Thursday 20 January 2022

कमलाकांत त्रिपाठी - सीता-निर्वासन की कथा - लोक-साहित्य बनाम अभिजन साहित्य

A. सीता का लोक-पक्ष: अवध में बच्चे के जन्म पर महिलाओं द्वारा गाये जानेवाले लोकगीत ‘सोहर’ में 

राम-कथा मिथक है, इतिहास नहीं. लेकिन कोई भी मिथक शून्य में नहीं बनता. कुछ यथार्थ में घटित होता है और जनश्रुति में तैरता रहता है, जो साहित्यकार की कल्पना के रेशमी तारों से बुने संजाल में लिपटकर अलौकिक और उदात्त बन जाता है. ऐसा कि सदियाँ बीतती हैं, सहस्राब्दियाँ बीतती हैं और वह निरंतर अद्यतन बना रहता है. 

हम नहीं जानते कितना और क्या घटित हुआ, कितना और क्या कल्पना है. लेकिन राम और उनसे जुड़े अनेक चरित्र हमारे बीच जीवित हैं, और रहेंगे...कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी....

कई-कई रामायणें हैं, राम के कई-कई
रूप हैं. इस समय सबसे लोकप्रिय तुलसी का रामायण है, जिसे तुलसी ने रामचरितमानस की भी संज्ञा दी थी. रामचरितमानस पढ़ते हुए लगता है, राम अतीत नहीं हैं, वे तुलसी के भक्त मानस में सतत मौजूद हैं. 

एक रामायण और है--अवध की निरक्षर, गाँव-घर की चारदीवारी में क़ैद, घर-गृहस्थी के काम में मशगूल, सर्व-साधारण महिलाओं का रामायण, जो उनके गीतों में साँस लेता है. पढ़े-लिखे, संभ्रांत शहरी कम ही जानते हैं इस रामायण को. रहे होंगे दशरथ और कौशल्या अयोध्या के राजा-रानी. इन गँवई स्त्रियों का यह रामायण तो उन्हें राजमहल से उठाकर किसान के घर में बिठा देता है. राम उसी की कोठरी में पैदा होते हैं, उसी के आँगन की धूल में खेलकर बड़े होते हैं. एक दिन आता है जब मचिया पर बैठकर कौशल्या ‘रानी’ दशरथ से बाँस और सरपत  का ‘माँडव’ छवाने की अरज करती हैं, जिसके नीचे ‘बरुआ’(बटुक) बने राम का जनेऊ होता है. फिर राम केसरिया पाग पहनकर, भाइयों के साथ बारात लेकर सीता को ब्याहने जनकपुर जाते हैं और धूप से कुम्हलाई सीता को साथ लेकर लौटते हैं.आटे की दियली से, जलभरे कलश (लोटे) से, मूसल से, लोढ़े से, सूप से, और फिर किसी बुज़ुर्ग सुहागन के आँचल से, परस्पर गाँठ-बाँधे हुए राम और सीता की परछन ( प्रदक्षिणा) होती है, और थोड़े ही दिनों में सीता घर-गृहस्थी के काम में जुट जाती हैं. फिर एक दिन वही सीता राम और लक्ष्मण के साथ कुश-काश से भरे, अँधेरे, विकट जंगलों की ओर चल देती हैं. अवध का हर दूल्हा राम है, उसके पिता दशरथ, माँ कौशल्या और नई बहू सीता.और जीवन में कम-ज़्यादा सीता का दु:ख झेलना ही उसकी नियति है. 

इन ग्राम्य गृहिणियों की सीता का भी निर्वासन होता है, लेकिन उस वजह से नहीं जिस वजह से वाल्मीकि की सीता का. ये वाल्मीकि को नहीं जानतीं, न उनका रामायण जानती हैं. लेकिन सीता के निर्वासन की बात इन्होंने कहीं से सुन ज़रूर रखी है. इनकी सीता इनके जैसी ही हैं, तो वे ननद के साथ पानी भरने जाती हैं, कोठरी लीपती हैं, घर की टहल करती हैं. और ननद की चुगली का शिकार भी होती हैं. उनका निर्वासन भी उन्हीं कारणों से होता है, जिनसे इन निरक्षर, असहाय गृहणियों का होता है; वही इनकी समझ में आता है. और वह कारण शायद ज़्यादा मानवीय, ज़्यादा विश्वसनीय भी है:

ननद भौजाई दूनौं पानी भरै गईं, अरे पानी भरै गईं.
भौजी जौन रवनवाँ तुहैं हरि लइगा ओका उरेहि देखावहु.
जौ मैं रवना उरेहौं, उरेहि देखावउँ.
सुनि पैहैं बिरन तुम्हार त देसवा निकरिहैं.

[ननद-भौजाई (सीता और राम की बहन शान्ता--उत्तररामचरितम्‌ में यह नाम आता है) कुएँ पर पानी भरने गईं. “अरे भौजी, जो रावण तुम्हें हर ले गया था, वह था कैसा? उसका चित्र उकेरकर  मुझे भी तो दिखाओ (‘उरेहने’ से ही ‘उकेरना’ बना होगा).”  “मैं उसका चित्र उकेरूँ, उकेरकर तुम्हें दिखाऊँ, और उधर तुम्हारे भाई सुन लें, तो मुझे तो देश से ही निकाल देंगे.”] 

लाख दोहइया राजा दसरथ, राम मथवा छुऔं.
भौजी लाख दोहइया लछिमन भइया, जो भइया से बतावउँ.
माँगौं न गाँग गँगुलिया गंगाजल पानी.
ननदी समुहे क ओबरी लिपावउ मैं रवना उरेहौं.

[“मैं राजा दशरथ की लाख कसम खाती हूँ, राम का माथा छूकर कसम खाती हूँ, लक्ष्मण भैया की लाख कसम खाती हूँ, मैं भाई राम से नहीं बताऊँगी.” “तो ठीक है ननदरानी, गगरी में गंगाजल लाओ, सामनेवाली कोठरी लीप दो. मैं रावण का चित्र उकेर दूँगी.]

माँगिन गाँग गँगुलिया गंगा जल पानी.  
सीता समुहें क ओबरी लिपाइन रवना उरेहैं. 
हँथवहु सिरजिन गोड़वहु, नयना बनाइन.
आइ गये हैं सिरीराम अँचर छोरि मूँदेनि.

[गंगाजल आया. सीता को ही सामने की कोठरी भी लीपनी पड़ी. और वे रावण  को उकेरने बैठीं. पहले हाथ बनाया, फिर पैर. फिर आँखें बनाईं. तब तक अचानक श्रीराम आ गये. जल्दी से सीता ने अपना आँचल खोलकर चित्र को ढक दिया.] 

जेवन बैठे सिरीराम बहिन लोइ लाइन.
भइया जौन रवन तोर वैरी त भौजी उरेहैं.
अरे रे लछिमन भैया बिपतिया कै साथी.
सीता क देसवा निकारहु रवना उरेहै. 

[श्रीराम भोजन करने बैठे और बहन ने लूकी लगा दी—“भैया, रावण, जो तुम्हारा दुश्मन है, भौजी उसका चित्र उकेर रही हैं.” राम ने तुरंत लक्ष्मण से कहा—विपत्ति के साथी भाई लक्ष्मण, सीता को देश से निकालो, वह रावण का चित्र उकेरती है.]

जे भौजी भूखे क भोजन, नाँगे क बस्तर.
जे भौजी गरुहे गरभ से मैं कैसे निकारहुँ.

[‘’जो भौजी भूखे को भोजन और नंगे को वस्त्र देती हैं, और जो गर्भ के भार से दबी हैं उन्हें कैसे निकालूँ ?’’]

एक बन गइलीँ, दुसर बन गइलीं, तिसरे बिंद्रावन.
देवरा एक बुँद पनिया पिअउतेउ पिअसिया से व्याकुल.
बैठहु न भौजी चंदन तरे चँदना बिरिछ तरे. 
भौजी पनिया क खोज करि आई त तोहका पिआई. 

[(राम नहीं ही माने तो) लक्ष्मण सीता को साथ लेकर इस बहाने से निकल पड़े कि तपोवन से न्योता आया है. एक वन पार किया, दूसरा वन पार किया, तब वृंदावन आया (अवध के लोकगीतों में लम्बी यात्रा का वर्णन हमेशा ऐसे ही होता है).“देवर एक बूँद पानी पिलाओ, प्यास से व्याकुल हूँ.”  “भौजी, इस चंदन के वृक्ष के नीचे बैठ जाओ, पानी खोजकर लाऊँ, तो तुम्हें पिलाता हूँ.”]

बहै लागी जुडुली बयरिया कदम जूड़ि छहियाँ. 
सीता भुइयाँ परी कुम्हिलाय पिअसिया से व्याकुल. 
तोरिन पतवा कदम कर दोनवा बनाइन. 
टाँगिन लवँगिया के डरिया लछन चलें घर के. 

