केंद्र सरकार ने 1860 के भारतीय दंड संहिता (आईपीसी), 1973 के आपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) और 1872 के भारतीय साक्ष्य अधिनियम (इंडियन एविडेंस एक्ट) को प्रतिस्थापित करके देश में आपराधिक कानूनों को बदलने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है। यह कदम, केवल कुछ धाराओं की संख्या के बदलाव तक ही सीमित रहेगा या क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम पर भी इसका कोई सार्थक परिणाम होगा, इस पर कानून के जानकारों ने चर्चा करनी शुरू कर दी है। फिलहाल नए कानूनों का ड्राफ्ट, संसद की स्थाई समिति के पास भेजा गया है, जो इनका अध्ययन कर के, अपनी रिपोर्ट देंगे। उनकी रिपोर्ट के बाद ही इन प्रस्तावित कानूनों की समीक्षा विस्तार से की जा सकती है।
आईपीसी, जिसे वर्ष 1860 में अंग्रेजों द्वारा बनाया गया था, 160 से अधिक वर्षों से देश की आपराधिक न्याय प्रणाली का मूल रहा है। इसे भारतीय न्याय संहिता, 2023 द्वारा प्रतिस्थापित किया जाएगा। 1973 की सीआरपीसी को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 द्वारा प्रतिस्थापित किया जाएगा। यदि ऐसा होता है तो, सीआरपीसी को तीसरी बार प्रतिस्थापित किया जाएगा। साथ ही भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 को भारतीय साक्ष्य विधेयक, 2023 द्वारा प्रतिस्थापित किया जाएगा। इस प्रकार दंड विधान, दंडित करने की प्रक्रिया, यानी विवेचना ट्रायल अपील आदि और सुबूतों के बारे में बनाया गया, इंडियन एविडेंस एक्ट को बिलकुल नए कानूनों से प्रतिस्थापित कर दिया जायेगा।
भारतीय दंड संहिता भारत गणराज्य की आधिकारिक आपराधिक संहिता है। यह एक संपूर्ण संहिता है जिसका उद्देश्य आपराधिक कानून के सभी पहलुओं को शामिल कर एक साहिताबद्ध कानून बनाना है। साल, 1862 में सभी ब्रिटिश प्रेसीडेंसी में, आईपीसी को लागू किया गया था। हालाँकि यह उन रियासतों पर लागू नहीं हुई थी, जिनकी अपनी अदालतें और अपनी कानूनी प्रणालियाँ थीं। भारतीय दंड संहिता का पहला मसौदा थॉमस बबिंगटन मैकाले की अध्यक्षता वाले प्रथम विधि आयोग द्वारा तैयार किया गया था। यह मसौदा इंग्लैंड के कानून के सरल संहिताकरण पर आधारित था, साथ ही इसमें नेपोलियन कोड और 1825 के लुइसियाना नागरिक संहिता से भी कुछ तत्व उधार लिए गए थे।
भारतीय दंड संहिता का पहला मसौदा, वर्ष 1837 में काउंसिल में गवर्नर-जनरल के समक्ष प्रस्तुत किया गया था, लेकिन बाद में हुए कई संशोधनों में, इस संहिता को अंतिम रूप देने में, ईस्ट इंडिया कंपनी राज को दो दशक लग गए। संहिता का पूरा मसौदा 1850 में तैयार कर लिया गया था और 1856 में विधान परिषद (काउंसिल) में प्रस्तुत किया गया। लेकिन, 1857 के भारतीय विद्रोह के कारण इसे ब्रिटिश भारत की क़ानून की किताब में शामिल करने में देर हुई थी। बार्न्स पीकॉक द्वारा कई संशोधनों और संशोधनों से गुजरने के बाद यह संहिता 1 जनवरी, 1860 को, विधिवत लागू हुई। तबसे क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम का यही आधार बना हुआ है।
अंग्रेजों के आगमन से पहले, दंडात्मक कानून, देश के अधिकांश भाग में, अलग अलग तरह से लागू थे, जिनमे, अपने प्रशासन के पहले कुछ वर्षों तक, ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन अलग अलग रियासतों के आपराधिक कानूनो में कोई हस्तक्षेप नहीं किया था। 1772 में, वॉरेन हेस्टिंग्स के प्रशासन के दौरान, ईस्ट इंडिया कंपनी ने, इन कानूनों में पहली बार हस्तक्षेप किया, और उसके बाद 1861 तक, समय-समय पर, ब्रिटिश सरकार स्थापित विभिन्न कानूनो में बदलाव करती रही।
