Sunday, 31 August 2014

एक कविता ... तुम्हारा होना ऐसा होता है दोस्त ! / विजय शंकर सिंह



जैसे ,
अलसाई आँखों में रात जाते जाते
रख जाए कोई ख्वाब !

बादलों की थाप पर , बारिशों के ,
घुंघरुओं की झंकार !

उभर आये अनुभूति में ,
एहसासों से लबरेज़ कोई शब्द !

दीवार के पार से ,
शरीर बच्चों से झांकते हुए
कुछ टुकड़े धूप।

पेड़ की शाख पर ,
घोंसले बुनते हुए बया के जोड़े।

अरसे से बंद कमरे के दरीचे से ,
गुजरते हुए पवन के झोंके।

आँखों को छू लें रंग
तितिलियों के,

मिल जाए बचपन
किसी पुरानी अल्बम में।

सिमट आये दुनिया ,
मेरे आँगन में।

खो जाए पंछी कोई ,
उड़ते हुए पंख फैलाये ,
दूर गगन में।

भर जाए अंतराल
शब्द और मौन का !

तुम्हारा होना ,
ऐसा ही दोस्त है !
और ,
आकार लेने लगता है ,
प्रिज़्म से निकलते हुए
विविध रंगों की आभा से सजे
एक
सतरंगी संसार !!

(विजय शंकर सिंह )

Wednesday, 27 August 2014

What I Have Learned So Far By Mary Oliver


Meditation is old and honorable, so why should I
not sit, every morning of my life, on the hillside,
looking into the shining world? Because, properly
attended to, delight, as well as havoc, is suggestion.
Can one be passionate about the just, the
ideal, the sublime, and the holy, and yet commit
to no labor in its cause? I don't think so.

All summations have a beginning, all effect has a
story, all kindness begins with the sown seed.
Thought buds toward radiance. The gospel of
light is the crossroads of -- indolence, or action.

Be ignited, or be gone.
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Does the seeking of wisdom lead one into such an internalized state that one abandons the world to its confusion and suffering? Even when we awaken profound compassion within ourselves, is compassion enough without action to back it up? Ultimately the question boils down to, is enlightenment a good in and of itself, or does it only fulfill itself through service?

Different traditions and teachers give us different answers. Many teachers will say that trying to "do good" without first achieving some measure of inner clarity cannot achieve its full potential. Some even say that spiritual opening has a natural resonance; the enlightened are like radio transmitters, apparently doing little, apparently silent, they broadcasting powerful waves into the world. They argue that there can be action that is good intentioned, but meaningless or unstable. And there can be apparent inaction that shakes the universe.


Others say that spirituality and compassion without heartful action is anemic at best, that the physical and social world are themselves part of our spiritual landscape, that we must embody our spirituality on that level too. This criticism can go so far as to say that spirituality in a cave is easy, spirituality in the world is hard; that's where we truly prove our awakening love. They argue that action always exists, even the avoidance of action is action. One must always seek to express the inner state with outer action. And for the spiritually minded, that action must be in the form of compassionate service to a struggling world.

Tuesday, 26 August 2014

लव जिहाद शब्द सुर्ख़ियों में है. / विजय शंकर सिंह

लव जिहाद शब्द सुर्ख़ियों में है. एक राजनैतिक दल इसे चुनावी मुद्दा बना रहा है. दूसरा दल इसकी तुलना प्रेम और मुहब्बत से कर रहा है. न तो यह प्रेम है, और न ही राजनीति. जिस तरह से इलाहाबाद उच्च न्यायालय और केरल उच्च न्यायालय के कुछ फैसलों में इस पर आपत्ति की गयी कुछ को यह साम्प्रदायिक सद्भाव तोड़ने का षड्यंत्र भी लग सकता है. जाति व्यवस्था, और अस्पृश्यता हिन्दू धर्म की बुराइयां हैं. इन बुराइयों पर धर्म के भीतर भी आवाज़ खूब उठी है और समय के अनुसार यह बुराइयां कम भी हुयी है. लेकिन इनका समूल नाश नहीं हो पाया है. वैसे भी किसी बुराई का समूल नाश सम्भव भी नहीं है. हिन्दू धर्म की एक विडम्बना यह भी है कि यह एक नो एंट्री धर्म है. जो जन्मना हिन्दू है वही श्रेष्ठ हिन्दू है. जो परिवर्तित है उसे वह सम्मान नहीं है. धर्म, वर्ण और जाति की शुचिता का संस्कार इतना हावी है कि जहां अंतरजातीय विवाहों की कोई मान्यता नहीं है वहाँ अंतर्धार्मिक विवाहों की तो कल्पना भी कुछ सालों पहले तक मुश्किल थी.

