Friday 26 July 2019

कानून - 1919 में पारित रौलेट एक्ट का इतिहास और उसका स्वाधीनता संग्राम पर प्रभाव / विजय शंकर सिंह

मार्च 1919 में ब्रिटिश सरकार ने एक सख्त कानून बनाया था जिसे एनारकियल क्राइम एंड रिवोल्यूशनरी एक्ट 1919 ( Anarchical and Revolutionary Crime Act, 1919)  कहा जाता था। इस कानून का ड्राफ्ट जस्टिस सर सिडनी रौलेट की अध्यक्षता में गठित सेडिशन कमेटी ने तैयार किया था, इसी लिये यह एक्ट रौलेट एक्ट कहलाया। यह एक्ट फरवरी 1919 में असेेंबली से पारित हो गया था। इसी कानून के पहले 1915 में युद्ध काल मे सम्भावित विरोध को देखते हुये डिफेंस ऑफ इंडिया रूल ( डीआईआर ) बनाया गया था। यह उसी डीआईआर का और व्यवस्थित तथा दमनकारी रूप था।

यह एक्ट ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में उभर रहे आज़ादी के राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने के उद्देश्य से  बनाया गया था। इस कानून में कुछ प्राविधानों के अनुसार सरकार को यह अधिकार प्राप्त हो गया था कि वह किसी भी भारतीय पर अदालत में बिना मुकदमा चलाए उसे जेल में बंद कर सकती है। इस क़ानून के तहत अपराधी को उसके खिलाफ मुकदमा दर्ज करने वाले का नाम जानने का अधिकार भी समाप्त कर दिया गया था।

इस कानून के विरोध में देशव्यापी हड़तालें, जूलूस और प्रदर्शन होने लगे। ‍गाँधीजी ने व्यापक हड़ताल का आह्वान किया। सत्याग्रह में उन लोगों को भी शामिल कर लिया जिन्हे होमरूल लीग ने राजनीतिक रूप से जागरूक बनाया था।

1916 में बाल गंगाधर तिलक द्वारा भारत में स्वशासन के लिए राष्ट्रीय मांग का नेतृत्व करने के लिए "होम रूल के नाम से एक आंदोलन की शुरुआत की गई थी। तिलक कांग्रेस में गरम दल, यानी आज़ादी के लिये बातचीत, ज्ञापन, पिटीशन से आगे जाकर आंदोलन आदि करके आज़ादी के लक्ष्य को पाने के रणनीति चाहते थे, वहीं गोपाल कृष्ण गोखले अभी इतनी तेजी के पक्ष में नहीं थे और बातचीत यानी संसदीय तरीके से अपनी बात कहना चाहते थे, अतः नरम दल अर्थात मॉडरेट कहलाये। यह रणनीतिक विभाजन, 1907 के सूरत में हुये कांग्रेस के अधिवेशन में हो गया था। तिलक गोखले से अधिक लोकप्रिय हो गये थे।  होमरूल आंदोलन, भारत को ब्रिटिश राज में एक डोमिनियन का दर्जा दिलाने के लिए  किया गया था। उस समय ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका, न्यूजीलैंड और न्यूफ़ाउंडलैंड डोमिनियन के रूप में स्थापित थे। ये देश ब्रिटिश साम्राज्य के अंदर तो थे, पर घरेलू मामलों मे खुदमुख्तार थे। प्रथम विश्वयुद्ध के आरम्भ होने पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नरम दल ने ब्रिटेन की सहायता करने का निश्चय किया। उनके  इस निर्णय के पीछे संभवतः यह कारण था कि यदि भारत ब्रिटेन की सहायता करेगा तो युद्ध के पश्चात ब्रिटेन, सदाशयता से, भारत को आज़ाद कर देगा । परन्तु शीघ्र ही कांग्रेस का यह भ्रम दूर हो गया कि ब्रिटेन ऐसा कदापि नहीं करेगा और इसलिए भारतीय नेता असंतुष्ट होकर आज़ादी के लिये दूसरा मार्ग खोजने लगे।

