Friday 14 January 2022

असग़र वजाहत का लघु उपन्यास - चहार दर (8)

सुन जोत...अब मैं मर भी जाता हूँ तो दुःख नहीं होगा।“ शेर अली ने छत से लटकते बल्ब की तरफ़ देखकर कहा।
”देख, मैं तो तुझे बता रहा था...गाँव में आजकल कई तरह की बातें चल रही हैं...जोध सिंह को तू नहीं जानता...इधर जे कुछ गड़बड़-शड़बड़ होती है सबमें उसका हाथ रहता है।“ जोत बोला।
”ठीक है, अब सो जा...रात हो गई है।“ जोत बिस्तर पर से उठा। बत्ती बंद की। किवाड़ बंद किया और बिस्तर पर लेट गया।......

...पूरा चाँद और इतनी भरी पूरी चाँदनी कि दिन जैसा उजाला पसरा पड़ा है गाँव की गलियों में।
”नी रुक जा...मैं भी आ रहा हूँ।“
”तो आजा...कोई मैं तुझे रोक रही हूँ।“
”इतनी जल्दी भी क्या है तुझे घर जाने की...अभी तो तेरी सहेलियाँ गिद्दा डाल रही हैं।“
”अपना रास्ता ले...सौ तरह के सवाल क्यों पूछता है?“
”तो मैं आ गया...तेरे बराबर...साथ-साथ। चल तुझे घर तक छोड़ आऊँ।“
”नई मैं चली जाऊँगी।“
”एक बात बोलूँ तुझसे।“
”बोल।“
”तू मुझे बड़ी अच्छी लगती है।“
”मेरी बला से।“
”मैं तुझे कैसा लगता हूँ?“
”निरा डूमणा लगता है तू।“ वह हँसी और चाँदनी में जलतरंग बज उठी।
”अपने को बड़ा वो समझती है।“
”तेरे जैसों से तो मैं बात भी नहीं करती।“
”तो चला जाऊँ तुझे छोड़कर...भेड़िए खा जाएँगे तुझे।“
”बड़ा अच्छा काम करेगा न।“
”ला तेरा हाथ पकड़ लूँ...कहीं गिर न पड़े।“
”हाथ पकड़ेगा...ले ये ले।“
अमरता ने शेरू की पीठ पर ज़ोर का घूंसा मारा और फिर अपना ही हाथ पकड़कर बिसूरने लगी।
”चोट ज़्यादा लग गई क्या?“ शेरू ने कहा।
”ये तू पत्थर का है क्या?“
”ला, तेरा हाथ मल दूँ...नहीं तो सूज जाएगा।“
अमरता ने अपना हाथ शेरू को दे दिया........
 
...तालाब के किनारे बबूल के पेड़ों की छाया में अमरता रोटियों की चंगेल खोल रही है।
”ले ये रोट्टी...और लस्सी।“
”सुन अमरता...“
”क्या?“
”आज तो कुछ और ही पिला दे।“
”कुछ और पिला दे, मेरी जूती।“
”ला अपनी जूती ला...“
शेरू ने अमरता की जूती लेकर तालाब में फेंक दी। अमरता ने उसे तालाब में ढकेल दिया...वह अमरता की जूती निकाल लाया......

दरवाजे़ पर धड़धड़ की आवाजें। लगता है कोई दरवाज़ा तोड़े दे रहा है। दो-तीन लकड़ी के कंदों से दरवाज़ा तोड़ा जा रहा है। जोत उठ बैठा है।
- कौन...
 कोई जवाब नहीं। दरवाज़ा उसी तरह तोड़ा जा रहा है। जोत उठकर बत्ती जलाता है लेकिन बल्ब नहीं जलता।
धड़-धड़-धड़...लगता है, दरवाज़ा टूट जाएगा।
”ओए कौन है, क्या चाहिए?“
”गुरजोत...दरवाज़ा खोल दे...तुझसे हमें कोई काम नहीं..बस तेरे दोस्त को ले जाएंगे।“
”शेरू छत पर चला जा...पीछे से कूद जाना...ये वही लोग हैं...वही।“ जोत की आवाज़ में घबराहट है।

