Friday 14 January 2022

असग़र वजाहत का लघु उपन्यास - चहार दर (7)

घुप्प अंधेरे में रावी के ऊपर कोहरे की एक चादर तनी हुई है। पानी से उठने वाली भाप ने इस चादर को और घना कर दिया है। दोनों तरफ फैले खेत और ऊँचे-ऊँचे पेड़ काले और सुरमई रंग में सिमट गए हैं। इधर-उधर लगे वाच टावरों की रौशनियाँ अंधेरे को भेदने की नाकाम कोशिश करके अपने मूल स्थान को वापस चली जाती हैं। कहीं-कहीं सीमा रावी के बीच में आ गई है इसलिए तारों की ऊँची बाढ़ रावी के किनारे तक आ जाती है और फिर दूसरे किनारे पर ही नज़र आती है...पानी में बहता हुआ सूखी लड़कियों पत्तों और झाड़ झंखाड़ का रावी ढेर में उतराता है। ऐसा अक्सर होता है। सूखी लकड़ियाँ और कूड़ा करवट तट से बहता हुआ नदी के बीच में आ जाता है। और फिर पानी का बहाव और हवा की दिशा उसे किसी कोने में लगा देती है। सूखी लकड़ियों, पत्तों और टहनियों का एक समूह किनारे जाकर लगा। ऊपर से सर्चलाइट की रौशनियाँ रावी के तटों के बाद फैले खेतों पर पड़ रही हैं...कुछ घंटे खर-पतवार का ढेर पड़ा रहा और उसके बाद धीरे-धीरे आगे खिसकने लगा...उसे जल्दी ही एक नाला मिल गया और वह नाले में उतर गया...
 
कभी-कभी आधी रात को कुत्ते वैसे ही भौंकने लगते हैं। गुरजोत ने करवट ले ली और सोने की कोशिश करने लगा। गठिया का दर्द उसे लगातार सताता रहता है...। ये क्या? कोई दरवाजे़ पर है क्या? कुंडी खड़खड़ाई थी...वह कान आवाज़ की तरफ़ लगा देता है...। फिर आवाज़ आई...फिर आई...कोई है...कौन होगा आधी रात में? गुरजोत धीरे-धीरे उठा और आँगन पार करके दरवाजे़ तक गया...कुंडी फिर बजी... 
”भाई कौन हैं?“ गुरजोत ने पूछा।
”गुरजोत भाउ...दरवाज़ा खोल।“
ये आवाज़...दूर-दूर तक कानों में उतरती चली गई पर अजनबी-सी लगी। और फिर अपना नाम सुनकर हैरत में पड़ गया।
”कौन है भाई?“ गुरजोत ने लाइट जला दी।
”ओहो, दरवाज़ा ते खोल...“ फिर वही आवाज़। बिल्कुल अंजान तो नहीं है, पर है किसकी!
गुरजोत ने दरवाज़ा खोल दिया।
”पहचाना मैनूँ?“
”तुझे?...कौन है तू?“
”नई पहचाना...शेर अली...!“
”शेर अली...?“
”पहचान ले मुझे...नई पहचान सकता तो ये देख...“ उसने अपना दाहिना हाथ उसकी तरफ बढ़ा दिया। कलाई क ऊपर उर्दू में गुदा था शेर अली।
”याद है तुझे, पोंडा के मेले में मैंने और तूने अपना-अपना नाम गोदवाया था?“ वह बोला।
गुरजोत उससे लिपट गया।
”हाँ, तू शेर अली है...चल-चल अंदर आ...बैठ...।“
”रोट्टी खाएगा।“
”ज़रूर खाऊँगा...बहुत भूखा हूँ।“
तीन-चार रोटियाँ खाने के और लस्सी पीने के बाद शेर अली ने सिर उठाया।
”तू आया कैसे?“
”मैं...रावी पार करके आया हूँ।“
”रावी पार करके?“
”हाँ।“
”तू बीजा लेके क्यों नहीं आया?“
”पासपोर्ट कित्थे है मेरे कोल?“
”बनवा लेता।“
”मैं तो दस साल से कह रहा था...करीम बनवाता नहीं था...करीम मेरा लड़का है...अब बता पासपोर्ट न बने तो मैं यहाँ नहीं आ सकता।“ वह हँसने लगा।
गुरजोत ने उसे देखा। कितने साल बाद देख रहा है शेर अली को.... वही सन् 47 के बाद जो वो गया तो कोई पता ही नहीं चला...अब छप्पन साल हो गए...गुरजोत को याद है तब जाने से पहले शेर अली आया था।
”देख अब...मैं पचहत्तर पार कर गया हूँ...करीम ने सब संभाल लिया है। उसके भी बाल-बच्चे हैं...नारोवाल में ज़मीन है...दुकान कर ली है...अब...मैं न आता तो कभी न आ पाता...बार्डर पर देख लेते, गोली मार देते तो मार देते...मर जाता...वैसे उधर मर ही जाना था...“
”पर यहाँ तुझे पुलिस पकड़ लेगी...जेल में डाल देंगे।“
”देख, कुछ न होगा...मैं जिस तरह आया हूँ...वैसे ही लौट जाऊँगा...तू चिन्ता न कर।“ उसमें एक अजीब तरह का आत्मविश्वास और निडरपन था।.....
 
