हाल ही में, खबर आ रही है कि, केदारनाथ के गर्भगृह की दीवारों पर मढ़ा गया सोना, सोना है ही नहीं। वह पीतल है। यह आरोप भी स्थानीय लोगों ने ही लगाया है। इस आरोप पर जांच की मांग की गई। और अब भी आरोप लगाने वाला, आरोपों पर कायम है। इस पर बद्री केदार मंदिर समिति ने, एक बयान जारी कर कहा कि, वहां सोना ही लगाया गया है, पीतल नहीं। यह बयान समिति से अपेक्षित भी था और बयान आया भी।
पर मूल प्रश्न है, इस आरोप की जांच के बाद, यह विज्ञप्ति जारी की गई या यह विज्ञप्ति आरोप लगते ही जारी कर दी गई। आरोप लगाने वाले से तो कम से कम यह पूछा जाता कि, उनके आरोप का आधार क्या है। आखिर भ्रष्टाचार कोई ऐसा कृत्य तो है नहीं, गर्भगृह में ऐसा घपला नहीं हो सकता है।
इसके पहले उज्जैन के, महाकाल लोक में आंधी से शिव सहित सप्तऋषियों में से 6 ऋषियों की मूर्तियां, ध्वस्त होकर भूलूंठित्त हो गई। महाकाल लोक के निर्माण में भ्रष्टाचार का आरोप लगा। यह भी कहा गया कि, एक जांच भी, महाकाल लोक में हुए निर्माण में भ्रष्टाचार और अनियमितता के, आरोपों की चल रही थी, तब कहा गया कि, असली मूर्तियां तो पत्थर की लगने वाली हैं, जो अभी बन रही हैं। तब तक के लिए, चूंकि, उद्घाटन के लिए जल्दी की जा रही थी तो, फाइबर के शिव और सप्तर्षि खड़े कर दिए गए। इसमें भी साठ प्रतिशत से अधिक के कमीशन की बात की उठी है।
लेकिन यह बात, उद्घाटन के समय, तब नहीं बताई गई कि, यह मूर्तियां, नकली हैं, और उद्घाटन के लिए आतुर महानुभाव की आतुरता के शमन के लिए तैयार कर खड़ी कर दी गई हैं और असल प्रतिमाएं, पत्थर की कहीं बन रही हैं, बाद में लगेंगी। उद्घाटनोत्सुक महानुभाव का मन, मलिन नहीं होना चाहिए, शिव और ऋषिगण भले ही आंधी में भूलूंठित हो जाय। इस मामले में भी, भ्रष्टाचार के आरोप लगे, अखबारों में भी खबरें छपी पर, महाकाल लोक के प्रबंधन ने भी इस मामले में फिलहाल भ्रष्टाचार के आरोप से इंकार कर दिया।
अब एक और मामला है अयोध्या का। अयोध्या में राम मंदिर के निर्णय के बाद, मंदिर बनना शुरू हुआ है। लेकिन, साथ ही भूमि घोटाले की खबरें भी आने लगीं। महत्वपूर्ण लोगों द्वारा जमीनों के दाम, मनमाफिक रेट पर, मनमर्जी से तय करके खरीदे जाने लगे। ट्रस्ट के सचिव चंपतराय का भी इन घोटालों में आया। यह मामला संसद में भी उठा। पर इसपर भी ट्रस्ट ने एक खंडन जारी कर दिया। अब क्या स्थिति है, कोई मित्र बता सकें तो बताएं।
देश में भ्रष्टाचार के मामले में, निर्णायक अदालती लड़ाई लड़ने वाले, मथुरा के वरिष्ठ पत्रकार विनीत नारायण ने, मथुरा, वृंदावन, गोवर्धन के अनेक तीर्थों पर निर्माण कार्यों में हुए भ्रष्टाचार पर, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से लेकर विभिन्न सक्षम अधिकारियों को पत्र लिखे, सोशल मीडिया में भी आवाज उठाई, पर इस मामले में भी कुछ नहीं हुआ। न तो जांच, न पड़ताल, न पूछताछ और न हो कोई परिणाम सामने आया।
