कुछ लोगों का खयाल है की वाल्मीकि रामायण में राम को मनुष्य के रूप में चित्रित किया गया था और तुलसी ने उसमें अवतारवाद घुसेड़ दिया। यह इस बात का प्रमाण है कि जिन विषयों के बारे में हमें बहुत अच्छी जानकारी होनी चाहिए उनको भी हम कितने सतही रूप में जानते हैं।
आदि कवि ने देव समाज के उस नायक की गाथा गाई थी, जिसने स्थाई कृषि का आरंभ और विस्तार किया था। यह और कोई नहीं, स्वयं अग्निदेव थे, विष्णु ने स्वयं मानव रूप धारण किया था। यहीं नारायण बने थे, वैदिक काल में यही इंद्र बने थे। इसी विष्णु ने राम का अवतार लिया था, यही अग्नि यदि अपने माया रूप को त्याग दें दो इनके भृकुटि विलास से सृष्टि लय हो सकती है। इसलिए रामावतार से भी पहले से, आदि गाथा के समय से ही देववाद और विष्णुवाद घुला रहा है।
असुरों/राक्षसों/दानवों द्वारा जिस यज्ञ का विरोध किया जाता था, वेदी बना कर आग में समिधा डाल कर धुंआ पैदा करने वाला यज्ञ न था। यह वनो और आरण्यक क्षेत्रों को आग लगा कर कृषि के लिए भू विस्तार का यज्ञ (यज्ञेन यज्ञं तनयन्त देवा तानि धर्माणि प्रथमानि आसन्) था, इसकी ही चपेट में राक्षस स्वयं भी आ सकते थे । यह रक्षोहा अग्नि थे। विष्णु राक्षसों का संहार करने के लिए नहीं अवतार लेते हैं, राक्षसों द्वारा भूविस्तार का संगठित हो कर या कूटयुद्ध (गुरिल्ला युद्ध) बढ़ जाने के बाद स्वयं देवोे का काम आसान बनाने को अवतार लेते हैं।
आग को विष्णु इसलिए कहा गया कि यह बहुत तेजी से ‘फैलता’ है। ‘विष’ का अर्थ है तेजी के फैलना - समाहित करना। विश्व समस्त। आग की एक मामूली सी चिनगारी विकराल रूप धारण कर पूरे जंगल को भस्म कर देती है और पहले यदि सारी धरती जंगलों और जांगल क्षेत्रों से भरी थी तो पूरी धरती का सफाया संभव था। परंतु यज्ञ का अपना विज्ञान था। समय का चुनाव, दिशा का ध्यान और इस बात की सावधानी कि यह अधिक इधर उधर न फैले। बाद की पुरोहिती भाषा में इसे तीन दिशाओं से तीन छंदों से बाधने और केवल पूर्व की ओर खुला रखने का रूपक तैयार किया गया है।
[ते प्राञ्चं विष्णुं निपाद्य । च्छन्दोभिरभितः पर्यगृह्णन्गायत्रेण त्वा च्छन्दसा परिगृह्णामीति दक्षिणतस्त्रैष्टुभेन त्वा च्छन्दसा परिगृह्णामीति पश्चाज्जागतेन त्वा च्छन्दसा परिगृह्णामीत्युत्तरतः। ]
इसका अर्थ है इस अभियान का आयोजन पछुआ हवा के समय इस तरह आषाढ़ से ठीक पहले इस तरह किया जाता था कि किसी जल स्थान तक आग रुक जाए या हल्के दबाव का क्षेत्र तैयार होने से बरसात हो जाए और आग बुझ जाए।
विष्णु का काम है रक्षा करना। देव जब भी संकट में पड़ते हैं दौड़ कर विष्णु के पास जाते हैं और वह इन्हें रक्षा का उपाय सुझाते हैं या स्वयं प्रकट होकर समस्या का समाधान करते हैं, या यदि अत्याचार अधिक बढ़ गया हो तो उससे अवतार ले कर उसका निवारण करते हैं। यह उनका माया रूप होता है और इसमें छल-बल से भी काम लिया जाता है।
