अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति को भंग करने को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर संविधान पीठ की सुनवाई के नौवें दिन याचिकाकर्ता के वकीलों ने अपनी दलीलें पूरी कीं। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, संजीव खन्ना, बीआर गवई और सूर्यकांत की सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ में वरिष्ठ वकील गोपाल शंकरनारायणन, नित्या रामकृष्णन, मेनका गुरुस्वामी और वकील वरीशा फरासत ने बहस की।
बहस की शुरुआत करते हुए, वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकरनारायणन ने कहा,
० इस मामले के व्यापक निहितार्थ हैं, कश्मीर सिर्फ एक रास्ता है।
वरिष्ठ अधिवक्ता शंकरनारायणन ने मामले की शुरुआत, प्रासंगिकता से करते हुए इस बात पर जोर दिया कि, "यह (याचिका और मुद्दा) केवल कश्मीर के बारे में नहीं है, बल्कि संविधान के व्यापक निहितार्थ और कार्यकारी शक्ति के संभावित दुरुपयोग के बारे में है।"
उन्होंने कहा, "जब भी, कुछ भी, (कोई सोच या हमला) जो हमारे अधिकारों के करीब पहुंचता है या उनका अतिक्रमण करता है तो, उसे आपको, शुरू में ही खत्म कर देना चाहिए। यह उस चीज पर अतिक्रमण है, जिसे हम सबसे ज्यादा महत्व देते हैं, और वह है, हमारा संविधान। कश्मीर तो बस एक बहाना है।"
एडवोकेट शंकरनारायणन ने अगस्त 2019 के घटनाक्रम की तुलना 2018 में पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर और गिलगित बाल्टिस्तान की घटनाओं से की, जहां पाकिस्तानी सरकार ने संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से, स्थानीय स्वशासन को ही खत्म कर दिया। गिलगिट बाल्टिस्तान का उल्लेख करते हुए, शंकरनारायणन ने कहा, "प्रभावी रूप से, पाकिस्तान सरकार ने जो किया है वह (पाकिस्तान का उद्देश्य, गिलगिट बाल्टिस्तान पर) सीधा नियंत्रण रखना है और इसे प्रधान मंत्री के साथ एक परिषद को, सौंपना है। मैं खुद से पूछता हूं, क्या भारत, (इस दृष्टिकोण से पाकिस्तान से) अलग नहीं है? क्या हम संविधान द्वारा संचालित एक लोकतांत्रिक देश नहीं हैं? क्या हम वे नहीं हैं, कि, हम जो कुछ वादे (जनता से) करते हैं, उनका पालन करें जो, संविधान में मौजूद हैं, और जिस पर पांच संवैधानिक पीठों ने विचार किया है? या क्या, हम उन लोगों के उदाहरण का अनुसरण करने जा रहे हैं जिन्होंने, अपने प्रधानमंत्रियों को जेलों में डाल दिया?"