”फिर क्या हुआ?“ सायमा ने पूछा।
”उजाला होने पर लोग निकले।“
”किधर गए?“
”गन्ने के खेत की तरफ़ गए, पर वहाँ कुछ, नहीं था...।“
”लाश कहाँ मिली।“
”लाश तो वहाँ से काफ़ी दूर दो कच्चे रास्तों के चैराहे पर मिली...वहाँ खून भी नहीं था।“
”मतलब लाश कहीं और से वहाँ लाई गई थी।“
”हाँ जी।“
”गोली कहाँ लगी थी?“
”गोली सीने में लगी थी।“
”एक गोली लगी थी?“
”कह नहीं सकते...दिखाई तो एक ही पड़ती थी।“
”पुलिस को किसने ख़बर दी?“
”चैकीदार ने।
 
”कौन चक्कर में फँसे...पुलिस ने भी यही सलाह दी थी कि कोई कुछ न कहे...लावारिस लाश...।“
”शेर अली के पास कोई काग़ज़ नहीं था?“
”नहीं।“
”तुम्हारे पास इसका सबूत नहीं है कि वह तुम्हारे साथ ठहरा था?“
”नहीं।“
 
...गुरुजोत के इंटरव्यू के बाद स्टोरी एक तरह से पूरी खुल गई थी। अब सवाल ये था कि पुलिस ने शेर अली को गोली लगने वाली बात क्यों छिपाई और उसे लावारिस क्यों घोषित किया?
”सायमा...आज तेरी एक महीने की मेहनत...रंग ले आई...इसी बात पर पार्टी हो जाए।“ नवजोत बहुत उत्साह में आ गया था।
”पक्की पार्टी होगी...लेकिन स्टोरी फाइल करने के बाद...उसमें पूरा गु्रप होगा।“
”हाँ जी, पूरा ग्रुप।“
 