आदिकवि का नायक वामन, विष्णु का मायावी और छली रूप है । शतपथ ब्रा. में आई जिस कथा का हमने पीछे हवाला दिया है उसको ही मोटे तौर पर आदिकाव्य का सार कहा जा सकता है। शतपथ में कथा आदिकाव्य की रचना के चार पांच हजार साल बाद लिपिबद्ध हुई। उस समय तक वह दंतपरंपरा से चलती आई थी। दंत परंपरा की विशेषता यह कि इसका सार सत्य अनंत काल तक जीवित रहता है और इस मामले में यह लिखित आलेखों - भले वे पत्थर या धीतुपत्र पर ही लिखे गए हों - से अधिक अतिजीवी, व्यापक और ग्राह्य होता है। माध्यम की सीमा के कारण इसके कई रूप हो जाते हैं। यह संभव है बाल्मीकि के समय में भी मूल कथा के कई रूप रहे हों और वाल्मीकि ने उनमें से ही किसी एक को लेकर अपनी कथा रची हो। उनकी कथा की लेकप्रियता के कारण दूसरे गायकों ने अपनी गाथाएं रची हों। रामायण शतकोटि अपारा में यह विविधता भी शामिल हो। हम केवल यह जानते हैं कि ऋघ्वेद में इसे अनेक कथारीपों में पाया जाता ह, जब कि रामायण में इन सभी को एक योजना के भीतर समाहित करने का प्रयत्न किया गया।
इस बात को कभी आंखों से ओझल नहीं होने लेना चाहिए कि “देव और असुर दोनों प्रतापति की संतानें (थीं)। इसका यह अर्थ नहीं कि असुर और राक्षस गणों में अनेक जातीयताओं और संस्कृतियों के लोग नहीं थे, बल्कि यह कि इन विविधताओं के बाद भी उनमें हितों की एक समानता थी - उनकी जीविका का आधार एक था।
प्रजापति का नस्ली अर्थ नहीं लिया जाना चाहिए। इसका अर्थ है, ‘वह’ जो प्रजा का पालन करता हो या जिसकी उपेक्षा से जीवन संकट में पड़ जाए। इसलिए यज्ञ, ऋतुएं, ओषधियां, द्रोणकलश, संवत्सर. वायु, वाणी, सत्य आदि को प्रजापति कहा गया है। कहानी की जरूरत से प्रजापति के मानवीय नाम दे दिए गए। इनकी केवल सांकेतिक अर्थ होता है न कि जैव। अब हम उस गाथा पर द्यान दें जिसे हमने आदि काव्य के निकट माना है।
वेद और असुर दोनों एक ही प्रजापति की दो माताओं (जीविका के साधनों) पर निर्भर संतानें थीं। दोनों संतानों में होड़ लग गई। असुर मानते थे कि सारी धरती उनकी है।
[कृषि के आरंभ से पहले तक दुनिया में सभी प्रकृति पर निर्भर रह कर अपना जीवन यापन करते थे। किसी एक को खाद्य अन्नों (ओषधियों) के बीज एकत्र कर बो कर, उनकी रखवाली करते हुए अभाव के दिनों के संकट से बचने का विचार आया था और उन्होंने जंगल को जलाकर खेती बारी करने का संकल्प लिया जिनको असुर मार कर भगा दिया करते थे। धरती पर और वनस्पतियों अलग से दावा नहीं कर सकते थे। सच कहें तो सौतेले भाई नई सूझ वाले नई सोच वाले लोग ही थे। और इस बात की पूरी संभावना है की इनके उपग्रहों को रोकने के लिए ही घुमक्कड़ जनों ने धरती को बांटकर सुरक्षित करने का संकल्प लिया था।]
