Wednesday 2 August 2023

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, 'यादों की बारात' का अंश (18) पाकिस्तान उर्दू बोर्ड की नौकरी और वहां भी विवाद / विजय शंकर सिंह

               चित्र: कराची सचिवालय

जब तक जोश साहब, पाकिस्तान में थोड़ा व्यवस्थित होते, तब तक वहां निजाम ही बदल जाता। वैसे भी पाकिस्तान में जो निजाम आता या आनेवाला होता, जोश की उनसे कभी वैचारिक तादात्म्य था भी नहीं। उन्हे बार बार अपने फैसले पर अफसोस होता कि, किस घड़ी में वे नकवी साहब के इसरार पर रीझ कर अपना मलीहाबाद छोड़ कर एक नए परिवेश में आ गए, जहां बस धर्म ही समान था, शेष सब जुदा जुदा। 

इसी बीच पाकिस्तान में सरकार बदल जाती है और सुहरावर्दी वहां के प्रधान मंत्री बन जाते हैं। उनसे जोश साहब का एक संपर्क सूत्र निकलता है और सुहरावर्दी साहब से कुछ काम सधने वाला होता है तब तक, उसी संपर्क सूत्र से सुहरावर्दी नाराज हो जाते हैं। काम फिर पीछे छूट जाता है। लेकिन ऐसे गाढ़े वक्त में काम आती है, सुहरावर्दी साहब की बहन, जो जोश की अच्छी परिचित रहती हैं, और जोश का काम, जो वे देश में उर्दू की तरक्की और सरक्षण के लिए एक बोर्ड बनाना चाहते थे, का काम बढ़ता है। 

पर यह भी इतनी आसानी और जोश के मनमुताबिक नहीं हुई। हर कदम पर जोश को दुश्वारी का सामना करना पड़ा, अपने स्वभाव के विपरीत , समझौते करने पड़े, पर उन्हे कामयाबी मिली और फिर जिंदगी में कुछ बेहतर और ठहराव के पल आए। आगे उन्ही के शब्दों में पढ़े...
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उन्हीं दिनों सुहरावर्दी साहब को प्रधानमंत्री बना दिया गया। मैं इस फिक्र में पड़ गया कि लाइसेंसों के चक्कर से निकलकर मैंने अकादमी ऑफ़ लेटर्स का जो मंसूबा तैयार किया है, उसे सुहरावदी साहब की खिदमत में क्योंकर पेश करूँ। जब मैंने अपने एक दोस्त मन्नान खाँ एडवोकेट से इसके मुतअल्लिक मशविरा किया तो उन्होंने कहा कि मेरे एक बहुत अच्छे दोस्त महमुदुलहक उस्मानी सुहरावर्दी साहब के खासुलख़ास आदमी है, उनसे कहूंगा कि वह आपको सुहरावर्दी साहब से मिला दें। चुनांचे एक रोज़ मन्नान खाँ, उस्मानी साहब को लेकर मेरे घर आ गए और बात तय हो गई। दूसरे ही दिन उस्मानी साहब ने मुझे सुहरावर्दी साहब से मिला दिया। उन्होंने मेरी तजवीज़ को बहुत पसंद किया और वादा फरमाया कि मैं अकादमी कायम करा दूंगा।

लेकिन मेरी बदलती देखिए कि दूसरे ही दिन उस्मानी और सुहरावदी में ऐसा बिगाड़ पैदा हो गया कि उनका आना-जाना बंद, और मैं बे-आसरा होकर रह गया।

इसके बाद ख़ुदा का करना यह हुआ कि बेगम शाइस्ता अकराम कराची आ गई और आफताब अहमद खाँ प्रधानमंत्री के सचिव बल्कि दायें हाथ बन गए। चूंकि ये दोनों मुझे बहुत पहले से जानते थे; इसलिए उन्होंने मेरी बड़ी मदद की।

बेगम साहिबा सुहरावदी की रिश्ते की बहन थी। उन्होंने मेरी कुछ इस तरह बढ़ा-चढ़ाकर तारीफ़ की कि सुहरावर्दी साहब, जो खुद भी एक अदबी आदमी थे, मुझ पर बेहद मेहरबान हो गए और मुझे इजाज़त दे दी कि मैं जब भी चाहूँ बिला रोक-टोक उनके पास आ जाया करूँ।

