जोश साहब के पहले मुशायरे का किस्सा पढ़ने के पहले, उर्दू काव्य गोष्ठी के रूप में प्रचलित मुशायरे के इतिहास की कुछ चर्चा ज़रूरी है। शब्द
मुशायरा, एक काव्य संगोष्ठी है, जिसे महफ़िल या मुशायरी कहा जाता है। यानी एक ऐसी महफ़िल, जहां शायर, इकट्ठे होकर, अपनी रचनाएं सुनाते है। यह केवल शायरों की भी महफ़िल हो सकती है, या फिर वे श्रोता भी होते हैं, जो कोई कवि या शायर नहीं होते, बस काव्य रसिक होते हैं। मुशायरा उत्तर भारत , पाकिस्तान और दक्कन की, काव्य गोष्ठी की परंपरा का हिस्सा है। लेकिन, विशेष रूप से हैदराबाद यानी दकन, जहां से उर्दू का जन्म होना माना जाता है, इसे स्वतंत्र आत्म-अभिव्यक्ति के लिए एक मंच के रूप में जाना जाता है।
यह भी एक मान्यता है कि, पहला मुशायरा, हजरत अमीर खुसरो (1253-1325) द्वारा आयोजित किया गया था, जबकि कुछ विद्वानों ने इस धारणा को खारिज कर दिया है और यह दावा किया कि अमीर खुसरो ने कव्वाली की परंपरा शुरू की थी, न कि मुशायरे की। अमीर खुसरो, अपनी कव्वालियों के लिए जाने जाते हैं, न कि ग़ज़लों और नज़्मों के लिये।
एक अन्य धारणा के अनुसार, मुशायरा का प्रारंभ 14 वीं शताब्दी में बहमनी सल्तनत के दौरान दक्कन में हुआ था, और 1700 ईस्वी में वली दक्खनी द्वारा दिल्ली में, पहला मुशायरा आयोजित किया गया था। वली दक्कनी ने, स्थानीय दक्कनी भाषा, जो उर्दू का ही एक प्रारंभिक रूप था, में अपनी कविताओं का पाठ किया था। उस मुशायरे ने, एक बड़ी सार्वजनिक सभा का रूप ले लिया था। उस समय तक दिल्ली में स्थानीय लोगों के लिए कोई काव्य-सभा या मुशायरा जैसी कोई परंपरा नहीं थी। हालांकि, राज दरबारों में, काव्य-सम्मेलन होते थे जिनमें भाग लेने वाले शायर, केवल फ़ारसी भाषा में ही, अपनी कविताएँ सुनाते थे ।
17वीं शताब्दी में फारसी/उर्दू शायरी ने समाज के अभिजात्य वर्ग में अपना प्रभुत्व जमा लिया था। मुग़ल दरबार मे तो, शाही मुशायरे की परंपरा अंतिम मुग़ल सम्राट बहादुर शाह जफर तक जारी रहे। शेख इब्राहिम ज़ौक़ और मिर्ज़ा ग़ालिब जैसे प्रख्यात शायर, उन मुशायरों की जान और शान समझे जाते थे। ऐसी ही परंपरा रियासतों, रजवाडो, ताल्लुकदारों और ज़मींदारों से लेकर सम्पन्न समाज में एक शौक के साथ साथ परंपरा के रूप में विकसित हो गई। इससे फारसी/उर्दू शायरी का विकास हुआ और शायरी की अन्य विधाएं, जैसे, शेर, रुबाई, ग़ज़ल, नज़्म आदि की पहुंच जनमानस तक होने लगी।