फिलहाल तो अभी यही कुछ मामले हैं, पर इन तीनों मामलों में आरोप पर, कोई जांच कराकर, उसका समाधान करने के बजाय, इन्ही संस्थाओं के ही बयानों और विज्ञप्ति जारी कराकर, यह घोषणा कर दिया कि, शिव और राम से जुड़ी इन परियोजनाओं में कोई भ्रष्टाचार नहीं है। जैसे ही यह बयान आया, इसे ही देव वाक्य मान लिया गया और इस तरह के भ्रष्टाचार पर सवाल उठाने वालों की ही मंशा पर सवाल उठाए जाने लगे। मैने तीर्थों में भ्रष्टाचार का उल्लेख इसलिए किया है कि, यह सरकार और सत्तारूढ़ दल, धार्मिक मामलों में अपना एकाधिकार समझते हैं।
पिछले नौ सालों में न्यायशास्त्र या साक्ष्य दर्शन पर एक नई परंपरा विकसित की जाने लगी है। आरोपों पर किसी भी प्रकार की कोई जांच कराने के बजाय, आरोपित के ही कथन या पक्ष लेकर, उसी के आधार पर, यह निष्कर्ष निकाल लिया जाता है कि, सबकुछ ठीक है और इसे ही क्लीन चिट कह कर, ढिढोरा पीट दिया जाता है। पहले यह टेक्निक राजनीतिक भ्रष्टाचार जैसे, राफेल और मोदी अडानी रिश्तों के संदर्भ में अपनाई गई, अब यही तकनीक देवस्थान पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों पर अपनाई जा रही है।
भाजपा की रणनीति स्पष्ट है कि, आरोपों पर कोई जांच कराने के बजाय, आरोप इंगित करने वालों को ही घेरे में लिया जाय, उन्हे ट्रोल किया जाय, उन्हे हतोत्साहित किया जाय और, फिर जनता में यह मिथ्या धारणा फैला दी जाय कि, आरोप, दुर्भावना से लगाए गए हैं। इसका सबसे ताजा उदाहरण है, आरएसएस के राम माधव द्वारा ₹300 करोड़ की दलाली करने का आरोप, जिसमें, राम माधव के खिलाफ जांच एजेंसियों ने कुछ किया या नहीं, यह नहीं पता, पर पूछताछ, ऐसा आरोप लगाने वाले जम्मू कश्मीर के पूर्व गवर्नर सत्यपाल मलिक और उनके स्टाफ से जरूर होने लगी।
ताजा मामला कर्नाटक का है। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री और बीजेपी नेता, अब पूर्व बीजेपी सरकार के सीएम, जिनपर 40% कमीशन लेकर कार्य कराने का आरोप, बीजेपी के ही एक ठेकेदार ने लगाया था, और ऐसा आरोप लगाने के बाद, उक्त ठेकेदार ने आत्महत्या भी कर ली थी, और इसे लेकर पेसीएम अभियान भी चला, जो, हाल ही में हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में मुख्य मुद्दा भी बना था, की जांच की मांग करने के बजाय, बीजेपी, ऐसा आरोप लगाने और भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाने वाले लोगों के खिलाफ अदालती नोटिस जारी करने की बात कर रही है। यहां भी भ्रष्टाचार का समर्थन बीजेपी कर रही है।
अडानी घोटाले के विंदु पर तो आरएसएस भी खुलकर अडानी के साथ खड़ी है। जबकि मोदी जी और अडानी समूह के बीच निकटता और घनिष्ठता, एक खुला रहस्य है। सरकार ने, ऑस्ट्रेलिया, श्रीलंका, इजराइल तक अडानी समूह के हित साधक के रूप में अपनी भूमिका निभाई और पीएम मोदी जी की, अडानी समूह इस व्यापारिक उपलब्धि पर, निभाई गई भूमिका पर, इन देशों के अखबारों और भारतीय अखबारो में भी काफी कुछ सुबूतों के साथ कहा गया। जब इन्ही सब मुद्दों पर राहुल गांधी ने लोकसभा में अपनी बात रखी तो, उनका और अन्य विपक्षी सांसदों के इस मुद्दे पर दिए गए भाषण को लोकसभा की कार्यवाही से, रातोरात हटा दिया गया। कौन घेरे में आ रहा था, इस खुलासे से, यह बात पूरी दुनिया को पता है।