[ठंडी बयार बहने लगी. कदम्ब की ठंडी शीतल छाया. प्यास से व्याकुल, कुम्हलाई सीता को ज़मीन पर पड़े-पड़े नींद आ गई. (लक्ष्मण पानी लेकर लौटे और सीता को सोती देखा तो उन्हें मौका मिल गया.) लक्ष्मण ने कदम्ब का पत्ता तोड़ा, उसका दोना बनाया. उसमें पानी भरकर उसे लवंग की डाल से लटका दिया और (सीता को वहीं सोती छोड़कर) घर चल दिए.]

सोये-सोये सीता जागीं झमकि उठि बैठीं. 
कहवाँ गये लछिमन देवरा त हमैं न बताएउ. 
हिरदय भरि देखतिउँ नजर भरि रोउतेउँ.

[सीता सोते-सोते जगीं और हड़बड़ाकर उठ बैठीं. (दोने में लटका हुआ पानी देखकर किंतु लक्ष्मण को न पाकर विलाप करने लगीं--) हमें बिना बताये लक्ष्मण देवर कहाँ चले गये ! (बता देते कि वन में छोड़कर जा रहे हैं, तो) एक बार जी भरकर देख तो लेती, आँख भरकर रो तो लेती.]

को मोरे आगे-पीछे बैठइ को लट छोरै.
को मोरी जगइ रइनिया त नरवा छिनावइ.
बन से निकरीं बन-तपसिन सितइ समुझावैं.
सीता हम तोरे आगे-पीछे बैठब हम लट छोरब.
हम तोरी जगबै रइनिया त नरवा छिनउबै.

[“हाय ! (इस गर्भ की हालत में) इस वन में कौन मेरे आगे-पीछे बैठेगा, कौन मेरे बालों की लट खोलेगा, कौन मेरी रात जागेगा, और कौन काटेगा मेरे बच्चे का नाल ?”. सीता का विलाप सुनकर वन की तपस्विनियाँ निकलकर आईं-- “ हे सीता, हम तुम्हारे आगे-पीछे बैठेंगी, हम तुम्हारी लट खोलेंगी, हम तुम्हारी रात जागेंगी. और हम बच्चे का नाल भी काटेंगी. ] 

होत बिहान लोही लागत होरिल जनम भए.
सीता लकड़ी क करउ अँजोर संतति मुख देखहु. 
तुम पुत भयउ बिपति में बहुतै सँसति में.
पुत कुसै ओढ़न कुस डासन बन-फल भोजन. 
जो पुत होत्या अजुधिया में वहि पुर पाटन.
राजा दसरथ पटना लुटौतें कैसिल्या रानी अभरन.

[सबेरा होते ही, जब पौ फट ही रही थी, बच्चे का जन्म हुआ. तपस्विनियों ने कहा—सीता, थोड़ी लकड़ी जलाओ, उसके उजाले में अपने बच्चे का मुँह देख लो. सीता बच्चे को देखकर कहने लगीं—बेटा, तुम घोर विपत्ति, बड़ी साँसत में पैदा हुए हो. कुश ही तुम्हारा ओढ़ना, कुश ही बिछौना है, और जंगली फल ही तुम्हारा भोजन है. बेटा, यदि तुम अयोध्या शहर में पैदा हुए होते, तो आज राजा दशरथ सारा शहर लुटा देते (लोक कवियित्री को दशरथ की मृत्यु का या तो पता नहीं या ख्याल नहीं आया) और रानी कौशल्या अपने सारे गहने लुटा देतीं.】

B--अभिजन साहित्य
राम का पक्ष--साहित्य-परम्परा में  

कोटि-कोटि लोगों की आस्था के केंद्र राम का भी कोई पक्ष तो होगा, भले इन ग्राम्य कवियित्रियों ने उसे न उभारा हो. भक्त-शिरोमणि तुलसी ने तो सीता-निर्वासन के प्रसंग को ही गोल कर दिया और इसके लिए उन्होंने जो युक्ति निकाली वह रामचरितमानस के अरण्य कांड में थिलगी-जैसी लगती है.  इस प्रबंध के कथा-विधान की अन्विति को किंचित्‌ खंडित भी करती है (नीचे देखिए). लेकिन तुलसी करते भी तो क्या करते, वाल्मीकि के इस कँटीले प्रसंग को निर्गुण में परात्पर परब्रह्म और सगुण में विष्णु के अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम राम के साथ भक्त तुलसी कैसे निभाते? ‘यद्‌ रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोsपि’ में कुछ जोड़ने की गुंजाइश तो थी पर कुछ गुम कर देने की गुंजाइश बहुत क्षीण थी जिससे  तुलसे के प्रबंध की अन्विति प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी।  

वाल्मीकीय रामायण—एक त्रासद परंपरा का उत्स

अ--युद्धकाण्ड (संदेह का बीजारोपण और अग्नि-परीक्षा)

वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकाण्ड में जनापवाद के कारण घोर द्वंद्व में पड़े राम द्वारा सीता-निर्वासन के निर्णय का प्रसंग बहुत लोक-प्रचलित है. किंतु सीता की त्रासदी का केंद्रीय बिंदु उत्तरकाण्ड में नहीं, युद्धकाण्ड में है जहाँ उनकी अग्नि-परीक्षा होती है. अग्नि-परीक्षा  के बावजूद उत्तरकाण्ड में जनापवाद की स्थिति उत्पन्न होने पर राम द्वारा उस तथ्य को सार्वजनिक कर जनापवाद का प्रतिकार करने के बजाय सीता-निर्वासन का निर्णय सीता की त्रासदी को एक अतिरिक्त आयाम देता है, उसे बेहद सांद्र बनाता है. 

पहला प्रश्न यह कि अग्नि-परीक्षा की ज़रूरत क्यों पड़ी और वह किन परिस्थितियों में, किसकी इच्छा या मजबूरी से सम्पन्न हुई. इसका वर्णन वाल्मीकि ने युद्धकाण्ड में कुछ अतिरिक्त विस्तार से किया है. राम के मन में सीता के प्रति संदेह के बीज क्यों और किस रूप में पड़े, इस प्रसंग को वाल्मीकि ने जैसे राम के विरुद्ध सीता के पक्ष से अपनी प्रतिबद्धता दिखाते हुए सात सर्गों (112-118) में खीच दिया है. 

रावण-वध के साथ राम-रावण युद्ध राम की पूर्ण विजय में समाप्त हो चुका है. राम ने इंद्र द्वारा दिए गए दिव्य रथ के सारथी मातलि का सम्मान करने के बाद उसे रथ-सहित विदा कर दिया है और अपनी सैन्य-छावनी में लौट आए हैं. वहाँ से लक्ष्मण को लंका भेजकर विभीषण का विधिवत्‌ राज्याभिषेक भी करा दिया है. राजा के रूप में विभीषण राम और लक्ष्मण के लिए मांगलिक उपहार लेकर राम के शिविर में उपस्थित हुए हैं और विभीषण की प्रसन्नता के लिए राम ने उन्हें स्वीकार भी कर लिया है. इतना सब हो जाने के बाद राम को सीता की याद आती है। वे पास खड़े हनुमान से कहते हैं--आप महाराज विभीषण की आज्ञा लेकर लंका नगरी जाएँ और सीता से मिलकर, उनका कुशल समाचार पूछकर लौट आएँ; साथ ही उन्हें सुग्रीव व लक्ष्मण सहित मेरा कुशल समाचार भी दे दें और सूचित कर दें कि रावण युद्ध में मारा गया....बस !

सीता अशोकवाटिका में राक्षसियों से घिरी, बिना स्नान किए, मलिन और सशंक बैठी हैं. राम आदि का कुशल समाचार देकर हनुमान सीता से कहते हैं--राम अपने शत्रु का वध करके सफलमनोरथ हो गए हैं और उन्होंने आपका कुशल समाचार पूछा है. फिर हनुमान अपनी ओर से जोड़ देते हैं कि राम ने आपके उद्धार के लिए जो प्रतिज्ञा की थी उसके लिए निद्रा त्यागकर अथक परिश्रम किया और समुद्र में पुल बाँधकर, रावण का वध करके उसे पूरी किया. सीता जी इस प्रिय समाचार को सुनकर हनुमान को कुछ पुरस्कार देना चाहती हैं किंतु उन्हें कोई उपयुक्त वस्तु दिखती ही नहीं (पास में कुछ है कहाँ?).  हनुमान उन्हें आश्वस्त करते हैं कि उनके (हनुमान के) सारे प्रयोजन सिद्ध हो चुके हैं और सब कुछ मिल गया है. तब सीता हनुमान से सीधे-सीधे मन की बात कहती हैं—मैं अपने भक्तवत्सल स्वामी का दर्शन करना चाहती हूँ. हनुमान उनकी इच्छा पूरी होने का ‘भरोसा’ देकर शिविर लौट आते हैं. वहाँ राम से सीता को दर्शन देने की पैरवी करते हुए हनुमान बताते हैं कि सीता जी शोक-संतप्त हैं और उनकी आँखों में आँसू भरे हैं.