जो कुछ पश्चिमी उत्तर प्रदेश, केरल या देश में अन्यत्र हो रहा है, वह दर असल न लव है न जिहाद. यह एक छिछोरापन, धोखा, और एक षड्यंत्र है. इसके खिलाफ कार्यवाही ज़रूर होनी चाहिए. हिन्दू लडकी और मुस्लिम लड़के या मुस्लिम लडकी और हिन्दू लड़के के बीच प्रेम सम्बन्ध असामान्य नहीं है. लेकिन उस प्रेम में जब धर्म बदलने की बाध्यता आती है तो प्रेम का कहीं पता ही नहीं चलता और धर्म और धर्मान्धता हावी हो जाती है. इन घटनाओं से जो ज़हर फ़ैल रहा है, वह किसी दिन व्यापक विस्फोट का रूप ले सकता है.

सरकार या पुलिस इस पर कैसे रोक लगाए, इसे भी समझने की आवश्यकता है. जब परिवार अपने घर के लड़के लडकी के पनप रहे प्रेम संबधों को नहीं जान पाते हैं या जान कर भी आँख मूंदे रहते है, तक बीस सिपाहियों के भरोसे चलने वाला थाना कैसे इन सबकी जानकारी रख सकता है ? कोई पुलिस कर्मी किस अधिकार से किसी माता पिता से उसके बच्चों के इस तरह की गतिविधियों के बारे में जान सकता है ? पुलिस तक खबर तब पहुँचती है जब या तो दोनों भाग चुके होते हैं या धर्म परिवर्तन का उद्देश्य पूरा हो जाता है. जब यह चीज़ें उजागर होने लगती है तो इसी में कूद पड़ते हैं राजनीतिक दल. जिनका मकसद सिर्फ इसे एक मुद्दा बना कर इस आक्रोश और परस्थिति का दोहन करना. फिर शुरू हो जाता है पीपली लाइव, 'तीर्थ यात्रा' हिंसा, लाठी चार्ज, आदि आदि.

लेकिन यह इस समस्या का समाधान नहीं है. यह समस्या का विकृतीकरण है. परिवार और समाज के साथ साथ लड़कों और लड़कियों को भी इस कुचक्र को समझाना होगा. प्रेम शब्द ही बहुत लुभाता है. वह एक ऐसे काल्पनिक लोक का सृजन करता है, जहां सब कुछ अकल्पनीय रूप से सुन्दर लगने लगता है. यह एक स्वप्न सरीखा वातावरण है. इस कहकशां से भरे लोक से इन किशोर वय के युवाओं विशेषकर लड़कियों को समझाना पड़ेगा. उनसे, उनके माता पिता को दोस्ती करनी पड़ेगी. उन्हें डांटना और प्रताड़ित करने की बात न कह कर उनके आँखों में धुंध भरे जो ख्वाब उमड़ घुमड़ रहे हैं, उनकी हकीकत समझानी होगी. संस्कृत में एक सूक्ति है, प्राप्तेतु तो षोडशे वर्षे, पुत्रम मित्रवत आचरेत. सोलह वर्ष की उम्र होने पर पुत्र को मित्र समझना चाहिए. मित्र ही मित्र की ग्रंथि खोल और बाँध सकता है.

धर्म परिवर्तन की बात पर यह कहूँगा कि जो भी धार्मिक व्यक्ति धर्म परिवर्तन करा रहे हैं वह उस लडकी या लड़के के माता पिता को ज़रूर खबर दें. जिस से यह स्पष्ट हो सके कि यह प्रेम है या धर्म परिवर्तन का षड्यंत्र.. ऐसे धर्म परिवर्तन का कोई मकसद नहीं है. यह विशुद्ध रूप से धर्म की मार्केटिंग है और यह ज़हालत है. पुलिस को भी ऐसे तत्वों की निगरानी रखनी होगी क्यों कि इस प्रकार की एक भी घटना इलाके का अमन चैन खराब कर सकती है. हर धर्म में ज़िम्मेदार और समझदार लोग होते हैं. ऐसे उलझे मामलों में वे सहायता भी करते हैं. राजनीतिक लोग ऐसे मामलों की ताक में गिद्ध की तरह रहते ही हैं. वर मरे या कन्या उन्हें दक्षिणा से काम ! यही मनोवृत्ति उनकी होती है.

