संविधान के अनुच्छेद 370 को संशोधित करने वाले कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं की सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई के पांचवें दिन, जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय बार एसोसिएशन की ओर से पेश वरिष्ठ वकील जफर शाह ने तर्क दिया कि, "जम्मू और कश्मीर राज्य (J&K) ने कुछ संवैधानिक स्वायत्तता बरकरार रखी थी क्योंकि उसने विलय समझौते पर नहीं बल्कि विलय पत्र (आईओए) पर हस्ताक्षर किए थे।"
आईओए जिसे विलय पत्र कहा जा रहा है, अन्य रियासतों के भारतीय संघ में विलय समझौते से अलग कर के एडवोकेट जफर शाह, यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। जम्मू कश्मीर के भारत में विलीन होने को लेकर एक तकनीकी बहस आईओए इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेसन IOA के प्रकृति पर चलती रही है। इस महत्वपूर्ण मुकदमे में भी बहस अधिकतर, उसी विंदु पर केंद्रित रही है। भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत की संविधान पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही है।
० जम्मू-कश्मीर ने संवैधानिक स्वायत्तता बरकरार रखी क्योंकि उसने विलय समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए।
वरिष्ठ अधिवक्ता, जफर शाह ने पूर्ववर्ती जम्मू-कश्मीर राज्य की स्वायत्त प्रकृति को रेखांकित करते हुए अपनी दलीलें शुरू कीं। उन्होंने पीठ को जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के इतिहास और उसके बाद जम्मू-कश्मीर के संविधान के निर्माण के बारे में जानकारी देते हुए अपना पक्ष रखा। उन्होंने सबसे पहले इस बात पर प्रकाश डाला कि, "जम्मू-कश्मीर के महाराजा ने अपनी संपूर्ण संप्रभुता भारत के डोमिनियन को नहीं सौंपी थी और इसके बजाय उन्होंने कुछ शक्तियां अपने पास रखीं, जिनमें विदेशी मामलों, संचार और रक्षा से संबंधित कानूनों को छोड़कर, अन्य सभी मामलों में, कानून बनाने की शक्ति भी शामिल थी।"
एडवोकेट शाह के अनुसार, "महाराजा की यह अवशिष्ट शक्ति अनुच्छेद 370 में समाहित हो गई, जिसमें कल्पना की गई थी कि, भारत के साथ एकीकृत होना पूरी तरह से जम्मू-कश्मीर के लोगों के हित के लिए होगा।"
उन्होंने तर्क दिया कि "जम्मू-कश्मीर ने अन्य राज्यों की तरह भारत के डोमिनियन के साथ विलय समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए थे, इसके बजाय, उसने भारत के साथ "हाथ मिलाने" के लिए IoA आईओए पर हस्ताक्षर किए थे, लेकिन इसे (यह हस्ताक्षर) पूरी तरह से "गले लगाने" (विलय, जैसा कि अन्य सभी रियासतों के लिए किया गया था) के लिए नहीं किया गया था।"
सीनियर एडवोकेट जफर शाह का कहना था कि, यह विलय, अलग और विशिष्ट प्रकार था, जिसे संविधान ने भी मान्यता दी थी।
इसके बाद जफर शाह ने अनुच्छेद 370 के बारे में विस्तार से बताया और कहा कि "चूंकि जम्मू-कश्मीर ने पहले ही आईओए में अपनी कुछ शक्तियां, अर्थात् रक्षा, संचार, विदेशी मामलों की शक्ति, भारत को "दान" कर (सौंप) दी थी, साथ ही राज्य (राजा हरि सिंह चाहते थे) चाहता था कि कोई और दान (शक्तियां भारत सरकार को न सौंपी जाय) न हो। इसलिए, अनुच्छेद 370 को इस तरह से ड्राफ्ट किया गया था कि, कानून बनाने के लिए इसका (जम्मू कश्मीर राज्य का) परामर्श या सहमति आवश्यक थी।"