”ले जोत, मैं भी चल दिया पाकिस्तान।“ शेर अली ने बड़े दर्द से कहा था। उसने लाठी ज़मीन पर टेक दी थी और खेत की मेड़ पर बैठ गया था। पैरों में नई जूतियाँ चमक रही थीं।
”तो तू भी चल दिया...“
”अजी कौन-सा कोसों जाना है...रावी पार की...और देख उधर...रावी पार की और पाकिस्तान...“
”तो जल्दी क्या है चले जाना...दो चार दिन बाद चले जाना।“
”जोत, मैं तो जाता ही न...मैं तो रावी के इस पार ही भला हूँ...और फिर देख इस पार ‘वो’ भी तो है जिसे देखकर मैं जीता हूँ।“ वह आँख मारकर हँसा था। पर उसकी हँसी में रोने जैसा भाव था।
”तो क्यों जा रहा है?“
”बिरादरी का फैसला है...कहते हैं इन गाँवों के मुसलमानों पर भी हमले होंगे....दो ही चार दिन में होंगे...सरदार दलजीत सिंह भी कैंदे हैं कि गाँव के मुसलमान पाकिस्तान चले जाएँ तो अच्छा है, हम गाँव में खू़न-खराबा नहीं करना चांदे...“
”कौन-कौन जा रहा है...।“
”ये समझ ले सब ही...सब मुसलमान...कुल डेढ़ सौ बैलगाड़ियाँ हैं...।“
”तू ‘उसको’ मिल आया, क्या कह रही थी?“
”कहेगी क्या...देख मुझे ये दिया है।“ शेर अली ने हथेली सामने कर दी थी। चाकू का गहरा निशान...ताज़ा ज़ख्म...दिखाई पड़ रहा था।
”ये क्या है?“
”निशानी है।“ वह हँसा था।
”निशानी?“
”कह रही थी तू जहाँ भी रहेगा...जीवन भर मुझे याद करता रहेगा।“ वह फिर हँसा था...।
”मैंने भी उसे वादा किया कि मरने से पहले एक बार तुझे मिलने ज़रूर आऊँगा...।“ शेर अली बोला।.......
 
