Monday, 5 June 2023

डॉ. शारिक़ अहमद ख़ान / आजमगढ़ का इतिहास

मेंहनगर के गौतम राजपूत मुस्लिम काल में अर्गल स्टेट फ़तेहपुर से वर्तमान आज़मगढ़ के मेंहनगर के इलाक़े में आकर बसे।स्थानीय जनजातियों को परास्त किया। हिंदोस्तान की मुस्लिम शासकों की हुक़ूमत ने गौतम राजपूतों को इलाक़ा सौंपा था और गौतम राजपूत अपनी कोट बनाकर वहाँ रहते थे,उनको बड़ी ज़मींदारी मिली थी,प्रजा से कर वसूल कर मुस्लिम शासकों को देते थे। मुग़ल काल में मुग़ल सरकार के वफ़ादार थे,लिहाज़ा ज़मींदारी और बढ़ी हुई थी। उन्हीं अरगल से आए गौतम राजपूतों के एक वंशज अभिमन्यु सिंह उर्फ़ अभिमान सिंह गौतम हुए। उनका एक दिन अपने भाईयों के साथ मछली के शिकार के बाद उसका बँटवारा करने को लेकर विवाद हुआ। वो भाइयों से नाराज़ हो घर से चले गए।उन्होंने धर्म परिवर्तन कर इस्लाम अपना लिया और मुसलमान हो गए।मुसलमान हुए तो नाम पड़ा दौलत इब्राहीम ख़ान।

वो बादशाह जहाँगीर का काल था।दौलत इब्राहीम ख़ान जहाँगीर के दरबार में गए। उनकी योग्यता से प्रभावित हो जहाँगीर ने उन्हें अपने क़िले में अधिकारी नियुक्त कर लिया। फिर कुछ समय बाद दौलत इब्राहीम ख़ान को जहाँगीर द्वारा बाइस परगनों की जागीर मिली। मेंहनगर इसका मुख्यालय था। मेंहनगर बड़ा राज्य था जो आज़मगढ़ के माहुल की सीमा से लेकर बिहार के बक्सर की सीमा तक फैला था।दौलत इब्राहिम खाँ की कोई संतान नहीं थी। लिहाज़ा उनकी मृत्यु के बाद उनके भतीजे हरिवंश सिंह मेंहनगर के राज्य के उत्तराधिकारी हुए।ये भी मुसलमान हो गए।इनका नाम पड़ा अय्यूब।

दौलत इब्राहिम ख़ान की मौत के बाद उनके भतीजे हरिवंश सिंह जो धर्मपरिवर्तन कर अय्यूब ख़ान हो गए थे, उन्होंने मेंहनगर में राजा दौलत इब्राहिम ख़ान का मकबरा बनवाया।मकबरा शानदार है और इसमें छत्तीस दरवाज़े हैं।मकबरे के किनारे एक तालाब है जो कहीं न कहीं मकबरे की वास्तुकला को नज़र में रखते हुए खुदवाया गया होगा। सासाराम में जो शेरशाह सूरी का भी मकबरा है, कुछ कुछ उसी तर्ज़ पर दौलत इब्राहिम ख़ान का मकबरा है।राजा दौलत इब्राहिम ख़ान के पास एक वफ़ादार कुत्ता था और एक वफ़ादार घोड़ा था जिसे राजा बहुत प्रेम करते।राजा की मौत के बाद उनका कुत्ता और घोड़ा दोनों मर गए।राजा के इनसे लगाव को देखते हुए मकबरे में राजा के वफ़ादार घोड़े और कुत्ते को भी दफ़ना दिया गया और मज़ार बनवा दी गई। मकबरे में राजा के परिवार के अन्य लोगों की भी मज़ार है। कुत्ते और घोड़े की मज़ार मकबरे में होना इस मकबरे को ख़ास बनाता है और मकबरे की वास्तुकला भी दर्शनीय है। आज़मगढ़ की यह एकमात्र ऐसी इमारत है जो संरक्षित और देखने योग्य है।इब्राहीम दौलत ख़ान का यह मकबरा आज़मगढ़ के मेंहनगर कस्बे में है और भारत सरकार का पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग इसकी देखरेख करता है।