सायमा का कमरा मछली बाज़ार बना हुआ है। क्लास के तीस लड़के- लड़कियों में कम-से-कम पच्चीस-छब्बीस काम में लगे हैं। एक-दो ऐसे भी हैं जो आकर चले गए हैं या फिर आने वाले हैं। सात-आठ लैपटाप खुले हुए हैं। सायमा स्टोरी कर रही हैं एक-एक पैराग्राफ करती है। वह सबके साथ डिस्कस होता है। एडिट किए जाते हैं। फिर फाइनल होता है। 
शेर अली धीरे-धीरे आकार ले रहा है। इसमें सबका काॅट्रीब्यूशन हैं। सायमा ने कह दिया है कि यह स्टोरी सबने मिल कर की है इसलिए बाईलान ‘सायमा खान एंड स्टूडेंटस आफ जर्नलिज़्म स्कूल आफ अमृतसर’ होगी। पहली बार किसी स्टोरी के साथ इस तरह की बाईलाइन जाएगी। यह भी अपने आपमें एक इन्क़िलाबी काम होगा। सायमा स्टोरी अंगे्रज़ी में लिख रही है। अल्का उसका पंजाबी अनुवाद कर रही है। सोनी चावला उसे हिन्दी में तैयार कर रहा है। यह भी प्लानिंग है कि स्टोरी तीनों जबानों में रिलीज़ होगी।
स्टोरी तैयार होते ही सायमा ने सबसे पहले अब्दुल रज़्ज़ाक साहब को लाहौर भेज दी। उसे लगता था कि रज़्ज़ाक साहब स्टोरी की नोक पलक दुरुस्त कर देंगे और ‘थ्रस्ट एरिया’ भी तय करेंगे।
”यार तुम्हारे एडीटर कितना टाइम लेंगे?“ नवीन गिल ने सायमा से पूछा।
”मुझे लगता है कि मुश्किल से आधा घंटा।“
”तो चलो यार, चाय पी आते हैं...अपने ज्ञानी जी के यहाँ।“
”आओ...ठीक है...चलो।“
सब चाय पीने चल दिए। सायमा अपना लैपटाप कभी नहीं छोड़ती। लगता है वह उसके जिस्म का हिस्सा बन गया है।
चाय पीते हुए सायमा का मोबाइल बज उठा।
”शर्त लगा लो पाँच-पाँच सौ रुपए की...ये रज़्ज़ाक साहब का फोन है।“
”हमें अपने पाँच सौ प्यारे हैं।“ प्रदीप बोला।
”हैलो, रज़्ज़ाक साहब...जी स्टोरी मिल गई...ओ थैंक्स सर...“ सायमा ने मोबाइल का वाल्यूम हाई कर दिया। रज़्ज़ाक साहब की आवाज़ सबको सुनाई देने लगी। सब सिमटकर तीन-चार बेंचों पर बैठ गए।
रज़्ज़ाक साहब की आवाज़ आई, ”सायमा, तुमने कमाल कर दिया है।“
”सर, इसमें पूरे ग्रुप का कांट्रीब्यूशन है।“
”उन्हें भी कांगे्रच्युलेट करो।“
”सर, वो सब आपकी आवाज़ सुन रहे हैं आप उन्हें सीधे मुखातिब कर सकते हैं।“
रज़्ज़ाक साहब जोश में आकर पंजाबी में बोलने लगे, ”जवानों, तुसी बहुत बड़ा कम्म कीता है। मैं ताँ सोचेया वी नई सी...कि ये इतनी शानदार स्टोरी होगी...सायमा ने कई बार मुझसे कहा कि अब कुछ नहीं निकल रहा, लेकिन मुझे यक़ीन था कि स्टोरी बनेगी...इसमें भी शक नहीं कि ये आप लोगों की मेहनत का नतीजा है...मैं इस स्टोरी को थोड़ा ‘टचअप’ करके एक घंटे के अंदर आप लोगों को भेज रहा हूँ...बेशक आप लोग आज ही इसे पंजाबी, अंगे्रजी, हिन्दी, उर्दू के हिन्दुस्तानी अख़बारों में भेज दो। ये ‘नेशन’ के साथ-साथ पूरे ‘सब्कांटीनेंट’ में एक साथ छपेगी तो मुझे खुशी होगी। हाँ, बाईलाइन वही होनी चाहिए...यू.एन.आई. और पी.टी.आई. वालों से भी यही बात करो...चंगा कदी एद्दर आ जाओ...इधर आ जाओ...तुम सबको मेरा इन्विटेशन है। अमृतसर से लाहौर कितनी दूर है? ओ.के. बाए।“
”यार सायमा, तेरा बाॅस तो चंगा आदमी है।“ नवजोत बोला।
”हाँ-हाँ, क्या समझते हो...अख़बार कभी जेल से एडिट करता है कभी आफिस से।“
”अच्छा यार सायमा, एक बात बता...शेर अली की स्टोरी का अगला ऐंगिल क्या होगा?“ नवीन बोला।
”मुझे लगता है लाश का पोस्टमार्टम।“
”यस...यही होना चाहिए।“
”अगर उसे गोली लगी है तो पूरी स्टोरी...नए डायरेक्शन में चली जाएगी।“ नवजोत ने कहा।

एक घंटे बाद रज़्ज़ाक साहब ने स्टोरी की नोक पलक दुरुस्त करके उसे वापस भेज दिया। अब उसका पंजाबी में तरजुमा हुआ, हिन्दी में हुआ और उर्दू में सायमा ने खुद किया।
”चल पंजाबी अख़बारों के ई-मेल किसके पास हैं?“ सायमा बोली।
”मेरे पास हैं।“ अल्का बोली।
”चल भेज दे और हिन्दी?“
”मैं भेजता हूँ।“ नवीन ने अपना लैपटाप खोल दिया।
”अंग्रेजी के तो तेरे पास हैं न?“ सायमा ने जसवीर कौर से कहा।
लैपटाप गिटगिटाने लगे और हवा की तरंगों पर ख़बर दुनिया के सारे कोनों में उड़ कर पहुँच गई।

