Monday 17 January 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - दो (10)

आखिर तमिलनाडु से धर्म खत्म क्यों नहीं हुआ? पेरियार, जिनका एकमात्र उद्देश्य ही यही था, वह इस उद्देश्य में सफल क्यों नहीं हुए? आगे बढ़ने से पहले इस प्रश्न की थोड़ी भूमिका कहने का प्रयास करता हूँ। 

जो भी तमिलनाडु गए हैं, या तमिलों से मिले हैं, वे उनकी संस्कृति को फौरी तौर पर देखते होंगे। वहाँ गजरा लगाए, कांजीवरम या अन्य पारंपरिक परिधान पहने स्त्रियाँ, और धोती-अंगवस्त्रम में पुरुष दिखेंगे। उनके सभी हिंदू संस्कार, विधि-व्यवहार सतह से आडंबरी नज़र आएँगे। कल्याणम (विवाह) तो अच्छा-ख़ासा विस्तृत होगा। मंदिरों में जाना, पारंपरिक कार्नाटिक संगीत की समझ रखना, और तमाम तमिल साहित्य पर गर्व करना उनकी पहचान है। 

लेकिन, आप चौंक उठेंगे जब कुछ ब्राह्मणों को छोड़ कर सभी तमिल, पेरियार को किसी भी उत्तर भारतीय नेता से ऊपर मानेंगे। चाहे वह वैष्णव ब्राह्मण मुख्यमंत्री जयललिता ही क्यों न हो, उनको उन पेरियार का माल्यार्पण करना ही होता, जो आधुनिक भारत में धर्म के सबसे प्रखर और मुँहफट आलोचक हुए। ऐसा आखिर कैसे हुआ?

हमें तमिल प्रदेश के सदियों के इतिहास को खंगालना होगा। पेरियार कोई पहले व्यक्ति नहीं थे, जो अछूतों के समर्थन में खड़े हुए थे। न ही गांधी या नरसी मेहता पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने ‘हरिजन’ शब्द की खोज की। मैं स्वयं गांधी के शब्दों को उद्धृत करता हूँ। 

जब गांधी पूना पैक्ट के कुछ महीनों बाद मद्रास पहुँचे, उनके पास दलित समाज के प्रतिनिधि आए और उनसे कहा, “आपने हमें हरिजन नाम तो दे दिया, लेकिन आपने क्या हमें पूछा कि यह नाम पसंद भी है या नहीं?”

गांधी ने कहा, “कई लोगों से पूछा। मुझे दलित समाज के मित्रों ने ही सुझाया। अंग्रेज़ हमें कुली कहते हैं, क्या हमें वह नाम पसंद है? हमें नहीं पसंद क्योंकि उससे निम्नता का बोध होता है। इसी तरह दलित शब्द भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी आपके साथ चिपक जाएगा। हमें एक ऐसा नाम रखना चाहिए जिससे श्रेष्ठता बोध हो। मैंने गुजराती कवि नरसी मेहता से यह शब्द लिया। आपके तमिल में कहते हैं- ‘तिक्कत्रवणक्कु देव्यामय तुनइ’ जिसका अर्थ आप मुझसे बेहतर जानते हैं। अर्थ है - जिन्हें हम अछूत कहते हैं, वह ईश्वर के व्यक्ति हैं। क्या यही हरिजन का अर्थ नहीं?”

हरिजन से मिलता-जुलता शब्द सबसे पहले रामानुजाचार्य ने तमिल में प्रयुक्त किया था- ‘तिरु कुल्लतार’।

उनसे भी पूर्व ब्राह्मण आडंबरों और अछूत-प्रथा पर शास्त्रों से प्रहार भी दक्षिण के ही एक व्यक्ति ने किया था, जिनका एक मुख्य पीठ कांचीपुरम में स्थित है। यह क़िस्सा तो तमिल ही क्या, हर भारतीय जानते हैं। 

नवयुवक शंकराचार्य जब उत्तर भारत में शास्त्रार्थों पर विजय पाकर बनारस में गंगा-स्नान कर रहे थे, तो उनके पास एक अछूत (चंडाल या डोम वर्णित) अपने कुत्तों के साथ आए। नंबूदिरी ब्राह्मण शंकर उनसे छिटकने लगे, तो उन्होंने कहा, 

“आपका शरीर जिन तत्वों से बना है, उसी से मेरा भी। यह आत्मा अद्वैत है। जो आप में है, वही आत्मा मुझमें भी है। फिर आप मुझे अछूत क्यों मानते हैं?”

उस समय शंकराचार्य ने उन चंडाल को गुरु रूप में स्वीकार लिया, और इस ज्ञान से उन्होंने संपूर्ण भारत में इस प्रथा के दोष को स्पष्ट कर दिया। यह विडंबना है कि केरल के नंबूदिरी ब्राह्मण गांधी से इन्हीं शंकराचार्य का हवाला दे रहे थे, और अछूतों को मंदिर में प्रवेश नहीं करने दे रहे थे।

जिस समय पेरियार धर्म और ब्राह्मणवाद पर प्रहार कर रहे थे, उसी समय एक और लहर चली थी। वह लहर भी ब्राह्मणवाद-विरोधी थी। वह भी तमिल और द्रविड़ अस्मिता की थी। वह भी आर्य-विरोधी थी। अंतर यह था कि वह आस्तिक आंदोलन था। 

यह धर्म का दक्षिण-स्पेशल आंदोलन है, जो एक बार नहीं, कई बार हुआ। कई कालखंडों में हुआ। कभी बसवेश्वर (बसवन्ना) ने लिंगायत समाज को जन्म दिया, तो कभी नारायण गुरु ने दलित एझवा शिव की स्थापना की। इन दोनों ने नास्तिकता नहीं, बल्कि शिव के सहारे रूढ़ आडंबरों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी। शायद शिव किसी जाति, किसी कुल, किसी भेद से मुक्त देवता के खाँचे में अधिक उपयुक्त हों। 

मद्रास में भी शिव का नाम लेकर शुरु हुआ ‘शुद्ध तमिल आंदोलन’ (तानी तमिल इयक्कम)। इसने पेरियार को भी कायम रखा, और धर्म को भी। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास - दो (9)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/01/9_17.html 
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