यहां एडवोकेट शंकरनारायणन पाकिस्तान के शासन का दृष्टांत दे रहे हैं। अनुच्छेद 370 को, सीमांत नोट के अनुसार "अस्थायी" प्रावधान कहे जाने के मुद्दे को संबोधित करते हुए, शंकरनारायणन ने तर्क दिया कि, "संविधान में कई प्रावधान भी, प्रकृति में अस्थायी थे" और उनके संदर्भ की जांच करने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
० अनुच्छेद 367 का संभावित दुरुपयोग
इसके बाद शंकरनारायणन ने अनुच्छेद 367 के संभावित दुरुपयोग पर चर्चा की, जो संविधान के भीतर व्याख्या खंडों से संबंधित प्रावधान है। यहां, यह याद किया जा सकता है कि, वर्तमान मामले में, 5 अगस्त, 2019 को राष्ट्रपति द्वारा जारी संवैधानिक आदेश 272 ने अनुच्छेद 367 में परिभाषा खंडों में संशोधन करते हुए कहा कि, "जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा" का अर्थ "जम्मू-कश्मीर की विधान सभा" होगा और " जम्मू-कश्मीर सरकार" को "जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल" के रूप में समझा जाएगा।"
यहां यह सवाल और दलील, एडवोकेट शंकरनारायणन ने दी है कि, व्याख्या के खंडों का अनुच्छेद, संसद को मनचाही व्याख्या गढ़ने का अधिकार और शक्तियां नहीं देता है।
आगे उन्होंने कहा, "यदि इस कार्रवाई (अनुच्छेद 367 के अधीन, मनचाही व्याख्या करने) की अनुमति दी जाती है, तो इसका मतलब यह होगा कि, कार्यपालिका, अनुच्छेद 368 के तहत प्रक्रिया का पालन करने के बजाय, अनुच्छेद 367 में ही एक साधारण संशोधन (अपनी सुविधा अनुसार) के साथ, शब्दों के अर्थ बदल सकती है, जैसे, संविधान के कुछ मूल प्रावधानों में संशोधन के लिए, यह निर्धारित है कि, राज्य विधानसभाओं के बहुमत का अनुसमर्थन आवश्यक है। इस प्रकार, परिभाषा खंडों में संशोधन की आड़ में, मनमर्जी से ठोस संशोधन किये जा सकते हैं।"
एडवोकेट शंकरनारायणन, यह कहना चाहते हैं कि, संविधान संशोधन की प्रक्रिया जो अनुच्छेद 368 में दी गई है को, कोई भी सरकार बाईपास करके, अनुच्छेद 367 के माध्यम से परिभाषा और व्याख्या बदल कर, जो भी चाहे वह कर सकती है।
एडवोकेट शंकरनारायणन के ही शब्दों में, "यानी अनुच्छेद 368 जो संविधान संशोधनों की एक व्यापक शक्ति और प्रक्रिया देता है, से बचते हुए, व्याख्या खंड, यानी अनुच्छेद 367 के ही अनुसार, व्यख्याएं गढ़ कर, मनमर्जी से संविधान का संशोधन किया जा सकता है। फिर यह एक गंभीर और चिंताजनक परंपरा की शुरुआत होगी।"
एक अन्य उदाहरण से एडवोकेट शंकरनारायणन ने स्पष्ट किया कि, "उदाहरण के लिए, अनुच्छेद 21 में 'व्यक्ति' शब्द की व्याख्या 'अपराध के आरोपी व्यक्ति' के रूप में की जा सकती है। अनुच्छेद 367 में, मैं एक व्याख्या खंड रखूंगा (इंट्रोड्यूस करूंगा) और कहूंगा कि, व्यक्ति का अर्थ अपराध का आरोपी व्यक्ति है। इसलिए अन्य सभी अधिकार, अनुच्छेद 21, खिड़की से बाहर (यानी समाप्त हो) हो जाएंगे"।
उन्होंने आगे कहा कि, "अनुच्छेद 367 का उपयोग करते हुए, सरकार यह कह सकती है कि "अनुच्छेद 368 में "आधे से कम राज्यों के विधानमंडल" वाक्यांश का अर्थ "राज्यसभा" या "कानून मंत्री" हो सकता है।"
इस बिंदु पर, सीजेआई चंद्रचूड़ ने हल्के-फुल्के अंदाज में टिप्पणी की, "आप ये सारे आइडिया दे रहे हैं, मिस्टर शंकरनारायणन।"
सीजेआई द्वारा हल्के फुल्के अंदाज में कही गई उपरोक्त टिप्पणी पर, सीनियर एडवोकेट शकारनारायणन ने कहा।
"माई लॉर्ड, इसीलिए, कृपया इस पर एक हथौड़ा उठाएँ। माधवराव सिंधिया मामले में न्यायमूर्ति हिदायतुल्ला ने कहा कि, वे क्या कर रहे हैं इसका परीक्षण करने के लिए हमें चरम उदाहरण लेने चाहिए। मैं यह दिखाने के लिए इन चरम उदाहरणों का सहारा ले रहा हूँ कि क्या उन्हें ऐसा करने की अनुमति है, भगवान ही जानता है कि, वे अभी और क्या क्या करेंगे!"
