Tuesday, 26 April 2016

Ghalib - Apanee rusawaai mein kyaa chalatee hai / अपनी रुसवाई में क्या चलती है - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह


ग़ालिब -7

अपनी रुसवाई में क्या चलती है सअई,
यार ही हंगामा आरा चाहिए !! 

सअई - पराक्रम, सामर्थ्य. 
आरा - प्रचार करने वाला, फैलाने वाला. संवारने वाला. 

Apnee rusawaai mein kyaa chaltee hai, sa'aii
Yaar hee hungaamaa aaraa chaahiye !! 
-Ghalib. 

मनुष्य की बदनामी उस के अपने कर्मों पर ही निर्भर नहीं है. उसे बदनाम करने के लिए, तो हंगामा पैदा कर सकने का सामर्थ्य लिए हुए किसी मित्र का होना आवश्यक है. ऐसे मित्र ही उसे बदनाम कर सकते हैं. 

ग़ालिब अपने जीवन काल में ही बहुत बदनाम हो गए थे. उनकी शराब खोरी की आदत ने उनके सामाजिक प्रतिष्ठा को बहुत नुकसान पहुंचाया. अपकीर्ति के लिए मित्र अधिक जिम्मेदार ग़ालिब को लगे. उनका मानना था कि मित्र मेरी सारी कमियों को जानते थे. और उन्ही के बार बार उन कमियों को प्रचारित करने के कारण, समाज में विपरीत धारणा बनी और बदनामी फ़ैली. मित्र की कही बातों पर लोग विश्वास भी शीघ्र कर लेते है. 

इस शेर से एक अंग्रेज़ी की सूक्ति याद आती है. जिसका हिंदी भावार्थ इस प्रकार है. " हे ईश्वर, मुझे मेरे मित्रों से बचाओ, अपने दुश्मनों से मैं खुद निपट लूंगा." 
-vss.


Monday, 25 April 2016

रियो ओलम्पिक में सद्भावना दूत के लिए सलमान खान का चयन - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

ओलम्पिक दुनिया का सबसे बड़ा खेल का आयोजन होता है । हर चार साल बाद इसका आयोजन होता है । आने वाला ओलम्पिक , रियो द जेनरो में आयोजित है । भारत उस खेल आयोजन में भाग लेता रहा है और कुछ आयोजनों में इसे सफलता भी मिलती रही है । पर जितनी सफलता मिलनी चाहिए , उतनी अभी तक नहीं मिल पायी है । इसके अनेक कारण हो सकते हैं, पर इस पर मैं अभी नहीं जा रहा हूँ । खेलों के लिए सद्भावना दूतों की भी नियुक्ति देशों से की जाती है । यह चयन देश का ओलम्पिक संघ करता है या सरकार या दोनों मिल कर तय करते हैं, इसकी स्पष्ट जानकारी मुझे नहीं है । रियो ओलम्पिक के लिए  ,सद्भावना दूत के रूप में सलमान खान का नाम तय किया गया है । सलमान का नाम किसने और क्यों तथा किन परिस्थितियों में तय किया है , यह मेरे लिए बता पाना मुश्किल होगा। पर आज के अखबारों से पता चला कि, सलमान को ही सद्भावना दूत बनाया गया है । और यह भी पता चला कि, ओलम्पिक संघ के इस फैसले पर विवाद भी हो गया है । विवाद स्वाभाविक भी है ।

सलमान खान का खेलों से क्या संबंध रहा है, यह तो सलमान जानें या खेल संघ या सरकार । पर जितना मुझे मालुम है, सलमान खान का खेलों से कोई भी सम्बन्ध नहीं रहा है । पर इस नामांकन के पीछे कोई छुपा कारण हो तो वह अलग बात है । अगर आयोजन फ़िल्म , कला आदि को ले कर होता तो, उनके नामांकन पर किसी को भी आपत्ति नहीं होती । पर खेलों के लिए हुए उनके नामांकन पर विवाद स्वाभाविक है। सलमान खान खुद भी विवादों से घिरे हैं । वे एक आपराधिक मुक़दमे में अभियुक्त हैं और उसकी सुनवाई चल रही है । एक में वे सत्र न्यायालय से सजा पा कर, पर उच्च न्यायालय से बरी हो कर , सर्वोच्च न्यायालय में अपील पर हैं । अज़ीब सोच के मुक़ाम पर हैं हम । चाहते हैं भय मुक्त और अपराध मुक्त समाज। पर जब कुछ करने का वक़्त आता है तो, दल का मुखिया हो या पुलिस का मुखिया दोनों ही हम उन्हें चुन लेते हैं, जो या तो कई मुक़दमों में अभियुक्त रहा हो, या जमानत पर रिहा हो। फिर हम उम्मीद भी करेंगे कि सब पाक साफ़ हो ।बिलकुल वैदिकी हिंसा , हिंसा न भवति की मानसिकता । सलमान एक अच्छे इंसान है, और कमाल के अभिनेता भी । पर खेल आयोजन के लिए अच्छा इंसान हो यह तो ठीक है, पर कमाल का अभिनेता भी हो, इसकी क्या ज़रूरत है ? यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है ।

