प्राचीन विद्वानों का यह सुझाव रहा है कि ऋग्वेद की व्याख्या इतिहास और पुराण दोनों के आधार पर की जानी चाहिए - इतिहास पुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत् ।
यह परामर्श अधिकांश विद्वानों को उलझन में डाल देता है। माना जाता है कि पुराण बहुत बाद में लिखे गए और इतिहास तो हमारे यहां था ही नहीं। महाभारत में बार-बार पुरातन इतिहास के हवाले आते है. पर इन सभी से केवल इस बात की पुष्टि होती है कि ये उपदेश या दूसरे प्रयोजन से जो कहानिया गढ़ी गई थी. उनको ही इतिहास कहा जाता था।
भविष्य पुराण में भी इतिहास का जिस आशय में प्रयोग किया गया है उससे लगता है दृष्टांत देने के लिए गढ़ी गई कहानियों के लिए भी इसका प्रयोग हो सकता था। इनके पात्रों का मनुष्य होना भी जरूरी न था।
हम शब्द पर न जाएं तो ऋग्वेद में दो परिपाटियों (स्रुतियों) का उल्लेख है, जिनमें से एक देवों से संबंधित है और दूसरी मनुष्यों से - द्वे स्रुती अशृण्वं पितृणां अहं देवानां उत मर्त्यानाम्। ये स्रुतियां सामाजिक इतिहास से जुड़ी हुई हैं। देवों ने कृषि का आरंभ किया था। हजारों वर्षों के बाद संभवतः कृषि कर्मियों की शक्ति में विस्तार के साथ वन्य क्षेत्रों के संकुचित और जीविका के प्राकृतिक संसाधनों के क्षीण होने के कारण असुरों ने विवश होकर देवों की सेवा के बदले कृषिउत्पाद में हिस्सा पाने का विकल्प चुना। इसके बाद उन उन युक्तियों और विशेषज्ञताओं का आरंभ हुआ जिसने उद्योगों का और आगे चल कर व्यापार और वाणिज्य का जाल फैला। यह तथ्य मैं कई बार दुहरा चुका हूं कि भले भू संपदा पर आसुरी पृष्ठभूमि से आए जनों का अधिकार न था ( वे खेती करने के पाप समझते थे), परन्तु उन्नत खेती के लिए अपेक्षित सभी उपाय - पशुपालन, पशुसाधन (प्रशिक्षण और नाथने बांधने के तरीके), पहिए और रथ का क्रमिक आविष्कार और वहन, नौचालन - सभी को श्रेय उन्हें जाता है। इनके योगदान से ही कृषि में वह समृद्धि आई जिससे उद्योग और वाणिज्य का आरंभ हुआ और पुराने भूपतियों में से बहुतों ने कृषि की अपेक्षा व्यापार को प्रधानता दी। वे भू संपदा पर अपने पुराने अधिकार को सुरक्षित रखते हुए, अपना हिस्सा वसूल करते, स्वयं खेती के काम से मुक्त हो गए।
इसकी प्रकृति ठीक क्या थी यह हमारी समझ में नहीं आता, पर यह स्पष्ट है कि ठीक यहीं से मनुष्यों का युग आरंभ होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो देवयुग अविकसित कृषि व्यवस्था तक सीमित था और उसके बाद ( आज से 7000 साल पहले, गोपालन और उन्नत खेती के समय से ) मानव युग आरंभ होता है। संहिताओं, ब्राह्मणों और उपनिषदों में इन दोनों अवस्थाओं का किंचित अधिक खुला वर्णन पाया जाता है। इसके ऐतिहासिक महत्व को समझने में चूक की जाती रही है, क्योंकि आज भी लगभग सभी इतिहास आंखें बंद और कान खोल कर उपनिवेसवादियों के निर्देश का पालन करते हुए पढ़े जाते हैं। इसलिए पहले इस ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया जब कि आहार संचय की अवस्था से ले कर व्यापार और उद्योग के आरंभ तक का सामाजिक इतिहास इससे स्पष्ट और निर्णायक प्रमाणों के साथ कहीं नहीं पाया जा सकता।
संक्षेप में कहें तो पहले यह सारी पृथ्वी असुरों की थी, या पूरी मानवता आसुरी अवस्था में थी। देवों (उन जनों ने जिन्हें खेती करने की सूझी) ने उनसे अपने लिए थोडी सी भूमि मांगी और फिर जो विभाजन हुआ उसके बाद देवों ने असुरों को क्रमशः बेदखल करना शुरू किया और फिर तो वे आगे बढ़ गए, और असुर पिछड़ गए। देवों के खेती के औजार बहुत अविकसित थे। नुकीला डंडा, फिर सींग का नुकीला सिरा, और उसके बाद सीग के खोखल में नुकीला पत्थर ( क्षुरपवि) फंसा कर जमीन को खरोंच कर उसमें बीज डाले ताते थे। इस दिशा में विस्तार में जाना उचित नही है पर दो वातों का संकेत करना जरूरी है । एक तो यह कि देवयुग में पशुपालन बकरी और गधे तक सीमित था,जब कि मानव युग के साथ गोरू का पालन और उपयोग आरंभ हुआ; दूसरा यह कि देव युग में, देवभूमि में, जो वाणी (बोली) - देववााणी - बोली जाती थी वह भी देवयुग के दूसरे अविकसित उपादानों की तरह बहुत पिछड़ी बोली थी जिसके अनेकानेक लक्षणों को भोजपुरी को सामने रख कर समझा जा सकता है, यद्यपि आज की भोजपुरी से वह बहुत भिन्न थी।