”क्या सोच में पड़ गया जोत?“ शेर अली ने पूछा और जोत अतीत से बाहर निकल आया।
”मुझे वह दिन याद आ रहा है जब तूने पिंड छोड़ा था।“ जोत बोला।
”हाँ, मुझे भी याद है।“
”तेरे पास निशानी है जो अमरता ने दी थी।“
”हाँ, वह कहाँ जाती...बहुत सोच-समझकर उसने निशानी दी थी।“ शेर अली ने सीधे हाथ को फैलाया और ज़ख़्म का निशान नज़र आने लगा।
”उसे याद करने का यही तरीका था जोत...।“
कुछ देर तक दोनों ख़ामोश रहे। रात जा रही थी और कभी भी पूरब की तरफ से उजाला फैल सकता था।
”पर तूने किया बड़ा ख़तरनाक काम।“
”क्या?“ शेर अली बोला।
” जो बिना पासपोर्ट, बीज़ा के चला आया?“
”हाँ।“
शेर अली हँसने लगा।
”देख जोत...मरने से पहले ये कसक तो न रहेगी कि एक वायदा पूरा नहीं कर पाया और अब क्या है...अब लौटते हुए मुझे गोली भी लग जाए तो दुख नहीं होगा।“
”देख तू जल्दी-से-जल्दी लौटने की...।“
”जोत मैं कल सुबह उसे देख के...रात में ही वापस हो जाऊँगा।“
”ठीक है।“
”जोत और बता गाँव के क्या हाल हैं?“
”देख, अब वो मौज मस्ती नहीं रह गई है...हम भी खेती करते थे शेरू पर, आजकल के मुण्डे तो खेतों की दुम ऐंठते हैं...।“
”दुम ऐंठते हैं...?“
”जैसे हम जानवरों की दुम ऐंठा करते थे कि जल्दी चलें...फुर्ती करें...वैसे आजकल खेतों में यूरिया भर देते हैं...तरह-तरह की खादें...तरह-तरह की दवाएँ.......पैदावार का ठिकाना नहीं है...पर वह मज़ा नहीं रहा...हमारे वाले गेहूँ का मज़ा आजकल के गेहूँ में है?“ जोत बोला और ख़ामोश हो गया।
”अपने साथ के लोगों में कौन-कौन है?“ शेर अली ने पूछा।
”दलजीत बचा है। मोहन है और गुरुचरन है।“ वह याद करके बोलने लगा।
”दलजीत वही जो हीर गाया करता था?“
”हाँ, वहीं।“
”अभी गाता है?“
”अब क्या गाएगा...दमे का मरीज़ है।“
”वाह! क्या गाता था जवान...क्या दर्द था उसकी आवाज़ में...मुझे आज तक याद है...जब वह गाता था...तो आँखों में आँसू आ जाते थे।“
शेर अली ने कहा।
”हाँ शेरू...तू ठीक कहता है।“
”ये बता तेरे कितने बच्चे, पोते-पोतियाँ हैं?“ शेरू ने जोत से पूछा।
”तीन लड़के हैं...सबसे छोटा यहीं है...बाकी दो अमृतसर में कपड़े की दुकान करते हैं...लड़की के तीन बच्चे हैं...कपूरथला में ससुराल है...तेरी भाभी अभी उठेगी तो देख लेना...उसके हाथ के पराठे खा लेगा तो मस्त हो जाएगा।“
”ओए, तब ही तो तू जवान जहान बना बैठा है।“ शेरू ने जोते के कंधे पर हाथ मारकर कहा।
”यार, अमरता के बारे में कुछ बता।“ शेर अली ने कहा।
”तकसीम के दो साल बाद उसकी शादी हो गई थी...ससुराल जालंधर में थी...आदमी उसका ज़्यादा जिया नहीं। दो लड़के हैं...एक तो यहीं है...दूसरा...दिल्ली में कोई नौकरी करता है...अमरता पति के गुज़र जाने के बाद ससुराल में रही नहीं...। यहाँ उसके बापू की जायदाद इम्लाक को देखने वाला भी तो कोई नहीं था...। अब अच्छा है...अच्छी खेती है, भैंसे पाली हैं...सब बल्ले-बल्ले।“ जोत ने उसे अमृत कौर के बारे में विस्तार से बताया।
”अच्छा...सुन, मैं सोचता हूँ कि तेरे बारे में गाँव के किसी को पता नहीं लगना चाहिए।“ जोत बोला।
”क्यों?“
”अरे...अच्छा है...नहीं तो दस तरह की बातें करेंगे...समझा तू...“
”हाँ, वो तो समझ गया...पर बात क्या है?“
”कल किसी ने पुलिस को ख़बर कर दी तो?“
”मैं तो आज रात ही निकल जाऊँगा न।“
”आज रात कैसे?“
”अभी अमरता के घर जाऊँगा...उसे देखकर वापस।“ शेर अली बोला।........
 