खेल संघों पर राजनीतिक नेताओं का कब्ज़ा रहा है । मेरे गाँव के एक बुज़ुर्ग सज्जन अक्सर कहते हैं, कि " इनहन के खाली वोट आ नोट चाही । एकरे लालच में ई कुल मनिकनिका पर बैठ जइहें और ओइजों केहू के ना छोड़िहें ! "
बात यह मज़ाक में कही गयी है पर अक्सर मज़ाक भी कैप्सूल की तरह होते हैं । मिठास में लिपटी हुयी कड़वी चीज़ की तरह। सारे खेल संघों के पदाधिकारियों की प्रोफाइल चेक कर लीजिये , तो पाइएगा कि सभी पर कोई न कोई नेता विराजमान है या कोई बड़ा अफसर । विरोध नेता का नहीं और न ही अफसर का है । एक स्टेट या नेशनल स्तर का खिलाड़ी नेता भी हो सकता है और अफसर भी । सेना और पुलिस में तो ऐसे अफसर हैं भी । कुछ नेता भी होंगे । पर मैं उनकी बात कर रहा हूँ, जो सिर्फ राजनीति के कारण खेल संघों में जमे हुए हैं । ऐसे पदाधिकारी अक्सर,  खेल की गुणवत्ता के बजाय खेल के , और खेल के माध्यम से खुद के अर्थशास्त्र के सम्बन्ध में व्यस्त रहते हैं। बीसीसीआई के बारे में जो अदालती कार्यवाहियां इधर हुयी हैं और चल रही है, वह कालीन से छिपे गटर का स्पष्ट संकेत देती हैं । ऐसा नहीं है कि सरकार को पता नहीं है और प्रोफेशनल खिलाड़ी इसका विरोध नहीं करते हैं । सरकार को पता भी है, और खिलाड़ी विरोध करते करते , आजिज़ भी आ चुके हैं, पर लगाम लगाए कौन और कसे कौन । मछली की तरकारी और बिलार भंडारी, वाली कहावत है यह ।

आई ओ ए के इस फैसले का मिल्खा सिंह ने विरोध किया है । आई ओ ए का तर्क है इस से खेल लोकप्रिय होते हैं । यह बचकाना तर्क है । लोग अपनी रूचि से ही खेल देखते हैं । किसी को क्रिकेट पसंद है तो किसी को हॉकी या फुटबॉल या कोई अन्य खेल । हर खेल के अपने अपने स्टार होते हैं । उनका आकर्षण भी किसी भी फ़िल्म स्टार से कम नहीं होता है । बल्कि उनपर जब फिल्में बनती हैं तो, उसमे यही कलाकार अभिनय करते हैं । जैसे फरहान अख्तर ने मिल्खा सिंह का या प्रियंका चोपड़ा ने मेरीकॉम का अभिनय किया था । वह अभिनय था , मूल नहीं । आई ओ ए को किसी भी खेल में भारत में लोकप्रिय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के खिलाड़ी मिल जाएंगे जिन्हें आई ओ ए अपना सद्भावना दूत बना सकता है । पूर्व हॉकी कप्तान परगट सिंह ने इसके लिए सचिन तेंदुलकर या मिल्खा सिंह, का नाम सुझाया है । दोनों ही अंतराष्ट्रीय स्तर पर जाने पहचाने नाम हैं। सचिन तो क्रिकेट में विश्व के सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों में से एक है हीं । इनके अतिरिक्त अन्य खेलों से भी ऐसे सितारे छांटे जा सकते हैं । चूँकि उन्हें बड़ी कंपनियां विज्ञापन के लिए नहीं लेती, अतः वे थोड़े अल्प ज्ञात भी होते हैं ।

लोकप्रियता ही किसी सद्भावना दूत का पैमाना नहीं हो सकता है । फ़िल्म स्टार स्वाभाविक रूप से लोकप्रिय होते है। पर तभी तक जब तक वे पर्दे पर आते रहते हैं । आज जो क्रेज़ सलमान, आमिर, ऋतिक, अमिताभ का है , गुज़रे ज़माने में इस से कम क्रेज़ दिलीप, राज और देव की तिकड़ी का नहीं था । लेकिन वक़्त की धूल उन के चकाचौंध को भी धूमिल कर देती है। आज लोकप्रिय बनाने और लोकप्रियता बनाये रखने के लिए मीडिया का विस्तारित संसार है । लोकप्रिय होने के साथ विवाद रहित और उस आयोजन से ऐसा व्यक्तित्व जुड़ा हो, ऐसा होना भी ज़रूरी है । किसी साहत्यिक आयोजन में सचिन को नहीं भेजा जा सकता है, भले ही उनकी आत्म कथा बेस्ट सेलर रही हो, किसी फ़िल्म फेस्टिवल में हम मिल्खा सिंह को नहीं भेज सकते भले ही उनके जीवन और उपलब्धियों पर एक बेहतरीन फ़िल्म बनी हो, पूर्व सैनिकों या सैन्य आयोजनों पर सन्नी देवल को नहीं भेजा जाना चाहिए , भले ही फ़िल्म बॉर्डर में उन्होंने बेहतरीन अभिनय किया हो। सबका अपना अपना क्षेत्र है और सबकी अपनी अपनी उपलब्धियाँ है । सद्भावना दूत , उस आयोजन में देश की भावना का प्रतिनिधित्व करता है । ओलंपिक में गैर खिलाड़ी को दूत के रूप में भेजे जाने पर , खेल के प्रति देश की उपेक्षा भाव का सन्देश भी जाएगा । जो वास्तव में ऐसा नहीं है । खेल को खेल ही रहने दीजिये, उसे बाज़ार न बनाइये ।

