Wednesday 19 January 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - दो (11)


                (चित्र: पशुपति मुहर)

तमिल ब्राह्मण आखिर गोरे कैसे हो गए? क्या वे ‘शुद्ध तमिल’ नहीं थे? 

पेरियार के समय तो डीएनए नहीं था। उस समय नस्लों का विभाजन रंग-रूप, खोपड़ी की बनावट के आधार पर होता था। अगर आप दिनकर की ‘संस्कृति के चार अध्याय’ पढ़ें, तो उसमें भारत का नस्लीय विभाजन कुछ इन्हीं आधारों पर है। भाषा-विज्ञान ने इन नस्लों को आर्य और द्रविड़ समूहों में बाँटने का कार्य कर दिया था। 

रंग-रूप या शारीरिक बनावट से तमिल ब्राह्मण शेष तमिल समाज से पूरी तरह भिन्न थे। ऐसा स्पष्ट सवर्ण-अवर्ण अंतर उत्तर भारत में नहीं है। जयललिता सरीखों का रंग गोरों में भी गोरा था। एक ही मौसम, एक ही मिट्टी में एक न्यून जनसंख्या का यूँ पूरी तरह भिन्न होना विसंगत था। जैसे अश्वेतों के घर में कोई गोरा बच्चा पैदा जाए, तो क्या उसे वह अपना मानेंगे? अपना होगा भी किस तर्क से?

पेरियार ब्राह्मणों को बाहरी तो कह रहे थे, लेकिन वह द्रविड़ों को उनसे शोषित कह रहे थे। इसका एक अर्थ यह निकलता था कि द्रविड़ उन ब्राह्मणों की अपेक्षा बौद्धिक स्तर पर निम्न कोटि के थे। फिर कोई द्रविड़ होने का गर्व कैसे करे? क्या कोई शोषित होने का, निम्न होने का, गर्व कर सकता है? 

उस समय एक अन्य समूह ने पूरा नैरेटिव बदल दिया। उनके अनुसार भारत में हिंदू धर्म के प्रणेता द्रविड़ ही थे। उनकी भाषा और लिपि संस्कृत से पहले आयी। उन्होंने ही शिव की आराधना प्रारंभ की। उनका शैव सिद्धान्त भारत का सबसे प्राचीन धर्म था, जो उत्तर भारतीय वैदिक काल से भी प्राचीन था। उनमें कोई वर्ण-व्यवस्था नहीं थी, और सभी द्रविड़ ग्राम-देवता, शिव और शक्ति की आराधना करते थे। उन्होंने ही मंत्र सिद्ध किए, और एक पूरी शैव व्यवस्था की रचना की। वे इन बाद में आए ब्राह्मणों से कहीं अधिक श्रेष्ठ थे, और आर्यों की वैदिक संस्कृति उनसे और उनके उत्तर भारतीय पूर्वजों से ज्ञान प्राप्त कर ही विकसित हुई।

आज अगर आप किसी जाति के तमिल से बात करें, वह ये नहीं मानेंगे कि संस्कृत तमिल से प्राचीन भाषा थी। न ही सभी ये मानेंगे कि आर्यों ने उन्हें दमित किया। उसके उलट वे यही कहेंगे कि तमिल संस्कृत से पहले से था, और तमिल ग्रंथ भी पहले रचे गए थे। उनमें निम्नता-बोध नहीं, श्रेष्ठता बोध होगा।

1902 में मद्रास विश्वविद्यालय के एक तीस वर्ष के तमिल शिक्षक सूर्यनारायण शास्त्री ने अपना नाम बदल लिया। उन्होंने संस्कृत के बजाय तमिल नाम चुना- परिधिमार कलइनार, जिसका अर्थ सूर्यनारायण शास्त्री ही था। किंतु उनके अनुसार तमिल संस्कृत से श्रेष्ठ और प्राचीन भाषा थी, इसलिए उन्होंने नाम बदला। उन्होंने ब्रिटिश सरकार में अर्जी दी कि लैटिन और ग्रीक की तरह तमिल को भी एक शास्त्रीय (क्लासिकल) भाषा का दर्जा मिले, जिससे तमाम द्रविड़ भाषाओं का जन्म हुआ।