देशद्रोही ताक़तें सिर्फ सीमा पर ही सक्रिय नहीं हैं. वह हर तरह से देश के सामाजिक, आर्थिक, और राजनैतिक ताने बाने को छिन्न भिन्न करने में लगी रहती है. देश जब खोखला होगा तो बाहरी हमला सफल होगा. लेकिन देश ने आज़ादी के बाद हर बाहरी हमले पर गज़ब की एकजुटता का परिचय दिया है. हो सकता हो, प्रेम में षड्यंत्र भी उसी का एक उपकरण हो. ऐसे मामलों को किसी धर्म से ही जोड़ कर देखना न तो देश के लिए उचित है और न ही समाज के लिए. इस से सामाजिक समरसता के बजाय, आपसी वैमनस्यता बढ़ेगी जो केवल उन्हे ही लाभ पहुंचाएगी जो देश का अहित चाहते हैं.
(विजय शंकर सिंह)

Friday, 22 August 2014

संस्कार और घट श्राद्ध के लेखक , यू आर अनंतमूर्ति ( 21 दिसंबर 1932 -- 22 अगस्त 2014 ) / विजय शंकर सिंह


उडुपी राजगोपालाचार्य अनंतमूर्ति , कन्नड़ के सुप्रसिद्ध लेखक थे। उन्होंने उपन्यास , कहानियां , लेख और कवितायें लिखी हैं कन्नड़ साहित्य में वे नव्या आंदोलन के अग्रदूतों में उनका स्थान था। कन्नड़ भाषा में ज्ञानपीठ पुरस्कार कुल आठ लेखकों को मिला है। वे छठे लेखक थे जिन्हे यह सम्मान मिला है। साहित्य का यह सर्वोच्च पुरस्कार दिया गया था।  1998 में उन्हें पद्म भूषण के सम्मान से  सम्मानित किया गया था। वह केरल में 1980 में  महात्मा गांधी विश्वविद्यालय के कुलपति भी रह चुके हैं।

अनंतमूर्ति का जन्म शिमोगा जिले के तीर्थहल्ली तालुका के मेलिगे गाँव में हुआ था। उन्होंने परम्परागत रूप से संस्कृत में अपनी शिक्षा ग्रहण की थी। प्राथमिक शिक्षा दूर्वासापुरा में और फिर तीर्थहल्ली और तदोपरांत मैसूर में हुयी थी। मैसूर विश्वविद्यालय से मास्टर ऑफ़ आर्ट्स की डिग्री लेने के बाद वे बाद की पढ़ाई के लिए इंग्लैंड चले गए। वहाँ वह राष्ट्रकुल देशों की एक छात्र वृत्ति पर गए थे। 1966 में उन्होंने बर्मिंघम विश्वविद्यालय से उन्होंने डॉक्टरेट किया। उनका शोध प्रबन्ध , 1930 में राजनीति और साहित्य रहा है।

उनका कर्रिएर 1970 में मैसूर विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के अध्यापक के रूप में शुरू हुआ। 1987 में वह महात्मा गांधी विश्वविद्यालय कोट्टायम, केरल के कुलपति बने। 1992 में वह नेशनल बुक ट्रस्ट के वह अध्यक्ष बने। 1993 में वह साहित्य अकादेमी के प्रमुख का पद सम्भाला। वह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली , एबरहार्ड केरिस विश्वविद्यालय टुबिंगेन , लोवा विश्वविद्यालय , तुफ़्त्स  विश्वविद्यालय और शिवजी विश्वविद्यालओं में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में भी काम किया। वह दो बार फिल्म और टेलीविज़न संस्थान के प्रमुख भी रह चुके हैं।

अनंतमूर्ति , देश और विदेशों में भी व्याख्यान के लिए जाते रहते थे। दुनिया भर में उनके साहित्य के प्रसंशक उन्हें आमंत्रित करते रहते थे। वह सोवियत रूस , हंगरी , फ्रांस ,और वेस्ट जर्मनी जाने वाले लेखकों के शिष्टमंडल के सदस्य के रूप में भी 1990 में जा चुके हैं। 1989 में वह एक सोवियत समाचार पत्र के सलाहकार के रूप में भी गए थे। 1993 में उन्होंने चीन की भी यात्रा की थी। 

उन्होंने मद्रास आकाशवाणी के लिए महत्वपूर्ण हस्तियों के साक्षात्कार भी लिए हैं। उनका यह कार्यक्रम आकासवाणी का बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम था। उन्होंने , महान रंगकर्मी के शिवराम कारंत , गोपाल कृष्ण अडिग , अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध लेखक  आर के नारायण , प्रख्यात कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण , और प्रथम भारतीय सेनाध्यक्ष , जनरल के एम करियप्पा के साक्षात्कार लिए थे।