( विजय शंकर सिंह )

Thursday, 21 April 2016

राज्यों में धारा 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

संविधान स्पष्ट कहता है कि, राष्ट्रपति मंत्रिमंडल की सलाह पर काम करेगा । वह अपने विवेक से कुछ नहीं करेगा । अगर वह सलाह से सहमत नहीं है तो, उस सलाह को , वापस मंत्रिमंडल को वापस कर देगा । पर यदि मंत्रिमंडल ने उसी सलाह को फिर से भेज दिया तो, राष्ट्रपति के पास कोई अन्य विकल्प नहीं है । यह संवैधानिक बाध्यता है और परम्परा भी ।

उत्तराखंड उच्च न्यायालय की एक टिपण्णी कि राष्ट्रपति भी गलती कर सकते हैं, से राष्ट्रपति के पद की गरिमा के हनन की ध्वनि आ रही है । अदालत ने यह भी कहा कि वह राजा नहीं है और न ही सर्व शक्तिमान हैं । यही बात जब राष्ट्रपति के अधिकार और कर्तव्यों पर , संविधान सभा में बहस हो रही थी, तो कही गयी थी , कि,भारत का राष्ट्रपति, ब्रिटेन का सम्राट नहीं है । सम्राट गलती नहीं कर सकते हैं , यह एक बेहद प्रसिद्ध उक्ति है । पर यह धारणा राष्ट्रपति के बारे में बनाये रखना उचित नहीं है ।  वह एक निर्वाचक मंडल द्वारा चुना गया वरिष्ठतम जन प्रतिनिधि है । उसका कृत्य भी न्यायिक समीक्षा के दायरे में आता है । अदालत की टिप्पणी , मूलतः राष्ट्रपति के ऊपर टिप्पणी नहीं , बल्कि राष्ट्रपति के द्वारा,  धारा 356 के अंतर्गत किये गए निर्णय के औचित्य पर टिप्पणी है । यह टिप्पणी, मंत्रिमंडल के उस निर्णय के ऊपर है , जो उसने धारा 356 के अंतर्गत उत्तराखंड राज्य के सन्दर्भ में लिया गया है । यह टिप्पणी सरकार के ऊपर है । सरकार कोई भी हो, किसी की भी हो उसके निर्णय राजनीतिक पहलुओं से प्रभावित भी हो सकते हैं । अतः ऐसे निर्णयों पर अदालत समीक्षा कर सकती है । यह निर्णय भी न्यायिक समीक्षा के लिए अदालत के समक्ष है अतः इस पर बहस होगी और जब बहस होगी तो कुछ न कुछ प्रिय अप्रिय कहा ही जाएगा । वैसे यह प्रकरण अब सवोच्च न्यायालय , में केंद्र सरकार द्वारा ले जाया जा रहा है, देखना है सबसे बड़ी अदालत का क्या रुख होता है ।

धारा 356, में केंद्र सरकार को यह अधिकार प्राप्त है कि, वह संवैधानिक तंत्र के विफल होने पर उस राज्य का शासन अपने आधीन ले ले । इसे ही राष्ट्रपति शासन कहते हैं । उस अवधि में राज्यपाल प्रशासनिक प्रमुख हो जाता है । उस की सहायता के लिए कुछ सलाहकार होते हैं। प्रकारान्तर से यह नौकरशाही का शासन होता है । इस धारा का बहुत दुरूपयोग भी हुआ है । सबसे पहला राज्य केरल था जहाँ देश की सबसे पहली बार चुनी गयी, कम्युनिस्ट सरकार बर्खास्त की गयी थी । इंदिरा गांधी के समय में भी, इस धारा का दुरूपयोग हुआ, और निर्वाचित सरकारें बर्खास्त हुयी हैं । 1992 में 6 दिसंबर को जब अयोध्या में विवादित ढांचा जब तोडा गया और देश में व्यापक दंगे हुए तब उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार तो बर्खास्त हुयी ही , राजस्थान, मध्य प्रदेश, और हिमाचल की भाजपा सरकारें भी बर्खास्त हुयी। यह कदम न्यायोचित नहीं था । क्यों कि संविधान की अवहेलना और सर्वोच्च न्यायालय को विवादित ढांचे पर यथास्थिति बनाये रखने का वचन भंग उत्तर प्रदेश सरकार ने किया था, न कि, अन्य सरकारों ने । जब इस धारा का प्रयोग राजनीतिक गुणा भाग से किया जाएगा तो, मीन मेख निकलेंगे ही। और राजनितिक पूर्वाग्रह का यह परिणाम हुआ कि, यह सारे मामले अदालत में जाने लगे । इसी लिए इधर कुछ समय से , इस धारा का प्रयोग कम हो गया था । 356 में सबसे अहम भूमिका राज्यपाल की होती है । राज्यपाल निष्पक्ष होता है और वह बिना दबाव के काम करता है, ऐसा माना जाता है, पर ऐसा होता नहीं है । अक्सर ऐसा पाया गया है कि, राज्यपालों ने संविधान के इरादों के ऊपर अपनी राजनैतिक प्रतिबद्धताओं को अधिक तरज़ीह दी है।