हरिवंश सिंह की प्रेम कहानी बहुत रोचक है। जब दौलत इब्राहीम ख़ान की मौत हो गई तो उनके भतीजे हरिवंश सिह को मेंहनगर के बाइसों परगने मिले थे क्योंकि अभिमन्यु सिंह के कोई औलाद नहीं थी।हरिवंश सिंह ने आज़मगढ़ शहर में हरिवंशपुर बसाया जिसे आजकल हरबंशपुर कहा जाता है। हरिवंशपुर में एक किला बनवाया जो वर्तमान में कलेक्टर के बंगले के पीछे था। हरिवंश सिंह यहीं किले में रहने लगे। हरिवंश सिंह को मोहब्बत हो गई कमरून्निसां नाम की युवती से,जो उन्हीं के किसी दरबारी की पुत्री थीं। इन दोनों की मोहब्बत के चर्चे आम हो गए। मोहब्बत परवान चढ़ी,मोहब्बतें छिपा नहीं करतीं। अब हरिवंश सिंह ने उससे शादी कर ली और मुसलमान हो गए।नाम रखा अय्यूब ख़ान। जबकि हरिवंश सिंह पहले से शादीशुदा थे और उनकी रानी का नाम था रानी रतनज्योति। रानी रतनज्योति परगना बेलहाबांस के खड़गपुर की रहने वाली थीं। जब हरिवंश सिंह मुसलमान हो गए और कमरून्निसां से शादी कर ली तो रानी रतनज्योति बहुत नाराज़ हो गईं और हरिवंश सिंह से अलग होकर सेठवल के भूमिहार ज़मींदारों से ज़मीन ख़रीदकर एक जगह रानी की सराय बसाई और वहीं कोट बनाकर हरिवंश सिंह उर्फ़ अय्यूब से दूर रहने लगीं। वो हिंदू बनी रहीं और कमरून्निसां से हरिवंश की शादी के बाद कभी वापस हरिवंश के पास नहीं लौटी।

इधर राजा अय्यूब ने कमरून्निसां के लिए एक शानदार हवेली आज़मगढ़ शहर में बनवाई और किला छोड़कर वहीं रहने लगे।कमरून्निसां के कोई संतान तो नहीं हुई और न ही उसे रानी का दर्जा अवाम ने दिया लेकिन अय्यूब के दिल की मलिका कमरू ही थी। कुछ बरस बाद कमरून्निसां चल बसीं। राजा अय्यूब बदहवास हो गए,दीवाने हो गए। उन्होंने कमरून्निसां की कब्र पर ठीक वैसी ही डिज़ाइन का मकबरा बनवाया जैसी कमरून्निसां की कोठी बनवाई थी। कमरून्निसां की मज़ार पर अय्यूब जाते और बैठे रहते। उनको कमरून्निसां से शिद्दत की मोहब्बत थी इसलिए उसके ग़म में हरिवंश सिंह उर्फ़ अय्यूब भी चल बसे।बात जहांगीर के ज़माने की है।  हरिवंश को कमरून्निसां के बगल में दफ़न कर दिया गया जैसे बाद में मुमताज़ महल के बगल में शाहजहाँ दफ़न हुए। अय्यूब और कमरून्निसाँ का मक़बरा शहर आज़मगढ़ के ग़ाज़ी दलेल ख़ाँ क़ब्रिस्तान में है।इसमें एक कब्र कमरून्निसां की है और दूसरी हरिवंश उर्फ़ अय्यूब की है। उनकी दरगाह पर इबारत लिखी है हज़रत अय्यूब बादशाह।जहाँ तक बात अय्यूब के नाम में बादशाह लगे होने की है तो इस इलाके के वो बादशाह तो थे ही और हज़रत सिर्फ़ पीर-फ़क़ीर के लिए ही नहीं बल्कि किसी के नाम के आगे सम्मानपूर्वक लगाया जा सकता है। तो इसीलिए अय्यूब को हज़रत अय्यूब बादशाह कहा गया।समय-समय पर वहाँ दिया-बाती होती है। शबेबारात को सजता है। जिस दिन हम डॉ.शारिक़ अहमद ख़ान वहाँ गए उस दिन शबेबारात थी,मक़बरा सजा हुआ था।बरसों बरस पहले जब मक़बरा जर्जर हुआ था तो स्थानीय मुस्लिम समाज ने मरम्मत भी करा दी थी और हिंदी में नाम की इबारत लिखवायी थी। वहीं मक़बरे में चिरनिद्रा में लीन हैं राजा अय्यूब और उनकी प्रिय पत्नी कमरून्निसाँ। कुछ लोग वहाँ मन्नत मानने भी आते हैं। ये मक़बरा समझिए कि, आज़मगढ़ का ताजमहल है।

