Thursday, 15 June 2023

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा - यादों की बारात के अंश (6) गांधी के आंदोलन के पहले, देश और समाज के हालात / विजय शंकर सिंह


चित्र : बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल, लाला लाजपत राय

जोश, उन्ही के शब्दों में, बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले की तर्ज़ पर, अलीगढ़ से निकल कर फिर मलीहाबाद आ गए। पढ़ाई तो छूट गई थी, लेकिन स्वाध्याय का क्रम जारी रहा। अब उनकी आत्मकथा में आगे पढ़ने का कोई उल्लेख नहीं मिलता है और वे, इस अंश में, उस समय के, देश और समाज के, तत्कालीन हालात का उल्लेख कर रहे हैं। 

वह कालखंड, महात्मा गांधी द्वारा आयोजित असहयोग आंदोलन के थोड़ा पहले का है। आजादी की बात तो की जा रही थी, पर किसी संगठित आंदोलन की रूपरेखा बनी नहीं थी। इंडियन नेशनल कांग्रेस का नेतृत्व, लोकमान्य बालकृष्ण गंगाधर तिलक, जो तिलक महाराज के नाम से प्रसिद्ध थे, और गोपाल कृष्ण गोखले जो, एक प्रसिद्ध बैरिस्टर थे, के इर्द गिर्द घूम रही थी। कांग्रेस का जन स्वरूप अभी विकसित हो रहा था। तिलक एक जुझारू और गरम दलीय नेता थे जबकि गोखले, संवैधानिक राह से आजादी के मुंतजिर थे। गांधी, दक्षिण अफ्रीका से आ तो गए थे, पर वे, भारत भ्रमण और चंपारण जैसे सत्याग्रह से देश और जनता की नब्ज टटोल रहे थे। 

जोश ने इस अंश में सामंती मुस्लिम समाज का विवरण दिया है और समाज की तत्कालीन तस्वीर भी प्रस्तुत की है। अब उन्हीं के शब्दों में पढ़े... 
-----

मेरी जवानी तक का हिन्दुस्तान मे हालात के साथ-साथ मेरे उस हिन्दुस्तान के सांस्कृतिक और सामाजिक हालात भी सुन लीजिए, जिसने मुझे प्रभावित किया और सांचे में ढाला था।

तहजीबी एतबार से उस वक़्त हिन्दुस्तान दोराहे पर खड़ा सोच रहा था कि मशरिक्रीयत (पूर्वीपन) पर कायम रहे या मग़रिबीयत (पश्चिमीपन) की ओर मुड़ जाए। मुल्क उस वक़्त 'ख़ालिस मशरिकी', 'नीम मशरिकी' और 'मग़रिबी तीन गिरोहों में बंटा हुआ था।

खालिस मशरिकी गिरोह की अक्सरीयत (बहुमत) थी, नीम-मशरिकी गिरोह की तादाद कम थी और मग़रिबी गिरोह अकलीय्यत (थोड़ी गिनती) में था।

ख़ालिस मशरिकी गिरोह के चेहरों पर लंबी या खशखशी दाढियाँ थी और सरों पर पट्टे, पट्टों पर अम्मामे, दस्तारे, शिमले या दोपल्ली और चौकोनी टोपियाँ, पाँव में गितले और सलीमशाही जूते, बड़े पाइंचों के पायजामे या औरबी घुटने, अबायें कबायें, अंगरखे, दगले, कंधों और कमरों पर बड़े-बड़े रुमाल, चिकन के कुर्ते, रुई की सदरियाँ और हाथों में खाके शिफ़ा की तस्बीहै, अँगुलियों में फिरोज़े की अंगूठियाँ, होला और शाम लगी जरीबे।

नीम-मशरिकी गिरोह दाढ़ी मुंडाता, शेरवानियाँ, चुस्त पायजामे, पम्प जूते इस्तेमाल करता और जीबों में घड़ियाँ रखता था, जिनकी जंजीर दोनों जेबों के दरमियान लटकती रहती थीं। 

