Tuesday 18 January 2022

कनक तिवारी - विवेकानन्द की दुनिया और हिन्दुत्व - शिकागो में भारत की दुनिया

11 सितम्बर, 1893 को शिकागो धर्म सम्मेलन में विवेकानन्द कालजयी सांस्कृतिक विश्व हीरो के रूप में इतिहास में उभरे। सुबह 10 बजे ‘आर्ट इंस्टीट्यूट ऑफ शिकागो‘ के ‘हाॅल आफ कोलम्बस‘ में आयोजन शुरू हुआ। दूर कहीं दस बार घंटे बजाए गए। घंटों की आवाज ने यहूदी, इस्लाम, हिन्दू,, ताओ, कन्फ्यूशियस, शिन्टो, जरथ्रुस्त, कैथोलिक, यूनानी चर्च और प्रोटेस्टेन्ट संप्रदायों का प्रतिनिधित्व किया। सभा भवन शांत था। एक चिडि़या उड़ती हुई आई और सभा भवन की शांति को पंखों की फड़फड़ाहट से चीरती बाहर निकल गई। मंच पर सिसेरो और डेमोस्थनीज़ की लगभग पच्चीस फुट ऊंची मूर्तियां थीं। सिंहासननुमा एक कुर्सी दोनों मूर्तियों के बीच उद्घाटन के दिन अमेरिकी कैथोलिक चर्च के सबसे बड़े पादरी ‘कार्डिनल गिब्सन‘ के लिए रखी गई। करीब तीस कुर्सियां तीन कतारों में वक्ताओं तथा विशिष्ट अतिथियों के लिए थीं। 

सम्मेलन का विचार ‘चार्ल्स कैरोल बोनी‘ नामक मशहूर वकील के दिमाग में 1893 में आया था। बोनी संवैधानिक और आर्थिक सुधारों की कई किताबें लिख चुके थे। आयोजन समिति ने लगभग दस हजार पत्र लिखे। लगभग चालीस हजार दस्तावेजों का आदान प्रदान किया। शिकागो के पोस्ट आफिस के कर्मचारी थैले भर भर समिति के दफ्तर में डाक पटकते रहे। मद्रास, बम्बई और टोकियो जैसे महत्वपूर्ण शहर सक्रिय रहे। दुनिया के करीब तीन हजार लोगों से समिति ने सलाह ली। मद्रास स्थित ‘हिन्दू‘ अखबार के संपादक ‘जी. एस. अय्यर‘, बंबई के ‘बी.बी. नगरकर‘ और कलकत्ता के ‘पी.सी. मजूमदार‘ विशेष सलाहकार थे। ‘नगरकर‘ और ‘मजूमदार‘ ने धर्म सम्मेलन में ‘ब्रह्म समाज‘ का प्रतिनिधित्व भी किया। कलकत्ता स्थित ‘महाबोधि सोसायटी‘ के महासचिव ‘धर्मपाल‘ और बंबई स्थित ‘जैन मुनि आत्माराम जी‘ से सक्रिय संपर्क रहा। भारत में सूचनाओं और जानकारियों का मुख्य प्रचार ‘हिन्दू‘ अखबार ने ही किया। उसे पढ़कर ही विवेकानन्द को अमेरिका जाने की उत्कंठा हुई। हैरत की बात है अमेरिका रवाना होने के पहले विवेकानन्द ने साथी ‘स्वामी तुरीयानन्द‘ से कह दिया था ‘यह धर्म संसद उनके लिए ही आयोजित हो रही है। ऐसा उनका मन कहता है। देखना बहुत जल्दी यह सिद्ध भी हो जाएगा।‘ 