धारा 356 का सबसे पहली बार प्रयोग 31 जुलाई 1959 को, केरल की चुनी हुयी कम्युनिस्ट सरकार के विरुद्ध किया था । 1 नवम्बर 1956 को केरल राज्य का गठन, राज्य पुनर्गठन एक्ट के अंतर्गत , मालाबार, त्रावणकोर कोचीन, ज़िलों और कासरगोड तथा दक्षिण कनारा को मिला कर किया गया था । 1957 के प्रथम चुनाव में कम्युनिस्ट पार्टी के महान नेता ई एम एस नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में, पहली बात चुन कर वामपंथी सरकार अस्तित्व में आयी थी । नम्बूदरीपाद जो स्वयं एक बड़े और प्रतिष्ठित ज़मींदार परिवार से थे, ने जब अपनी पार्टी के घोषणा पत्र के अनुसार, भूमि सुधार, और शिक्षा में सुधार का एजेंडा लागू करने का प्रयास किया तो, उसके विरोध में, केरल कैथोलिक चर्च , नायर सोसायटी के लोगों और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग, ने कांग्रेस की सहायता से इसका विरोध करना शुरू कर दिया । पूरे प्रदेश में विरोध प्रदर्शन होने लगे और क़ानून व्यवस्था के प्रश्न पर नम्बूदरीपाद सरकार बर्खास्त कर के राष्ट्रपति शासन 31 जुलाई 1957 को लगा दिया गया ।

अगर आंकड़ों का अध्ययन करें तो, 27 जनवरी 2016 तक कुल 125 बार धारा 356 का प्रयोग किया गया है । राज्यवार विवरण इस प्रकार है । आंध्र प्रदेश में 3 बार, अरुणांचल में 2, आसाम में 4, बिहार में 8, दिल्ली में 1, गोआ में 5, गुजरात में 5, हरियाणा में 3, हिमाचल प्रदेश 2, जम्मू कश्मीर 6, झारखंड 3, कर्नाटक 6, केरल 4, मध्य प्रदेश, 4, महाराष्ट्र 2, मणिपुर 10, मेघालय 2, मिजोरम 3, नागालैंड 4, ओडिशा 6, पुड्डुचेरी 6, पंजाब 9, राजस्थान 4, सिक्किम 2, तमिल नाडु 5, त्रिपुरा 3, उत्तर प्रदेश 9,और पश्चिम बंगाल में 4 बार राष्ट्रपति शासन लगाया गया ।
सबसे कम अवधि का राष्ट्रपति शासन, कर्नाटक में 10 अक्टूबर से 17 अक्टूबर तक 7 दिन का, पश्चिम बंगाल में 1 जुलाई 62 से 8 जुलाई 62 तक 7 दिन के थे । इसी प्रकार सबसे लंबी अवधि का राष्ट्रपति शासन जम्मू कश्मीर में 19 जनवरी 90 से 9 अक्टूबर 96 तक 6 वर्ष 264 दिन का लगाया गया था । जिसे हम राष्ट्रपति शासन कहते हैं वही जम्मू कश्मीर में राज्यपाल का शासन कहलाता है । यह धारा 92 के अंतर्गत लगाई जाती है, ऐसा धारा 370 के अंतर्गत जम्मू कश्मीर को प्रदत्त प्राविधान के कारण है ।

धारा 356 के प्राविधान के प्रयोग पर बहुत ही बहस हो चुकी है और आगे भी होगी। अदालतों में भी इस प्राविधान के अंतर्गत लागू किये हुए आदेशों पर सुनवाई भी हुयी । जून 1983 में, सुप्रीम कोर्ट के अवकाशप्राप्त जज, जस्टिस रंजीत सिंह सरकारिया, की अध्यक्षता में, केंद्र राज्य सम्बन्ध और 356 के प्राविधान पर अध्ययन करने और इसका दुरूपयोग न हो सके, इस हेतु सुझाव और समाधान प्रस्तुत करने के लिए एक आयोग का गठन किया गया । आयोग ने पाया कि, 1950 से 1954 तक, 3 बार इस प्राविधान का प्रयोग किया गया । जब कि 1965 से 1969 तक कुल 9 और 1975 से 1979 तक 21 बार इस प्राविधान का उपयोग किया गया । 1975 में ही आपात काल भी लगा था । 1980 से 1987 तक कुल 18 बार इस प्राविधान के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन लगाया गया । सबसे अधिक दुरूपयोग 1975 से 1980 के बीच किया गया । राजीव गांधी के समय में इसके दुरूपयोग पर कुछ लगाम लगी । सरकारिया आयोग ने दुरूपयोग रोकने के लिए जो संस्तुतियाँ की थी वे कभी लागू भी नहीं हुयी।