हनुमान की बात सुनकर राम उन्हें कुछ उत्तर देने के बजाए ध्यानस्थ हो जाते हैं. फिर नीची निगाह किए हुए विभीषण से कहते हैं--सीता को सिर से (बाल धोकर) स्नान कराने के बाद दिव्य अंगराग व दिव्य आभूषणों से सुसज्जित कर शीघ्र मेरे पास ले आइए. मर्यादानुसार विभीषण द्वारा सीता से निवेदन किए जाने पर सीता ने विभीषण से कहा—मैं बिना स्नान किए, अभी ही पतिदेव का दर्शन करना चाहती हूँ. विभीषण ने आग्रह किया कि आपको रामचंद्र जी की आज्ञानुसार ही करना चाहिए. आख़िर सीता ने बाल धोकर स्नान किया, सारे शृंगार किए और बहुमूल्य वस्त्राभूषण धारणकर विभीषण के संरक्षण में पालकी में बैठकर श्रीराम के शिविर में आईं. पालकी दूर रख दी गई. विभीषण ने ध्यानस्थ राम के पास जाकर सीता के उपस्थित होने की सूचना दी. किंतु राम यह सोचकर कि सीता बहुत दिनों तक राक्षस के घर में रहीं, एक साथ रोष, हर्ष और विषाद में डूब जाते हैं. उन्हें सीता के पालकी से आने पर आपत्ति-सी है. किसी तरह उन्होंने सीता को पास लाने की अनुमति दी. विभीषण अपने सुरक्षाकर्मियों से वानर योद्धाओं को वहाँ से दूर हटाने लगते हैं तो राम सुरक्षाकर्मियों को इस तरह रोषपूर्ण दृष्टि से देखते हैं, मानो उन्हें जलाकर भस्म कर देंगे और इसके लिए विभीषण को कड़ी फटकार लगाते हैं। इस काम को रुकवाते हैं और आदेश देते हैं कि सीता पालकी छोड़कर पैदल ही मेरे पास आएँ जिससे सभी वानर बेरोकटोक उनका दर्शन कर सकें. राम के इस आदेश से विभीषण, लक्ष्मण, सुग्रीव व हनुमान बहुत व्यथित होते हैं, उन्हें लगता है, सीता के प्रति राम न केवल निरपेक्ष हो गए हैं, उनसे अप्रसन्न भी हैं—

“ततो लक्ष्मणसुग्रीवौ हनूमांश्च प्लवङ्गम:। निशम्य वाक्यं रामस्य बभूवुर्व्यथिता भृशम्‌॥14:32॥ कलत्रनिरपेक्षैश्च इङ्गितैरस्य दारुणै:। अप्रीतमिव सीतायां तर्कयन्ति स्म राघवम्‌॥33॥“    

ख़ैर, लज्जा से सिकुड़ी-सहमी सीता किसी तरह विभीषण के पीछे-पीछे चलती, राम के सामने उपस्थित होती हैं और इतने दिनों बाद राम का मुख देखकर निर्मल चंद्रमा की भाँति खिल उठती हैं.

राम ने सीता से कहा—युद्ध में शत्रु को पराजित कर मैंने तुम्हें उसके चंगुल से छुड़ा लिया. मेरे अमर्ष का अंत हो गया, मुझ पर लगा कलंक धुल गया, मैंने शत्रु और शत्रु-जनित अपमान दोनों को नष्ट कर दिया. सबने मेरा पराक्रम देख लिया और मैं अपनी प्रतिज्ञा के बोझ से मुक्त हो गया. चंचल-चित्त रावण द्वारा तुम्हें हर लिए जाने से भाग्यवश जो दोष मुझे लग गया था, मैंने मानवोचित पुरुषार्थ से उसका परिमार्जन कर दिया.

राम इस कार्य में हनुमान, सुग्रीव और विभीषण के बहुमूल्य सहयोग का कृतज्ञतापूर्वक विस्तार से उल्लेख करते हैं किंतु सीता को समीप देखकर उनका हृदय लोकापवाद के भय से विदीर्ण हो रहा है.

राम सीता से आगे कहते हैं—तुम्हें मालूम होना चाहिए कि मैंने जो युद्ध का उद्योग किया, जिसमें मित्रों की वीरता से मुझे विजय मिली, वह तुम्हें पाने के लिए नहीं, सदाचार की रक्षा, चारों ओर फैले अपवाद के निवारण और अपने प्रसिद्ध वंश पर लगे कलंक को धोने के लिए था.....तुम्हारे चरित्र पर संदेह का अवसर उपस्थित है और तुम मेरे सामने खड़ी हो. जिस तरह रुग्ण आँखवाले को दीपक प्रतिकूल लगता है, उसी तरह तुम मुझे अत्यन्त प्रतिकूल लग रही हो. अत: हे जनकपुत्री, तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चली जाओ. दसों दिशाएँ तुम्हारे लिए खुली हैं, अब मुझे तुमसे कोई मतलब नहीं.....रावण तुम्हें अपनी गोद में उठाकर ले गया, दुष्ट ने तुम पर कुदृष्टि डाली. ऐसी स्थिति में अपने कुल को उच्च बतानेवाला मैं तुम्हें कैसे ग्रहण कर सकता हूँ? तुम चाहो तो भरत या लक्ष्मण के संरक्षण में सुखपूर्वक रहने पर विचार कर सकती हो. इच्छा हो तो शत्रुघ्न, सुग्रीव या विभीषण के पास भी रह सकती हो. तुम-जैसी दिव्यरूप सुंदरी को घर में मौजूद देखकर रावण बहुत दिनों तक धैर्य नहीं रख पाया होगा—

“विदिताश्चास्तु भद्रं ते योsयं रणपरिश्रम:। सुतीर्ण: सुहृदां वीर्यान्न त्वदर्थं मया कृत:॥ युद्धकाण्ड,15:15॥ रक्षता तु मया वृत्त्मपवादं च सर्वत:। प्रख्यातस्यात्मवंशस्य न्यंङ्गं च परिमार्जिता॥16॥ प्राप्तचरित्रसंदेहा मम प्रतिमुखे स्थिता। दीपो नेत्रातुरस्येव प्रतिकूलासि मे दृढ़ा॥17॥ तद्‌ गच्छ त्वानुजानेsद्य यथेष्टं जनकात्मजे। एता दस दिशो भद्रे कार्यमस्ति न मे त्वया॥18॥...रावणाङ्कपरिक्लिष्टां दृष्टां दुष्टेन चक्षुषा। कथं त्वां पुनरादद्यां कुलं व्यपिदिशन्महत्‌॥20॥...तदद्य व्याहृतं भद्रे मयैतत्‌ कृतबुद्धिना। लक्ष्मणे वाथ भरते कुरु बुद्धिं यथासुखम्‌।22॥ शत्रुघ्ने वाथ सुग्रीवे राक्षसे वा विभीषणे। निवेशय मन: सीते यथा वा सुख्मात्मना।।23॥ नहि त्वां रावणो दृष्ट्वा दिव्यरूपां मनोरमाम्‌। मर्षयेत चिरं सीते स्वगृहे पर्यवस्थिताम्‌॥24॥“  

इतने सारे लोगों के सामने राम के मुख से ऐसी भयंकर बातें सुनकर सीता हाथी की सूँड़ से आहत लता की तरह आँसू बहाने लगीं. लज्जा से गड़ गईं. अपने में ही सिमटकर रह गईं.

सीता का प्रतिकार--जैसे वाल्मीकि का अपना ही उद्गार हो. आँसुओं से भीगे अपने मुख को आँचल से पोंछते हुए सीता ने धीरे-धीरे बोलना शुरू किया—हे वीर, आप ऐसी कठोर, अनुचित, कर्णकटु, रूक्ष और अकथनीय बातें क्यों कर रहे हैं जो एक निम्न स्तर का पुरुष निम्नस्तर की स्त्री से ही कर सकता है ?  मैं अपने सदाचार की शपथ लेकर कहती हूँ कि मैं संदेह से परे हूँ. निम्न श्रेणी की स्त्रियों का आचरण देखकर समूची स्त्री-जाति पर आपका संदेह करना उचित नही. रावण के शरीर से जो मेरे शरीर का स्पर्श हुआ, मेरी अवशता में हुआ. मेरा दुर्भाग्य, मेरे अंग पराधीन थे. जो मेरे अधीन है—मेरा हृदय—वह सदा आपमें ही अनुरक्त रहा. आप और मैं इतने दिनों साथ रहे, इस दौरान हमारा परस्पर अनुराग बढ़ता ही गया. इतने पर भी आप मुझे नहीं समझ पाए तो इसमें मेरा क्या दोष ! जब आपने मुझे देखने के लिए हनुमान जी को भेजा था, तभी मेरा परित्याग कर दिया होता तो उसी समय मैं अपने प्राणों को त्याग देती. तब आपको अपने प्राणों को संकट में डालकर युद्ध आदि का उद्योग न करना पड़ता और आपके मित्रों को भी अकारण कष्ट न उठाना पड़ता. आपने एक ओछे मनुष्य की भाँति केवल रोष का अनुसरण किया और मेरे शील-स्वभाव का विचार न कर निम्न कोटि की स्त्री मान लिया......और अंत में, हे लक्ष्मण, मेरे लिए चिता तैयार करो, मेरे दु:ख का अब यही इलाज है, मिथ्या कलंक से कलंकित होकर अब मैं जीना नहीं चाहती.

