जोश साहब भले ही एक रईस और ताल्लुकेदार परिवार में पैदा हुए थे, पर अर्थाभाव उन्हे भी झेलना पड़ा। अब उनकी रिहाइश, लखनऊ हो गई थी और मलीहाबाद कम ही आना जाना होता था। उनकी पढ़ाई पूरी नहीं हो पाई थी और वे स्वतंत्रता आंदोलन में शरीक हो चुके थे। शायरी बदस्तूर जारी थी और वे एक शायर के रूप में नाम भी कमा रहे थे। उनकी नज़्म का अनुवाद, सरोजनी नायडू ने अंग्रेजी में किया और इस तरह से उनकी साहित्यिक प्रतिभा की गूंज रबींद्रनाथ टैगोर तक पहुंची और उन्हे गुरुदेव के शांतिनिकेतन में कुछ दिन आने और रहने का न्योता मिला और जोश ने अपना कुछ समय, शांति निकेतन में बिताया भी। यह सब आप पिछले भाग में पढ़ चुके हैं।
जोश ठहरे, जमीदार और दिल दिमाग तो सामंती था ही। लेकिन खर्चे बढ़ने लगे और आमदनी का जरिया जमींदारी भी संकुचित होने लगी। उनकी शादी तो हो चुकी थी और परिवार भी बढ़ने लगा था। उनकी पत्नी ने उन पर दबाव दिया कि वे कहीं नौकरी कर लें। एक दिन जोश साहब की पत्नी ने उनसे कहा कि, मलीहाबाद की ज़मीदारी का सारा इंतज़ाम जिस आले हसन को सौंपा है, वे बहुत ही नालायकीयत के साथ इंतज़ाम संभाल रहे हैं। जोश के यह कहने पर कि, हमारे तुम्हारे लिए धन की कमी नहीं होगी। इस पर उनकी पत्नी ने कहा, कि हमारे बच्चे जब वड़े होंगे तो क्या पता, तब क्या हो। इसीलिए उन्होंने जोश को नौकरी करने का मशविरा दिया।
पत्नी की बात से जोश फिक्रमंद भी हुये पर वे नौकरी करें भी तो कहां, यह एक अहम सवाल उनके सामने था। ठहरे ज़मीदार, तो मिजाज भी किसी की नौकरी का नहीं था और उनकी शिक्षा भी कम थी। शायरी का हुनर ज़रूर था। पर सिर्फ शायरी से कौन सी नौकरी मिलती। उत्तर भारत में बड़ी रियासतें कम थी, और ब्रिटिश राज की नौकरी वे कर नहीं सकते थे। इसी बीच उनकी आत्मकथा के एक अजीब सा किस्सा सामने आता है, जब उन्हे सपने में कोई पीर आते हैं, और उनसे हैदराबाद के निजाम के यहां, नौकरी करने के लि जाने का मशविरा देते हैं।
जोश कोई नियमित नमाज पढ़ने वाले मजहबी खयाल के मुस्लिम नहीं थे और धर्म कर्म पर उनका कोई विश्वास भी बहुत अधिक नहीं था। पर इस सपने का उनके इरादे पर बहुत असर पड़ा। उन्होंने अपनी पत्नी से सुबह उठ कर, इस सपने के बारे में बताया और उनकी धर्म भीरू पत्नी ने, इस सपने के अनुसार अमल करने को कहा। जोश का कहना है कि, वे यह देखना चाहते थे कि, क्या यह सपना सचमुच में कोई ईश्वरीय परामर्श था या महज एक फितूर। जोश को यकीन हो गया कि, सपने में आने वाले पीर कोई और नहीं, खुद पैगम्बर मुहम्मद हैं, जो उन्हें नौकरी के लिए दक्कन जाने की बात कह रहे हैं।
अंत में वे इस सपने के अनुसार वे दक्कन के निजाम हैदराबाद के यहां, एक अदद नौकरी की तलाश में, रवाना हो गए। निजाम के यहां जाने और नौकरी पाने का यह दिलचस्प किस्सा पढ़े...