० प्रिवी पर्स मामले का हवाला दिया गया
अपने तर्कों में, शंकरनारायणन ने प्रिवी पर्स मामले के फैसले (एच.एच.महाराजाधिराज माधव राव जीवाजी राव सिंधिया बहादुर और अन्य बनाम भारत संघ) का हवाला देते हुए कहा कि, "इसमें वर्तमान मामले के साथ, आश्चर्यजनक समानताएं हैं। वहां, सरकार ने संशोधन प्रक्रिया का पालन करने के बजाय, पूर्ववर्ती रियासतों के शासकों की मान्यता वापस लेने के लिए अनुच्छेद 366 का इस्तेमाल किया था। सुप्रीम कोर्ट ने उक्त कार्रवाई को रद्द कर दिया। बाद में सरकार को प्रिवी पर्स ख़त्म करने के लिए संविधान में संशोधन करना पड़ा।"
इस मिसाल का हवाला देते हुए उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि "लोकतंत्र में संवैधानिक प्रक्रियाओं का पालन महत्वपूर्ण है।"
उन्होंने कहा, "कार्यपालिका संप्रभु नहीं है। हमारे संविधान में लोग संप्रभु हैं। इसमें कोई संदेह नहीं होना चाहिए।"
० अनुच्छेद 356 का उपयोग अपरिवर्तनीय परिवर्तन करने के लिए नहीं किया जा सकता है।
उन्होंने अनुच्छेद 356 के तहत, राष्ट्रपति शासन के अंतर्गत, राज्य की विशेष स्थिति को रद्द करने के लिए, लिए गए निर्णयों पर सवाल भी आगे उठाया। अनुच्छेद 356 के तहत "ऐसे आकस्मिक और परिणामी प्रावधान करने" की राष्ट्रपति की शक्ति का प्रयोग लोकतंत्र को बहाल करने के उद्देश्य से किया जाना है। अनुच्छेद 356 का प्रयोग कर के, राज्य की तरफ से, राज्य की स्थिति में, कोई भी अपरिवर्तनीय बदलाव, नहीं किया जा सकता है।"
उन्होंने यहां एक और काल्पनिक उदाहरण का इस्तेमाल किया। "उदाहरण के लिए, एक राज्य ने, भारत संघ के विरुद्ध, उच्चतम न्यायालय में मुकदमा दायर किया है। संघ, राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा सकता है और राष्ट्रपति की "आकस्मिक और परिणामी प्रावधान" करने की शक्ति का प्रयोग, राज्य द्वारा संघ के खिलाफ दायर मुकदमे को वापस लेने का निर्णय करने के लिए किया जा सकता है।"
अन्य वकीलों ने भी अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन का उद्देश्य, राज्य में लोकतांत्रिक व्यवस्था की बहाली की संभावना की तलाश करना बताया है न कि, राज्य पर शासन करने की कोई स्थाई व्यवस्था है।
सीनियर एडवोकेट, शंकरनारायणन ने याचिकाकर्ताओं के लिए तर्क समाप्त करते हुए, कुछ "चरम उदाहरणों" का उपयोग करते हुए तर्क दिया कि, "एक बड़ी शरारत के लिए, केंद्र के कार्यों को बरकरार रखना, एक बुरी मिसाल कायम कर सकता है, जिससे संशोधन (अनुच्छेद 368) के मार्ग का पालन करने के बजाय, अनुच्छेद 367 के तहत, परिभाषा और व्याख्या खंड को बदलकर, संवैधानिक प्रक्रियाओं को दरकिनार, करते हुए, किया जा सकता है। यह याद रखना होगा कि, कार्यपालिका, सर्वोच्च नहीं हैं, लोग (हम भारत के लोग) सर्वोच्च हैं।
सीनियर एडवोकेट, शंकरनारायणन द्वारा दलीलें रखने के बाद, सीनियर एडवोकेट, नित्या रामकृष्णन ने अपनी दलीलें रखनी शुरू की।