तभी होम रूल आन्दोलन का  जन्म हुआ। 1915 ई. से 1916 ई. के  बीच, दो होम रूल लीगों  'पुणे होम रूल लीग' जिसकी स्थापना तिलक ने और 'मद्रास होम रूल लीग' जिसकी स्थापना एनी बेसेंट ने की थी, बनी। लेकिन अंग्रेजों का इरादा साफ था कि उन्हें न तो, साम्राज्य के अंतर्गत डोमिनियन दर्जा देना था, और न ही, पूर्ण आज़ादी । पूर्ण आज़ादी की तो कहीं दूर दूर तक कोई बात अंग्रेजों के मन मे थी ही ही नहीं। उन्हें यह भी आभास था कि युद्ध की समाप्ति के बाद आज़ादी को लेकर कोई न कोई बड़ा आंदोलन भड़क सकता है और उससे सख्ती से निपटने के लिये एक कड़े कानून की ज़रूरत है तो उन्होंने एक कमेटी, सेडिशन कमेटी के नाम से, जस्टिस सर सिडनी रौलेट की अध्यक्षता में गठित की, जिसने इस कानून का ड्राफ्ट बनाया।

सन 1910 के दशक के प्रारंभ में यूरोप के अधिकतर देशों में आपसी तनाव बढ़ने लगा था। यह उपनिवेश वाद के विस्तार का भी एक परिणाम था क्योकि यूरोपीय विस्तारवादी देशों के हित एक दूसरे से टकराने लगे थे। साथ ही उपनिवेशों में भी जन जागरूकता आने लगी थी। उधर रूस में कम्युनिस्ट क्रांति की धमक मिलनी शुरू हो गयी थी जिसे पूंजीवाद के खिलाफ एक बड़ी चुनौती के रूप में देखा जाने लगा था। अचानक एक हत्या की घटना से विश्वयुद्ध भड़क उठा। इसकी भारत मे अलग तरह से प्रतिक्रिया हुयी।

भारत मे कांग्रेस अपने संस्थापक एओ ह्यूम के उद्देश्यों के उलट राष्ट्रीय चेतना की वाहक और प्रतीक बन चुकी थी। लोकमान्य तिलक ने स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा, का उद्घोष भरी अदालत में कर के भारतीय जिजीविषा और लक्ष्य को प्रतिध्वनित कर दिया था। बंगाल और महाराष्ट्र के कुछ इलाक़ों में होने वाली क्रांतिकारी गतिविधियों ने अंग्रेजों को सचेत कर दिया था। गांधी जी के 1915 में दक्षिण अफ्रीका से वापस आने के बाद कांग्रेस की सोच पर उनके असहयोग और अहिंसा का असर पड़ना शुरू हो गया था।

1914 - 1919 में प्रथम विश्व युद्ध हुआ और  इस युद्ध में ब्रिटेन की जीत हुई थी। इस युद्ध में ब्रिटेन के जीत हासिल कर लेने के बाद उन्होंने भारत में हो रहे जनांदोलन को और सख्ती से दबाना जमाना शुरू कर दिया था।  सन 1918 में युद्ध समाप्त होने के एक साल पहले  देश में अपने खिलाफ क्रांतिकारियों द्वारा की जा रही गतिविधियों एवं आंदोलनों को दबाने के लिए उन्होंने, रॉलेट एक्ट कानून लाने का फैसला किया था, ताकि कोई भी भारतीय ब्रिटिश राज के खिलाफ आवाज न उठा सके। हालाँकि ब्रिटिश सरकार के अनुसार, इस एक्ट को लागू करने का उद्देश्य देश में होने वाली आतंकवादी गतिविधियों को समाप्त कर देश में शांति लाना भी था।

इस एक्ट के अंतर्गत, ब्रिटिश सरकार को निम्न अधिकार मिल गए थे –

* पुलिस किसी भी ऐसे व्यक्ति को, जोकि आतंकवाद, देशद्रोह और विद्रोह में शामिल होता हुआ दिखेगा, उसे तुरंत गिरफ्तार कर सकते हैं. और वो भी बिना किसी वारंट के केवल शक के आधार पर.।

* गिरफ्तार किये गये लोगों को बिना किसी भी कार्यवाही के एवं बिना किसी को जमानत दिए दो साल तक जेल में रखने का अधिकार भी ब्रिटिश सरकार को प्राप्त था।