अब अगले दिन देखना है ‘कवरेज’ क्या होती है। रात दो बजे सायमा कमरे में अकेली रह गई। उसने बिखरे पड़े कप और गिलास समेटे। फर्श पर पड़े काग़ज़ के टुकड़े ‘डस्टबिन’ में डाले। इधर-उधर पड़े कुशन सोफों पर रखे। पर्दे बराबर किए और आइने में जाकर अपने को देखा। वह खुद को कुछ बदली हुई नज़र आई...उसने सिर उठाकर इधर-उधर हिलाया...फिर चश्मा उतारकर आँखें साफ की और आइने मे अपने आपको मुँह चिढ़ाकर लाइट बंद कर दी।
पता नहीं क्यों नींद का नामोनिशान नहीं है। कभी-कभी ऐसा होता है कि आँखें थकान से बंद हो जाती हैं। लगता है तुम सो रहे हो लेकिन दिमाग़ का दरवाज़ा पूरा खुला रहता है और उस दरवाजे़ से तेज़ धूप अंदर आती है। उसी दरवाजे़ से पहले तो ये लगा था कि ये आवाजें़ ख्वाब में सुनाई दे रही हैं। सपने में कोई चीख़ रहा है। लेकिन अब लगता है कि नहीं। ये आवाज़ें तो दरवाज़े के पास से आ रही हैं और इन आवाज़ों में नवजोत की आवाज़ शामिल है। ‘चक दे सायमा खान’ के नारे लग रहे हैं और दरवाज़ा भी पीटा जा रहा है। पता नहीं पिछली रात सायमा कितने बजे सोई थी...सोई थी भी या नहीं...ये भी ठीक से नहीं मालूम....
”अरे रुक जाओ एक मिनट...“ वह चीख़ी।
बाथरूम में जाकर मुँह पर ठंडे पानी के छींटे मारने के बाद लगा कि जान-में-जान आ गई है। वह दरवाजे़ तक आई और दरवाज़ा खोल दिया। सबसे आगे नवजोत खड़ा था...उसने सायमा को गले लगा लिया। अल्का ने अख़बारों का मोटा-सा गट्ठर उसके सिर पर मारा और बोली, ”देख ले...आज का दिन हमारा है...पूरा हमारा।“ सबने सायमा को गले लगाया। उनका उत्साह पोर-पोर से फूटा पड़ा रहा था। 
”ये देख...एक-एक करके देख...पंजाबी के जितने पेपर हैं सबमें अपनी स्टोरी है...हिन्दी में...ये ‘अमर उजाला’, ‘पंजाब केसरी’ और ये सारे...अंगे्रजी में ट्रिब्यून...एक्सपे्रस, टाइम्स, एच.टी. सब में...“
”ये तो कलाम है यार।“
”और कमाल देखेगी...ये देख...“ प्रदीप ने लैपटाप पर ‘डाॅन’ दिखाया।
”ओ गाॅड...इतनी शानदार ‘कवरेज’ सायमा उछल पड़ी।“
”सायमा तूने हमें इंटरनेशनल बना दिया।“ अल्का बोली।
”मैंने नहीं...शेर अली ने।“ सायमा बोली।
”यार बेचारा...मैं सोचता हूँ बड़ा...बहुत ही बुरा हुआ उसके साथ और ये सोचो कि जाने कितने शेर अली होंगे।“ नवजोत बोला।
”पच्चीस लाख लोग माइगे्रट हुए थे।“ नवीन ने बताया।
”चलो शेर अली ने जान देकर अपना गाँव, घर देख तो लिया। पर कितनों की जान चली जाती है और गाँव, घर नहीं देख पाते।“ अल्का बोली।
”देखो...यार है तो ज़्यादती...अमृतसर से लाहौर पचास मील दूर है...लगता है पाँच हज़ार मील दूर होगा।“ सोनी बोला।
”सायमा, तू ये तो नहीं समझ रही कि हम एंटी पाकिस्तान हैं?“
”नहीं-नहीं, इसमें एंटी प्रो की क्या बात है...ये तो ह्यूमन प्राब्लम है।“ सायमा बोली।
”बस, यही तो हम कहते हैं...क्यों अलका...“ सोनी बोला।
”ओ गाॅड! इतने ई-मेल...इससे पहले कभी इतने ई-मेल नहीं आए एक दिन में...देख अल्का...।“
अल्का, सोनी, नवजोत, प्रदीप और सभी देखने लगे। कम-से-कम पाँच सौ होंगे...
”खोल तो...देखें...“ अल्का बोली।