”...लेकिन शेर अली उस रात नहीं लौटा।“ सायमा गुरजोत की आँखों में देखती हुई बोली।
”हाँ, नहीं गया।“
”क्यों?“
”बताता हूँ...पहले तो हम दोनों पिंड में निकले। मेरे साथ एक अजनबी को देखकर सब पूछ रहे थे कि कौन है? मैं सबको बताता था कि ये होशियारपुर से आया है और मेरा रिश्तेदार है...हम लोग शेर अली के घर गए। तकसीम के बाद से वह घर और शेर अली का ज़मीन बलवंत सिंह के पास है। बलवंत सिंह घर पर नहीं था। उसका बेटा दलीप था। बलवंत का बड़ा बेटा जोधा सिंह पुलिस में है और उसकी ड्यूटी अमृतसर के सदर थाने में लगी हुई है...शेर अली अपना घर देखकर रोने लगा...मैंने बहुत कोशिश की कि यह पता न चले कि वह शेर अली है पर कुछ ऐसा हुआ कि पता चल गया।“
”कैसे?“
”बलवंत के पड़ोस में गुरुचरन का घर है...वह आ गया। गुरुचरन ने शेर अली को पहचान लिया...यह खुल गया कि शेर अली अपना घर और गाँव देखने पाकिस्तान से आया है।“
”उसके बाद?“
”उसके बाद शेर अली अमृता से मिलने गया। पर जल्दी ही लौट आया। वहाँ पता चला कि वह किसी काम से जालंधर गई हुई है और तीन-चार दिन में वापस आएगी।“
”यही वजह थी कि शेर अली का जाना टल गया।“
”हाँ जी...वह किसी भी कीमत पर बिना अमरता से मिले, वापस जाने पर तैयार नहीं था। यहाँ तक कहता था कि अगर मैं उसे अपने घर में रखने से डर रहा हूँ तो वह किसी पेड़ के नीचे या गुरुद्वारे में सो जाया करेगा, पर बिना अमरता को देखे वापस नहीं जाएगा।“
”फिर क्या हुआ?“ सायमा ने पूछा।
गुरजोत घबराकर इधर-उधर देखने लगा जैसे कोई उसकी बात सुन रहा हो। फिर वह धीरे-धीरे सामान्य हुआ। लेकिन फिर भी घबराहट उसके चेहरे से हटी नहीं।
”बताओ न?“ सायमा बोली।
”तू तो आई है...चली जाएगी...इत्थे पिंड बालों के साथ मुझे जीवन भर रहना है...मैं ऐसा नइ कर सकदा।“ वह बोला।
”साफ-साफ गल्ल कर...होया की सी?“ सायमा की आवाज़ भी कुछ कड़ी हो गई।
”देख, बात ये है कि ए गाँव की बात है...मैं गाँववालों को मुसीबत में नई डालना चांदा।“
”अब बता भी दे...मैं कौन-सा तेरा नाम लूँगी...जो बात तुझे पता है वो पूरे पिंड को पता है...पता नहीं किसने बताई होगी।“
”देख, दो ही चार दिन बाद पिंड में यह बात फैल गई कि पाकिस्तान से शेर अली आ गया है और अब यहीं रहेगा...कोई कहता था वह तो अपना घर और खेत माँग रहा है। कोई कहता था वह मुकद्दमा डालने जा रहा है...कोई कहता उसने तो पहले ही किसी वड्डे वकील से गल्ल कर ली है...फिर ये बात उड़ी के अब शेर अली के दोनों लड़के भी आ रहे हैं...उधर पाकिस्तान में शेर अली ने कोई बड़ा जुरम कर दिया है और अब वापस नहीं जा सकदा...ये भी बात उड़ी थी कि शेर अली ने बँटवारे टाइम जाते समय घर में पैसे गाड़े थे। वो लेने आया है।“
”ये अफवाहें कौन फैला रहा था?“ सायमा ने पूछा।
”किसी को पता नहीं था जी...बस, वैसे ही जितने मुँह थे उतनी ही बातें 
थीं...एक दिन बलवंत मेरे पास आया था। पूछता था कि बात क्या है? मैंने बताया था कि ऐसी कोई गल्ल नहीं है...शेर अली वापस चला जाएगा...वह बोला था, अरे कोई इतना ख़तरा उठाकर वापस जाने के लिए थोड़ी आता है? मैं क्या बोलता, वह चला गया था। पर जाते-जाते कह गया था कि किसी का बसा हुआ घर उजाड़ना ठीक नहीं है। मैं समझ नहीं पाया था...पर कुछ होगा उसकी बात में...बलवंत का बड़ा लड़का जोधा सिंह एक दिन रात में आया था...वह जब भी आता है उसकी मोटर साइकिल दी आवाज़ पूरे पिंड में सुनाई देती है...“ वह चुप हो गया।
”फिर?“
”मैं रोज़ रात में शेर अली से कहता था कि पिंड की फिजा ठीक नहीं है, वापस चला जा...वह यही कहता था कि अमरता से बिन मिले तो जाएगा नहीं...मैं कहता था तेरी जान को ख़तरा है...वह हँसता था और कहता था मार ही देंगे न? मर जाऊँगा...पर अमरता को देखे बिना नहीं मरना चाहता था...वह एक आध दिन में आ जाएगी...“

