Saturday 20 July 2019

अर्थचर्चा - अर्थ व्यवस्था की सुस्त रफ़्तार चिंताजनक है / विजय शंकर सिंह

सत्तर सालों में यह पहली सरकार   जो, 5 ट्रिलियन इकॉनोमी के ख्वाब दिखाती है और रोज़ किसी न किसी रिज़र्व से पैसा मांगती है। एक मंत्री कहता है कि टोल दोगे तो सड़क बनेगी, पर यह बिल्कुल भी नहीं बताता कि, रोड टैक्स, सरचार्ज, तेल पर सेस का धन कहाँ जा रहा है। सरकार का कर संग्रह गिर रहा है, राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है, आयात निर्यात का अंतर बढ़ रहा है, दुनिया मे उधर अमेरिका पगलाया है और एक बड़ा युद्ध होने की संभावना बनती जा रही है, बर्बर असभ्य और हिंसक समाज की तरह लोग जिसे चाहते हैं नोच कर मार दे रहे हैं, और कीचड़ में पांव धरे दूर खूबसूरत चांद के ख्वाब में मुब्तिला हैं।

पहले रिजर्व बैंक से सरकार ने रिजर्व फंड मांगा। यह धन तब भी नहीं मांगा गया था, जब 1991 में सोना गिरवी रखना पड़ा था। इस मुद्दे पर रिजर्व बैंक के गवर्नर और डिप्टी गवर्नर दोनों ही त्यागपत्र दे चुके हैं। अब एक नए गवर्नर आये हैं।

रिजर्व बैंक के बाद SEBI सेबी से इन्वेस्टर्स रिजर्व फंड से सरकार पैसा मांग रही है। इधर से धन मांगा जा रहा है तो उधर चहेते कॉरपोरेट को राहत पहुंचायी जा रही है। पूरी आर्थिक मशीनरी चरमरा गयी है। मूडीज कह रही है कि सरकार के आंकड़े झूठे हैं। भ्रम पैदा कर रहे हैं। पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम कह रहे हैं जीडीपी उतनी नहीं है जितनी बतायी जा रही है। आर्थिक मामलों के जानकार भाजपा के ही सांसद सुब्रमण्यम स्वामी कह चुके हैं कि सरकार जीडीपी के आंकड़े बदलवाती है। बेरोजगारी के आंकड़े 45 साल में सबसे ऊंचे स्तर पर हैं। कुल मिला कर आर्थिक मुद्दे पर अशनि संकेत है।

वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि सूटकेसों के दिन चले गए। इस प्रतीक का अर्थ है सूटकेसों में भरकर धनपति जो रुपये उत्कोच के रूप में पिछली सरकार को  देते थे, उससे है। उनकी बात सही है। अब सूटकेसों के दिन चले गए। अब इलेक्टोरल बांड के दिन आ गए हैं। अब अगर मेहुल चौकसी, नीरव मोदी, विजय माल्या जैसे भगोड़े भी किसी राजनीतिक दल को चंदा देना चाहें तो निश्चिंत हो कर दे सकते हैं, और पार्टी से कोई पूछ भी नहीं सकता है। सरकार ने बेशर्मी से सुप्रीम कोर्ट में कहा कि, कौन दल कहां से चंदा पा रहा है यह जनता जान कर क्या करेगी ?

जनता तो धूमिल के शब्दों में भेड़ है जो इन राजनीतिक नेताओं की ठंड के लिये पीठ पर ऊन की फसल ढोती है ! वह यह जानकर क्या करेगी कि राजनीतिक दल कहां से चंदा पा रहे हैं और कहां व्यय कर रहे हैं। उसका वोट कहां वह डाल रहा है और कहां वह जा रहा है। उसके चुने हुए प्रतिनिधि चुन जाने के बाद कहाँ बिक रहे हैं और कौन सेवेन स्टार रिसोर्ट में रख कर उनको खरीद रहा है । जब हम और आप ऐसे ही इन सबसे असंबद्ध होकर केवल भक्ति में लीन रहेंगे तो सरकार के खिलाफ खड़े होने का साहस खो देंगे।

आप अब मुकेश असीम, का यह लेख पढें,
रिजर्व बैंक से छप्परफाड़ !

