Thursday, 8 June 2023

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा - यादों की बारात का अंश (5) एम.ए.ओ कॉलेज, अलीगढ़ मे दाखिला और फिर वहां से बर्खास्तगी / विजय शंकर सिंह

जोश मलीहाबादी की प्रारंभिक शिक्षा, पहले उनके घर पर, फिर, सीतापुर के एक अंग्रेजी स्कूल में, फिर लखनऊ के एक अंग्रेजी स्कूल में, और वहां से फिर उनका नाम लिखवा दिया गया, अलीगढ़ के एंग्लो मुस्लिम एंग्लो ओरिएण्टल कॉलेज में। पर उनकी शिक्षा यहां भी पूरी नहीं हुई और कुछ ऐसा हो गया कि, उन्हें अलीगढ़ के एम.ए.ओ. कॉलेज से उन्हें निकाल दिया गया। मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज की स्थापना सर सैयद अहमद खान द्वारा 1877 में की गई थी, जो बाद में 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के रूप में विकसित हो गया। सर सैयद अहमद खान 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के विफल होने के परिणाम स्वरूप हिन्दुस्तानियों विशेष रूप से मुसलमानों के शैक्षिक सशक्तिकरण के प्रति चिन्तित रहते थे। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला था कि केवल आधुनिक अंग्रेजी एवं विज्ञान की शिक्षा के द्वारा की मुसलमान प्रगति पथ पर आगे बढ़ सकते हैं। मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज (एम॰ए॰ओ॰ कॉलेज) की स्थापना से पूर्व सर सैयद ने इग्लैण्ड भ्रमण किया तथा वहाँ कैम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड जैसे विश्वविद्ययों के संचालन को करीब से देखा। उन्होंने भारत में भी मुसलमानों को शिक्षित करने के लिए कैम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड के तर्ज पर एक विश्वविद्यालय का सपना देखा। उसी सपने को साकार करने के लिए सर सैयद ने 8 जनवरी, 1877 में एम॰ए॰ओ॰ कॉलेज की स्थापना की।

सर सैयद ने एम॰ए॰ओ॰ कॉलेज की स्थपना मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा मिले, इस उद्देश्य के लिए अवश्य की थी परन्तु उन्होंने इसके द्वार प्रत्येक धर्म और जाति के लोगों के लिए भी खुले रखे थे। 03 फरवरी 1884 को लाहौर में दिए गए एक भाषण में सर सैयद ने कहा ‘‘मुझे अफसोस होगा यदि कोई यह समझता है कि मैंने एम॰ए॰ओ॰ कॉलेज की स्थापना केवल मुसलमानों के लिए की है, जो कि मुसलमानों और हिन्दुओं के बीच भेदभाव होगा। इस शैक्षिक संस्थान की स्थापना का मुख्य उद्देश्य मुसलमानों को उनकी दयनीय दशा से निकालना है और मुझे विश्वास है कि आप सब सहमत होंगे कि मुसलमानों की स्थिति लगातार गिरती जा रही है। उनकी धार्मिक अन्धता ने उन्हें विज्ञान की शिक्षा से दूर रखा और वे सरकार द्वारा स्थापित स्कूलों और कॉलेजों का लाभ उठाने से वंचित रहे और इसलिए यह आवश्यक हो गया कि उनके लिए शिक्षा के विशेष प्रबन्ध किए जाए। उन्होंने कहा कि कॉलेज में हिन्दू और मुसलमानों दोनों को बराबर की तथा बिना भेदभाव की शिक्षा प्रदान की जाए। दोनों में कोई भी भेदभाव नहीं होगा।’’ सर सैयद का उक्त भाषण एम॰ए॰ओ॰ काॅलेज के पूरे दर्शन को उजागर करता है और आज भी अमुवि के दरवाजें प्रत्येक धर्म जाति और क्षेत्र के छात्र-छात्राओं के लिए खुले हैं।
 
लेकिन, एम.ए.ओ. कॉलेज अलीगढ़ और उसके संस्थापक सर सैयद अहमद खान के बारे में जोश साहब की राय बहुत दिलचस्प और बेबाक है। यह रोचक विवरण उन्हीं के शब्दों में पढ़िए।

