Thursday, 24 August 2023

सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 के संबंध में सुनवाई (8) / विजय शंकर सिंह

भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, संजीव खन्ना, बीआर गवई और सूर्यकांत की संविधान पीठ द्वारा,  संविधान के अनुच्छेद 370 को संशोधित करने के कानून को चुनौती देने वाली याचिकाओं की, सुप्रीम कोर्ट में हो रही सुनवाई के आठवें दिन, वरिष्ठ अधिवक्ता सीयू सिंह ने तर्क दिया कि, "भारतीय संविधान के अनुच्छेद 3 के तहत किसी राज्य को केंद्र शासित प्रदेश में तब्दील करना अस्वीकार्य था।" 

आठवें दिन की सुनवाई में, वरिष्ठ अधिवक्ता सीयू सिंह, याचिकाकर्ताओं इंद्रजीत टिकू (एक कश्मीरी कार्यकर्ता), पत्रकार सतीश जैकब और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता एमवाई तारिगामी का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। 

संविधान के अनुच्छेद 3 में नए राज्यों के गठन और क्षेत्रों, सीमाओं, या मौजूदा राज्यों के नामों का परिवर्तन शामिल है। संविधान का अनुच्छेद 3, संसद को किसी भी राज्य से, किसी भी क्षेत्र के अलग होने या, दो या दो से अधिक राज्यों, या राज्यों के कुछ हिस्सों को जोड़कर, या किसी भी राज्य के, किसी भी हिस्से को, एकजुट करके, एक नया राज्य बनाने का अधिकार देता है। सीनियर एडवोकेट सीयू सिंह, इसी अनुच्छेद के संदर्भ में, अपनी बात कह रहे थे। 

जम्मू और कश्मीर राज्य पुनर्गठन विधेयक, भारत के संविधान के अनुच्छेद 3 के अंतर्गत, अधिनियमित किया गया है।  इस प्रकार, वरिष्ठ अधिवक्ता सिंह सीयू सिंह ने, इस विंदु पर तर्क दिया कि, क्या संविधान के अनुच्छेद 3 ने संघ को एक विधेयक पारित करने के लिए अधिकृत किया है, जो एक राज्य को केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) में बदल देता है?

० संविधान का अठारहवाँ संशोधन जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं हुआ।

पहले एक नजर, संविधान के 18वें संशोधन पर डालते हैं। भारत का संविधान (18वाँ संशोधन) अधिनियम, 1966  द्वारा अनुच्छेद 3 का संशोधन यह स्पष्ट करने के लिए किया गया था कि, 'राज्य' शब्द में केंद्रशासित प्रदेश भी शामिल होगा और इस अनुच्छेद के तहत, नया राज्य बनाने की शाक्ति में, किसी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश के एक भाग की, किसी दूसरे राज्य या केन्द्रशासित प्रदेश से मिलाकर एक नया राज्य या केन्द्रशासित प्रदेश बनाने की शक्ति को भी शामिल किया गया। इस संशोधन का उद्देश्य पंजाब और हिमाचल प्रदेश के पुनर्गठन के लिए संसद को शक्ति देना था।

इसी की चर्चा करते हुए सीनियर एडवोकेट, सीयू सिंह ने, अपने दलीलों की शुरुआत करते हुए कहा कि, "भारत के संविधान के अठारहवें संशोधन ने संविधान के अनुच्छेद 3 (जो नए राज्यों के गठन और मौजूदा राज्यों के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों में परिवर्तन से संबंधित है) में संशोधन किया है ताकि इसके दायरे में केंद्रशासित प्रदेशों को भी शामिल किया जा सके।" 
यहां, उन्होंने जोर देकर कहा कि "अठारहवां संशोधन 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन विधेयक पर लागू नहीं था। इस प्रकार, जम्मू-कश्मीर की प्रकृति में बदलाव नहीं किया जा सकता था।"  

उन्होंने कहा, "अठारहवें संशोधन तक अनुच्छेद 3 में संशोधन नहीं किया गया था, जब तक उन दो स्पष्टीकरणों (पंजाब और हिमाचल प्रदेश से संबंधित) को शामिल नहीं किया गया। अब वे ही, स्पष्टीकरण एक पूंछ की तरह बन गए हैं जो कुत्ते को घसीट रहे हैं। अब कोई भी क्रमपरिवर्तन और संयोजन, अनुच्छेद 3 के तहत संसद के लिए उपलब्ध है। यह कल्पना कि, जिसे चाहें, जैसे चाहें, राज्य या केंद्र शासित प्रदेशों में, आप परिवर्तन कर सकते हैं, जम्मू-कश्मीर राज्य पर कभी लागू नहीं किया गया।"
फिर उन्होंने, अनुच्छेद 3 के उद्देश्य की चर्चा की, और कहा कि "अनुच्छेद 3 का अंतर्निहित उद्देश्य और जोर प्रतिनिधि लोकतांत्रिक शासन का समर्थन करना और उसे बढ़ाना है, न कि इसे डाउन ग्रेड करना।"  

