Saturday, 9 April 2022

सच्चिदानंद सिंह / बेतिया के ईसाई

भारत में ईसाई धर्म

यीशू मसीह शायद 31 या 33 वर्ष के थे जब उन्हें सूली पर चढ़ाया गया था. उसके बस बीसेक साल बाद, एडी 53 में उनके शिष्य (धर्मदूत) टॉमस, सीरियाई ईसाई परम्परा के अनुसार, दक्षिण भारत आए थे जिनके सद्भाव से केरल के लोग ईसाई धर्म से परिचित हो गए. जिस समय रोम में एक भी ईसाई नहीं हुए थे, केरल में एक अच्छा खासा ईसाई समुदाय बन चुका था. भारत में ईसाईयत के प्रचार में अगला अध्याय पंद्रहवीं सदी के अंत में आता है जब पुर्तगीज़ अन्वेषक वास्को द गामा केरल में सीरियक ईसाइयों के समाज को देख चकित हो गया था.

पुर्तगीज़ उपनिवेश नीति का एक अभिन्न अंग था धर्म प्रचार. गोवा में पुर्तगीज़ शासन स्थापित होने के बाद स्वाभाविक रूप से गोवा कैथोलिक ईसाइयत के एक बहुत बड़े केंद्र के रूप में उभरा. उन्ही दिनों सेंट फ्रांसिस ज़ेवियर भारत आकर सुदूर पूर्व के लिए निकल गए थे और अकबर के शहंशाह बनने तक गोवा में जेसुइट्स की जटिल नौकरशाही (हाइरार्की) पूरी तरह स्थापित हो चुकी थी. अकबर धर्म-दर्शन में रुचि रखता था. फतहपुर सिकरी में उसने अनेक धार्मिक गोष्ठियां आयोजित कराई थीं जिनमे वह ब्राह्मणों, मौलवियों, पादरियों, यहूदी रब्बाईयों और पारसी दस्तूरों को संवाद / विवाद करने के लिए प्रोत्साहित करता रहता था. अकबर ने एकबार विशेष रूप से कोचीन के बिशप फादर परेरा को बुलाया था जिन्हे पूरा कुरआन शरीफ कंठस्थ था, और गोवा से फादर जेरोम ज़ेवियर को भी जो सेंट फ्रांसिस ज़ेवियर की बहन के पौत्र थे. 

उत्तर भारत में ईसाई धर्म 

जेसुइट पादरियों की समझ से अकबर इतना प्रसन्न हुआ था कि उसने लाहौर और आगरा दोनों जगह उन्हें चर्च बनाने के लिए प्रोत्साहित किया और पैसे भी दिए, जमीनें भी दीं. आगरे का वह चर्च आज भी अकबर का चर्च कहलाता है, यद्यपि  अकबर के समय बनी संरचना को शाहजहां से ढहवा दिया था और बाद में शाहजहां की अनुमति से उसी जगह नया गिरजाघर बना. अकबर का पुत्र जहाँगीर भी ईसाई पादरियों का सम्मान करता था, उसने आगरे में स्थित अकबर के चर्च के लिए और जमीने भी दीं थीं.
 
एक रोचक प्रसंग है, जहाँगीर ने पादरियों से एक बार आग्रह किया था कि वे उसके चार भतीजों का बप्तिस्मा कर उन्हें ईसाई बना दें. जेसुइट खेमे में खुशी की लहर दौड़ गयी. वैसी ही जैसी कभी अकबर के एक पत्र को पढ़ कर गोवा और रोम में दौड़ी थी - अकबर ने लिखा था वह ईसाई धर्म को समझना चाहता है और वैटिकन के उच्च अधिकारी भी यह मान चले थे कि विश्व का सबसे शक्तिशाली और वैभवशाली सम्राट अब कुछ ही दिनों में ईसाई बन जाएगा. अस्तु. 

जहाँगीर के भतीजे आगरा किला से मखमल और सोने से सुसज्जित हाथियों पर अकबर के चर्च के लिए निकले थे. चारो शाहज़ादों के गले से सोने के भारी सलीब लटक रहे थे, उनकी पोशाक पुर्तगीज़ सामंतों की थी, आगरे के ईसाई धर्मावलम्बी रास्ते भर उनकी जयजयकार कर रहे थे. और उनके पहुँचने तक चर्च की घंटियाँ पूरे जोर शोर से बजने लगीं थीं. बप्तिस्मा हुआ. उन्हें नए ईसाई नाम दिए गए जो "डॉम" से शुरु होते थे. डॉम कैथोलिक चर्च में ऊंचे अधिकारियों (विशेषकर बेनेडक्टाइन नौकरशाही में) के नाम के पहले लगाया जाता है और पुर्तगाल / स्पेन में सामंतों, शाही परिवार के सदस्यों के नाम के पहले.