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धमभीरु बीवी मेरे पीछे पड़ गई कि तुमको रसूल अल्लाह ने हुक्म दिया है दकन जाने का, जाओ और जल्दी जाओ।
बीवी बेचारी को तो मैंने खट से 'धर्मभीरु' कह दिया; लेकिन अपने गरेबान में मुंह डालकर यह बात नहीं सोची कि उस वक्त मैं भी कौन-सा बुकराते-आजम था। में खुद इस बशारत के इम्तहान के लिए हैदराबाद जाना चाहता था। यानी बीवी के दिल में ही नहीं मेरे दिल में भी चोर था, जो रंग लाए बगैर न रह सका।
यह स्पष्ट कर देना भी जरूरी है कि दकन का सफ़र खाली रोजी ही का मसअला नहीं था, बल्कि मेरी एक रुमानी गुत्थी भी ऐसी थी जो हैदराबाद जाए बगैर खुल ही नहीं सकती थी।
हैदराबाद जाने की बात मेरे दिल में उग चुकी थी; मगर सोचता था कि यहाँ मुझे पूछेगा कौन? न एमए. हूं न सदरुल फाजिला। ले-देकर मेरी सिर्फ एक किताब रूहे-अदब छपकर लोकप्रिय हो चुकी थी। मगर एक टुटरुट्टै किताब से होता क्या है? व्यक्तित्व तो बनता है एक जुग बीत जाने और सालहा-साल खूने-जिगर थूकने के बाद।
खैर, उस्मानिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर वहीदुलदीन साहब सलीम से पत्र-व्यवहार करके और महाराजा किशन प्रसाद के नाम हज़रत इक़बाल, मौलाना अब्दुल माजिद दरियाबादी, हजरत अकबर इलाहाबादी और मौलाना सुलेमान नदवी से सिफारिशी खत हासिल करके में 1924 के शुरू में हैदराबाद पहुँच गया।
वहाँ में सबसे पहले महाराजा किशनप्रसाद से मिला। मुझे देखते ही उन्होंने कहा, "जोश साहब, आपका मजमून-ए-कलाम रूहे-अदब देखकर मैने तमन्ना की थी कि अल्लाह इस दरवेश- सिफ़त रईसजादे से मिलाए सो मेरो यह तमन्ना आज पूरी हो गई। "मैंने ये सिफारिशी खत पेश किए। उन्हें पढ़कर वह कुछ सोचने लगे और मुझे अलग ले जाकर कहा, "जोश साहब, यह बात अपने तक रखिएगा कि सरकार आजकल मुझसे नाराज है। अगर आप मेरे ज़माने में तशरीफ लाते तो में उसी दिन आपका इंतज़ाम कर देता। बहरहाल में फायनांस मिनिस्टर अकबर हैदरी के नाम अभी खत लिखे देता हूँ। यह मुझे बहुत मानते हैं। मुझे उम्मीद है कि यह आपकी खिदमत में कोताही नहीं करेंगे। " यह कहते ही कोई तीन सफे का लम्बा चौड़ा ख़त लिखकर मेरे हवाले कर दिया और उसी वक्त फोन करके उन्होंने हैदरी से मेरी जबरदस्त सिफारिश भी की। साथ ही सर राय मसऊद को भी फोन पर हिदायत कर दी कि वह मुझे अपने साथ लेकर हैदरी से मिला दें। राय मसऊद मुझे हैदरी के पास ले गए और कहा कि हमारी कौम के यह एक उभरते हुए शायर हैं। हमारा फर्ज है कि हम इनकी हौसला अफजाई करें। आपके दोस्त हज़रत इकबाल ने भी इनकी जबरदस्त सिफारिश की है और महाराजा ने भी यह ख़त आपको भेजा है। हैदरी साहब ने ख़त पड़कर कहा, "इनके मुतअल्लिक महाराजा मुझे फोन भी कर चुके हैं। फिर मेरी तरफ मुँह करके हैदरी साहब ने कहा, "आप आईंदा जुमेरात के दिन सुबह दस बजे मेरे पास आ जाइएगा, में आपको सरकार से मिला दूंगा।