काव्य पाठ का सबसे आम रूप मुशायरा या काव्य संगोष्ठी बना, जहां शायर या कवि एक सख्त साहित्यिक अनुशासन यानी रदीफ़ काफिया या छंद आदि के अनुसार तैयार की गई अपनी रचनाओं को पढ़ने के लिए इकट्ठा होते थे। इसी मुशायरे या काव्य गोष्ठी में, शोरा को सराहना भी मिलती तो, उनकी हूटिंग भी हो जाती। इस परंपरा से काव्य लेखन के इर्द-गिर्द एक संस्कृति का निर्माण हुआ और फारसी के साथ साथ उर्दू का प्रचार प्रसार होने लगा। राजघरानों के लिए उर्दू शायरी सीखना भी फैशन बन गया और साथ ही साथ, फारसी का चलन कम और उर्दू का चलन बढ़ने लगा तथा उर्दू स्थानीय प्रशासन की भाषा के रूप में स्थापित हो गई।
मुशायरे के कई रूप भी समय के साथ साथ विकसित हुए। परंपरागत रूप से, ग़ज़ल, एक विशिष्ट काव्यात्मक रूप है जिसे सुनाया तो नहीं जाता था, बल्कि तरन्नुम से गाया जाता था। लेकिन कविता, सस्वर पाठ और गीत के अन्य रूपों की भी अनुमति, मुशायरे में थी। यदि शायरी में हास्य की प्रकृति है, तो इसे मज़हिया मुशायरा कहा जाता है । मज़हिया मुशायरा इन दिनों बहुत लोकप्रिय है, लोग बड़े मजे से पाठ का आनंद लेते हैं। कुछ कवियों ने अब इसे आलोचना के रूप में विकसित किया है, इसलिए वर्तमान में इसे एक बहुत ही मामूली तरीके से एक गहरा अर्थ देकर टिप्पणी करने के लिए भी इस्तेमाल किया जा रहा है जो संभावित टिप्पणियों की समझ के लिए एक लंबी अवधि का अहसास देता है।
तो यह रहा मुशायरे से जुड़ी कुछ बातें। जोश इसी तरह के एक मुशायरे में पहली बार शिरकत करने के लिए, अपने पिता के साथ लखनऊ तशरीफ़ ले जाते है। पहला मुशायरा है और जोश अभी किशोरावस्था में ही थे, तो जाहिर है वे थोड़ा नर्वस भी खुद को महसूस कर रहे थे। उनके पिता और अन्य शायर, उनका हौसला बढ़ा रहे थे और फिर जब जोश को कुछ पढ़ने के लिये कहा गया तो, उन्होंने अपने लिखे कुछ शेर पढ़े भी। अब जोश के ही शब्दों में, उनके पहले मुशायरे का किस्सा पढ़ें।
-------
पहला मुशायरा यह शायद 1910 या 1911 की बात है कि मैं अपने बाप के हमराह हज़रत मौलाना रज़ा फिरंगी महली के मुशायरे में पहली बार शरीक हुआ और दंग रह गया।
आइए, मैं आपको मुशायरे में ले चलूँ ताकि आप ख़ुद देख लें कि शफ़्फ़ाफ़ चाँदनी बिछी हुई है, चाँदनी पर क़ालीन हैं। गावतकिये दीवारों से लगे हुए हैं। इधर-उधर साफ़-सुथरे उगालदान, नेचों में हार लिपटे हुक़्क़े, शालबाफ़ से मढ़ी हुई छोटी-छोटी कोरी हाँडियाँ, हाँडियों में चाँदी के वरक़ की सुगंधित गिलोरियाँ और इलायची दाने, तम्बाकू और क़िवाम की डिब्बियाँ रखी हुई हैं। शायर ज़्यादातर अंगरखे और कमतर शेरवानियाँ पहने अपने-अपने मर्तबे के लिहाज़ से दोज़ानू बैठे हुए हैं। सबके सरों पर टोपियाँ हैं। श्रोताओं में से कोई भी नंगे सर नहीं है। आपस में आहिस्ता-आहिस्ता बातें हो रही हैं, गिलोरियाँ खाई और हुक़्क़े