Thursday, 14 April 2022

शंभूनाथ शुक्ल / कोस कोस का पानी (44) परसरामी की वह परंपरा

पूरे देश में ग्रामीण लोगों ने अपने मनोरंजन के लिए कोई न कोई प्रहसन या नाटक खेलते हैं, अथवा कोई न कोई नाच से अपना मन बहलाते रहे हैं। उत्तर भारत में रामलीला का मंचन होता है। तो दक्षिण में परंपरागत मुखौटों को लगा कर नृत्य नाटिकाएँ की जाती हैं। रामलीला का कथ्य भले एक हो, लेकिन उसके मंचन और संवाद में भिन्न-भिन्न रामायणों से संवाद और छंद उठाए जाते हैं। जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा में राधेश्याम कथावाचक की रामायण प्रयोग में लाते हैं, वहीं बनारस में तुलसी रामायण को आधार बनाया जाता है। छत्तीसगढ़ में शिवरी नारायण का राम वन गमन का मंचन किया जाता है। लेकिन उत्तर प्रदेश में कानपुर और उसके अस्सी कोस की परिधि में एक दिवसीय रामलीला की बड़ी मान्यता है। आमतौर पर रामलीलाएँ क्वार की नवरात्रि में होती हैं। इनके लिए कलाकार मथुरा-वृंदावन से बुलाए जाते हैं या मुरादाबाद से अथवा चित्रकूट से। कुछ जगह स्थानीय स्तर पर भी कलाकार होते हैं। स्थानीय स्तर के ये कलाकार हर महीने कोई न कोई नाटक या ड्रामा अथवा प्रहसन कर लेते थे। लेकिन पूरी क्षमता के साथ अपनी कला, वाक्-शैली के प्रदर्शन के लिए एक समूचा मंच और दर्शकों की ज़रूरत पड़ती थी। इसके लिए एक ऐसे नाटक की आवश्यकता थी, जिसमें धार्मिक पुट हो और आस्था का तड़का हो। इसके लिए यह एक दिवसीय राम लीला बहुत लोकप्रिय थी। इसे हर उस वक्त में कर लिया जाता, जिस समय किसान ख़ाली होता। गर्मियों में जब रबी की फसल कट चुकी होती अथवा अगहन-पूष में, जब ख़रीफ़ की फसल घर आ चुकी होती। यह एक दिवसीय रामलीला कहीं-कहीं भरत मिलाप के रूप में होती, तो कहीं धनुषभंग अथवा परशुरामी के रूप में। शेष जगह श्रीकृष्ण के चरित्र पर आधारित रासलीला होती। कानपुर में धनुषभंग या परशुरामी अक्सर होती थी। 

