Sunday 14 July 2019

अयोध्या विवाद - मध्यस्थता या न्यायिक निर्णय ? / विजय शंकर सिंह

राम मंदिर और राम का नाम  फिर विवादों और बहस के केंद में है। राम मंदिर, सुप्रीम कोर्ट के एक अहम फैसले के कारण और राम का नाम गुंडो और भीड़ हिंसकों द्वारा उन्माद और हिंसा फैलाने के कारण। इलाहाबाद हाई कोर्ट के जस्टिस सुधीर अग्रवाल, जस्टिस एसयू खान और जस्टिस डी वी शर्मा की बेंच ने 30 सितंबर 2010 को अयोध्या विवाद पर अपना फैसला सुनाया था। उक्त फैसले के अनुसार,  2.77 एकड़ विवादित भूमि के तीन बराबर हिस्सा किए जाने, रामलला के विग्रह वाला पहला हिस्सा रामलला विराजमान को देने,  राम चबूतरा और सीता रसोई वाला दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को दिए जाने, और बाकी बचा हुआ तीसरा हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिये जाने का निर्णय हुआ था। इस फैसले के खिलाफ सभी पक्षकारों द्वारा, सुप्रीम कोर्ट में, अपील दायर किये जाने पर शीर्ष अदालत ने मई 2011 में उच्च न्यायालय के निर्णय पर रोक लगाने के साथ ही विवादित स्थल पर यथास्थिति बनाये रखने का आदेश दिया था। तब से यह मुकदमा लंबित है।

तब से लंबित यह मुक़दमा धीमी गति से अदालत में चलता रहा। कुछ तो अपनी जटिलता के कारण और कुछ मुक़दमे की प्रकृति के कारण। सुनवायी के दौरान, सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की एक पीठ, जिसकी अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई कर रहे हैं, ने एक महत्वपूर्ण आदेश, इस मामले को आपसी बातचीत से सुलझाने के लिये दिया, जो मध्यस्थता का था। अदालत इस मुक़दमे को भले ही एक भूमि विवाद माने, पर इस मुक़दमे की गम्भीरता का एहसास उसे भी है। इस पीठ ने मध्यस्थता के लिये पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज जस्टिस खलीलुल्लाह की अध्यक्षता में एक मध्यस्थता पंच गठित किया, जिसके सदस्य, श्रीश्री रविशंकर और मद्रास हाईकोर्ट के वरिष्ठ एडवोकेट श्रीराम पांचू बनाये गये। पीठ की सुनवायी के लिये स्थान, फैज़ाबाद नगर का नियत किया गया। मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह भी आदेश दिया कि मध्यस्थता की कार्यवाही का विवरण अखबारों और मीडिया में प्रसारित नहीं किया जाएगा। इस जटिल मामले को हल करने के लिये तीन माह का समय दिया गया।

न्यायिक निर्णय हेतु लंबित इस अपील पर  मध्यस्थता से हल करने का आदेश सुप्रीम कोर्ट से जारी हुआ तब लोगों ने अदालत के इस कदम पर, सन्देह जताया था कि बेहद विवादित हो चुके इस मामले में किसी भी मध्यस्थता प्रयास सफल नहीँ होगा । लेकिन फिर भी अदालत ने आपस मे मिल बैठ कर इस मामले को सुलझाने का एक अवसर उभय पक्ष को और दिया। अदालत का यह निर्णय, विवाद को सुलझाने का एक प्रयास के रूप में देखा जाना चाहिये।

नालसर लॉ यूनिवर्सिटी के कुलपति और प्रसिद्ध विधिवेत्ता डॉ फैजान मुस्तफा ने इंडियन एक्सप्रेस में इस विषय पर एक लेख लिखा है जिसमे उन्होंने संविधान पीठ की महत्ता और इसके न्यायिक स्वरूप के बारे में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। डॉ मुस्तफा ने उस लेख में विस्तार से कानूनी विन्दुओं की चर्चा की है। उन के लेख के अनुसार, संविधान पीठ एक भी व्यक्ति या इकाई के कानूनी अधिकारों के संरक्षण के लिये प्रतिबद्ध है। वह कानून के अनुसार ही अपना निर्णय देती है। जन भावनाओ का उसके समक्ष कोई महत्व नहीं होता है। संविधान पीठ का गठन पेचीदगी भरे कानूनी मामलों को सुलझाने के लिये किया जाता है। संविधान पीठ का प्रथम उद्देश्य ही यह होता है कि वह संविधान के प्राविधानों का परीक्षण करे और उसकी गहराई में जाये।