लेकिन चार वर्ष बाद जहाँगीर ने अपने भतीजों को फिर से मुसलमान बनवा लिया. जेसुइट रो पड़े. प्राच्य राजशाहियों की भंगुरता की कहानियों में एक प्रसंग और जुड़ चला. किन्तु जहाँगीर ने वैसा किया क्यों? अपने भतीजों को ईसाई क्यों बनवाया और जब बनवा ही दिया तो फिर उन्हें ईसाई रहने क्यों न दिया? 

विलियम हॉकिंस का, जो जहाँगीर के दरबार में ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रतिनिधि के रूप में दो वर्ष रहा था और शहज़ादों के ईसाई बनने के समय आगरे में मौजूद था, कहना है कि उन दिनों जहाँगीर की स्थिति बहुत मजबूत नहीं थी और अपने पुत्रों के उत्तराधिकार सुरक्षित रखने के लिए उसने अपने भतीजों को ईसाई बनवा कर मुग़ल तख़्त से दरकिनार कर दिया था. एक अन्य मत के अनुसार जहाँगीर एक पुर्तगीज़ बीवी चाहता था और उसके लिए भारत में रहते पुर्तगीजों के साथ निकटस्थ सम्बन्ध स्थापित करना चाहता था. 

पहले मत के अनुसार चार वर्षों में उसकी स्थिति इतनी सुदृढ़ होगयी थी कि अपने भतीजों से उसकी पहले जैसी चिंता न रही. और जहां तक पुर्तगीज़ बीवी वाली बात थी, 1610 में जहाँगीर ने भतीजों के बप्तिस्मा कराये थे. 1611 में उसने शेर अफ़ग़ान की बेवा से विवाह किया जो बाद में नूर जहाँ कहलायी और उसके साथ जहाँगीर की शादियों के सिलसिले कुछ रुक से गए.

सत्रहवीं सदी के अंत तक उत्तर भारत में ईसाइयों की संख्या बहुत कम थी. बंगाल में जहाँ कलकत्ते में कंपनी के दफ्तर थे और दूसरी जगहों पर कंपनी के, फ्रेंच कंपनी के और डच कम्पनी के भी 'फैक्ट्री' (व्यापार केंद्र) थे उन जगहों पर कुछ ईसाई जनसंख्या अवश्य थी लेकिन पूरी तरह भारतीय समाज में उत्तर भारत में ईसाई धर्म सबसे पहले बेतिया में फला फूला. इसके पीछे एक इतालवी पादरी और एक हिन्दू राजा (जमींदार) की मित्रता की कहानी है. 

"चूना से पुते सफ़ेद घर, आँगन, पतली गलियाँ, फूल-पौधों से सजे चौराहे, और बड़ा सा चर्च; चौड़ी रिम के हैट पहने मर्द, स्कर्ट और ओढ़नी में लड़कियाँ .... बेतिया शहर का क्रिस्तान टोला (क्रिश्चियन क्वार्टर) देखने से कुछ कुछ मेडिटरेनियन के किसी गाँव सा लगे ...." यह वर्णन डोमिनिक लापियरे के सिटी ऑफ़ जॉय से. 

पता नहीं यह किस वर्ष का वर्णन है. डोमिनिक को कलकत्ते के स्लम ‘आनंद नगर’ में बेतिया के कुछ ईसाई परिवार मिले थे. यह पता नहीं चलता कि उनसे मिलने के बाद, अपनी किताब लिखने के क्रम में वह बेतिया गए भी थे या नहीं. पर उनकी यह दूसरी बात कई अन्य स्रोतों से भी पुष्ट होती है कि, "1940 के दशक तक (बेतिया क्षेत्र ने) उत्तरी भारत में ईसाइयों के सबसे महत्वपूर्ण समुदायों में से एक को प्रश्रय दिया था".