धनुषभंग से स्पष्ट है, कि यह उस समय का प्रसंग है, जब मिथिला नरेश राजा जनक के यहाँ शिव धनुष को तोड़ा जाता है। राम के गले में वरमाला पड़ती है और विवाह के मंगल गीत गए जाने लगते हैं। उसी समय अचानक परशुराम आ जाते हैं और पूरे मंगल कार्यक्रम में विघ्न पैदा कर देते हैं। फिर शुरू होता है वाक्-युद्ध। इसमें परशुराम और लक्ष्मण के बीच संवाद और शास्त्रार्थ चलता है। यह सारा संवाद कविता में होता है। कुछ परशुराम तो संस्कृत में शास्त्रार्थ करते थे। राजा जनक, लक्ष्मण और परशुराम के अभिनय के लिए कलाकार बहुत परिश्रम करते। धर्म की बारीकियों को समझते और फिर अभिनय करते। यह संवाद और शास्त्रार्थ इतना लंबा खिंचता, कि रात 9 बजे शुरू हुई यह लीला सुबह 9 और दस बजे तक चलती। दर्शक भी जमे रहते। वे कलाकारों को प्रोत्साहित भी करते। सच बात तो यह है, कि असली लीला ही राम विवाह के बाद तब शुरू होती जब मंच पर परशुराम प्रकट होते। कुछ लोग तो धनुषभंग देखने ही तब आते जब मंच पर परशुराम आते। क्योंकि इस लीला का असली आनंद ही परशुराम के बाद ही शुरू होता। इस संवाद में शब्दों का ऐसा खेल होता, कि लोग भौंचक रह ज़ाया करते। इसीलिए बचपन से ही कविता के संस्कार फूटने लगते। यह कष्टसाध्य तो होता, लेकिन बच्चों के अंदर साहित्य और व्याकरण की रुचि जगाने में सहायक भी होता। 
मेरे बचपन में कई नामी कलाकार थे। मेरे पड़ोसी गाँव गज़नेर के पंडित व्यासनारायण वाजपेयी की परशुरामी का अभिनय करने में बहुत ख्याति थी। पंडित जी संवाद संस्कृत में करते, इसलिए उनके समक्ष कोई भी लक्ष्मण खड़ा होने की हिम्मत नहीं करता था। इसी तरह शिवली के शिवदत्त लाल अग्निहोत्री और गोरेलाल त्रिपाठी भी परशुराम के अभिनय के लिए बुलाए जाते थे। राजा जनक के अभिनय के लिए वंशलाल त्रिपाठी की बड़ी प्रतिष्ठा थी। लक्ष्मण के अभिनय के लिए भी ऐसे ही विद्वान तलाशे जाते। हर कलाकार अपने-अपने चरित्र को जीता। उसका ऐसा अभ्यास करता, कि प्रतिद्वंदी को संवाद और विद्वता से परास्त करना ही उसका लक्ष्य होता। ज़रा-सी भी चूक उसे ध्वस्त कर सकती थी। ख़ासकर परशुराम का अभिनय बहुत कठिन होता। क्योंकि परशुराम के पात्र के लिए संस्कृत और व्याकरण का जानकार होना ज़रूरी था और धर्म के तात्त्विक स्वरूप को भी। परशुराम को शारीरिक रूप से भी हृष्ट-पुष्ट होना चाहिए था। क्योंकि अच्छा परशुराम वही होता जो मंच के तख़्त को चिटक कर तोड़ देता। सोचिए, माघ-पूष की कड़कड़ाती ठंड में परशुराम जब मंच पर आते, तब उनके शरीर पर सिवाय एक कौपीन के और कुछ नहीं होता था। 

धनुषभंग की यह लीला उस समय शुरू होती, जब गौरी पूजन के लिए सीता पुष्प वाटिका में जा रही होती थीं। इसी पुष्प वाटिका में राम अपने गुरू विश्वमित्र के साथ ठहरे हैं। सीता के राम से उसके नयन चार होते हैं। और परस्पर अनुराग से दोनों विचलित हैं। लेकिन मर्यादा से बँधे हैं। सीता गौरी पूजन करते हुए कामना करती हैं, कि राम ही उन्हें वर के रूप में मिलें। लेकिन फिर पिता की भीषण प्रतिज्ञा याद कर वे दुखी हो जाती हैं। उनके पिता मिथिला नरेश राजा जनक ने प्रतिज्ञा की हुई है, कि वे सीता का विवाह उसी के साथ करेंगे, जो उनके महल में रखा शिव धनुष “पिनाक” को तोड़ देगा। यह बड़ी भयानक प्रतिज्ञा थी, क्योंकि शिव धनुष को तोड़ना तो दूर, बड़े-बड़े पहलवान भी उसे उठा तक नहीं पाते थे। यही वही धनुष था, जिससे देवासुर संग्राम के समय प्रयोग में लाया गया था। लेकिन बाद में शिव के शिष्य परशुराम उसकी रखवाली राजा जनक को सौंप मंदराचल पर्वत पर तपस्या करने चले गए थे। एक दिन सीता ने खेल-खेल में इस धनुष को उठा लिया, तो राजा जनक अपनी पुत्री का यह बल देख कर भौंचक्के रह गए। उन्होंने उसी क्षण यह प्रतिज्ञा की, कि वे सीता का विवाह उसी से करेंगे, जो इस धनुष को तोड़ देगा। सीता अतीव सुंदरी थी, उससे विवाह के लिए सभी राजे जनक पुरी में आए थे। पर सब आशंकित भी थे, कि वे शिव-धनुष तोड़ भी पाएँगे या नहीं। सीता सोचती हैं, इन महान बलशाली राजाओं के मुक़ाबले भला ये अयोध्या के राजकुमार कौन-से तीर मार पाएँगे! लेकिन गौरी से वे राम को पाने की अनुनय करती हैं। 