पिए जा रहे हैं। और जो शायर मुशायरे के फ़र्श पर क़दम रखता है वह हाज़िरीन को झुक-झुककर सलाम कर रहा है। हाज़िरीन उसके मर्तबे के मुताबिक़ नीमक़द या सरूक़द जवाबी सलामों से उसका स्वागत कर रहे हैं। लीजिए अब मीरे-मुशायरा के सामने शम्अ आ गई है और मौलाना रज़ा की ग़ज़ल से मुशायरे का आग़ाज़ हो रहा है और दाद से छत गूँजने लगी है। किसकी मजाल है कि ग़ज़ल पढ़ने के दौरान कोई मिसरा न उठाए, हुक़्क़ा पी ले, पान खा ले, आपस में सरगोशी करने लगे या कोई इधर से उठकर उधर बैठ जाने की जसारत (धृष्टता) कर सके।
मीरे-मुशायरा के बाद शम्अ घूम रही है। नौ-मश्क़ नौजवानों की सफ़ों में और कमी-बेशी के साथ सबको दाद मिल रही है और मामूली शे’रों के सरों पर भी ‘माशा अल्लाह’ के सेहरे बाँधे जा रहे हैं। लीजिए, नौ-मश्क़ों में अब मेरी बारी आ गई। अरे ग़ज़ब हो गया। शम्अ सामने रखी हुई है, रोबे-महफ़िल से मैं काँप रहा हूँ। शायरों की सफ़ों से आवाज़ें आ रही हैं—बिस्मिल्लाह, साहबज़ादे बिस्मिल्लाह! लेकिन साहबज़ादे का दम निकला हुआ है। क्या मजाल कि मुँह से एक हर्फ़ भी निकल सके। अब मेरे बाप मुझसे फ़रमा रहे हैं, “पढ़ते क्यों नहीं? पठान का बेटा तो बारह बरस की उम्र ही से रण में तलवार चलाने लगता है। और एक तुम हो कि तुमसे ग़ज़ल नहीं पढ़ी जा रही है।” अब मिर्ज़ा मुहम्मद हादी साहब रुसवा अपनी जगह से उठकर मेरे पहलू में आ गए हैं और मेरी पीठ ठोंककर फ़रमा रहे हैं—साहबज़ादे आप तो शायर, शायर के बेटे, शायर के पोते और शायर के परपोते हैं, पढ़िए और गरजकर पढ़िए। अब बड़ी हिम्मत करके मैं मतला (ग़ज़ल का पहला शे’र) पढ़ रहा हूँ। मतला पर दाद मिल रही है! और दाद के नशे में शे’र पढ़ रहा हूँ—
ऐ नसीमे-सुबह के झोंको, यह तुमने क्या किया
मेरे मस्ते-ख़्वाब की जुल्फ़ें परेशां हो गईं ।
इस शे’र पर मतला से ज़्यादा दाद पा रहा हूँ। और वलवले के साथ दूसरा शे’र सुना रहा हूँ—
मेरी आँखें जानती हैं करबे इफ़राते ख़ुशी
खंदाज़न देखा किसी को और गिरियां हो गई।
(कब्त इफरते खुशी - अधिक उल्लास की पीड़ा, खंदाज़न - मुस्कुराते हुये, गिरियां - रोने लगीं)
अब दाद का ग़लग़ला ज़्यादा बुलंद हो रहा है और ‘सुब्हान अल्लाह, माशा अल्लाह’ से मुशायरा गूँज रहा है। मिर्ज़ा मुहम्मद हादी रुसवा, हज़रते-सफ़ी से कह रहे हैं, “देखे आपने इस शे’र के तेवर, यह उम्र और इतनी गहरी बात!” और अब मैं आख़िरी शे’र पढ़ रहा हूँ—
हाय मेरी मुश्किलो, तुमने भी क्या धोका दिया
ऐन दिलचस्पी का आलम था कि आसां हो गईं ।
देखिए छतें उड़ रही हैं और धुएँ पार हो रहे हैं इस शे’र की दाद से, और उस्ताद फ़रमा रहे हैं—अल्लाह नज़रे-बद से बचाए।