फिर 1862 तक, जब भारतीय दंड संहिता लागू हुई भी तो, वह केवल प्रेसीडेंसी नगरों, कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास तक ही सीमित रही। देश के अन्य भागों में, स्थानीय कानून ही, निस्संदेह, आपराधिक कानून का आधार बने रहे। भारत में मुस्लिम और अन्य रियासती आपराधिक कानून के प्रशासन का युग काफी लम्बे समय तक चला और इन कानूनों से भारतीय कानून की शब्दावली में, कई शब्द भी लिए गए।
आईपीसी, इंडियन पेनल कोड, यानी भारतीय दंड संहिता जिसे उर्दू में ताज़ीरत ए हिंद कहा गया है में, अलग अलग अपराधो का विवरण है। इसे, अपराध की प्रकृति के आधार पर, 23 अध्यायों में बांटा गया है, जिनमे कुल मिलाकर, 511 धाराएं हैं, जो लगभग सभी अपराधो को कवर करती हैं। यही आपराधिक कानून आजादी के पहले पूरे ब्रिटिश भारत में लागू रहा और जब, 1947 मैं, देश बंटा तो, यही आपराधिक संहिता पाकिस्तान और 1971 के बाद पाकिस्तान के विखंडन के बाद बांग्लादेश में लागू हुई और उन्हीं अध्यायों और धाराओं सहित अब भी पाकिस्तान और बांग्लादेश में लागू है। बस इंडियन पेनल कोड की जगह, पाकिस्तान या बांग्ला पेनल कोड के नाम से जानी जाती है।
लोकसभा ने जिन तीन विधेयकों को संसद की स्थायी समिति के पास भेजा है, उनका उद्देश्य, भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम को बदल कर, आपराधिक न्याय प्रणाली के कानूनी संहिता को पूरी तरह से बदलना है।
इस उद्देश्य के लिए, गृह मंत्री अमित शाह ने भारतीय न्याय संहिता, 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023; और भारतीय साक्ष्य विधेयक, 2023 के प्रस्तावित विधेयकों को, जिसे सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, कानून विश्वविद्यालयों, मुख्यमंत्रियों, राज्यपालों आदि सहित विभिन्न हितधारकों के साथ व्यापक परामर्श के बाद तैयार किया गया है, को प्रस्तुत किया है। यह तीनों विधेयक विभिन्न समिति की सिफारिशों के आधार पर भी ड्राफ्ट किए गए हैं।
भारतीय न्याय संहिता में, आईपीसी के 22 प्रावधानों को निरस्त करने, 175 मौजूदा प्रावधानों में बदलाव किया गया है और8 नई धाराएं जोड़ी गई हैं। इसमें कुल 356 प्रावधान हैं।
अपने भाषण के दौरान अमित शाह ने कहा कि, यह विधेयक राजद्रोह के अपराध को पूरी तरह से निरस्त करता है। हालाँकि विधेयक में "राज्य के विरुद्ध अपराध" का प्रावधान है। विधेयक की धारा 150 "भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कृत्यों" से संबंधित है। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि विधेयक 'मॉब लिंचिंग' के अपराध को दंडित करने का प्रावधान करता है और इसके लिए 7 साल या आजीवन कारावास या मृत्युदंड का प्रावधान है।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, सीआरपीसी के 9 प्रावधानों को निरस्त करती है, उनके 160 प्रावधानों में बदलाव का प्रस्ताव करती है और 9 नए प्रावधान पेश करती है। विधेयक में कुल 533 धाराएं हैं।
भारतीय साक्ष्य विधेयक, भारतीय साक्ष्य अधिनियम के 5 मौजूदा प्रावधानों को निरस्त और 23 प्रावधानों में बदलाव का प्रस्ताव करता है और एक नया प्रावधान जोड़ है। इसमें कुल 170 अनुभाग हैं।
आईपीसी के तहत कुछ नए प्रावधान:
० धारा 109: संगठित अपराध
० धारा 110: छोटे संगठित अपराध या सामान्य रूप से संगठित अपराध
० धारा 111: आतंकवादी कृत्य का अपराध
० धारा 150: भारत की संप्रभुता एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कार्य
० धारा 302 : छीनना
गृह मंत्री द्वारा बताए गए विधेयकों की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं: ~
० मॉब लिंचिंग के लिए अलग प्रावधान, 7 साल या आजीवन कारावास या मृत्युदंड की सजा;
० भगोड़ों की एक पक्षीय सुनवाई और सजा;
० 'जीरो एफआईआर' के लिए औपचारिक प्रावधान- इससे नागरिक किसी भी पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज करा सकेंगे, चाहे उनका अधिकार क्षेत्र कुछ भी हो;