अनंतमूर्ति की रचनाओं का अनुवाद हिंदी सहित कई भारतीय भाषाओं और विदेशी भाषाओं में हो चुका है। इनमें कई रचनाओं पर उन्हें पुरस्कृत भी किया जा चुका है। उनकी मुख्य रचनाएं , संस्कार , भाव भारथीपुत्र  और आवस्ति हैं। उन्होंने विपुल मात्रा में कहानियां भी लिखी हैं। उनकी अनेक रचनाओं पर कई फिल्मे भी बन चुकी हैं।

उनकी साहित्यिक रचनाओं में पात्रों का मनोवैज्ञानिक पक्ष बहुत ही गहनता से उभरा है। उन्होंने , काल ,स्थान और परिथितियों के साथ अद्भुत सामंजस्य बैठा कर अपने साहित्य लोक की सृष्टि की है। कर्नाटक के जाति व्यवस्था के दंश और ब्राह्मण वर्चस्व के विरुद्ध उनकी रचनाएँ बहुत कुछ कह जाती हैं। उन्होंने नौकरशाही के असंवेदनशील व्यवहार को भी अपनी कहानियों का प्लाट बनाया है। उनकी रचनाओं में समसामयिक राजनीति की रुझान स्पष्ट रूप से दिखती है। जिस से उनकी राजनीतिक सम्बद्धता का परिचय मिलता है।

उनके बहुत से उपन्यासों और कहानियों की कथा वस्तु , पात्रों पर पड़ने वाले सामाजिक राजनैतिक विसंगतियों के दबाव और परम्परागत हिन्दू समाज की विसंगतियां रही हैं। पिता और पुत्र , पति या पत्नी , पिता और पुत्री , या पुत्री और परिवार के सोच और विचारों में जो आपसी द्वंद्व उभरे हैं , उनका कारण पीढ़ीगत सोच का अंतर तो है ही और सामाजिक ताने बाने का जो असर पड़ता है , उसे भी उन्होंने बहुत ही कुशलता से उभारा है। लेकिन तमाम विचार वैभिन्य के बावजूद भी उभय में जो अनुराग है वह कहीं भी शिथिल नहीं हुआ है। यह उनकी विशेषता और विशिष्टता दोनों है। उनकी कहानी सूर्यना कुदुरे, मौनी ,कार्तिका आदि में यह द्वंद्व बेहद बारीकी से उभरा है। उन्होंने किसी व्यक्ति को पात्र न बना कर पूरे क्षेत्र और क्षेत्र को मुख्या कथावस्तु बना कर भी रचना की है। उनका लघु उपन्यास 'बारा ' सूखा जिसका अर्थ है , में सूखा , अनावृष्टि आदि को केंद्रित कर लिखा है। इस उपन्यास में नौकरशाही की असंवेदनशीलता को बहुत ही मार्मिक ढंग से वर्णित किया गया है। इस उपन्यासिका में अकाल और उस से उत्पन्न कठिनाइयों और उसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है उसे भी दर्शाया गया है।

सूर्यना कुदेरे, उनका एक उपन्यास है। इसका पात्र वेंकट अक्सर अपनी पत्नी और पुत्र से लांछित और धिक्कारित होता रहता है। क्यों कि वह किसी काम को गंभीरता  से नहीं लेता है। इस से उसे किसी भी काम में सफलता नहीं मिलती थी। वह स्वयं को अभागा समझने लगता है। वह खुद को घास पर रेंगने वाले कीड़े के सामान समझने लगता है। अंततः अवसाद ग्रस्त हो कर देवी माँ के शरण में आ जाता है। परिवार से उपेक्षित , खुद से आहत , वह पूर्णतः अकर्मण्य हो जाता है। उसका बेटा उस से विद्रोह कर घर छोड़ कर चला जाता है। वह देवी माँ से अपनी छोटी सी छोटी व्यथा भी बच्चों के सामान कहता है। वह अपना सामान्य बोध भी खो बैठता है। अपने पुत्र को घर छोड़ कर जाते हुए वह एक उपेक्षित घास पर रेंगने वाले कीड़े  समान जो सूर्य की रोशनी में निकल अाया है खड़ा देखता रहता है। इस उपन्यास में पुत्र का विद्रोह , गृह  त्याग और पिता का अवसाद , उसकी अकर्मण्यता जन्य  ग्रंथि आदि मनोभावों का विश्लेषण  अनंतमूर्ति ने बहुत कुशलता से किया है। संस्कार उनका एक और बहुत प्रसिद्ध उपन्यास है। 