"एम.ए.ओ. कॉलेज, यानी मुहम्मडन एंग्लो ओरियंटल कॉलेज यह मुसलमानों को गैर इस्लामी खिताब देने वाला गुलामान अंग्रेजी नाम उस कॉलेज की बानी उन सैयद अहमद खाँ (जिनके भेजे में सर' का हिन्दुस्तान दुश्मन खिताब अपना आशियाँ बना चुका था) ने अपनी जहनियत के उसे तोशाए-ज़बू से तराशा था जिससे हुल्ये वतन के पहाड़ काटे जाते हैं और इशरतादा-परवेज की तरफ जूए-शीर (दूध की नदी) लाई जाती है। दरअस्ल अलीगढ़ तहरीक उठाई ही गई थी। इस गरज से कि मुसलमानों को 1857 की जंगे आज़ादी से बेताल्लुक करक यह साबित कर दिया जाए कि मुसलमान का दिल मुख्ये बतनी की सी जलील चीज से कतई आलूदा नहीं है। मुसलमान को पेट पालने की खातिर सिर्फ इस कदर तालीम दी जाए कि वह बाबू या डेप्यूटी कलक्टर बनकर बड़ा बाबू बन सके. अपनी जबान भूलकर अंग्रेजी में इतना डूब जाए कि अंग्रेजी ही में सोचे और अंग्रेजी ही में या देखे यह पश्चिमी रंग अख्तियार करके अपनी जवान, अदब रवायत (परम्परा) और सांस्कृतिक विरासत को जलील और यहाँ तक कि अपने बाप-दादा को अहमक समझने लगे और इसका नतीजा यह कि ब्रिटिश हुकूमत की जड़ें जम गई। इसमें शक नहीं कि इससे थोड़ा-सा लाभ पर हानि ज्यादा हुई।" 

जोश स्वभाव से अक्खड़ और जिद्दी लगते है। अलीगढ़ में भी उनका पढ़ाई लिखाई में मन नहीं लगता था। वहां भी उनके नए और हममिजाज़ दोस्त, जो रामपुर के थे, मिल गए जिनके साथ, खूब गुजरेगी जब मिल बैठेंगे दीवाने दो, जैसे सखाभाव से खूब निभी। जोश का मानसिक रुझान उस समय देश मे चल रहे आज़ादी के आंदोलन की तरफ था। वे बाद में आज़ादी के आंदोलन से जुड़े भी। पर उनका यह जुड़ाव, बहुत सक्रिय भी नहीं था, पर आजादी आंदोलन के शीर्षस्थ नेताओं, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, सरोजनी नायडू आदि से उनकी निकटता रही। फिलहाल तो यह किस्सा पढ़े, जो उनके अलीगढ़ कॉलेज में उनके दाखिले और फिर वहां से रुखसती का है।
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एक बार जब हम पाँचों लड़के यानी अब्बास अली, मुहसनउल्लाह, अब्दुल जलील और में सालाना इम्तहान में पास हो गए तो हम लोगों में यह मिस्कीट हुई कि पास होने की ख़ुशी में आगर जाकर दिवाली देखें।

लेकिन इस अय्याशी के वास्ते रुपया कहाँ से आए? और छुट्टी कैसे मिले? यह बड़ा टेढा सवाल था। अब्यास अली ने मशविरा दिया कि हम सब अपने-अपने बापों को खत लिखकर पास हो जाने की खुशखबरी सुनाएँ और नये कोर्स की किताबों की गलत सलत और लम्बी-चौड़ी फेहरिस्त भेजकर पाँच-पाँच सौ  रुपये मंगवाएं। यह तजवीज पंचों ने बहुत पसंद की। 

