Friday 26 July 2019

कानून - यूएपीए के नए प्राविधान में बर्डेन ऑफ प्रूफ अभियुक्त पर होगा / विजय शंकर सिंह

यूएपीए अधिनियम में एक संशोधन किया गया है कि आरोपी ही यह साबित करेगा कि वह निर्दोष है और जो आरोप उस पर लगाया गया है उससे उसे मुक्त किया जाय।

साक्ष्य के प्राकृतिक न्यायशास्त्र के सिद्धांत के विपरीत यह प्राविधान है। न्यायशास्त्र के अनुसार, आरोप लगाने वाला ही यह  प्रमाणित करता है कि जो आरोप वह लगा रहा है वह उपलब्ध सुबूतों के आधार पर प्रमाणित होता है।

अदालत इन सुबूतों का परीक्षण कर के अभियुक्त को अपने बचाव का अवसर देती है। बचाव में अभियुक्त जो सुबूत आदि देता है उसका भी परीक्षण अदालत करती है। फिर इन्ही के गुण दोषों के आधार पर वह अपना फैसला सुनाती है।

लेकिन इस अधिनियम के संशोधन में इस स्थापित सिद्धांत को किनारे रख दिया गया है। इस संशोधन में ही नहीँ बल्कि एक और या हो सकता है कुछ और कानून हों जिसमे इस सिद्धांत के विपरीत अपवाद स्वरूप कानून बनाये गए हैं।

धारा 304 बी आइपीसी जो महिला उत्पीड़न से सम्बंधित दहेज हत्या का मामला है में अपराध साबित करने की जिम्मेदारी अभियुक्त पर है। इसका कारण यह है कि घटनास्थल पीड़िता या मृतका की ससुराल होती है जहां उसके पक्ष में कोई सुबूत मिलना मुश्किल होता है। जो पीड़ित है वह मर चुकी है और जो अभियुक्त हैं वे उसी के पति, सास ससुर हैं। उंस समय ऐसे अपराधों में पारिस्थितिक साक्ष्य अधिक महत्वपूर्ण होते हैं और जो प्रत्यक्ष साक्ष्य होते भी हैं उनको अभियुक्त घर मे ही होने के कारण या तो मिटा सकते हैं या मैनेज कर सकते हैं।

अब इन आतंकियों के खिलाफ मुकदमे में विवेचक को साक्ष्य के लिये अधिक मशक़्क़त नहीं करेगी। अभी जब बर्डेन ऑफ प्रूफ अभियोजन पर था तो उसे षड्यंत्र की सारी बारीक डिटेल इकट्ठा करनी पड़ती थी और मुक़दमे को चूल से चूल मिला कर अदालत में भेजना पड़ता था। यह कार्यवाही अब भी होगी पर अदालत में आरोप साबित करने का जो मनोवैज्ञानिक दबाव था वह अब न तो विवेचक पर होगा और न अभियोजन पर।

इस संशोधन का अपराध पर क्या असर पड़ेगा और इससे आतंकी घटनाओं में कितनी कमी आएगी यह भविष्य बताएगा। कानून की नज़र में यह संशोधन विधिसम्मत और न्यायशास्त्र के उस सिद्धांत कि जब तक आरोप प्रमाणित नहीं हो जाता, अभियुक्त निर्दोष है के विपरीत है या नही इस पर विधिवेत्ता ही बता पाएंगे। फिलहाल इसका मनोवैज्ञानिक दबाव अभियुक्तों पर भी पड़ेगा।

इसी से जुड़ा एक संवैधानिक प्राविधान भी है जो मौलिक अधिकारों के अध्याय में हैं। संविधान के अनुच्छेद 20 के अनुसार,
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Article 20(3) of the Constitution:

Legal Maxim: "No man is bound is bound to accuse himself"
Self-incrimination is the act of exposing oneself generally, by making a statement, "to an accusation or charge of crime; to involve oneself or another [person] in a criminal prosecution or the danger thereof".Self-incrimination can occur either directly or indirectly: directly, by means of interrogation where information of a self-incriminatory nature is disclosed; or indirectly, when information of a self-incriminatory nature is disclosed voluntarily without pressure from another person.

Accused criminals cannot be compelled to incriminate themselves—they may choose to speak to police or other authorities,
but they cannot be punished for refusing to do so. jurisdictions which include the right to remain silent and the right to legal counsel.
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भारतीय संविधान अनुच्छेद 20 (Article 20 in Hindi) - अपराधों के लिए दोषसिद्धि के संबंध में संरक्षण

विवरण
(1) कोई व्यक्ति किसी अपराध के लिए तब तक सिद्धदोष नहीं ठहराया जाएगा, जब तक कि उसने ऐसा कोई कार्य करने के समय, जो अपराध के रूप में आरोपित है, किसी प्रवृत्त विधि का अतिक्रमण नहीं किया है या उससे अधिक शास्ति का भागी नहीं होगा जो उस अपराध के किए जाने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन अधिरोपित की जा सकती थी।
(2) किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दंडित नहीं किया जाएगा।
(3) किसी अपराध के लिए अभियुक्त किसी व्यक्ति को स्वयं अपने विरुद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।

© विजय शंकर सिंह

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