और मगरिबी गिरोह सूट-बूट और हैट में गर्क रहता था। लेकिन दाढ़ी के साथ मूछें नहीं मुंडाता था।

नवाब साहब की बेगम हों या बैरिस्टर साहब की बेटर हाफ (Better Half), दोनों बड़ी सख्ती के साथ पर्दे की पाबंद थीं। डोली और पालकी के सिवा कोई बीवी घर से बाहर कदम नहीं रखती थी और तो और, औरतों की आवाज़े और उनका वज़न भी पदानशीन था। यानी कोई बीबी इस क़दर जोर से नहीं बोलती थी कि मर्दाने तक उसकी आवाज जा सके। और जब कोई औरत पालकी में सवार होती थी तो पत्थर का टुकड़ा या सिल, पालकी में रख दी जाती थी ताकि कहारों को उसके जिस्म का सही अंदाजा न हो सके। बीबियाँ तो बीबिया, मामाएँ, असील और लौंडिया तक पर्दे की पाबंद थीं।

जनाने में आने-जाने वाले बाहर के बच्चों से भी, जबकि वे दस ग्यारह बरस के हो जाते थे, पर्दा शुरू कर दिया जाता था। और तो और, बाप, दादा, नाना, चाचा, फूफा के सामने भी औरतें सरो पर पल्लू डालकर जाया करती थी और किसी औरत की यह मजाल नहीं थी कि वह अपने बुजुगों की मौजूदगी में अपने बच्चे को गोद में ले ले।

जनाने मकान की फ़िज़ा को पवित्र रखने का यहाँ तक खयाल किया जाता था कि किसी तरकारीवाली को यह इजाज़त नहीं थी कि वह लम्बी-लम्बी तरकारियाँ जैसे लौकी, तुरई, केले, चचड़े वगैरह को टुकड़े-टुकड़े किए बगैर सालम हालत में अन्दर ले जाएँ, इसलिए कि सूरत के लिहाज़ से इन तरकारियों को 'अश्लील तरकारी' खयाल किया जाता था।

अपने लड़कपन का एक वाकया बयान करता हूँ। मलीहाबाद के एक लड़के की शादी में नाच हो रहा था कि बालाखाने से एक औरत झांककर इधर देखने लगी और साहबाने महफ़िल में से एक साहब ने उसे बंदूक मार दी। साहबे- खाना दंगों के हल्के में खड़े थे कि उन्होंने गोली चलने की आवाज़ सुनी और दौड़े हुए महफ़िल में आए। गोली मारनेवाले ख़ाँ साहब ने उनसे कहा, "भाई आपकी बीवी ऊपर से झाँक रही थीं। मुझसे यह बेहयाई बरदाश्त नहीं हुई, मैंने गोली मार दी। "साहबे-ख़ाना ने उसकी पीठ ठोंककर कहा, "बहुत अच्छा किया आपने। " वह तुरन्त अन्दर चले गए। थोड़ी देर में एक लाश खींचते हुए आए और कहा, "भाइयो, देख लीजिए मेरी बीवी नहीं लोंडी झाँक रही थी। अल्लाह ने मेरी आबरू और मेरी जान दोनों चीजें बचा ली।'

सियासी एतबार से उस वक़्त सन्नाटा छाया हुआ था। पी फटने में बहुत देर थी। रात के दो या तीन बजे का वक़्त था। लोगों की अक्सरीयत खराटे ले रही थी। कुछ बिस्तरों पर पड़े करवटें ले और कुनमुना रहे थे और बहुत थोड़े लोग तिलक और गोखले के गजर सुनकर बेदार हो गए थे और धीमे स्वरों में आज़ादी के चर्चे कर रहे थे। भारत माता चौकन्ना होकर और इधर-उधर देखकर दिल ही दिल में सोच रही थी, 
अज़ कुजामी आयद ई आवाज़े दोस्त
(मुझे यह दोस्त की आवाज़ कहाँ से सुनाई पड़ रही है ?).
फिरंगी के कान तक भी ये आवाज़े पहुँच रही थीं, लेकिन उसका गुरूर कह रहा था कि, 'यह हवा मेरे चिरागों को बुझा सकती नहीं।'