लक्ष्मण ने रोष के साथ राम की ओर देखा किंतु राम ने इशारे से अपना अभिप्राय इंगित कर दिया और राम की सम्मति से ही लक्ष्मण ने चिता तैयार की. उस समय राम ऐसे प्रलयकालीन संहारकारी यमराज-तुल्य दिख रहे थे कि कोई मित्र उन्हें समझाने, कुछ कहने, यहाँ तक कि उनकी ओर देखने तक का साहस नहीं कर सका. जब सीता ने राम की परिक्रमा की, वे सिर झुकाए खड़े रहे. फिर सीता ने अग्निदेव के समीप जाकर कहा—यदि मेरा हृदय कभी एक क्षण के लिए श्री रघुनाथ से दूर न हुआ हो तो संपूर्ण जगत के स्वामी अग्निदेव मेरी सब ओर से रक्षा करें....सीता के अग्नि-प्रवेश करते समय राक्षस और वानर ज़ोर-ज़ोर से हाहाकार कर उठे और उनका आर्तनाद चारों ओर गूँज उठा.

अंतत: साक्षात्‌ अग्निदेव सीता को गोद में लिए हुए चिता से ऊपर उठे और यह कहते हुए उन्हें श्रीराम को सौंप दिया कि इनमें कोई पाप या दोष नहीं है.

विस्तार में सीता के सतीत्व की साक्षी में कहे गए अग्निदेव के वचन सुनकर श्रीराम प्रसन्न हो गए. उन्होंने कहा—लोगों में सीता की पवित्रता का विश्वास दिलाने के लिए यह अग्नि-परीक्षा आवश्यक थी. यदि मैं यह न करता तो लोग यही कहते कि दशरथपुत्र राम बड़ा मूर्ख और कामी है. मुझे तो पहले ही विश्वास था कि अपने ही तेज से सुरक्षित सीता पर रावण कोई अत्याचार नहीं कर सकता था, जैसे महासागर अपनी तट-भूमि को नहीं लाँघ सकता.....[सद्बुद्धि आई किंतु अग्नि द्वारा सीता के सतीत्व की साक्षी देने के बाद.]  

ब—उत्तरकाण्ड (जनापवाद और राम का एकल निर्णय)  

उत्तरकाण्ड का बयालीसवाँ सर्ग। सीता जी प्रतिदिन की भाँति पूर्वाह्न में देवपूजन और तीनों सासों की समान रूप से सेवा-पूजा करने के बाद वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर राम के पास आईं. सीता के गर्भ के मंगलमय चिह्न देखकर राम ने कहा—आपके गर्भ से पुत्र प्राप्त होने का समय उपस्थित है, आपकी कोई इच्छा हो तो बताइए, उसे पूरी कर दूँ। इस पर सीता ने गंगा तट के उन तपोवनों को देखने और वहाँ एक रात बिताने की इच्छा व्यक्त की जहाँ फल-मूल खाकर तपस्या करनेवाले महर्षि रहते हैं। राम ने सीता की इच्छा अगले ही दिन पूरी करने का आश्वासन दिया।     

तैंतालीसवाँ सर्ग. सीता के पास से उठकर राम महल के उस खंड में चले गए जहाँ अपने दस मित्रों के साथ मिलकर वे हास्य-विनोद की वार्ताएँ किया करते थे। उन्हीं में एक मित्र है भद्र जो अयोध्या का गुप्तचर भी है। एक कथा के प्रसंग में राम ने भद्र से पूछा—आजकल नगर और राज्य में किस बात की विशेष चर्चा है ? लोग मेरे तथा सीता, भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न और माता कैकेयी के बारे में क्या-क्या बातें करते हैं ? भद्र ने हाथ जोड़कर कहा—महाराज ! आपको लेकर पुरवासियों में आजकल अच्छी ही चर्चा चल रही है. अधिकतर तो लोग दशानन रावण के वध और लंका-विजय की ही बातें करते हैं (43:1-8). 

राम—नहीं भद्र, पुरवासी मेरे बारे में शुभ-अशुभ जो भी कहते हैं, उसे निश्चिन्त होकर, यथार्थ और पूर्ण रूप से बताओ. जिन्हें वे शुभ कहते हैं उनके अनुकूल आचरण करूँगा और जिन्हें अशुभ कहते हैं, उनका त्याग कर दूँगा (43: 9-10). तब भद्र ने कहा--

शृणु राजन्‌ यथा पौरा: कथयंन्ति शुभाशुभम्‌। 
चत्वरापणरथ्यासु वनेषूपवनेषु च॥43:13॥

[भद्र—राजन्‌, पुरवासी चौराहों पर, बाज़ारों में, सड़कों पर तथा वनों-उपवनों में आपके बारे में जो शुभ-अशुभ बातें कर रहे हैं, उन्हें सुनिए.]

भद्र आगे बताता है—“पुरवासी कहते हैं कि श्रीराम ने समुद्र पर पुल बाँधकर जो कठिन कार्य किया है, उसे पहले देवताओं और दानवों तक ने न सुना होगा. श्रीराम ने दुर्धर्ष रावण-सेना को वाहनों सहित ध्वस्त किया और रीछ और वानरों को अनुकूल बनाकर राक्षसों को वश में कर लिया.”

और तब अशुभ समाचार—एक विस्फोट की तरह:

"हत्वा च रावणं संख्ये सीतामाहृत्य राघव:।
अमर्षे पृष्ठत: कृत्वा स्ववेश्म पुनरानयत्‌॥43:16॥
कीदृशं हृदये तस्य सीतासम्भोगजं सुखम्‌।
अंकमारोप्य तु पुरा रावणेन बलाद्धृताम्‌॥17॥
लङ्कामपि पुरा नीतामशोकवनिकां गताम्‌।
रक्षसां वशमापन्नां कथम्‌ रामो न कुत्स्यति॥18॥
अस्माकमपि दारेषु सहनीयं भविष्यति।
यथा हि कुरुते राजा प्रजास्तमनुवर्तते"।।19॥

[(पुरवासी यह भी कहते हैं कि) युद्ध में रावण को मारकर रामचंद्र जी सीता को घर ले आए, उनके मन में कभी सीता के चरित्र को लेकर असहजता नहीं उत्पन्न हुई ? उनके हृदय में सीता के साथ सम्भोग से उत्पन्न सुख कैसा लगता होगा ! पहले  रावण ने बलपूर्कवक सीता को गोद में उठाकर उनका अपहरण किया, फिर उन्हें लंका ले गया और अपने अंत:पुर के क्रीडा-कानन अशोकवाटिका में रख दिया. वे बहुत दिनों तक राक्षसों के वश में रहीं, तो श्रीराम उनसे घृणा क्यों नहीं करते ? अब हम लोगों को भी अपनी स्त्रियों की ऐसी बातें सहन करनी पड़ेंगी; क्योंकि राजा जैसा करता है, प्रजा उसी का अनुसरण करती है.]

तो रामकथा के लिए मानक वाल्मीकीय रामायण के अनुसार बात उतनी हल्की नहीं थी जितनी कृत्तिवास की बँगला रामायण और कुछ अन्य रामायणों में वर्णित सीता द्वारा रावण का चित्र उकेरने (अवध की ग्राम्य स्त्रियों के लोकगीत में) या अकेले धोबी की हल्की बातों पर दोष मढ़कर राम का अपराध अधिक सांद्र करनेवाला पाठ रचा गया, जो सामान्य जनमानस में आज तक व्याप्त है. 