दो पक्षों में की जा रही, मध्यस्थता से समाधान और मुक़दमे में बयान, जिरह, बहसा के बाद अदालत द्वारा दिये गये, अंतिम फैसले जिसे ऐडजुडिकेशन या हिंदी में न्यायिक निर्णय कहते है ,में अंतर होता है। न्यायिक निर्णय दोनों पक्षों पर बाध्यकारी होता है । जिसमे एक पक्ष विजयी होता है और दूसरा पक्ष मुकदमा हारता है। हारने वाला पक्ष उच्चतर न्यायालय में अपील कर सकता है। लेकिन मध्यस्थता में न तो कोई पक्ष जीतता है और न ही हारता है। रजामंदी से मामले को सुलझाया जाता है।  मध्यस्थता का उद्देश्य ही यह है कि दोनों पक्ष उक्त विवाद को एक दूसरे को संतुष्ट करते हुये हल करें। यह उपचार, न्यायिक निर्णय से उत्पन्न, संभावित खटास से बचने के लिये एक अवसर के रूप में आजमाया जाता है।

अयोध्या मामले में, मध्यस्थता का यह पहला प्रयास नहीं है। इस प्रकरण में, मध्यस्थता का सबसे पहल प्रयास 1991 में, जब विवादित ढांचा ढहाया नहीं गया था और चंद्रशेखर जी प्रधानमंत्री थे, तब उनके कार्यकाल मे किया गया था। पर तब भी बात तो, कुछ बननी नहीं थी और बात बनी भी नहीं। फिर 1992 में 6 दिसंबर को जब वह ढांचा ढहा कर रामलला को तंबू में ला दिया गया तब बाद में पीवी नरसिम्हा राव के समय प्रधानमंत्री कार्यालय में एक अयोध्या प्रकोष्ठ बना जिसका उद्देश्य आपसी बातचीत की संभावनाएं तलाशना था। पर वहां भी सुस्ती ही रही और कोई काम नहीं हुआ। सच बात तो यह है कि इस मामले में कोई भी सरकार पड़ना नहीं चाहती है। पूर्व प्रधानमंत्री, अटल जी ने भी,  अत्यधिक ज्वलनशील इस मामले के संदर्भ में, एक बार कहा था, " कोई भी अदालत इस मामले में फैसला नही देना चाहती, अगर वह कोई फैसला दे भी दे तो, उसे कोई भी सरकार लागू नहीं कर पायेगी।" अटल जी का यह कथन सच के बहुत नज़दीक है। यही कारण है कि अदालतें इस मुकदमे की सुनवायी में उतनी तेजी नहीं दिखाती जितनी वे अन्य मामलों के निस्तारण में दिखाती हैं।

जब मध्यस्थता का आदेश अदालत ने किया था तो इस आदेश पर तभी, संदेह और सवाल लोगों ने उठाये थे। संदेह अविश्वास से उपजता है । इस मामले को लेकर जैसा अविश्वास दोनों पक्षों में व्याप्त है, उसे देखते हुए यह उम्मीद करना लगभग मुश्किल हो गया है कि दोनों पक्ष आपसी समझदारी से यह मामला मध्यस्थता से सुलझायेंगे। वैसे भी मध्यस्थता की मांग दोनों में से किसी भी पक्ष की नहीं थी। न तो निर्मोही अखाड़ा और रामलला बिराजमान की और न ही सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड की इस प्रकार की कोई मांग सुप्रीम कोर्ट के समक्ष की गयी थी । इस भूमि विवाद में कुल 14 अपीलें सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की गयीं थीं पर मुख्य पक्ष यही तीन हैं, जिनका मैंने ऊपर उल्लेख किया है और जिनको एक एक तिहाई भूमि इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के अनुसार मिली हैं। इन्ही की अपील पर यह संविधान पीठ विचार कर रही है। मध्यस्थता का आदेश, अदालत का एक प्रयास है ताकि आस्था और विश्वास पर टिका यह जटिल मामला हल हो सके।

दूसरा विवाद श्रीश्री रविशंकर के नाम पर हुआ। रविशंकर जी स्वयं भी इस मामले को निजी तौर पर हल करने का प्रयास कर चुके हैं। वे आभिजात्य समाज के धर्मगुरु हैं। अयोध्या में इनकी कोई पकड़ नहीं है। यह एक बार यह बयान भी दे चुके हैं कि मुस्लिमों को यह भूमि सदाशयता से हिंदू समाज को सौंप देनी चाहिये। जब रविशंकर जी अपना मन्तव्य सार्वजनिक कर चुके हैं, तब उनकी मध्यस्थता पर अगर वह उचित और तार्किक बात कहते भी हैं तो भी उस पर संदेह उठ सकता है।

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया है कि मध्यस्थता का यह आदेश, एक खुला आदेश है और किसी भी परंपरागत न्यायिक प्रक्रिया के अंतर्गत नही है बस अदालत से बाहर इस जटिल मसले को हल करने के प्रयास के एक अवसर के रूप में इस आदेश को देखा जाना चाहिये।

