जोश अब आजादी के आंदोलन से जुड़ चुके थे।उस समय स्वाधीनता आंदोलन की मुख्य धारा इंडियन नेशनल कांग्रेस थी। हर साल इसके अधिवेशन में देश के लगभग सभी बड़े नेता शिरकत करते थे और आजादी के आंदोलन की रूपरेखा बनाई जाती थी और फिर उस पर अमल होता था। ऐसे ही एक अधिवेशन में, जोश साहब ने भी भाग लिया था जिसका विवरण आप पिछले अंश में पढ़ चुके है। इस अंश में जोश की, गांधी जी और रवींद्रनाथ टैगोर से मुलाकातों का जिक्र है। जोश ने बेहद रोचक शैली में दोनो महान व्यक्तियों से अपनी मुलाकात का जिक्र किया है। गांधी के व्यक्तित्व ने जोश को प्रभावित भी किया तो टैगोर की प्रतिभा और शांतिनिकेतन की सुरम्यता ने जोश पर अपना असर छोड़ा। जोश की आत्मकथा का यह अंश साल 1918 का है और वे कांग्रेस अधिवेशन और खिलाफत आन्दोलन के सम्मेलन का उल्लेख करते हैं।
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० राष्ट्रीय आंदोलन से लगाव
यह घटना शायद 1918 की है कि सबसे पहले मुहम्मद मुस्तकीम ने मुझे गाँधीजी की शख्सियत और तहरीके-आजादी की अहमियत से आगाह करके कांग्रेस के सालाना इजलास में शरीक होने के वास्ते अहमदाबाद भेजा था। मैं शाम के वक्त अहमदाबाद पहुंचा। एक कैम्प में जाकर ठहर गया। थका मांदा था, खाना खाकर सो गया। पिछले पहर यह सपना देख ही रहा था कि मैं तख़्ते-सुलेमान पर बैठा उड़ रहा हूँ कि मेरा कैम्प तानों से गूंजने लगा। आँख खुल गई. घड़ी देखी। सवा चार का वक्त था। उठकर बाहर आ गया।
देखा कि मेरे कैम्पों के शहर पर सलोनी-सी गुलाबी रोशनी बरस रही है और सैकड़ों सुन्दर गुजराती लड़कियाँ, पतली-पतली कमरों में सुखं पट्टिया बांधे और हाथों में शमए उठाए क़ौमी तराने गा रही हैं और पूरी दुनिया छम छम नाच रही है।
में सुबह होते मौलाना अबुलकलाम आजाद के पास पहुँचा। उन्होंने हंसकर कहा, "मलीहाबाद में जो लतीफा आपने सुनाया था, आज तक उसका मज़ा ले रहा हूँ।"
० महात्मा गाँधी से पहली मुलाक़ात
मौलाना आजाद के साथ गाँधीजी से मिला। उनकी सूरत ने मेरे सौंदर्य बोध के मुंह पर तड़ाक से थप्पड़ मार दिया। मेरे दिल में उस वक्त यह बात आई कि इस कदर टूटे हुए जिस्म और इस कदर बिगड़े हुए चेहरे का आदमी दुनिया में कर ही क्या सकता है ? हिन्दुस्तान की आज़ादी और गांधी ? यह मुंह और मसूर की दाल निराशा ने मुझे ढाक लिया।
लेकिन जब विभिन्न समस्याओं पर उन्होंने अपनी जबान खोली तो उनकी राय और उनके लहजे की परिपक्वता और दृढ़ता ने यकीन दिला दिया कि हिन्दुस्तान को जिस मर्दे मैदान का इंतज़ार था, यह आ गया है। अब हमारे दिन बहुर जाएंगे। गांधीजी के पास पंडित मोतीलाल की साहबजादी विजयलक्ष्मी सर झुकाए हुए बैठी थीं। उस वक्त तक मैंने उदास हुस्न देखा नहीं था। मेरा दिल काँप उठा और इस सोच में पड़ गया कि अगर सैयद हुसैन के साथ उनकी शादी हो जाती तो कौन-सी कयामत आ जाती। हम सब छुटभैये हैं। आजादी के बाद भी हम कुत्तों की तरह लड़ते और एक-दूसरे को भबोड़ते रहेंगे।
इतने में मौलाना मुहम्मद अली, मौलाना शौकत अली, मौलाना आज़ाद, सुबहानी और पंडित नेहरू आ गए। नेहरू ने मुझे गले लगा लिया और मुझे वह जमाना याद आ गया जब में लड़कपन में अपने बाप के साथ उनके बाप के मकान में ठहरा और वहाँ सबसे पहले उन्हें देखा था। उस वक्त वह भी क़यामत थे और में भी।