अभी जुमेरात में दो दिन बाक़ी थे कि हैदरी साहब ने मुझे बुला भेजा राय मसऊद भी वहाँ मौजूद थे। निहायत नफीस चाय पिलाई और इधर-उधर की बातें करके उन्होंने मुझे उन कतआत का बंडल दिया, जो शायरों ने उनके ख़िताब 'सर' की मुबारकबाद के तौर पर कहकर उनकी खिदमत में पेश किए थे। मैं यह
कतआत पढ चुका तो हैदरी ने कहा, "जोश साहब, आप भी एक 'कता' कर दें।
एक तरफ तो लफ्ज़ क़ता को 'कता' सुनकर मैं भन्ना गया और दूसरी तरफ चूक, मैं फिरंगी हुकूमत से बेजार था, मेरे चेहरे का रंग बदल गया। हैदरी साहब ने मुझसे पूछा कि आप यकायक इस क़दर सीरियस क्यों हो गए। मैंने कहा, "आप बुरा न माने तो कहूँ कि फिरंगी जिस शख्स को ख़िताब देता है, उस पर माँ की गाली पड़ जाती है।" यह सुनकर राय मसऊद और हैदरी चिराग-पा (गुस्से में लाल पीले) होकर खड़े हो गए मुझे तनहा छोड़कर दूसरे कमरे में चले गए और में अपने ठिकाने पर लौट आया।
जब यह बात सुनी तो नवाब मेहदीयारजंग मेरे पास आए और कहा कि में आपको अपने वालिद अमादुल मलिक के पास ले जाना चाहता हूँ। मेरे वालिद सिफारिश के मामले में इस कदर सख़्त है कि जब में कैम्ब्रिज से इम्तहान पास करके आया था तो उन्होंने मेरी सिफारिश तक करने से इनकार कर दिया था।
बहरहाल में आपको उनके पास लिए चलता है, हरचंद मुश्किल से दो फ़ीसदी उम्मीद है। लेकिन अगर उन्हान सिफारिश कर दी तो हैदरी साहब की लाख सिफारिशों पर भारी होगी। उनके साथ वहाँ पहुंचा तो देखा कि एक अस्सी-पचासी बरस के बुजुर्ग बरामदे की बड़ी-सी आरामकुर्सी पर दराज़ है और उनके चेहरे पर विद्वत्ता और दृढ चरित्र की आभा बरस रही है।
मेहदी साहब ने परिचय दिया। दिलचस्पी की एक धारा भी उनके चेहरे पर नहीं दौड़ी। मेरे दिल पर जबरदस्त चोट लगी। लेकिन पी गया। मेरी अहमियत जाहिर करने के लिए मेहदी साहब ने कहा, "अब्बा, यह जोश साहब हुस्सामुलदौला तहव्वरजंग नवाब फकीर मुहम्मद खाँ 'गोया' के पोते हैं।" यह सुनकर वह चौंक पड़े और कहने लगे, "उत्तरी हिन्दुस्तान का ऐसा कौन-सा बाशिंदा है जो इनके दादा के नाम से वाकिफ न हो। लेकिन इनकी जात में भी कोई जौहर है?" मेहदी साहब ने कहा, "यह बहुत अच्छे शायर है। आप इजाजत दें तो जोश साहब कुछ सुनाएँ। "
उन्होंने कहा, "अच्छा। " महदी साहब ने मुझसे कहा, "जोश साहब, इरशाद " और जब मैंने छह पंक्तियों की कविता के तीन-चार बन्द सुनाए तो वह उठकर बैठ गए और कहने लगे, इस नीजवान में तो अनीस (उर्दू के एक प्रसिद्ध शायर) की रूह बोल रही है यह उस और इस क़दर पुख्तगी में तो समझता था कि आजकल के नौजवानों की तरह यह भी आयें-बाय- शायं कहते होंगे। मगर इनके कलाम में रवानी भी है और मानी भी। मेहदी, ख़त लिखने का कागज लाओ।" मेहदी की बाँछे खिल गई। जल्दी से अन्दर जाकर कागज़ और कलम ले आए। आरामकुर्सी के दोनों हत्थों पर एक तख्ता रख दिया। नवाब अमादुल मलिक ने पूरे एक सफे का सिफारिशी खत लिखा और कहा कि, मेहदी, तुम यह खत सर अमीनजंग के हवाले करके मेरी तरफ से कह देना कि सरकार के रू-ब-रू पेश कर दें।