उन्होंने जोर देकर कहा, "अगर अनुच्छेद 3 की इस व्याख्या को बरकरार रखा जाता है, तो यह लोकतंत्र तथा संघवाद और पूरे देश के लिए मुश्किल की एक छोटी सी शुरुआत होगी। क्योंकि जब, केंद्र में, सत्ता में कोई भी पार्टी होगी, और जिसका, राज्य विधानमंडल में साधारण बहुमत होगा, वह, संसद में साधारण बहुमत से, किसी भी राज्य की स्थिति को (मनचाहे रूप में) परिवर्तित कर सकती है।"
आगे विस्तार से बताते हुए, उन्होंने तर्क दिया कि "किसी राज्य की संवैधानिक स्थिति को कम करके केंद्र शासित प्रदेश बनाने के लिए संसद को कोई स्पष्ट रूप से निहित शक्ति नहीं दी गई है।"

सीजेआई ने उनसे पूछा, "क्या अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से किसी राज्य को केंद्र शासित प्रदेशों में परिवर्तित किया जा सकता है?"
एडवोकेट सीयू सिंह ने यह कहते हुए जवाब दिया कि "दोनों पूरी तरह से अलग अलग विंदु है। ऐतिहासिक सन्दर्भ से पता चलता है कि अनुच्छेद 3 का प्रयोग सदैव स्वशासन को बढ़ाने के लिए किया जाता रहा है।"

यह साबित करने के लिए कि, किसी राज्य को यूनियन टेरिटरी में बदला नहीं जा सकता है, वरिष्ठ वकील सीयू सिंह ने भारत में यूटी के गठन के ऐतिहासिक संदर्भ के बारे में पीठ को बताया।  ऐसा करने के लिए, उन्होंने मुख्य रूप से 1919 और 1935 के भारत सरकार अधिनियमों का उल्लेख किया। उन्होंने कहा कि, "उस समय, (आजादी के पहले) भारत को गवर्नर के प्रांत और चीफ़ कमिश्नर के प्रांत में विभाजित किया गया था।  इन दोनों अधिनियमों का, अनुच्छेद 3 में प्रतिबिंबित प्रावधानों का उल्लेख करते हुए, उन्होंने जोर देकर कहा कि "शक्तियों (राज्य पुनर्गठन की शक्तियों) का उपयोग केवल सीमाओं के परिवर्तन के लिए किया गया था और किसी ने भी गवर्नर के प्रांत को समाप्त करने और इसे चीफ़ कमिश्नर के प्रांत में परिवर्तित करने के अधिकार पर जोर नहीं दिया।"

इसके बाद उन्होंने स्वतंत्र भारत के समय संवैधानिक कानूनों की चर्चा की और कहा कि, "राज्यों को 3 श्रेणियों में विभाजित किया गया था,  भाग ए, भाग बी और भाग सी। 
० भाग ए ब्रिटिश भारत के प्रांतों के अनुरूप था।  
० भाग बी राज्यों में पूर्व रियासतें शामिल थीं जिनका भारत में विलय हुआ था और जिनके राजप्रमुख थे और जो भारत संघ द्वारा अतिरिक्त पर्यवेक्षण के अधीन थे।  
० भाग सी के राज्य एकात्मक तरीके से संघ द्वारा शासित थे।  
० अंडमान और निकोबार द्वीप समूह ने एक भाग डी राज्य का गठन किया जो 1919 और 1935 के अधिनियमों के तहत ब्रिटिश भारत के तहत एक मुख्य आयुक्त स्तर का प्रांत था। 
इस व्यवस्था के अव्यवहार्य होने के कारण, यह प्रस्तावित किया गया था कि, भाग सी के अधिकांश राज्यों का, अन्य राज्यों के साथ विलय कर दिया जाना चाहिए और जिनका रणनीतिक या अन्य कारणों से विलय नहीं किया जा सका, उन्हें क्षेत्र माना जाना चाहिए।  तदनुसार, 7वां संवैधानिक संशोधन पारित किया गया और इसने राज्यों के बीच भेद को हटा दिया और केंद्रशासित प्रदेशों की अवधारणा पेश की।"

हालाँकि, जैसे ही केंद्रशासित प्रदेश 'व्यवहार्य इकाइयाँ' बन गए, उन्हें अंततः एक राज्य का दर्जा मिल गया।  इस पर विस्तार से बताते हुए, सीनियर एडवोकेट सीयू सिंह ने कहा, "ऐतिहासिक रूप से यही हुआ है। 4 अगस्त, 2019 तक, भारत में 7 केंद्रशासित प्रदेश बचे थे। शेष अन्य सभी केंद्रशासित प्रदेश, एक बार जब वे व्यवहार्य इकाइयां बन गए, तो उन्हें एक राज्य में बदल दिया गया।"
इस प्रकार, उन्होंने कहा कि "ऐतिहासिक प्रगति से पता चला है कि अनुच्छेद 3 का उपयोग केवल विभिन्न क्षेत्रों को राज्य का दर्जा प्रदान करने के रूप में अधिक स्वशासन के लिए किया गया था।" 