उन्होंने जोर देकर कहा कि "जम्मू-कश्मीर के लिए कानून बनाने की भारतीय संसद की शक्ति के संबंध में अनुच्छेद 370 में ही सीमाएं प्रदान की गई थीं। इन सीमाओं में से एक यह थी कि, यदि सूची I या सूची III के तहत रखे गए विषय पर कोई कानून बनाया जाना था, जो कि, IoA आईओए द्वारा कवर किया गया विषय नहीं था, तो, राज्य सरकार की सहमति आवश्यक थी।"
एडवोकेट शाह के अनुसार, "इसका मतलब मंत्रिपरिषद के माध्यम से राज्य के लोगों की सहमति है।"
उन्होंने दोहराया कि यह "विशेष व्यवहार" (स्पेशल स्टेटस) जम्मू-कश्मीर को इसलिए दिया गया क्योंकि, उसने किसी विलय समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए थे। इसलिए, जम्मू-कश्मीर को दी गई स्वायत्तता को बनाए रखना होगा।"
ज्ञातव्य है कि, संविधान पीठ के चौथे दिन की सुनवाई के दौरान, स्वायत्तता के मुद्दे पर, वरिष्ठ एडवोकेट गोपाल सुब्रमण्यम ने भी अपने तर्क, स्वायत्तता यानी ऑटोनोमी के मुद्दे पर केंद्रित रखा था।
एडवोकेट शाह ने दलील देना जारी रखते हुए कहा कि, "जम्मू-कश्मीर में कानून बनाने के लिए संसद पर एक सीमा (प्रतिबंध) मौजूद थी क्योंकि भारत के साथ विलय के बावजूद, जम्मू-कश्मीर के लिए एक अलग तंत्र (राज्य की संविधान सभा और फिर विधानसभा) था क्योंकि इसमें महाराजा के पास मौजूद अवशिष्ट प्राधिकार को शामिल कर लिया गया था।"
उन्होंने जोड़ा, "हम मानते हैं कि भारत के संविधान के तहत ही हमें संवैधानिक स्वायत्तता प्राप्त है। लेकिन, इसे छीन लिया गया है। हम तर्क दे रहे हैं कि आप राज्य की स्वायत्तता नहीं छीन सकते। यह स्वायत्तता आईओए और अनुच्छेद 370 से आती (राज्य को मिलती) है।"
० राष्ट्रपति ने जम्मू-कश्मीर की संवैधानिक स्वायत्तता लेने के लिए अनुच्छेद 370 को 'विघटित' कर दिया
अनुच्छेद 370 को एक ऐसा अनुच्छेद बताते हुए, जो "यदि (भारत के साथ जम्मू-कश्मीर का) पूर्ण एकीकरण होता तो विलय समझौते का विकल्प हो सकता था", शाह ने अनुच्छेद 370 में निहित राज्य की संवैधानिक स्वायत्तता के बारे में विस्तार से बताया। अनुच्छेद 370(1)(i) में "परामर्श" शब्द का प्रयोग किया गया है और अनुच्छेद 370(1)(ii) के साथ-साथ 370(1)(डी) में "सहमति" शब्द का प्रयोग किया गया है। उन्होंने रेखांकित किया कि "सहमति" का मतलब है कि दोनों पक्षों को सहमत होना होगा।"
उन्होंने कहा कि "अनुच्छेद 370 के तहत, यह कल्पना नहीं की जा सकती कि संसद, जम्मू-कश्मीर पर लागू होने वाले भारतीय कानूनों का विस्तार करती है, जबकि इसके लिए कोई संवैधानिक प्रविष्टि नहीं है जो, राज्य में कानून के विस्तार का समर्थन करेगी।"
इस दलील के अनुसार, जम्मू कश्मीर राज्य के परामर्श और उनकी सहमति, का एक अलग और विशिष्ट महत्व है, जो इस रियासत के विलय को, अन्य रियासतों के भारत संघ में विलय से अलग और विशिष्ट बनाती है।
