Wednesday 10 July 2019

समाज - राजनीतिक मतभेदों के कारण, निजी संबंधों पर पड़ता प्रभाव चिंताजनक है / विजय शंकर सिंह .

पहले शैलेन्द्र प्रताप सिंह रिटायर्ड आईपीएस, की फेसबुक पर लिखी यह पोस्ट पढें,
" पिछले चार पाँच सालों में देश में एक महत्वपूर्ण बदलाव यह देखने को मिल रहा है कि अपने आस पास के तमाम अजीज भी पार्टी में तब्दील हो गये है , देश का चतुर्थ खम्भा मीडिया भी पार्टी बन गयी है । जो भी दल सत्ता में है , उससे सवाल पूँछें जाने चाहिये , यह प्रजातंत्र की सुंदरता है । भारतीय प्रजातंत्र की बगिया में तरह तरह के फूल भी उसकी सुंदरता है । मेरे जैसे लोग चाहे जिसकी सरकार रही हो , सवाल करते रहे है और चाहते भी है । मेरी पार्टी भारतीय संस्कृति और भारतीय संविधान है पर अब किसी से बहस करने या टी वी देखने का मन ही नही करता । किसी ने अभी मज़ाक़िया पोस्ट डाली कि बजट में मजा नही आ रहा था सो जी टी वी लगा लिया , देश अमेरिका लगने लगा ।
इस बदलाव का एक दुष्परिणाम यह भी हुआ कि आज तमाम नज़दीकी नाते रिश्ते भी इसकी मार झेल रहे है । मेरे अजीज श्री राम शंकर सिंह ने एक दिन भवाली में ही बताया कि उनके अमुक नज़दीकी साथी ( नाम नहीं लिखूँगा ) ने एक दिन कहा कि आप देश द्रोही हो रहे है और बहुत नाराज हुये । यह है बदलाव । आपका अजीज भी आज देशद्रोही लगने लगा । आज सामने वाले के प्रति वह आदर और सम्मान नही दिखता जिसका वह पात्र है , गर वह आपकी सोच का समर्थक नही है । "

यह ऑब्जर्वेशन, शैलेन्द्र सर का है पर उनके इस निष्कर्ष के एक एक शब्द पर मेरी सहमति है।

राजनीति हो या समाज या गांव या घर परिवार, मत वैभिन्नयता सदैव रही है। चुनाव के दौरान गांव में एक ही घर मे अलग अलग दृष्टिकोण से लोग सोचते और बोलते रहे हैं पर वह मत वैभिन्नयता कभी भी निजी मतभेद या मनमुटाव का कारण नहीं बनती थी। लोग साथ साथ वोट देने जाते रहे हैं, अलग अलग ठीहे पर बैठ कर अलग अलग पार्टी को वोट भी देते रहे हैं पर शाम तक पूरा घर फिर एक सा हो जाता रहा है। हमारा संयुक्त परिवार बहुत कुछ  लोकतांत्रिक सोच और विचार का था। पर आज वह स्थिति नहीं रही। छात्र जीवन मे बहुत से घनिष्ठ मित्र कोई कम्युनिस्ट था, या एसवाईएस के समाजवादी या फिर विद्यार्थी परिषद के उनसे मतभेद था पर शत्रुता नहीं थी। निजी रंजिश का अभाव था। एक वैचारिक खुलापन था।  हम सब किसी को न तो देशद्रोही कहते थे और न समझते थे। आपस मे मज़ाक़ भी खूब होता था, और बहस भी। पर निजी दोस्ती में कोई फर्क नहीं आने पाता था।

पर यह बदलाव अब आ गया है कि अगर आप सरकार या विषेधकर नरेन्द्र मोदी जी के विरोधी हैं तो तो उनके घोर समर्थक पट्टीदारी जैसी रंजिश के मोड में आ जाते हैं। यह बदलाव उस मनोवृत्ति के विकास का कारण है जो आपसी राजनीतिक वैचारिक मतभेद को दुश्मनी और घृणा के चश्मे से दिखाता है।  वह यह भूल जाते हैं जितना लोकतांत्रिक अधिकार उनको अपनी सोच और विचारधारा के समर्थन के लिये प्राप्त है, उतना ही अधिकार अन्य जो उक्त विचारधारा के विरोध और आलोचना के लिये भी प्राप्त है।