ये वही गली है जहाँ उसके पैर ज़मीन पर पड़ते ही नहीं थे। उसे लगता था कि हवा से उसका मुक़ाबला है और देखें अमरता के पास हवा जल्दी पहुँचती है या वह।
चारपाई पर बैठा सरदार जत्था सिंह कभी उसे रोट्टी खाता दिखाई देता था तो कभी हलवाहों को हिलायतें देता, कभी बीज और पानी के हिसाब में उलझा नज़र आता तो कभी दो-चार पिंडवालों से गप्पें हाँकता दिखाई पड़ता था।
शेर अली को देखते ही जत्था सिंह कहता था, ”आ गया मेरे शेरू...आज दो खत्ते...कटा लेगा? मज़दूर कम हैं।“
”अरे, सरदारां, तू कह तो मैं अकेला ही काट दूँ दो खत्ते...देख रहा है मेरे हाथ...ये लोहे के हैं।“
”हाँ-हाँ, जानता हूँ...गबरू जवान है...अबकी बैसाखी में ताल ठोक कूदेगा न अखाड़े में?“
इतनी देर में अमरता आ जाती थी और शेर अली को लगता था कि जिस्म में ख़ून के फव्वारे छूटने लगे हों।...

...शेर अली ने बड़ी मुश्किल से एक-एक कदम बढ़ाते गली पार की और जत्था सिंह सीने में समा नहीं रही। एक क्षण में कइ सात और हज़ारों तस्वीरें उसके सामने आईं और निकल गई। हँसी, चूड़ियों की खनखनाहट, चढ़ी हुईं त्योरियाँ, प्यार से मुस्कुराती आँखें, मुक्का ताने हाथ, आँखों की गहराई से झलकते रंग, सुगन्ध, झिड़कियाँ, शिकायतें, स्वाद, बादलों के टुकड़े, चुनरी के रंग, रंग-बिरंगी जूतियाँ, कजरारी आँखें...उसे लगा वापस लौट जाए...अब कुछ नहीं...मतलब क्यों...फिर क्या...लेकिन पैर पीछे जाने से इंकार करने लगे। अब न तो इधर न उधर...किसी ने इस तरह खड़े देख लिया तो जाने क्या समझे...
उसने एक कदम अंदर बढ़ाया। नीम के दो बड़े-बड़े पेड़ अब छितर गए हैं। बाएँ हाथ को कुएँ के ऊपर मोटर लगा हुआ है...उस वक़्त यहाँ बिजली कहाँ थी। सामने तीन दर की दालान और उससे मिला टीन का बाडा-दालान, पक्का नए फैशन का बन गया है।
सामने बड़े से तख़्त पर दूध के बर्तन रखे हैं। सात-आठ लोग इधर-उधर खड़ें हैं। दूध बेचा जा रहा है। सामने जो औरत बैठी है वही अमरता है। उसने आँखें फाड़कर पूरी तरह देखने की कोशिश की। उसे एक बूढ़ी, मोटी और झगड़ालू क़िस्म की औरत बैठी दिखाई दी। शेर अली ने और ध्यान से देखा...और ध्यान से देखा...तब उसे अमरता दिखाई दी। वही अमरता जिसे देखने वह आया है। बिल्कुल अमरता...अमरता...वह चुपचाप फाटक के पास खड़ा हो गया...
.....उसे अंदर से लस्सी और रोटी लेकर आती अमरता दिखाई पड़ी...आम चूसकर गूठली उसकी तरफ फेंकती अमरता दिखाई पड़ी...मुँह चिढ़ायी अमरता दिखाई पड़ी।.....