भद्र की बातें सुनकर राम ने वहाँ उपस्थित अपने शेष मित्रों से उनकी सत्यता के बारे में पूछा तो सबने दु:ख़ी मन किंतु एक स्वर से उस सूचना को संशयातीत बताया. मित्रों को विदा करने के बाद राम ने सोच-विचारकर अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया. फिर तीनों भाइयों को बुलवाया और पुरवासियों में सीता के बारे में फैले गम्भीर जनापवाद और उसको लेकर स्वयं के बारे में उनकी घृणा की सूचना दी. अपने निर्णय से उन्हें अवगत भी करा दिया. लक्ष्मण से उन्हें प्रतिरोध की विशेष आशंका थी. इसलिए लक्ष्मण को ख़ास तौर पर संबोधित करते हुए उन्होंने कहा—लक्ष्मण, तुम तो जानते हो, रावण किस तरह निर्जन दंडकारण्य से सीता को हरकर ले गया. मैंने उसका विध्वंस भी कर दिया. किंतु उसके बाद मेरे अंत:करण में यह संदेह उठा कि इतने दिनों तक लंका में रह लेने के बाद सीता को हम अयोध्या कैसे ला सकते हैं ! उस समय अपनी पवित्रता का विश्वास दिलाने के लिए सीता ने अग्नि में प्रवेश किया और देवताओं के समक्ष स्वयं अग्निदेव ने उन्हें निर्दोष घोषित किया. मेरी अंतरात्मा भी सीता को शुद्ध समझती है. किंतु अब भयंकर जनापवाद फैल गया है और मेरी निंदा हो रही है. जिस प्राणी की अपकीर्ति लोक में चर्चा का विषय बन जाती है वह नरक जाता है और जब तक उसकी चर्चा चलती रहती है, वहीं पड़ा रहता है. सभी श्रेष्ठ लोगों का सारा शुभ कार्य उत्तम कीर्ति के लिए ही होता है. मैं लोकनिंदा के भय से अपने प्राणों को और तुम सब को भी त्याग सकता हूँ, फिर सीता को त्यागना कौन बड़ी बात है ! (44:12-14). इस भूमिका के बाद उन्होंने लक्ष्मण को आदेश दिया—कल सवेरे तुम सारथी सुमंत के साथ रथ पर सीता को लेकर राज्य की सीमा के बाहर छोड़ दो. गंगा के उस पार तमसा के तट पर वाल्मीकि मुनि का दिव्य आश्रम है. उसी के निकट निर्जन वन में सीता को छोड़कर शीघ्र लौट आओ.

आगे राम ने कहा, सीता के बारे में कोई और बात मुझे नहीं करनी. यदि मेरे निर्णय में तुमने कोई बाधा डाली तो मुझे महान कष्ट होगा। मैं तुम्हें अपने जीवन की शपथ दिलाता हूँ कि मेरे निर्णय के विरुद्ध कुछ भी न कहना। जो भी मेरे इस निर्णय के बारे में मुझसे कुछ अनुनय-विनय करेगा वह मेरे अभीष्ट कार्य में बाधा डालने के कारण सदा के लिए मेरा शत्रु बन जाएगा। यदि तुम लोग मेरा सम्मान करते हो और मेरी आज्ञा में रहना चाहते हो तो सीता को यहाँ से वन में ले जाने दो। फिर उन्हें जैसे कुछ याद आ गया और उन्होंने जोड़ दिया, सीता ने मुझसे कहा था कि मैं गंगा-तट पर ऋषियों का आश्रम देखना चाहती हूँ, इससे उनकी यह इच्छा भी पूरी हो जाएगी।

फिर तो किसी के लिए कुछ कहने-करने को शेष ही नहीं रह गया।                      

राम के आदेशानुसार लक्ष्मण जब सीता को तमसा नदी के तट पर स्थित वाल्मीकि-आश्रम के पास निर्जन वन में छोड़कर लौटने लगे तो सीता ने राम के लिए जो संदेश भेजा, वह भी ध्यान देने योग्य है।

अहं त्यक्ता च ते वीर अयशोभीरुणा जने।
यच्च ते वचनीयं स्यादपवाद: समुत्थित:॥48:13॥
मया च परिहर्तव्यं त्वं हि मे परमोगति:।
वक्तव्यश्चैव नृपतिधर्मेण सुसमाहित:॥14॥
यथा भ्रातृषु वर्तेथास्तथा पौरेषु नित्यदा।
परमो ह्येष धर्मस्ते तस्मात्‌ कीर्तिरनुत्तमा॥15॥ 

[(मेरी ओर से श्रीराम से कहना कि) हे वीर ! आपने लोगों में अपयश के डर से ही मुझे त्यागा है;  अत: आपके बारे में जो बातें उठ रही हैं या मेरे कारण जो अपवाद फैल रहा है, उसे दूर करना मेरा भी कर्तव्य बनता है, क्योंकि आप ही मेरी परम गति—जीवन के अंतिम लक्ष्य--हैं. उनसे कहना कि राजधर्म में सम्यक्‌ रूप से अधिष्ठित होकर वे (अपवाद फैलानेवाले) पुरवासियों के साथ भी वैसा ही व्यवहार करें जैसा अपने भाइयों के साथ करते हैं. यही उनका परम धर्म है और इसी से उन्हें उत्तम कीर्ति प्राप्त होगी.] 

इस तरह वाल्मीकि की सीता उत्तरकाण्ड में निर्वासन की त्रासदी के मूर्तिमान होने तक युद्धकाण्ड में राम द्वारा किए गए उस भयंकर अपमान को भूल चुकी हैं जिसमें राम का आचरण कुल की प्रतिष्ठा के प्रति अतिशय संवेदनशील किंतु एक साधारण, शंकालु पति जैसा था जिसने सीता को अग्नि-परीक्षा के लिए बाध्य कर दिया था। और अब राम के लिए उनकी अपकीर्ति सबसे बड़ी कारक हो गई, जिससे रक्षा करने में सीता की अग्नि-परीक्षा भी कारगर नहीं रह गई।     

कहा जा सकता है कि प्रजा का अनुरंजन ही राम के लिए, और सीता के लिए भी, सर्वोच्च आदर्श है, जिसके लिए कोई भी कष्ट झेलना, कोई भी त्याग करना राजा का (और राजा से एकात्म रानी का भी) पहला और अंतिम कर्तव्य हो जाता है। निश्चय ही यह निरंकुश राजतंत्र नहीं, संवैधानिक राजतंत्र है, जिस पर जन-भावना का अंकुश आज के जनतंत्र के प्रतिपक्ष और ‘स्वतंत्र’ संचार-माध्यम एवं ‘स्वतंत्र’ न्यायपालिका की त्रयी से अधिक प्रभावी है. किंतु यह प्रश्न उठे बिना नहीं रह सकता कि क्या सीता की अग्नि-परीक्षा को सार्वजनिक कर, उस युग के सीमित साधनों से ही सही, इस तथ्य का प्रचार कर, राम जन-भावना को संतुष्ट करने का प्रयास भी नहीं कर सकते थे, कि एक आसन्न-प्रसवा निरपराध नारी अपनी गर्भावस्था में जीवन के इस कठोरतम दंड से बच सके ? राम तुलसी के लिए परब्रह्म के अवतार और मर्यादा पुरुषोत्तम थे किंतु वाल्मीकि के लिए ?  

स—भक्त तुलसीदास की विडम्बना और ‘यद्‌ रामायणेनिगदितं क्वचिदन्यतोsपि’ की कसौटी       
बहुत संभव है, रामचरितमानस लिखते समय तुलसी वाल्मीकि की धारा में बहते हुए लंकाकांड में विभीषण के राज्याभिषेक तक चले गए हों किंतु उसके बाद सीता-प्रसंग से सामना होने पर विकट द्वंद्व में पड़ गए हों. फिर पीछे लौटकर उन्हें अरण्यकांड में बिना किसी प्रकट संदर्भ के एक दोहा और उसके बाद पांच चौपाइयाँ जोड़नी पड़ गई हों:

लछिमन गए बनहि जब लेन मूल फल कंद।
जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद॥23॥

सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला॥
तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा॥
जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी॥
निज प्रतिबिम्ब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रूप सुबिनीता॥
लछिमनहुँ यह मरमु न जाना। जो कछु रचित रचा भगवाना॥

सीता की ओर से प्रतिरोध तो दूर, किसी तरह की जिज्ञासा, किसी आशंका तक का उल्लेख नहीं. और ‘जबहिं राम सब कहा बखानी’ के अवगुंठन में तुलसी एक दोहे व पाँच चौपाइयों से परंपरा की पूरी ज़मीन ही बदलकर रख देते हैं.

तुलसी के भी लंकाकांड में अग्नि-परीक्षा का प्रसंग आता है. उस पर ‘यद्‌ रामायणे निगदितम्‌’ की गहरी छाया भी है किंतु भक्ति की धुंध से राम के चरित्र के विचलन को तरल करने की जबर्दस्त कोशिश के साथ.

यहाँ भी श्रीराम रावण पर विजय का समाचार देने और सीता का समाचार लाने हेतु हनुमान को उनके पास भेजते हैं. यहाँ भी इस समाचार को सुनकर प्रसन्न हुई सीता हनुमान को कुछ पुरस्कार देने की इच्छा व्यक्त करती हैं और हनुमान को यह कहकर समझाना पड़ता है कि रण में शत्रु-सेना को जीतने के बाद निर्विकार खड़े राम को देखकर मैंने जगत का राज्य पा लिया. यहाँ भी सीता ने हनुमान से ऐसा उपाय करने का आग्रह किया कि वे श्रीराम के कोमल श्याम शरीर का दर्शन कर सकें. लेकिन इसके आगे की कथा कुछ अलग राह अपनाती है.