इस बेतिया क्षेत्र पर सैकड़ो वर्षों से एक भूमिहार ब्राह्मण परिवार का वर्चस्व रहा है. अंग्रेजों से उस परिवार की कई पीढ़ियों में राजा, महाराजा की पदवी मिली थी. परिवार में राजा कहलाने वाले पहले व्यक्ति एक गज सिंह जी थे जिन्हे शाहजहाँ ने यह खिताब दिया था. 1940 में जो बेतिया के महाराजा थे वे राजा गज सिंह के पुत्रों के वंश से नहीं बल्कि एक राजा जुगल किशोर सिंह के वंश के थे. जुगल किशोर पुत्रहीन राजा ध्रुप (ध्रुव?) सिंह की पुत्री के पुत्र थे. हमारी कहानी के नायक यही राजा ध्रुप सिंह जी हैं.

इस कहानी में हम बेतिया राज के इतिहास को न छू कर बस उन परिस्थितियों को देखेंगे जिनमे राजा ध्रुप सिंह ने पटने से इतालवी मिशनरी ज्यूसेपे मारिआ द बोराग्नानो को बेतिया आमंत्रित करते हुए उन्हें अपने क्षेत्र में ईसाई धर्म के प्रचार की बस अनुमति नहीं दी बल्कि उसके लिए धन और भूमि देते हुए प्रोत्साहित किया. हम ज्यूसेपे मारिया की पृष्ठभूमि भी देखेंगे, उनका परिवार, उनकी शिक्षा दीक्षा, उनका पटना आना वगैरह. साथ साथ हम यह भी देखेंगे कि कैसे अलग अलग जातियों के लोगों ने, जिनमे कुछेक मुसलमान भी थे और नेपाल के अनेक नेवारी भी, धर्मपरिवर्तन कर एक विशिष्ट नस्ली-धार्मिक समुदाय का निर्माण किया जिसके सदस्य “बेतिया के ईसाई” कहलाए.

ज्यूसेपे मारिआ द बोराग्नानो 

ज्यूसेपे मारिया का जन्म सितम्बर 1709 में, लोम्बार्डी क्षेत्र में ब्रेस्सा प्रान्त स्थित बोराग्नानो गाँव के एक अभिजात परिवार में हुआ था. उन दिनों ब्रेस्सा पर वेनिस के गणतंत्र का प्रभुत्व था. काउंट ज्यूसेपे द बर्निनी के पुत्र ज्यूसेपे मारिआ का जन्म-नाम बर्नान्डो बर्निनी था. पांच भाइयों और तीन बहनों में बर्नान्डो सबसे छोटे थे. नौ की उम्र में अपने एक चाचा के साथ वे विएना चले गए और छः साल वहीँ पढ़ाई की. विएना से लौटने तक बर्नान्डो लैटिन, जर्मन, फ्रेंच और टस्कन भाषाएँ सीख चुके थे. बर्नान्डो ने अपने लिए सैनिक जीवन चुना था लेकिन एक काप्यूचिन (Capuchin: सेंट फ्रांसिस असीसी के अनुयायियों का एक वर्ग) मिशनरी के यह कहने पर कि "यदि लड़ना ही है तो हाथों में सलीब उठाकर स्वर्ग के सम्राट के लिए लड़ो" उन्होंने मिशनरी बनने की ठान ली.

सत्रह की उम्र में आजन्म दरिद्रता, पवित्रता और आज्ञाकारिता की शपथ लेकर, अपना नया नाम ज्यूसेपे मारिआ बोराग्नानो रखते हुए, बर्नान्डो ने काप्यूचिन चोगा पहन लिया. अगले बारह वर्षों तक ज्यूसेपे मारिआ इटली के विभिन्न धार्मिक विद्यालयों में पढ़ाई करते रहे. वे रोम में थे जब 1736 में तिब्बत जा रहे एक काप्यूचिन मिशन के लिए उन्हें चुना गया. ज्यूसेपे मारिया बहुत इच्छुक नहीं थे तिब्बत जाने के लिए किंतु आज्ञाकारिता की शपथ ले रखी थी और 1739 मार्च में उनका दल फ़्रांस के ब्रिटनी तट से भारत के लिए निकल चला.    

काप्यूचिन मुख्यतः इटली और फ़्रांस में फैले थे और फ़्रांस की औपनिवेशिक पहलों के साथ भारत में कई जगह उनके आश्रम (हॉस्पिस) बने हुए थे. ज्यूसेपे मारिआ का जहाज अगस्त 1739 में पॉन्डिचेरी पहुँचा था, जहाँ कुछ दिन रुक कर उनका दल चंदननगर (पश्चिम बंगाल) के लिए निकल गया जो फ्रांसीसियों का बसाया शहर था. दो महीने वहाँ रुक कर वे नाव से पटना के लिए निकले लेकिन अनुमति पत्र लेने के लिए मुर्शिदाबाद रुक गए. मुर्शिदाबाद से पटने की यात्रा उन लोगों ने स्थल मार्ग से की. (कुछ डच व्यापारियों ने उन्हें तीन बैलगाड़ियां, बैल और गाड़ीवान उधार दिए थे.) मार्च में यूरोप से चले ज्यूसेपे मारिआ क्रिसमस से एक सप्ताह पहले पटना पहुंचे.
 