० एकीकरण केंद्र के नियंत्रण का उपाय नहीं।
वरिष्ठ अधिवक्ता नित्या रामकृष्णन ने इस धारणा को चुनौती देते हुए अपनी दलीलें शुरू कीं कि, "अनुच्छेद 370 अस्थायी था और 'अधिक एकीकरण' के साधन के रूप में कार्य करता था।"
उन्होंने अदालत से इस पारंपरिक धारणा पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया और तर्क दिया कि, "यह धारणा कि, अनुच्छेद 370 को अंतिम एकीकरण के लिए एक कदम के रूप में स्थापित किया गया था, मौलिक रूप से त्रुटिपूर्ण है।"
उन्होंने तर्क दिया कि, "एकीकरण, केवल केंद्रीय नियंत्रण का ही एक उपाय नहीं था, बल्कि एक जटिल प्रक्रिया थी जो प्रशासनिक शासन से, इतर और आगे तक फैली हुई है।"
उन्होंने आगे कहा, "एकीकरण (कोई) यह पैमाना नहीं है कि, केंद्र के पास कितना नियंत्रण है। यह केंद्रीय नियंत्रण या शक्ति का कार्य नहीं है। यह कहना गलत होगा कि, केंद्र शासित प्रदेशों के लोग, अनुसूची VI के क्षेत्र के लोगों की तुलना में, अधिक एकीकृत हैं। ऐसा नहीं है कि, हमारा लोकतंत्र ऐसे काम नहीं करता है।"
उन्होंने विस्तार से बताया कि, "एकीकरण के स्तर को केंद्र सरकार द्वारा प्रयोग किए गए नियंत्रण की डिग्री से नहीं, बल्कि साझी संप्रभुता और परस्पर लोकतांत्रिक समझौते से आंका जाना चाहिए, जो जम्मू-कश्मीर के लोगों ने भारत में शामिल होने पर दर्ज किया था।"
उन्होंने, अदालत का ध्यान उस ऐतिहासिक और भू-राजनीतिक संदर्भ की ओर आकर्षित किया, जिसने इस साझी संप्रभुता को आकार दिया गया और इस बात पर जोर दिया है कि, अनुच्छेद 370 इस साझेदारी के सार को दर्शाता है।"
नित्या रामकृष्णन ने अनुच्छेद 370 को जम्मू-कश्मीर के लोगों की लोकतांत्रिक इच्छा का, शेष भारत के साथ विलय बताते हुए कहा, ''हम अब उनके एकीकृत होने का इंतजार नहीं कर रहे हैं।''
० अनुच्छेद 356 केवल कार्यों के अभ्यास या क्रियान्वयन की अनुमति देता है, न कि, शक्तियों की।
नित्या रामकृष्णन ने तब जोर देकर कहा कि, "क्षेत्र के लोकतांत्रिक लोकाचार को बनाए रखने के लिए, केंद्र सरकार और जम्मू-कश्मीर की राज्य सरकार के बीच जांच और संतुलन की व्यवस्था, जैसा कि अनुच्छेद 370 में कल्पना की गई है, को बरकरार रखा जाना चाहिए।"
इस क्षेत्र में हालिया घटनाक्रम को संबोधित करते हुए, रामकृष्णन ने राज्यपाल शासन लागू करने और उसके बाद, राज्य विधानसभा को भंग करने की आलोचना की। उन्होंने, अनुच्छेद 370 में निहित साझी संप्रभुता और लोकतांत्रिक सिद्धांतों के आलोक में इस तरह की कार्रवाइयों की वैधता पर सवाल उठाया और आगे कहा, "70 वर्षों में, सभी पाँच संवैधानिक आदेश राष्ट्रपति शासन या राज्यपाल शासन के दौरान जारी किए गए हैं। एक 1986 में और चार '90-'96 के बीच वर्ष में राष्ट्रपति की उद्घोषणा की अवधि का विस्तार करते हुए।"
