Tuesday 4 January 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास (15)


गांधी और पेरियार में क्या अंतर था? आखिर दोनों अछूतों को मुक्ति दिलाना चाहते थे। अरुंधति राय और कई अन्य लेखक ऐसे ही प्रश्न गांधी-अंबेडकर युग्म पर भी रखते हैं। अगर देखा जाए तो किसी भी वैज्ञानिक सोच या ‘दो जमा दो चार’ मानने वाले व्यक्ति को गांधी में दोष दिख सकता है। आखिर छह-आठ महीने से चल रहे इस महत्वपूर्ण सत्याग्रह में गांधी क्यों नहीं आए? क्या वह सवर्णों या ब्राह्मणवाद के एजेंट थे, जैसा उन पर आरोप लगता रहता है? 

मैं इन प्रश्नों के उत्तर के लिए एक बार पुन: 1924-25 के दौरान के उन सभी लेखों और चिट्ठियों से गुजरा, जो वायकौम सत्याग्रह के दौरान गांधी ने लिखे। उसके साथ ही उस कालखंड के पेरियार के लेख/भाषण भी बाँचे। एक अंतर जो अब अधिक स्पष्ट है, वह है संवाद और विवाद का। गांधी समाज में संवाद बढ़ाना, और विवाद घटाना चाहते थे। 

उनका मानना था कि अगर सत्याग्रह से, क्रांति से, या कानून से अछूतों को न्याय मिल भी गया, तो उसका कोई अर्थ न होगा जब तक सवर्णों का हृदय-परिवर्तन नहीं होता। यह सवर्ण हिंदुओं को स्वयं पहल करनी होगी और मन से मानना होगा कि अछूत उनके जैसे ही मनुष्य हैं। इसमें चाहे जितना भी वक्त लगे, यह कार्य हिंदुओं को ही करना है। 

यह बात अधिक स्पष्ट हुई जब गांधी ने केरल के ईसाईयों को इस सत्याग्रह में शामिल होने से मना कर दिया। जब अकाली दल के सिख वहाँ मुफ्त लंगर चलाने लगे, तो गांधी ने लिखा, “ये सिख लंगर बंद होने चाहिए। यह हिंदुओं का प्रश्न है। इसे हिंदू ही सुलझाएँगे।” 

इसे कुछ लोग लिखते हैं कि गांधी ने सत्याग्रह में रोड़े अटकाए, लेकिन ईसाई, मुसलमान और सिख का एक शिव-मंदिर मुद्दे में दखल देना संभवत: द्वंद्व घटाने की बजाय बढ़ा देता। 

दिसंबर महीने में गांधी के पास चिट्ठी पहुँची, “त्रावणकोर परिषद में 22-21 के मत से हमारा मुद्दा हार गया। हमें मंदिर के मार्ग पर प्रवेश नहीं मिल सकेगा। सत्याग्रहियों का मनोबल गिर रहा है।”

गांधी ने लिखा, “मुझे तो इसमें हमारी जीत दिख रही है। अगर बाइस सवर्ण अभिजात्य इसके विरोध में हैं, तो इक्कीस हमारे समर्थन में भी तो आ गए हैं। अगर पचास प्रतिशत सवर्ण अछूतों के समर्थन में आ जाएँ, तो हमारा समाज बदल रहा है। यह सदियों से चली आ रही परंपरा आप छह महीने के सत्याग्रह में नहीं सुलझा सकते। छह महीने में यह मुकाम पा लेना आपका मनोबल दिखाता है।”

आखिर, गांधी आए। 

मार्च 1925 में गांधी मद्रास पहुँचे। उन्होंने पुन: कहा कि अछूत का प्रश्न एक गंभीर धार्मिक प्रश्न है, जिसका हल धर्म से ही निकलेगा। हिंदुओं को ही यह बदलाव लाना होगा। इसमें एक नहीं, कई सत्याग्रह लगेंगे। विमर्श लगेंगे। शास्त्रार्थ लगेंगे।

जब गांधी एक नाव पर बैठ कर वायकौम पहुँचे, तो वहाँ पेरियार और अन्य नेता पहले से एक नाव पर प्रतीक्षा कर रहे थे। पेरियार के मन में गांधी के लिए श्रद्धा थी, और गांधी भी उनसे विमर्श कर ही आगे की योजना बना रहे थे।

पेरियार ने पूछा, “आप सबसे पहले किनसे मिलना चाहेंगे? अछूतों की मंडली से?”

गांधी ने कहा, “सबसे पहले मैं सवर्णों से मिलना चाहूँगा। किसी नम्बूदिरी से। मैं समझना चाहता हूँ कि उनकी समस्या क्या है। अगर वे मान जाएँ, तो हमारी समस्या हल हो गयी।”

पेरियार ने कहा, “जो सैकड़ों वर्षों से नहीं माने, अब मान जाएँगे? आप अपना समय व्यर्थ कर रहे हैं। आप यहाँ आ गए हैं, अब हमें यह अधिकार मिलना तय है।”

“रामास्वामी! बात एक मंदिर की नहीं है। बात है पूरे समाज की। मेरी इच्छा है कि यहाँ के नम्बूदिरी अन्य सभी पुरोहितों के लिए उदाहरण बनें। मैं यह भी समझना चाहता हूँ कि उनका तर्क क्या है।”

पेरियार इस बात पर गांधी से सहमत नहीं थे। बाद में पेरियार ने अपनी पत्रिका ‘कुडी आरसू’ में लिखा, “मदन मोहन मालवीय हो या कोई भी नेता। ये अछूतों पर आँसू बहाते हैं, मगर हैं तो ब्राह्मण ही। ये स्वयं अछूतों के साथ बैठ नहीं खाते।”

मगर गांधी ‘कोई भी नेता’ नहीं थे। एक वर्ष के सत्याग्रह के बाद पहली बार विपक्ष में बैठे पुरोहित से संवाद करने कोई सत्याग्रही जा रहा था।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

दक्षिण भारत का इतिहास (14)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/01/14.html 
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