मुशायरे से दाद का बड़ा जाम पीकर झूमता-झामता घर आया। ख़ुशी के मारे देर तक नींद नहीं आई। और सो गया तो ख़्वाब में रात-भर यह देखता रहा कि परियाँ भींच-भींचकर मुझे गले लगा रही हैं।
सुबह उठते ही नहाया और नाश्ते से फारिग होकर जब अपने बाप की ख़्वाबगाह के बरामदे से होकर गुजरने लगा तो बाप की आवाज़ आई, "इधर आइए जनाब!" दम निकल गया इस आवाज़े-ग़ज़ब से जब मैं लरजता हुआ उनकी ख्वाबगाह में गया तो उन्होंने बड़ी भारी आवाज़ में इरशाद फ़रमाया, "देखिए साहब, यह मेरी दिली तमन्ना है कि आप इस दुनिया में फूलै फलें, आपकी दौलत मेरी दौलत से बढ़ जाए, आपका मर्तबा मुझसे हजार गुना ऊँचा हो जाए, आप जिन्दगी के हर शोबे (क्षेत्र) में मुझसे आगे बढ़ जाएं, मगर कान खोलकर सुन लीजिए कि मैं इसे बरदाश्त नहीं कर सकता कि खाँ साहब आप मुझसे शायरी में भी बढ़ जाएँ। रात के मुशायरे में आपको मुझसे ज्यादा दाद मिली। अब आपका मेरे साथ मुशायरे जाना बन्द। कतई बन्द। राजब ख़ुदा का बाप से ज्यादा बेटे को दाद मिले। मैं यह उल्टी गंगा बहने का मौका नहीं देने का। सुना खाँ साहब, आपने।"
मेरे बाप मीर को ग़ालिब पर तरजीह देते थे। हल्की-फुल्की जबान में शेर कहते और दाग के इस शेर पर अमल करते थे-
कहते हैं उसे ज़बाने उर्दू,
जिसमें न हो रंग फारसी का।
एक रोज़ मैंने उनकी खिदमत में अपनी एक ग़ज़ल इस्लाह के लिए पेश की, जिसमें जा-बजा फारसी तरकीबे थीं और एक मिसरा था-
हमारी जिन्दगी यानी वफ़ाए-राजदाँ तक है।
उन्होंने त्योरियों पर बल डालकर फ़रमाया, सुब्हान अल्लाह, यानी वफाए राज़दां तक है। इस 'यानी' की दाद नहीं दी जा सकती। मुझे इस बात का शदीद ख़ौफ़ है कि तुम कुछ दिन में 'शुमारे सुब्हा-ए-मरगूब बुत मुश्किल पसंद आया' (गालिब) तक आ जाओगे ना साहब, मैं तुम्हें इस्लाह नहीं दूंगा और तुम्हें अज़ीज़ साहब के सुपुर्द कर दूंगा। वह भी यानी वफ़ाए सज़दा' और 'शुमारे सुबहा' के बरतने वालों में से हैं। दोनों में खूब निबाह हो जाएगा। उन्होंने अज़ीज़ साहब को बुलाकर मुझे उनका शागिर्द बना दिया और शागिर्दी उस्तादी का यह सिलसिला छह बरस के अंदर ही टूट गया।
-------
यह एक कामयाब मुशायरा था। जोश को श्रोता और शोरा से दाद मिली और उनके पिता ने उनकी सराहना की तथा उनके इस शौक़ को, आगे बढ़ाने में एक अहम भूमिका भी निभाई। इस तरह से एक शायर का जन्म हुआ, जो भारतीय उपमहाद्वीप में शायरे इंकलाब के नाम से जाना गया।
(क्रमशः)
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh
भाग (3) का लिंक
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/05/3.html
No comments:
Post a Comment