दूसरे जिसे इतिहास कहते थे, उसे ही हम पुराण - पहले जो कुछ घटित हुआ उसका सार - कहते थे। यही सभी प्राचीन समाजों और सभ्यताओं के पास था।
व्यक्तिपरक इतिहास को हमारे चिंतकों ने मूर्खता मान रखा था। अस्तित्व में आना- भव - है, जिसे दुख समझा गया, जीवन को भवसागर - दुख का सागर समझा गया, जिसमे डूबना नहीं, जिससे पार पाना ही लक्ष्य है। जीवन बंधन है। परम उपलब्धि जीवन चक्र से मुक्ति है। कर्म में आसक्ति बंधन है, जिसका परिणाम है फल - सुख दुख का भोग और इस भोग के लिए पुनर्जन्म (जीवन चक्र का बंधन)। इसलिए इससे मुक्ति या बंधन को खोलने या इससे बचे रहने - मोक्ष - के लिए अनासक्त भाव से काम करना है। अपवर्ग के सामने स्वर्ग का सुख भी हेय है, क्योंकि उसके भोग के बाद पुनः जीवन चक्र आरंभ हो जाएगा। यह दुर्लभ मानव जीवन मिला ही इसलिए है कि मनुष्य ही योग, तप, भक्ति, या निष्काम कर्म से माया से मुुक्त हो कर परमात्मा में लीन हो सकता है और अपनी खोई हुई महिमा को पा सकता है।
जीवन चक्र वाली अवधारणा में मृत व्यक्ति की आत्मा शरीर त्यागने के बाद प्रेतयोनि में चली जाती है और उससे अभिन्न रूप से जुड़ी कोई निजी वस्तु शेष रह जाए तो भटकती प्रेतात्मा उसमें प्रवेश कर सकती है, इसलिए उससे संबंधित हर चीज, यहां तक कि उसकी जन्मपत्री तक फाड़ या जला दी जाती है, जो बची रहती तो कम से कम उसके काल निर्धारण में तो काम आती।
यही मानसिकता थी जिसमें राजाओं महाराजाओं (ईश्वर के प्रतिनिधियों) के पास प्रशंसा और वंदना करने के लिए बंदीजन, सूत और मागध थे, परंतु उनके कीर्तिमान से बाद के लोगों को परिचित कराने के लिए उन्हें लिपिबद्ध करा कर छोड़ जाने की चाह न थी। वे जो कुछ कर रहे थे वह प्रभु के प्रतिनिधि के रूप में कर्तव्यपालन था। मूर्तिकारों ने मूर्तियां बनाई, वास्तुकारों ने अविस्मरणीय निर्मितियां कीं परंतु इस बात का निशान नहीं छोड़ा कि मूर्तिकार या स्थपति या चित्रकार बनाई किसने है। राजाओं ने देवालय बनवाए, देवताओं की मूर्तियां बनाईं, परंतु किसी ने अपनी मूर्ति नहीं बनवाई,। राजाओं ने सिक्को पर अपने नाम या छाप नहीं अंकित कराए। । गौतम बुद्ध ने मना कर दिया था कि मेरी न तो मूर्ति बनाई जाएगी, न चित्र बनाया जाएगा । यह दूसरी बात है कि सबसे पहले यदि किसी की मूर्तियां बनी तो उनकी। किसी के पिछले जन्मों से लेकर इस जीवन तक की कहानियां गढ़ी गईं तो उनकी। परंतु उनके व्यक्तित्व को उनके जीवनकाल में ही देवोपम बना दिया गया था। लोग उन्हें संबोधित करते हुए भगवा अर्थात् भगवान का प्रयोग करते थे ।
तात्पर्य यह कि व्यक्तिपरक इतिहास का अभाव इतिहास लेखन की योग्यता का अभाव नहीं है। ज्ञान की विविध शाखाओं में तथ्यपरकता का और पूर्ववर्तियों के विचारों के अंकित करने और उनसे असहमत होने के कारण बताते हुए अपनी मान्यता को स्थापित करने की अपेक्षा का निर्वाह सभी शाखाओं में किया गया।
कर्म के प्रति यह अनासक्ति भाव बहुत प्राचीन अवस्था में ही - जीव और आत्मा, माया और ब्रह्म के भेद के कारण बद्धमूल हो गया था।
कुछ भारतीय विद्वानों को लगता रहा कि व्यक्तिपरक रचनाओं अर्थात् गाथाओं को ही बाद में इतिहास कहा गया और ये पुराणों से अलग थीं। यह भेद सही नहीं लगता। यह एक ऋचा का सही पाठ न करने से पैदा हुआ विभाजन है। इसमें गाथा और पुराण अलग नहीं है, पुराण्या (पुरानी के द्वारा) गाथया (गाथा के द्वारा) का विशेषण है। इसे बहुत बाद के महाभारत में आए इतिहासं पुरातनं - पुराने इतिहास - का पूर्व रूप समझा जाना चाहिए। आश्चर्य है कि वैदिक की इतनी सतही समझ रखने वाले लंबे साय तक वैदिक के विद्वान इसलिए माने जाते रहे कि इसे डरावना क्षेत्र मान कर किसी ने कुछ कह दिया तो लोग उसे परखने तक का साहस नहीं करते थे।
© भगवान सिंह
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