सीनियर एडवोकेट, नित्या रामकृष्णन के तर्कों का अगला चरण, संघ द्वारा अनुच्छेद 356 के प्रयोग पर केंद्रित था और कहा गया कि राष्ट्रपति केवल राज्य सरकार के कार्यों का प्रयोग कर सकता है, शक्तियों का नहीं। उन्होंने कहा कि, "अनुच्छेद 370 राज्य सरकार को शक्तियां प्रदान करता है, लेकिन केवल (रूटीन) कार्य करने के लिए।" इस सन्दर्भ में उन्होंने कहा, "कार्य एक कर्तव्य है. और शक्ति एक विवेक। यह एक जिम्मेदार राज्य सरकार को दी गई एक सामान्य शक्ति है। इसे अनुच्छेद 356 के अंतर्गत (वापस) नहीं लिया जा सकता जो अनुच्छेद 370 के अधीन (उसे प्राप्त) है।”
अपने तर्क में, एडवोकेट, रामकृष्णन ने इस बात पर जोर दिया कि "अनुच्छेद 370 की शर्तों को बदलने के लिए एक जिम्मेदार राज्य सरकार की सहमति भी पर्याप्त नहीं होगी, और ऐसे किसी भी बदलाव की शुरुआत सीधे संविधान सभा से होनी चाहिए।"
अदालत के समक्ष बोलते हुए, रामकृष्णन ने दृढ़ता से तर्क दिया, "एक संविधान सभा एक विशेष एजेंसी का प्रतीक है, जो विशेष रूप से जम्मू और कश्मीर के प्रतिनिधित्व के लिए समर्पित है। किसी भी बदलाव की सिफारिश एक ऐसी एजेंसी से आनी चाहिए जो जनादेश और कद में समान हो। आज, 1957 के बाद , जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा की तुलना में कोई एजेंसी (जो जनादेश और कद में) मौजूद नहीं है। जम्मू-कश्मीर के लोगों की इच्छा अनुच्छेद 370 में निर्दिष्ट शासन के तरीके का अभिन्न अंग है।"
० राज्यपाल द्वारा सदन का त्वरित विघटन दुर्भावनापूर्ण इरादे को दर्शाता है।
वरिष्ठ अधिवक्ता नित्या रामकृष्णन ने, चिंता व्यक्त की कि, "उचित संवैधानिक प्रक्रियाओं का पालन किए बिना अनुच्छेद 370 को संशोधित करने का कोई भी प्रयास अनुच्छेद में निहित लोकतांत्रिक सिद्धांतों को कमजोर कर सकता है।"
उन्होंने उन प्रक्रियाओं के माध्यम से जम्मू-कश्मीर के लोगों की लोकतांत्रिक इच्छाशक्ति के क्षरण की आलोचना की, जिन्हें वे "दुर्भावनापूर्ण" से प्रेरित मानती थीं।
एडवोकेट रामकृष्णन ने राज्यपाल शासन लागू करने और उसके बाद राज्य विधानसभा को भंग करने की परिस्थितियों पर भी प्रकाश डाला। उन्होंने राजनीतिक दलों द्वारा सरकार बनाने की इच्छा व्यक्त करने के 30 मिनट के भीतर सदन को तेजी से भंग करने पर सवाल उठाया। उन्होंने इस बात पर जोर देने के लिए व्हाट्सएप संदेशों और सार्वजनिक ट्वीट्स सहित साक्ष्य प्रस्तुत किए कि, "राज्यपाल का निर्णय जल्दबाजी में लिया गया था और संभवत: इसमें उचित आधार का भी अभाव था।"
एडवोकेट रामकृष्णन ने, अपनी दलीलों के क्रम में यह सवाल उठाया, "राज्यपाल शासन इसलिए लगाया गया, क्योंकि एक पार्टी पीछे हट गई थी, और कोई अन्य राजनीतिक दल सरकार बनाने के लिए तैयार नहीं था। इसी कारण से, यह नियम (अनुच्छेद 356) लागू किया गया था, किसी सुरक्षा मुद्दे या खतरे के कारण नहीं। फिर किस सांसारिक कारण से राज्यपाल को, 30 मिनट के भीतर विधानसभा भंग करनी पड़ी, जब, सदन में दो राजनीतिक दलों ने कहा था कि, वे सरकार बनाने के लिए तैयार हैं?"