अनंतमूर्ति को राजनीति में भी रूचि थी। वह लोक सभा का चुनाव भी लड़ चुके थे। जनता दल सेकुलर के नेता एच डी देवगौड़ा ,ने उन्हें लोक सभा का टिकट देने की पेशकश की थी। पर जब देवगौड़ा ने भाजपा का समर्थन ले लिया तब वे उनसे दूर चले गए। राजनीति में वह भाजपा की विचारधारा के विरोधी थे। 2006 में वह राज्य सभा के लिए भी चुनाव लड़े थे। बंगलौर से बंगलुरु नाम इन्ही के कहने पर तत्कालीन राज्य सरकार ने रखा है। इनका तर्क था कि बंगलौर नाम ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा रखा गया था. जो औपनिवेशिक दासता का प्रतीक था।

पुरस्कार
1984  राज्योत्सव पुरस्कार
1994  ज्ञानपीठ पुरस्कार
1995  मास्ति पुरस्कार
1998  पद्म भूषण
2008  कन्नड़ विश्वविद्यालय का नदोजा पुरस्कार 
2011  द हिन्दू अखबार द्वारा , उनकी पुस्तक भारतीपुरा पर पुरस्कार

कृतियाँ ,
कथा संग्रह ,
इंडेंढिघु मुगियादु कथे , मौनी , प्रश्ने , घट श्राद्ध , आकांक्षा मट्टू बेक्कु , एराडु दक्षकडा कॅटेगलु , ऐडु दाक्षिकड़ा कॅटेगलु।

उपन्यास
संस्कार , भारतीपुरा , अवस्थे , भावा , दिव्या ,

नाटक
आवाहने

कविता संग्रह ,
15 पद्यगलु , मिथुन , अज्ज्ना हेगला सुक्कुगलु ,

आलोचना और निबंध ,
प्रजने मथु परिसर , सनवेश , सनमक्षमा , पूर्वापरा , युगपल्लता , वल्मीकिया नेवदलली , मातु सोथा भारत , सद्य मत्तु शास्वता।

सम्पादन
ऋजुवाथु


( विजय शंकर सिंह )

Thursday, 21 August 2014

एक कविता , जब जब दर्द का बादल छाया, / विजय शंकर सिंह


जब जब दर्द का बादल छाया,
जब गम का साया लहराया ,
जब आंसूं पलकों तक आया ,
जब यह तनहा दिल घबराया ,
हम ने दिल को यह समझाया ,

दिल आखिर तू क्यों रोता है ,
दुनिया में यूँ ही होता है।

यह जो गहरे सन्नाटे हैं ,
वक़्त ने सब को ही बांटे है ,
थोड़ा गम है सब का किस्सा ,
थोड़ी धूप है सबका हिस्सा,
आँख तेरी बेकार ही नम है ,

हर पल एक नया मौसम है ,
क्यों तू ऐसे पल खोता है ,
दिल आखिर तू क्यों रोता है।

( विजय शंकर सिंह )



Wednesday, 20 August 2014

ओशो: एक प्रसंग , हजरत ईसा और मूसा के सम्बन्ध में


जब भी कोई सत्‍य के लिए प्‍यासा होता है, अनायास ही वह भारत में उत्‍सुक हो उठता है। अचानक पूरब की यात्रा पर निकल पड़ता है। और यह केवल आज की ही बात नहीं है। यह उतनी ही प्राचीन बात है, जितने पुराने प्रमाण और उल्‍लेख मौजूद हैं। आज से 2500 वर्ष पूर्व, सत्‍य की खोज में पाइथागोरस भारत आया था। ईसा मसीह भी भारत आए थे।

ईसामसीह के 13 से 30 वर्ष की उम्र के बीच का बाइबिल में कोई उल्‍लेख नहीं है। और यही उनकी लगभग पूरी जिंदगी थी, क्‍योंकि 33 वर्ष की उम्र में तो उन्‍हें सूली ही चढ़ा दिया गया था। तेरह से 30 तक 17 सालों का हिसाब बाइबिल से गायब है! इतने समय वे कहां रहे? आखिर बाइाबिल में उन सालों को क्‍यों नहीं रिकार्ड किया गया? उन्‍हें जानबूझ कर छोड़ा गया है, कि ईसायत मौलिक धर्म नहीं है, कि ईसा मसीह जो भी कह रहे हैं वे उसे भारत से लाए हैं।