सीता स्वयंवर हेतु दरबार में उस विशालकाय शिव धनुष को रखा जाता है। पृथ्वी भर से पधारे सभी महान और बलशाली राजा शिव धनुष तोड़ने के इरादे से उसके क़रीब जाते हैं। लेकिन तोड़ना तो दूर वे उसे हिला तक नहीं पाते। इसके बाद शुरू होता है जनक विलाप। यह कन्या के पिता का दुःख है। राजा जनक मंच पर आकर रोते हुए कहते हैं, कि हाय! विधाता ने क्या मेरी कन्या सीता के लिए उसके उपयुक्त कोई वर नहीं लिखा? क्या यह पृथ्वी वीरों से ख़ाली है? जो इतने बड़े शूरवीर राजा शिव धनुष को तोड़ना तो दूर उसे तिल भर खिसका तक नहीं सके। राजा जनक का यह ताना सुन कर लक्ष्मण मंच पर आते हैं। वे कहते हैं, कि महाराज जनक आपको तो जगत में ज्ञानी और मोह-माया से मुक्त विदेह के रूप में जाना जाता है। लेकिन आप पुत्री को लेकर इतने व्याकुल हो गए कि कुछ भी बोलने लगे। आप ने यह कैसे कह दिया कि पृथ्वी वीरों से ख़ाली है? क्या आपको पता नहीं, कि पृथ्वी में जब तक रघुवंश का कोई भी व्यक्ति विद्यमान है, तब तक इस पृथ्वी को वीरों से हीन नहीं कहा जा सकता। और यहाँ तो स्वयं रघुवंश शिरोमणि मेरे बड़े भाई राम बैठे हुए हैं। उन्होंने इतनी कम उम्र में ही मरीचि जैसे असुरों को भगा दिया है। ताड़का का वध किया है। वे इतने वीर हैं, कि कोई भी उनके समक्ष टिक नहीं सकता। आपको उनके रहते ऐसे वचन बोलना शोभा नहीं देता। भैया राम तो अगर मुझे ही आदेश कर दें तो मैं यह धनुष तो क्या, समूचा ब्रह्मांड ही किसी गेंद की भाँति उछाल सकता हूँ। लक्ष्मण के क्रोध से राजा जनक की सभा स्तब्ध रह जाती है। और तब अपने गुरू विश्वमित्र की आज्ञा से राम उठते हैं। वे लक्ष्मण को चुप रहने का संकेत करते हैं। तथा धनुष के क़रीब जाकर उसे एक ही झटके से उठा लेते हैं। इसके बाद उसकी प्रत्यंचा खींचते हैं। धनुष टूट जाता है। 

इसके बाद सीता मंच पर आती हैं, और राम के गले में वरमाल डालती हैं। राम विवाह संपन्न हो जाता है। एक तरफ़ मंच पर राम विवाह हो रहा है, मंगल गीत गाए जा रहे हैं। दूसरी तरफ़ मंच में परशुराम को तपस्यारत दिखाया जाता है, जिनका शिव धनुष के टूटने के कारण जो ध्वनि हुई उसके चलते ध्यानभंग हो जाता है। वे नेत्र खोलते हैं और अपनी चमत्कारिक शक्तियों से जान जाते हैं, कि राजा जनक के महल में रखा शिव धनुष टूट गया है। वे क्रोधित हो उठते हैं। ग़ुस्से में वे शिव स्तोत्र का पाठ करते हैं-
जटा टवी गलज्जलप्रवाह पावितस्थले गलेऽव लम्ब्यलम्बितां भुजंगतुंग मालिकाम्‌।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनाद वड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिव: शिवम्‌ ॥
जटाकटाहसंभ्रम भ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।
धगद्धगद्धगज्ज्वल ल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम:॥