इसके अलावा, उन्होंने तर्क दिया कि, "राष्ट्रपति शासन की घोषणा और उसके बाद अनुच्छेद 370(1) के तहत राज्य सरकार के कार्यों पर राष्ट्रपति द्वारा अधिकार ग्रहण करना अनुच्छेद 356 के तहत स्वीकार्य नहीं था।"
उन्होंने बताया कि, "अनुच्छेद 356 को राष्ट्रपति को अनुमति देने के लिए डिज़ाइन किया गया है कि, राज्य सरकार के कार्यों को अपने हाथ में लें और राज्य विधायिका की संभावना को कम न करें।"
अपनी बात समाप्त करते हुए उन्होंने कहा, "अक्टूबर 2019 में, एक दोस्त के साथ, मैंने घाटी का दौरा किया था। एक नाम जो घाटी के साथ गूंजता है, वह महात्मा गांधी का है। एक व्यक्ति जो अपने काम के लिए जीया और दिवंगत हो गया। किसी तरह, मामले का निर्णय करते समय, उस विरासत को ध्यान में रखा जाना चाहिए"।
सीनियर एडवोकेट, नित्या रामचंद्रन के बाद, सीनियर एडवोकेट मेनका गुरुस्वामी ने तर्क दिया,
० भारतीय संवैधानिक व्याख्या परिवर्तनकारी और व्यापक है।
वरिष्ठ अधिवक्ता मेनका गुरुस्वामी की दलीलें संविधान के रचनाकारों के मूलभूत इरादों और वर्तमान मामले के लिए उनके निहितार्थों पर केंद्रित थीं। उन्होंने अदालत की कार्यवाही के दौरान वरिष्ठ वकील दिनेश द्विवेदी के सामने रखे गए एक महत्वपूर्ण प्रश्न पर विचार के साथ शुरुआत की, "क्या मसौदा तैयार करने वाले या संविधान सभा के सदस्य के बयान को, लोगों की इच्छा पर लागू करने योग्य माना जा सकता है?"
उन्होंने कहा कि, "इस प्रश्न ने एक मौलिक संवैधानिक प्रश्न खड़ा कर दिया है कि, क्या किसी संविधान को संस्थापकों की मंशा के विपरीत तरीके से बदला जा सकता है?"
भारत के पहले प्रधान मंत्री के भाषण को याद करते हुए, जिसमें देश की आजादी की उथल-पुथल भरी, बलिदान और रक्तपात से भरी यात्रा पर प्रकाश डाला गया था, मेनका गुरुस्वामी ने संवैधानिक यात्रा में "संस्थापक" क्षणों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि "संवैधानिक व्याख्या के प्रति अदालत का दृष्टिकोण परिवर्तनकारी और व्यापक था।"
आगे उन्होंने कहा कि, "भारत की जटिल नींव के कारण यह सराहनीय भी है। इन न्यायशास्त्रीय सिद्धांतों को मसौदा तैयार करने वालों के संवैधानिक इरादे से वैधता प्राप्त हुई।"
इसके बाद उन्होंने पीठ का ध्यान जम्मू-कश्मीर संविधान के विशिष्ट प्रावधानों, विशेष रूप से धारा 4 और 5 की ओर आकृष्ट किया, जिसके बारे में उनका तर्क था कि, "ये राज्य को दी गई अद्वितीय स्वायत्तता के प्रमाण हैं।"
एडवोकेट मेनका गुरुस्वामी ने बताया कि, "अनुच्छेद 370 को निरस्त करने और उसके बाद के पुनर्गठन अधिनियम, जिसने राज्य की द्विसदनीय विधायी प्रणाली को भंग कर दिया, ने इस विशिष्ट स्वायत्तता को कमजोर कर दिया।"
जम्मू-कश्मीर संविधान की धारा 47 और 50 पर ध्यान आकर्षित करते हुए, उन्होंने राज्य की विधान सभा के भीतर क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व पर जोर दिया।
एडवोकेट मेनका गुरुस्वामी ने कहा, "इस अद्वितीय, क्षेत्रीय निकाय का प्रावधान विशेष रूप से जम्मू और कश्मीर के लिए किया गया था। यह निर्णय जानबूझकर लिया गया था, जिसका उद्देश्य राज्य की विविधता को स्वीकार करना और इसके तीन क्षेत्रों: जम्मू, कश्मीर और लद्दाख के हितों में सामंजस्य बिठाना था।"