लेकिन महात्मा गांधी जिस वक्त लंगोटी बाधकर मैदान में कूद पड़े तो पौ फट गई और हर तरफ़ से ये आवाजें आने लगी कि तख़्त या तख्ता-आज़ादी या मौत।

गाँधी की आँधी ने हुकूमत के औसान उड़ा दिए हुकूमत यह सोचकर हाथ मलने लगी कि हमने मुसलमानों के एक फ़िरक्रे को दूसरे फिरके और हिन्दुओं के एक फिरके को दूसरे फिरके और फिर समूचे हिन्दुओं और मुसलमानों को एक-दूसरे से टकरा देने के सिलसिले में जो लाखों रुपया पानी की तरह बहा दिया, वह बेकार गया और सारे मुसलमान और हिन्दू मिलकर आज हमारे मुक़ाबले के वास्ते आ गए। यह संकेत निहायत खतरनाक है। क्या इलाज किया जाए इस भयानक फ़ितने का?

आख़िरकार हुकूमत ने एक मंसूबा तैयार कर लिया। पुलिस और फ़ौज के हलके में बिगुल बजा दिया। एक तरफ जेलों के दरवाज़े खोल दिए गए, लाठियाँ बरसने और गोलियाँ चलने लगीं और दूसरी तरफ़ पकड़ बुलवा लिया गया हिन्दुओं और मुसलमानों के दीनी रहनुमाओं यानी महामहोपाध्यायों और शम्सुल-उलेमाओं को, जिन्हें हिन्दू-मुस्लिम फ़साद बरपा कर देने के लिए बरसों से घर बैठे वजीफे मिल रहे थे और बुरी तरह फटकारा गया उन्हें कि उन्होंने ऐसी गफलत क्यों बरती कि हिन्दू- मुस्लिम एकता का फ़ितना बरपा हो गया।

और इसके साथ-साथ पुकारा गया उन तमाम नवाबों, राईट ऑनरेबलों, खान बहादुरों, रायबहादुरों, रईसों, ताजरों, सेठों, सूदखोरों, ज़मींदारों, जागीरदारों, तअल्लुकेदारों और देशी रियासतों के राजे नवाबों को, जिन्हें हुकूमत सांड़ों की तरह पाले थी कि ऐ पिओ ! कांग्रेस की तरफ़ अपनी तोपों के मुँह मोड़ दो और आजादी के दीवानों पर अपने कुत्ते छोड़ दो।

अब क्या था, हर तरफ़ पकड़-धकड़ का तूफ़ान बरपा हुआ, जेलें भरी जाने लगीं, सूलियाँ खड़ी कर दी गई और हर तरफ से शोर बुलंद होने लगे कि खाक में मिलाकर रख दो अंग्रेज बहादुर के गद्दारों को। यहाँ तक कि आगे चलकर जलियाँवाला बाग़ की ज़मीन खून में डूब गई और तड़प-तड़पकर ठंडी होने लगी लाश देशभक्तों की।
------- 

भारत बदल रहा था। लोग अब ब्रिटिश हुकूमत से मुक्ति चाहने लगे थे। गांधी के असहयोग आन्दोलन ने, हालांकि उसे चौरी चौरा हिंसक कांड के बाद गांधी ने वापस ले लिया था, लेकिन आजाद होने की एक भावना का संचार पूरे मुल्क में कर दिया था। 
(क्रमशः)

विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh 

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा - यादों की बारात का अंश (5) का लिंक..
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/06/5.html
.

No comments:

Post a Comment