" खबर है कि आखिर जालान कमिटी रिजर्व बैंक को कहने वाली है कि वो अपने रिजर्व को खोले और उससे मोदी सरकार की तिजोरी भर दे। पर ये कैसे होगा? इसका संभावित असर क्या होगा?

रिजर्व बैंक का रिजर्व अभी 10 लाख करोड़ रु है। इसमें से लगभग 7 लाख करोड़ रु पुनर्मूल्यांकन रिजर्व है, 2 लाख करोड़ अचानक जरूरत वास्ते, और 1 लाख करोड़ अन्य रिजर्व हैं। पुनर्मूल्यांकन रिजर्व को ऐसे समझिये कि मैंने 10 साल पहले 10 लाख रु कीमत में एक मकान खरीदा था जिसमें मैं रहता हूँ। अब मुझे बाजार में दलाल ने बताया है कि आज इसकी कीमत 50 लाख रु है। बही खाते में मैं कीमत के इस अंतर - 40 लाख रु - को पुनर्मूल्यांकन रिजर्व दिखा अपनी अमीरी पर मुग्ध हो सकता हूँ। पर ये फर्जी अमीरी है, अगर मैं बहीखाते के बल पर इस पैसे को खर्च करना चाहूँ तो कैसे? मेरे पास यह रकम तो है ही नहीं! इसलिए मैं कर्ज लूँगा, उस पर ब्याज दूँगा, आखिर में हो सकता है कर्ज चुकाने के लिए मकान बेचकर भाड़े पर रहना पड़े!

ऐसे ही रिजर्व बैंक का रिजर्व है। विदेशी मुद्रा और सोना दोनों की कीमतें रुपये के मुक़ाबले बढ़ गई है। डॉलर 65 से 70 पर पहुँच गया है तो विदेशी मुद्रा भंडार की रुपये में कीमत बढ़ गई है। मतलब यहाँ मामला मकान से भी अधिक फर्जी है - रुपये की कीमत कम होने से 'अमीरी' पैदा हुई है! समस्या क्या है?

एक, ये विदेशी मुद्रा भंडार देश में आई विदेशी पूंजी है क्योंकि आयात-निर्यात में तो नतीजा नकारात्मक है। दूसरी जगह मुनाफा दिखे या संकट हो तो वापस भी जा सकती है, तब ये 'अमीरी' फुर्र हो जायेगी। कई देशों के साथ ऐसा हो चुका है।

दूसरे, क्योंकि ये फर्जी रिजर्व है अतः रिजर्व बैंक इसे देगा कैसे? नई मुद्रा सृजित कर! पर मुद्रा स्वयं ही एक माल है जिसकी मात्रा मनमर्जी से नहीं बढ़ाई जा सकती। कुल उत्पादन और बाजार में मुद्रा की गति से इसकी मात्रा तय होती है अर्थात जीडीपी में वास्तविक वृद्धि से ही मुद्रा प्रसार बढ़ता है, डिजिटल युग में मुद्रा की गति तो घट नहीं बढ़ रही है अर्थात मुद्रा प्रसार कम होना चाहिये। उत्पादन की वृद्धि के अतिरिक्त ये 'छप्परफाड़' मुद्रा प्रसार बाजार में उपलब्ध मालों के मुक़ाबले मुद्रा की पूर्ति बढ़ाएगा अर्थात मांग-पूर्ति के नियम से मुद्रा सस्ती और माल महँगे होंगे। महँगाई बढ़ेगी।

पर महँगाई की दर से मजदूरों की मजदूरी नहीं बढ़ती। वास्तविक अर्थ में उनकी मजदूरी कम हो जाती है। महँगाई का बढ़ना मजदूरों की जेब कटना होता है।

सरकार के सामने वित्तीय संकट है, कुल बजट का लगभग एक चौथाई कर्ज पर ब्याज ही है। उसे तात्कालिक राहत मिलेगी। पर इस राहत का स्रोत रिजर्व बैंक का कोष नहीं, आम लोगों की जेब होगी। "

© विजय शंकर सिंह

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