राजा अय्यूब की हिंदू रानी रतनज्योति से पैदा पुत्रों में से एक अय्यूब के पुत्र विक्रमजीत उर्फ़ विक्रमादित्य थे जो अपनी माँ के साथ रानी की सराय में रहते थे। क्योंकि विक्रमजीत के पिता मुसलमान हो गए थे तो युवा होने पर विक्रमजीत ने भी इस्लाम अपना लिया और मुसलमान हो गए। मुसलमान होने पर इनकी शादी भी मुसलमान कन्या से हुई और उनके दो पुत्र हुए एक का नाम आज़म ख़ान था और दूसरे का अज़मत ख़ान। यही वो राजा आज़म ख़ान उर्फ़ आज़मशाह थे जिन्होंने आज़मगढ़ बसाया। आज़मगढ़ शहर के क़रीब मौजूद गाँव बाग़ लखराँव में आज़मगढ़ बसाने वाले राजा आज़मशाह का मक़बरा मौजूद है। राजा आज़मशाह उर्फ़ आज़म ख़ान ने सन् 1665 में अपने राज्य के फुलवरिया और एलवल के घने जंगल कटवाकर तमसा नदी के किनारे आज़मगढ़ शहर बसाया। उन्हींं आज़मशाह के नाम पर तमसा किनारे के जंगल काटकर बसाए गए इस शहर का नाम पड़ा आज़मगढ़।आज़म शाह ने आज़मगढ़ में अपना क़िला बनवाया। आज़मगढ़ शहर आज़मशाह ने इसलिए भी बसाया ताकि उनके राज्य के मध्य में हो।क़िला ऐसी जगह बनवाया जो टौंस मतलब तमसा नदी के किनारे था और सामरिक रूप से मज़बूत था।

शहर को छूकर बहने वाली तमसा नदी के उस पार है बाग़ लखराँव। जो बाईपास रोजवेज़ से भँवरनाथ जाता है वहीं राजघाट के पास बाग़ लखराँव में मक़बरा है। यहाँ आज़मगढ़ बसाने वाले राजा आज़मशाह और उनके परिवार की कब्रें मौजूद हैं।मेरे देखने में ही मक़बरे की पुरानी इमारत मौजूद थी,लेकिन बीते बरसों की एक बाढ़ में राजा आज़म शाह का मक़बरा पुराना होने के कारण ढह रहा था तो चंद बरस पूर्व यहाँ आकर मन्नत मांगने वालों ने नए सिरे से बनवाया।इसकी बुनियाद लाखौरी ईंटों की है और आज़म साहब की कब्र भी तभी की बनी है।बीच में राजा आज़मशाह की कब्र है और उसके आसपास उनके परिवार के लोगों की क़रीब तीस की संख्या में कब्रें हैं। अभी कुछ बरस पहले पुल बन गया है तो यहाँ पहुंचने में आसानी हो गई है। क़रीब चौदह-पंद्रह बरस पहले जब हम पहली बार यहाँ गए थे तो पुल नहीं था और दस किलोमीटर का चक्कर लगा यहाँ पहुंचे थे।तब इस मकबरे की पुरानी इमारत मौजूद थी जो जर्जर होकर ढह रही थी।अब पुल तो बन गया है लेकिन यहाँ पहुंचने के लिए खेतों के बीच से निकली पगडंडी पर काफ़ी दूर तक पैदल चलकर मकबरे तक जाना पड़ता है। मकबरे को छूकर तमसा नदी बहती है और यहाँ का मंज़र सुहाना लगता है।अथाह शांति चारों ओर फैली रहती है। आज़मशाह की मौत कन्नौज में हुई थी। वहाँ से उनकी मिट्टी आज़मगढ़ आयी थी।उनकी मौत जेल में हुई।