मेल खुल गए। हर मेल में शेर अली वाली स्टोरी पर कमेंट्स थे। लाहौर ही नहीं। रावलपिंडी, मुलतान और कराची से ई-मेल थे। सबसे मजे़ की बात यह कि लाहौर के फाॅरमेन काॅलिज के कई टीचर्स और स्टूडेंट्स के मेल थे...सायमा के लंदन वाले दोस्तों ने भी स्टोरी पर रियेक्ट किया था। मीडिया स्कूलों के लड़कों और लड़कियों ने स्टोरी में इसलिए दिलचस्पी ली थी कि इसमें अमृतसर के मीडिया स्टूडेंट्स भी शामिल थे। कुछ लड़कों ने ‘सजेस्ट’ किया था कि बड़े अख़बार इस तरह अपने काम में स्टूडेंट्स को ‘इनवाल्व’ कर सकते हैं...कुछ ने ये भी लिखा था कि वे लोग भी अमृतसर आकर स्टोरी को ‘फालोे’ करना चाहते हैं।
”अब ये इतने ई-मेल के जवाब कौन देगा।“ सायमा बोली।
”यार हम सब मिलकर देंगे...तू क्यों परेशान होती है।“
”लो पचास...पचास बाँट लेते हैं...अच्छा, ये भी अच्छा रहेगा कि शेर अली वाली स्टोरी में तुम लोगों के कोआपरेशन की बात भी सबको ‘डिटेल’ में बताई जाए।“ सायमा ने कहा।
”मैं लिखती हूँ।“ अल्का अपना लैपटाप खोलने लगी।
”अच्छा सुनो...मैं शेर अली पर एक गीत लिखना चाहता हूँ...“ सोनी चावला बोला।
”अरे लिख यार, लिख।“
”तू लिख दे तो मैं रिकाॅर्ड करा दूँगा।“ प्रदीप बोला।
”चल पक्का रहा।“ सोनी बोला।
”यार...एक प्राॅब्लम है।“
”क्या?“
”शेर अली की कोई फोटो नहीं हमारे पास।“
”हाँ...ये तो है...“
”क्या पुलिस रिकाॅर्ड में भी न होगी?“
”वहाँ तो होनी चाहिए।“ नवीन बोला।
”मैं लाने की कोशिश करूँ।“ प्रदीप ने कहा।
”हाँ-हाँ, ले ओ...मज़ा आ जाएगा...शेर अली की फोटो अपना ‘एम्बलम’ हो जाएगी।“ अल्का बोली।
”अच्छा तो तय करो कि आगे क्या होना है?“ जसवीर बोली।
”हाँ...सो तो करना पड़ेगा।“
”देखो, शेर अली...की ‘नेचुरल डेथ’ नहीं हुई है।“
”उसे गोली मारी गई है।“
”तो यही बात निकलती है।“
”शेर अली का पोस्टमार्टम कराया जाए।“
”यस-यस-यस“ सभी चिल्लाए।
”कौन यह माँग करेगा?“ नवजोत ने पूछा।
”हम।“ सबने एक साथ कहा।
”अरे, हम कौन?“
”हम मतलब...हिन्दुस्तान, पाकिस्तान के स्टूडेंट्स...।“
”वाह बेटा वाह...तुम्हारी कौन सुनेगा?“
”क्यों नहीं सुनेगा...हमारी स्टोरी कितने अख़बारों ने छापी है।“
”ठीक है...तो लिखो एक और ख़बर...“
”कौन-सी?“
”शेर अली...प्रेमी था...वह यहाँ अपनी प्रेमिका अमृत कौर को देखने आया था।“
”यस...यस...।“
”यार, मैं शेर अली पर गीत लिखूँगा।“
”अबे लिख देना...क्यों डराता रहता है।“
”चलो सायमा...ख़बर बनाओ।“
”लेकिन यार...ये हम लोग जो हैं न...हमारे पास कोई झंडा और डंडा होना चाहिए।“
”तो ले लो...।“
”नो...नो...नो...ये क्या पागलपन है। ये पाॅलीटिक्स है, यार।“
”छोड़ यार पालीटिक्स...रावी लेले।“
”रावी विरसा है।“
”हाँ, रावी विरसा।“ सब बोले।
(जारी)

© असग़र वजाहत 

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