मध्यस्थता के इस आदेश से, एक कानूनी विंदु भी जुड़ा है। वह विंदु है क्या किसी पक्षकार के प्रतिनिधि के रूप में कोई मध्यस्थता में भाग ले सकता है ? यह सवाल इसलिए उठा क्योंकि इसमें एक पक्ष रामलला बिराजमान का भी है। क्या किसी देवता की तरफ से किसी प्रतिनिधि को  मध्यस्थता की अनुमति दी जा सकती है ? सुप्रीम कोर्ट ने अपने द्वारा ही निर्णीत एक मुक़दमे में यह रूलिंग दे रखी है कि, अवयस्क, देवता और मानसिक विकलांग पक्षकारों के प्रतिनिधियों को मध्यस्थता में भाग लेने का अधिकार है। यह आदेश सुप्रीम कोर्ट के इस व्यवस्था का भी उल्लंघन करता है।

हिंदू महासभा जो इस मामले में कोई भी पक्षकार नहीं है ने मध्यस्थता के आदेश को इस बयान के साथ खारिज कर दिया कि, " वह भूमि भगवान राम की जन्मभूमि है। वहां लाखों साल से भगवान राम की पूजा होती रही है। उस भूमि की रक्षा करने का संकल्प हिंदुओ के लिये करो या मरो की तरह है।" यह मामला जैसी कि सभी को आशंका थी, धार्मिक आधार पर गरमा गया। आगे विश्व हिंदू परिषद का यह बयान आ गया कि, ' हिंदुओं की रामजन्म भूमि को लेकर अगाध आस्था है, औऱ इस पर कोई समझौता नहीं हो सकता है। "

मध्यस्थता के लिये जो समय सीमा दी गयी थी वह बहुत कम थी। इस संवेदनशील मामले में जितने मुक़दमे 1949 से चल रहे हैं, और समय समय पर जो अन्य मुक़दमे और कानूनी विंदु जुड़ते गये हैं उनसे यह पूरा विवरण ही जटिल हो गया है। हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, फ़ारसी के अनेक दस्तावेज इन मुकदमों के संदर्भ में, अदालत में दाखिल किये गए है। उन सबका अध्ययन आवश्यक है। जब तक मध्यस्थता पीठ को सारे तथ्य और मामलों की सम्यक जानकारी न हो तब तक वे सभी पक्षकारों से वह किसी सर्वसम्मत हल पर पहुंचने के लिये कैसे समझा या राजी कर सकते हैं ?.कुल आठ हफ्तों की समय सीमा में सत्तर साल से चल रहे विवाद का रजामंदी से हल हो जाय यह कैसे संभव है ?

सुप्रीम कोर्ट का यह मानना है कि, अगर- मध्यस्थता नहीं बढ़ी तो अगली तारीख, 25 जुलाई से इस मामले की रोज सुनवाई की जाएगी। अदालत में, याचिकाकर्ताओं ने यह कहा है कि इस मसले में मध्यस्थता से विवाद चल नहीं होगा।  ऐसे में सुप्रीम कोर्ट के न्यायिक निर्णय के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है।  गुरुवार 11 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट याचिकाकर्ताओं ने मध्यस्थता पैनल से रिपोर्ट मांगी है। अब 18 जुलाई तक रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट के सामने पेश की जाएगी, तब इस बात पर फैसला होगा कि इस मामले में रोजाना सुनवाई होगी या नहीं। गोपाल सिंह विशारद राम जन्मभूमि विवाद में एक मूल वादकार भी हैं ने अपना पक्ष रखते हुये अदालत मे कहा कि, मध्यस्थता कमेटी की अब तक तीन बैठकें हो चुकी हैं लेकिन हल निकलने की कोई संभावना नजर नहीं आ रही. इसलिए शीर्ष अदालत इस पर जल्द सुनवाई करे।

इस मामले की सुनवाई चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस एसए बोबडे, डीवाई चंद्रचूड़, अशोक भूषण और अब्दुल नज़ीर ने कर रहे हैं। अदालत ने कहा है कि अनुवाद में समय लग रहा था, इसी वजह से मध्यस्थता पैनल ने अधिक समय मांगा था। अब हमने पैनल से रिपोर्ट मांगी है।

अब अदालत के समक्ष मुक़दमे की सुनवाई और फैसले के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है। संभवतः अब तक के न्यायिक इतिहास में यह देश की किसी भी अदालत के सामने सबसे बड़ी न्यायिक चुनौती है। अब यह देखना है कि न्यायपालिका कैसे इस चुनौती से निपटती है।

© विजय शंकर सिंह 

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