यह मनोवृत्ति न केवल समाज मे बढ़ते संकीर्णतावाद का परिणाम है बल्कि यह उस श्रेष्ठतावाद का भी प्रतिफल है जो यह सोच कर बैठा है कि जो कुछ भी वह लिख पढ़ और बोल रहा है वही श्रेष्ठ है और अन्य सब भी वही बोलें। भारत के 3000 साल के बौद्धिक इतिहास में ऐसी मनोवृत्ति कभी भी नहीं रही है। जिस हिंदुत्व के नाम पर उसके पुरोधा अपने से इतर विचार को राष्ट्र विरोधी या देश द्रोही कहते नहीं थकते हैं, उसी महान धर्म मे असहमति और विरोध की एक लंबी और तार्किक परंपरा रही है ।

वैदिक काल का नासदीय सूक्त हो या, बार्हस्पत्य सूत्र हो,या अजित केशकंबली की कथा हो या मक्खलि गोशाल से लेकर स्वामी दयानंद तक के तमाम उदाहरण हों, ये सभी  असहमति और तार्किक विरोध की एक लंबी गाथा ही तो है। पर पूरे वांग्मय में, कहीं पर भी ऐसे असहमति या विरोध के प्रति असहिष्णुता का प्रदर्शन नहीं किया गया है। तर्क के उत्तर में तर्क उठे हैं। गरमागरम बहसें भी हुयीं हैं। लंबे और रोचक शास्त्रार्थ हुये हैं। आपसी बौद्धिक विवाद भी कम नही हुये हैं। बात बात पर उद्धरण और प्रमाण मांगे गए हैं। मानवीय स्वभाव के अनुसार झगड़े भी हुये हैं । पर वाद विवाद और संवाद की स्वस्थ परंपरा का ही अधिकतर निर्वाह किया गया है । देशद्रोही या देशभक्ति जैसी शब्दावली कहीं बीच मे आयी ही नहीं।

मुझे नहीं पता आप में से कितने लोगों ने यह बदलाव महसूस किया है या कर रहे हैं, पर बहुत से लोगो ने यह बदलाव महसूस किया है। मुझे भी इसका कभी कभी आभास हो जाता है। मैं अक्सर अपनी पोस्ट पर हुये कुछ कमेंट के बारे में उसे नज़रअंदाज़ कर के बढ़ जाता हूं। क्योंकि ऐसे बहसी बहसा से न तो सरकार का कुछ बिगड़ेगा और न बनेगा, पर आपस मे खटास ज़रूर उत्पन्न हो जाएगी। यह मतभेद निजी रिश्तों में खटास तो पैदा कर ही रहा है साथ ही एक प्रकार का अविश्वास और मुंहचुराऊ स्थिति भी कभी कभी ला देता है। एक ऐसा माहौल बनता जा रहा है जिसमे विपक्ष में कोई भी हो वह देशविरोधी मान लिया जा रहा है, और वे सारे लोग जो सरकार और सत्तारूढ़ दल के साथ हैं वही देशभक्त हैं। यह देशभक्ति के कॉपीराइट जैसा है। ऐसा नही है कि राजनीतिक मतभेद पहले नहीं थे। पर किसी भी बड़े नेता ने अपने समय मे अपने धुर विरोधी नेता को कम से कम देशद्रोही तो नहीं ही कहा जैसा की आजकल व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से एंटायर दीक्षित मित्रो की मानसिकता हो गयी है।