हनुमान से सीता की राम को देखने की इच्छा की सूचना पाकर राम ने विभीषण और युवराज अंगद को बुलाया और उन्हें हनुमान के साथ अशोक वाटिका जाकर आदर के साथ सीता को ले आने को कहा. जब तीनों सीता के पास पहुँचे, राक्षसियाँ विनीत भाव से उनकी सेवा में संलग्न थीं. विभीषण के आदेश पर इन राक्षसियों ने सीता का विधिवत्‌ स्नान कराया. अनेक प्रकार के आभूषण पहनकर सीता हर्ष के साथ एक सुंदर पालकी में सवार हुईं. पालकी के चारों ओर हस्तदंड लेकर रक्षक चले. जब रीछ-वानर सीता के दर्शन के लिए आए तो रक्षक क्रुद्ध होकर उन्हें हटाने दौड़े. तब श्रीराम ने हँसकर कहा, बेहतर होगा, सीता पैदल आएँ जिससे रीछ-वानर उन्हें माता की तरह देख सकें. राम की बात सुनकर रीछ-वानर प्रसन्न हो गए. आकाश से देवताओं ने फूल बरसाए.

और तब अरण्यकांड में जोड़े गए उपरोक्त अंश से तुलसी ने तार जोड़ने की कोशिश की:

सीता प्रथम अनल महुँ राखी. प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी.

[सीता को (राम ने) पहले आग में रख दिया था. अंतर्यामी राम अब उन्हें प्रकट करना चाहते हैं.] 

और आगे-

तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद। सुनत जातुधानीं सब लागीं करै विषाद॥

[इसी कारण करुणानिधि राम ने कुछ कटु वचन कहे जिन्हें सुनकर सभी राक्षसियां  विषाद-ग्रस्त हो गईं.] 

वे दुर्वचन क्या थे और किसके लिए कहे गए थे? तुलसी मौन हैं. साफ़ है, भक्ति की थिलगी लगाने की कोशिश में उन्होंने यहाँ कुछ गोलमोल कर दिया है. क्योंकि इसके ठीक बाद की चौपाइयों में सीता राम के वचन को शिरोधार्य कर लक्ष्मण से शीघ्रता से चिता लगाने की बात करने लगती हैं:

प्रभु के वचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम वचन पुनीता॥
लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम बेगी॥

यहाँ भी लक्ष्मण ने राम से कुछ अपेक्षा की. किंतु उनकी ओर रोषपूर्वक देखकर नहीं. बस सजल नेत्रों से दोनों हाथ जोड़कर खड़े रह गए. और राम की चुप्पी से लक्ष्मण को उनका रुख़ समझ में आ गया तो दौड़कर चिता लगाने में व्यस्त हो गए.

सवाल है, तुलसी में अग्नि परीक्षा की नौबत ही क्यों आती है ? असली सीता को तो वे पहले ही अग्नि की सुरक्षा में रख आए थे और जिसका हरण हुआ वे तो महज़ छाया सीता थीं। एक ही कारण हो सकता है। यह रहस्य राम और सीता के अतिरिक्त किसी अन्य को ज्ञात नहीं था। इसी गोपनीयता के चलते राम की और उनके कुल की अप्रतिष्ठा भी दाँव पर लग गई थी और राम लोकापवाद से बच नहीं सकते थे। किंतु अग्नि-परीक्षा असली सीता की होती है या छाया-सीता की ? यदि छाया सीता की होती है तो ‘सीता प्रथम अनल महुँ राखी. प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी.’ का क्या संदर्भ है और राम (सीता के लिए ?) दुर्वचन क्यों कहते हैं ?

वाल्मीकि के प्रबंध में आनुषंगिक बदलाव लाने के प्रयास में इस बिंदु पर तुलसी का कथा-प्रवाह भंग-सा हो गया है. तुलसी में ऐसा लगता है जैसे अग्निपरीक्षा अकारण उपस्थित हो गई हो.....मतलब, बीच का कामचलाऊ रास्ता निकालने की कोशिश में बात बनती नहीं.

इससे इतना ज़रूर हुआ कि तुलसी उत्तर कांड में सीता-निर्वासन के प्रसंग को सिरे से ख़ारिज कर सके. बचकर निकले नहीं, चुपचाप ख़ारिज कर दिया--उन्होंने लव और कुश का जन्म दिखाया किंतु वन में नहीं, अयोध्या में. चुपचाप इसलिए कि राम और उनके भ्राताओं के पुत्र-जन्म का प्रसंग महज़ तीन चौपाइयों में समेट लिया—

दुइ सुत सुंदर सीता जाए। लव कुस बेद पुरानन्ह गाए॥
दोउ विजई बिनई गुन मंदिर। हरि प्रतिबिंब मनहुँ अति सुंदर॥
दुइ दुइ सुत सब भ्रातन्ह केरे। भए रूप गुन सील कनेरे॥

(उत्तर काण्ड में दोहा-24 के बाद पाँचवीं, छठी और सातवीं चौपाइयाँ)

अयोध्या में लव और कुश का जन्म ‘क्वचिदन्यतोSपि’ नहीं है, इस बिंदु पर आदिकावि का पूर्ण अस्वीकार है. लव कुश का ज़िक्र ही न आता तो बात दूसरी थी, तब वह शम्बूक प्रसंग की तरह बचकर निकल जाना कहा जा सकता था। 

वाल्मीकीय रामायण और तुलसीकृत रामचरितमानस दोनों ग्रंथों में कोटि-कोटि भारतीयों की अडिग आस्था है। इनका विस्तृत तुलनात्मक अध्ययन दोनों महाकवियों की दृष्टि और युगबोध की भिन्नता समझने में तो सहायक होगा ही, तुलसी के ‘यद्‌ रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोSपि’ की कठिन कसौटी और इसकी सीमाओं का भी ख़ुलासा करेगा. इससे प्रबंध की अन्विति कहाँ तक अक्षुण्ण रह पाई है, यह भी बेहतर ढंग से स्पष्ट होगा.

वाल्मीकि ने अपने आदिकाव्य में जिस परंपरा की नींव डाल दी उसे तरल करना  आसान नहीं था. लेकिन आनेवाली सदियों के रचनाकार सीता की इस कमज़ोर स्थिति को पचाने में असमर्थ, लगातार इससे जूझते, इसे काटते-छाँटते रहे. 

कालिदास (भारतीय मत: पहली शताब्दी ई. पू., पाश्चात्य मत: चौथी-पाँचवीं  शताब्दी ई.) 

कालिदास का महाकाव्य रघुवंशम्. चौदहवाँ सर्ग. राम ने सीता से दोहद (गर्भ-जन्य इच्छा) के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा मैं उन तपोवनों को फिर से देखना चाहती हूँ जहाँ के हिंसक पशु भी मांस न खाकर नीवार (तिन्नी) खाते हैं,  जहाँ वनवास के दिनों की मेरी सहेलियाँ तापसी कन्यायें रहती हैं, और जहाँ चारों ओर कुश के कुटीर बने हुए हैं. राम ने तुरंत स्वीकार कर लिया. सीता के पास से उठकर वे अयोध्या की शोभा निहारने राजमहल की छत पर पहुँचे. भद्र नाम का दूत उनके साथ था. राम ने उससे पूछा—‘कहो भद्र, हमारे विषय में प्रजा क्या कहती है.’ पहले तो वह चुप रहा किंतु जब राम ने बार-बार पूछा तो उसने बताया—‘हे नरश्रेष्ठ, प्रजा आपकी सभी बातों की प्रशंसा करती है, किंतु आपने जो राक्षस के घर में रहनेवाली देवी सीता को फिर से ग्रहण कर लिया है, उसे लोग उचित नहीं मानते. इसे सुनकर श्रीराम का हृदय वैसे ही फट गया जैसे घन की चोट से तपाया हुआ लोहा. 

राम ने उसी पल निश्चय कर लिया कि उन्हें क्या करना है, फिर भी  ‘परामर्श’ के लिए भाइयों को बुलाया. वे राम का फ़क़ हुआ चेहरा देखकर स्तब्ध रह गये. राम बोले—देखो, मैं जानता हूँ, मैं सदाचारी हूँ, पवित्र हूँ, किंतु मेरे कारण आज राजर्षियों का यह सूर्यवंश कलंकित हो रहा है, जैसे भाप पड़ जाने से स्वच्छ दर्पण भी धुँधला हो जाता है. जैसे पानी  की लहरों पर तेल की कुछ ही बूँदें भी दूर तक फैल जाती हैं. सीता निर्दोष हैं, गर्भवती हैं, किंतु जनापवाद सत्य से अधिक बलवान होता है. निर्मल चंद्रमा पर पृथ्वी की छाया पड़ने को लोग राहु से ग्रसित चंद्रमा का कलंक मान लेते हैं, झूठ होने पर भी लोग यही कहते हैं. [चंद्रग्रहण का खगोलीय कारण कालिदास के समय तक ज्ञात हो चुका था किंतु जनमानस में राहु द्वारा ग्रसित होने का जो पौराणिक अंधविश्वास आज प्रचलित है, तब भी प्रचलित था—अंधविश्वास मनुष्य के मन से एकाकार होकर बहुत दीर्घजीवी बन जाता है.] 