यह बहुत ही विचारणीय बात है। वे एक यहूदी की तरह जन्‍मे, यहूदी की ही तरह जिए और यहूदी की ही तरह मरे। स्‍मरण रहे कि वे ईसाई नहीं थे, उन्‍होंने तो-ईसा और ईसाई, ये शब्‍द भी नहीं सुने थे। फिर क्‍यों यहूदी उनके इतने खिलाफ थे? यह सोचने जैसी बात है, आखिर क्‍यों ? न तो ईसाईयों के पास इस सवाल का ठीक-ठाक जवाबा है और न ही यहूदियों के पास। क्‍योंकि इस व्‍यक्ति ने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। ईसा उतने ही निर्दोष थे जितनी कि कल्‍पना की जा सकती है।

पर उनका अपराध बहुत सूक्ष्‍म था। पढ़े-लिखे यहूदियों और चतुर रबाईयों ने स्‍पष्‍ट देख लिया था कि वे पूरब से विचार ले रहे हैं, जो कि गैर यहूदी हैं। वे कुछ अजीबोगरीब और विजातीय बातें ले रहे हैं। और यदि इस दृष्टिकोण से देखो तो तुम्‍हें समझ आएगा कि क्‍यों वे बारा-बार कहते हैं- '' अतीत के पैगंबरों ने तुमसे कहा था कि यदि कोई तुम पर क्रोध करे, हिंसा करे तो आंख के बदले में आंख लेने और ईंट का जवाब पत्‍थर से देने को तैयार रहना। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं कि अगर कोई तुम्‍हें चोट पहुंचाता है, एक गाल पर चांटा मारता है तो उसे अपना दूसरा गाल भी दिखा देना।'' यह पूर्णत: गैर यहूदी बात है। उन्‍होंने ये बातें गौतम बुद्ध और महावीर की देशनाओं से सीखी थीं।
ईसा जब भारत आए थे-तब बौद्ध धर्म बहुत जीवंत था, यद्यपि बुद्ध की मृत्‍यु हो चुकी थी। गौतम बुद्ध के पांच सौ साल बाद जीसस यहां आए थे। पर बुद्ध ने इतना विराट आंदोलन, इतना बड़ा तूफान खड़ा किया था कि तब तक भी पूरा मुल्‍क उसमें डूबा हुआ था। बुद्ध की करुणा, क्षमा और प्रेम के उपदेशों को भारत पिए हुआ था।

जीसस कहते हैं कि '' अतीत के पैगंबरों द्वारा यह कहा गया था।'' कौन हैं ये पुराने पैगंबर?'' वे सभी प्राचीन यहूदी पैगंबर हैं: इजेकिएल, इलिजाह, मोसेस,- '' कि ईश्‍वर बहुत ही हिंसक है और वह कभी क्षमा नहीं करता है!? '' यहां तक कि प्राचीन यहूदी पैगंबरों ने ईश्‍वर के मुंह से ये शब्‍द भी कहलवा दिए हैं कि '' मैं कोई सज्‍जन पुरुष नहीं हूं, तुम्‍हारा चाचा नहीं हूं। मैं बहुत क्रोधी और ईर्ष्‍यालु हूं, और याद रहे जो भी मेरे साथ नहीं है, वे सब मेरे शत्रु हैं।'' पुराने टेस्‍टामेंट में ईश्‍वर के ये वचन हैं।

और ईसा मसीह कहते हैं, '' मैं तुमसे कहता हूं कि परमात्‍मा प्रेम है।'' यह ख्‍याल उन्‍हें कहां से आया कि परमात्‍मा प्रेम है? गौतम बुद्ध की शिक्षाओं के सिवाए दुनिया में कहीं भी परमात्‍मा को प्रेम कहने का कोई और उल्‍लेख नहीं है।

उन 17 वर्षों में जीसस इजिप्‍त, भारत, लद्दाख और तिब्‍बत की यात्रा करते रहे। यही उनका अपराध था कि वे यहूदी परंपरा में बिल्‍कुल अपरिचित और अजनबी विचारधाराएं ला रहे थे। न केवल अपरिचित बल्कि वे बातें यहूदी धारणाओं के एकदम से विपरीत थीं।

तुम्‍हें जानकर आश्‍चर्य होगा कि अंतत: उनकी मृत्‍यु भी भारत में हुई! और ईसाई रिकार्ड्स इस तथ्‍य को नजरअंदाज करते रहे हैं। यदि उनकी बात सच है कि जीसस पुनर्जीवित हुए थे तो फिर पुनर्जीवित होने के बाद उनका क्‍या हुआ? आजकल वे कहां हैं ? क्‍योंकि उनकी मृत्‍यु का तो कोई उल्‍लेख है ही नहीं !

