पिछले अंश में आप पढ़ चुके हैं, कि, एक रात जनाब जोश साहब को ख्वाब आया कि, उनसे उस ख्वाब में नमूदार एक बुजुर्ग पीर, यह कह रहे हैं कि, वे दकन की ओर जाएं, उनका दानापानी वहीं उनका इंतजार कर रहा है। जोश के अनुसार, वे पीर कोई अन्य नहीं, बल्कि पैगम्बर मुहम्मद खुद थे। उन्होंने इस ख्वाब का जिक्र अपनी पत्नी से किया और पत्नी तो इसी चिंता में घुली जा रही थीं कि, जोश की नौकरी कैसे लगेगी। अब जब ख्वाब की बात उन्होंने सुनी तो, जोश को दकन जाने की जिद कर बैठीं। जोश भी धार्मिक खयाल से तो उतना नहीं, बल्कि इस ख्वाब की असलियत परखने की नीयत से दकन के लिए रवाना हुए और दकन जा पहुंचे।
दकन, माने हैदराबाद। है8दराबाद मांने, निजाम शाही। निजाम माने देश की सबसे धनी रियासतों में से एक रियासत। लेकिन धनी निजाम भी देश के कंजूसों में अव्वल थे। उनके महल, उनके व्यक्तित्व और उनकी रियासत का जिक्र जोश की भाषा शैली में आप आगे पढ़ेंगे। जोश के दादा, उत्तर भारत के उर्दू फारसी के एक ख्यातनाम शायर थे और उनकी शौहरत, दक्षिण तक फैली हुई थी। जोश के साथ, उनके पिता और दादा का नाम, अवध के ताल्लुकेदारी की सरमाया तो थी ही, साथ ही उनके पास अल्लामा इक़बाल का एक सिफ़ारिशी ख़त भी था। लेकिन, असर, उनके दादा के ही नाम का, दकन में पड़ा।
उनकी सिफारिश निजाम तक तो पहुँच गई थी, पर, अभी महल से कोई संकेत उन्हें मिला नाहीं था। वे दिन दिन भर इंतजार करते पर न कोई पैगाम मिलता और न कोई संदेशवाहक ही नज़र आता। लेकिन, एक दिन, महल से निजाम का बुलावां आ ही गया। अब आप यह विवरण, जोश साहब के ही शब्दों में पढ़िए...
-------
एक रोज़ में इस बात पर गौर कर रहा था कि नवाब अमादुल मलिक के खत को भी लगभग एक महीना गुज़र चुका है, लेकिन निजाम ने अब तक मुझे तलब नहीं किया है। शायद वह तीर भी खता कर गया कि उसी आन दरवाज़े पर मोटर आ गई जन-जन करती, और बरामदे में ताली बजने लगी ठन-ठन।
बाहर आया तो देखा कादिर नवाज़जंग खड़े हैं। मुझे देखते ही उन्होंने कहा, "मुबारक हो जोश साहब, सरकार ने आपको याद फरमाया है। अभी तैयार हो जाइए। "
किंग कोठी की काई लगी काली काली दीवारों और उसके शाहाना फाटक के पुराने पदों पर इबरत से निगाह डालता हुआ मैं, जब महल-सरा के अन्दर पहुंचा तो य हसरतनाक तमाशा देखा कि यहाँ सब्जे का फर्श है न क्यारियों, फूलों के पौधे हैं न सरु व चिनार-सूखा-खा सेहत है और उस बुझे-बुझे सेहन में हजारों चीजें निहायत बेकायदगी के साथ इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं। सामने एक निहायत छोटा-सा तीन सीढ़ियों का बरामदा है। बरामदे में एक बे-पॉलिश छोटी-सी कुर्सी पर एक अधेड़ और खुश्क चेहरे का दुबला-पतला आदमी, मैले और पैबन्द लगे कपड़े पहने अकड़ा हुआ बैठा है और उसकी बेफंदे की बोसीदा तुर्की टोपी के किनारों पर मैल की एक चौड़ी तह जमी हुई है। उसके सामने तीस-चालीस रईस और अहलकार दस्ता बकलोस लगाए ऊधी मुर्गाबियों की मानिंद हाथ जोड़े सर झुकाए खड़े हुए हैं और उनके पीछे बहुत-से चीड़ के नाकारा बक्स पड़े हुए हैं।
