमे की ओर झुकाव था। इस कदम ने इंदिरा की क्षवि गरीब हित की बनायी, जिसने उन्हें तत्कालीन राजनीति में लगभग विकल्पहीन ही बना दिया था।  बाद मे और भी उद्योग और कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण हुआ पर जो असर आर्थिक विकास के क्षेत्र में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का हुआ, वह किसी अन्य कदम का नहीं हुआ। इस लेख की सामग्री इकोनॉमिक टाइम्स और बिजनेस स्टैंडर्ड से ली गयी है। उनका आभार ।

© विजय शंकर सिंह

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