जो भी दल विरोध में रहते हुए,  जिन विन्दुओं पर वह सत्तारूढ़ दल की आलोचना करते रहते है, जब वे सत्ता में आते  है तो वही वही कार्य करते है जिनकी वे आलोचना करते नहीं थकते थे । वर्तमान सरकार ने अरुणांचल और  उत्तराखंड में विद्रोही कांग्रेसी विधायकों के कारण अस्थिर कांग्रेस सरकारों को बर्खास्त किया । दोनों ही मामलों में सरकार को अदालतों की तल्ख़ टिप्पणी सुननी पडी । आज तो उत्तराखंड में लगा हुआ राष्ट्रपति शासन का अध्यादेश भी रद्द हो गया । इस से केंद्र सरकार की किरकिरी भी हुयी है । संविधान सर्वोच्च है । और अदालतें उनकी हिफाज़त करने के महती दायित्व से बंधी है । संसद चाहे तो संविधान बदल दे पर जो प्राविधान उसमे दिए गए हैं उनकी न्यायिक समीक्षा का पूरा अधिकार संविधान के ही अनुसार हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को है ।

( विजय शंकर सिंह )

Wednesday, 20 April 2016

कोहिनूर - एक अभिशप्त हीरा - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह




बाबरनामा, जिसका असली नाम तुजुक ए बाबरी है, में यह विवरण मिलता है कि हुमायूँ ने जब एक लकड़ी की छोटी पेटी मे मखमल से ढंके  हुए एक दुर्लभ और बेशकीमती पत्थर को जब बाबर के सामने पेश किया तो अचानक प्रकाश छा गया । प्रकाश बिखेरते हुए उस अद्भुत रत्न को देखते ही बाबर के मुंह से बेसाख्ता निकल पड़ा माशा अल्लाह , कोह ए नूर ! कोह का अर्थ पहाड़ और नूर का अर्थ प्रकाश । इस प्रकार दुनिया के सबसे मूल्यवान हीरे का नामकरण हुआ । यह घटना 1529 की है । यह हीरा आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले के गोलकुंडा के प्रसिद्ध खान का है । गोलकुंडा की खाने रत्नगर्भा है । दुनिया में हीरे के लिए सबसे प्रसिद्ध यह खान है ।
आज यही हीरा सम्राटों के ख़ज़ाने का दौरा करते करते, अनेक सम्राटों को अतीत में दफ़न करते हुए इंग्लैंड की महारानी या यूँ कह लीजिये कि ब्रिटेन की संपत्ति है । आज कल यह हीरा फिर चर्चा में है । भारत और पाकिस्तान दोनों ने ही, इसके स्वामित्व पर दावा किया है । भारत का कहना है कि वह हीरा पंजाब के राजा से अंग्रेजों ने लिया था अतः उसका हक़ बनता है और पाकिस्तान का कहना है पंजाब की राजधानी लाहौर थी, और लाहौर अब पाकिस्तान में है अतः उसका हक़ बनता है । दिल्ली और लाहौर दोनों स्थानों की अदालतों में मुक़दमा चल रहा है । अंग्रेज़ अभी चुप हैं । एक बार पाकिस्तान के ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो जब वहाँ के राष्ट्रपति थे ने तो, बिटिश प्रधान मंत्री से , कोहिनूर लौटाने के लिए कहा था । पर ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने यह अनुरोध विनम्रता से अस्वीकार कर दिया था । आगे क्या होता है , यह देखना दिलचस्प होगा । 



नाम इस का भले ही कोह ए नूर , प्रसिद्ध हुआ हो, पर इस हीरे का इतिहास बहुत प्राचीन है । एक मान्यता के अनुसार यह हीरा , समुद्र से निकली हुयी कौस्तुभ मणि है । एक अन्य मान्यता के अनुसार यह महाभारत कालीन स्यमन्तक मणि है, जिस से कृष्ण को झूठा ही लांछित होना पड़ा। स्यमन्तक मणि के कारण कृष्ण से बलराम रूठ गए थे और वे द्वारिका छोड़ कर काशी चले गए हे । कृष्ण ने जाम्बवन्त नामक रीछ से यह मणि ली और जामवंत की पुत्री जामवन्ती कृष्ण की पत्नी बनी । पर यह हीरा वही स्यमन्तक मणि है या नहीं इस पर प्रमाणिक रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है । ऐसी मान्यता है की यह हीरा अभिशप्त है और यह मान्यता अब से नहीं 13 वि शताब्दी से है। बाबरनामा के अनुसार 1294 के आस-पास यह हीरा ग्वालियर के किसी राजा के पास था हालांकि तब इसका नाम कोहिनूर नहीं था। पर इस हीरे को पहचान 1306 में मिली जब इसको पहनने वाले एक शख्स ने लिखा की जो भी इंसान इस हीरे को पहनेगा वो इस संसार पर राज करेगा पर इस के बाद  उसका दुर्भाग्य भी शुरू हो जाएगा। हालांकि तब इस बात को एक वहम कह कर खारिज कर दिया गया पर यदि हम तब से लेकर अब तक का इतिहास देखे तो कह सकते है की यह बात काफी हद तक सही है।