पटना और बेतिया 

पटना में अंग्रेजों की एक बड़ी फैक्ट्री थी. वहाँ फ्रांसीसी और डच व्यापारियों ने भी अपने व्यापार केंद्र स्थापित कर रखे थे. काप्यूचिन आश्रम के बाहर उन दिनों कहीं कोई कैथोलिक पादरी नहीं था. अंग्रेज कैथलिकों से दूर ही रहते थे. लेकिन ज्यूसेपे मारिआ एक पादरी होने के साथ साथ एक कुशल चिकित्सक भी थे. चिकित्सा की पढ़ाई उन्होंने कहाँ की, इसके कोई सन्दर्भ नहीं मिलते. लेकिन उन्हें दवाओं का अच्छा ज्ञान था और विश्वास उपचार (फेथ हीलिंग) में उनकी बहुत श्रद्धा थी. एक जेसुइट के अनुसार वे बस विश्वास पर उपचार करते थे, किन्तु यह बात मानने लायक नहीं है. कुछ ही दिनों में ज्यूसेपे मारिआ की प्रसिद्धि दूर दूर तक फ़ैल गयी और पटने से बहुत दूर रहने वाले लोग भी काप्यूचिन आश्रम में अपना इलाज कराने आने लगे.

ज्यूसेपे मारिआ के एक समकालीन, काप्यूचिन मिशनरी मार्को डेला टॉम्बा ने लिखा है, ज्यूसेपे मारिआ के पटना आने के तीन-चार साल बाद, 1743 के आस पास, बेतिया की रानी,  राजा ध्रुप सिंह की पत्नी अस्वस्थ हुई थी. स्थानीय चिकित्सकों ने, यह कहते हुए अपने हाथ उठा दिए कि रानी के रोग की चिकित्सा संभव नहीं है क्योंकि इसका कारण उसके भ्रातृ हन्ता पति का पाप है. (मुझे नहीं पता चल पाया कि ध्रुप सिंह ने अपने किस भाई की ह्त्या की थी). ध्रुप सिंह ने इस बीच पटना के कैथोलिक मिशनरी ज्यूसेपे मारिया की ख्याति, बतौर एक चिकित्सक, सुन रखी थी. मार्को कहते हैं राजा ने तीन बार ज्यूसेपे मारिआ से बेतिया आने के अनुरोध किये थे. ज्यूसेपे मारिआ असमंजस में रहे और तीसरे अनुरोध के बाद बहुत हिचकिचाते हुए उन्होंने बेतिया जाने का फैसला लिया.
  
रानी परदे में रहतीं थीं और कुछ मुश्किल से राजा इस फिरंगी वैद्य के रानी से सीधे मिल कर रोग की जांच पड़ताल करने देने को तैयार हुए.  ज्यूसेपे मारिआ को "बस एक जो समस्या दिखी वह थी रानी के गले में कांकेर (Canker: नासूर)". उन्होंने राजा को आश्वस्त किया कि रोग पूरी तरह शारीरिक है, इसका किसी पाप-फल से कोई सम्बन्ध नहीं, और वे एक दवा देंगे जिससे रानी पंद्रह दिनों में स्वस्थ हो जाएंगी. यहीं से हिन्दू राजा और कैथोलिक पादरी की मित्रता शुरु हुई. रानी स्वस्थ हुईं और राजा ने ज्यूसेपे मारिआ से बेतिया में अपना आश्रम बनाने का आग्रह किया. ज्यूसेपे ने बताया कि वे कहीं भी आश्रम बनाने के लिए स्वतंत्र नहीं थे. उनके कहने पर राजा ने तत्कालीन पोप बेनेडिक्ट 14 को पत्र लिखा और काप्यूचिन मिशनरियों को बेतिया में आश्रम बनाने की अनुमति देने की प्रार्थना की. 

रोम से उत्तर आने में दो वर्ष लग गए. 