आफ़ताब अहमद साहब ने भी सुहरावर्दी पर मेरा सिक्का जमाना और मेरा हाथ बँटाना शुरू कर दिया और मेरी तजवीज हरकत में आ गई।

इतफ़ाक़ या मेरी खुशकिस्मती कहिए कि उसी दौरान जुबेरी साहब शिक्षा सचिव बन गए। वह निहायत पढ़े-लिखे और अदब की कदर करने वाले थे, मेरी मदद पर तुल गए अपनी जबरदस्त सिफारिश के साथ उन्होंने मेरी तजवीज़ फाइनेंस (वित्त मंत्रालय) में भेज दी और मुझे मशविरा दिया कि में फिनांस सेक्रेटरी मुमताज़ हसन साहब से मिल लूँ।

मुमताज़ हसन साहब का नाम सुनकर में चकरा गया।

इस चकराने के दो सबब थे। एक यह कि 1942 में दिल्ली के एक मुशायरे में शरीक होने के सिलसिले में हमारे दरमियान एक नाखुशगवार वाकया पेश आ चुका था। इसलिए मैं समझता था कि वह देश के लाभ के किसी भी काम में मेरा साथ नहीं देंगे। दूसरे में सुन चुका था कि मुमताज साहब उस सूबे के जानी दुश्मन हैं, जिसे यू.पी. कहते हैं। लेकिन में उनसे क्योंकर न मिलता। शादी के गुनाह के बाद बाप और नाना बन चुका था, उन सबको पालता क्योंकर? इसलिए अपनी औकात पर लानत भेजता हुआ दफ्तरे माल (वित्त मंत्रालय) पहुँचा। क़दम दो-दो मन के हो गए। ठंडी अंगुलिया से अपना नाम लिखकर पर्चा अंदर भेज दिया।

चपरासी ने आकर कहा कि इस वक्त एक साहब यहाँ बैठे हुए हैं। आप पी. ए. के कमरे में इंतजार करें। दिल ने कहा, और आओ पाकिस्तान। खून के घूँट पिए और पी.ए. के कमरे में जाकर बैठ गया। पी. ए. साहब न तो खड़े हुए, न हाथ मिलाया, मुझे फिरऑन की तरह देखा और काम करने लगे। दिल ने कहा, मुबारक हो खाँ साहब! पाकिस्तान की तरफ़ से यह इज़्ज़त-अफजाई जी चाहा कि कमरे से बाहर निकल जाऊँ। फिर सोचा कि हम तो तारिक की तरह किश्ती जलाकर आए हैं। अब कहां जा सकते हैं?

अभी मुश्किल से छह-सात मिनट इस अजाब में गुजरे थे कि, क्या देखता हूं, खुद मुमताज़ हसन साहब मेरे सामने खड़े माफ़ी मांग रहे हैं। इस गैर मामूली शराफ़त ने मेरे दिल को उनकी तरफ झुका दिया और बदगुमानी के लिए मैं अपने को दिल ही दिल में मलामत करने लगा।

अपने कमरे में ले जाकर उन्होंने मुझसे कहा कि आपकी अकादमी की तजवीज बहुत लम्बी चौड़ी है। अगर आप उसे सिर्फ लुगत (कोश) तक सीमित कर दें तो फाइनेंस उसकी मंजूरी दे देगा। मुझे अपनी इस तजवीज़ के भिंचाब पर अफसोस हुआ; लेकिन में बेचारा कर ही क्या सकता था। नाचार, इसी शक्ल को गनीमत समझा। मैंने उनकी बात मान ली। उर्दू बोर्ड अस्तित्व में आ गया। मेरी कई साल की मेहनत ठिकाने लगी।

बोर्ड बन गया तो अंजुमन तरक्की -ए-उर्दू के सदर मौलवी अब्दुलहक को मेम्बर बनने की दावत दी गई। वह मुझे नापसंद करते थे। इसलिए उन्होंने जवाब दिया कि अगर मुझे लुगत का चीफ एडीटर न बनाया गया तो में मैम्बरी की दावत को ठुकरा दूंगा।