इसके बाद हम सब पंडाल जाने के लिए बाहर आए। अल्लाह अल्लाह, वो हिन्दू-मुस्लिम इतहाद का वह जोशोखरोश यह कौसरो-गंगा की मौजे कंधे दर कंधे आँखों में वे इरादों के होकते भवर, वे सूरमाओं के गरजते शबाब ये गुजराती वालंटियर लड़कियों के जोशीले गीत, वह पोत की रीत, वह उमंगों का जोर, वह तरंगों का शोर, वह बहादुरों की सजधज वह नारों की गूँज गरज, यह तमन्नाओं के तूफान, वे लौ देते अरमान ऐसा मालूम ही रहा था कि हिन्दुस्तान की जमीन आसमानों की तरफ हुमक रही है। हर तरफ एक बिजली है कि लपक रही है। फ़िरंगी खड़े सीना कूट रहे हैं, हुकूमत के गुरूर के शीशे छनाछन टूट रहे हैं। तूफ़ान बनकर आ रहा है स्वराज और हिन्दुस्तान के नंगे सर नौजवानों के क़दमों की तरफ बहता चला आ रहा है बरतानिया का ताज।
कांग्रेस पंडाल में क़दम रखा, लोगों के जोशोखरोश को देखा और खून मेरे बदन में तीन करोड़ मील प्रति क्षण की रफ्तार से गरदिश करने लगा।
० ख़िलाफ़त कमेटी का इजलास
रात के वक्त जब खिलाफत कमेटी के इजलास में शरीक होने के लिए पंडाल के पीछे से गुजरने लगा (जहाँ रोशनी और आवाजाही कम थी तो मैंने एक वालंटियर लड़की का दीवानावार बोसा ले लिया और मेरे बोसा लेते ही पंडाल से आवाज़ बुलंद हुई नसरे मिन अल्लाह व फ़तह करीब।
मैंने इस नारे को बहुत अच्छा शगुन समझा। थोड़ी देर बाद खिलाफ़त के पंडाल में आ गया। देखा कि मौलाना हसरत मोहानी और महात्मा गाँधी के दरमियान बड़ी रस्साकशी हो रही है। एक तरफ गांधीजी और उनके दूसरे साथी इस बात पर अड़े हैं कि अभी ब्रिटिश राज के भीतर स्वराज की माँग की जाए और दूसरी तरफ़ फकत मौलाना हसरत मोहानी है जो मुकम्मिल आजादी का प्रस्ताव पास कराना चाह रहे हैं।
हज़रत हसरत मोहानी को सबने लाख लाख समझाया। लेकिन वह नहीं माने और सीधे स्टेज की ओर चल पड़ देकर अपना मुकम्मिल आज़ादी का प्रस्ताव लेकर स्टेज ऊंचा था और हसरत ठिगने कद के आदमी थे। मैंने सहारा देकर उन्हें स्टेज पर पहुँचा दिया और जब उन्होंने अपना प्रस्ताव पेश किया तो पंडाल में हंगामा बरपा हो गया। में इस हंगामे से ऊबकर उस वालंटियर लड़की के पास पहुँच गया, जो पंडाल के पीछे मेरा इंतज़ार कर रही थी।
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इसके बाद जोश अहमदाबाद से वापस आते समय, रास्ते में अजमेर उतर गए और वहां, सूफी संत, ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर दर्शन करके वापस आ गए। तब तक जोश साहब का ठिकाना मलीहाबाद के बजाय लखनऊ हो चुका था। मलीहाबाद कम ही आना जाना होता था। ताल्लुकदारी पर भी देखभाल न करने के कारण असर पड़ रहा था। शायरी तो उनकी परवान चढ़ ही रही थी। इसी बीच सरोजनी नगर ने जोश की कुछ कविताओं का अनुवाद, किया और उन्हीं में से कुछ अनुदित कविताएं, सरोजनी नायडू ने, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को भी सुनाया। इसी बीच, टैगोर का लखनऊ आना हुआ तो जोश उनसे मिलने का लोभ संवरण नहीं कर पाए। अब जोश के ही शब्दों में, टैगोर से उनकी मुलाकात का किस्सा सुनें...