नोट: गले में या मुंह में कांकेर नासूर प्रायः कुछ हफ़्तों में स्वतः ठीक हो जाने वाली एक बहुत सामान्य व्याधि होती है. इसका बहुत दिनों तक ठीक नहीं हो पाने और बेतिया के राजवैद्य द्वारा इसे पाप-फल बताते हुए असाध्य घोषित करने से यही लगता है कि रानी की व्याधि कोई सामान्य कांकेर नहीं थी. भगवान किसी किसी चिकित्सक के हाथ यश लिखते हैं और जो दूसरे ठीक नहीं कर पाते उन्हें ऐसे चिकित्सक, बस उन्ही औषधियों से, जो पहले से चल रहीं थीं, ठीक कर देते हैं. लेकिन यह भी संभव है कि यह ज्यूसेपे मारिआ के विश्वास उपचार का एक दृष्टांत था, शारीरिक व्याधि मानसिक अवस्था के चलते नहीं जा रही थी और ज्यूसेपे मारिआ ने अपने विश्वास के बल पर उसे ठीक कर दिया।

ल्हासा से बेतिया

कैसिआनो के अनुसार काप्यूचिन मिशन के कुछ सदस्य 1740 में ल्हासा के लिए निकल गए थे (स्मरण रहे, यह 'तिब्बत मिशन' था) और 1742 में जोसफ मेरी भी बेतिया, काठमांडू होते हुए ल्हासा के लिए निकले. उन दिनों नेपाल पर तीन मल्ल राजाओं का शासन था. तीनो ने काठमांडू घाटी में काठमांडू, पाटन और भटगाँव में अपनी राजधानियाँ रखीं थीं. भटगाँव में काप्युचिन बहुत दिनों से सक्रिय थे. वहाँ कुछ दिन रुक कर जोसेफ मेरी कुछ व्यापारियों के साथ ल्हासा के लिए निकले और बहुत कठिन यात्रा के बाद जब तक वे ल्हासा पंहुच सके तिब्बती अधिकारियों ने मिशनरियों की गतिविधि पर बहुत रोक लगा दी थी.

1745 में पोप से बेतिया में काप्यूचिन आश्रम बनाने की अनुमति मिलने के बाद जोसफ मेरी और कैसिआनो एक नेपाली ईसाई के साथ बेतिया पहुंचे. कैसिआनो लिखते हैं कि राजा उन्हें देख बहुत प्रसन्न हुए थे लेकिन पादरियों के रहने के लिए उन्होंने एक फटेहाल सा एक मंजिला घर दिया. कहा जाता है कि ध्रुप सिंह पादरियों को अपने महल के पास रखना चाहते थे और वहां बस यही एक आवास उपलब्ध था.

अगले कुछ महीनों में, शायद 1746 में ही, राजा के एक प्रमुख दरबारी की मृत्यु हुई. इस व्यक्ति ने ध्रुप सिंह समेत बहुतों से ऋण ले रखे थे. उसकी मृत्यु के बाद अपने ऋण के बदले राजा ने उसके आवास को अपने अधीन कर लिया. मृतक ने एक धनाढ्य ब्राह्मण से भी ऋण ले रखे थे. उस ब्राह्मण ने दावा किया कि मृतक की संपत्ति से पहले उसके ऋण की भरपाई होनी चाहिए. राजा ने उसकी बात अनसुनी की और कुपित हो उस ब्राह्मण ने मृतक के घर की छत पर जाकर एक कृपाण से अपनी जान ले ली. 

उस ब्राह्मण का किसी अनुपयुक्त जगह दाह करवाने के बाद राजा ने उस अशुभ मकान को नष्ट कर देने का निश्चय किया. लेकिन ऐन वक्त पर किसी अनुचर ने उस मकान को पादरियों को दे देने की बात की और राजा को यह बात जँच गयी.  इस तरह काप्युचिन मिशन को बेतिया में पहली बड़ी संपत्ति मिली. बेतिया का बड़ा कैथोलिक चर्च, चर्च के अन्य ऑफिस और बिशप के निवास आदि आज उसी 'अशुभ'  संपत्ति पर खड़े हैं. 