राम ने अपना निर्णय व्यक्त करते हुए भाइयों से कहा--मैं सीता का परित्याग करूँगा जैसे मैंने पिता की आज्ञा से राज्य का परित्याग किया था....राम  के आदेश से लक्ष्मण सीता को तपोवन दिखाने के बहाने वन की ओर ले चलते हैं. सीता को कुछ मालूम नहीं, लेकिन दाहिना नेत्र फड़कने से आनेवाली विपत्ति का उन्हें पूर्वाभास हो जाता है. जब लक्ष्मण गर्भवती सीता को निर्जन वन में छोड़कर जाने लगे, उन्होंने राम को जो संदेश दिया, वह उन्हें वाल्मीकि की सीता से सर्वथा पृथक्‌ बनाता है, अपनी अस्मिता के प्रति अधिक सजग और राम के प्रति अधिक कटु: 

वाच्यस्त्वया मद्वचनात्स राजा वह्नौ विशुद्धामपि यत्समक्षम्‌।
मां लोकवादश्रवणादहासी: श्रुतस्य किं तत्सदृशं कुलस्य ॥ रघुवंशम्‌,14:61॥ 

[मेरी ओर से तुम उन ‘राजा’ से कहना कि आपने अपने सामने अग्नि में शुद्ध पाकर भी लोगों में अपयश के डर से जो मेरा परित्याग किया है, क्या वह उस प्रसिद्ध कुल के योग्य है, जिसमें आपने जन्म लिया था?]
 
कालिदास ने सीता के मुंह से राम के लिए यहां ‘राजा’ शब्द का प्रयोग कराकर बहुत कुछ व्यंजित कर दिया है. यह शायद पहली और आख़िरी बार है जब रघुवंश में सीता द्वारा राम के लिए राजा शब्द का प्रयोग हुआ है. इस प्रकरण में राम अपनी पत्नी की निगाह में मनुष्यता से फिसलकर राजा मात्र रह गए हैं, वह भी ऐसे राजा जिसने अपने दोहरे व्यवहार से अपने कुल की मर्यादा को स्खलित किया है. इस तरह कालिदास की सीता ने निराधार लांक्षित होने पर राम को ही लांक्षित कर दिया.
  
भवभूति (आठवीं शताब्दी)

भवभूति ने तो कर्तव्यपरायणता से उपजे राम के द्वंद्व, उनकी अव्यक्त पीड़ा, उनकी बेबसी को स्वर देने के लिए ही जैसे अपने नाटक उत्तररामचरितम्‌ की रचना की थी. सीता-निर्वासन की भावभूमि पर केंद्रित यह नाटक राम के पक्ष की प्रतिष्ठा में सीता और राम के जीवन की त्रासदी का एक अप्रतिम कारुणिक पाठ रचता है. दाम्पत्य या स्वकीया प्रेम को उसकी पराकाष्ठा तक पहुँचानेवाले भवभूति ने राम और सीता की पीड़ा में अभेद स्थापितकर, सीता की त्रासदी को राम की भी त्रासदी बना दिया है जिसमें सीता का निर्वासन राम का आत्म-निर्वासन बन जाता है.

कथा-विधान में नाटकीय तत्व पिरोते हुए इस घटना की विडंबना कई-कई स्तरों पर अनुस्यूत है. 

नाटक की शुरुआत. सूत्रधार और नट के संवाद से ही दर्शकों को ज्ञात हो जाता है कि अग्निपरीक्षा के बावजूद लोगों द्वारा सीता पर लगाया गया आरोप अयोध्या की हवा में तैर रहा है, किंतु सीता और राम अनभिज्ञ हैं. माताएँ गुरु वशिष्ठ और गुरुपत्नी अरुंधती के साथ जामाता ऋष्यशृंग (और पुत्री शांता) के यज्ञ में भाग लेने गई हैं. सीता के पूर्णगर्भा  होने से, उन्हें नहीं बुलाया गया है और उनकी देखभाल के लिए राम को भी छोड़ दिया गया है. राम-सीता नहीं गये तो लक्ष्मण भी नहीं गये. ऋष्यशृंग के यहाँ से गुरुजनों का संदेश लेकर अष्टावक्र आये हैं. गुरु वशिष्ठ ने राम को ताकीद की है कि हम बुज़ुर्ग लोग वहाँ नहीं हैं, आप अभी ‘बालक’ हैं, आपके लिए राज्य नया है. इसलिए प्रजा का अनुरंजन करने में तत्पर रहें, वही रघुवंश की पूँजी है. 

राम अष्टावक्र के माध्यम से गुरु को आश्वासन का संदेश भिजवाते हैं—

स्नेहं दयां च सौख्यं च यदि वा जानकीमपि।
आराधनाय लोकस्य मुञ्चतो नास्ति मे व्यथा॥1:12।।

[प्रजानुरंजन के लिए मैं स्नेह, दया, मित्रता, यहाँ तक कि जानकी को भी छोड़ सकता हूँ, इसलिए गुरुजन निश्चिन्त रहें.]

सीता तुरंत राम के कथन की पुष्टि करती हैं—अदो जेव्व राहवकुलधुरंधरो अज्जउत्तो।

[(प्राकृत) इसी विशेषता के कारण तो आर्यपुत्र (पति के लिए प्रयुक्त होनेवाली संज्ञा) रघुकुल के धुरंधर हैं.] 

किसी को क्या पता कि वह क्षण आने ही वाला है जब राम और सीता दोनों को अपने वचनों को यथार्थ की कसौटी पर कसना होगा. 

लक्ष्मण ने सीता के मनोविनोद के लिए राम-सीता के पूर्व-जीवन पर आधारित एक चित्रपट तैयार कराया है. सीता को एक-एक चित्र दिखाते हुए राम कुछ टिप्पणी भी करते जाते हैं. शूर्पणखा वगैरह के भयावह चित्रों को देखकर सीता डरती हैं और फिर थक कर राम की छाती पर ही सिर रखकर सो जाती हैं. राम उन्हें स्नेह से सोती हुई निहारते हैं और सोचते हैं कि जानकी का सब कुछ प्रिय है, बस इसका वियोग असह्य है. राम कहाँ जानते थे, सीताहरण के वियोग के अनुभव से नि:सृत उनकी यह अनुभूति दूसरे और उससे भी अधिक दारुण वियोग के रूप में पुन: उपस्थित होने वाली है. 

सीता सोते-सोते भयावह चित्रों के प्रभाव में कोई दु:स्वप्न देखती  हैं और ‘आर्यपुत्र आप आप कहाँ हैं...’ बुदबुदाती हैं. उन्हें स्वप्न में भी पहले के वियोग की पुनरावृत्ति का भय सता रहा है. सीता की स्वप्नावस्था का भय अकारण नहीं है. उसके यथार्थ में बदलने में ज़्यादा समय नहीं है. सीता अभी ठीक से जगी भी नहीं थीं कि दुर्मुख (वाल्मीकि और कालिदास का ‘भद्र’?) जनापवाद की सूचना लेकर उपस्थित हो जाता है. 

भवभूति में राजा राम के निर्णय से मनुष्य राम पर थोपी गई सीता-निर्वासन की वियोग-वेदना भीतर ही भीतर घनीभूत होकर भले ही मर्म को भेद दे, बाहर आकर व्यक्त नहीं हो सकती, क्योंकि तब वह राजा राम को स्खलित कर देगी. और उसी वेदना को भवभूति ने नाम दिया है साक्षात्‌ “करुण रस’’—

अनिर्भिन्नो गभीरत्वादन्तर्गूढघनव्यथ:।
पुटपाकप्रतीकाशो रामस्य करुणो रस:॥3:1॥

[राम का करुण रस पुटपाक (औषधि को गड्ढे की आग में रखकर पकाने के लिए ऊपर-नीचे से बंद और मज़बूत धातु का पात्र विशेष) की औषधि की तरह है, जहां सुदृढ़ता के कारण पुटपाक टूटता तो नहीं किंतु भीतर के ताप से औषधि को पिघलाकर द्रवीभूत कर देता है, वैसे ही जैसे राम की व्यथा आवेग के ताप से मर्म को पिघलाती, भीतर ही भीतर उबलती रहती है, किंतु बाहर नहीं आ सकती.]

यह वेदना का वह द्रवीभूत प्रवाह है जो पहाड़ी सोते की तरह पत्थर तक को काट देता है पर बहता है अंतर्भूत और अदृश्य होकर ही-- 

करकमलवितीर्णैरम्बुनीवारशष्पै
स्तरुशकुनिकुरङ्गान्मैथिली यानपुष्यन्‌।
भवति मम विकारस्तेषु दृष्टेषु कोsपि
द्रव इव हृदयस्य प्रस्तरोद्भेद्योग्य:॥3:25॥ 

[(बारह साल के अंतराल के बाद एक अन्य निमित्त से दोबारा पंचवटी आए राम--) सीता ने अपने कमल के फूल-जैसे सुकुमार हाथों से यहाँ के जिन पेड़ों को पानी, चिड़ियों को तिन्नी का दाना और हिरणों को मुलायम घास देकर पाला था, आज उन्हें पुन: देखकर मेरा हृदय पत्थर को तोड़नेवाले द्रवीभूत प्रवाह-जैसे किसी अनिर्वचनीय विकार (वेदना) से आप्यायित हो रहा है.]