इस पृष्ठभूमि में, सीओ 272 का उल्लेख करते हुए, जफर पाशा ने तर्क दिया कि "राष्ट्रपति के आदेश (सीओ 272) में कहा गया है कि, "यह अनुच्छेद लागू नहीं होता है"। इस प्रकार, यह मात्र संशोधन नहीं था बल्कि राष्ट्रपति को अनुच्छेद को निष्क्रिय करने की शक्ति प्रदान की गई थी।"
सरकार की कार्रवाई को धीरे-धीरे "राज्य विधायिका की शक्ति में कटौती" बताते हुए उन्होंने कहा कि "1950 में, राज्य विधायिका के पास तीन विषयों को छोड़कर कानून बनाने की पूरी शक्ति थी, अनुच्छेद 370 के बाद, उन्हें संघ से सहमत होना पड़ा और उन्हें कानून लागू करने के लिए. अनुरोध करना पड़ा।"
इसके बाद चर्चा अनुच्छेद 370 के स्थायीकरण के मुद्दे पर स्थानांतरित हो गई। इस संदर्भ में, न्यायमूर्ति कौल ने कहा, "यह कहना कि 370 स्थायी है, वास्तव में कठिन है। मान लीजिए कि राज्य स्वयं कहता है कि हम चाहते हैं कि सभी कानून लागू हों, तो 370 कहां चला जाता है? फिर हम वास्तव में प्रक्रिया पर वापस आते हैं। क्या यह प्रक्रिया स्वीकार्य नहीं थी?"
इस पर जफर शाह ने दलील दी कि, "सवाल यह है कि क्या 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद स्थायी हो गया था क्योंकि इसे हटाने के लिए मशीनरी उपलब्ध नहीं थी?"
आगे उन्होंने कहना जारी रखा, "यदि आप पूरी तरह से एकीकृत करना चाहते हैं, तो हमें IoA, 370 से छुटकारा पाना होगा और एक विलय समझौते को निष्पादित करना होगा। हम जड़ों की ओर वापस जाते हैं।"
जस्टिस कौल ने जवाब दिया, "ये वहां के ऐतिहासिक घटनाक्रम थे। राज्य में कानून बनाने के अधिकार को सुरक्षित रखने के मामले में 370 की प्रभावशीलता में बदलाव आया। कुछ अभी भी बाकी था। जो कुछ बाकी था, उन्होंने 370 की प्रक्रिया के जरिए इसे हटा दिया। क्या प्रक्रिया थी सवाल सही है या गलत...370 के तहत, जो केंद्र और राज्य के बीच संचार का माध्यम था, एक कार्यप्रणाली स्थापित की गई थी। वास्तव में यदि आप ऐसा करना चाहते, तो आप कर सकते थे। ऐतिहासिक रूप से भी, यदि आप देखें तो यह समय की अवधि में किया गया।"
इस मौके पर, पीठ ने मौखिक रूप से यह भी कहा कि, "जम्मू-कश्मीर की संप्रभुता का भारत को समर्पण बिना शर्त और पूर्ण था।"
पीठ ने आगे यह भी रेखांकित किया कि "जम्मू-कश्मीर के संबंध में कानून बनाने की शक्तियों के संदर्भ में भारतीय संसद पर लगाई गई बेड़ियों का मतलब भारत में निहित संप्रभुता को कम करना नहीं है।"
० स्थायी निवासियों की सुरक्षा की जानी चाहिए
अपने तर्कों के अगले चरण में, शाह ने फिर से, पीठ को इतिहास की ओर ले गए और कहा कि "यह विचार जम्मू-कश्मीर राज्य में स्थायी निवासियों के रूप में रहने वाले व्यक्तियों की रक्षा करना था। इस सुरक्षा की जड़ों का पता लगाते हुए, शाह ने कहा कि इसे 1927 की अधिसूचना के अनुसार स्थायी निवासियों को संरक्षण दिया गया था।"
उन्होंने कहा, "दिलचस्प बात यह है कि उस समय, एक समुदाय (कश्मीरी पंडित और हिंदू समुदाय) द्वारा एक आंदोलन खड़ा किया गया था। दुर्भाग्य से, उन्होंने हमें छोड़ दिया। और हम उस समुदाय के प्रति बहुत आभारी हैं क्योंकि हमें, उनके द्वारा, हक की बात करना सिखाया गया था। उन्होंने आंदोलन किया क्योंकि वे शिक्षित थे। उन्होंने कहा कि, उन्हें नौकरियों की आवश्यकता है और, राजा को तो पंजाब से भी लोग मिल जाएंगे, (नौकरियों के लिए)। इसलिए कश्मीरी लोगों को ही, राज्य में नौकरियां मिले, इसलिए उन्होंने आंदोलन किया। इसके परिणामस्वरूप 1927 की एक अधिसूचना जारी की गई, जिसके अनुसार, स्थायी निवासियों के लिए नियुक्ति को, उन तक ही प्रतिबंधित कर दिया गया।''