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निजाम हैदराबाद के यहां, नौकरी के लिये की गई सिफारिशें अभी तक कामयाब नहीं हो पाई थी, तब तक, उनकी पत्नी मय बच्चों के साथ हैदराबाद आ गई। हुआ यह कि, जोश साहब के एक रिश्तेदार ने, यह अफवाह उड़ा दी थी कि, जोश साहब ने, हैदराबाद में एक दूसरी शादी कर ली है। इसी बात पर नाराज़ होकर उनकी पत्नी हैदराबाद अचानक आ धमकीं। हालांकि यह खबर झूठी थी, और शरारतन उड़ाई गई थीं। यह दिलचस्प अंश अब आप आगे पढ़ें..
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नवाब अमादुल मलिक के मकान से गेस्ट हाउस आया। छोटे दादा ने तार दिया। तार खोलकर पढ़ा तो मालूम हुआ कि मेरी बीवी परसों शाम की गाड़ी से हैदराबाद आ रही हैं। मैं हैरान हो गया कि आखिर यह माजरा क्या है। मुलाज़मत तो दरकनार, मैंने तो अभी तक निज़ाम को देखा भी नहीं और बीवी हैं कि चली आ रही हैं।
तीसरे दिन मेरी बीवी दोनों बच्चों और अपने मामू को साथ लिए हैदराबाद आ गई और गेस्ट हाऊस पहुँचते ही बिगड़कर बोली, "मैं यहाँ इसलिए आई हूँ कि तुम्हारे दोनों बच्चे तुम्हारे हवाले कर दूँ और खुद अपनी हीरे की अंगूठी कुचलकर खा लूँ और इस दुनिया से सिधार जाऊं।" यह सुनते ही मेरे होश उड़ गए। कहा, "मामू को बुलाकर पूछ लो।"
और इस दुनिया से सिधार जाऊ। "यह सुनते ही मेरे होश उड़ गए और घबराकर पूछा, "अशरफ़जहाँ, ख़ुदा के वास्ते जल्दी बताओ कि आखिर बात क्या है।" उन्होंने रोते हुए कहा, "मायूँ को बुलाकर पूछ लो
मायूँ ने जेब से एक तार निकाला। मैंने तार पढ़ा तो मालूम हुआ कि किसी अल्लाह के बन्दे ने उनके पास यह तार भेजा है कि तुम्हारे शौहर दूसरी शादी कर रहे हैं। तुरन्त हैदराबाद पहुँच जाइए। मैंने कहा, "अशरफ़जहाँ, यह तार बिलकुल झूठा है। " बीवी ने कहा कि अगर यह तार झूठा और तुम सच्चे हो तो अपने बच्चों के बाजू पकड़कर क़सम खा लो कि तुम दूसरा निकाह नहीं कर रहे हो।" जब मैंने बड़े बलवले के साथ कसम खा ली तो उनका चेहरा बहाल हुआ।
इतने में छोटे दादा हँसते हुए आए और मेरी बीबी के दिल पर अपनी खेरवाही का सिक्का बिठाने की खातिर कहा, "भाई शब्बीर हसन ख़ाँ की बीबी, यह तार मैंने दिया था।" मैंने बुरा मानकर कहा, "छोटे दादा, आपको हरगिज़ ऐसा नहीं करना चाहिए था।" उन्होंने कहा, "मेरे भाई बुरा न मानो मुझसे यह कब हो सकता था कि तुम्हारा घर बिगड़े और मैं बैठा तमाशा देखता रहूँ। " मैंने कहा, "आप कैसी बातें कर रहे हैं, मेरा घर बिगड़ कब रहा था?" उन्होंने कहा, "वह शौक़ वाली बात याद करो जो एक लड़की का पयाम लेकर तुम्हारे पास आए थे। बीवी ने बिगड़कर मुझे देखा और कहा, "लो, अब तो बात खुल गई। हाय, तुम कैसे बाप हो कि तुमने अपने दोनों बच्चों की बाँहें पकड़कर झूठी कसम खा ली।