“देवों ने सुना कि असुर पूरी दुनिया को आपस में बांट रहे हैं तो उन्होंने समझा कि हमें भी चलकर अपने लिए कुछ जगह मांगनी चाहिए जहां हम खेती करके अपने तरीके से रह सके। वे विष्णु को, या थोडी सी आग लिए उनके पास पहुंचे और कहा, आप लोग धरती का बंटवारा कर रहे है तो हमें भी तो हमारा हिस्सा दें। असुरो ने तिरस्कार पूर्वक कहा, ‘चलो, जितनी जगह विष्णु या इस आग को रहने के लिए चाहिए उतनी तुम्हें दे देंगे। विष्णु ने तो वामन रूप धारण कर रखा था इसलिए वे धोखे में आ गए। देवों ने कहा हमें अधिक की चाह भी नहीं है। यज्ञ की स्थापना के लिए थोडी सी जगह ही हमारे लिए बहुत है। इसके बाद उन्होंने विष्णु को उत्तर, दक्षिण और पश्चिम से क्रमशः गायत्री, त्रिष्टुप, जगती छंदों से बांध दिया। अब अग्नि (विष्णु) को आगे (पूर्व की ओर) रख कर उसकी अर्चना और श्रम करते रहे (और इसने विराट रूप धारण किया और सारी धरती को अपने लपेटे में ले लिया और फिर देवों ने अपने सौतेले भाइयों, असुरो, से कहा कि बंटवारा तो हो गया। अब हमें हमारा हिस्सा सौंप दो।’ जला हुआ भूभाग प्रकृति पर निर्भर करने वाले असुरों के किसी काम का तो रह नहीं गया इसलिए उन्होंने उसे छोड़ दिया या कहें देवों के हिस्से में दे दिया।
“इसके बाद विष्णु थक गया [आग बुझ गई]। सतह पर जलाने को कुछ बचा ही नहीं पर वनस्पतियों की जड़ें सुलगती रहीं, कुछ यू्ं कि आग उन पादपों की जड़ों की ओर उतर गई हो। अब देव (हैरान हो कर) आपस में कानाफूसी करने लगे कि विष्णु को क्या हुआ, वह कहां चला गया। (आग बुझ तो गई पर वह गया कहां?) भाग तो सकता नहीं। फिर वे उसकी खोज करते हुए धरती को खोदने लगे। तीन अंगुल खोदा तो पाया वह ओषधियों की जड़ों में छिपा हुआ था। उन्होंने तीन अंगुल की खुदाई की के बाद उसे पाया था इसलिए यज्ञ की वेदी तीन अंगुल ऊंची होती है। विष्णु को उन्होंने जमीन को खोदने पर पाया था इसलिए इस भेद को समझने के बाद उन्होंनें धरती को खोद कर पोली, सुथरी, स्थायी णावाल के योग्य बनाया, और इस तरह जीवन यापन करने लगे।” शतपथ ब्राह्मण १.२.५.1-११
कथा के इस रूप में न बलि का नाम आया है, न असुरों के गुऱु शुक्राचार्य का, न तीन डगों में धरती को नापने और बलि को पाताल भेजने का। ऋग्वेद में विष्णु के इस कारनामें को एक सूक्त में उसको को लंबे डगों वाला, उरुगाय कहा गया है, और यह भी कहा है कि उन्होंने तीन डगों में इस रूप में रखा गया हैः
अतो देवा अवन्तु नो यतो विष्णुर्विचक्रमे । पृथिव्याः सप्तधामभिः ।। 1.22.16
इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम् । समूळ्हमस्य पांसुरे ।। 1.22.17
त्रणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः । अतो धर्माणि धारयन् ।। 1.22.18
विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे । इन्द्रस्य युज्यः सखा ।। 1.22.19
तद् विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ।। 1.22.20
तद् विप्रासो विपन्यवो जागृवांसः समिन्धते। विष्णोर्यत् परमं पदम् । 1.22.21
पर बलि का नाम इसमें भी नहीं आया है। यह व्यक्तिसूचक हो भी नहीं सकता। गणों में राजा नहीं होता था, इसलिए यह असुरों के संख्या में अधिक और बलवान (भूयांसः च बलीयांसश्च असुराः) का सामूहिक अभिज्ञान है। कवि उशना का भी जिक्र नहीं है। उनके पुत्र उशना काव्य का पाच सात बार आया है पर है बहुत महत्व के साथ।
