Thursday 6 January 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास (18)


               ( पेरियार और राजा जी )

जैसा पहले लिखा है, पेरियार के अंदर कांग्रेस के प्रति घृणा पहले दिन से नहीं थी। जब ग़ैर-ब्राह्मणों का मुद्दा लेकर बनी जस्टिस-पार्टी सरकार में थी, उस समय भी पेरियार कांग्रेस से जुड़े रहे। खादी का प्रचार करते रहे। उनको कांग्रेस में लाने वाले केशव पिल्लई कांग्रेस छोड़ गए, लेकिन पेरियार बने रहे। 

उन्होंने डेढ़ साल तक सत्याग्रह में भाग लिया, जिसमें दो बार जेल गए। वह इकलौते प्रमुख सत्याग्रही थे, जिनको राजनैतिक नहीं, बल्कि एक आम कैदी की तरह रखा गया।

पेरियार को यह आशा थी कि कांग्रेस में गैर-ब्राह्मण धीरे-धीरे शामिल होंगे। राजाजी ने यह वचन दिया था कि वह इस विषय में प्रस्ताव लाएँगे, मगर नहीं लाए। 1922 में तिरुपुर में पेरियार ने ग़ैर-ब्राह्मणों के लिए इलेक्टॉरेट की माँग की, लेकिन उनको डाँट-डपट कर बिठा दिया गया। 

1924 में उनको खबर मिली कि चेरन्महादेवी में एक गुरुकुल है, जिसका चंदा कांग्रेस भी दे रही है। वहाँ ब्राह्मण बच्चों के भोजन और बैठने का अलग इंतजाम है। जब उन्होंने राजाजी से शिकायत की, तो उन्होंने कहा कि ब्राह्मण अभिभावक ऐसा चाहते हैं। जब गांधी आए तो पुन: पेरियार ने उनसे चर्चा की। गांधी ने हँस कर टाल दिया कि स्कूल प्रशासन को अभिभावकों की सुननी पड़ती है, क्योंकि वे भी शुल्क देते हैं।

पेरियार अड़ गए कि स्कूल चाहे कुछ भी भेद-भाव के नियम बनाए लेकिन एक राष्ट्रवादी संगठन का चंदा उसे नहीं मिल सकता। उन्होंने अपनी पत्रिका में इस स्कूल पर विस्तार से रपट लिखी। आखिर स्कूल में यह नियम बना कि ब्राह्मण बच्चे भी अन्य बच्चों के साथ ही भोजन करेंगे। गुस्से में राजाजी ने स्वयं गुरुकुल कमिटी से इस्तीफ़ा दे दिया। (वह तो खैर ऐसे ब्राह्मण थे जिन्होंने अपनी बेटी के विवाह से पहले महात्मा गांधी के बेटे देवदास गांधी का उपनयन संस्कार करवा दिया था।)

वह इस विषय पर भी हैरान थे कि कांग्रेस ने डेढ़ साल तक सत्याग्रह किया। सिर्फ़ एक बोर्ड हटाने की माँग थी। गांधी तक आ गए। लेकिन, ब्राह्मण नहीं माने। आखिर क्यों? बल्कि, पढ़े-लिखे ब्राह्मणों का तो यह दायित्व बनता है कि समाज में ऐसे पहल करें। वे स्वयं आगे बढ़ कर भेद-भाव के लिए आवाज़ क्यों नहीं उठाते? उनका निष्कर्ष यही था कि इतने ज्ञानी होकर भी ब्राह्मण यह इसलिए नहीं करते, क्योंकि वे सत्ता में हैं। अंग्रेज़ों के आने के बाद वे सूट-बूट में आ गए, कांग्रेस से जुड़ गए, लेकिन सत्ता उनकी ही है। 

नवंबर 1925 के कांचीपुरम अधिवेशन में सभी प्रमुख कांग्रेस नेता पहुँचे थे। राजागोपालाचारी तो थे ही, प्रसिद्ध तमिल कवि ति रु का अध्यक्षता करने थे। यह राजनैतिक अधिवेशन माथे पर चंदन-लेप लगाए, धोती पहने प्रबुद्ध ब्राह्मणों का जमावड़ा था। पेरियार, जो अभी-अभी वायकौम वीर कहलाए थे, वह उनके सामने कुछ नहीं थे। यह बात कुछ ही देर में सिद्ध हो गयी।

पेरियार ने जैसे ही अपने हाथ में काग़ज़ लेकर ग़ैर-ब्राह्मणों के अधिकार संबंध में बोलना शुरू किया, उनको चुप रहने कहा गया, और काग़ज़ हाथ से ले लिया गया। यही माँग कुछ वर्षों बाद अंग्रेज़ी पहनावे में और अपनी बुलंद अंग्रेज़ी
में बी आर अंबेडकर रखने वाले थे, तब उनसे कोई काग़ज़ नहीं छीन सका। बल्कि उन्हें लंदन आमंत्रित किया गया। लेकिन, पेरियार जैसे जमीनी नेता को चुप करा दिया गया। 

पेरियार थोड़ी देर चुप-चाप बैठे रहे, जैसे किसी ज्वालामुखी का गर्भ फटने से पहले उबल रहा हो। अचानक वह खड़े हुए और कहा, 

“अध्यक्ष महोदय! मैंने आज अपनी सभी आशाएँ खो दी हैं कि कांग्रेस पार्टी कभी अ-ब्राह्मणों के साथ न्याय कर पाएगी। मैं इसी वक्त इस कक्ष और इस दल से निकल रहा हूँ। मेरा अब से एक लक्ष्य है। इस राज्य से उस कांग्रेस का अंत करुँगा जो वर्णाश्रम और जातिभेद का पोषण करती है।”
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास (17)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/01/17.html
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