यह बदलाव खीज और चिढ़ के रूप में सामने आ रहा है। कुछ लोग तुरन्त इसे व्यक्तिगत आक्षेप के रूप में ले लेते हैं। वे राजा से अधिक खुद को राजभक्त साबित करने की होड़ में आ जाते है। अभी दो दिन पहले बनारस से एक मित्र ने बताया कि वे अपने एक पुराने मित्र से  बात कर रहे थे। उनकी बात बनारस के कारमाइकल लाइब्रेरी के ध्वस्तीकरण जो उसी दिन होने वाला था या हुआ था के बारे में हो रही थी । मेरे मित्र ने जो इस पुस्तकालय से बहुत जुड़े हैं ने इस ध्वस्तीकरण को अनुचित बताया और इसकी आलोचना की । मित्र ने कहा था कि यह ध्वस्तीकरण बहुत गलत होगा। वह पुस्तकालय बनारस की धरोहर है। यह नहीं होना चाहिये था। उनकी तुरन्त प्रतिक्रिया में उनके मित्र जिनसे उनकी बात हो रही थी ने कहा, आप तो मोदी विरोधी हैं और पहले से ही इस सरकार के खिलाफ हैं। आपको तो इस सरकार का हर काम बुरा लगता है । '  मेरे मित्र ने मायूसी से कहा कि फिर जब बात बिगड़ने लगी तो मैंने फोन काट दिया और बातचीत बंद हो गई ।  उन्होंने कहा कि हालांकि, बात फिर बाद में  शाम  तक हुयी पर उस मुद्दे पर न तो वे बोले न उनके मित्र । वे दोनों ही उस मुद्दे पर बात करने से बचते रहे। यह एक बिलकुल नया बदलाव मुझे लगा। यह विवाद नहीं बल्कि संवाद हीनता या मनचाहा सुनने की प्रवित्ति का परिणाम है। लेकिन ऐसा है क्यों ?

हम लोग ग्रामीण परिवेश के संयुक्त परिवारों में पले बढ़े लोग हैं। संयुक्त परिवार में जहां कई चाचा भाई आदि होते हैं वहां मनमुटाव होता ही है। पर उस मनमुटाव का असर हम बच्चों पर नहीं पड़ता था। हमारे लिये सब बराबर थे। रिश्तेदार भी बंटे नहीं थे। एक साझापन था। पर अब तो संयुक्त परिवार टूटने लगे और एकल परिवार विकसित होने लगे तो अब की नयी पीढ़ी जो अंकल आंटी सिंड्रोम से प्रभावित है संयुक्त परिवार की इस अनेकता में एकता का भाव मुश्किल से ही समझ पाएगी। 

हो सकता है, इस परिवर्तन के मूल कारण की खोज समाज वैज्ञानिक आगे चल कर करें। पर फिलहाल तो इसके राजनैतिक स्वरूप में आ रहे इस जिद्दी बदलाव को तो रोकना होगा। हम एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में हैं। सरकार चुनने और उसके विरोध का हमारा अधिकार विधिसम्मत है। जिस दिन विरोध की यह प्रथा, मनोवृत्ति, अधिकार और दायित्व क्षीण होने लगेगा उसी दिन से हम एक असहिष्णु, ठस औऱ अतार्किक समाज मे बदलने लगे। यह एक प्रकार का जिद्दी समाज होगा जो हर प्रगतिवादी कदम के खिलाफ अनावश्यक और अतार्किक रूप से हिंसक हो जाएगा, जो समाज को अलग अलग संवाद विहीन वैचारिक खानों में बांट देगा । फासिज़्म का एक रूप यह भी है। समाज और आस पास में मित्रता के आत्मीय संबधों में राजनीतिक वैचारिक मतभेद का यह अतिक्रमण एक नए प्रकार का बदलाव है जो राजनीतिक बहस को उसके उद्देश्य से भटका कर निजी, जातिगत, और धर्मगत वैमनस्य के मकड़जाल में उलझा देता है। यह मनोवृत्ति समाज में दरार पैदा कर देती है और यह विभाजन अंततः समाज और देश के लिये हानिकारक ही होगा। इससे बचा जाना चाहिये।

© विजय शंकर सिंह

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