Monday 10 January 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - दो (3)


                 (चित्र: मुथुलक्ष्मी रेड्डी)

भारत में आरक्षण न अम्बेडकर ने लाया, न पेरियार ने। यह उनसे पहले ही आ चुका था। मैं पहले जिक्र कर चुका हूँ कि मद्रास में ब्राह्मणवाद के विरोध में जस्टिस पार्टी बनी थी, और उन्होंने सरकार बना ली थी। उस समय पेरियार उनके विरोधी दल कांग्रेस में थे, और खद्दर का प्रचार कर रहे थे। जस्टिस पार्टी ने ही आरक्षण विधेयक पारित किया। उसमें पेरियार की कोई भूमिका नहीं थी। तो फिर पेरियार की भूमिका क्या थी?

पेरियार की भूमिका थी उसे लागू करने में। छह साल तक यह विधेयक लागू ही नहीं हुआ था, क्योंकि जस्टिस पार्टी बिखर रही थी। पेरियार जब गुस्से में कांग्रेस छोड़ कर आए, तो अत्यंत आक्रामक हो गए। पहले भी थे, लेकिन अब कुछ अधिक हो गए थे। वह एक झटके में समाज की पूरी संरचना ही सपाट कर देना चाहते थे।

न जाति होगी। न लिंग-भेद होगा। न छूआ-छूत होगा। न बाल-विवाह होगा। न मंदिरों में देवदासी होगी। न मनुस्मृति होगी। न देवी-देवता होंगे। न ब्राह्मणों द्वारा विवाह कराया जाएगा। न कोई धार्मिक संस्कार होगा। कुल मिला कर उनके अनुसार मद्रास का पूरा हिंदू समाज शून्य से नयी शुरुआत करेगा।

इस क्रांतिकारी तेवर से उनकी छवि अ-ब्राह्मण युवाओं में खूब लोकप्रिय हो रही थी। वह द्रविड़ों का स्वाभिमान जगा रहे थे। उनके अनुसार ये तमाम ब्राह्मणवादी प्रथाएँ ओर जातिवाद आर्यों ने थोपी थी, जिससे उनका कोई लेना-देना नहीं। वह देवी-देवताओं पर मुकदमों की पुस्तिकाएँ (विचित्र देवर्कल करतु- विचित्र देवों के कारनामे) छपवा कर बँटवा रहे थे। उसमें विष्णु, ब्रह्मा, शिव सभी से सवाल पूछे गए थे, और उनके व्यंग्यात्मक उत्तर गढ़े गए थे।

इस नयी ब्राह्मण-विरोधी लहर को देखते हुए जस्टिस पार्टी के सहयोग से मुख्यमंत्री सुब्बारायन ने अ-ब्राह्मणों के लिए सरकारी पदों और शिक्षण संस्थानों में 44 प्रतिशत आरक्षण लागू कर दिया। 

चेंगलपेट में पेरियार ने एक बड़ी भीड़ के सामने कहा,

“आज से मैं अपने उपनाम ‘नायकर’ का त्याग करता हूँ, और मैं चाहूँगा कि आप सभी अपने-अपने उपनामों का त्याग कर दें”

समस्या यह थी कि पेरियार की गति बहुत तेज थी, और आम जनता की गति उनसे कदम-ताल नहीं मिला पा रही थी। रसूखदार अ-ब्राह्मण न अपना उपनाम त्यागना चाहते थे, न धर्म। न ही सामाजिक संरचना में वे अपनी जगह खोना चाहते थे। आरक्षण के बाद ब्राह्मण-प्रभुत्व वाली समस्या सुलझ ही गयी थी, तो उनका अपना काम निकल गया था। 

मगर पेरियार सरपट दौड़े जा रहे थे। उन्होंने ‘स्वाभिमान विवाह’ कराना शुरू किया, जो बिना किसी पुरोहित के, बिना कुंडली मिलाए, बिना जाति-भेद के, और अशुभ राहु-काल में हो रहे थे। ऐसी लगभग आठ हज़ार शादियाँ उन्होंने करा डाली। 

1928 में उन्होंने एक पुस्तिका लिखी- ‘महिलाएँ गुलाम क्यों है?’ 

इस पुस्तिका को अगर आज की प्रगतिवादी भारतीय नारियाँ भी पढ़ लें, तो शायद न पचा पाएँ। उस समय तो खैर पश्चिमी समाज की स्त्रियाँ भी इतनी स्वतंत्र नहीं हुई थी, जितनी वह वकालत कर रहे थे। वह पतिव्रता स्त्री का ‘कंसेप्ट’ ही उखाड़ कर फेंक देना चाहते थे। स्त्रियाँ भी पेरियार की तरह आक्रामक हो रही थी। 

1930 में भारत की पहली महिला विधायक मुथुलक्ष्मी रेड्डी ने मद्रास विधानसभा में कहा, “सभापति महोदय! मैं सदन से अनुरोध करुँगी कि मंदिरों से देवदासी प्रथा खत्म की जाए।”

राष्ट्रवादी नेता सत्यमूर्ति ने कहा, “यह पीढ़ियों से चली आ रही संस्कृति है। हम इस तरह अपनी संस्कृति का नाश नहीं कर सकते”

मुथुलक्ष्मी स्वयं एक देवदासी की पुत्री थी और एक चिकित्सक थी। उन्होंने पलट कर जवाब दिया, “मैं माननीय विधायक से अनुरोध करुँगी कि वह अपनी पुत्री को नाच-गाना सिखाएँ और मंदिर में आजीवन देवदासी बना कर संस्कृति की रक्षा करें”

एक महिला का यह प्रत्युत्तर तमिल समाज में अकल्पनीय था। पेरियार के बढ़ते प्रभाव को रोकने का अब एक ही अचूक अस्त्र था। ऐसा अस्त्र जो लंबे समय के लिए पेरियार को हाशिए पर रखने वाला था। वह था- राष्ट्रवाद।

उस समय देश के दूसरे छोर पर गांधी नमक बनाने डांडी मार्च पर निकल रहे थे। स्वयं मुथुलक्ष्मी रेड्डी विधानसभा से इस्तीफ़ा देकर उनके आंदोलन में शामिल होने जा रही थी। धीरे-धीरे गांधी के पीछे पूरा मद्रास चल पड़ा। पेरियार कहीं पीछे छूट गए।
(क्रमश:)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास - दो (2)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/01/2_10.html 
#vss 

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