शिव स्तोत्र की यह लयबद्ध ध्वनि इतनी प्रभावोत्पादक होती थी, कि इसकी ध्वनि गूंजते ही लोग भाग कर लीला देखने आ ज़ाया करते थे। परशुराम का अभिनय करने वाला जो भी पात्र जितनी अधिक आवाज़ के साथ इसका पारायण करे, उसे उतना ही विद्वान समझा जाता था। परशुराम को मन की गति से कहीं भी पहुँच जाने का वरदान प्राप्त था, इसलिए पलक झपकते ही वे मिथिला आ जाते हैं। वहाँ उपस्थित सभी राजाओं की घिग्घी बँध जाती है। परशुराम बहुत क्रोधी ऋषि थे, और उनके बारे में विख्यात था, कि पूरी पृथ्वी को उन्होंने 21 बार क्षत्रिय विहीन किया था। हो सकता है, इसका आशय रहा हो, कि उन्होंने 21 बार अत्याचारी शासकों का नाश किया था। लेकिन अब वे इस खून ख़राबा से दूर मंदराचल पर्वत पर तपस्या करते हैं। इसलिए राजा लोग निश्चिंत थे। किंतु अचानक उनके आ जाने से सब लोग घबरा गए। राजा जनक उनके पास जाकर उनकी आवभगत करते हैं। किंतु जैसे ही परशुराम की नज़र जैसे ही टूटे हुए शिव धनुष “पिनाक” पर पड़ती है, वे क्रोधित हो उठते हैं। वे राजा जनक को कहते हैं, कि जनक तुम अपनी चिकनी-चुपड़ी बातें बंद करो, यह बताओ कि भगवान शिव का यह धनुष किसने तोड़ा? मैं उस व्यक्ति का तत्काल वध कर दूँगा। राजा जनक तो इतना सुनते ही सन्नाटे में आ जाते हैं। वे सोचने लगते हैं, कि या उनकी बेटी ब्याहते ही विधवा हो जाएगी? क्योंकि परशुराम की क्रोधाग्नि से कोई बच नहीं सकता था, और युद्ध में उनसे कोई जीत नहीं सकता था। वे उनके क्रोध को शांत करने के लिए खूब अनुनय-विनय करते हैं। पर परशुराम बिफरते ही जाते हैं। तब राम स्वयं उनके समीप आकर प्रणाम करने के बाद कहते हैं, कि हे महावीर महर्षि! इस शिव धनुष को तोड़ने वाला आपका ही कोई दास है।अभी तक इस राम लीला में राधेश्याम कथावाचक द्वारा लिखी गई रामायण के संवाद बोले जाते थे, लेकिन इस दृश्य के साथ ही मंच के कोने में जमी व्यास पीठ से तुलसी के रामचरित मानस की चौपाइयाँ गूँजने लगती हैं। 

नाथ संभु धनु भंजनि हारा। होइहि कोउ इक दास तुम्हारा॥
आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।
सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने॥

अर्थात् राम के यह कहते ही, कि शिव धनुष आपके किसी सेवक ने ही तोड़ा होगा। यह सुनते ही क्रोधी परशुराम कहते हैं- सेवक तो वह है जो स्वामी का कहा माने, किंतु जो शत्रु जैसा व्यवहार करे वह तो सहस्त्रबाहु की तरह हुआ। वह इस सभा से अलग होकर अपनी पहचान स्पष्ट करे, अन्यथा यहाँ उपस्थित सभी राजा मारे जाएँगे। यह सुन कर लक्ष्मण मुस्करा कर परशुराम को अपमानित करने के अन्दाज़ में बोलते हैं। बस यहीं से शुरू होता है परशुराम और लक्ष्मण का तीखा संवाद। लक्ष्मण कहते हैं, कि अरे मुनिवर बचपन में तो हमने न जाने कितने धनुष तोड़े हैं। पर किसी ने कुछ नहीं कहा। तब फिर इस पुराने और जर्जर धनुष में ऐसी क्या ममता, कि भृगुकुल के इतने महा प्रतापी ऋषि स्वयं दंड देने चले आए। 