* गिरफ्तार किये गए लोगों को यह भी नहीं बताया जाता था कि उन्हें किस धारा के तहत जेल में डाल दिया गया है. और उन्हें अनिश्चितकाल तक नजरबंद भी रखा जाता था।

* इसके साथ ही भारतीयों को यह अधिकार भी नहीं दिया गया कि वे अपने पक्ष कुछ बोल सकें।

* सरकार को यह भी अधिकार प्राप्त था कि उन्होंने पुलिस को अधिक सख्ती से नियंत्रित करने की शक्ति दे दी थी।

* जेल में डाले गये दोषियों को अपने अच्छे व्यवहार को सुनिश्चित करने के लिए सिक्योरिटीज को जमा करने के बाद ही रिहा किया जाता था

* भारतियों को राजनीतिक, धार्मिक या शैक्षिक गतिविधियों में हिस्सा लेने पर भी प्रतिबंध लगा दिए गये थे।

इस एक्ट का भारतीयों द्वारा विरोध किया गया था, क्योंकि उनका मानना था कि ब्रिटिश सरकार उनके ऊपर यह कानून लागू कर के अन्याय कर रही है। इस एक्ट का विरोध करने वालों में प्रमुख मजहर उल हक, मदन मोहन मालवीय और मोहम्मद अली जिन्ना जैसे कद्दावर नेता थे। इन सभी ने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर इस एक्ट के खिलाफ सर्वसम्मति से मतदान करने के बाद काउंसिल से इस्तीफा देने का फैसला किया।

इस कानून के प्रस्तावित होने के बाद गांधी जी ने इस कानून की आलोचना की, क्योंकि उन्हें लगता था कि केवल एक या कुछ लोगों द्वारा किये गये अपराध के लिए लोगों के एक समूह को दोषी ठहरा कर उन्हें सजा देना नैतिक रूप से गलत है। गांधी जी ने इसके खिलाफ आवाज उठाते हुए इसे समाप्त करने के प्रयास में अन्य नेताओं के साथ मिलकर 6 अप्रैल 1919 को आम हड़ताल का आह्वान किया।

यह हड़ताल पूरी तरह सफल रही। जनता ने सभी व्यवसाय, काम धाम स्थगित कर दिए. और ब्रिटिश कानून के प्रति अपना विरोध प्रदर्शित  करने के लिए सामूहिक उपवास किया। गांधी जी द्वारा शुरू किये गए इस आंदोलन को रॉलेट सत्याग्रह भी कहा जाता है।. यह आंदोलन अहिंसा के संकल्प के साथ शुरु हुआ था, किन्तु  बाद में यह आंदोलन हिंसक होने लगा। जिसके कारण गांधी जी ने इसे ख़त्म करने का फैसला कर लिया। दरअसल एक तरफ लोग दिल्ली में हड़ताल को सफल बनाने में लगे हुए थे, तो दूसरी तरफ पंजाब एवं अन्य राज्यों में तनाव बढ़ने के कारण दंगे भड़क उठे थे । कोई भी उस समय अहिंसा का मार्ग नहीं अपना रहा था। जिसके चलते गांधी और कांग्रेस पार्टी द्वारा इस आंदोलन को वापस लेना पड़ा।

उस समय, पंजाब के अमृतसर में लोग बहुत उत्तेजित हो गये, जब 10 अप्रैल 1919 को कांग्रेस के दो प्रसिद्ध नेताओं डॉ सत्यापाल और डॉ सैफुद्दीन किचलू को इस काले कानून के विरोध के आरोप में पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर उन्हें अज्ञात स्थान में बंदी बना कर रख लिया गया था। तब अमृतसर के लोगों द्वारा सरकार से उनकी रिहाई की मांग के लिए प्रदर्शन किया गया। किन्तु सरकार ने उनको रिहा करने से इनकार कर दिया। अतः उत्तेजित भीड़ ने रेलवे स्टेशन, टाउन हॉल सहित कई बैंकों और अन्य सरकारी इमारतों पर हमले कर दिया और उनमे आग लगा दी। इससे ब्रिटिश अधिकारियों का संचार तंत्र बाधित हो गया और रेलवे लाइन्स भी क्षतिग्रस्त हो गई थी। यहाँ तक कि 5 ब्रिटिश अधिकारीयों की मृत्यु हो गई. हालाँकि इसके साथ ही कुछ भारतीयों को भी अपनी जान गवानी पड़ी थी। इसके बाद अमृतसर में ‘हड़ताल’ में शामिल होने वाले कुछ नेताओं ने 12 अप्रैल 1919 को रॉलेट एक्ट के खिलाफ प्रस्ताव पारित करने और गिरफ्तार किये गये दोनों नेताओं को जेल से रिहा करवाने के लिए मुलाकात की. इसमें उन्होंने यह निर्णय लिया कि अगले दिन यानी 13 अप्रैल के दिन, जलियांवाला बाग में एक सार्वजनिक विरोध सभा आयोजित की जाएगी। 13 अप्रैल को बैसाखी थी, जो पंजाब का एक लोकप्रिय उत्सव था।

