Monday 1 July 2019

नागार्जुन की एक कविता - भगत सिंह / विजय शंकर सिंह

आज हिंदी के श्रेष्ठतम कवियों में से एक नागार्जुन की जन्मतिथि भी है। नागार्जुन एक कवि ही नहीं कथाकार और उपन्यासकार भी रहे हैं। वैचारिक रूप से वामपंथी बाबा नागार्जुन की यह कविता, शहीद ए आज़म भगत सिंह के पचासवीं शहादत दिवस पर लिखी गयी थी।  
***
भगतसिंह 
(.नागार्जुन )

अच्छा किया तुमने
भगतसिंह,
गुजर गये तुम्हारी शहादत के
वर्ष पचास
मगर बहुजन समाज की 
अब तक पूरी हुई न आस

तुमने कितना भला चाहा था
तुमने किनका संग-साथ निबाहा था
क्या वे यही लोग थे—
गद्दार, जनद्वेषी अहसान फरामोश ?
हकूमत की पीनक में बदहोश ?

क्या वे यही लोग थे,
तुमने इन्हीं का भला चाहा था ?
भगतसिंह,
तुम्हारी वे कामरेड क्या लुच्चे थे, लवार थे ?
इन्हीं की तरह क्या वे आप पब्लिक की गर्दन पे सवार थे ?

अपनी कुर्सी बचाने की खातिर
अपनी जान माल की हिफाजत में 
क्या तुम्हारे कामरेड
इन्हीं की तरह
कातिलों से समझौता करते ?

क्या वे इन्हीं की तरह 
अपना थूक चाट-चाट कर मरते ?
हमने तुम्हारी वर्षगाँठ को भी
धंधा बना लिया है, भगतसिंह

हमने तुम्हारी प्रतिमा को भी
कुर्बानी का प्रमाण पत्र थामे रहने के लिए 
भली भाँति मना लिया है !

भगतसिंह, दर-असल, हम बड़े पाजी हैं
तुम्हरी यादों के एक-एक निशान
हम तानाशाहों के हाथ बेचने को राजी हैं
दस-पाँच ही बुजुर्ग शेष बचे हैं

वे तुम्हारे नाम का कीर्तन करते हुए
यहाँ वहाँ दिखाई दे जाते हैं
वे उनके साथ शहीद स्मारक
समारोहों के अगल-बगल मंचस्थ
होते हैं उन्हीं के साथ
जिनकी जेलों के अन्दर हजार-हजार
तरुण विप्लवी नरक यातना भोग रहे हैं

और वे उनके साथ भी 
शहीद-स्मारक-समारोहें में अगल-बगल
मंचस्थ होते हैं
जिनकी फैक्टरियों के अन्दर-बाहर
श्रमिकों का निरंतर बध होता है

भगतसिंह, क्या वे सचमुच तुम्हारे साथी थे ?
नहीं, नहीं, प्यारे भगतसिंह, यह झूठ है !
ऐसा हो ही नहीं सकता
कि तुम्हारा कोई साथी इन
मिनिस्टरों से, इन धनकुबेरों से
हाथ मिलाये !

दरअसल वे कोई और लोग हैं
उनरी जर्जर काया के अन्दर
निश्चय ही देश-द्रोही-जनद्रोही
दुष्टात्मा प्रवेश कर गयी है

भगतसिंह, अच्छा हुआ तुम न रहे !
अच्छा हुआ, फाँसी के फन्दे पर झूल गये तुम ?
ठीक वक्त पर शहीद हो गये,
अच्छा किया तुमने
बहोऽऽत अच्छा ! बहोऽऽत अच्छा ! !
***

नागार्जुन का असली नाम वैद्यनाथ मिश्र था परंतु हिन्दी साहित्य में उन्होंने नागार्जुन तथा मैथिली में यात्री उपनाम से रचनाएँ कीं। काशी में रहते हुए उन्होंने 'वैदेह' उपनाम से भी कविताएँ लिखी थीं। सन् 1936  में सिंहल में 'विद्यालंकार परिवेण' में ही 'नागार्जुन' नाम ग्रहण किया आरंभ में उनकी हिन्दी कविताएँ भी 'यात्री' के नाम से ही छपी थीं। वस्तुतः कुछ मित्रों के आग्रह पर 1941 ईस्वी के बाद उन्होंने हिन्दी में नागार्जुन के अलावा किसी नाम से न लिखने का निर्णय लिया था।

नागार्जुन की पहली प्रकाशित रचना एक मैथिली कविता थी जो 1929 ई० में लहेरिया सराय, दरभंगा से प्रकाशित 'मिथिला' नामक पत्रिका में छपी थी। उनकी पहली हिन्दी रचना 'राम के प्रति' नामक कविता थी जो 1934 ई० में लाहौर से निकलने वाले साप्ताहिक 'विश्वबन्धु' में छपी थी।

नागार्जुन लगभग अड़सठ वर्ष (सन् 1929 से 1997) तक रचनाकर्म से जुड़े रहे। कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, निबन्ध, बाल-साहित्य -- सभी विधाओं में उन्होंने कलम चलायी। मैथिली एवं संस्कृत के अतिरिक्त बाङ्ला से भी वे जुड़े रहे। बाङ्ला भाषा और साहित्य से नागार्जुन का लगाव शुरू से ही रहा। काशी में रहते हुए उन्होंने अपने छात्र जीवन में बांग्ला साहित्य को मूल बाङ्ला में पढ़ना शुरू किया। मौलिक रुप से बाङ्ला लिखना फरवरी 1978 ई० में शुरू किया और सितंबर 1979 ई० तक लगभग 50 कविताएँ लिखी जा चुकी थीं। कुछ रचनाएँ बँगला की पत्र-पत्रिकाओं में भी छपीं। कुछ हिंदी की लघु पत्रिकाओं में लिप्यंतरण और अनुवाद सहित प्रकाशित हुईं। मौलिक रचना के अतिरिक्त उन्होंने संस्कृत, मैथिली और बाङ्ला से अनुवाद कार्य भी किया। कालिदास उनके सर्वाधिक प्रिय कवि थे और 'मेघदूत' प्रिय पुस्तक। मेघदूत का मुक्तछंद में अनुवाद उन्होंने 1953 ई० में किया था। जयदेव के 'गीत गोविंद' का भावानुवाद वे 1948 ई० में ही कर चुके थे। वस्तुतः 1944 से 1964 १९४४ ई० के बीच नागार्जुन ने अनुवाद का काफी काम किया। बाङ्ला उपन्यासकार शरतचंद्र के कई उपन्यासों और कथाओं का हिंदी अनुवाद छपा भी। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के उपन्यास 'पृथ्वीवल्लभ' का गुजराती से हिंदी में अनुवाद 1945 ई० में किया था। 1965 ई० में उन्होंने विद्यापतिके सौ गीतों का भावानुवाद किया था। बाद में विद्यापति के और गीतों का भी उन्होंने अनुवाद किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने विद्यापति की 'पुरुष-परीक्षा' (संस्कृत) की तेरह कहानियों का भी भावानुवाद किया था जो 'विद्यापति की कहानियाँ' नाम से 1964 ई० में प्रकाशित हुई थी।

© विजय शंकर सिंह

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