एडवोकेट जफर शाह, 1927 की उस अधिसूचना का जिक्र कर रहे हैं, जिसके अनुसार, नौकरियां केवल उन्हीं को मिलेंगी जो, जम्मू कश्मीर के स्थाई निवासी होंगे। यह आंदोलन, कश्मीर की हिंदू और पंडित आबादी द्वारा किया गया था, जो अपेक्षाकृत शिक्षित थे और उन्हें भय हो गया था कि, यदि कोई ऐसा कानूनी कदम राजा द्वारा नहीं उठाया जाता है जिसमें, बाहर से आने वालों को मिलने वाली नौकरी प्रतिबंधित नहीं की जाती है तो, उन्हे अपने ही राज्य में नौकरियां नहीं मिल पाएंगी। शाह इसी संरक्षण की बात कर रहे हैं।
एडवोकेट शाह ने, उक्त सुरक्षा के लिए कई कारण बताए जिनमें नौकरियों और संपत्तियों की सुरक्षा और अतिरिक्त अधिकार और विशेषाधिकार प्रदान करना शामिल था। हालाँकि, उन्होंने जो सबसे महत्वपूर्ण कारण बताया वह, इस क्षेत्र को अक्षुण्ण रखना था। यह रेखांकत करते हुए कि जम्मू-कश्मीर तीन क्षेत्रों- लद्दाख, कश्मीर, जम्मू से बना था, उन्होंने कहा कि "पूर्ववर्ती महाराजा तीनों को एक साथ लाना चाहते थे और इस तरह राज्य का गठन हुआ।"
उन्होंने पैदा किये गये (370 को संशोधित करने के बाद दो केंद्र शासित प्रदेश के गठन पर) विभाजन पर अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा, "अब क्या किया गया है? इसे विभाजित कर दिया गया है। लोग विभाजित हैं। इसका एक हिस्सा पाकिस्तान के पास है, इसका एक हिस्सा चीन के पास है। लगभग 2000 किलोमीटर अक्साई चैन में, शेष हिस्सा यहाँ है। हम सभी ताकतों द्वारा सैंडविच बनाए जा रहे हैं।। हमें, तीनों क्षेत्रों के साथ, एकजुट होने की जरूरत है। हमें वैसे ही जीने की जरूरत है जैसे हम रह रहे थे।"
० मंत्रिपरिषद की सहमति आवश्यक
सीनियर एडवोकेट जफर शाह ने तब कहा कि "अनुच्छेद 370 में राज्य की सरकार को मंत्रिपरिषद द्वारा सहायता और सलाह देने की परिकल्पना की गई थी।"
उन्होंने कहा कि "यह राष्ट्रपति को किसी भी प्रकार की सिफारिश करने में राज्य के प्रमुख के रूप में राज्यपाल द्वारा प्रयोग की जाने वाली शक्ति का एक अत्यंत महत्वपूर्ण हिस्सा था।"
इस प्रकार, उन्होंने तर्क दिया कि "राज्यपाल ने, जब मंत्रिपरिषद मौजूद नहीं थी, तब 2019 के राष्ट्रपति आदेश को पारित करने के लिए राज्य सरकार की सहमति का संचार करके (केंद्र को सहमति बता कर), जम्मू-कश्मीर संविधान के अनुच्छेद 31 के तहत इस शपथ का उल्लंघन किया था और उन पर महाभियोग लगाया जा सकता था।"
अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, "राष्ट्रपति की अधिसूचना के संदर्भ में, भारत के राष्ट्रपति न केवल भारत के संविधान के तहत बल्कि जम्मू-कश्मीर के संविधान के तहत भी राज्यपाल की शक्तियों को मानते हैं। जब वह खुद को यह अधिकार क्षेत्र मानते हैं कि मैं राज्यपाल हूं, तो मैं असफल हो जाता हूं यह समझने के लिए कि 356 के तहत सिफारिश कौन कर सकता है?"