पंचवटी की पुनर्यात्रा में राम बारंबार उस वेदना के उत्कट रूप से टकराते हैं--

चिरोद्वेगारंभी प्रसृत इव तीव्रो विषरस:
कुतश्चित्संवेगान्निहित इव शल्यस्य शकल:।
व्रणो रूढग्रंन्थि: स्फुटित इव हृन्मर्मणि पुन:
पुराभूत: शोको विकलयति मां नूतन इव॥ 2:26॥

[(राम‌--) चिरकाल तक निरंतर उद्विग्न रखनेवाले और पूरी तरह फैल गए तेज़ विषैले द्रव की तरह; कहीं से बहुत तेज़ी से आकर हृदय में घुस गए वाणाग्र के टुकड़े की तरह, और हृदय के मर्म-स्थल में हुए संधिवाले फोड़े के फूटने की तरह आज वह (सीता-वियोग का) पुराना शोक मुझे फिर से बेधकर व्याकुल कर रहा है] 

पंचवटी की इस पुनर्यात्रा में सीता के साथ बिताये वनवास के पुराने दिनों की याद, सीता-निर्वासन के वर्तमान वियोग का शोक, पश्चात्ताप और आत्मग्लानि बनकर राम को इस क़दर घेर लेती है कि वे मूर्छित हो जाते हैं. मूर्छा के ठीक पहले का उनका संवाद—

“यस्यां ते दिवसास्तया सह मया नीता यथा स्वे गृहे यत्सम्बंधिकथाभिरेव सततं  दीर्घाभिरास्थीयत। एक: सम्प्रति नाशितप्रियतमस्तामेव राम: कथं पाप: पंचवटी विलोकयतु वा गच्छत्वसम्भाव्य वा॥“ (2:28)

[जिस पंचवटी को घर-जैसा बनाकर मैंने सीता के साथ वे (वनवास के) दिन बिताए और फिर (अयोध्या में‌) जिसकी याद में परस्पर लम्बे-लम्बे वार्तालाप करते हुए बाद के दिन बिताए, उसे अब प्रियतमा का नाश करनेवाला पापी मैं अकेला कैसे देखूं ? और (न देखूं तो) उसका अनादर करके चला भी कैसे जाऊँ ? {भवभूति ने यहां राम के मुख से अपने लिए पापी नहीं ‘पाप’ शब्द का प्रयोग कराया है--साक्षात्‌ पाप होना पापी से बहुत बढ़कर है. किन्तु उसका हिन्दी अनुवाद बन नहीं रहा।} 

और अंत में दण्डकवन की नीरवता में राजा राम के कठोर न्याय के विरुद्ध मनुष्य राम की वह आर्त पुकार—

हे भगवन्त: पौरजनपदा: !

न किल भवतां देव्या: स्थानं गृहेsभिमतं तत-
स्तृणमिव वने शून्ये त्यक्त्वा न चाप्यनिशोचिता।
चिरपरिचितास्ते ते भावास्तथा द्रवयन्ति मा- 
मिदशरणैरद्यास्माभि:  प्रसीदत रुद्यते॥3:32॥ 

[हे महानुभाव नागरिको एवं देशवासियो !

घर में सीता देवी का रहना आप लोगों को नहीं सुहाया. इसलिए मैंने उसे निर्जन वन में तृण की तरह निराश्रय छोड़ दिया और इसके लिए पश्चात्ताप भी नहीं कर पाया (राजा राम का ऐसा आचरण निंदिता सीता के प्रति जन-भावना के प्रतिकूल होता). पर इस समय (दीर्घ वनवास के कारण) चिरपरिचित ये (वृक्ष, पक्षी , मृग आदि) वनवासी मुझे ऐसा व्याकुल कर रहे हैं कि मैं अशरण होकर कलप रहा हूँ. अब आप लोग प्रसन्न हों.]

उल्लेखनीय है कि वाल्मीकि के विपरीत भवभूति की सीता अपनी जन्मदात्री पृथ्वी के गर्भ में नहीं समातीं, वे लव-कुश सहित राम द्वारा स्वीकार कर ली जाती हैं, किंतु मनुष्य राम की उत्कट अभिलाषा के बावजूद राजा राम की शर्त (जनमत-संग्रह) पूरी होने के बाद ही. 

{यह भारतीय राजतंत्र का आदर्श है जो रामराज्य को रामराज्य बनाता है, जिसका मूल्य चुकाती हैं सीता और लव और कुश और स्वयं श्रीराम. किसी भी संस्थागत  आदर्श को निष्ठा के साथ व्यवहार में उतारने के लिए मनुष्य को हमेशा बलिदान देना पड़ा है. 

और इसी को कहते हैं ‘परम्परा’. वह कोई जड़ या स्थिर तत्व नहीं है। किसी बिंदु पर फ़्रीज़ नहीं होती। विगत का सूत्र सँजोए, निरंतर समयानुसार परिवर्तित-परिवर्धित-प्रवाहित होती, नव्य बनी रहती है। भवभूति के युग में कोई यह आपत्ति करनेवाला नहीं था कि वाल्मीकि  की कथा में अनुस्यूत राम और सीता हमारी आस्था के विषय हैं, उसमें कोई परिवर्तन स्वीकार्य नहीं।}  

अँग्रेज़ी की वह कहावत बहुत प्रसिद्ध है—Caesar’s wife must be above suspicion. इसके पीछे प्राचीन रोम की वह ऐतिहासिक घटना है जब सीज़र को रोम के राजकीय धर्म का मुख्य पुरोहित भी चुन लिया गया था (63 ई.पू.), जिस पद के साथ एक चिन्हित राजकीय आवास की सुविधा जुड़ी थी. अगले वर्ष सीज़र की पत्नी पाम्पिया ने उस आवास की परंपरा के अनुसार शुभत्व की देवी के त्योहार पर महिला-भोज का आयोजन किया जिसमें पुरुषों का प्रवेश वर्जित था. क्लोडिअस नामका एक नवयुवक पाम्पिया को रिझाने के लिए महिला के वेष में उस भोज में दाख़िल हो गया. पकड़े जाने पर उस पर धर्म-द्रोह का मुक़दमा चला किंतु सीज़र के गवाही न देने से वह बच गया और पाम्पिया संदेह के घेरे में आ गई-- कि उसके और क्लोडिअस के बीच कुछ रहा होगा और क्लोडिअस को उससे शह मिली होगी. लिहाज़ा, सीज़र ने पॉम्पिया को यह कहते हुए तलाक़ दे दिया कि उसकी पत्नी को संदेह के घेरे में कदापि नहीं होना चाहिए. इसका खुलासा कभी नहीं हुआ कि सीज़र ने गवाही क्यों नहीं दी.   

परंपरा के अनुसार सीता के वियोग से व्यथित राम ने सरयू में गुप्तार घाट पर जलसमाधि ली थी. 

गीतकार भारतभूषण के उस प्रसिद्ध और लोकप्रिय गीत ‘राम की जलसमाधि’  में जो कुछ है, राम का पक्ष रखने के लिए उससे इतर कुछ और की दरकार है ? —

पश्चिम में ढलका सूर्य उठा
वंशज सरयू की रेती से, 
हारा-हारा रीता-रीता, 
नि:शब्द धरा, नि:शब्द व्योम,

नि:शब्द अधर पर रोम-रोम
था टेर रहा सीता-सीता.
किसलिए रहे अब ये शरीर,
ये अनाथ मन किस लिए रहे,
धरती को मैं किसलिए सहूँ,
धरती मुझको किसलिए सहे.

तू कहाँ खो गई वैदेही,
वैदेही तू खो गई कहाँ,
मुरझे राजीवनयन बोले,
काँपी सरयू, सरयू काँपी,

देवत्व हुआ लो पूर्णकाम,
नीली माटी निष्काम हुई,
इस स्नेहहीन देह के लिए
अब साँस-साँस संग्राम हुई 

ये राजमुकुट, ये सिंहासन,
ये दिग्विजयी वैभव अपार,
ये प्रियाहीन जीवन मेरा
सामने नदी की अगम धार.

माँग रे भिखारी, लोक माँग,
कुछ और माँग अंतिम बेला,
इन अंचलहीन आँसुओं में 
नहला बूढ़ी मर्यादाएँ,
आदर्शों के जलमहल बना
फिर राम मिले न मिले तुझको
फिर ऐसी शाम ढले न ढले.

ओ खंडित प्रणयबंध मेरे,
किस ठौर कहाँ तुझको जोड़ूँ,
कब तक पहनूं यह मौन धैर्य,
बोलूँ भी तो किससे बोलूँ. 

कमलाकांत त्रिपाठी
© Kamlakant Tripathi
#vss

No comments:

Post a Comment