Saturday 30 April 2022

प्रवीण झा / रोम का इतिहास (10)

रोम में तानाशाहों का चुनाव एक अलहदा रीति थी। यह आज के समय में भी संवैधानिक आपातकाल के समय देखा जाता है, लेकिन ऐसी स्थिति नहीं होती कि जनता या संसद ही तानाशाह चुन ले। अगर चुन भी ले, तो वह एक साल बाद पद त्याग दे, इसकी क्या गारंटी है? 

रोम में चूँकि दो प्रधान थे, उनमें से एक मर जाता या किसी कारणवश पदच्युत हो जाता, तो दूसरा थोड़े समय के लिए तानाशाह पद पर आ जाता। इस तानाशाह (dictator) का वह अर्थ नहीं, जो हम आधुनिक काल में समझते हैं। यह एक तरह से गणतांत्रिक राजा ही होता, जो अकेला गद्दी पर बैठा होता। 

458 ईसा पूर्व में जब रोम की सेना युद्ध लड़ रही थी, तो शत्रु राज्य एकी ने उनके प्रधान को सेना सहित घेर लिया। उस समय सिनेट एक कमांडर के पास गयी, जो सेना छोड़ कर खेती-बाड़ी में लग गए थे। वे उस समय टाइबर नदी किनारे फावड़ा हाथ में लिए मिट्टी खोद रहे थे। उनसे कहा गया कि आप हमारे तानाशाह बन जाएँ, और सेना का भार संभालें। 

उस घुँघराले बालों वाले व्यक्ति सिनसिनाटस ‘कर्ली’ ने तत्काल सेना को एकत्रित किया, और एक योजना बनायी कि वे रात को चुपके से आक्रमण करेंगे। उनकी यह योजना सफल रही, और वह प्रधान को छुड़ाने में सफल रहे। सेना विजयी होकर रोम लौटी। 

उत्सव का माहौल था। सभी जनरल रथ पर बैठे हुए रोम की सड़कों से गुजरे। उनके पीछे गाजे-बाजे चल रहे थे। एक रस्म यह भी थी कि सेना अपने सेनापति यानी तानाशाह सिनसिनाटस को गंदी गालियाँ देगी। सिनेट के बुजुर्गों ने उन्हें ताड़ के पत्तों से सजे वस्त्र पहनाए। एक सोने का पट्टा सर पर बाँधा गया।

सिनसिनाटस अपने घुटनों के बल जूपिटर मंदिर की सीढ़ियों पर चढ़ने लगे। यही रीति उनके बाद अधिकांश विजयी राजाओं ने निभायी, और जूलियस सीज़र तक इसी तरह मंदिर जाते थे।

रोम की जनता जोश में चिल्लायी, “तुम ही हो जूपिटर! हमारे जूपिटर!”

सिनसिनाटस ने अपना मुकुट उतारते हुए कहा, “मैं कोई देवता या राजा नहीं, मैं एक किसान हूँ। मेरा कार्य सिर्फ़ युद्ध तक था। अब मैं अपना पद त्यागता हूँ। मेरे खेत मुझे बुला रहे हैं।”

वह अपनी तानाशाही छोड़ कर खेतों में लौट गए। यह क़िस्सा कुछ-कुछ जॉर्ज वाशिंगटन की याद दिलाता है, जिन्हें यूँ ही माउंट वर्नॉन के खेतों से वापस बुला कर सेनापति बनाया गया था।

इस छोटी विजय के बाद रोम को अब बड़ी जीत की ज़रूरत थी। उनके पड़ोस में सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी थे एत्रुस्कन। उनसे अच्छे संबंध रहे थे, लेकिन अब रोम को अपने विस्तार के लिए उन पर चढ़ाई करनी थी। पुन: एक तानाशाह कैमिलस नियुक्त किए गए।

कैमिलस कुछ अधिक कठोर सेनापति थे, जो रोम की सेना को फौलादी बनाना चाहते थे। वह दस वर्ष तक एत्रुस्कन से लड़ते रहे। इस मध्य उनका एक गुप्त प्रोजेक्ट चल रहा था। वे रोम से एत्रुस्कन के गढ़ वेई तक एक सुरंग बना रहे थे। आखिर यह सुरंग पूरी हुई, और रोमन सेना सीधे शत्रु के गढ़ में प्रवेश कर गयी। इन्होंने पूरे शहर को खूब लूटा, रक्तपात किए। लेकिन, उनके सामने प्रश्न यह था कि मंदिरों का क्या करें? 

वहाँ यूनो (juno) देवी का मंदिर था, जो रोमन पुरोहितों की नज़र में पवित्र था। उन देवी का वाहन था मोर। रोमन पुरोहित मानते थे कि इस युद्ध से देवी नाराज़ हैं। उनकी ‘मूर्ति’ से क्षमा-याचना की गयी और पूजा विधियों के साथ देवी को रोम ले आया गया। उसके बाद रोमन जूपिटर देव के साथ-साथ यूनो देवी के भी पूजक बन गए।

एत्रुस्कन का गिरना रोम की विजय तो थी, मगर इसके साथ ही यह एक बड़े खतरे की घंटी थी। इतने वर्षों तक वीर एत्रुस्कनों ने यूरोप के एक खूँखार लड़ाका समुदाय को जैसे-तैसे रोक रखा था। अब रोम को उनसे अकेले भिड़ना था। उनका न कोई राज्य था, न कोई स्थापित गणतंत्र, न कोई राजा। वे टिड्डियों की तरह झुंड में आते, और खून की नदियाँ बहा कर चले जाते। 

सदियों का बसा-बसाया रोम नेस्तनाबूद हुआ, जब आए- गॉल (Gauls)! 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

रोम का इतिहास (9) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/04/9.html 
#vss 

(चित्र: देवी यूनो की मूर्ति)

No comments:

Post a Comment