मुझे खत लिखे जब छह-सात रोज हो गए तो एक दिन देखा कि दारोगा उम्मीदअली चले आ रहे हैं। उन्हें देखते ही मेरा माथा ठनका हो न हो दाल में कुछ काला जरूर है। मैंने सलाम किया, सबकी ख़ैरियत पूछी और उनके आने का सबब दरियाफ़्त किया। उन्होंने कहा "खाँ साहब (जोश के पिता) मनीऑर्डर कर रहे थे, मगर बड़े भैया ने कहा कि रकम किसी के हाथ सीधा हेड मास्टर के पास भेज दिया जाए। मैं सन्न होकर रह गया, लेकिन चेहरे से परेशानी जाहिर नहीं होने दी और मुहसनउल्लाह के पास जाकर जो इस वक्त जलील के कमरे में गए हुए थे, सारा माजरा बयान कर दिया। मुहसन थोड़ी देर गौर करने के बाद आईना देखने लगे। मैंने कहा "माशा अल्लाह में मुसीबत में घिरा हुआ हूँ और तुम आईना देख रहे हो।" उन्होंने मुस्कुराकर कहा, "तुम्हारी मुश्किल हल करने के लिए ही आईना देख रहा है।" मैने कहा, "यह क्या बकवास कर रहे हो?" उन्होंने कहा, "तुम तो चुपद हो । मेरी बात समझ ही नहीं रहे है। मैं आइने में यह देख रहा हूँ कि में अंग्रेज़ों की तरह गोरा चिट्टा हूँ और तुम्हारी खुशकिस्मती से मेरी आँखें भी अंग्रेजों की तरह करंजी है।" उन्होंने कहा, “तुम भी कितनी मोटी अक्ल के आदमी हो जाओ कमरे से मेरा काला सूट, मेरा बूट, टाई और हैट ले आओ; मगर इस तरह कि कोई देख न पाए। मैन पूछा- क्यों?" उन्होंने होंठ पर अंगुली रखकर कहा, "खामोश, वक्त जाया न करो। जो चीजें मैने कही हैं जल्दी से ला दो। में उनका सब सामान ले आया। उन्होंने जल्दी जल्दी सूट पहना और सर पर हैट लगाकर कहा, आओ मेरे साथ में सिटपिटा सा गया और उनके साथ हो लिया। यह सीधे हेड मास्टर के कमरे के बरामदे में दाखिल हो गए और हेड मास्टर के चपरासी से कहा, "हम इस वक़्त एक मज़ाक करने आए हैं। अभी हैड मास्टर के आने में आध घंटा बाकी है। तुम मुझको इजाजत दो कि मैं हेड मास्टर की कुर्सी पर बैठ जाऊ और जब शब्बीर एक आदमी को अपने साथ लेकर यहाँ आए तो उसे दरवाजे पर रोककर मेरे पास आजो फिर कमरे से बाहर निकलकर उस जादमी से कहो, चलिए साहब बहादुर के पास"। मुहसन ने चपरासी के हाथ पर पांच रुपये रख दिए और वह हेड मास्टर की कुर्सी पर जा बैठे। मैं दौड़ता हुआ मुमताज़ हाउस गया और दारोगा साहब को लेकर आ गया। चपरासी ने हिदायत के मुताबिक अन्दर जाकर सूचना दी और बाहर निकलकर दारोगा साहब से कहा, "चलो साहब बहादुर के पास। "

दारोगा साहब ने हैड मास्टर को सलाम किया और जेब से किताबों की फेहरिस्त और पाँच सौ के नोट निकालकर है, मास्टर की मेज पर रख दिए और पूछा, "हुजूर! इस रकम में कोई कमी बेशी तो नहीं होगी?" हेड मास्टर ने कहा, "वेल, यह क्रम एकदम बराबर है। अच्छा, खान साहब से हमारा सलाम बोलना -अब आप जाइए।"

दारोगा उम्मीद अली सलाम करके मेरे साथ बाहर निकल आए।

अलीगढ़ में बड़ी धूमधाम से हर साल नुमाइश हुआ करती थी। एक रात को जब हम पेशावरी पराठे, कबाब और खोरजे की चटनी खाकर निकले तो हमारी चंडाल चौकड़ी एक चाकू छुरी बेचनेवाले की दुकान के सामने जा खड़ी हुई। नुमाइश की तेज रोशनी में छुट्टियाँ और चाकू ऐसे जगमग हो रहे थे कि मेरा जी चाहा, मैं उन्हें बढ़कर सीने से लगा लूँ। मैंने पठान दुकानदार से पूछा तो उसने कहा, "एक रुपया चार आना मुहसन ने कहा, नहीं, दस आना पठान बोला, "नाई, एक रुपया चार आना। खुशी चाहे टेक (Take), खुशी चाहे तो न टेक।"

इन आवाजों को सुनकर कॉलेज के दूसरे लड़के भी उसी तरफ आ गए और थट के थट लग गए दुकान के सामने। मुहसन ने कहा, "दस आना, दस आना" पठान ने फिर वही जवाब दिया, "एक रुपया चार आना। खुशी चाहे टेक, खुशी चाहे न टेक।" यह सुनकर मुहसन चिढ़ गए और तमाम लड़कों से इशारा करके कहा, "गाज़ियो, बढ़ो, टूट पड़ो और लूट लो माले गनीमत को।" यह दावते आम सुनकर टूट पड़े लड़के छुरियों-चाकुओं पर पठान झपटा। लड़कों ने उसे दबोच लिया और लुटने लगी दुकान धड़ाधड़ पठान ने पुलिस पुलिस पुलिस, चिल्लाना शुरू कर दिया। पुलिसवाले झपट पड़े। हमने छुरियाँ तान लीं। वे ठिठक गए। इतने में एक शामत का मारा अंग्रेज पुलिस अफसर मोटरसाइकिल पर बैठा इधर आ गया। जब उसने मोटर साइकिल से एक पैर नीचे उतारकर हमें डाटना शुरू किया तो टूट पड़े हम सब उस पर और इतना पीटा कि वह बेहोश होकर गिर पड़ा। हम सब के सब माले गनीमत लिए और खुशी चाहे टेक, खुशी चाहे न टेक' के नारे लगाते यहाँ से भागकर कॉलेज में आ गए।