सच्‍चाई यह है कि वे कभी पुनर्जीवित नहीं हुए। वास्‍तव में वे सूली पर कभी मरे ही नहीं थे। क्‍योंकि यहूदियों की सूली आदमी को मारने की सर्वाधिक बेहूदी तरकीब है। उसमें आदमी को मरने में करीब-करीब 48 घंटे लग जाते हैं। चूंकि हाथों में और पैरों में कीलें ठोंक दी जाती हैं तो बूंद-बूंद करके उनसे खून टपकता रहता है। यदि आदमी स्‍वस्‍थ है तो 60 घंटे से भी ज्‍यादा लोग जीवित रहे, ऐसे उल्‍लेख हैं। औसत 48 घंटे तो लग ही जाते हैं। और जीसस को तो सिर्फ छह घंटे बाद ही सूली से उतार दिया गया था। यहूदी सूली पर कोई भी छह घंटे में कभी नहीं मरा है, कोई मर ही नहीं सकता है।

यह एक मिलीभगत थी, जीसस के शिष्‍यों की पोंटियस पॉयलट के साथ। पोंटियस यहूदी नहीं था, वो रोमन वायसराय था। जूडिया उन दिनों रोमन साम्राज्‍य के अधीन था। निर्दोष जीसस की हत्‍या में रोमन वायसराय पोंटियस को कोई रुचि नहीं थी। पोंटियस के दस्‍तखत के बगैर यह हत्‍या नहीं हो सकती थी।पोंटियस को अपराध भाव अनुभव हो रहा था कि वह इस भद्दे और क्रूर नाटक में भाग ले रहा है। चूंकि पूरी यहूदी भीड़ पीछे पड़ी थी कि जीसस को सूली लगनी चाहिए। जीसस वहां एक मुद्दा बन चुका था। पोंटियस पॉयलट दुविधा में था। यदि वह जीसस को छोड़ देता है तो वह पूरी जूडिया को, जो कि यहूदी है, अपना दुश्‍मन बना लेता है। यह कूटनीतिक नहीं होगा। और यदि वह जीसस को सूली दे देता है तो उसे सारे देश का समर्थन तो मिल जाएगा, मगर उसके स्‍वयं के अंत:करण में एक घाव छूट जाएगा कि राजनैतिक परिस्थिति के कारण एक निरपराध व्‍यक्ति की हत्‍या की गई, जिसने कुछ भी गलत नहीं किया था।

तो पोंटियस ने जीसस के शिष्‍यों के साथ मिलकर यह व्‍यवस्‍था की कि शुक्रवार को जितनी संभव हो सके उतनी देर से सूली दी जाए। चूंकि सूर्यास्‍त होते ही शुक्रवार की शाम को यहूदी सब प्रकार का कामधाम बंद कर देते हैं, फिर शनिवार को कुछ भी काम नहीं होता, वह उनका पवित्र दिन है। यद्यपि सूली दी जानी थी शुक्रवार की सुबह, पर उसे स्‍थगित किया जाता रहा। ब्‍यूरोक्रेसी तो किसी भी कार्य में देर लगा सकती है। अत: जीसस को दोपहर के बाद सूली पर चढ़ाया गया और सूर्यास्‍त के पहले ही उन्‍हें जीवित उतार लिया गया। यद्यपि वे बेहोश थे, क्‍योंकि शरीर से रक्‍तस्राव हुआ था और कमजोरी आ गई थी। पवित्र दिन यानि शनिवार के बाद रविवार को यहूदी उन्‍हें पुन: सूली पर चढ़ाने वाले थे। जीसस के देह को जिस गुफा में रखा गया था, वहां का चौकीदार रोमन था न कि यहूदी। इसलिए यह संभव हो सका कि जीसस के शिष्‍यगण उन्‍हें बाहर आसानी से निकाल लाए और फिर जूडिया से बाहर ले गए।

जीसस ने भारत में आना क्‍यों पसंद किया? क्‍योंकि युवावास्‍था में भी वे वर्षों तक भारत में रह चुके थे। उन्‍होंने अध्‍यात्‍म और ब्रह्म का परम स्‍वाद इतनी निकटता से चखा था कि वहीं दोबारा लौटना चाहा। तो जैसे ही वह स्‍वस्‍थ हुए, भारत आए और फिर 112 साल की उम्र तक जिए।