० शून्य एफआईआर को पंजीकरण के 15 दिनों के भीतर कथित अपराध के क्षेत्राधिकार वाले संबंधित पुलिस स्टेशन को भेजा जाना चाहिए;
० आवेदन के 120 दिनों के भीतर जवाब देने में प्राधिकरण की विफलता के मामले में आपराधिक अपराधों के आरोपी सिविल सेवकों, पुलिस अधिकारी पर मुकदमा चलाने के लिए 'मानित मंजूरी'।
० एफआईआर दर्ज करने से लेकर केस डायरी के रखरखाव से लेकर आरोप पत्र दाखिल करने और फैसला सुनाने तक की पूरी प्रक्रिया का डिजिटलीकरण;
० जिरह, अपील सहित पूरी सुनवाई वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से की जाएगी;
० यौन अपराधों के पीड़ितों के बयान दर्ज करते समय वीडियोग्राफी अनिवार्य।
० सभी प्रकार के सामूहिक बलात्कार के लिए सज़ा- 20 साल या आजीवन कारावास;
० नाबालिग से बलात्कार की सज़ा में मौत की सज़ा शामिल है।
० एफआईआर के 90 दिनों के भीतर अनिवार्य रूप से दाखिल की जाएगी चार्जशीट; न्यायालय ऐसे समय को 90 दिनों के लिए और बढ़ा सकता है, जिससे जांच को समाप्त करने की कुल अधिकतम अवधि 180 दिन हो जाएगी।
० आरोप पत्र प्राप्त होने के 60 दिनों के भीतर अदालतों को आरोप तय करने का काम पूरा करना होगा;
० सुनवाई के समापन के बाद 30 दिनों के भीतर अनिवार्य रूप से फैसला सुनाया जाएगा;
० फैसला सुनाए जाने के 7 दिनों के भीतर अनिवार्य रूप से ऑनलाइन उपलब्ध कराया जाएगा।
० तलाशी और जब्ती के दौरान वीडियोग्राफी अनिवार्य;
० 7 साल से अधिक की सजा वाले अपराधों के लिए फोरेंसिक टीमों को अनिवार्य रूप से अपराध स्थलों का दौरा करना होगा;
० जिला स्तर पर मोबाइल एफएसएल की तैनाती।
० 7 साल या उससे अधिक की सजा वाला कोई भी मामला पीड़ित को सुनवाई का अवसर दिए बिना वापस नहीं लिया जाएगा;
० समरी ट्रायल का दायरा 3 साल तक की सजा वाले अपराधों तक बढ़ाया गया। इससे सत्र अदालतों में 40% मामले कम हो जाएंगे।
० संगठित अपराधों के लिए अलग, कठोर सज़ा;
० शादी, नौकरी आदि के झूठे बहाने के तहत महिला के बलात्कार को दंडित करने वाले अलग प्रावधान;
० चेन/मोबाइल 'स्नैचिंग' और इसी तरह की शरारती गतिविधियों के लिए अलग प्रावधान;
० बच्चों के खिलाफ अपराध के लिए सजा को 7 साल की कैद से बढ़ाकर 10 साल की जेल की अवधि तक;
० मृत्युदंड की सजा को अधिकतम आजीवन कारावास में बदला जा सकता है, आजीवन कारावास की सजा को अधिकतम 7 साल के कारावास में बदला जा सकता है और 7 साल की सजा को 3 साल के कारावास में बदला जा सकता है और इससे कम नहीं (राजनीतिक लाभ के लिए दुरुपयोग को रोकने के लिए) संपन्न आरोपी);
० किसी भी अपराध में शामिल होने के लिए जब्त किए गए वाहनों की वीडियोग्राफी अनिवार्य है, जिसके बाद मुकदमे की लंबित अवधि के दौरान जब्त किए गए वाहन के निपटान को सक्षम करने के लिए अदालत में एक प्रमाणित प्रति प्रस्तुत की जाएगी।
ऐसा भी नहीं है कि, आपराधिक कानूनों में कभी बदलाव हुआ ही नहीं और यह संहिताये कोई धार्मिक पुस्तक हों, जिनमे बदलाव संभव नहीं है। अपराध की प्रकृति, समय और परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है तो आपराधिक कानूनों में भी उसके अनुसार परिवर्तन और परिवर्धन होते रहना चाहिए। सीआरपीसी तो 1973 में पूरी तरह से बदली गई है और इंडियन एविडेंस एक्ट में भी समय समय पर परिवर्तन होता रहा है। पर यह कानून, कुछ आपराधिक धाराओं में बदलाव और सामान्य संशोधनों से जुड़ा नहीं है, बल्कि आपराधिक न्याय प्रणाली के तीनों अंग, दंड विधान, प्रक्रिया और साक्ष्य विधेयक को नए कानूनों से प्रतिस्थापित करने का है। संसदीय समिति की रिपोर्ट के बाद ही इस संबंध में, जब प्रस्तावित कानूनो का असल और विस्तृत ड्राफ्ट सामने आएगा तभी इनके बारे में कुछ विशेष टिप्पणी की जा सकती है।
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh
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