चन्दननगर और वापस बेतिया 

उसके कुछ समय बाद जोसेफ़ मारिया अस्वस्थ हो गए (शायद मलेरिया) और उन्हें पटना आश्रम लाया गया. पटने में स्वास्थ्य लाभ पा जाने पर उन्हें  उत्तर भारत के सबसे बड़े काप्यूचिन आश्रम चन्दननगर भेजा गया. चन्दननगर और कलकत्ते में रह रहे फ्रांसीसियों और अंग्रेजों के व्यवहार से जोसेफ़ मेरी बहुत व्यथित हुए थे. उन्हें उम्मीद थी कि यूरोपीय लोगों के आचार व्यवहार से ईसाई मूल्य झलकेंगे जिससे स्थानीय हिन्दू या मुसलमान ईसाईयत की श्रेष्ठता देख सकेंगे. किन्तु भारत में रह रहे यूरोपीय ईसाइयों के आचार उन्हें इतने अपवित्र और चरित्रहीन दिखे कि उन्हें लगा स्थानीय लोगों के लिए, जिन्हे मिशनरी ईसाई बनाना चाहते थे, ईसाई समाज के उससे अधिक कलुषित उदाहरण खोजे नहीं जा सकते थे. 

बेतिया का पहला चर्च

जोसेफ़ मेरी ने अपने संगठन से प्रार्थना की कि उन्हें ऐसी जगह भेजा जाए जहाँ यूरोपीय नहीं हों; और इस तरह अगस्त 1750 में वे वापस बेतिया स्थानांतरित हो गए.  बेतिया आकर उन्होंने हिन्दू और ईसाई धर्मों की तुलना करते हुए एक हिन्दू और एक ईसाई के बीच कल्पित वार्तालाप तैयार करने की सोची. एक साथ हिंदी (हिन्दुस्तानी) और इतालवी में लिखी गयी इस किताब को पूरी होने में करीब एक साल लग गए. 

अपने सहकर्मी कैसिआनो और एक (अनाम) ब्राह्मण शिक्षक के साथ मिल कर जोसेफ मेरी ने "डायलॉग बिटवीन अ क्रिश्चियन ऐंड अ हिन्दू" 1751 तक पूरी कर ली थी.  किताब के हिंदी रूप का शीर्षक था, "सवाल-जवाब एक क्रिस्तान और एक हिन्दू के बीच मो ईमान के ऊपर". जैसा नाम से स्पष्ट है इसकी भाषा आधुनिक हिंदी से दूर थी. 1907 में इसका एक संशोधित संस्करण आया, "प्रश्नावली अर्थात धर्म पर हिन्दू और क्रिस्तान के बीच प्रश्नोत्तर".

इस किताब को जोसेफ़ मेरी अपना एक बहुत बड़ा काम मानते थे, इतना कि इसके हिंदी रूप की एक हस्तलिखित प्रति उन्होंने एक बैलगाड़ी पर रखवा कर राजा ध्रुव सिंह को भेंट की थी. हिंदी और इतालवी, दोनों रूपों की एक एक प्रति वैटिकन भी भेजी गयी थी जहाँ की हिंदी प्रति का एक मेक्सिकन विद्वान ने कुछ वर्ष पहले अंग्रेजी अनुवाद किया है.  

1749 में बेतिया आने के बाद जोसेफ़ मेरी ने एक चर्च बनवाने का निश्चय किया. राजा ने उसके लिए भी बहुत सहायता की थी यद्यपि दरबार के ब्राह्मणों ने उसका विरोध किया था. इसी चर्च की ब्लेसिंग (धार्मिक उदघाटन) के समय राजा को उस किताब की हस्तलिखित प्रति भेंट की गयी थी. उदघाटन 1751 क्रिसमस के अवसर पर था. क्रिसमस की पूर्व संध्या पर नया बना चर्च दीपकों से जगमगा रहा था. उदघाटन समारोह देखने शहर के लोग आए थे. राजा और उनके परिवार के लोगों ने महल की छत से उदघाटन देखा था. 

राजा ने उदघाटन के लिए पशुओं के दान भी किये थे यह सोच कि बलि पड़ेगी ही. जोसेफ़ मेरी ने मना कर दिया था. उन्होंने राजा के संगीतकारों को भी नहीं आने दिया था यह सोच कर कि वे कभी भाव में आकर अपने धार्मिक गाने न शुरू कर दें. लेकिन राजा के कहने पर उनके संगीतकार चर्च की चारदीवारी के बाहर गाते- बजाते रहे.  