जिस कथा का प्रचार अधिक है वह बहुुत बाद में गढ़ी गई है। यह किसी चरित्र विशेष की गाथा न हो कर एक उन्नत अर्व्यवस्था की गाथा है। पात्र बदलते हैं, संदर्भ बदलते हैं, कथा का आंतरिक संगीत नहीं बदलता। यह संभव है कि विष्णु और इन्द्र के बीच नारायण के नाम से भी कुछ समय तक गाथाएं गाई जाती रही हों। नारायण के दो अर्थ हैेे - सर्वगामी (वैश्वानर - अघ्नि, सूर्य) और प्रवहमान - जिससे नारायणी का नामकरण हुआ लगता है। इसका गंडकी नाम भैसों और गैंडो की बहुलता के आधार पर पड़ा हो सकता है।
हम पीछे कई संदर्भों में यह बता चुके हैं कि आबादी बढने के बाद नई कृषिभूमि की तलाश में ये कृषिकर्मी नीचे उतरे और नदियों के कछारों में, तालाबों-झीलों के आसपास खेती करते रहे। देवरिया, देवकली. देवार, देवास, देवली, लहुरादेवा जैसे नामों में इसकी स्मृति बची रही। पहले इन्होंने मध्य गंगा घाटी पर अधिकार किया और उसके बाद क्रमशः पश्चिम की ओर बढ़े और सरस्वती, दृषद्वती ओर आपया के इर्वर कछार मेंआज से लगभग 8500 साल पहुंचे। ।
यदि उनके पूर्निवास का नाम सचमुच अयोध्या था तो स्वाभाविक था कि, वे मैदानी भाग में उतरने के बाद, भी कोई वस्ती इसी नाम से बसाते, पर जिस स्थान पर उन्होंने यह बस्ती बसाई वह आज की ही अयोध्या है। रामायण के अनुसार विश्वामित्र राम लक्ष्मण को ले कर चलते हैं तो सरयू नदी अयोध्या से आधे योजन या लगभग छह किलोमीटर की दूरी पर मिलती है जहां वे विश्राम करते हैं ( अभ्यर्धयोजनं गत्वा सरव्यां दक्षिणे तटे) । यदि नदी ने इतनी तेजी से कटाव किए हों तो संभव है प्राचीनतम अयोध्या नदी के गर्भ में चली गई हो। बी.बी.लाल को, अयोध्या की खुदाई में वहां बस्ती के बहुत पुराने प्रमाण नहीं मिले थे।
दूसरी समस्या, सूर्यवंश और सोमवंश से संबंधित है। इसको कृषिकर्म से जोड़कर देखें तो कृषि में पहल करने वाले विष्णु के वंशज, आग का उपयोग करते हुए यज्ञ विस्तार करने वाले। राम का जन्म यज्ञ से होता है, या राम उस वंश परंपरा में आते हैं जिसने अग्नि के सहारे कृषिकर्म आरंभ और उसका प्रसार किया था। विष्णु अग्नि है, यज्ञ है, सूर्य है, तो जिनको इस बात पर गर्व था कि कृषि की दिशा में पहल उन्होंने की थी, वे अपने को सूर्यवंशी मानें. सीधे विवस्वान से अपना संबंध ही न जोड़े -- विवस्वान् के संपर्क में भी रहें - मनु वैवस्वत् ही नहीं हैं, उनसे संपर्क में भी हैं - विवस्वान मनवे प्राह, मनु इक्ष्वाकवे ब्रवीत। राम सूर्यवंशी हैं यह माना, पर चंद्र कैसे हो सकते है। इसका रहस्य मेरे पुराने लेखन में मिलेगा जिसमें मैंने यह सिद्ध करने के प्रमाण दिए हैं कि सोम गन्ना था। सोमयाज और सोमविद्या -मधुविद्या और सर्वमंगल की -जनकल्याण की आकांक्षा से जुडी भावधारा थी। मनु इक्ष्वाकवे ब्रवीत - में दोनों को रास भी आता था। इसकी पेचीदगी में जाने का समय नहीं।
© भगवान सिंह
इतिहास में राम की जगह - प्रस्तावना (2)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/04/2_29.html
#vss
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