मेरी नजर क़बूल करके उस दुबले आदमी ने अपने दस्त-बस्तार हाज़िरीन से कहा "इन्हें पछानते (पहचानते हो! अमादुल मलिक ने लिखा है कि यह फ़क़ीर मुहम्मद खाँ गोया के मोते हैं। अगर अवध की सल्लनत बरबाद न हो जाती तो यह दकन क्यों आते? आधे मुसलमानों को अवध संभाल लेता, आधे मुसलमानों को दकन।"
इसके बाद निज़ाम ने अपने उस्ताद हज़रत जलील मानिकपुरी को मुखातिब करके कहा, "उस्ताद, इनके खानदान से तुम तो खूब वाकिफ होंगे।" उस्ताद ने हाथ जोड़कर कहा, "खुदाबंद, इनके वालिद नवाब बशीर अहमद खाँ ने उस वक्त मेरी इमदाद की थी, जबकि मेरे उस्ताद अमीर मीनाई के इतकाल के बाद कोई मेरा सरपरस्त बाकी नहीं रहा था।" जलील साहब की इस शराफ़त पर मेरी आंखें डबडबा गई। निजाम ने कहा, "उस्ताद, तुम और जोश दोनों बड़े शरीफ़ आदमी हो। तुमने सबके सामने यह बात बेझिझक कह दी कि उनके वालिद ने तुम्हारी मदद की थी। और तुम्हारा यह एतराफ़ सुनकर जोश साहब की आँखों में आँसू आ गए। मुझे तुम दोनों की यह बात बहुत पसंद आई।" फिर मुझसे मुखातिब होकर निज़ाम ने कहा, "अमादुल मलिक ने यह भी लिखा है कि नौजवान होने के बावजूद तुम्हारी शायरी में उस्तादों की सी पुख्तगी पाई जाती है। अपनी कोई चीज़ सुनाओ।'
मैंने मतला सुनाया..
मिला जो मौका तो रोक दूँगा जलाल रोजे-हिसाब तेरा
पढ़ूंगा रहमत का वह क़सीदा कि हंस पड़ेगा अताब तेरा।
निज़ाम के चेहरे पर पसन्दीदगी का रंग दौड़ गया। आहिस्ता से "वाह' कहा और जब मैंने यह शेर पढ़ा..
जड़ें पहाड़ों की टूट जाती फलक तो क्या अर्श काप उठता
अगर मैं दिल पर न रोक लेता तमाम ज़ोरे शबाब
तेरा।
तो निज़ाम ने झूमकर कहा, 'बहुत अच्छा! बहुत अच्छा। बहुत अच्छा ! और तमाम हाज़िरीन जोर-जोर से दाद देने लगे। मेरी ग़ज़ल के इख़्तताम (अंत) पर निजाम ने कहा, "उस्ताद जलील, इनके तेवर बता रहे हैं कि बुढ़े होकर यह तुम्हारे दर्जे के हो जाएंगे।
इसके बाद उन्होंने पूछा, "जोश, तुम्हारी शादी हो चुकी है ? मैंने कहा, "मेरी शादी हो चुकी है और मेरी बीवी यहाँ आ भी चुकी है। "यहाँ आ चुकी है ?" उन्होंने हैरत से कहा और फ़रमाया, "तुम्हारी मुलाज़िमत से पहले यह यहां क्यों चली आई। अगर तुमको मुलाज़िमत न मिल सकी तो उनका यहाँ आना बेकार हो जाएगा।"
मैंने कहा, "सरकार, मेरी बीवी को इस बात का यकीन है कि ऐसा हो ही नहीं सकता कि मुझे यहाँ मुलाज़िमत न मिले।"
निजाम ने पूछा, "तुम्हारी बीबी की इस बात का यकीन क्यों था?" मैं चुप हो गया। सोचने लगा कि उस ख्वाब का माजरा कहूँ या न कहूँ।
मेरे इस असमंजस को देखकर निजाम ने कहा, "बोलो जी बोलते क्यों नहीं?"