हालाँकि वह अल्पायु चल बसे, लेकिन तमिलनाडु में ‘शुद्ध तमिल आंदोलन’ की नींव रख गए। चुन-चुन कर तमिल से संस्कृत शब्द निकाले जाने लगे। यह एक आश्चर्य ही है कि जहाँ उत्तर भारत में संस्कृतनिष्ठ भाषा शुद्ध कहलाती है, वहाँ वही भाषा अशुद्ध कहलाने लगी। तमिल ब्राह्मणों को तमिल में संस्कृत घुसेड़ कर अशुद्ध बनाने का उत्तरदायी कहा गया। यह तर्क उनके बाहरी होने में एक और बिंदु बन गया।

संगम साहित्य से लेकर तमाम तमिल ग्रंथ खंगाले जाने लगे। ढूँढ-ढूँढ कर दिखाया जाने लगा कि उनकी भाषा संस्कृत से पूर्णतया स्वतंत्र रही। उसी मध्य जब 1928-29 में सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में जॉन मार्शल के अनुसार पशुपति मुहर मिले, जिससे इस नैरेटिव को वजन मिला कि वहाँ शिव की आराधना होती थी। यह बात पहले से प्रमाणित थी कि शैव संप्रदाय कश्मीर के अतिरिक्त दक्षिण भारत में ही प्रखर था। 

इन दोनों तर्कों को जोड़ कर यह कहा गया कि सिंधु घाटी से पूर्व से ही शैव संप्रदाय मौजूद थे, और शिव से जुड़े कार्तिकेय (मुरुगन) या पार्वती (शक्ति) ही प्रमुख देव थे। विष्णु अपने इस नाम से कभी दक्षिण में थे ही नहीं, और वह रामानुजाचार्य द्वारा भक्ति आंदोलन और कम्बण के रामायण के बाद ही लाइमलाइट में आए। वह भी कन्नड़ और तेलुगु भाषी क्षेत्रों में अधिक आए, तमिल क्षेत्र मुख्यत: शिव या शक्ति आराधक ही रहा।

इन तमाम तर्कों से क्या हासिल हुआ? हासिल यह हुआ कि  सूर्यनारायण शास्त्री के नाम बदलने के सौ वर्ष के बाद 2004 में भारत की पहली शास्त्रीय भाषा तमिल बनी। उसके बाद ही बनी संस्कृत। भारत की छह शास्त्रीय भाषाओं में चार द्रविड़ भाषाएँ (तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़) हैं। अगर आप गूगल पर ‘ओल्डेस्ट लैंग्वेज’ डालें, तो तमिल का नाम उभरेगा। यह सब यूँ ही नहीं हो गया, कई शोधपत्र, कई साक्ष्य बने, लॉबिंग हुई, इतिहास लिखा गया।

सवाल यह नहीं है कि सत्य क्या है। सवाल यह है कि सत्य को हम गढ़ते किस तरह हैं। राजनैतिक केंद्र उत्तर भारत में होने के बावजूद तमिलों ने अपनी सांस्कृतिक सत्ता हासिल कर ली। 

जिस समय इस ‘शुद्ध तमिल आंदोलन’ का प्रहार संस्कृत पर हो रहा था, उस समय गांधी वहाँ हिंदी के बीज डाल रहे थे। जिन तमिलों ने संस्कृत को कहीं का नहीं छोड़ा, वे क्या इस खिचड़ी भाषा हिंदी के बीज में खाद-पानी डालते? 

संभवत: हर श्रेष्ठता में यह अंतर्निहित दोष है। जब तमिलों में श्रेष्ठता आयी, तो हिंदी ‘अछूत’ बन गयी।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास - दो (10)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/01/10_17.html 
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