मैंने झल्लाकर कहा, "अपने बच्चों की झूठी कसम खाने बाले कसाई पर मैं हज़ार लानत भेजता हूँ। अब पूरी बात मुझसे सुन लो यहाँ एक बहुत बड़े जागीरदार हैं। उनकी साहबजादी ने ख़ुदा जाने मुझे कैसे देख लिया और वह मुझ पर आशिक़ हो गई। अपनी खादिमा के हाथ खत भेजा कि मेरी माँ ने मेरे बाप को इस बात पर राजी कर लिया है कि वह आपसे मेरी शादी कर दें। कल अब्बा के मुसाहिब शौक़ साहब आएंगे आपके पास। चुनांचे दूसरे रोज ही शौक़ साहब ने आकर मुझसे यह कहा कि अगर आप साहबज़ादी से निकाह करने पर आमादा हो तो आपके रहने के लिए एक कोठी और एक कार का इन्तज़ाम कर दिया जाएगा। आपके घर का तमाम खर्च जागीर से अदा होगा और पन्द्रह सौ रुपये महीना जेब खर्च भी आपको दिया जाएगा।" बीवी ने बड़ी घबराहट के साथ बात काटकर पूछा, "और फिर तुमने क्या जवाब दिया?" मैंने कहा कि मैंने यह जवाब दिया कि "शौक़ साहब, मेरी शादी हो चुकी है। मैं दो बच्चों का बाप है। हम मिया बीवी को एक-दूसरे से बेहद मुहब्बत करते है और मैं गवारा नहीं कर सकता कि उन पर सौत लाऊं। इसके बाद मैंने छोटे दादा से कहा, "क्यों साहब, मैंने आपसे यही बात कही थी या कुछ और?" छोटे दादा ने कहा, "नहीं, यही बात कही थी। " मैने कहा, "जब आपको यह मालूम हो चुका था तो आपने मेरी बीवी को तार क्यों दे दिया?" छोटे दादा ने कहा, "मेरे भाई, आदमी को बदलते देर नहीं लगती। मैंने सोचा कि तुम्हारी बीवी को बुलाकर तुम पर मुसल्लत कर दूं।"
यह बात सुनकर मेरी बीवी के दिल का काँटा निकल गया। कहने लगी कि "उस भडुबे शौक़ को अब कभी अपने घर में न आने देना अली की तेग़ टूटे उस निगोड़े पर मेरा लाख का घर खाक करने आया था मुँआ।"
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जोश को नौकरी तो मिल गई पर वे बहुत समय तक निज़ाम की नौकरी कर नहीं पाए और एक ऐसी समस्या में घिर गए कि उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ी। उन्होंने ने नौकरी से इस्तीफा दे दिया। यह अंश आप आगे पढ़ेंगे।
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh
'जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (7) राष्ट्रीय आंदोलन से लगाव, रवींद्रनाथ टैगोर से मुलाकात और शांतिनिकेतन में कुछ महीने का प्रवास / विजय शंकर सिंह '.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/06/7.html
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