इस मौके पर नवाब मेहदीवार जंग हाथ जोड़कर खड़े हो गए और चूंकि मैं उनसे अपना ख्वाब बयान कर चुका था, उन्होंने कहा, "ख़ुदाबंद की इजाजत हो तो फिदवी इसका सबब चयान कर दे। और जब मेहदी साहब ने मेरा तमाम ख्वाब बयान कर दिया तो निज़ाम की आँखों में आँसू भर आए और कहा, "तो यह बोलों कि सरकारे-दोआलम ने जोश को मेरे सुपुर्द फ़रमाया है। " वह अपने दोनों हाथ अपने सीने पर रखकर झुक गए और तमाम दरबार पर गहरी ख़ामोशी छा गई।
एक हफ़्ते के बाद उस्मानिया यूनिवर्सिटी के शोबा-ए-दारुल तरजुमा के नाज़िम (अनुवाद विभाग के निदेशक) इनायतुल्ला साहब ने जो मालवी जकाउल्लाह साहब के बेटे और अकबर हैदरी व राय मसऊद के परस्तार होने के कारण मेरे बदख्वाह बन चुके थे, मुझे बुलाकर कहा, "जोश साहब, मुबारक यह लीजिए शाही फ़रमान। सरकार ने पॉलिटिकल इकोनॉमी के अनुवादक की हैसियत से आपका तकर्रुर फ़रमाया है।
मैंने कहा कि पॉलिटिकल इकोनॉमी से मेरा कोई तअल्लुक नहीं। उन्होंने खुश होकर कहा, "तो फिर आप इनकार लिख दें। "मैंने फ़रमान के हाशिया पर यह लिख दिया कि सरकारे-वाला- बतार का बेहद शुक्रिया। लेकिन चूँकि पॉलिटिकल इकोनॉमी मेरा सब्जेक्ट नहीं रहा है, इसलिए मुझे अफ़सोस है कि मैं इस काम को अच्छी तरह नहीं कर सकूँगा। अलबत्ता अगर अंग्रेज़ी अदब के तरजुमे का काम मेरे सुपुर्द किया जाए तो उसे बड़ी खूबी के साथ अन्जाम दे सकूँगा।"
इनायतुल्ला ने कहा कि अंग्रेज़ी अदब तो अंग्रेज़ी ही में पढ़ाया जाता है; इसलिए उसके तरजुमे की जरूरत ही नहीं है। आप यह इबारत काट दें। मैंने कहा, "क्या मज़ायका है, रहने दीजिए। काटूंगा तो, बदानुमाई पैदा होगी।"
इनायतुल्ला ने कहा, "नाज़िमे-शोबा की हैसियत से मेरा यह फ़र्ज़ है कि मैं आपकी इबारत के नीचे यह नोट लिख दूँ कि अंग्रेज़ी अदब सीधा अंग्रेज़ी ही में पढ़ाया जाता है, उसका तरजुमा बेकार होगा, आपको कोई एतराज तो नहीं होगा?" मैंने कहा- "बड़े शौक से लिख दें, आप।"
उसके चौथे पाँचवें दिन इनायतुल्ला खुद मेरे पास आए और कहने लगे, "जोश साहब, मुबारक हो। सरकार ने अंग्रेजी अदब के अनुवादक की हैसियत से आपका तक़रुर फ़रमा दिया है। यह लीजिए फरमान और लिख दीजिए इस पर अपनी मंजूरी। "
फ़रमान में लिखा हुआ था कि "हरचंद इस नये ओहदे की जरूरत नहीं है; लेकिन अभी जोश मलीहाबादी का मुतरज्जम अंग्रेज़ी अदब के ओहदे पर फौरन तक्ररुर किया जाए और जब उन्हें तरक्की मिल जाए तो इस ओहदे को तोड़ दिया जाए।" मैंने शुक्रिये के साथ इस फ़रमान पर दस्तखत कर दिए।
शुक्रिये की नज्र लेकर पहुंचा। एक नज्र अपनी तरफ से और दो बीवी-बच्चों की तरफ से पेश की। निज़ाम ने कहा, 'अभी क्या है, मैं तुम्हें इतना दूंगा कि घर में रखने की जगह बाक़ी नहीं रहेगी। के बीवियों हैं तुम्हारी?" मैने कहा, "मेरी तो सिर्फ एक ही बीवी है। उन्होंने कहा, "मैंने तो सुना है कि अवध के तअल्लुकेदारान की बहुत सी बीवियां होती हैं। मैने कहा सरकार आला, पहली बात तो यह है कि, हम मियां बीवी एक दूसरे से बेहद मुहब्बत करते है। और दूसरी बात यह है कि, मेरी बीवी भी मेरी ही तरह, पठान नस्ल की है। और फिर वह बेचारी, कई बरस से, दिल के दौरे के मुब्तिला है। अगर मैं दूसरी शादी कर लूंगा तो, पठानों का मोहल्ला और उसका रोग, दोनों मिल कर, मुझे हलाक कर देंगे।"