एक रोज़ मेरे एक लखनवी दोस्त और मेरे दोस्त प्रिंस मिज़ों आलमगीर क़दर का भाई जहाँगीर क़दर हमारे पास आया फरियादी बनकर कहने लगा, “शब्बीर साहब, एक फर्स्ट ईयर फूल लड़का फ़ज़ले इलाही है। वह साला अपने हुस्न पर इस कदर मगरूर है कि सीधे मुँह बात ही नहीं करता। पुट्ठे पर हाथ ही नहीं रखने देता। तुम्हारी पार्टी माशाअल्लाह बड़ी तगड़ी है। उसे नीचा दिखाओ तो मैं तुम्हारा गुलाम हो जाऊँ।' 

हमारी पार्टी लंगर लंगोटे कसकर जहाँगीर क़दर की मदद के वास्ते आमादा हो गई। इतवार के दिन जहाँगीर क़दर को दूल्हा बनाकर और हार-फूल, दुपट्टा, नकली दादी और ढोलक लेकर हम दस-पन्द्रह लड़के बरातियों की तरह कच्ची पार्क पहुंचकर फ़ज़ल इलाही के कमरे में 'मुबारकबाद, मुबारकबाद मुबारकबाद' के नारों के साथ दरांना घुस पड़े। फज़ले इलाही ने नारा लगाया, जिसके मुतअल्लिक सारी दुनिया एक तरफ, 'फज़ले इलाही एक तरफ' का गलाला हर तरफ बुलन्द था, तेवरियों पर बल डालकर कहा, "मैंने तो आप लोगों को नहीं बुलाया था?" जलील ने कहा, दुल्हनें भी किसी को बुलाया करती हैं, जानिया? हम जहाँगीर क़दर दूल्हा से तुम्हारा निकाह पढ़ाने आए हैं।"

उस लड़के ने कोशिश की भाग निकलने की हमारे साथियों ने उसे पकड़ लिया, दुपट्टा उसके सर पर डाल दिया। जहाँगीर कदर को हार-फूल पहनाए, जलील ने जेब से नकली दादी निकालकर मुँह पर लगा ली और काजी बनकर उस लौंडे का जहाँगीर क़दर से निकाह पढ़ा दिया। साथियों ने ढोलक बजा बजाकर ऊँचे स्वरों में शादियाने गाने शुरू कर दिए। बरामदे में मेला सा लग गया और हर तरफ कहेकहे गूंजने लगे। 

इतने में किसी ने यह देखकर कि, हैड मास्टर राउंड लगाता चला आ रहा है, हमें आगाह कर दिया। हम सब डरे हुए हिरनों की मानिंद भाग खड़े हुए और दूल्हा मियाँ अभी उठ ही रहे थे कि हैड मास्टर सर पर आ पहुंचा। फजले इलाही ने उससे फरियाद की। उसने जहांगीर क़दर से पूछा, "तुम कौन हो?" जहांगीर क़दर की जबान से घबराहट में निकल गया, Sir, I am bridegroom (जनाब, मैं दूल्हा है।) हेड मास्टर ने 'वेल मिस्टर ब्राइटग्रूम, बेल मिस्टर ब्राइटग्रूम' कह कहकर उसे बैतों पर घर लिया। 

बराती तो साफ बचकर निकल गए और बेचारे ब्राइटग्रूम साहब पिट गए। इस वाकये के एक हफ्ते के अंदर हम तीनों लड़कों यानी मुहसनुल्लाह खां, अब्दुल जलील खाँ और आगे चलकर हज़रत जोश मलीहाबादी बनने वाले शब्बीर हसन खा को भी स्कूल से निकाल दिया गया, 
बहुत बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले।
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(क्रमशः) 

विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh

'जोश मलीहाबादी की आत्मकथा - यादों की बारात का अंश (4) जोश का पहला मुशायरा और मुशायरे का इतिहास. 

http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/06/4.html

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