कई साम्राज्यों ने इस हीरे को अपने पास रखा लेकिन जिसने भी रखा वह कभी भी खुशहाल नहीं रह पाया।  14 वि शताब्दी की शुरुआत में यह हीरा काकतीय वंश के पास आया और इसी के साथ 1083 ई. से शासन कर रहे काकतीय वंश के बुरे दिन शुरू हो गए । फिर तुग़लक़ के पास आया और वह भी समाप्त हुए । बाबर ने हुमायूँ को ही यह उपहार लौटा दिया । 1529 में उसे यह हीरा मिला और 1530 में हुमायूँ पहले बीमार पड़ा, फिर बाबर ने , कहा जाता है उसकी बीमारी ली और वह भी बीमार पड़ा और मर गया । हुमायूँ , नाम से ज़रूरी भाग्यशाली था पर भाग्य ने उसका साथ नहीं दिया । अफगानों से संघर्ष में वह शेरशाह सूरी से पराजित हुआ ।
अकबर ने छिन्न भिन्न हुए मुग़ल साम्राज्य को संगठित किया और अपने उदारवादी सोच तथा सुदृढ़ सैन्य बल की सहायता से मुग़ल साम्राज्य को बढ़ाया और स्थिर किया । पर उसने कोहिनूर को नहीं छुआ । ऐसा उसने अभिषप्तता के कारण किया या कोई और बात थी, इस पर प्रमाणिक रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है । जहांगीर भी कोहिनूर से दूर ही रहा । शाहजहाँ ने उसे अपने सिंहासन में जड़वाया और उसके बाद ही उसकी दुर्गति शुरू हो गयी । उसके बेटों में आपस में युद्ध हुआ और अंतिम समय उसे बंदी जीवन बिताना पड़ा । औरंगज़ेब जिसे विरासत में इतना बड़ा साम्राज्य मिला था, वह भी , जीवन भर , अपनी सनक और धर्मान्धता के कारण कभी राजपूतों से तो कभी जाटों से , कभी सिखों से, और तो कभी मराठों से लड़ता रहा । जब वह मरा तो मुग़ल साम्राज्य दरकने लगा था ।



1739 में ईरान का शाह, नादिर शाह भारत आया और उसने मुगल सल्तनत पर आक्रमण कर दिया। इस तरह मुगल सल्तनत का पतन हो गया और दिल्ली की ज़बरदस्त लूट हुयी । दिल्ली में ज़बरदस्त नर संहार उसने किया और, वह अपने साथ तख्ते ताउस और कोहिनूर हीरों को ईरान  ले गया । आठ साल बाद ही, 1747 ई. में नादिरशाह की हत्या हो गयी और कोहिनूर हीरा अफ़गानिस्तान के शाह, अहमद शाह दुर्रानी के पास पहुंच गया। कोहिनूर  उसकी मौत के बाद उनके वंशज शाह शुजा दुर्रानी के पास पहुंचा। पर कुछ समय बाद ही उसी के भाई,   मो. शाह ने शाह शुजा को गद्दी से बेदखल कर दिया । 1813  ई.  में, अफ़गानिस्तान के अपदस्त शांहशाह शाह शूजा कोहीनूर हीरे के साथ भाग कर लाहौर पहुंचा। उसने  कोहिनूर हीरे को पंजाब के राजा रंजीत सिंह को दिया एवं इसके एवज में राजा रंजीत सिंह ने,  शाह शूजा को अफ़गानिस्तान का राज-सिंहासन वापस दिलवाया। इस प्रकार कोहिनूर हीरा वापस भारत आया।