हाॅल में विवेकानन्द नारंगी पगड़ी और शेरवानीनुमा लंबा लबादा पहने सबको दिख रहे थे। विवेकानन्द ने बाद में लिखा कि ‘शुरुआत में यह देखकर मेरा दिल धड़क रहा था और जुबान सूख रही थी।‘ ध्यानमग्न विवेकानन्द देवी सरस्वती की प्रार्थना करते रहे। घटना के अधिकृत ब्यौरेकार ‘बैरोज़‘ और ‘हाउटन‘ ने लिखा जब विवेकानन्द ने पहले दो शब्द ‘अमेरिकी बहनों और भाइयों‘ कहा तो कई मिनटों तक चार हजार श्रोता खड़े होकर तालियां बजाते रहे। श्रोता एक दूसरे को धकियाते उन्हें ठीक से सुनने आगे बढ़ने लगे। पहली बार अमीर अमेरिका के लोगों को लगा कि उनके संसार के बाहर भी कोई दुनिया है, जहां उनके भाई बहन रहते हैं। कोलम्बस द्वारा अमेरिका को खोजे जाने की चार सौ सालाना जयन्ती के अवसर पर आयोजित समारोह में इस संन्यासी ने इतिहास की पर्तों को चीरकर इस तरह फेंक दिया, जैसे वे प्याज के छिलके हों। यह साबित भी किया कि दुनिया के सभी धर्मों का केवल एक उद्देश्य है ‘सत्य की स्थापना‘। यही भारत के वेदान्ती विचारकों का अन्तिम हासिल रहा है। इस घटना के बाद अमेरिका की धरती पर उस संन्यासी के भाषणों का सिलसिला शुरू हुआ। 

यह बोली केवल विवेकानन्द की बोली नहीं थी। यह बोली उनके गुरु परमसिद्ध श्रीरामकृष्णदेव की शिक्षाओं का सार थी। यह बोली भारत की बोली थी। यह बोली भारत के इतिहास, उसकी समन्यवयवादी संस्कृति और उसकी एक विश्ववाद की पैरवी की बोली थी। धर्म-संसद में अपनी ऐतिहासिक सफलता के बाद शिकागो के लगभग सबसे बड़े अमीर व्यक्ति के घर पांच सितारा संस्कृति की तामझाम से लैस कमरे में नर्म गुदगुदे बिस्तर पर लेटे युवा संन्यासी के मन में भारी उथल पुथल जारी रही। यह युवा विचारक रात भर सो नहीं पाया। आंसुओं से उसका तकिया भीग गया। मर्मांन्तक पीड़ा से बेचैन वह धरती पर यानी अपनी मां की गोद में लेटकर चीखने लगता है...‘ओह मां! नाम और प्रसिद्धि लेकर मैं क्या करूंगा जब मेरी मातृभूमि अत्यंत गरीब है। कौन भारत के गरीबों को उठाएगा? कौन उन्हें रोटी देगा? हे मां! मुझे रास्ता दिखाओ, मैं कैसे उनकी सहायता करूं? 

रामकृष्ण मिशन सहित संसार को 1960 के आसपास तक नहीं मालूम था कि विवेकानन्द के भाषण में ‘अमेरिका निवासी बहनों और भाइयों‘ सुनने के बाद दूसरी बार उतनी ही जोशीली तालियां कब बजीं। मैरी लुइस बर्क ने शिकागो के दैनिक पत्रों की रिपोर्टों और अन्य स्त्रोतों से जानकारियां एकत्रित कीं। विवेकानन्द ने कहा था ‘मैं यह आपको बताते हुए गर्व का अनुभव कर रहा हूं कि मैं उस धर्म का प्रतिनिधि हूं जिसकी पवित्र भाषा संस्कृत में बहिष्कार नाम का शब्द अनुवाद के योग्य ही नहीं है।‘ तालियों की गड़गड़ाहट उमड़ती रही। अमेरिका और दुनिया ने दो मूलमंत्र सीख लिए। ‘संसार के सभी निवासी आपस में भाई बहन हैं। किसी अन्य रिश्ते की क्या जरूरत है?‘ दूसरा कि ‘धर्म वही है जिसमें किसी का बहिष्कार नहीं हो।  

शिकागो धर्म-संसद के अपने ऐतिहासिक उद्बोधन में विवेकानन्द के इसी पहले वाक्य पर तालियां बजी थीं। भारतीय और हिन्दू संस्कृति का चरित्र व्यापक, सर्वकालिक और समावेशी है। विवेकानन्द ने इस बानगी को अंतर्राष्ट्रीय समझ में तब्दील करना चाहा था।   विवेकानन्द के जीवन के ये शब्द-चित्र नये भारत के इतिहास का ताजा दहकता दस्तावेज हैं। क्रान्ति के ये स्फुलिंग हैं जिन्होंने उनकी कुर्बानी की बलिवेदी पर भारत के स्वाभिमान को जिन्दा रखा है। धर्म संसद में विवेकानन्द के शब्द मानव-ज्वालामुखी के मुंह से निकला लावा हैं जिसके ठंडे होने पर अमेरिका ने देखा कि उसकी छाती पर भारत के आध्यात्म का झण्डा दुश्मनी या विजय की भावना से नहीं, बल्कि बिरादराना भाव और समानता के आधार पर गाड़ दिया गया था। 
  