”कौन है? उधर क्यों खड़ा है।“ शेर अली के कानों में वही आवाज़ आई जिसे सुनने का उसे छप्पन साल से इंतिज़ार था।
वह चुपचाप खड़ा रहा।
”इधर आ...कौन है बई?“
वह चुपचाप खड़ा रहा।
”अरे, बहरा है क्या...इधर आ।“
दूध लेने देने वाले जा चुके थे। अमरता तख़्त पर अकेली बैठी थी। वह धीरे-धीरे चलता उसके पास चला गया।
”दूधवाली गाड़ी के साथ आया है?“ उसने नहीं में गर्दन हिला दी।
”फिर क्या दूध लेने आया है?“
उसने फिर नहीं में गर्दन हिला दी।
”फिर कौन है तू?“
वह चुप रहा। सोचने लगा क्या उसने कभी ये भी सोचा था कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब उसे अमरता को अपना नाम बताना पड़ेगा।
”ओए, बता न?“
”मुझे पहचाना नहीं।“ वह बोला। अमरता ने उसकी आवाज़ सुनी...और उसे ध्यान से देखने लगी...चेहरे बदल जाते हैं...आवाजें नहीं बदलतीं।
”तू कौन है?“ अमरता की आवाज़ काँप गई।
”मैं...मै...ये देख।“ उसने दाहिना हाथ सामने कर दिया। अमरता ने ध्यान से देखा।
”अब भी पूछेगी...मैं कौन हूँ?“ शेर अली बोला।
वह हैरत से उसे देखती रही।
”मै...मैं शेर अली हूँ।“
अमरता ऊपर से नीचे तक हिल गई।
”तू...तू...शेर अली?“
”हाँ...हाँ...अब भी नहीं पहचाना?“
”तू...तू...पर ऐसा...तू तो...“
”हाँ, मैं पाकिस्तान में रहता हूँ...पाकिस्तान में...पर...“
”तू यहाँ क्यों आया है?“ अमरता की आवाज़ में ठहराव और ताकत थी। लगता था वह भावनात्मक लटके से बाहर आ चुकी है।
”बरसों पहले तुझसे एक वायदा किया था। पूरा करने आया हूँ अमरता।“
उसने अटक-अटककर एक-एक लफ़्ज़ इस तरह बोला जैसे हर लफ़्ज़ पाताल से निकाल कर लाया हो।
”मैं...सपना तो...।“ अमरता की आवाज़ में पहले वाली सख़्ती और रूखापन नहीं था।
शेर अली सामने तख़्त पर बैठ गया। अमरता ने उसे ध्यान से देखा। दुबला-पतला चेहरा, हल्की दाढ़ी, धँसी हुई आँखें और गाल की उभरी हुई हड्डियाँ...वह अमरता की आँखों में नहीं देख रहा था। पता नहीं, कहाँ देख रहा था और न जाने उसे क्या-क्या दिखाई पड़ रहा होगा।
”तू खु़श तो रहा न?“ अमरता ने पूछा।
”घर परिवार सब राज़ी है, दो लड़के हैं...ज़मीन मकान है...सब है।“ वह धीरे-धीरे बोला। 
उसने अमरता के सवाल का जवाब नहीं दिया था और उसके वाक्य में जो कुछ छूट गया था उसे आसानी से भरा जा सकता था।
”बहुत साल हो गए...“ वह ठंडी साँस लेकर बोली।
”दारजी कब गुज़रे?“
”बस, समझ ले...तक़्सीम के बाद दस साल और जिए होंगे...उन्हें काले बुखार ने जकड़ लिया था।“ अमरता बोली।
”अमरता...तुझे...याद...“ वह बोली।
”देख...अब याद न दिला...और मेरी मान तो चला जा यहाँ से।“ अमरता बात काटकर बोली।
”मैं तो उसी दिन चला जाता जिस दिन आया था...पर तू यहाँ थी ही नहीं।“ वह बोला और दोनों खामोश हो गए।
”उधर कैसा है?“ अमरता ने पूछा।
”वैसा ही है जैसा इधर है...“ वह बोला।
”नी...दुलारिए...लस्सी दे जा...लस्सी।“ अमरता ने आवाज़ लगाई।
”तेरी कैसी कटी इधर?“ शेर अली ने पूछा।
”अच्छी कटी...मेरा आदमी...अच्छा आदमी था...पर जल्दी मर गया...“ वह बोली।
”कभी पिछले दिनों का सोचती थी?“
”सोचने से अपने को कोई रोक सकता है क्या? जब ध्यान आ जाता था तो सब याद आता था।“
”क्या-क्या याद आता था?“
दुलारी लस्सी ले आई।
”ले, लस्सी पी..रोट्टी खाएगा?“
”नइ...गुरजोत के संग खाऊँगा...वहीं ठहरा हूँ।“
”अपने घर गया? खेत देखे?“
”हाँ...सब देख लिया...आज रात चला जाऊँगा...“
”फिर नहीं आएगा?“
”पहले तो मैं जाना ही नहीं चांदा सी...चलो चला गय तो चाहता था...आता जाता रहूँ...इधर सब अपने ही बंदे थे...यार दोस्त...साथी संगी...पर न हो सका...“ शेर अली ने अमरता की आँखों में  ध्यान से देखा...
(जारी)

© असग़र वजाहत 

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