Friday 14 January 2022

प्रवीण झा - दक्षिण भारत का इतिहास - दो (6)

            (चित्र: सोवियत में पेरियार)

आखिर ब्राह्मणवाद कैसे खत्म हो? क्या दुनिया में किसी ने यह हासिल किया था? 

पेरियार को ऐसे मॉडल की ज़रूरत थी, जिसके सिद्धांत ठोस हो, परीक्षण किए जा चुके हों, और जो गांधी के रास्ते पर न हो। एक ऐसे मॉडल की मार्केटिंग हो रही थी, जो घूम-फिर कर पेरियार तक पहुँची। यह मॉडल 1917 की बोल्शेविक क्रांति के बाद रूस से आयी थी।

1920 में ताशकंद में सात लोग मिले। एक मद्रासी ब्राह्मण- एमपीटी आचार्य। दो बंगाली- एम एन रॉय और अबनी मुखर्जी। दो मुसलमान- मुहम्मद अली और मुहम्मद शफ़ीक। दो विदेशी- एवलिन और रोजा। इसके साथ ही भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की शुरुआत हो रही थी। 

अगले ही वर्ष बंबई में श्रीपाद अमृत डांगे ने एक पत्रिका छापनी शुरू की- ‘सोशलिस्ट’। इसमें शृंखलाबद्ध लेख-माला लिखी- ‘गांधी और लेनिन’, जिसमें लेनिन को गांधी से बेहतर सिद्ध किया गया था। ढाका में नज़रुल इस्लाम ने ‘नवयुग’ नाम से समाजवादी पत्रिका निकालनी शुरू की। वहीं मद्रास में सिंगरवेलू ने ‘लेबर किसान गजट’ छापना शुरू किया। क्रांतिकारी जत्थे बन रहे थे। हिंदुस्तानी सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के भगत सिंह की फांसी ने इस तरह की क्रांतियों को राष्ट्र-पटल पर लाया। कुछ ने इसी आधार पर गांधी विरोध की भी चिनगारी जलायी। 

पेरियार कैसे बचते? मार्क्सवाद ने चुंबक की तरह उन्हें भी खींच लिया। अक्तूबर, 1931 में उनकी पत्रिका ‘कुडी आरसू’ ने तमिल में कम्युनिस्ट मैनिफ़ेस्टो छापना शुरू किया। मगर पेरियार तो ठोक-बजा कर जाँचने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने इस दिशा में आगे बढ़ने से पहले यह निर्णय लिया कि वह सोवियत जाकर खुद देखेंगे कि आखिर वहाँ चल क्या रहा है। 

दिसंबर, 1931 में पेरियार यूरोप के लिए निकल पड़े। रूस में क्रांतिकारी नास्तिकों का एक संगठन बना था, जिसने दुनिया से ईश्वर की सत्ता खत्म करने की ठानी थी। उनकी नज़र पहले से पेरियार पर थी, जो भारत में धर्मग्रंथों पर प्रहार कर रहे थे। वह भगत सिंह लिखित ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ का तमिल अनुवाद भी तैयार कर रहे थे। पेरियार को रूस लाकर उन्हें ‘गाइडेड टूर’ कराया गया। वही दिखाया गया, जो वे दिखाना चाहते थे। 

पेरियार सबसे पहले ‘रेड स्कवायर’ पर लेनिन की कब्र पर पहुँचे। फिर कुछ दिनों बाद अज़रबैजान के खदानों को देखने निकल गए। वहाँ के उद्योग देखे। उन्हें लगा कि यह तो वाकई सर्वहारा का स्वर्ग है, जहाँ कोई ज़मींदार नहीं। कोई जन्मना वर्ग नहीं। सब मिल कर देश की आर्थिक प्रगति में सहयोग कर रहे हैं। दो महीने तक पेरियार रूस घूमते रहे। अपने डायरी में उन्होंने लिखा है कि मॉस्को के मई दिवस को देख कर उन्हें मरियम्मन मंदिर की याद आयी। वहाँ उन्होंने दूर मंच पर फौजी लिबास में स्तालिन और कालिनिन को देखा, और सामने हज़ारों की अनुशासित भीड़। उन्हें लगा कि भारत को इसी व्यवस्था की ज़रूरत है।

मगर इस सर्वहारा के स्वर्ग के भी अपने रहस्य थे। जब पेरियार घूमते-घामते लेफोरटोवो जेल पहुँचे, तो स्तालिन के अत्याचारों की कुछ भनक मिली। लेकिन, जब पेरियार की ऐसी यात्राओं की भनक स्तालिन तक पहुँची, तो उन्हें शक हुआ कि ये लोग कहीं उनके विरोधी त्रोत्सकी के एजेंट तो नहीं। स्तालिन ने अपने अंदाज़ में पेरियार को रूस से वापस घर भिजवा दिया। 

गांधीवाद से यात्रा शुरू कर पेरियार गांधी के धुर-विरोधी हुए। अब मार्क्सवादी हो रहे थे। तमिलनाडु आते ही उन्होंने घोषणा की, “आज से हम सभी स्वाभिमान आंदोलनकारी कहलाएँगे- कॉमरेड”। यहाँ तक कि उन्होंने बच्चों के नाम ‘रशिया’ और ‘मॉस्को’ सुझाने शुरू किए, जिससे दक्षिण भारत में नयी प्रथा शुरू हुई। गाँव-गाँव में नंगे दौड़ते बच्चे लेनिन-स्तालिन नाम से पुकारे जाने लगे। इन पंक्तियों को लिखते समय उसी पद्धति की नामकरण के व्यक्ति तमिलनाडु के मुख्यमंत्री भी हैं। 

जिस समय पेरियार सोवियत से घूम कर लौटे थे, उस दौरान गांधी और अम्बेडकर इंग्लैंड के गोलमेज़ सम्मेलन से लौटे थे। तीनों की दिशाएँ भिन्न थी, लेकिन देश को तो एक दिशा चुननी थी।

21 सितंबर की शाम अम्बेडकर पूना के लिए निकल रहे थे तो पत्रकारों ने पूछा, “हमने सुना है कि गांधीजी ने आपसे और तमिल दलित नेता एम सी राजा से मिलने की गुज़ारिश की है”

अम्बेडकर ने कहा, “अगर उन्हें मिलना है तो सिर्फ़ मुझसे मिलें। हम दोनों के मध्य विवाद के मध्य कोई तीसरा नहीं है।”

दलितों के लिए संवैधानिक प्रतिनिधित्व की बिगुल बजा कर इसी मुद्दे पर कांग्रेस छोड़ने वाले पेरियार जैसे तमिल नेता अब ‘तीसरा’ बनते जा रहे थे। मार्क्सवाद डूबते को तिनके का सहारा (Political pragmatism) ही कहा जा सकता है। चेत्तियार और नादरों ने पेरियार के आंदोलन को धन देना बंद कर दिया था, तो उन्हें इस नवीन प्रयोग की उम्मीद थी। हालाँकि अपने अन्य प्रयोगों की तरह मार्क्सवाद को भी पेरियार अपनी खिड़की से बाहर ही फेंकने वाले थे। 

मगर उस बिंदु पर पहुँचने से पहले एक डायवर्जन लेकर अम्बेडकर के साथ पूना स्थित येरवडा जेल की यात्रा कर ली जाए। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

दक्षिण भारत का इतिहास - दो (5)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/01/5_12.html
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