यही रणनीति, आईपीसी और पॉक्सो एक्ट के अंतर्गत दर्ज, बीजेपी के एमपी, बृजभूषण शरण सिंह के मामले में भी, अपनाई गई। पहले यौन शौषण और पॉक्सो के अंतर्गत मुकदमा दर्ज न करना, फिर सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर मुकदमा दर्ज हुआ तो, उसमे कार्यवाही न करना। मुल्जिम को इस बात का पूरा मौका देना कि, वह पीड़िता पर दबाव डाल कर, अपने पक्ष में ला सके। और जब मुल्जिम का मकसद पूरा हो गया तो, पिसान पोत कर भंडारी बनते हुए, आरोप पत्र अदालत में दाखिल कर देना। क्या देश में दर्ज पॉक्सो के, अन्य मुकदमे में, भी ऐसी ही रणनीति अपनाई गई है? शायद नहीं। दिल्ली पुलिस के इतिहास में, यह केस और इसकी जांच, एक बदनुमा धब्बे के रूप में याद किया जाएगा। यह कोई नहीं देखेगा कि, सरकार का दबाव था या नहीं, पर यह जरूर याद किया जाएगा कि दिल्ली पुलिस के मुखिया एक कमज़ोर मेरुदंड के अफसर थे।
भ्रष्टाचार के मुद्दे पर, जीत कर आई सरकार ने, अपने वादों के मुताबिक, न तो काले धन के बारे में कुछ किया, न ही, एक भी ऐसा कानून पारित किया जिससे, भ्रष्टाचारियों पर नकेल कसी जा सकें। इसके विपरीत, पॉलिटिकल फंडिग के रूप में इलेक्टोरल बॉन्ड्स प्रक्रिया ला कर, पॉलिटिकल फंडिग के सिस्टम को, भ्रष्टाचार से युक्त कर दिया। आरटीआई एक्ट को कमज़ोर करने के लिए सीईसी की नियुक्ति प्रक्रिया में, ऐसे बदलाव किए जिससे यह महत्वपूर्ण संस्था और कमज़ोर हो जाय। अदालतों में बंद लिफाफा दाखिल करने की अन्यायिक प्रथा की शुरुआत की, जो सिर्फ अपना पाप छुपाने के लिए लाई गई थी। हालांकि सीजेआई जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के सख्त कदमों से, यह प्रक्रिया रुक गई। पनामा पेपर्स से लेकर मनी लांड्रिंग से अडानी निवेश के मामले में सरकार, घोटालेबाजों के साथ खड़ी दिखी और अब, कर्ज लो, भाग जाओ, फिर आओ यार इसे सेटल कर लो, की एक ऐसी योजना लेकर आई है, जो भ्रष्टाचार और कर्ज लेकर भाग जाओ की प्रवृत्ति को ही बढ़ावा देगी।
जब भ्रष्टाचार और अपराध के मामले में सरकार और जांच एजेंसियों का रुख, नरम और समझौतावादी दिखने लगता है तो, न तो, भ्रष्टाचार नियंत्रित होता है और न ही अपराध का शमन हो सकता है। आज यही हो रहा है। और भ्रष्टाचार का विकराल दैत्य, देवस्थान को भी लीलने की और बढ़ चुका है और सरकार, इन घटनाओं और आरोपों की जांच कराने के बजाय, इन्ही से बयान दिला कर, अपनी जिम्मेदारी की इतिश्री कर ले रही है। एक, सजग, सतर्क और सचेत नागरिक के रूप में, सरकार की कमियों के खिलाफ आवाज उठाते रहिए, सरकार आप के दम से है, आप, सरकार की कृपा पर नहीं जी रहे हैं।
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh
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