इतना सुनते ही परशुराम आपा खो देते हैं। वे मंच पर चीते की तरह चिटकने लगते हैं। वे इतनी ताक़त से उछलते हैं कि तख़्त धराशायी हो जाता। परशुराम का अभिनय करने वाला जो अभिनेता शारीरिक रूप से हृष्ट-पुष्ट होता, वह तो तख़्त तोड़ देता, किंतु कमजोर अभिनेता के वश में यह नहीं होता था। परशुराम के अभिनय को और पुख़्ता करने में उसी अभिनेता को खूब वाह-वाही मिलती, जो जितना अधिक क्रोध का प्रदर्शन करता। अपने अभिनय में सच्चाई लाने के लिए, वे निजी जीवन में भी क्रोधी बन ज़ाया करते। कुछ तो भाँग का सेवन करने लग जाते। शिवदत्त लाल अग्निहोत्री खूब भाँग खाते थे। ऐसे में उनकी लाल-लाल आँखें और क्रोध में फरसा लहराना उन्हें बिल्कुल परशुराम बना देता। वे अपना फरसा सदैव अपने साथ रखा करते। निजी जीवन में वे प्राथमिक शिक्षक थे। व्यास नारायण वाजपेयी भी प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे। किंतु संस्कृत बोलने में वे निपुण थे। जनक का अभिनय करने वाले वंशलाल त्रिपाठी कवि थे। आशु कविता में दक्ष होना जनक, परशुराम और लक्ष्मण का अभिनय करने वालों के लिए आवश्यक था। लक्ष्मण का अभिनय करने वाले अभिनेता को अपने हाव-भाव से यह प्रदर्शित करना ज़रूरी होता था, कि उसकी विनम्रता में भी व्यंग्य है। उससे अपेक्षा की जाती थी, कि वह अपनी वाणी और अपने अभिनय परशुराम को उत्तेजित करे। उनके क्रोध को अपनी अवहेलना से बढ़ाए। इसलिए युवा लक्ष्मण बूढ़े हो रहे परशुराम को छेड़ने का एक भी मौक़ा न चूकते थे। वहीं राजा जनक का अभिनय करने वाले पात्र को विद्वान और धीर-गम्भीर होना आवश्यक था। जो भी पात्र अपने अभिनय में ज़्यादा प्रवीण होता वह बाक़ी सबको दबा देता। आमतौर पर परशुराम भारी पड़ते। यही कारण था, कि 1970 तक परशुराम का अभिनय करने वाले को 101 रुपए मिलते तो लक्ष्मण को 75 रुपए तथा जनक के लिए 51 रुपए निर्धारित थे। राम को 25-30 रुपए ही मिलते। मुंशी प्रेमचंद ने राम का अभिनय करने वाले की बदहाली का वर्णन अपनी कहानी 'रामलीला' में किया है। और महीप सिंह ने अपनी एक कहानी में परशुराम का अत्यंत मार्मिक रूप दिखाया है।

जब बारातें तीन और चार दिन रुकती थीं, तब शादियों में भी वर पक्ष के लोग एक रात यह लीला करवाते थे। पर अब इस लीला का चलन ख़त्म हो रहा है। न तो किसी के पास इतना समय होता है, कि वह सारी रात जाग कर यह लीला देखे और न ही लोगों की रुचि रही। इससे स्थानीय स्तर की अभिनय और काव्य प्रतिभा भी क्षीण हो रही है।

© Shambhunath Shukla

कोस कोस का पानी (42)
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