एडवोकेट मेनका गुरुस्वामी के बाद, वारिशा फरासत ने दलील शुरू की और कहा,
० तीन पूर्व मुख्यमंत्री हिरासत में, कानून में स्पष्ट दुर्भावना।
मामले में हस्तक्षेपकर्ताओं का प्रतिनिधित्व कर रही वकील वारिशा फरासत ने भारत के संवैधानिक ढांचे के संदर्भ में अद्वितीय संघवाद की अवधारणा पर उत्साहपूर्वक चर्चा की। फरासत की दलीलें जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के मद्देनजर पूर्व मुख्यमंत्रियों और विधान सभा के सदस्यों की नजरबंदी से उत्पन्न चुनौतियों पर केंद्रित थीं। फरासत ने अदालत को संबोधित करते हुए कहा, "माई लॉर्ड्स, तीन पूर्व मुख्यमंत्री, आपकी विधान सभा के एक महत्वपूर्ण हिस्से के साथ, हिरासत में थे। विधानसभा के माध्यम से लोगों की इच्छा का प्रयोग इन नजरबंदी से बाधित हुआ था, जिनमें से कई थे सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम के तहत या आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 107 और 105 के तहत किया जाता है। यह स्थिति लगभग अस्वाभाविक है। यदि हम, एक ऐसे परिदृश्य की कल्पना करते हैं, जहां संपूर्ण राजनीतिक परिदृश्य और सभी राजनेता, जो वास्तव में प्रतिनिधि और समर्थक हैं, (जेल के) आधीन हैं, तो, ऐसी बाधाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस कानून में, स्पष्ट रूप से दुर्भावना का तत्व है।"
एडवोकेट, फरासत ने अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक नेताओं की नजरबंदी और राजनीतिक गतिविधियों पर लगाए गए प्रतिबंधों के महत्वपूर्ण प्रभाव पर प्रकाश डाला। उन्होंने तर्क दिया कि, "इन कार्रवाइयों ने क्षेत्र (जम्मू कश्मीर राज्य) के भीतर लोकतंत्र के कामकाज के बारे में चिंताएं बढ़ा दी हैं और इसके बारे में भारतीय राज्य की लोकतांत्रिक प्रकृति के बारे में, संदेह उपजाया है।"
एक अन्य याचिकाकर्ता, जो जम्मू-कश्मीर में छात्रों को भारतीय राजनीति पढ़ाते हैं, ने अदालती कार्यवाही के दौरान अपनी गहरी चिंता व्यक्त की। उन्होंने क्षेत्र में छात्रों को भारतीय संविधान और लोकतंत्र के सिद्धांतों को सिखाने की कोशिश करते समय आने वाली कठिनाई पर जोर दिया। याचिकाकर्ता ने साझा किया, "यह मेरे जैसे शिक्षकों के लिए एक चुनौतीपूर्ण स्थिति है, जब हम जम्मू-कश्मीर में अपने छात्रों को इस सुंदर संविधान के सिद्धांतों और लोकतंत्र के आदर्शों को पढ़ाते हैं। छात्र अक्सर एक कठिन सवाल पूछते हैं, "क्या हम
अगस्त 2019 की घटनाओं के बाद, अभी भी लोकतंत्र हैं? इस प्रश्न का उत्तर देना मेरे लिए बेहद जटिल और चुनौतीपूर्ण हो जाता है।"
सुनवाई अभी जारी है।
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh
'सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 के संबंध में सुनवाई (8) / विजय शंकर सिंह '.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/08/370-8.html
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