लेकिन कहानी यही खत्म नहीं होती है । कोहिनूर हीरा आने  कुछ सालो बाद महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु हो जाती है और अंग्रेज सिख साम्राज्य को अपने अधीन कर लेते है। इसी के साथ यह हीरा ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा हो जाता है। कोहिनूर हीरे को ब्रिटेन ले जाकर महारानी विक्टोरिया को सौप दिया जाता है तथा उसके शापित होने की बात बताई जाती है। महारानी के बात समझ में आती है और वो हीरे को ताज में जड़वा के 1852 में स्वयं पहनती है तथा यह वसीयत करती है की इस ताज को सदैव महिला ही पहनेगी। यदि कोई पुरुष ब्रिटेन का राजा बनता है तो यह ताज उसकी जगह उसकी पत्नी पहनेगी। लेकिन इतिहास की धारा देखें तो 1911 के दिल्ली दरबार में सम्राट जॉर्ज पंचम जब आये थे तो महारानी द्वारा यह ताज धारण किया गया था । उसी के बाद दो दो विश्वयुद्ध होते हैं, और ब्रिटिश राज जिसका सूरज कभी डूबता नहीं था, अब दहलीज़ पर ही डूबने लगा । इतिहासकारों का मानना है की महिला के द्वारा धारण करने के बावजूद भी इसका असर ख़त्म नहीं हुआ और ब्रिटेन के साम्राज्य के अंत के लिए भी यही ज़िम्मेदार है। ब्रिटेन 1850 तक आधे विशव पर राज कर रहा था पर इसके बाद उसके अधीनस्थ देश एक एक करके स्वतंत्र हो गए।
कहा जाता है की खदान से निकला हीरा 793 कैरेट का था।  अलबत्ता 1852 से पहले तक यह 186 कैरेट का था। पर जब यह ब्रिटेन पहुंचा तो महरी को यह पसंद नहीं आया इसलिए इसकी दुबारा कटिंग करवाई गई जिसके बाद यह 105.6 कैरेट का रह गया।
कोहिनूर हीरा अपने पुरे इतिहास में अब तक एक बार भी नहीं बिका है यह या तो एक राजा द्वारा दूसरे राजा से जीता गया या फिर इनाम में दिया गया। इसलिए इसकी कीमत कभी नहीं लग पाई।  पर इसकी कीमत क्या हो सकती है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते है की आज से 60 साल पूर्व हांगकांग में एक ग्राफ पिंक हीरा 46 मिलियन डॉलर में  बिका था जो की मात्र 24.78 कैरेट का था।  इस हिसाब से कोहिनूर की वर्तमान कीमत कई बिलियन डॉलर होगी।




सरकार का यह कथन कि यह पंजाब के राजा द्वारा अंग्रेजों को उपहार स्वरुप दिया गया था, सही नहीं है । अँगरेज़ ताक़तवर ने और पंजाब केसरी रणजीत सिंह के बाद सिख साम्राज्य को कब्ज़ा कर लिया और उनके वारिस दलीप सिंह को वहाँ की गद्दी सौंप दी । दलीप सिंह, को इंग्लैंड ले जाया गया और उनकी परवरिश ब्रिटिश रीति रिवाज़ से हुयी । जब सिख राज्य अधीनस्थ हो ही गया तो , यह उपहार भी एक प्रकार से हथियाया हुआ हुआ, न कि बराबरी के आधार पर सदाशयता से दिया हुआ । यह भी एक प्रकार की लूट ही है । वैसे भी कोहिनूर लाना इतना आसान नहीं है । पहले तो भारत पाक में ही तय नहीं हो पायेगा, यह किसका है । फिर अंतरराष्ट्रीय क़ानून और परम्पराओं की बंदिशें भी सामने आएँगी। फिर भी उस नायाब हीरे के स्वामित्व का लाभ कौन छोड़ना  चाहेगा । 



 ( विजय शंकर सिंह )


Tuesday, 19 April 2016

पाकिस्तानी हिंदुओं को भारतीय नागरिकता - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

भारत सरकार ने पाकिस्तान के हिन्दू विस्थापितों के लिए नागरिकता की घोषणा की है । हर व्यक्ति और हर समाज को सम्मानपूर्वक जीवन जीने का अधिकार है । पाकिस्तान के हिन्दू अल्पसंख्यक भी इसके अपवाद नहीं है । पाकिस्तान का बंटवारा , हिन्दू और मुस्लिम दो राष्ट्र हैं के इस अज़ीब ओ गरीब सिद्धांत के आधार पर हुआ था । लेकिन जब पाकिस्तान बंटा तो पाकिस्तान की सरकार ने अल्पसंख्यक समुदायों जिसमें हिन्दू, सिख, ईसाई और बाद में अहमदिया आदि कुछ फिरके भी थे  को किसी भी प्रकार की राहत और सुरक्षा देना तो दूर की बात रही, इसके विपरीत, उन्होंने इन अल्पसंख्यकों का न केवल  उत्पीड़न किया, बल्कि ऐसा वातावरण बना दिया , जिस से इन अल्पसंख्यकों का जीना ही दूभर हो गया । 1947 में हुए व्यापक पलायन के बाद भी पाकिस्तान में अच्छी खासी जन संख्या हिंदुओं और सिखों की बच गयी थी । लेकिन आज उनका प्रतिशत बहुत ही गिर गया है । और इनका जीवन बेहद कष्टपूर्ण है । इसका सबसे बड़ा कारण वहाँ की सरकार है जिसने धर्म की मदान्धता में इनका जबरदस्त उत्पीड़न किया है और आज भी स्थिति बुरी है ।

जब पाकिस्तान का गठन हुआ था तो जिन्ना ने जो पाकिस्तान के प्रथम गवर्नर जनरल थे ने कहा था कि पाक के एक इस्लामी देश होने के बावज़ूद , यहां अल्पसंख्यकों को उनकी संस्कृति और परम्परा के अनुसार उपासना की स्वतंत्रता रहेगी। लेकिन यह भी एक जुमला था और सबसे खूबसूरत वादा खिलाफी भी । जनरल जिया उल हक़ के पूर्व तो स्थिति कुछ ठीक ठाक कही जा सकती थी , पर जिया के शासन में पाक का जो इस्लामीकरण या वहाबीकरण हुआ उस से यह देश हिंदुओं के लिए नरक सदृश्य हो गया है । ईश निंदा क़ानून, शरीयत के दकियानूसी कानूनों ने पाकिस्तान को मध्ययुगीन समाज की ओर प्रत्यावर्तित कर दिया । अभी हाल ही में जो हिन्दू यहां आये थे उनकी मर्मस्पर्शी कहानियां दिल को दहला देती हैं ।