उदघाटन की अगली सुबह जब चर्च में पूजा (मास) हो रही थी तो क्रिस्तान पूजा देखने शहर के बहुत हिन्दू भी आए थे. उनमे राजा का एक भांजा (जो बाद में राजा बना) भी था. हम कह सकते हैं कि बेतिया में कैथोलिक और हिन्दुओं के बीच एक दुसरे के धार्मिक त्योहारों में भाग लेने की परम्परा की शुरुआत शायद राजा ध्रुप सिंह के इस भांजे (जुगल किशोर, जिसके काप्यूचिन के साथ उतने प्रगाढ़ सम्बन्ध नहीं रहे थे) के उस मास में भाग लेने से हुई. आज भी क्रिसमस या गुड फ्राइडे के दिन सैकड़ो गैर-ईसाई, मुख्यतः हिन्दू, चर्च आते हैं और प्रार्थना में भाग लेते हैं. चर्च के बाहर बने मदर मेरी के एक छोटे से मंदिर में भी गैर-ईसाईयों को पूजा करते देखा जा सकता है.

जोसफ़ मेरी को, जैसी उम्मीद की जासकती है, प्रायः ब्राह्मणों के विरोध का सामना करना पड़ा. कारण पता नहीं चलता किन्तु, राजा ध्रुप सिंह ने ऐसे मामलों में हमेशा मिशनरियों का साथ दिया. इसमें कोई संदेह नहीं कि यदि राजा का उदार समर्थन नहीं मिलता तो मिशनरी बेतिया में कभी नहीं टिक पाते. 

काप्यूचिन मिशन ने कभी धन आदि के लोभ दिखा आकर धर्मपरिवर्तन के प्रयास नहीं किये. उनके पास यूँ भी, बहुत कम पैसे रहते थे. तिब्बत मिशन के लिए स्पेन नरेश ने  मेक्सिको और फिलीपींस से कुछ वार्षिक राशि की व्यवस्था कर रखी थी. कभी कभी ये वार्षिक राशियां वर्षों बेतिया तक नहीं पहुँच पायीं. 

जोसेफ़ मेरी हर किसी को ईसाई बना देने में भी विश्वास नहीं रखते थे. जिस किसी में वे आस्था की कमी की झलक पाते उसे धर्म परिवर्तन करने से रोक देते. 1761 में जब उनका देहांत हुआ, सोलह वर्षों तक धर्म प्रचार में लगातार लगे रहने के बावजूद वे बस चालीस लोगों को ईसाई बना पाए थे.

जोसफ़ मेरी के बाद

जोसेफ़ मेरी की मृत्यु के जल्द बाद कुछ बहुत महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं. उसी वर्ष मीर कासिम ने बेतिया पर आक्रमण किया जिसमे बेतिया किले के अंदर राजा के गढ़ और चर्च दोनों को बहुत क्षति पहुंची. जो बेतिया को देख चुके हैं उन्हें यह जान कर आश्चर्य भी हो सकता है बेतिया कभी एक किला  था. एक काप्यूचिन मिशनरी ने, जो 1758 से 1768 तक बेतिया में रहा था, बेतिया शहर का यह वर्णन रख छोड़ा है: “ … बेतिया शहर की परिधि कोई चार मील की होगी और यह चारो तरफ से मिटटी की एक मोटी दीवार से घिरा है जिस पर जगह जगह पर शहर की सुरक्षा के लिए बुर्ज बने  हुए हैं. घर मुख्यतः मिटटी के हैं, राजा के महल और मिशनरियों के घरों को छोड़ कर, जो  ठोस दीखते हैं जैसे यूरोप के घर. …" बेतिया शहर की दीवार के अंश 1938 तक देखे जा सकते थे.

किले के अंदर, जैसी उन दिनों प्रथा थी, भिन्न जातियों के लोग अपनी अपनी जाति के टोलों में रहते थे. वहीँ क्रिस्तान टोला भी था. लेकिन क्रिस्तान टोले में दूसरे समुदायों के लोग भी रहते थे: मुसलमान मुख्यतः दरगाह मोहल्ले या चिक पट्टी में, और हिन्दू नोनिया टोला, कोइरी टोला में. क्रिस्तान टोले के बाहर मुसलमान पुरानी गुदड़ी और गंज इलाकों में और हिन्दू जमादार टोला, मरवा पट्टी आदि में. 

शरुआत में क्रिस्तान टोले के अंदर भी विभिन्न जातियों से आये ईसाई अपनी जाति के टोले में रहते थे. इस तरह क्रिस्तान टोले में सोनार पट्ट, लोहार पट्ट, बढ़ई पट्ट, कायस्थ पट्ट आदि देखने को मिलते थे. लेकिन बेतिया के कैथोलिक उनसे बंधे नहीं रहे. उनके पेशे बदलते रहे और रहने के इलाके भी - प्रायः दोनों स्वतंत्र रूप से. 

