Saturday 29 January 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (1)


“26 जनवरी, 1950 को हम राजनैतिक समानता हासिल कर लेंगे, लेकिन हमें शीघ्र ही सामाजिक और आर्थिक समानता भी लानी होगी। अन्यथा जो लोग इस विषमता के शिकार हैं, वे एक दिन इस पूरी संरचना को हिला कर रख देंगे, जिसे हमने इतने परिश्रम से खड़ा किया है।”

- भीमराव अम्बेडकर, संविधान सभा में

भारत जब आज़ाद हुआ तो उत्तर भारत और अधिकांश राज्यों में आरक्षण की पूरी व्यवस्था नहीं थी। मद्रास में यह ढाई दशकों से थी। उत्तर भारत की संस्थानों पर जहाँ ब्राह्मणों और अन्य सवर्णों का प्रभुत्व कायम था, मद्रास में यह अनुपात बदलना शुरू हो चुका था। मेडिकल कॉलेजों में, विश्वविद्यालय में, नौकरियों में, हर जगह अ-ब्राह्मण जातियाँ जगह ले चुकी थी। 

एक उदाहरण के साथ इस प्रश्न का हल ढूँढते हैं कि भारतीय संविधान में पहली बार कलम कब चलायी गयी। संविधान में पहला संशोधन कब और क्यों किया गया?

आज़ादी से पहले मद्रास मेडिकल कॉलेज में दाखिले के लिए चौदह सीटें थी। उनमें 6 सीटें बहुसंख्यक अ-ब्राह्मणों, 2 पिछड़े हिंदुओं, 2 ब्राह्मणों, 2 हरिजन, 1 भारतीय ईसाई, 1 एंग्लो-इंडियन और 1 मुसलमान के लिए थी। 

इसी तरह इंजीनियरिंग कॉलेजों में 77 ब्राह्मण, 224 अब्राह्मण, 51 ईसाई, 26 मुसलमान और 26 हरिजन सीटें थी। 

ग़ौर करें कि इसमें ‘जनरल कैटगरी’ नहीं थी। यानी, एक तरह से ब्राह्मणों के लिए भी दस प्रतिशत से अधिक सीटें आरक्षित थी, जो उनकी पाँच प्रतिशत जनसंख्या के मुताबिक अधिक ही थी।

आज़ादी मिलने के बाद ब्रिटिश कानून खत्म हुआ और भारतीय संविधान बना। उस समय एक ब्राह्मण छात्रा चंपकम दोराइराजन ने एक मुकदमा किया कि एक ब्राह्मण होने के नाते उसका एडमिशन नहीं हो रहा। यह संविधान के आर्टिकल 29 (2) का स्पष्ट उल्लंघन था जो कहता है,

“राज्य द्वारा पोषित या राज्य-निधि से सहायता पाने वाली किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमें से किसी के आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा”

अप्रिल 1950 में याचिका दाखिल हुई, जुलाई में मद्रास उच्च न्यायालय ने उस छात्रा के पक्ष में निर्णय देकर इस जाति-आधारित आरक्षण को अवैधानिक कह दिया। अगले महीने सर्वोच्च न्यायालय तक बात पहुँची। उन्होंने भी निर्णय को सही ठहराया। मद्रास में तो इस फैसले ने आग लगा दी। 

पेरियार भड़क उठे। उन्होंने संविधान की निंदा करते हुए अम्बेडकर को ब्राह्मणों का एजेंट कह दिया। 14 अगस्त, 1950 को ‘समुदाय अधिकार दिवस’ (Community Rights Day) मना कर काले झंडे दिखाते हुए ‘संविधान निंदनीय है’ के नारे लगाए गए। अन्नादुरइ, जो अभी-अभी पेरियार के दूसरी शादी से नाराज होकर अलग हुए थे, वे भी काला झंडा लिए साथ आ गए। इस तरह आज़ाद भारत में द्रविड़ों का पहला आंदोलन शुरू हो गया।

पेरियार ने कहा, “मैं जानता हूँ ये उत्तर भारतीय हमारे लिए संविधान नहीं बदलेंगे। अब एक ही रास्ता है। हम अपना द्रविड़िस्तान बनाएँ, जहाँ इन उत्तर भारतीयों का काला कानून नहीं चलेगा।”

गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल का स्वास्थ्य उस समय ठीक नहीं था, और आज़ादी के मात्र तीन वर्ष बाद नेहरू विभाजक परिस्थितियों से घिर रहे थे। कम्युनिस्टों का भी विरोध जारी था, जिनकी जेल-बंदी पटेल ने ही शुरू कर दी थी। 1951 में देश का पहला चुनाव होने वाला था, तो नेहरू की चिंताएँ बढ़ गयी थी। 

उस समय यह निर्णय लिया गया कि संविधान में संशोधन किए जाएँ। जून, 1951 में पहली बार संविधान पर कलम चली। आर्टिकल 15 (4) लाया गया, जिसके अनुसार

“राज्य सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग, एससी, एसटी, ओबीसी के लिए स्पेशल प्रोविजन बना सकते हैं। अगर वे कमज़ोर वर्ग के लिए कोई योजना बनाते हैं तो यह आर्टिकल 15 का उल्लंघन नहीं होगा। राज्य सीटों का रिजर्वेशन या फीस में छूट देने जैसे निर्णय ले सकते हैं।”

इस संशोधन से पेरियार की जीत तो हुई, लेकिन नेहरू ने कुछ बिंदु और जोड़े, जो उनके गले से नहीं उतरा। एक के अनुसार - 

‘अभिव्यक्ति की आजादी मान्य नहीं होगी अगर अभिव्यक्ति शत्रु देश के समर्थन में हो या अपने देश में हिंसा या अव्यवस्था फैलाए।’

जब श्यामाप्रसाद मुखर्जी और अन्य नेताओं ने इसे तानाशाही और मूलभूत अधिकारों पर चोट कहा, तो नेहरू ने भड़क कर कहा, 

“आप मुझसे जहाँ चाहें, वहाँ मैं लड़ने की चुनौती देता हूँ। चाहे बीच बाज़ार में, या देश में कहीं भी”

देश में कहीं भी। इस चुनौती की गूँज दक्षिण तक भी पहुँची। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

दक्षिण भारत का इतिहास - तीन (1)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/01/19_27.html 
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