जब देश बंटा था तो, साम्प्रदायिकता के ज़हर का जो उफान था उसे धारण करने के लिए शिव जैसी प्रतिभा की आवश्यकता थी, जो उस गरल का समाधान कर सके, पर देश अपने इतिहास के उस भयानक दौर में एक विराट और स्टेट्समैन सरीखे नेतृत्व से वंचित रहा। गांधी जैसे विराट और सर्वमान्य नेता भी उस कठिन समय में बौने नज़र आये। जैसे टूट जाता है कोई बाँध और बहा ले जाता है, रुका हुआ जल, और छोड़ जाता है पीछे सिर्फ महाविनाश , कुछ ऐसा ही था । संभवतः , ज़हर का डोज़ इतना बड़ा विनाश लाएगा , किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी। हम इसे खुद को सांत्वना देने के लिए अंग्रेज़ी मुहावरे टीथिंग ट्रबल जैसा वाक्य प्रयोग में ले आएं , पर यह सच में सन्निपात था । हम उबर गए, यह अलग बात है । अगर इसकी कुछ भी कल्पना नेताओं ने बंटवारे की चर्चा के पहले की होती तो शायद यह बच सकता था । पर  यही नियति थी । यही कह कर आगे बढ़ता हूँ ।

हर देश का दायित्व है कि वह अपने नागरिकों को सम्मान पूर्वक जीने के लिए न केवल वातावरण बनाये बल्कि उन्हें पूरा सरक्षण भी दे । पाकिस्तान सरकार अल्पसंख्यकों को तो छोड़िये खुद अपने ही धर्म के ही लोगों को, जिनके बेहतरी के लिये , उन्होंने एक नया देश बनाया था, को सम्मान पूर्वक रखने में असमर्थ दिख रही है । पाकिस्तान और बांग्लादेश से हिंदुओं का स्वाभाविक पलायन अगर होगा तो भारत में ही होगा । केवल इसलिए नहीं कि यहां हिन्दू बहुसंख्यक हैं बल्कि देश के सरकार और जनता की मनोवृत्ति भी सबको सम्मान से जीने देने की है । और हिंदुओं की इच्छा भी यही होगी कि वे इस देश के नागरिक बनें और यहीं वैधानिक रूप से रहें । जब देश का भूभाग बँटा था तो, जो भूभाग पाकिस्तान और अब बांग्लादेश के पास है में उसमें उन सिखों और हिंदुओं का भीं अधिकार था, जो बंटवारे के बाद अपना मूल देश छोड़ कर नहीं गए, और पाकिस्तान और अब बांग्लादेश  को ही अपनी मातृभूमि मान ली । वही रहे और वे वहां के नागरिक भी हैं ।  बंटवारे के मसौदे में ऐसा कोई प्राविधान नहीं था, जिस से उन हिंदुओं और सिखों को उस भूभाग में रहने से रोका गया हो । नया बंटा पाकिस्तान भी जितना मुस्लिमों का था उतना ही उन हिन्दू और सिखों का भी था जो वहीँ रह गए । आज जब दोनों देशों से सिर्फ हिन्दू और सिख होने के कारण उत्पीड़ित जन जब, भारत आ रहे हैं और नागरिकता ग्रहण कर रहे हैं तो इनकी जनसंख्या के अनुपात में पाकिस्तान और बांग्लादेश से उतनी भूमि भी ली जानी चाहिए ।

हालांकि यह आसान नहीं है । इस सम्बन्ध में अंतराष्ट्रीय क़ानून और परम्पराएँ क्या कहती हैं  इसे भी देखना होगा। भारत पाक के बीच जब भी वार्ता हो , धर्म के नाम पर् उत्पीड़ित जन समुदाय का मुद्दा भी उठाया जाना चाहिए । पाकिस्तान के साथ सुदृढ़ सीमा होने के कारण यह समस्या पाकिस्तान की ओर से उतनी नहीं है जितनी बांग्लादेश की ओर से है । बांग्लादेश की सीमा उतनी सुदृढ़ता से सुरक्षित नहीं है । 1971 में भारत का बांग्लादेश मामले में दखल का एक कारण यह भी था, कि बांग्ला सीमा से व्यापक पलायन हुआ था । नागरिकता , देना एक सदाशयता है, सराहनीय है, पर यह समस्या का समाधान नहीं है । यह उन देशों में उत्पीड़न को तो बढ़ाएगी ही और हिन्दू आबादी को भारत जाने के लिए उकसायेगी भी । यह एक और बड़ी समस्या होगी ।

( विजय शंकर सिंह )