मुमताज़ हसन साहब ने अब्दुलहक साहब की इस जिद पर कुछ मुँह बनाया, लेकिन कुछ सोचकर मंजूर कर लिया। अब क्या था। अब्दुलहक चीफ एडीटर हो गए। अंजुमने तरक्की-ए-उर्दू के दफ्तर में लुगत का काम होने लगा। मैंने दौड़-धूप करके बोर्ड के लिए जो इमारत किराये पर ली थी, वहां चंद क्लर्क रह गए और मैं। मुमताज हसन ने मुझे 'मुशीर अदब का ओहदा दे दिया, सबसे ज्यादा मेरी तनख्वाह मुकर्रर की। लेकिन अब्दुलहक ने कोई सवा या डेढ़ बरस तक मुझसे कोई काम ही नहीं लिया और मैं दफ्तर में बैठा तनख्वाह लेता, मक्खियाँ मारता और यह सोचता कि जिस दफ्तर को मैने कई साल खून पसीना एक करने के बाद कायम कराया था, उसी दफ्तर में में 'तुम किस बाग़ की मूली हो' बनाकर रख दिया गया हूँ। बेकारी और मुफ्त की तनख्वाहदारी से तंग आकर मैंने आखिर मुमताज साहब को लिखा कि मुझसे लुगत-नवीसी का काम लिया जाए। जब उन्होंने मुझे इस काम पर लगा दिया तो मौलवी अब्दुलहक को इस कदर ताव आ गया कि वह एडीटरी और मेम्बरी दोनों से दस्तबरदारी पर आमादा हो गए।

इसके बाद बोर्ड के सेक्रेटरी शानुलहक हक्की का मौलवी अब्दुलहक और शीकत सब्जबारी से सख्त बिगाड़ हो गया और गर्मागर्म ख़तो किताबत का सिलसिला छिड़ गया। मौलवी साहब के इंतकाल के बाद लुगत का काम बोर्ड के दफ्तर में होने लगा और हल्क़ी साहब और सब्ज़वारी साहब में जाहिर तौर पर समझौता हो गया। लेकिन दिलों में नफरत बाकी रही और इंशाअल्लाह ता कयामत रहेगी (इसलिए कि यू. पी. वालों औरbदिल्ली वालों की फितरत ही यहीं है)।

अब वक्री साहब के दिल में मुझसे भी गाठ पड़नी शुरू हो गई। बर्ताव तो हमारे दरमियान अज़ीज़ और बुजुर्ग का ही रहा: लेकिन चूंकि हक्की साहब के अन्दर ये ख़्वाहिश रहती है कि लोग उनके रू-ब-रू झुकते रहे और मैंने उनकी इस ख़्वाहिश को खुराक नहीं पहुंचाई। जब वह ख़्वाहिश मुसलसल भूखी रहने लगी तो वह सोचने लगे कि मुझे किस तरह नुक़सान पहुंचा सकते हैं। आखिरकार अल्लाह ने उन्हें वह मौका दे ही दिया।
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विवाद फिर शुरू हो गया। जोश की खुद्दारी को फिर चुनौती मिली। वे आखिरी बार, भारत अब आते हैं। पर रहने के लिए नहीं, अपना घर, जमीदारी, मलीहाबाद के अपने आम के बागात, लखनऊ की अपनी हवेली और भारत में रह रहे अपने मित्रों से मिलने। यह उनकी आखिरी भारत यात्रा होती है। वे भारत आकर भावुक हो जाते है। उन्हे अपने पाकिस्तान जाकर बसने के फैसले पर कभी कभी कोफ्त भी होती है। वक्त का बदलाव देखिए, कहा भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू उनके निजी दोस्त थे, और कहां पाकिस्तान के अफसरों से मिलने के लिए उन्हे, अफसर के पीए की खुशामद करने की जिल्लत सहनी पड़ती है। भारत में आखिरी बार आने पर, उनका हाल आप आगे पढ़ेंगे... 
(क्रमशः)

विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh

'जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (17) पाकिस्तान में जोश को जो कुछ भी मिला, हांथ नहीं आया...यहां तक कि, शराब भी छिन गई / विजय शंकर सिंह '.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/07/17.html



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