दरअसल हुआ ये कि एक समय ऐसा आया जब, औरंगज़ेब ने आज़मगढ़ बसाने वाले आज़म शाह उर्फ़ आज़म ख़ान से औरंगज़ेब ने का राजा का ख़िताब वापस ले लिया।नाराज़ हो आज़म ख़ाँ ने औरंगज़ेब को लगान देना बंद कर दिया। औरंगज़ेब ने आज़म ख़ाँ को दिल्ली बुलाया और मिर्ज़ा राजा जयसिंह के साथ शिवाजी से लड़ने के लिए दक्षिण भेज दिया।लड़ाई के दौरान शिवाजी जब एक सुलह के लिए तैयार हुए तो आज़म ख़ान को सुलह करने के लिए प्रतिनिधि के तौर पर भेजा गया।जहाँ आज़म ख़ान ने सुलहनामे में शिवाजी को काफ़ी सहूलियतें दे दीं।औरंगज़ेब आज़म ख़ान की इस हरकत से नाराज़ हो गया,उसे लगा कि आज़म शाह क्योंकि मुस्लिम राजपूत हैं इसलिए उन्होंने शिवाजी को सहूलियत दिलवा दी। अब औरंगज़ेब ने आज़म शाह को कन्नौज में गिरफ़्तार करवा जेल में डलवा दिया।जेल की यातना से आज़म शाह की मृत्यु हो गई और उनकी मिट्टी को मुग़ल सरकार ने आज़मगढ़ भेज दिया।यहाँ उनकी मिट्टी आने पर प्रजा क्रुद्ध हो गई,क्योंकि आज़मशाह हिंदू मुस्लिम दोनों के प्रिय थे।अब आज़म के भाई अज़मत ख़ाँ उर्फ़ अज़मतशाह राजा बने।

अज़मतशाह ने अपने नाम से आज़मगढ़ की अज़मतगढ़ क़स्बा बसाया जो इस समय काफ़ी बड़ा हो चुका है। जब अज़मत राजा बने तो उन्होंने भी क्रोध में आकर लगान नहीं दिया। अब औरंगज़ेब ने अज़मत को सज़ा देने के लिए सूबेदार हिम्मत ख़ाँ के नेतृत्व में मुग़लिया सेना आज़मगढ़ भेज दी। प्रजा ने अज़मत और उनकी सेना का साथ दिया।लेकिन मुग़ल सेना विशाल थी।अज़मतशाह पहले आज़मगढ़ में हारे, फिर वहाँ से भागकर अज़मतगढ़ में मोर्चा बांधा।वहाँ भी हार गए।भगाकर दोहरीघाट में मोर्चा बांधा और वहाँ भी हार हुई।अब अज़मतशाह दोहरीघाट से बहने वाली घाघरा नदी की तरफ़ घोड़े से भागे।हिम्मत ख़ाँ ने उनको दौड़ा लिया। अपने घोड़े पर अज़मतशाह ने अपने बेटों महावत खाँ और इकराम ख़ाँ को बैठा रखा था।दूसरे घोड़े पर अज़मत के दरबारी कवि बलदेव मिश्र भी अज़मत के साथ भाग रहे थे। 

अज़मतशाह घोड़े समेत घाघरा में कूद गए। बलदेव मिश्र भी कूद पड़े। अज़मत तो डूबकर मर गए लेकिन महावत खाँ, इकराम ख़ाँ और बलदेव मिश्र बच गए।तीनों पकड़ लिए गए। लेकिन औरंगज़ेब ने माफ़ी दे दी और उसने अज़मत के पुत्र इकराम को आज़मगढ़ का इलाका सौंप दिया। अज़मत के साथ घाघरा में कूदे उनके दरबारी कवि बलदेव मिश्र ने लिखा है कि "सावन की सित सातमी, सन सन बहत समीर, साठ हाथ जल भीतर, अजमत तजै शरीर"।