भाषा के आधार पर भूगोल के नक्शे को विकृत किया ही जाता है। मजहब के आधार पर इतिहास के नक्शे को विकृत किया ही जाता है। विवेकानन्द भूगोल और इतिहास की ताकत से वाकिफ थे। उनके लिए वे केवल सामाजिक विज्ञान नहीं बल्कि मानव विज्ञान के आंतरिक विश्वविद्यालय थे। विवेकानन्द ने पूर्व से पश्चिम तक कर्क रेखा जैसा अक्षांश बनकर भारत से अमेरिका तक संसार को अपनी आगोश में ले लिया।     ‌ विवेकानन्द से पहले और उनके अलावा केवल बुद्ध की दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों तक भूमध्य रेखा के आसपास भारत की धमक हुई थी। बुद्ध और विवेकानन्द महान इन्सानी करुणा के ऐतिहासिक अक्षांश हैं। उन पर आज भारत की फिरकापरस्ती ताकतें नासमझी का ठीकरा फोड़ रही हैं। 

अपने भावुक जोश में विवेकानन्द ने शुरुआती अमेरिकी यात्राओं में उस महादेश की एक नए प्रेरणास्त्रोत के रूप में तारीफ भी की थी। बाद में महसूस किया कि पूंजीवाद, नस्लवाद, सैन्य शक्ति और ईसाइयत की दकियानूसी से लदे फंदे देश के जेहन में भारत की महान सांस्कृतिक मान्यताओं और उदार धार्मिक विश्वासों के लिए सम्मानजनक जगह नहीं है। इसलिए अमेरिका के खिलाफ विवेकानन्द बाद में कठोर भाषा में सच का बखान करते रहे। वे इन्सान विरोधी पश्चिमी मान्यताओं को लाजवाब करते रहे। 

शिकागो धर्म सम्मेलन में विवेकानन्द की जिरह के दो तयशुदा दुनियावी नतीजे निकले। एक यह कि दुनिया के सामने हिंदू धर्म की बहुलतावादी समझ का चेहरा पहली बार विश्वजमात की निगाह में आया। दूसरा यह कि विवेकानन्द को ईसाइयत के प्रचारित मजहबी और सियासी अहंकार को नजदीक से जांच परखकर दो दो हाथ करने का मौका आया। ईसाइयत आत्ममुग्ध बड़प्पन के कारण संसार के हर धर्म को अपने से हीनतर समझे बैठ रही थी। विवेकानन्द की तपस्वी मुद्रा में जबरिया निरीहता या कमतर होने का अहसास वाचाल नहीं था। 

करीब तीन वर्षों के अमेरिकी प्रवास में उन्होंने ईसाइयत के बड़बोले पादरियों और ज्ञानशास्त्रियों से मुकम्मिल जिरह की। उन्हें बोध रहा है कि उनके गुरु श्रीरामकृष्णदेव एक के बाद एक ईसाइयत और इस्लाम सहित कई धर्मों में खुद की देह को भी अंतरित करते सच्चे मनुष्य धर्म की तलाश में सात्विक अमरता के अहसास और अनुभूति के मुकाम तक पहुंचे थे। विवेकानन्द ने यही तो मार्के की बात कही थी, 
‘‘हम केवल वैश्विक सहिष्णुता में भरोसा भर नहीं करते। बल्कि हम सभी धर्मों को सत्य का प्रतीक मानकर स्वीकार करते हैं।‘‘ विवेकानन्द ने कभी दावा नहीं किया वे कोई अनहोनी कर रहे हैं या पूरी तौर पर कोई मौलिक विचार को जन्म देने अमेरिका आए हैं। 

कनक तिवारी
© Kanak Tiwari 


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