इस काले कानून के विरोध में 13 अप्रैल, 1919, बैसाखी के दिन,  सैफुद्दीन किचलू और सत्यपाल की गिरफ्तारी विरोध में जलियाँवाला बाग में लोगों की भीड़ एक सभा के लिये इकट्ठा हुई थी। शांतिपूर्ण ढंग से सभा चल रही थी। जलियांवाला बाग चारो तरफ से घिरा हुआ एक मैदान था, जिसमे आने जाने का केवल एक ही मार्ग था।  अमृतसर में तैनात फौजी कमांडर जनरल डायर ने उस भीड़ पर अंधाधुंध गोलियाँ चलवाईं। डायर अपने सिपाहियों के साथ उसी द्वार पर खड़ा गोलियां बरसाता रहा। लोग न बच सके न भाग सकें। मैदान के एक कुंवें मे कुछ ने कूद कर जान बचाने की कोशिश की, पर वह भी बच न सके।  सैकड़ो लोग मारे गए। भीड़ में महिलाएँ और बच्‍चे भी थे। यह घटना ब्रिटिश हुकूमत के दमन कृत्यों के काले अध्‍यायों में से एक है जिसे जालियाँवाला बाग नरसंहार के नाम से जाना जाता है।

इसी के बाद पूरे पंजाब में मार्शल लॉ लग गया। फौज ने सारा प्रशासन संभाल लिया। गांधी जी को दिल्ली स्टेशन पर ही रोक दिया गया। वे ट्रेन से दिल्ली जा रहे थे। उन्होंने बोअर युद्ध मे योगदान के लिये मिले ब्रिटिश सम्मान क़ैसर ए हिन्द को लौटा दिया । इसी की प्रतिक्रिया में रवींद्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा मिली सर की उपाधि ( नाइटहुड ) को वापस कर दिया। इस घटना ने ब्रिटिश जिसे अपनी परंपराओं पर नाज़ था का विद्रूप और दमनकारी चेहरा दुनिया के सामने आया। कुछ इतिहासकारों के अनुसार, भारत मे क्रांतिकारी आंदोलन को पनपने में इस नरसंहार और दमन की बहुत बड़ी भूमिका रही है।

लेकिन यह विवादास्पद और दमनकारी कानून बना तो रहा पर इसे सरकार ने कभी लागू नहीं किया। ब्रिटिश सरकार को यह अंदाज़ तो था कि विरोध होगा पर विरोध इतना व्यापक हो जाएगा यह वह अनुमान नहीं लगा सकी थे। जलियांवाला बाग नर संहार ने सरकार को यह पुनर्विचार करने पर बाध्य कर दिया कि यह कानून वापस ले लिया जाय। पर सरकार ने अपनी हुक़ूमत के दंभ के कारण इसे न तो संशोधित किया और न ही रद्द किया, पर उसने इस कानून को लागू नहीं किया। वैसे ही इसे छोड़ दिया।

© विजय शंकर सिंह

2 comments:


  1. जय मां हाटेशवरी.......
    आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
    आप की इस रचना का लिंक भी......
    27/07/2019 को......
    पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
    शामिल किया गया है.....
    आप भी इस हलचल में......
    सादर आमंत्रित है......

    अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
    https://www.halchalwith5links.blogspot.com
    धन्यवाद

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  2. बहुत जानकारी युक्त पोस्ट।

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