उसने आगे कहना जारी रखा, "1919 और 1935 के अधिनियमों से निकले अनुच्छेद 3 और 4 के इतिहास से पता चलता है कि सीमाओं को बदलने, नाम बदलने आदि की शक्ति का उपयोग हमेशा स्वप्रतिनिधित्व और लोकतांत्रिक स्वशासन को बढ़ाने के लिए किया जाता था। पीछे लौटने (राज्य को केंद्र शासित प्रदेश बनाने) का कोई मामला नहीं है... आज केवल 6 यूटी राज्य हैं, अगर आप जम्मू-कश्मीर को अलग रख दें तो। यहां तक ​​कि दादरा और नगर हवेली और दमन और दीव को भी 2020 में एक में मिला दिया गया है। उन्हें एक केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया है। ये छोटे छोटे, गैर-व्यवहार्य क्षेत्र बने हुए हैं, जो राज्यों के रूप में व्यवहार्य नहीं हैं।"

० राज्य का परिवर्तन केवल अनुच्छेद 368 द्वारा ही किया जा सकता है

एडवोकेट सीयू सिंह ने कहा कि हालांकि किसी राज्य को केंद्रशासित प्रदेश में परिवर्तित करना अस्वीकार्य है, लेकिन, यदि यह किया भी जाता है तो यह केवल अनुच्छेद 368 के अंतर्गत ही किया जा सकता है, अन्यथा, यह स्पष्ट रूप से विभिन्न संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करता है।" 
इस सन्दर्भ में उन्होंने कहा, "फिर इसके लिए विशेष बहुमत और 50% से अधिक राज्यों के, अनुसमर्थन की आवश्यकता होगी...लद्दाख और जम्मू-कश्मीर दोनों के लिए- जो कवायद (राज्य का विभक्तिकरण) की गई है वह अनुच्छेद 3 के दायरे से बाहर है, भले ही यह सही तरीके से की गई हो।  यह अनुच्छेद 3 का दायरा नहीं है। राज्य संपत्ति, भूमि, समेकित निधि, अधिकार, अनुबंध के साथ आता है - इसके पास अनुच्छेद 2 के साथ पढ़े गए अनुच्छेद 73 के तहत बिल्कुल पवित्र शक्तियां हैं।"

जम्मू-कश्मीर को केंद्रशासित प्रदेश में बदलने के प्रभावों पर प्रकाश डालते हुए, सिंह ने बताया कि, "रूपांतरण से निम्नलिखित संवैधानिक प्रावधान प्रभावित हुए हैं-
1. जम्मू और कश्मीर पर लागू सातवीं अनुसूची के साथ पठित संविधान के अनुच्छेद 246 के तहत विधायी शक्तियां राज्य से केंद्र को ऐसी शक्तियों के हस्तांतरण से प्रभावित थीं।
2. सूची II और III के संबंध में अनुच्छेद 162 के तहत राज्य की कार्यकारी शक्तियों को भी समाप्त कर दिया गया।
3. अनुच्छेद 73 जिसमें एक विशिष्ट प्रावधान था जिसमें कहा गया था कि संघ राज्य सूची की शक्तियों का प्रयोग नहीं कर सकता, भी प्रभावित हुआ।

इसी पर चिंता जताते हुए उन्होंने कहा, "साधारण सामान्य बहुमत और अनुच्छेद 3 द्वारा- ये सभी संवैधानिक अधिकार, जिनमें से कई संविधान की मूल संरचना का हिस्सा हैं, मिटा दिए जाते हैं!"
इसलिए, उन्होंने कहा कि यह परिवर्तन केवल अनुच्छेद 368 के माध्यम से ही हो सकता है।

अब एक नजर अनुच्छेद 368 पर डाले...
भारतीय संविधान के किसी भी अनुच्छेद को, अनुच्छेद 368 के अंतर्गत, निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार संसद द्वारा जोड़ा, बदला या निरस्त किया जा सकता है, जो विशेष बहुमत और अनुसमर्थन द्वारा संशोधन से संबंधित है। अनुच्छेद 368(2) के अनुसार संसद के किसी भी सदन में संशोधन का प्रस्ताव दिया जा सकता है।

विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh 

'सुप्रीम कोर्ट में अनुच्छेद 370 के संबंध में सुनवाई (7.2) / विजय शंकर सिंह '.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/08/370-72.html

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