------
तो इस तरह से जोश पर निजाम हैदराबाद की कृपा हुई और उनकी नौकरी वहां लग गई। लेकिन, जोश जैसी नोकरी चाहते थे, वैसी नौकरी उन्हें नहीं मिल पाई। वे एक साहित्यिक रुचि के अदबी व्यक्ति थे और चाहते थे कि, उर्दू अदब से जुड़ी कोई नौकरी उन्हें मिलती। पर ऐसा नहीं हो पाया। शुरू में वे पोलिटिकल साइंस विभाग में अनुवाद से जुड़े रहे, फिर उनके कहने पर ही, उन्हें अंग्रेजी विभाग में कर दिया गया। नौकरी में भी सुकून, नहीं था। अब नौकरी से उनकी दुश्वारियों की बात, उन्हीं के शब्दों में पढ़े...
------
अनुवाद विभाग- यह मुकाम दफ़्तर कम और उपहास विभाग ज्यादा था। हम तमाम लोग (सैयद अबुल मौदूदी के अलावा) रोज़ हाशिमी साहब फरीदाबादी के कमरे में जमा होकर गप्पें उड़ाते और शायरी किया करते थे। मैन वहाँ तकरीबन डेढ़ बरस काम किया और जब अल्लामा अली हैदर साहब तबातबाई को पेंशन मिल गई तो नवाब अकबरयार जंग की कोशिश से मुझे तरक्की मिल गई। मेरा ओहदा तोड़ दिया गया और में अल्लामा तबातबाई की जगह 'मशीरे-अदब' के ओहदे पर काम करने लगा। मेरी यह बड़ी अदबी नमकहरामी होगी अगर मैं यह स्वीकार न करूँ कि अनुवाद विभाग में रहने से मुझे बेहद इल्मी फ़ायदा हुआ। खासतौर पर अल्लामा अमादी, अल्लामा तबातबाई और मिर्ज़ा मुहम्मद हादी रुसवा की संगत में मैंने बहुत कुछ सीखा और मुझमें अध्ययन की सही लगन पैदा हुई। शब्दों के सही उच्चारण और उपयुक्त प्रयोग का जो पौधा मेरे बाप और मेरी दादी ने मेरे वजूद की सरजमीं पर लगाया था, अगर तबातबाई, मिर्ज़ा मुहम्मद हादी और अमादी की दस बरस की सोहबत का मौका मुझे न मिलता, वह कभी न फूलता-फलता।
मिर्ज़ा मुहम्मद हादी साहब मेरे पड़ोसी थे। मैं दकन आकर फिर उनसे पढ़ने लगा और इस बार फ़ारसी के साथ उनसे अंग्रेज़ी अदब और फ़िलसफे (दर्शन) का भी बाक़ायदा सबक़ लेना शुरू कर दिया। हरचंद 1918 से में शराब के लुक से आगाह हो चुका था, इसलिए कभी-कभी किसी दावत में तो पी लेता था लेकिन तनख्वाह से खरीदकर कभी नहीं पीता था। इसलिए मुझे यह फुरसत थी कि रोज रात को ग्यारह बारह बजे तक पढ़ा करता था।
-------
लेकिन, जोश का मन वहां लगा नही और वे दकन में टिक नहीं पाए, और फिर उत्तर प्रदेश की ओर निकल पड़े। यह आप पढियेगा, अगले अंश में।
(क्रमशः)
विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh
'जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (8) नौकरी के लिए हैदराबाद की यात्रा / विजय शंकर सिंह '.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/06/8.html
No comments:
Post a Comment