कश्‍मीर में अभी भी उनकी कब्र है। उस पर जो लिखा है, वह हिब्रू भाषा में है। स्‍मरण रहे, भारत में कोई यहूदी नहीं रहते हैं। उस शिलालेख पर खुदा है, '' जोशुआ''- यह हिब्रू भाषा में ईसामसीह का नाम है। 'जीसस' 'जोशुआ' का ग्रीक रुपांतरण है। 'जोशुआ' यहां आए'- समय, तारीख वगैरह सब दी है। ' एक महान सदगुरू, जो स्‍वयं को भेड़ों का गड़रिया पुकारते थे, अपने शिष्‍यों के साथ शांतिपूर्वक 112 साल की दीर्घायु तक यहांरहे।' इसी वजह से वह स्‍थान 'भेड़ों के चरवाहे का गांव' कहलाने लगा। तुम वहां जा सकते हो, वह शहर अभी भी है-'पहलगाम', उसका काश्‍मीरी में वही अर्थ है-' गड़रिए का गांव।

जीसस यहां रहना चाहते थे ताकि और अधिक आत्मिक विकास कर सकें। एक छोटे से शिष्‍य समूह के साथ वे रहना चाहते थे ताकि वे सभी शांति में, मौन में डूबकर आध्‍यात्मिक प्रगति कर सकें। और उन्‍होंने मरना भी यहीं चाहा, क्‍योंकि यदि तुम जीने की कला जानते हो तो यहां (भारत में)जीवन एक सौंदर्य है और यदि तुम मरने की कला जानते हो तो यहां (भारत में) मरना भी अत्‍यंत अर्थपूर्ण है। केवल भारत में ही मृत्‍यु की कला खोजी गई है, ठीक वैसे ही जैसे जीने की कला खोजी गई है। वस्‍तुत: तो वे एक ही प्रक्रिया के दो अंग हैं।

यहूदियों के पैगंबर मूसा ने भी भारत में ही देह त्‍यागी थी!
इससे भी अधिक आश्‍चर्यजनक तथ्‍य यह है कि मूसा (मोजिज) ने भी भारत में ही आकर देह त्‍यागी थी! उनकी और जीसस की समाधियां एक ही स्‍थान में बनी हैं। शायद जीसस ने ही महान सदगुरू मूसा के बगल वाला स्‍थान स्‍वयं के लिए चुना होगा। पर मूसा ने क्‍यों कश्‍मीर में आकर मृत्‍यु में प्रवेश किया ?

मूसा ईश्‍वर के देश 'इजराइल' की खोज में यहूदियों को इजिप्‍त के बाहर ले गए थे। उन्‍हें 40 वर्ष लगे, जब इजराइल पहुंचकर उन्‍होंने घोषणा की कि, '' यही वह जमीन है, परमात्‍मा की जमीन, जिसका वादा किया गया था। और मैं अब वृद्ध हो गया हूं और अवकाश लेना चाहता हूं। हे नई पीढ़ी वालों, अब तुम सम्‍हालो!''

मूसा ने जब इजिप्‍त से यात्रा प्रारंभ की थी तब की पीढ़ी लगभग समाप्‍त हो चुकी थी। बूढ़े मरते गए, जवान बूढ़े हो गए और नए बच्‍चे पैदा होते रहे। जिस मूल समूह ने मूसा के साथ यात्रा की शुरुआत की थी, वह बचा ही नहीं था। मूसा करीब-करीब एक अजनबी की भांति अनुभव कर रहे थेा उन्‍होंने युवा लोगों शासन और व्‍यवस्‍था का कार्यभारा सौंपा और इजराइल से विदा हो लिए।

यह अजीब बात है कि यहूदी धर्मशास्‍त्रों में भी, उनकी मृत्‍यु के संबंध में , उनका क्‍या हुआ इस बारे में कोई उल्‍लेख नहीं है। हमारे यहां (कश्‍मीर में ) उनकी कब्र है। उस समाधि पर भी जो शिलालेख है, वह हिब्रू भाषा में ही है। और पिछले चार हजार सालों से एक यहूदी परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी उन दोनों समाधियों की देखभाल कर रहा है।
मूसा भारत क्‍यों आना चाहते थे ? केवल मृत्‍यु के लिए ? हां, कई रहस्‍यों में से एक रहस्‍य यह भी है कि यदि तुम्‍हारी मृत्‍यु एक बुद्धक्षेत्र में हो सके, जहां केवल मानवीय ही नहीं, वरन भगवत्‍ता की ऊर्जा तरंगें हों, तो तुम्‍हारी मृत्‍यु भी एक उत्‍सव और निर्वाण बन जाती है।

सदियों से सारी दुनिया के साधक इस धरती पर आते रहे हैं। यह देश दरिद्र है, उसके पास भेंट देने को कुछ भी नहीं, पर जो संवेदनशील हैं, उनके लिए इससे अधिक समृद्ध कौम इस पृथ्‍वी पर कहीं नहीं हैं। लेकिन वह समृद्धि आंतरिक है।
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ओशो (पुस्‍तक: मेरा स्‍वर्णिम भारत)