मीर कासिम आक्रमण के एकाध वर्ष बाद नेपाल में तीन मल्ल राजाओं को हटा कर गुरखा आये. गुरखा प्रशासकों ने भटगाँव स्थित काप्यूचिन आश्रम के मिशनरियों और नए ईसाईयों को नेपाल छोड़ने के हुक्म दिए और तब कुछ पादरी अपने साठ-पैंसठ नेवारी अनुगामियों के साथ बेतिया आ गए. राजा ध्रुप सिंह ने बेतिया शहर से कोई सात मील दूर एक नए गाँव चुहारी में उन्हें बसाया. नेपालियों के आने के बाद बेतिया ईसाई समाज अब दो जगहों पर बसा था - किले के अंदर और चुहारी.

1765 में बक्सर युद्ध के बाद अंग्रेजों को बंगाल की दीवानी मिली और वे बेतिया  राज से कर वसूलने के लिए तत्पर हुए. तत्कालीन राजा जुगल किशोर के कर भरने से मना करने पर कम्पनी की फ़ौज ने बेतिया पर आक्रमण कर दिया. 1766 के इस आक्रमण में राजा का गढ़ और चर्च दोनों क्षतिग्रस्त हुए, अंग्रेज कैथोलिक मिशनरियों को शंका की दृष्टि से देखते थे. कुछ काप्युचिन मिशनरी महीनों बंदी भी रहे. करीब बीस साल बाद चर्च की संपत्ति को नुक्सान पहुंचाने के मुआवजे के तौर पर अंग्रेजों ने मिशन को साठ बीघे जमीन किले के अंदर और दो सौ बीघे किले के बाहर लिख दिए. (चम्पारण का बीघा डेढ़ एकड़ से अधिक का होता है. कंपनी ने करीब चार सौ एकड़ से अधिक जमीन मिशन के नाम लिख दी थी.)

1790 में बेतिया ईसाई समाज की एक ऐतिहासिक जाति पंचायत बैठी थी जिसमे सबों ने मिलकर यह तय किया कि विवाह और भोजन आदि के लिए वे किसी किस्म के जाति बंधन को नहीं मानेंगे. इस पंचायत ने उनके समाज में आमूल परिवर्तन लाए.

आज बेतिया का ईसाई समाज सही अर्थ में जाति / सम्प्रदाय से मुक्त समाज है. देखने में वे स्थानीय लोगों के सामान लगते हैं,  कभी कभी नेवारी स्टॉक के चलते चेहरे के कुछ चिह्न अलग भी होसकते हैं. पोशाक में वे बिलकुल अभिन्न हैं बस शादी जैसे त्योहारों में वे प्रायः सूट में दिखेंगे. समाज की स्त्रियां 1950 तक लहंगा पहनती थीं अब प्रायः साडी. बेतिया में हिन्दू और मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिक विवाद होते रहे हैं लेकिन ईसाईयों को हिन्दुओं या मुसलमानों के साथ किसी किस्म परेशानी कभी नहीं होती. 

शिक्षा का स्तर ऊँचा है. गरीबी देखने को मिल जाती है किन्तु अधिकाँश लोगों की अच्छी / बहुत अच्छी आजीविका है. आज से करीब सौ वर्ष पहले चम्पारण के गज़ेटियर में लिखा है: ज़िले के सबसे अच्छे बढ़ई और सबसे अच्छे लोहार बेतिया के ईसाइयों में मिलते हैं. उनके बैल या उनकी बैलगाड़ियां जिले में अच्छी मानी जातीं हैं. उनका जीवन स्तर अपने हिन्दू या मुसलमान पड़ोसी के जीवन स्तर से बहुत ऊपर है.

(नोट: व्यक्तिगत रूप से जोसेफ़ मेरी की किताब मुझे बहुत प्रभावशाली नहीं लगी, मैं इसे पूरा नहीं कर सका.  ऐसी रचनाएँ उनके पहले भी आ चुकीं थीं. धर्म प्रचार करने के लिए जेसुइट्स ने भी ऐसा कर रखा है. एक जेसुइट पादरी रोबेर्टो डि नोबिली ने जोसेफ मेरी से करीब सौ साल पहले ऐसी रचनाएँ की थीं. उन्हीं दिनों कुछ जेसुइट्स ने मिलकर एक पुराण भी रच डाला था. लेकिन अभी वे बातें नहीं.)

© सच्चिदानंद सिंह 

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