उन्होंने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि सीओ 272 के शुरुआती शब्द थे "जम्मू-कश्मीर सरकार की सहमति से राष्ट्रपति..." और इसका मतलब ऐसी सरकार से है जिसमें मंत्रिपरिषद हो। उन्होंने कहा कि इस मंत्रिपरिषद ने लोगों की राजनीतिक उपस्थिति भी स्थापित की और विस्तार के रूप में लोकतंत्र का एक तत्व भी स्थापित किया।"
अपनी दलीलें ख़त्म करते हुए उन्होंने कहा, "आप 367 का उपयोग करते हैं, 370 को बदलते हैं, इसे वापस लेते हैं और फिर आप 367 को ही खत्म कर देते हैं। यह कोई वास्तविक कार्रवाई नहीं है। यह वैध नहीं है। वास्तव में 370 एक ऐसा मामला है जहां सरकार कुछ करना चाहती है लेकिन इसमें, संवैधानिक बाधा है।"
इसके बाद वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन की दलीलें आईं, जिन्होंने अपने सीमित समय में इस बात पर प्रकाश डाला कि "भारत दुनिया का सबसे विविधतापूर्ण देश है और यह विविधता भारतीय संविधान में परिलक्षित होती है।"
उन्होंने अदालत से जम्मू-कश्मीर के लोगों से किए गए ऐतिहासिक वादों का सम्मान करने का आग्रह किया। वरिष्ठ अधिवक्ता धवन 16.08.2023 को अपनी दलीलें फिर से शुरू करेंगे। सुनवाई अभी जारी है।
पिछले दिनों की सुनवाई का संक्षेप...
० अनुच्छेद 370 को निरस्त नहीं किया जा सकता क्योंकि जम्मू-कश्मीर संविधान सभा ने इसे भंग करने से पहले कभी इसकी सिफारिश नहीं की थी: कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट से कहा [दिन 1]
० अनुच्छेद 370 मामला: क्या संसद जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा रद्द करने के लिए अपनी संशोधन शक्तियों का प्रयोग नहीं कर सकती? सुप्रीम कोर्ट ने पूछा।
अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के लिए राज्यपाल और केंद्र सरकार ने मिलकर काम किया: वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट को बताया।
० जब याचिकाकर्ता ने ब्रेक्सिट-जनमत संग्रह का हवाला दिया तो सुप्रीम कोर्ट ने कहा, हमारे संविधान में जनमत संग्रह का कोई सवाल नहीं है [
संविधान पूरे राज्य को केंद्र शासित प्रदेश में बदलने की अनुमति नहीं देता: सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट से कहा [दिन 3]
० 2019 के राष्ट्रपति आदेश ने अप्रत्यक्ष रूप से अनुच्छेद 370 में संशोधन किया, जो कि अस्वीकार्य है: गोपाल सुब्रमण्यम ने सुप्रीम कोर्ट से कहा [दिन 4]
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh
'सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 के संबंध में सुनवाई (4) / विजय शंकर सिंह '.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/08/370-4.html
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