आज़मगढ़ बसाने वाले आज़मशाह संगीत के प्रेमी थे, उन्होंने आज़मगढ़ के पास मिश्र लोगों का गांव हरिहरपुर बसाया। शहर में तमाम जातियों के लिए मोहल्ले बसाए। पूरे शहर को करीने से बसाकर बाज़ार बनवाए। अनाज का गोला बनवाया। आज़मगढ़ शहर को बाढ़ से बचाने के लिए बांध बनवाया जिसे आज़म बंधा कहा जाता है। जहाँ पुरानी जेल है वहाँ आज़मशाह का हाथी ख़ाना था।जहाँ सिविल लाइन है वहाँ आज़मशाह की फ़ौज रहती। सभाचंद्र मिश्र आज़म ख़ान के दरबारी कवि थे जिन्होंने 'काली चरित्र 'नाम का ग्रंथ लिखा है। बलदेव मिश्र अज़मत के दरबारी कवि थे। हरजू मिश्र, नीलकंठ मिश्र भी आज़मगढ़ के दरबारी कवि थे।

मेंहनगर समेत बाइस परगने मुग़ल बादशाह से पाने वाले अभिमन्यु सिंह से इब्राहीम दौलत ख़ान बने आज़मशाह के पूर्वज को बादशाह जहाँगीर से मिली 'राजा' सनद की जाँच एक बार ब्रिटिश दौर में आज़मगढ़ के ब्रिटिश मजिस्ट्रेट डब्ल्यू टी रोटेन्सन ने की थी और और अपनी रिपोर्ट फ़ोर्ट विलियम कलकत्ता भेजी थी,फिर आज़मगढ़ के कलेक्टर मिस्टर थॉमसन ने भी राजा की सनद की जाँच की।वजह कि आज़म शाह के वंशज चाहते थे कि ब्रिटिश सरकार भी उनको पूर्व राजा माने और राजा को मिलने वाली सुविधा दे। ब्रिटिश सरकार में राजा की पदवी विवादित ही रही, सरकार ने बड़ा मुस्लिम राजपूत ज़मींदार ही माना, लेकिन प्रजा सदियों तक आज़मशाह के ख़ानदान को राजा ही मानती रही।

आज़मशाह के परिवार के आख़िरी मशहूर सदस्य नैय्यरे आज़म थे, जो मेरे देखने में भी थे। आज़ादी बाद उन्होंने आज़मगढ़ से चुनाव भी लड़ा था। आज़म शाह का ख़ानदान आज़मगढ़ शहर के कोट मोहल्ले में रहता था, उनके निवास स्थान को क़िला कहा जाता था।नैय्यरे आज़म की पत्नी रानी साहिबा से मेरी डॉ.शारिक़ अहमद ख़ान की मुलाक़ात थी, एक बार सदी के शुरू के किसी बरस हम एक वरिष्ठ इतिहासकार संग राजा आज़मशाह के क़िले में इतिहास संबंधी शोध करने गए थे। इतिहासकार राजपूतों का इतिहास लिख रहे थे, क्योंकि आज़म शाह का ख़ानदान भी मुस्लिम राजपूत था जो हिंदू राजपूत से धर्मपरिवर्तित था, इसलिए राजपूत इतिहास के सिलसिले में इतिहासकार सिंह साहब वहाँ भी गए थे। बीते दशकों में रानी साहिबा के निधन के बाद अब आज़मशाह के वंशजों से क़िला ख़ाली हो चुका है। क़िले की काफ़ी ज़मीनें बिक गईं,वंशज देश के बड़े शहरों में जा बसे।ब्रिटिश दौर में ब्रिटिश हुक़ूमत ने आज़मगढ़ ज़िले का गज़ेटियर बनाया तो राजा आज़मशाह और उनके पुरखों समेत उनके वंशजों का इतिहास भी उसमें लिखा।हमने अपने आज़मगढ़ के शोध के दौरान गज़ेटियर से ही बहुत से तथ्य लिए।