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अजमेर से पलटकर जब लखनऊ पहुँचा तो गलगला सुना कि टैगोर आए है। उनसे मिलने गया। उन्होंने मुझे सर से पाँव तक देखने के बाद अंग्रेजी में पूछा, "क्या यह बात सच है कि मैं। एक नौजवान शायर के चेहरे को देख रहा हूँ? मैंने सर झुकाकर अंग्रेजी में जवाब दिया, "शायद!" उन्होंने मेरा नाम पूछा। जब मैंने अपना तखल्लुस बताया तो उन्होंने बड़े तपाक से हाथ मिलाया और कहा, "यह अजीब इतफ़ाक है कि कल ही सरोजिनी नायडू। ने आपकी एक नज्म तुलए सहर (सूर्योदय) का अनुवाद सुनाया और आज आपसे मुलाकात हो गई। आपकी नज्म लाजवाब है।
इसके बाद उन्होंने बताया कि "मेरे बाप फारसी के बड़े स्कॉलर थे और दीवाने हाफिज उनके सिरहाने रखा रहता था।"
जब में रुखसत होने लगा तो उन्होंने कहा, "क्या यह मुमकिन नहीं कि आप शान्ति निकेतन आकर कुछ रोज के लिए मेरे साथ रहें और हाफ़िज़ की स्पिरिट से मुझे बखूबी आगाह कर दें?" मैंने बड़ी खुशी के साथ उनकी दायत कबूल कर लो और जुगनू खिदमतगार को लेकर वहाँ पहुंच गया और पढ़ने के लिए बहुत- सी किताबें भी साथ ले गया।
वहाँ की जिन्दगी बड़ी सादा थी। लेकिन गोश्त यहाँ नहीं खाया जा सकता था। इसकी तकलीफ जरूर थी। फिर भी जुगनू चोरी छिपे गोश्त का इन्तजाम कर दिया करता था।
लड़के और लड़कियों के मेलजोल के मामले में टैगोर कितने विशाल हृदय थे इसका अंदाजा इस घटना से किया जा सकता है कि एक दिन किसी बूढ़े प्रोफेसर ने आकर जब एक लड़की और एक लड़के के बीच हद से ज्यादा सम्बन्धों की शिकायत की तो उन्होंने उससे पूछा, "यह सूरत अत्याचार से पैदा हुई है?":जब उस प्रोफेसर ने बताया कि "इसमें अत्याचार का कोई दखल नहीं", तो टैगोर ने कहकहा मारकर कहा, "तो फिर इसमें एतराज की बात ही क्या है, कुदरत के तकाजों पर बन्द बांधना मानव स्वभाव के खिलाफ नाइंसाफी ही नहीं, बग़ावत भी है।" (यह बात सुनकर मैं भी लड़कियों के साथ खुलकर मिलने-जुलने लगा।)
मैं चाहे सूफीवाद के दायरे से निकलकर भौतिक चिंतन की और आहिस्तगी से बढ़ रहा था, पर इसके बावजूद टैगोर की शायरी मुझे बहुत प्रभावित किया करती थी। में उनके अनुवाद पढ़ पढ़कर सर धुनता था। अब भी मेरे दिल में यह चोर है कि कभी-कभी सुफियाना शायरी पर में झूम उठता है। कारण इसका शायद यह है कि शायर किसी मंजिल पर भी खुश्क और खुरदरा
फलसफी नहीं बन सकता। अगर में बंगाली जबान से वाकिफ होता तो टैगोर की शायरी को बंगालियों की तरह समझ सकता। लेकिन मुझे इसका बेहद आसोस है कि मैंने उनकी शायरी का अंग्रेजी अनुवादों के माध्यम से पढ़ा और बंगालियों की तरह समझ नहीं सका।
टैगोर विशाल हृदय, विनोदप्रिय, भले, हमसे ज्यादा बेतकल्लुफ भावुक और हुस्नपरस्त इन्सान थे। लेकिन एक चीज उनमें ऐसी थी जो मेरे दिल में खटका करती थी और यह थी उनकी दिखावे की आदत मैंने हमेशा इस बात को बुरी नजर से देखा कि जब कोई विदेशी उनसे मिलने आता था तो उसके आने से पहले यह बन संवरकर एक खास मुकाम पर बैठ जाते थे। धूपदान उनके पीछे सुलगा दिया जाता था और यह रूपवती कन्याओं को अपने इर्द-गिर्द खड़ा करके यों इन्टरव्यू दिया करते थे कि आनेवाले को यह गुमान होने लगे कि मैं, किसी रहस्यमय देवता को देख रहा हूँ।
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(क्रमशः)
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh
जोश मलीहाबादी की आत्मकथा - यादों की बारात के अंश (6) गांधी के आंदोलन के पहले, देश और समाज के हालात
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/06/6.html
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