इस तरह से एक प्रकार से देखा जाए तो राजा आज़मशाह ने औरंगज़ेब से बग़ावत की,औरंगज़ेब को कर नहीं दिया। औरंगज़ेब ने जब आज़म शाह को शिवाजी से संधि करने भेजा तो आज़म शाह ने शिवाजी को सहूलियतें दिलवा दीं।औरंगज़ेब ने इसी से नाराज़ हो आज़म शाह को क़ैद में डाल दिया,जहाँ यातना से उनकी मृत्यु हो गई।आज़म शाह के बाद आज़म शाह के भाई अज़मत राजा हुए और औरंगज़ेब की सेना से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। इस तरह से आज़मगढ़ बसाने वाले आज़म शाह और उनके भाई अज़मत ने औरंगज़ेब से बग़ावत की थी और फिर औरंगज़ेब के कोप का शिकार हुए।

पुराने संयुक्त आज़मगढ़ ज़िले में बहुत से कवि लेखक ऐसे भी हुए हैं जिनके बारे में आज गिनती के लोग ही जानते हैं। इनमें से कुछ के नाम जो मुझे मतलब डॉ.शारिक़ अहमद को याद आ रहे हैं वो ये हैं। सूफ़ी कवि नूर मुहम्मद जिन्होंने अनुराग बांसुरी, इंद्रावती, मृगावती की रचना की। सूफ़ी कवि जान साहब जिन्होंने अनवार-ए-सूफ़िया, नग़मात -ए-सूफ़िया की रचना की। आज़मगढ़ के ही पंडित बदरी नरायन चौधरी ' प्रेमधन और 'बाबा सुमेर सिंह 'शहज़ादे ' थे। पंडित शिव संपत, अयोध्या नरेश के दरबारी कवि भी आज़मगढ़ के थे। रामचरित तिवारी डुमरांव नरेश के दरबारी कवि, द्विज छोटकुन, अयोध्या सिंह उपाध्याय ' हरिऔध' पंडित राम चरित उपाध्याय राहुल सांकृत्यायन आचार्य चंद्रबली पाण्डेय शांति प्रिय द्विवेदी लक्ष्मी नारायण मिश्र, श्याम नरायण पाण्डेय, विश्वनाथ लाल शैदा,अल्लामा शिब्ली नोमानी, इकबाल अहमद ख़ान ' सुहैल ',कैफ़ी आज़मी,बिसराम,ईशदत्त पाण्डेय ' श्रीश ',सुलेमान नदवी जामी चिरैयाकोटी  डॉ. एहतेराम हुसैन ख़लील-उर -रहमान आज़मी,मौलाना वहीदुद्दीन ख़ाँ,शम्स-उर-रहमान फ़ारूक़ी  समेत और भी कई नाम हैं।

तो आज़मगढ़ आज़म शाह के समय से ही अन्याय के विरूद्ध तेवर रखने वाली ज़मीन रहा है।आज़म ख़ान और अज़मत ख़ान ने औरंगज़ेब को चुनौती दी।यहाँ की मिट्टी की दूसरी सिफ़त ये रही है कि ये सरज़मींं इल्म -ओ-अदब के मामले में हमेशा धनी रही है। आज़मगढ़ के बारे में आज़मगढ़ के शायर और ज़िले से कई बार विधायक रहे और राजनेता रहे इक़बाल सुहैल ने कहा है कि
   'यहाँ का ज़र्रा ज़र्रा जोशक़ौमी का अफ़साना है
   यहाँ सबके लबों पर मोहब्बत का तराना है
  ये ख़ित्ता सबसे आगे मुल्क पर क़ुर्बान होता है
  यहाँ का नौजवाँ ब्रिगेडियर उस्मान होता है
      इस ख़ित्ता-ए-आज़मगढ़ में मगर 
     फ़ैज़ाने तजल्ली है यकसर
जो ज़र्रा यहाँ से उठता है वो नैयरे आज़म होता है'
 
मेरे कैमरे से ली गई पहली तस्वीर में मेंहनगर का राजा इब्राहीम दौलत ख़ान का मक़बरा। दूसरी तस्वीर में मेरे कैमरे से राजा अय्यूब और कमरून्नियाँ की मोहब्बत की यादगार मक़बरा। मेरे कैमरे की तीसरी और अन्य तस्वीरों में आज़मगढ़ बसाने वाले राजा आज़म शाह का मक़बरा और उनके परिवार की क़ब्रों समेत मक़बरे के आसपास का मंज़र।

डॉ. शारिक़ अहमद ख़ान

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